रियायती दर पर तेल मिलना भारत के लिए फायदे की बात है

22.03.2022, रियायती दर पर तेल मिलना और गेहूं निर्यात मे मुनाफा भारत के लिए फायदे की बात है। संभवत: इसीलिए रूस के खिलाफ पश्चिमी लामबंदी में शामिल नहीं हुआ।अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि आने वाले दिनों में भारत की मुश्किलें बढ़ेंगी।यूक्रेन पर रूस के हमले से बने हालात में भारत को दो फौरी फायदे हुए हैँ। पहला यह कि रूस से भारत को रियायती दर पर कच्चा तेल मिल रहा है।

बताया जाता है कि रूस भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमत से 25 से 30 फीसदी कम रेट पर तेल दे रहा है। फिर इस तेल के बदले भुगतान रुपये में करना होगा, जिसका मतलब है कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर इसका कोई बोझ नहीं आएगा। दूसरा लाभ गेहूं के निर्यात में हो रहा है। रूस और यूक्रेन दोनों गेहूं के बड़े निर्यातक हैं। चूंकि उनका निर्यात ठहर गया है, तो दुनिया में गेहूं की कीमत बढ़ गई है।

इस बीच भारतीय व्यापारियों को एक नया ऐसा बाजार मिला है, जहां ऊंची कीमत पर वे अपना गेहूं बेच पा रहे हैँ। जाहिर है, भारत सरकार ने ऐसे ही फायदों को देखा और रूस के खिलाफ पश्चिमी लामबंदी में शामिल नहीं हुआ। लेकिन ये लाभ आखिर कितना टिकाऊ होगा?

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि आने वाले दिनों में भारत की मुश्किलें बढ़ेंगी। आईएमएफ के कम्यूनिकेशन डायरेक्टर गेरी राइस ने कहा है- ऐसी आशंका है कि यूक्रेन युद्ध भारत की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालेगा। विभिन्न रास्तों से होने वाला यह नुकसान कोविड-19 के दौरान हुए नुकसान के अतिरिक्त होगा।

नई स्थितियों में महंगाई बढ़ेगी और देशों का कुल घाटा भी।राइस ने स्वीकार किया कि कुछ बातें भारत के पक्ष में जा सकती हैं। कहा- गेहूं जैसी चीजों के निर्यात से भारत के आर्थिक घाटे में कुछ हद तक कमी हो सकती है। लेकिन यह फायदा उतना नहीं होगा, क्योंकि युद्ध का अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की अर्थव्यवस्थाओं पर भी बुरा असर होगा और उनकी आयात क्षमता घट जाएगी। इससे भारत का निर्यात प्रभावित होगा।

इसके अलावा सप्लाई चेन में आने वाली बाधाओं का असर भारत के आयात पर पड़ेगा और उसे महंगाई झेलनी होगी। तंग होतीं वित्तीय स्थितियों और बढ़ती अनिश्चितता के कारण भी घरेलू मांग पर असर पड़ेगा। मौद्रिक हालात तंग होंगे क्योंकि लोगों का अर्थव्यवस्था में भरोसा कम रहेगा। तो कुल मिला कर आईएमएफ ने भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर खासी अनिश्चितता जताई है।

यह किस हद तक बढ़ेगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कितना बड़ा धक्का लगता है और व्यापक आर्थिक स्तर पर उठाए जा रहे खतरों का फायदा पहुंचता है या नहीं। और स्थिति से निपटने के लिए सरकार क्या नीतियां अपनाती है।

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विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था

गांधी-नेहरू खूंटा तभी कांग्रेस और विकल्प भी!

इंसानियत की कसौटी पर खरे उतरे जितेंद्र शंटी

 

 

 

हकीकत यह है कि कोरोना महामारी अभी दुनिया से गई नहीं है

20.03.2022 हकीकत यह है कि कोरोना महामारी अभी दुनिया से गई नहीं है। इस बात का ख्याल सबको रखना चाहिए। फिलहाल, इसकी सबसे तीखी मार वही देश झेल रहा है, जहां से इस महामारी की शुरुआत हुई थी। चीन और हांगकांग में संक्रमण के रोज नए मामले आने के रिकॉर्ड बन रहे हैँ।भारत में लोग आम जिंदगी शुरू कर चुके हैँ। बल्कि अब आम तौर पर किसी के मन में कोरोना संक्रमण का भय भी नजर नहीं आता। मास्क और सेनेटाइजर का इस्तेमाल न्यूनतम हो चुका है।

