जिस तरह भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में तीन जगह कांग्रेस को उलझाया

कांग्रेस हिम्मत नहीं जुटा सकी. जिस तरह भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में तीन जगह कांग्रेस को उलझाया है वैसे ही अगर कांग्रेस हिम्मत करती तो वह भी कुछ जगह भाजपा को उलझा सकती थी। बिहार और झारखंड में कांग्रेस अगर अतिरिक्त उम्मीदवार देती या किसी निर्दलीय को उतार कर समर्थन देती तो भाजपा मुश्किल में फंसती।

झारखंड में भाजपा के कुल 26 विधायक हैं, जिनमें से एक की तबियत खराब है और वे हैदराबाद के अस्पताल में भर्ती हैं। उनका वोट डालना मुश्किल लग रहा है। दूसरे विधायक बाबूलाल मरांडी की सदस्यता खतरे में है और स्पीकर कभी भी उन्हें अयोग्य कर सकते हैं। राज्य में एक सीट जीतने के लिए 27 वोट की जरूरत है। जेएमएम के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को 50 विधायकों का समर्थन है। वहां कांग्रेस चाहती तो पेंच फंसा सकती थी।
इसी तरह बिहार में भाजपा के 77 विधायक हैं और उसे दो सीटें जीतने के लिए 82 वोट चाहिए। अगर जदयू अपने चार वोट उसे दे तब भी एक वोट कम पड़ेगा। दूसरी ओर कांग्रेस, राजद, लेफ्ट और एमआईएम के एक 116 विधायक हैं। राजद के दो उम्मीदवार जीतने के बाद विपक्ष के पास 34 वोट बचेंगे।

जदयू और भाजपा के रिश्ते को देखते हुए और मांझी की नाराजगी को देखते हुए अगर कांग्रेस ने पहल की होती और किसी निर्दलीय को उतारा होता तो वहां भी पेंच फंस सकता था।

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विवेक तन्खा को किस वजह से फिर राज्यसभा जाने का मौका मिला..

विवेक तन्खा को किस वजह से फिर राज्यसभा जाने का मौका मिला. कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के समूह के दो सबसे मुखर सदस्यों- गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को राज्यसभा की सीट नहीं मिली। दो अन्य सदस्यों- मुकुल वासनिक और विवेक तन्खा को मौका मिल गया। वासनिक को इस बात का इनाम मिला कि वे असंतुष्ट नेताओं के खेमे में थे लेकिन उन्होंने उनके प्लान की सूचना समय रहते अहमद पटेल को दे दी थी।

इससे कांग्रेस को मौका मिल गया कि वह उस झटके को झेल जाए। लेकिन सवाल है कि विवेक तन्खा को किस वजह से फिर राज्यसभा जाने का मौका मिला
कांग्रेस के जानकार सूत्रों के मुताबिक इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो कानूनी मजबूरी है। नेहरू-गांधी परिवार के मुकदमों के लिए एक अच्छे और बड़े वकील की जरूरत है। कपिल सिब्बल पार्टी छोड़ कर जा चुके थे। अभिषेक मनु सिंघवी जरूर कांग्रेस के साथ हैं लेकिन वे पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मदद से सांसद बने हैं। वहां भी ममता बनर्जी के परिवार और पार्टी के इतने मुकदमे हैं कि उनको उनसे फुरसत निकालने में मुश्किल होगी।

चिदंबरम अपने मुकदमों में फंसे हैं तो केटीएस तुलसी बड़े मामलों में ज्यादा मददगार नहीं हैं। इसलिए तन्खा को रखने की मजबूरी थी। दूसरे, कमलनाथ ने उनके नाम का समर्थन किया हुआ था। उनकी बात ठुकरा कर कांग्रेस कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी।

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आधार कार्ड को लेकर केंद्र सरकार की नींद अब खुली है

ऐसा लग रहा है कि आधार कार्ड को लेकर केंद्र सरकार की नींद अब खुली है। केंद्र सरकार की ओर से देश के नागरिकों के लिए एक सलाह जारी की गई है कि वे अपने आधार कार्ड की फोटोकॉपी किसी के साथ साझा न करें क्योंकि इसका दुरुपयोग हो सकता है। भारत सरकार की ओर से 27 मई को जारी सलाह में कहा गया है कि लोग मास्क्ड आधार का इस्तेमाल करें, जिसमें सिर्फ आखिरी चार नंबर दिखाई दें। सोचें, अब तक सरकार ने आधार को एक तरह से अनिवार्य किया हुआ था। हर सेवा के लिए आधार देना जरूरी था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार की किसी योजना के रजिस्ट्रेशन से लेकर होटल में बुकिंग तक आधार की फोटोकॉपी दी जा रही थी।

अचानक अब सरकार को लग रहा है कि आधार की फोटोकॉपी नहीं शेयर करनी चाहिए, उसका दुरुपयोग हो सकता है। नागरिक सुरक्षा और निजता के लिए काम करने वाले लोगों ने पहले चेतावनी दी थी। आधार के साथ हर नागरिक का बायोमेट्रिक लिया जाता है। इसलिए भी सबको आशंका थी कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन सरकार ने हर छोटे-बड़े काम में इसका इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ है कि अब तक लगभग हर आधार की अनेक अनेक जगहों पर पहुंच चुकी है। उसकी सूचना के जरिए कोई भी व्यक्ति ई-आधार डाउनलोड कर सकता है। बैंक खातों के साथ आधार को जोड़ा गया है, पैन कार्ड को आधार से जोड़ा गया है, आयकर रिटर्न भरने के लिए आधार अनिवार्य किया गया है और अब वोटर कार्ड से भी इसे जोडऩे की तैयारी हो रही है।

सरकार ने लोगों को ई-आधार डाउनलोड करने के लिए प्रोत्साहित किया था और अब कह रही है कि कैफे या सार्वजनिक कंप्यूटर से ई-आधार नहीं डाउनलोड करें। सोचें, देश में कितने लोगों के पास अपने घर में कंप्यूटर या लैपटॉप और इंटरनेट की सुविधा है, जो वे लोग घर में ई-आधार डाउनलोड करेंगे!

असल में सरकार की यह चेतावनी बड़े खतरे का संकेत है। सरकार को बड़े पैमाने पर दुरुपयोग की जानकारी मिली होगी तभी उसने यह चेतावनी जारी की है।

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कांग्रेस की ओर से कौन बात करेगा?

कांग्रेस में अहमद पटेल की जगह लेने वाले नेता की तलाश पूरी नहीं हुई है। पार्टी अलग अलग नेताओं को आजमा रही है लेकिन किसी एक पर भरोसा नहीं बन रहा है। कोई एक नेता ऐसा नहीं दिख रहा है, जिसका निजी संबंधसंपर्क देश की सभी पार्टियों के बड़े नेताओं से हो।

कांग्रेस की ओर से या कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर तो किसी पार्टी से कोई भी बात कर सकता है। लेकिन उस बातचीत का वांछित नतीजा नहीं निकलेगा। अगर नेता का निजी संबंध विपक्षी पार्टियों के नेताओं और प्रादेशिक क्षत्रपों से हो तो बातचीत बेहतर होती है। इसलिए कांग्रेस में ऐसा नेता खोजा जा रहा है, जो कभी भी फोन उठा कर किसी नेता से बात कर सके और वह नेता उसका सम्मान करे।

कांग्रेस नेताओं का एक धड़ा ऐसा है, जो इस काम के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा को सबसे उपयुक्त मान रहा है। लेकिन परिवार के अंदर के मामले को समझते हुए कोई इसमें हाथ नहीं डालना चाहता है। ध्यान रहे कांग्रेस की एक बैठक में प्रमोद कृष्णम ने प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की मांग की थी तो खुद प्रियंका के इशारे पर दीपेंद्र हुड्डा ने उनको चुप कराया और मल्लिकार्जुन खडग़े ने भी उनको इस तरह की बातें नहीं करने की हिदायत दी। तभी सवाल है कि अगर प्रियंका नहीं करेंगी तो कौन करेगा?

कायदे से यह काम कांग्रेस के संगठन महामंत्री को करना चाहिए लेकिन सबको पता है कि केसी वेणुगोपाल को देश के ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस के ही नेता नहीं जानते हैं तो वे दूसरी पार्टी के नेताओं से क्या बात करेंगे। कमलनाथ यह काम कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपने को पूरी तरह से मध्य प्रदेश में सीमित किया है और अशोक गहलोत भी राजस्थान से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं। सो, ले-देकर कांग्रेस के पास दो नेताओं का विकल्प बचता है।

या तो पी चिदंबरम सभी विपक्षी नेताओं से बात करेंगे या दिग्विजय सिंह। तभी कांग्रेस अध्यक्ष ने हाल में जो तीन कमेटियां बनाई हैं उनमें से एक के अध्यक्ष चिदंबरम हैं और दूसरे के दिग्विजय।

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क्रिकेट में भी राजनीति का संयोग,क्रिकेट आईपीएल का खुमार..

क्रिकेट में भी राजनीति का संयोग. देश पर पिछले करीब दो महीने से तमाशा क्रिकेट आईपीएल का खुमार चढ़ा था, जो अब उतरने वाला है क्योंकि यह टूर्नामेंट अंतिम दौर में पहुंच गया है। इस टूर्नामेंट के अंतिम दौर में पहुंचने के साथ ही एक संयोग की चर्चा सोशल मीडिया में शुरू हुई। देश के एक जाने-माने उद्योगपति और कारोबारी ने इस संयोग का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि टूर्नामेंट खेल रही 10 में से जो छह टीमें बाहर हो गई हैं, वो सारी टीमें गैर भाजपा शासित राज्यों की हैं। लीग स्तर पर जो टीमें बाहर हुईं उनमें दिल्ली, हैदराबाद, मुंबई, चेन्नई, पंजाब और कोलकाता की हैं। इन सभी छह राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं।
जो चार टीमें अंतिम दौर में पहुंचीं उनमें लखनऊ, बेंगलुरू और गुजरात भाजपा शासित राज्यों की हैं और राजस्थान कांग्रेस के शासन वाली। अब गुजरात की टीम फाइनल में पहुंच गई है और उसका फाइनल मुकाबला राजस्थान और बेंगलुरू में से जीतने वाली टीम के साथ होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि अंतिम मुकाबला दोनों भाजपा शासित राज्यों की टीम के बीच होता है या राजस्थान की टीम कुछ कमाल करती है? क्रिकेट में इस तरह के संयोग की चर्चा क्रिकेट के पिछले दो विश्व कप मुकाबलों के समय हुई थी, जब भारतीय टीम हार कर बाहर हुई थी तो कांग्रेस समर्थकों ने प्रचार किया था कि कांग्रेस के शासन में ही दो बार भारत विश्व कप जीता। ध्यान रहे भारत 1983 और 2011 में विश्व कप जीती थी और तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी।

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कांग्रेस के सारे दावेदार एक कमेटी में

कांग्रेस के सारे दावेदार एक कमेटी में. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने नव संकल्प शिविर के संकल्पों को लागू करने के लिए तीन महत्वपूर्ण कमेटियों का गठन किया है। एक कांग्रेस की राजनीतिक मामलों की समिति है। दूसरी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिए बनाई गई टास्क फोर्स है और एक भारत जोड़ो यात्रा के समन्वय की कमेटी है। इसमें चुनाव की तैयारी वाली कमेटी के प्रमुख पी चिदंबरम हैं। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस के राज्यसभा सीट के जितने भी दावेदार हैं सब इसी कमेटी में रख दिए गए हैं। कमेटी के अध्यक्ष पी चिदंबरम की राज्यसभा का कार्यकाल भी खत्म हो रहा है और वे भी दावेदार हैं।
पी चिदंबरम अभी महाराष्ट्र से राज्यसभा सांसद हैं। इस बार अभी तक तय नहीं है कि वे महाराष्ट्र से ही उच्च सदन में जाएंगे या अपने गृह राज्य तमिलनाडु से उनको भेजा जाएगा। ध्यान रहे डीएमके ने इस बार एक सीट कांग्रेस के लिए छोड़ी है। चिदंबरम के कमेटी में दूसरा नाम मुकुल वासनिक का है। वे पिछले 20 साल से पार्टी के महासचिव हैं। पांच साल के लगातार कार्यकाल के बाद पद छोडऩे के नियम के मुताबिक उनको महासचिव पद छोडऩा है। वे काफी अरसे से राज्यसभा में जाने की उम्मीद कर रहे हैं। इस बार संभव है कि उनको अपने गृह प्रदेश महाराष्ट्र से मौका मिले।
चिदंबरम की कमेटी में तीसरा नाम जयराम रमेश का है। वे कर्नाटक से राज्यसभा सांसद हैं। उनका भी कार्यकाल खत्म हो रहा है और वे एक बार फिर कर्नाटक से ही उच्च सदन में भेजे जाने की उम्मीद कर रहे हैं। चिदंबरम की तरह ही रमेश का भी राज्यसभा जाना लगभग पक्का माना जा रहा है। चौथा नाम केसी वेणुगोपाल का है, जो पहले से राज्यसभा में हैं। पांचवा नाम अजय माकन का है। वे पार्टी के महासचिव हैं और राजस्थान के प्रभारी हैं। इस बार वे भी राज्यसभा की उम्मीद कर रहे हैं। हालांकि राजस्थान से पहले ही मनमोहन सिंह और केसी वेणुगोपाल के रूप में दो बाहरी नेता सांसद हैं।
टास्क फोर्स में छठा नाम प्रियंका गांधी वाड्रा का है। वे खुद पता नहीं राज्यसभा सीट चाहती हैं या नहीं लेकिन पार्टी के अनेक नेता और उनके करीबी उनको छत्तीसगढ़ से राज्यसभा भेजना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी ऐसा चाहते हैं। इस कमेटी में सातवां नाम रणदीप सुरजेवाला का है, जो किसी तरह से उच्च सदन में जाने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। उनके गृह प्रदेश हरियाणा में एक सीट कांग्रेस को मिलेगी लेकिन सबको पता है कि अगर पार्टी ने सुरजेवाला को हरियाणा भेजा तो भूपेंदर सिंह हुड्डा का खेमा उनको जीतने नहीं देगा।

इसलिए वे किसी और राज्य से राज्यसभा की सदस्यता के लिए प्रयास कर रहे हैं। आनंद शर्मा एकमात्र दावेदार हैं, जो इस कमेटी में नहीं हैं। उनको राहुल गांधी के साथ राजनीतिक मामलों की कमेटी में रखा गया है।

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कांग्रेस के खिलाफ प्रादेशिक पार्टियों ने मोर्चा खोला है

कांग्रेस के खिलाफ प्रादेशिक पार्टियों ने मोर्चा खोला है. उदयपुर में कांग्रेस के नव संकल्प शिविर के आखिरी दिन अपने समापन भाषण में राहुल गांधी ने प्रादेशिक पार्टियों को लेकर बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि प्रादेशिक पार्टियों के पास कोई विचारधारा नहीं है वे भाजपा को नहीं हरा सकती हैं। इस बयान के बाद कांग्रेस के खिलाफ प्रादेशिक पार्टियों ने मोर्चा खोला है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि इस बयान से पहले ही कांग्रेस ने अपनी क्षेत्रीय सहयोगी पार्टियों से झगड़ा शुरू कर दिया था। एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस का अपने सहयोगियों से विवाद हो रहा है। सहयोगी पार्टियां यूपीए से अलग हो रही हैं या अलग होने की तैयारी कर रही हैं।
बिहार में कांग्रेस का अपनी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से झगड़ा हो गया है और दोनों पार्टियां अलग हो गई हैं। उनका महागठबंधन टूट गया है। विधानसभा की दो सीटों के उपचुनाव में दोनों पार्टियां अलग अलग लड़ीं और फिर 24 सीटों के विधान परिषद चुनाव में भी दोनों में तालमेल नहीं हुआ। अब राज्यसभा की एक सीट पर कांग्रेस का दावा है लेकिन राजद उस पर ध्यान नहीं दे रही है। उसके नेताओं ने दो टूक अंदाज में कहा है कि कांग्रेस और राजद अब अलग अलग हैं। कांग्रेस के कुछ नेता चाहते थे कि राहुल गांधी इस बारे में तेजस्वी यादव से बात करें लेकिन दोनों तरफ से ठंडा रिस्पांस है।
इससे पहले कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस का तालमेल खत्म हो गया है। सोचें, ढाई साल पहले दोनों ने मिल कर सरकार बनाई थी और कांग्रेस ने जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन अब दोनों पार्टियों में लड़ाई हो रही है। दोनों का गठबंधन काफी पहले टूट चुका है और जेडीएस के वोक्कालिगा वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए कांग्रेस ने दिग्गज वोक्कालिगा नेता डीके शिवकुमार को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। ध्यान रहे देवगौड़ा परिवार और शिवकुमार में कभी नहीं बनी है।
इसी तरह राज्यसभा की एक सीट को लेकर झारखंडड में कांग्रेस का झगड़ा जेएमएम से शुरू हो गया है। जेएमएम ने कहा है कि उसके 30 विधायक हैं इसलिए राज्यसभा सीट उसकी है। दो साल पहले जब जेएमएम से शिबू सोरेन चुनाव लड़े थे तब भी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार उतारा था। इस बार फिर कांग्रेस के प्रभारी अविनाश पांडे ने कहा है कि कांग्रेस अपना उम्मीदवार उतारेगी। उधर महाराष्ट्र में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के खिलाफ मोर्चा खोला है। उन्होंने आरोप लगाया है कि पवार और उनकी पार्टी कांग्रेस को कमजोर करने की राजनीति कर रहे हैं।