वैसे यह अच्छी बात है। लोगों का भरोसा देख कर बेहतर दिनों का भरोसा बनता है। लेकिन हकीकत यह है कि कोरोना महामारी अभी दुनिया से गई नहीं है। इस बात का ख्याल सबको रखना चाहिए। फिलहाल, इसकी सबसे तीखी मार वही देश झेल रहा है, जहां से इस महामारी की शुरुआत हुई थी। चीन में संक्रमण के रोज नए मामले आने के रिकॉर्ड बन रहे हैँ। महामारी की शुरुआत में भी जितने लोग एक दिन में संक्रमित नहीं हो रहे थे, उतने अब हो रहे हैँ। खबरों के मुताबिक महामारी के इस नए दौर के लिए कोरोना वायरस के डेल्टा और ओमीक्रोन दोनों वैरिएंट जिम्मेदार हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि चीन अब संभवत: अकेला देश बचा है, जहां जीरो कोविड की नीति अभी भी लागू है। यानी वहां संक्रमण के एक भी मामले को अस्वीकार्य माना जाता है। संक्रमण की सूचना मिलते ही सख्त कदम उठाए जाते हैँ।

लेकिन उससे महामारी के नए दौर को आने से रोका नहीं जा सकता है। नतीजतन, कई शहरों में लॉकडाउन लगाया गया है। शेनजेन समेत देशभर में 10 इलाकों में लोगों को घर पर ही रहने के आदेश दिए गए हैँ। यह प्रकोप हांगकांग में पहले ही अपना भीषण रूप दिखा चुका है।हांगकांग में तो वायरस ने तबाही मचा रखी है। वो रोजाना बीसियों लोगों की मौत का कारण बन रहा है। चीन के मुख्य भूभाग में स्वास्थ्य अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि और कड़े कदम भी उठाए जा सकते हैं।

शेनजेन में अधिकारियों ने बताया है कि शहरी ग्रामीण इलाकों और फैक्ट्रियों में छोटे स्तर पर कई क्लस्टर पाए गए हैं। इससे सामुदायिक संचार के बड़े खतरे के संकेत मिलते हैं। पूर्वोत्तर में जिलिन प्रांत में लगातार दो दिनों तकएक हजार से ज्यादा मामले सामने आए। मार्च की शुरआत से इस प्रांत के कम से कम पांच शहरों में तालाबंदी लागू की जा चुकी है। तो सबक यह है कि इस महामारी को खत्म ना माना जाए। दुनिया के किसी भी हिस्से में ये मौजूद है, तो फिर यह कहीं पहुंच सकती है। इसलिए बेहतर होगा कि लोग मास्क और सेनेटाइजर से अभी तौबा ना करेँ।