वे बार बार यह भी कह रहे हैं कि आगे के सारे चुनाव कांग्रेस पार्टी अकेले लड़ेगी। कांग्रेस आलाकमान को इन सभी मामलों में चुप है इसका मतलब है कि उसकी सहमति है।

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एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत भी लागू होगा

एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत भी लागू होगा. कांग्रेस में कूलिंग ऑफ पीरियड का नियम लागू होने के साथ साथ एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत भी लागू होगा। इस नियम से ज्यादा तो नहीं पर दो नेताओं के लिए मुश्किल होगी। रणदीप सुरजेवाला पार्टी महासचिव के नाते कर्नाटक के प्रभारी हैं और कांग्रेस के मीडिया प्रभारी भी हैं। उनका मीडिया प्रभारी का पद पांच साल के बाद कूलिंग ऑफ पीरियड लागू होने के नियम के तहत भी आता है। इसलिए भी कहा जा रहा है कि वे कूलिंग ऑफ या एक व्यक्ति एक पद के नियम के तहत मीडिया प्रभारी का पद छोड़ेंगे। उनके करीबी भी मान रहे हैं कि इससे उनके ऊपर से फोकस हटेगा। अभी मीडिया में ज्यादा दिखने की वजह से पार्टी के बहुत से नेता उनके पीछे पड़े हैं।
एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत के नियम का दूसरा शिकार अधीर रंजन चौधरी होंगे। वे लोकसभा में कांग्रेस के नेता हैं और पश्चिम बंगाल के प्रदेश अध्यक्ष हैं। कांग्रेस उनकी कमान में इस साल का विधानसभा चुनाव लड़ी थी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई थी। तब से उनको हटाने की चर्चा चल रही है। लेकिन वे दोनों पदों पर बने हुए हैं। नव संकल्प शिविर के बाद उनके एक पद छोडऩे की चर्चा तेज हो गई है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस उनसे कौन सा पद लेती है। पार्टी के कई नेता चाह रहे हैं कि अच्छी हिंदी बोलने वाले किसी नेता को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया जाए। अगर इस सुझाव पर अमल होता है तो उनको पश्चिम बंगाल का प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा जाएगा। दूसरी ओर अगर कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी से तालमेल करने या उनको साथ लाने पर विचार करती है तो अधीर चौधरी को बंगाल से हटाना होगा क्योंकि उनके रहते ममता तालमेल नहीं करेंगी।

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प्रतिबंधों का उलटा असर?

प्रतिबंधों का उलटा असर?. रूसी मुद्रा रुबल इस साल अब तक दुनिया में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली मुद्रा साबित हुई है। उधर अनुमान है कि रूस में इस साल रिकॉर्ड व्यापार मुनाफा होगा। तो क्या रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों का उलटा असर हो रहा है?
दो खबरों पर गौर कीजिए। अमेरिकी वेबसाइट ब्लूमबर्ग ने बताया है कि रूसी मुद्रा रुबल इस साल अब तक दुनिया में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली मुद्रा साबित हुई है।

उधर लंदन की मशहूर पत्रिका द इकॉनमिस्ट ने अनुमान लगाया है कि रूस में इस साल रिकॉर्ड व्यापार मुनाफा होगा। तो ये सवाल उठेगा कि क्या रूस पर लगाए गए पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का उलटा असर हो रहा है? एक तरफ प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप पश्चिमी देशों में महंगाई और आर्थिक समस्याएं बढ़ी हैं।

जबकि ऐसा लगता है कि रूसी अर्थव्यवस्था कुछ मामलों में मजबूत हुई है। ब्लूमबर्ग ने कहा है कि रूस ने पूंजी नियंत्रण की नीति अपना कर रुबल को ढहने से बचा लिया है। इस साल के आरंभ में अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुबल का जो भाव था, बीते हफ्ते उसकी कीमत उससे 11 प्रतिशत अधिक थी। दुनिया के किसी अन्य देश की मुद्रा की कीमत इस वर्ष इतनी नहीं बढ़ी। 31 देशों की मुद्राओं के आकलन के आधार पर ब्लूमबर्ग ने ये निष्कर्ष निकाला है।

द इकॉनमिस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि रूस ने हालांकि व्यापार के बारे में हर महीने आंकड़े जारी करना रोक दिया है, लेकिन उससे व्यापार कर रहे देशों के आंकड़ों से संकेत मिला है कि रूस का व्यापार लाभ तेजी से बढ़ रहा है। पिछले नौ मई को चीन ने बताया कि रूस को उसके निर्यात में लगभग 25 प्रतिशत की गिरावट आई है।

लेकिन रूस से आयात 56 प्रतिशत बढ़ा है। मार्च में रूस को जर्मनी के निर्यात में 62 प्रतिशत की गिरावट आई। जबकि रूस से वहां आयात सिर्फ तीन फीसदी घटा। रूस के सबसे बड़े आठ व्यापार सहभागियों के मामले में ऐसा ही रुझान देखा गया है। उनके मुताबिक रूस को हुए निर्यात में जहां 44 फीसदी गिरावट आई है, वहीं रूस से होने वाला आयात आठ प्रतिशत बढ़ा है। रूस पर पश्चिमी देशों ने जब सख्त प्रतिबंध लगाए, तब रुबल की कीमत धड़ाम से गिरी थी।

लेकिन बाद में रूसी सेंट्रल बैंक ने उसे संभाल लिया। सवाल है कि क्या लाभ की यह स्थिति टिकाऊ होगी? ऐसा हुआ, तो पश्चिम के लिए मुश्किल स्थिति खड़ी हो सकती है।

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नीतीश के ट्रैक रिकॉर्ड से भाजपा चिंतित

नीतीश के ट्रैक रिकॉर्ड से भाजपा चिंतित. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भाजपा ने तैयारी शुरू कर दी है। सबसे पहले पार्टी की ओर से जिन नेताओं से संपर्क किया गया है उनमें पहला नाम नीतीश कुमार का है। सवाल है कि नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री हैं फिर भाजपा को उनकी चिंता क्यों करनी चाहिए? ध्यान रहे नीतीश कुमार के पास महज 45 विधायक हैं, जबकि भाजपा 78 विधायकों के साथ बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी है इसके बावजूद उसने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया है।

इसलिए कायदे से उसे नीतीश कुमार की चिंता नहीं करनी चाहिए। लेकिन भाजपा को सबसे ज्यादा चिंता उन्हीं की है।तभी केंद्रीय शिक्षा मंत्री और बिहार के पूर्व प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान को पटना भेजा गया। बिहार प्रदेश भाजपा के नेता इस मामले से दूर रहे। प्रधान ने कोई दो घंटे नीतीश कुमार के साथ बिताए। बताया जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव के बारे में नीतीश से बात की। इस बात भी चर्चा है कि दोनों के बीच नीतीश की भूमिका को लेकर भी बातचीत हुई।

ध्यान रहे पिछले कुछ दिन से यह चर्चा है कि नीतीश बिहार छोड़ कर केंद्रीय भूमिका में जा सकते हैं। उनके एक, अणे मार्ग खाली कर सात, सरकुलर रोड जाने से भी इस चर्चा को बल मिला है।बहरहाल, भाजपा की चिंता का कारण नीतीश कुमार का ट्रैक रिकॉर्ड है। उन्होंने राष्ट्रपति के पिछले दो चुनावों में गठबंधन से अलग हट कर वोट किया। 2012 में राष्ट्रपति चुनाव के समय नीतीश कुमार एनडीए का हिस्सा थे लेकिन उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था।

इसी तरह 2017 के राष्ट्रपति चुनाव के समय वे राजद और कांग्रेस के महागठबंध का हिस्सा थे, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन किया था, जबकि कांग्रेस ने बिहार की दलित नेता मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया था। इसी ट्रैक रिकॉर्ड को लेकर भाजपा चिंतित है।ध्यान रहे नीतीश कुमार ने जब दूसरी बार यानी 2017 में जब महागठबंधन की बजाय एनडीए का समर्थन किया था तभी वे एनडीए में वापस भी लौटे थे।

जुलाई 2017 में ही राष्ट्रपति का चुनाव हुआ, जिसमें उन्होंने कोविंद का समर्थन किया और जुलाई के आखिर में वे एनडीए में लौट गए। इस बार भी कहीं ऐसी कहानी न दोहराई जाए इसलिए भाजपा पहले से घेराबंदी कर रही है। नीतीश को पता है कि उनके पास भले 45 विधायक हैं लेकिन उनके बगैर किसी की सरकार नहीं बनेगी। वे जिधर जाएंगे उधर की सरकार बनेगी। सो, भाजपा को चिंता है कि कहीं 2017 की तरह उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के साथ गठबंधन बदल कर लिया तो राज्य में राजद, कांग्रेस गठबंधन की सरकार बन सकती है और अगला लोकसभा चुनाव मुश्किल हो सकता है।

तभी भाजपा की भागदौड़ राष्ट्रपति चुनाव के लिए नहीं है, बल्कि बिहार की सरकार और आगे की चुनावी संभावना के लिए है।

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मिलावटखोरों को सजा-ए-मौत ही इसका इसका सही जवाब

जल शक्ति अभियान ने प्रत्येक को जल संरक्षण से जोड़ दिया है

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भाजपा ने सौरव गांगुली से अब भी उम्मीद नहीं छोड़ी है?

भाजपा ने सौरव गांगुली से अब भी उम्मीद नहीं छोड़ी है?. भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई के अध्यक्ष सौरव गांगुली पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े जीवित आईकॉन हैं। बंगाल के लोग उनको अपने महान पूर्वजों की श्रेणी में रखते हैं।

तभी भाजपा पिछले कई साल से इस प्रयास में है कि वे पार्टी में शामिल हों और भाजपा का चेहरा बनें। भाजपा का यह प्रयास उस समय से चल रहा है, नरेंद्र मोदी नए नए प्रधानमंत्री बने थे और वरुण गांधी पश्चिम बंगाल में पार्टी के प्रभारी थी। बताया जाता है कि तब यानी 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा सफलता के काफी करीब पहुंच गई थी।

बहरहाल, उस चुनाव में भाजपा के बुरी तरह से हारने और तीन सीटों पर सिमट जाने के बाद उसका प्रयास बंद हो गया था। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के समय प्रयास शुरू हुआ, जो अब भी चल रहा है। इसी प्रयास के तहत केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह दो दिन के बंगाल दौरे पर गए तो दादा यानी सौरव गांगुली से मिलने गए। वे गांगुली के घर गए और उनके परिवार के साथ भोजन किया। दोनों में लंबी बातचीच भी हुई। बाद में कहा गया कि यह शिष्टाचार मुलाकात थी क्योंकि अमित शाह के बेटे जय शाह बीसीसीआई के सचिव हैं और इस नाते गांगुली के सहयोगी हैं।

लेकिन असल में ऐसा नहीं है। असल में यह अगले लोकसभा चुनाव से पहले की भाजपा की तैयारियों का हिस्सा है। भाजपा को पता है कि इस बार ममता बनर्जी जिस अंदाज में चुनाव जीती हैं और अगले लोकसभा चुनाव की वे जैसी तैयारी कर रही हैं उसमें भाजपा के लिए अपनी जीती हुई 18 सीटें बचानी मुश्किल होगी। भाजपा अपनी सीटें तभी बचा पाएगी, जब वह बंगाली अस्मिता का ममता से बड़ा दांव खेले। वह दांव सिर्फ सौरव गांगुली का चेहरा हो सकता है। लेकिन क्या गांगुली इसके लिए तैयार होंगे?

पिछले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने बड़ी कोशिश की थी कि वे किसी तरह से पार्टी में शामिल हो जाएं। बाद में यह प्रयास भी हुआ कि वे भाजपा के किसी मंच पर आएं या प्रधानमंत्री, गृह मंत्री से सार्वजनिक मुलाकात हो। लेकिन वे इससे बचते रहे। यह संयोग था कि उसी समय गांगुली को सीने में दर्द की शिकायत हो गई और वे अस्पताल में भर्ती हो गए। चुनाव से ठीक पहले उनकी एंजिप्लास्टी हुई, जिस वजह से उनको सक्रिय राजनीति में लाने का प्रयास भाजपा को रोकना पड़ा। अब नए सिरे से भाजपा यह प्रयास कर रही है। गांगुली का पहला प्यार क्रिकेट है। वे उसे छोडऩा नहीं चाहते हैं।

राजनीति में भी उनके और उनके परिवार की पसंद सीपीएम रही है, इस नाते भी भाजपा से उनकी दूरी समझ में आती है। सक्रिय राजनीति में आने से ममता बनर्जी से पंगा बढ़ेगा और यह भी उनका परिवार नहीं चाहता है।

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झारखंड कांग्रेस की पालकी ढोने की मजबूरी

झारखंड कांग्रेस की पालकी ढोने की मजबूरी. झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार कांग्रेस के समर्थन से चल रही है। कांग्रेस के 16 जीते हुए विधायक हैं और दो विधायक बाबूलाल मरांडी की पार्टी छोड़ कर आए थे, जिनमें से एक बंधु तिर्की की सदस्यता खत्म हो गई है। फिर भी कांग्रेस के 17 विधायक हैं और इसके दम पर कांग्रेस को कमांडिंग पोजिशन में होना चाहिए था। लेकिन हैरानी की बात है कि सरकार में कोई महत्व नहीं मिलने के बावजूद कांग्रेस पार्टी सरकार की पालकी ढो रही है। एक विधायक वाली राजद का एक मंत्री है और 16 विधायक वाली कांग्रेस के चार मंत्री हैं। लेकिन मंत्रियों को स्वतंत्र रूप से काम करने की कोई आजादी नहीं है।

राज्य सरकार कई तरह के आरोपों में फंसी है। मुख्यमंत्री के नाम से पत्थर माइंस की लीज की गई थी, जिसे लेकर चुनाव आयोग ने नोटिस जारी किया है। मुख्यमंत्री के विधायक भाई और पत्नी के ऊपर माइंस और जमीन लेने के आरोप हैं। मुख्यमंत्रियों के करीबियों के खिलाफ जांच चल रही है और फर्जी कंपनियों को लेकर हाई कोर्ट ने आदेश दिया है। इसके बावजूद सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिए कांग्रेस कुछ नहीं कर रही है। कांग्रेस की ओर से कई बार साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाने और एक कोऑर्डिनेशन कमेटी बनाने की मांग की गई लेकिन मुख्यमंत्री ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया।

मुख्यमंत्री कांग्रेस के समर्थन को फॉर गारंटेड मान कर चल रहे हैं। वे प्रदेश के हाई प्रोफाइल प्रभारी को भी कोई खास तवज्जो नहीं देते। प्रभारी ने दबाव बनाने के लिए कांग्रेस विधायकों को निर्देश दिया था कि वे सीएम से सीधे बात न करें लेकिन यह दबाव भी काम नहीं आया। बताया जा रहा है कि कांग्रेस के अनेक विधायक मुख्यमंत्री के संपर्क में हैं और अगला चुनाव झारखंड मुक्ति मोर्चा की टिकट से लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। कुछ विधायक भाजपा के संपर्क में हैं और चुनाव कमल के निशान पर लड़ेंगे।

ऐसे में कांग्रेस के पास कुछ नहीं बचेगा। कांग्रेस के मजबूरी में सरकार की पालकी ढोने की वजह से पार्टी को बड़ा नुकसान होने का अंदेशा है। कांग्रेस अपना आधार गंवा रही है, जिससे वह बिहार, उत्तर प्रदेश वाली स्थिति में जा सकती है।

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मरुस्थलीकरण का नतीजा दुनिया की करीब आधी आबादी पर असर डाल रहा है

मरुस्थलीकरण का नतीजा दुनिया की करीब आधी आबादी पर असर डाल रहा है। आशंका है कि आने वाले दशकों में सब-सहारा अफ्रीका समेत दुनिया के कई हिस्सों में हालात और ज्यादा बिगड़ेंगे। हालांकि ये बात राहत बंधाने वाली है कि अभी इतनी भी देर नहीं हुई है, जिससे हालात सुधारे न जा सकें।ये रिपोर्ट सारी दुनिया के लिए बेहद अहम है।

इसलिए कि यह जिन हालात पर से परदा हटाती है, वैसे स्थितियां लगभग हर जगह बन रही हैं। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक चरागाहों का बनना, बेशुमार खेती, जंगलों की कटाई और शहरीकरण के कारण पृथ्वी की 40 फीसदी जमीन की दशा खराब हो चुकी है। मरुस्थलीकरण के खिलाफ काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इसका नतीजा दुनिया की करीब आधी आबादी पर असर डाल रहा है।

आशंका है कि आने वाले दशकों में सब-सहारा अफ्रीका समेत दुनिया के कई हिस्सों में हालात अभी से और ज्यादा बिगड़ेंगे। हालांकि रिपोर्ट का यह निष्कर्ष राहत बंधाने वाला है कि अभी इतनी भी देर नहीं हुई है जिससे हालात सुधारे न जा सकें। यानी बंजर, सूखी जमीनों पर हरियाली लौटाई न जा सके।रिपोर्ट में उन सारे उपायों का भी जिक्र है, जिन्हें बुरकिना फासो से लेकर मालावी तक आजमाया जा रहा है। यूनाइटेड नेशन कंवेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन की रिपोर्ट में अफ्रीका के हाल की विस्तार से चर्चा है। कुछ बातों पर गौर करें।