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बदलाव वक्त की मांग

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद अगर कांग्रेस के अंदर से असंतोष के स्वर उठने शुरू हुए तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। यह जरूर पूछा जा सकता है कि ये स्वर कितने मजबूत हैं और पार्टी के अंदर सुधार की प्रक्रिया को किसी तार्किक परिणति तक ले जा सकते हैं या नहीं। इसमें दो राय नहीं कि ये चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए करारा झटका हैं। पांच राज्यों की कुल 690 विधानसभा सीटों पर हुए हुए चुनावों में कांग्रेस बमुश्किल 55 सीटें जीत पाई। यूपी में 403 सीटों पर लड़कर वह महज दो सीटें हासिल कर सकी। पंजाब में आम आदमी पार्टी की आंधी के सामने वह टिक नहीं पाई। उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर कहीं से भी ऐसी कोई खबर नहीं आई, जिससे थोड़ी बहुत भी तसल्ली मिल पाती। इसके बाद जी-23 के एक प्रमुख सदस्य गुलाम नबी आजाद ने कहा कि वह पार्टी को इस तरह मरते नहीं देख सकते। जी-23 के ही एक और अहम सदस्य शशि थरूर ने भी कहा कि अगर पार्टी कामयाब होना चाहती है तो बदलाव अनिवार्य हैं। ध्यान रहे जी-23 नाम तब सामने आया, जब कांग्रेस के 23 वरिष्ठ नेताओं ने अगस्त 2020 में पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को संगठनात्मक सुधार का सुझाव देते हुए पत्र लिखा था। हालांकि पार्टी नेतृत्व ने इनके प्रमुख सुझावों पर सहमति जताते हुए संगठनात्मक चुनाव का इरादा भी घोषित किया था, लेकिन कोरोना के कारण उन पर अमल नहीं हो सका।बहरहाल, विचार-विमर्श को लेकर पार्टी नेतृत्व ने भी तैयारी दिखाई है। सोनिया गांधी ने चुनाव परिणामों पर विचार के लिए जल्द ही पार्टी कार्यसमिति की बैठक बुलाने की बात कही है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि विचार-विमर्श के नाम पर क्या होने वाला है और पार्टी के अंदर किस हद तक बदलाव स्वीकार किए जाने वाले हैं। क्या पार्टी को गांधी परिवार की अगुआई से मुक्ति मिलने वाली है? हालांकि गांधी परिवार से बाहर के किसी शख्स को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने भर से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि पार्टी में गांधी परिवार का प्रभाव समाप्त हो जाएगा। पहले भी कई बार पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति के हाथों में गया है, लेकिन पार्टी इस परिवार के आभामंडल से बाहर नहीं निकल पाई। फिर यह बात भी है कि अच्छा हो या बुरा, पर पिछले काफी समय से यही परिवार पार्टी की मुख्य प्राण शक्ति भी बना हुआ है। ऐसे में पार्टी और गांधी परिवार, संकट दोनों के सामने है। वे जिन मूल्यों की भी बात करें, उन्हें बचाने की उनकी कवायद का कोई मतलब तभी बनता है, जब वे राजनीति में प्रासंगिक बने रहें। और राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है। अगर देश की सबसे पुरानी पार्टी को इतिहास में दफन हो जाने से बचना है तो अपना कायाकल्प करना ही होगा।