जमीन की दशा खराब होने से मतलब है उसकी मिट्टी, पानी या जैव विविधता में लगातार कमी आ रही है।इसके कई कारण हैं। इसमें जंगलों की कटाई से लेकर खेती में कीटनाशकों और उर्वरकों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तन के कारण आए दिन मौसमों के मिजाज की बढ़ती उग्रता शामिल है।

दक्षिण अफ्रीका के पूर्वी तटों पर इसी साल अप्रैल महीने में अभूतपूर्व बारिश के कारण आई अचानक बाढ़ में न सिर्फ फसलें बह गईं, बल्कि कई जगहों पर गड्ढे बन गए। भूस्खलन हुआ, सैकड़ों घर और सड़कें टूटीं और 430 लोगों की जान चली गई। केन्या के पहाड़ी जंगल देश के वाटर टावर कहे जाते हैं। लेकिन इमारती लकड़ी, चारकोल और कृषि के विस्तार के कारण इनकी अंधाधुंध कटाई ने नदियों में पानी का बहाव कम कर दिया है।

नतीजा- खेती की जमीनों को सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है। स्वस्थ जमीन को खोने से खाद्य असुरक्षा बढ़ती है। साथ ही जंगलों के नुकसान से समुदाय सूखा, बाढ़ और जंगल की आग जैसे मौसमी आपदाओं के शिकार बनते हैं।जमीन का नुकसान होने पर फसलों की पैदावार घट जाती है।

इसका नतीजा कई समुदायों को गरीबी के दलदल में धकेल देता है। उसके बाद जमीन की गुणवत्ता घटती है और पानी की कमी और बढ़ जाती है।

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नया वैरिएंट आया, तो वह पुराने टीकाकरण को बेअसर कर सकता है

नया वैरिएंट आया, तो वह पुराने टीकाकरण को बेअसर कर सकता है. सिद्धांत तो ठीक है..यही मुद्दा है। विशेषज्ञों की राय यह है कि अगर सभी लोगों का टीकाकरण नहीं हुआ, तो वायरस के नए वैरिएंट पैदा करने की गुंजाइश बनी रहेगी। नया वैरिएंट आया, तो वह पुराने टीकाकरण को बेअसर कर सकता है। इसलिए सबको टीका लगाना जरूरी है। दुनिया भर में इस मुद्दे पर बहस चल रही है।

सुप्रीम कोर्ट का यह व्यवस्था देना कि किसी के शरीर का बिना उसकी सहमति के उल्लंघन नहीं किया जा सकता, निजी स्वतंत्रता की आधुनिक धारणा के अनुरूप है। लेकिन जिस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा, उस पर जरूर बहस की गुंजाइश है। आखिर निजी स्वतंत्रता और बड़े सामाजिक उद्देश्यों के बीच उचित तालमेल बनाना किसी समाज के सामने चुनौती होती है। इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता है। ख्याल करने की बात यह होती है कि एक उद्देश्य को पूरा करने की फिक्र में कहीं दूसरे उद्देश्य का उल्लंघन ना हो जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी को भी कोविड टीका लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि कुछ राज्य सरकारों और संस्थाओं के कोविड टीका नहीं लगवाने वाले लोगों पर सार्वजनिक स्थानों तक पहुंच को लेकर लगाई शर्तें सही नहीं हैं। वैसे कोर्ट ने सरकार की कोविड टीकाकरण नीति को सही ठहराया और कहा कि देश में जिस तरह से कोरोना वायरस का खतरा पैदा हुआ था, उस स्थिति में वैक्सीनेशन की नीति ठीक थी। लेकिन यही मुद्दा है।

विशेषज्ञों की राय यह है कि अगर सभी लोगों का टीकाकरण नहीं हुआ, तो वायरस के नए वैरिएंट पैदा करने की गुंजाइश बनी रहेगी। नया वैरिएंट आया, तो वह पुराने टीकाकरण को बेअसर कर सकता है। इसलिए सबको टीका लगाना जरूरी है। दुनिया भर में इस मुद्दे पर बहस चल रही है। टीका विरोधियों का एक बड़ा समूह अलग-अलग देशों में सामने आया है। ये कहना मुश्किल है कि इन समूहों के पास वैज्ञानिक तथ्य और तर्क हैँ। इसलिए अपेक्षित यह था कि कोर्ट विज्ञान सम्मत राय देता।

बहरहाल, जस्टिस एल नागेश्वर राव और बीआर गवई की बेंच ने उस याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें कहा गया था कि टीकाकरण को लाभ या सेवाओं तक पहुंचने की शर्त बनाना नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन है। इसलिए यह असंवैधानिक है। तो फिर अगर इस तर्क को आगे बढ़ाआ जाए, तो फिर किसी भी व्यक्ति के बायोमेट्रिक डेटा को बिना उसकी सहमति से जुटाना क्या संवैधानिक कहा जाएगा? क्या किसी व्यक्ति के जबरन डीएनए टेस्ट या सीसीटीवी कैमरों के जरिए लगातार निगरानी को सही माना जाएगा?

इन मामलों पर कोर्ट का अलग नजरिया सामने आया है। ऐसे में ताजा फैसले पर सवाल उठाने की पूरी गुंजाइश बनी हुई है।

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केजरीवाल सीआर पाटिल को बाहरी बता कर फंसे  

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने विवादित बयानों के लिए मशहूर रहे हैं। एक जमाने में उन्होंने देश के तमाम नेताओं को भ्रष्ट बताया था और बाद में बारी बारी सबसे माफी मांगी थी। कई नेताओं से तो उन्होंने लिखित माफी मांगी। लेकिन वे जानते हैं कि बाद में मांगी गई माफी किसी को याद नहीं रहती है।

लोग पहले कही गई बात को ही याद रखते हैं। अपनी इस सोच में उन्होंने गुजरात भाजपा के अध्यक्ष सीआर पाटिल पर हमला बोला और कहा कि वे महाराष्ट्र के रहने वाले हैं। उन्होंने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा कि भाजपा को गुजरात चलाने के लिए एक गुजराती नहीं मिला।
सोचें, इस बात का क्या मतलब है? यह सही है कि सीआर पाटिल का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था लेकिन वे अब गुजरात में रहते हैं और नवसारी सीट से तीसरी बार रिकॉर्ड अंतर से लोकसभा का चुनाव जीते हैं।

महाराष्ट्र में जन्म लेने की वजह से अगर सीआर पाटिल का गुजरात का अध्यक्ष बनना गलत है तो हरियाणा में जन्मे और पले-बढ़े अरविंद केजरीवाल का दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना कैसे सही होगा? केजरीवाल का जन्म हरियाणा के भिवानी में हुआ और पढ़ाई हिसार व सोनीपत में हुई। उनकी पार्टी बड़े शान से उनको हरियाणा का बेटा बता कर हरियाणा में अपना प्रचार करती है। इसके बावजूद वे दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में जन्मे मनीष सिसोदिया दिल्ली के उप मुख्यमंत्री हैं।

दिल्ली के रहने वाले और दिल्ली से ही विधायक रहे राघव चड्ढा को अभी केजरीवाल ने पंजाब से राज्यसभा में भेजा है। इसके बावजूद वे गुजरात में जाकर क्षेत्रवाद की बात कर रहे हैं।

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शिव सेना को सताने लगी मनसे की चिंता

शिव सेना को सताने लगी मनसे की चिंता. कोई डेढ़ दशक तक राजनीतिक बियाबान में भटकने के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता राज ठाकरे फिर से चर्चा में हैं। भाजपा और शिव सेना का तालमेल टूटने के बाद से ही भाजपा के नेता उनको अपने साथ मिलाने की कोशिश में लगे थे। अब जाकर उनको कामयाबी मिली है। भाजपा और मनसे के बीच राजनीतिक साझीदारी बन रही है और इससे शिव सेना की चिंता बढ़ी है।

अगर ऐसा नहीं होता तो पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे से लेकर सांसद संजय राउत तक को राज ठाकरे पर बयान देने की जरूरत नहीं होती। उद्धव ठाकरे ने अपने चचेरे भाई राज ठाकरे पर बहुत तीखा हमला किया है। उन्होंने कहा है कि बाला साहेब ठाकरे जैसे कपडे पहन कर कोई बाला साहेब नहीं बन जाता है। उद्धव ने कहा है कि राज ठाकरे भाजपा की डी टीम हैं।

उनकी हनुमान चालीसा की राजनीति पर हमला करते हुए संजय राउत ने कहा है कि शिव सेना के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी सरकार इस मामले को जिस तरह से संभाल रही है, अगर बाला साहेब होते तो इसकी तारीफ करते। राज ठाकरे की सक्रियता से एक तरह से फिर से बाला साहेब की विरासत पर दावेदारी की जंग छिड़ गई है। राज ठाकरे पांच मई को अयोध्या जा रहे हैं, जहां वे रामलला के दर्शन करेंगे और लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात करेंगे।

उनके अयोध्या जाने के फैसले से शिव सेना में चिंता बढ़ी है। अब तक उद्धव ठाकरे अयोध्या जाते थे और 30 साल पहले हुए बाबरी विध्वंस में शिव सैनिकों की भूमिका का श्रेय लेते थे। लेकिन राज ठाकरे भी अब यह श्रेय लेंगे क्योंकि तब वे भी शिव सेना में ही थे और उस समय उनको ही बाल ठाकरे का उत्तराधिकारी माना जाता था। वहां से लौटने के बाद वे भाजपा के साथ तालमेल पर फैसला करेंगे।

अगर दोनों पार्टियों में आधिकारिक रूप से तालमेल होता है तो कट्टर हिंदू वोटर शिव सेना से दूर जा सकता है। वैसे भी वह कांग्रेस और एनसीपी से तालमेल की वजह से नाराज है।

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कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला चिंतन शिविर में

कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला चिंतन शिविर में . पिछले 20-25 साल में कांग्रेस के कई अधिवेशन और चिंतन शिविर हुए लेकिन उनमें क्या फैसला हुआ और क्या लागू हुआ यह कांग्रेस नेताओं को भी अंदाजा नहीं होगा। अब भी ले-देकर पचमढ़ी और शिमला अधिवेशन की चर्चा होती है। इसलिए यह उम्मीद करना बेमानी है कि मई में उदयपुर में होने वाले चिंतन शिविर में कांग्रेस कोई ऐतिहासिक फैसला करेगी और वहां से जीत की ओर प्रस्थान करेगी।

वह भी रूटीन का एक सम्मेलन होगा, जैसा 2013 में जयपुर में हुआ था। लेकिन इस बार खास बात यह होगी कि इसमें कांग्रेस के नए अध्यक्ष का फैसला होगा। कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव अगस्त-सितंबर में होने वाला है। उससे ठीक पहले मई के मध्य में हो रहे चिंतन शिविर में कांग्रेस के नए अध्यक्ष के नाम पर विचार होगा। कोई वैचारिक लाइन तय करने या वैकल्पिक एजेंडा बनाने की बजाय कांग्रेस के नेताओं की ज्यादा दिलचस्पी नए अध्यक्ष का नाम तय कराने में है।

बताया जा रहा है कि चिंतन शिविर की मेजबानी कर रहे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इस लाइन पर काम कर रहे हैं। जानकार सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के चार सौ महत्वपूर्ण नेताओं की मौजूदगी में वे राहुल गांधी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रख सकते हैं। ध्यान रहे वे पहले भी कांग्रेस कार्य समिति की बैठकों में यह बात कहते रहे हैं।कांग्रेस के जानकार सूत्रों के मुताबिक चिंतन शिविर में राहुल गांधी के नाम पर सहमति बनाने का प्रयास होगा।

अलग अलग राज्य कमेटियां भी उनके नाम का प्रस्ताव कर सकती हैं। यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की ओर से दिए सुझावों पर भी इसमें चर्चा होगी। लेकिन वह चर्चा दिखावे की होगी क्योंकि कांग्रेस में यह तय कराने की कवायद चल रही है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया जाए, जबकि प्रशांत किशोर ने अपने तीन फॉर्मूलों में से किसी में भी राहुल को अध्यक्ष बनाने का सुझाव नहीं दिया था।प्रशांत किशोर के सुझावों में पहला यह था कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहें, राहुल गांधी को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया जाए, प्रियंका गांधी वाड्रा संगठन महासचिव बनें और कांग्रेस छोड़ कर गए किसी सहयोगी नेता को यूपीए का अध्यक्ष बनाया जाए।

दूसरा सुझाव था कि नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बने, सोनिया यूपीए अध्यक्ष बनें, राहुल संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष और प्रियंका संगठन महासचिव बनें। तीसरा प्रस्ताव प्रियंका गांधी वाड्रा को अध्यक्ष बनाने का था। जाहिर वे राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन उनके सुझावों के उलट कांग्रेस हर हाल में राहुल को अध्यक्ष बनाने पर अड़ी है। इस पर चिंतन शिविर में मुहर लग सकती है।

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कांग्रेस ने भी शुरू की चुनावी तैयारी

कांग्रेस ने भी शुरू की चुनावी तैयारी. भारतीय जनता पार्टी एक चुनाव खत्म होने के साथ ही दूसरे चुनाव की तैयारी में जुट जाती है। तभी उत्तर प्रदेश और पांच राज्यों के चुनाव खत्म होते ही भाजपा के नेता उन राज्यों में चुनाव की तैयारी में जुट गए, जहां इस साल के अंत में या अगले साल चुनाव होने वाले हैं। अमित शाह ने नतीजों का भी इंतजार नहीं किया और त्रिपुरा गए। नरेंद्र मोदी ने नतीजों के तुरंत बाद गुजरात में रोड शो किया।

नतीजों के साथ ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक गुजरात में हुई। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा अपने गृह राज्य हिमाचल प्रदेश के दौरे पर गए और आम आदमी पार्टी के लगभग पूरे संगठन को भाजपा में शामिल करा लिया। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई को दिल्ली बुलाया गया और राजकाज पर ध्यान देने की नसीहत दी गई।भाजपा से उलट कांग्रेस का चुनाव अभियान आमतौर पर चुनाव की घोषणा के बाद ही शुरू होता रहा है।

लेकिन इस बार कांग्रेस ने भी पांच राज्यों में चुनाव हारने के तुरंत बाद अगले एक साल में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट गई। राहुल गांधी कर्नाटक गए और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार व पूर्व अध्यक्ष सिद्धरमैया को साथ लेकर एकजुटता का संदेश दिया। उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक कार्यक्रम में पार्टी के लिए अगले साल के चुनाव में डेढ़ सौ सीट जीतने का लक्ष्य तय किया। कर्नाटक में कांग्रेस ने एक साल पहले चुनाव का बिगुल बजा दिया है।इसी तरह गुजरात की तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। हार्दिक पटेल के चुनाव लडऩे पर लगी रोक हटने के बाद कांग्रेस का उत्साह बढ़ा है।

सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दो साल की सजा पर रोक लगा दी है, जिसके बाद उनके चुनाव लडऩे का रास्ता साफ हो गया है। हार्दिक पटेल के अलावा कांग्रेस पार्टी लेउवा पटेल समुदाय के नेता नरेश पटेल को भी पार्टी में शामिल कराने के प्रयास में है। हालांकि भाजपा के पटेल मुख्यमंत्री के मुकाबले हार्दिक या नरेश पटेल प्रदेश की इस ताकतवर जाति को कितना कांग्रेस के साथ जोड़ पाएंगे, यह नहीं कहा जा सकता। जो हो कांग्रेस गुजरात में भी चुनाव की तैयारियों में लगी है।

ऐसे ही हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस की चुनावी तैयारियां शुरू हो गई हैं। पिछले दिनों हिमाचल कांग्रेस के नेता दिल्ली में राहुल गांधी से मिले और चुनावी तैयारियों पर चर्चा हुई। वीरभद्र सिंह के निधन की वजह से पार्टी को वहां नया नेतृत्व आगे करने की चुनौती है। उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह को कुछ अहम जिम्मेदारी मिल सकती है। पार्टी कोई एक चेहरा आगे नहीं करेगी लेकिन मुकेश अग्निहोत्री, सुखविंदर सिंह सुक्खु, कौल सिंह ठाकुर आदि नेताओं की सामूहिक कमान बनाई जा रही है।

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विधान परिषद चुनाव सपा के लिए सोचने का समय

विधान परिषद चुनाव सपा के लिए सोचने का समय. यह सही है कि विधान परिषद के चुनाव प्रदेश के मतदाताओं का मूड नहीं बताते हैं। चुने हुए प्रतिनिधियों के वोट से होने वाला एमएलसी का चुनाव धनबल और बाहुबल से लड़ा जाता है। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि भाजपा के नौ उम्मीदवार बिना चुनाव लड़े ही जीत जाएं।

36 में से नौ सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार निर्विरोध चुनाव जीते और बाकी 27 सीटों पर चुनाव हुआ। सवाल है कि क्या समाजवादी पार्टी के पास ऐसे उम्मीदवारों की कमी है, जो धनबल और बाहुबल लगा कर चुनाव नहीं लड़ सकते? बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले राजद ने ऐसे उम्मीदवार उतारे और छह सीटों पर जीत दर्ज की।

राज्य की 24 में से छह सीटों पर राजद जीता, तीन सीटों पर उसके बागी जीते और दो सीटों पर राजद का उम्मीदवार सात व 17 वोट से हारा।बिहार के उलट उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया। नौ सीटों पर उसके उम्मीदवार लड़े ही नहीं। बाकी 27 में से सिर्फ दो सीटों पर सपा उम्मीदवार को एक हजार से ज्यादा वोट आया। बाकी सभी सीटों पर उसके उम्मीदवारों को पांच सौ के आसपास या उससे कम कम वोट मिले। एक हजार से ज्यादा वोट हासिल करने वाले दो उम्मीदवारों में एक शिल्पी प्रजापति हैं, जो पूर्व मंत्री गायत्री प्रजापति की बहू हैं और दूसरे डॉक्टर कफील खान हैं।

पार्टी से इतर डॉक्टर कफील खान की अपनी लोकप्रियता है, जिसके दम पर उनको अच्छा वोट मिला। पार्टी के तमाम बड़े नेताओं और अखिलश के करीबियों ने भी बहुत खराब प्रदर्शन किया। एक तरह से सबने सरेंडर कर दिया। पार्टी को इस बारे में गंभीरता से विचार करना होगा। अगर पार्टी और उसके बड़े नेताओं के हौसले इस तरह से पस्त होंगे तो आगे चुनाव लडऩा और मुश्किल होता जाएगा।

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मानसिक अवसाद व विभिन्न वजहों से जूझने वाले छात्रों की फिक्र कहां?