लोकतंत्र

चीन के रक्षा बजट में अप्रत्याशित बढ़ोतरी गंभीर चिंता का विषय

खतरनाक मंसूबे

रूस व यूक्रेन के संघर्ष के दौरान अंतर्राष्ट्रीय नियामक संस्थाओं व विश्व बिरादरी की लाचारगी के बीच चीन के रक्षा बजट में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। कहीं न कहीं चीन के मन में यह विचार जरूर होगा कि विश्व बिरादरी जब रूस की आक्रामकता पर अंकुश नहीं लगा पायी तो उसे रोकना भी मुश्किल होगा, क्योंकि वह आज विश्व की बड़ी आर्थिक ताकत है। वहीं चीन में दुनिया की सबसे बड़ी आबादी का होना, उसकी अतिरिक्त शक्ति भी है। यूं तो चीन लगातार सात सालों से अपने रक्षा बजट में वृद्धि करता रहा है। लेकिन इस बार चौंकाने वाली स्थिति यह है कि उसके रक्षा बजट में सात फीसदी से अधिक की वृद्धि की गई है। वह भी ऐसे समय में जब उसकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कोरोना संकट के दौर में मंथर गति से आगे बढ़ी है। वर्तमान में चीन की विकास दर 5.5 फीसदी दर्ज की गई है। यह विकास दर पिछले तीन दशक में सबसे कम है। इसके बावजूद उसके द्वारा रक्षा बजट में सात फीसदी से अधिक की वृद्धि करना उसके खतरनाक मंसूबों को ही उजागर करता है, जो कहीं न कहीं उसके साम्राज्यवादी इरादों को पुष्ट करता है। बहुत संभव है कि कल वह यूक्रेन की तरह ताइवान व हांगकांग को पूर्ण रूप से देश का हिस्सा बनाने को रूस जैसे हथकंडे अपनाये। निस्संदेह, विकास दर के कम होने के बावजूद रक्षा खर्च में अधिक वृद्धि बताती है कि चीन की प्राथमिकताएं क्या हैं। इस कदम ने अंतर्राष्ट्रीय जनमानस की चिंताओं को बढ़ाया है। यही वजह है कि पिछले कुछ समय से अमेरिका चीन के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाये हुए है। उसे इस बात का बखूबी अंदाजा है कि कोरोना संकट के बावजूद मजबूत आर्थिक स्थिति में खड़ा चीन अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को सिरे चढ़ाने का प्रयास करेगा। यूक्रेन संकट में रूस के साथ खड़ा चीन, अमेरिका समेत पश्चिमी जगत की चिंताओं को बढ़ा रहा है क्योंकि विश्व में शक्ति का नया ध्रुव बन रहा है।कोरोना काल के बाद उपजे परिदृश्य में चीन के रक्षा बजट में वृद्धि भारत की गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। दरअसल, चीन की इस तैयारी से हमारी वह चिंता और बढ़ जाती है, जो पिछले दो साल से एलएसी पर बनी हुई है। चौदह दौर की सैन्य कमांडर स्तर की वार्ता के बाद समस्या का निर्णायक समाधान नहीं निकला है। वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब लगते इलाकों में उसका सैन्य मकसद से स्थायी निर्माण करना और भारी-भरकम हथियारों के साथ बड़ी संख्या में सैन्य बलों की तैनाती हमारी गंभीर फिक्र का विषय होना चाहिए। हालांकि, भारत ने इस इलाके में सड़कों, सुरंगों व नये पुलों के निर्माण के जरिये इस चुनौती का मुकाबला करने का प्रयास किया, लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। हाल ही के दिनों में चीन के रुख में कोई बदलाव नजर नहीं आया। रूस-यूक्रेन संकट के बीच भारत का रूस के साथ सामंजस्य इसी रणनीति का हिस्सा है कि यदि कहीं चीन से टकराव हो तो रूस भारत के साथ नजर आये। विगत में भी एक आजमाये दोस्त के रूप में रूस संकट के मौकों पर भारत के साथ खड़ा रहा है। लगता है चीन की यह तैयारी युद्ध की रणनीति का ही हिस्सा है। वह आधुनिकीकरण के क्रम में बड़े पैमाने पर लड़ाकू जहाज व पनडुब्बियां बना रहा है। चिंता की बात यह भी है कि चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट का तीन गुना अधिक है, जिसका उपयोग वह उन्नत युद्ध तकनीकों के शोध व अनुसंधान पर करता है। जबकि भारतीय रक्षा बजट का साठ फीसदी हिस्सा सैन्य कर्मियों के वेतन-पेंशन आदि पर व्यय होता है। चीन का यह खर्च भारत के मुकाबले आधा ही है। अपनी रक्षा तैयारियों के बूते ही चीन आज वास्तविक नियंत्रण रेखा और हिंद प्रशांत क्षेत्र में लगातार आक्रामकता दिखा रहा है। ऐसे में एलएसी के विवादों के निपटारे के लिये भारत को कूटनीतिक विकल्प भी खुले रखने चाहिए क्योंकि दोनों देशों के संबंध अब तक के खराब दौर से गुजर रहे हैं।

सेहत की सुध

यह सर्वविदित है कि देश की बड़ी आबादी तमाम बीमारियों की जड़ मोटापे से जूझ रही है, जिसके चलते बड़े ही नहीं, किशोरों व बच्चों तक में मधुमेह, थायराइड, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां बढ़ी हैं। अच्छी बात यह है कि महामारी की तरह बढ़ते मोटापे को लेकर अब सरकार भी सतर्क हुई है। देश की नीति-नियंता संस्था नीति आयोग ने नागरिकों को मोटापे से मुक्त करने के लिये इसकी वृद्धि के प्रमुख कारकों मसलन चीनी, नमक व वसा की अधिकता वाले पदार्थों को चिन्हित करने और इन खाद्य पदार्थों पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने की संस्तुति की है। इसी कड़ी में उत्पादों पर ‘फ्रंट ऑफ दि पैक लेबलिंग’ जैसे कदम उठाने की बात कही गई है, ताकि लोगों को मोटापे के खतरे से आगाह किया जा सके। मकसद यही है कि लोग खाने की वस्तुएं चयन करते वक्त सावधानी बरतें और उन्हें पता हो कि उनके स्वास्थ्य के लिये क्या घातक है। नीति आयोग के शोध संस्थान की वर्ष 2021-2022 की रिपोर्ट में चेताया गया है कि देश में बच्चों, किशोरों और महिलाओं में अधिक वजन व मोटापे की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। नीति आयोग देश के आर्थिक विकास संस्थान और भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर इस दिशा में कदम उठा रहा है। दरअसल, भारतीय भोजन में परंपरागत रूप से नमकीन, चिप्स, भुजिया आदि का प्रचलन तो रहा है लेकिन हाल के वर्षों में स्नैक्स के नाम पर ऐसे खाद्य पदार्थों का प्रचलन बढ़ा है जो सेहत के लिये हानिकारक हैं। यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए कि राष्ट्रीय परिवार सेहत सर्वेक्षण के अनुसार देश में मोटापे से पीडि़त महिलाओं की संख्या चौबीस फीसदी हो गई है, जबकि पुरुषों का यह आंकड़ा 22.9 फीसदी है। ऐसे में सरकार का इस दिशा में कदम उठाना वक्त की जरूरत ही कहा जाना चाहिए। निस्संदेह, मोटापा तमाम बीमारियों की जड़ है और इससे होने वाले रोगों के चलते भारतीय चिकित्सा तंत्र दबाव महसूस करता है।
दरअसल, कहीं न कहीं शहरी जीवन शैली व खानपान की आदतों में बदलाव के चलते मोटापे की समस्या चिंताजनक हुई है। इस समस्या के बाबत बात तो होती रही, लेकिन इस दिशा में गंभीर पहल होती नजर नहीं आई। बाजार के मायाजाल के चलते देश में जंक फूड और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का उपयोग बढ़ा। इसमें उत्पादकों ने बाजार तो तलाशा लेकिन आम आदमी की सेहत की फिक्र नहीं की। विडंबना यह भी रही कि मोटापा बढ़ाने वाले कारकों का जिक्र तो हुआ मगर इन पर रोक की गंभीर कोशिश होती नजर नहीं आई। इन्हें रोकने को जो कदम उठाये गये वे महज प्रतीकात्मक ही रहे। बाजार में ऐसे खाद्य पदार्थों का अंबार लगा है जो स्वाद में तो लुभाते हैं, लेकिन सेहत पर भारी हैं। इनका दीर्घकालिक हानिकारक असर सेहत पर होता है जिसके चलते मोटापा बढ़ता है और उसकी आड़ में मधुमेह से लेकर हृदय रोग तक की गंभीर बीमारियां पनपने लगती हैं। जो कालांतर अनदेखी के चलते भयावह रूप ले लेती हैं। निस्संदेह वक्त की जरूरत है कि मोटापा पैदा करने वाले कारकों का सख्ती से नियमन किया जाये। लोगों को पता होना चाहिए कि जिस चीज का वे सेवन कर रहे हैं उसका उनकी सेहत पर क्या असर पड़ता है। दरअसल, खानपान की आदतों में बदलाव के चलते विकसित देशों की मोटापे की समस्या ने भारत में भी तेजी से पांव पसारने शुरू कर दिये हैं। भारत में ऐसी समस्या इसलिये विकराल रूप धारण कर लेती है क्योंकि लोग वक्त रहते सचेत नहीं होते। मोटापे के प्रति आम लोगों में सजगता पैदा करने में हम विफल रहे हैं। हमें यह ध्यान नहीं रहता कि हमारे दैनिक जीवन में मोटापा बढ़ाने वाले कारक कब हिस्सा बन गये हैं। यह भी कि कौन से खाद्य पदार्थ वास्तव में मोटापा बढ़ाने वाले हैं। ऐसी लापरवाही के चलते शरीर कब जानलेवा बीमारियों का घर बन जाता है, व्यक्ति को अहसास ही नहीं होता। लेकिन ऐसे खाद्य पदार्थों पर कर लगाते वक्त ध्यान रखें कि आम व गरीब लोगों का जीवन प्रभावित न हो। इसके साथ ही देश में मोटापे के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत है।