मानसिक अवसाद व विभिन्न वजहों से भारत में हर साल छात्र आत्महत्या कर रहें  हैं। ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की गई। कुछ संस्थानों ने मानसिक अवसाद से जूझने वाले छात्रों की काउंसलिंग के लिए केंद्र खोले हैँ। लेकिन उसका खास फायदा नहीं नजर आ रहा है।कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च के एक छात्र की रहस्यमय हालात में मौत ने एक बार फिर उच्च शिक्षा क्षेत्र में जारी समस्याओं की तरफ ध्यान खींचा है। लगातार बढ़ती ऐसी घटनाओं से साफ है कि उच्च शिक्षा क्षेत्र में कहीं कोई गड़बड़ी है। दुखद यह है कि ऐसे किसी मामले के सामने आने पर दो-चार दिन चर्चा होती है। फिर सब कुछ जस का तस हो जाता है। गौरतलब है कि कोलकाता में शुभदीप राय के पहले बीते महीने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र संजय पटेल ने आत्महत्या की थी। उससे पहले पिछले जुलाई में आईआईटी- चेन्नई के शोध छात्र उन्नीकृष्णन का शव परिसर के भीतर जली हुई हालत में बरामद किया गया था। ऐसी घटनाओं की सूची काफी लंबी है। कोलकाता के छात्र ने अपनी डायरी में अपने गाइड की आलोचना करते हुए लिखा था कि वे किसी तरह का सहयोग नहीं करते और खुद कुछ लिखते-पढ़ते नहीं हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल विभिन्न वजहों से हजारों छात्र आत्महत्या कर लेते हैं।ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की गई। कुछ संस्थानों ने मानसिक अवसाद से जूझने वाले छात्रों की काउंसलिंग के लिए केंद्र खोले हैँ। लेकिन उसका खास फायदा नहीं नजर आ रहा है। अफसोसनाक यह है कि ऐसी हर घटना के बाद लीपापोती का प्रयास तेज हो जाता है। ज्यादातर मामलों को मानसिक अवसाद की आड़ में दबा दिया जाता है। लेकिन मूल कारणों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। यही वजह है कि ऐसे मामले थमने की बजाय बढ़ते ही रहे हैं। जबकि शिकायत यह है कि ज्यादातर मशहूर संस्थानों में दाखिले के कुछ साल बाद ही संस्थान और प्रोफेसरों के रुख के कारण शोध छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगते हैं। देश में शिक्षण संस्थानों में जड़ें जमा चुकी इन गड़बडिय़ों के कारण ही हर साल भारी तादाद में शोध छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं। लेकिन सबके पास इतना सामर्थ्य नहीं होता। नतीजतन उनके पास देश में ही शोध करने का विकल्प बचता है। और यहां हालात अवसाद पैदा करने वाले हैँ। जबकि शिक्षाविद ये बात बार-बार कह चुके हैं कि शिक्षण संस्थानों में खासकर शोध के क्षेत्र में मौजूद गड़बडिय़ों को दूर करने की दिशा में ठोस पहल करनी होगी। क्या अब ऐसा होगा?

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प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स बना लेकिन वह विफल रहा

प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स बना था। लेकिन वह विफल रहा। उसका बहुत घातक परिणाम दुनिया को झेलना पड़ा। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद को शामिल किया गया। प्रावधान किया गया कि दुनिया की पांच बड़ी शक्तियों को इसमें वीटो का अधिकार होगा।पहले संदर्भ पर गौर करें। संयुक्त राष्ट्र का गठन दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ। इसका प्राथमिक उद्देश्य था दुनिया में फिर दूसरे विश्व युद्ध जैसी हालत पैदा ना हो, उसे सुनिश्चित करना। प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स बना था। लेकिन वह विफल रहा।

उसका बहुत घातक परिणाम दुनिया को झेलना पड़ा। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद को शामिल किया गया। प्रावधान किया गया कि दुनिया की पांच बड़ी शक्तियों को इसमें वीटो का अधिकार होगा। इन शक्तियों के बीच संतुलन पर विश्व शांति टिकी है- यह बात आज भी उतना ही सच है। लेकिन अब पश्चिमी देशों ने संयुक्त राष्ट्रों में हेरफेर शुरू कर दी है। अमेरिकी अधिकारी रूस को सुरक्षा परिषद से निकालने तक की बात कह चुके हैँ।

शुरुआत के तौर पर रूस को संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद से निकालने का प्रस्ताव लाया गया, जो पारित हो गया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में 193 सदस्य देशों में से 93 ने ही प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया। लेकिन प्रावधान यह है कि मतदान करने वाले कुछ सदस्यों का दो तिहाई अगर पक्ष में हो, तो प्रस्ताव पारित हो जाएगा।विरोध में सिर्फ 24 देशों ने मतदान किया। 58 सदस्यों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। 19 सदस्य देश इस मौके पर उपस्थित ही नहीं हुए। मगर तकनीकी तौर पर प्रस्ताव को दो तिहाई समर्थन मिल गया और रूस की सदस्यता के निलंबन पर मुहर लग गई। इसे पश्चिमी देश अपनी जीत समझ सकते हैँ।

लेकिन हकीकत यह है कि 100 देशों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे दुस्साहस में निहित खतरे की बेहतर समझ दिखाई। उन देशों ने समझा कि इस प्रस्ताव के जरिए जो किया जा रहा है, वह एक गलत शुरुआत है, जिसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैँ। पश्चिमी देशों पर इस पर भी गौर करना चाहिए कि इसके पहले जब महासभा में रूस के खिलाफ प्रस्ताव आए थे, तब 141 और 140 सदस्यों ने रूस के खिलाफ वोट किया था। इस बार ये संख्या घट कर सिर्फ 93 रह गई।

मानवाधिकार परिषद में 47 सदस्य हैं। रूस अपनी तीन साल की सदस्यता के दूसरे साल में था। वहां अब रूस के ना रहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मगर पश्चिमी देशों की सरकारों को अपनी जनता को यह समझाने में मदद मिलेगी, दुनिया उनके साथ है।

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कोरोना के मामलों में देश भर में आई गिरावट

कोरोना के मामलों में देश भर में आई गिरावट.दो साल से कोरोना के साये में सख्तियों के बीच जीने को मजबूर देशवासियों को थोड़ी और राहत मिली है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और वित्तीय राजधानी मुंबई में अब मुंह पर मास्क लगाए रखना अनिवार्य नहीं रहा। दिल्ली में मास्क न लगाने वालों पर अब जुर्माना नहीं लगाया जाएगा। महाराष्ट्र सरकार ने भी 2 अप्रैल से कोविड संबंधी सारी पाबंदियां खत्म करने का एलान किया है। पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, कर्नाटक जैसे कई अन्य राज्यों में या तो पाबंदियां पूरी तरह हटा ली गई हैं या उनमें कमी लाई गई है या उस पर गंभीरता से विचार करने की बात कही गई है।

जाहिर है, इसके पीछे कोरोना के मामलों में देश भर में आई गिरावट है। रोज सामने आने वाले नए मामलों की संख्या अब बारह से साढ़े बारह सौ के बीच आ गई है। देश में कोरोना के कुल एक्टिव मामले अभी 14307 हैं। अगर इन्फेक्शन के सभी मामलों में इसका अनुपात देखें तो यह मात्र 0.03 फीसदी बैठता है। दिल्ली में कोरोना मरीजों के लिए आरक्षित बिस्तरों में 99.4 फीसदी खाली हैं। जाहिर है, ऐसी स्थिति में कोरोना से जुड़े प्रतिबंध जारी रखते हुए लोगों की स्वाभाविक गतिविधियों में बाधा डालने का कोई मतलब नहीं बनता। इससे आर्थिक विकास की धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही प्रक्रिया भी बाधित होगी। मगर सबसे बड़ी बात इस संदर्भ में यह है कि कोरोना की महामारी का स्वरूप पहले दिन से वैश्विक रहा है।