जानलेवा सड़कें

भारत की सड़कों पर दुर्घटनाओं में प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मौत गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। यह भी चिंता की बात है कि हरियाणा में पिछले साल प्रतिदिन औसतन 13 लोगों की सड़क हादसों में मौत हुई। दुर्घटना उन्मुख क्षेत्रों पर केंद्र सरकार के ध्यान देने के बावजूद स्थिति गंभीर बनी हुई है। पिछले दिनों लोकसभा में केंद्र सरकार ने बताया कि वर्ष 2020 के दौरान एक्सप्रेस-वे सहित राष्ट्रीय राजमार्गों पर दुर्घटनाओं में 47,984 लोग मारे गये। वहीं वर्ष 2019 में यह आंकड़ा 53,872 था। महामारी के पहले वर्ष में कोविड के चलते लॉकडाउन और कई अन्य तरह की वजह से आवाजाही में रोक के चलते मौत के आंकड़ों में गिरावट दर्ज की गई। इसके बावजूद एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में सभी प्रकार की सड़क दुर्घटनाओं में 1.33 लाख लोग मारे गये। ये आंकड़े स्थिति की गंभीरता दर्शाते हैं। वहीं वर्ष 2021 में वेस्टर्न और ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेस-वे पर 151 दुर्घटनाओं में 125 लोगों की जान चली गई और 105 लोग घायल हुए। वहीं कुंडली मानेसर पलवल यानी केएमपी और कुंडली गाजियाबाद पलवल एक्सप्रेस-वे पर अधिकांश दुर्घटनाओं की मुख्य वजह गलत साइड से ओवरटेकिंग रही। साथ ही ओवर स्पीडिंग, अचानक लेन बदलना, अनुपयुक्त प्रकाश व्यवस्था आदि भी दुर्घटना की वजह रही हैं। ऐसे में भारी वाहन चालकों के लिये जागरूकता अभियान चलाये जाने की जरूरत है, जिनकी वजह से बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं।
यदि हम राष्ट्रीय राजमार्गों पर हादसों के कारणों की पड़ताल करते हैं तो कई कारण सामने आते हैं, जिनमें प्रमुख वजह वाहनों को तेज गति से चलाना है। इसके अलावा नशे में धुत्त होकर गाड़ी चलाना, गलत तरफ से ड्राइविंग, सड़कों का डिजाइन व स्थिति तथा वाहन चलाते समय समय मोबाइल पर बात करते रहना भी वजह रही। यदि वर्ष 2020 में होने वाली दुर्घटनाओं पर नजर डालें तो साठ फीसदी लोगों की मौत तेज रफ्तार की वजह से हुई। निस्संदेह सड़क दुर्घटनाओं को रोकने तथा आपराधिक लापरवाही करने वाले चालकों को दंडित करने के लिये बड़े पैमाने पर आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए। राजमार्गों पर बड़ी संख्या में क्लोज सर्किट टीवी यानी सीसीटीवी कैमरे लगाने से चालक कानून के उल्लंघन के प्रति सतर्क रहेंगे। यदि तुरंत चालान मिलने लगेंगे तो लोग कायदे-कानूनों के उल्लंघन के प्रति सजग रहेंगे। वाहन चालकों को अपनी लेन में चलने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि लेन बदलने से होने वाली दुर्घटनाओं से बचा जा सके। वर्ष 2020 में लापरवाह ड्राइविंग तथा ओवरटेकिंग की वजह से 24 फीसदी दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें पैंतीस हजार लोगों की जान गई। ऐसे स्थिति में जब देश में राष्ट्रीय व राज्य मार्गों की कुल लंबाई पूरे सड़क नेटवर्क का सिर्फ पांच से दस प्रतिशत ही है, इनमें दुर्घटनाओं का अनुपात बेहद ज्यादा है। वहीं इन दुर्घटनाओं में समय पर चिकित्सा सहायता न मिलने से बड़ी संख्या में यात्री चोटों के कारण दम तोड़ देते हैं। राष्ट्रीय व राज्य मार्गों पर चौबीस घंटे की गश्त बढ़ाने के लिये केंद्र व राज्य अतिरिक्त प्रयास करें।