इसलिए सिर्फ अपने देश की स्थितियों के आधार पर इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। और जहां तक विदेशों की बात है तो यह कई देशों में आज भी एक बड़ा खतरा बना हुआ है।खासकर चीन एकाधिक बार इसे काबू में कर लेने के बावजूद अभी एक बार फिर कई इलाकों में सख्त लॉकडाउन घोषित करने पर मजबूर हुआ है। ऐसे में इसे हम बीती हुई बात के रूप में नहीं ले सकते। संभवत: इसीलिए अपने देश में भी सरकारें पाबंदिया हटाने की घोषणा करते हुए भी नागरिकों को सलाह यही दे रही हैं कि वे मास्क पहनने और दो गज दूरी रखने जैसी सावधानियों में अपने स्तर पर कमी न आने दें।

यह भी स्पष्ट है कि आम लोगों पर से भले पाबंदियां हटाई जा रही हों, अस्पतालों में आ रहे मामलों के जरिए कोरोना की स्थिति पर भी नजर रखी जाएगी और तय किए गए तबकों में तेज टीकाकरण के माध्यम से उसके खिलाफ लड़ाई भी पूरी तत्परता से जारी रखी जाएगी। इसलिए जरूरी है कि आम नागरिक पाबंदियां हटाने के इस फैसले को कोरोना से मुक्ति के संकेत के रूप में न लें। इसका मतलब सिर्फ इतना है कि वायरस से लड़ाई के मौजूदा चरण में कानून की सख्ती के मुकाबले नागरिकों की समझदारी को ज्यादा कारगर माना जा रहा है।

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श्रीलंका के शरणार्थियों का भारत आना..

26.03.2022 – श्रीलंका के शरणार्थियों ने बताया कि उनके अपना देश छोड़ कर भारत आने का कारण  गंभीर आर्थिक संकट है। पर्यटन पर निर्भर श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर पहले ही कोविड के दौरान पर्यटन बंद रहने से मार पड़ी थी। अब देश में विदेशी मुद्रा की भारी कमी हो गई है। साथ ही महंगाई आसमान पर है।

श्रीलंका गहरे आर्थिक संकट में है, ये बात तो अब जग-जाहिर है। लेकिन वहां की हालत अब भारत के लिए चिंता का विषय बनने जा रही है। ऐसी खबर पहली बार आई है कि श्रीलंका में असहनीय हालात से परेशान लोग लोग देश छोड़ कर समुद्र के रास्ते भारत आ रहे हैं। इस हफ्ते खबर आई कि 16 श्रीलंकाई तमिल नावों के जरिए तमिलनाडु के रामेश्वरम पहुंचे। इस बात की पुष्टि रामनाथपुरम के जिला कलेक्टर ने भी की है।

उसके बाद 31 और लोगों के आने की जानकारी सामने आई। मीडिया रिपोर्टों में बताया गया है कि श्रीलंका के जाफना और मन्नार इलाकों से ये लोग समुद्र के रास्ते दो जत्थों में तमिलनाडु पहुंचे। फिलहाल इन लोगों को समुद्री पुलिस की निगरानी में रखा गया है। इन लोगों के पास उनके पासपोर्ट तक नहीं हैं। मीडिया रिपोर्टों में तमिलनाडु के खुफिया अधिकारियों के हवाले से यह भी बताया गया है कि आने वाले हफ्तों में करीब 2,000 शरणार्थी श्रीलंका से तमिलनाडु आ सकते हैं।

तमिलनाडु सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए क्या तैयारी कर रही है, यह अभी मालूम नहीं हुआ है। शरणार्थियों ने बताया कि उनके अपना देश छोड़ कर भारत आने का कारण श्रीलंका का गंभीर आर्थिक संकट है। पर्यटन पर निर्भर श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर पहले ही कोविड के दौरान पर्यटन बंद रहने से मार पड़ी थी।अब देश में विदेशी मुद्रा की भारी कमी हो गई, जिसकी वजह से सरकार आम जरूरत के सामान के आयात की कीमत नहीं चुका पा रही है।

इस वजह से दवाओं, ईंधन, दूध का पाउडर, रसोई गैस आदि जैसी चीजों की भारी कमी हो गई है। जितना भंडार उपलब्ध है, उसके दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसी खबरें लगातार आती रही हैं कि श्रीलंका में चावल और चीनी के दाम लगभग 300 रुपए किलो तक पहुंच गए हैं। दूध का पाउडर करीब 1600 रुपए किलो बिक रहा है। पेट्रोल पंपों और मिट्टी तेल की दुकानों के बार लंबी लंबी कतारें लग रही हैं, जिनमें लोगों को घंटों खड़े रहना पड़ रहा है।

उन कतारों में खड़े तीन लोगों की मौत की खबर इसी हफ्ते आई थी। हालात इतने गंभीर हैं कि कॉपी की किल्लत के कारण सरकार को स्कूली परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैँ। इसलिए और शरणार्थी आएंगे, ये अनुमान लगाया जा सकता है। इस स्थिति से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर कदम उठाने होंगे।

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चुनावी मुद्दा नहीं बनता नदियों का जीना-मरना

उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान

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हिंदी लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी का मुद्दा वाजिब हैं

हिंदी लेखकों को मिलने वाली रॉयल्टी के लेकर जारी चर्चा में के दौरान जो मुद्दे उठाए गए हैं, वे वाजिब हैं और अहम भी। लेकिन बहस समस्या की जड़ तक पहुंची है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस बहस से कोई समाधान निकलेगा, इसकी संभावना भी नहीं दिखती है।पिछले कुछ दिनों से हिंदी लेखकों की रॉयल्टी का सवाल खासकर सोशल मीडिया पर खूब चर्चित रहा है। इस दौरान जो मुद्दे उठाए गए हैं, वे वाजिब हैं।

लेकिन बहस समस्या की जड़ तक पहुंची है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए इस बहस से कोई समाधान निकलेगा, इसकी संभावना भी नहीं है। मामले की शुरुआत तब हुई जब कुछ दिन पहले लेखक और अभिनेता मानव कौल ने सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध लेखक विनोद कुमार शुक्ल के साथ अपनी एक तस्वीर पोस्ट की। तस्वीर के साथ उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि इतने बड़े लेखक, जिनकी दर्जनों किताबें बेहद लोकप्रिय हैं, उन पुस्तकों की रॉयल्टी के तौर पर उन्हें महज कुछ हजार रुपये ही मिलते हैं।

कौल ने बताया कि पिछले एक साल में एक प्रकाशन संस्थान से छपी तीन किताबों पर शुक्ल को सिर्फ 6000 रुपये की रॉयल्टी मिली है। एक दूसरे प्रकाशन संस्थान ने उन्हें पूरे साल के महज 8000 रुपये दिए हैं। मतलब हिंदी का एक बड़ा लेखक अपने पुस्तक लेखन से साल में 14000 रुपये मात्र ही कमा रहा है। उधर प्रकाशकों ने मीडिया से कहा कि रॉयल्टी का कोई विवाद नहीं है।

इसका विवरण हर साल लेखकों को भेजा जाता है।एक प्रकाशक ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर शुक्ल की किताब “नौकर की कमीज’ के बारे में जानकारी दी। कहा कि इस किताब के कुल पांच पेपरबैक संस्करण प्रकाशित कि गएए हैं। हर संस्करण 1100 प्रतियों का रहा है, जिसका ब्योरा नियमित रूप से रॉयल्टी स्टेटमेंट में जाता रहा है। इसकी ई-बुक भी राजकमल ने किंडल पर जारी की है, जिसकी रॉयल्टी शुक्ल को जाती रही है।

स्पष्ट है कि ये मामला आज तक नहीं उठा था, तो इसकी वजह संभवत: यही रही होगी कि विनोद कुमार शुक्ल हिंदी में मिलने वाली रॉय़ल्टी से परिचित रहते हुए प्रकाशक उन्हें जो दे रहे थे, उसे स्वीकार कर रहे होंगे। इसलिए इस विवाद में मुद्दा प्रकाशकों की बदनीयती नहीं है। मुद्दा यह है कि आखिर हिंदी में रॉयल्टी की इतनी कम दर क्यों है?

आखिर एक हिंदी लेखक सिर्फ लेखन करके जीवन क्यों नहीं गुजार सकता? इन बड़े प्रश्नों के उत्तर हिंदी की संस्कृति और हिंदी के बाजार से जुड़ती है। विनोद कुमार शुक्ल से संबंधित विवाद ने इन सवालों पर सोचने का मौका दिया है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और सारी बात एक घटना पर केंद्रित रह गई, तो ये मामला स्टॉर्म इन ए टी-कप बन कर रह जाएगा।

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