आतंक का हश्र

अहमदाबाद में वर्ष 2008 में हुए शृंखलाबद्ध बम धमाकों के दोषियों को आखिर अदालत ने कानून के राज का अहसास करा ही दिया है। भारत के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी सजा में अहमदाबाद ब्लास्ट के 49 दोषियों में से 38 को फांसी सुनाई गई और ग्यारह आखिरी सांस तक सलाखों के पीछे कैद रहेंगे। दरअसल, 26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद के विभिन्न स्थानों पर सत्तर मिनट के भीतर 22 बम विस्फोट हुए थे। इन धमाकों में 56 लोग मारे गये थे और दो सौ से अधिक घायल हुए थे। जिधर देखो उधर तबाही का मंजर था। बाद में विशेष जांच टीमों के प्रयास से धमाकों में शामिल 78 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। गत आठ फरवरी को इस मामले में जल्द कार्रवाई को अंजाम देने के लिये बनी विशेष अदालत ने 49 को दोषी पाया। इसके साथ ही दोषियों पर आर्थिक दंड भी लगाया गया है। साथ ही घायलों को हर्जाना देने के भी आदेश दिये गये हैं। धमाके वाले दिन अहमदाबाद के अस्पतालों, बसों व अन्य सार्वजनिक स्थानों को निशाने पर लिया गया था। हमले से पहले इंडियन मुजाहिद्दीन नाम के संगठन की तरफ से मीडिया को मेल भेजी गई थी और इसे गोधरा कांड का जवाबी हमला बताया गया था। दरअसल, अहमदाबाद से पहले बेंगलुरू व जयपुर में भी धमाके हुए थे। यही नहीं, अहमदाबाद में धमाके के अगले दिन सूरत को भी धमाके से दहलाने की कोशिश थी, अच्छा हुआ 29 बम तकनीकी खामी के कारण फट नहीं पाये थे। इस मामले में अहमदाबाद में बीस व सूरत में 15 मामले दर्ज किये गये थे। निस्संदेह, भारतीय इतिहास में पहली बार 38 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई है। इससे पहले राजीव गांधी हत्याकांड में एक साथ 26 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। अहमदाबाद बम कांड में 29 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी किया गया है। दूसरी ओर 49 आरोपियों को गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम के तहत दोषी करार दिया गया।
बहरहाल, जटिल जांच प्रक्रिया और अदालत की लंबी कार्यवाही के बाद सामने आया फैसला आतंक के मंसूबे पालने वाले लोगों के लिये सबक है कि अपराधी कितने भी शातिर क्यों न हों, उन्हें एक दिन कानून के हिसाब से दंड मिलता ही है। निस्संदेह फांसी या उम्रकैद इस अपराध का अंतिम दंड नहीं कहा जा सकता, लेकिन कानून के शासन की स्थापना के लिये मानवता से खिलवाड़ करने वालों को दंडित करना भी जरूरी होता है। यहां सवाल यह भी कि इस हमले की जिम्मेदारी लेने वाले कथित आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन व प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया कैसी घातक सोच से पैदा होते हैं। उनमें इतना दुस्साहस कैसे पैदा होता है कि वे धमाके की जिम्मेदारी खुलेआम लें। इस मामले में पुलिस की कार्रवाई भी तत्परता वाली रही, जिसने महज 19 दिन में तीस आतंकियों को पकड़कर जेल भेज दिया। बाकी कुछ अपराधी बाद में उत्तर प्रदेश के मेरठ व बिजनौर तथा अन्य राज्यों से पकड़े गये। निश्चित तौर पर ऐसी चुनौतियां हमारे सामने आने वाले वक्त में आ सकती हैं। हमें ऐसी सोच पर अंकुश लगाने का प्रयास करना चाहिए जो निर्दोष के खून से खेलने में सुकून महसूस करती है। ऐसी सोच के खिलाफ सशक्त सामाजिक प्रतिरोध विकसित करने की जरूरत है। साथ ही पुलिस प्रशासन को सतर्क रहते हुए ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। कहीं न कहीं सीरियल ब्लास्ट का होना हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी की ओर भी इशारा करता है। इतने बड़े षड्यंत्र को आतंकी चुपचाप कैसे अंजाम देने में सफल रहे। निस्संदेह, बम धमाकों को अंजाम देने वाले संगठन के बारे में आम लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन 2007 में मीडिया के जरिये संगठन ने भारत में अपनी उपस्थिति का इजहार किया था। इसे गंभीर संकेत मानकर इस दिशा में सतर्क प्रतिक्रिया दी जाती तो शायद अहमदाबाद बम धमाकों को टाला जा सकता था।

थमा सुरों का करिश्मा

आखिर महामारी ने एक अनमोल भारत-रत्न हमसे छीन लिया। कोविड से संक्रमित होने के बाद वे करीब एक माह से मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती थीं। जिन लता मंगेशकर की वाणी में सरस्वती बसती थीं, उसी सरस्वती के दिन वसंत-पंचमी को वे वेंटिलेटर पर चली गईं। रविवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांसें लीं। इस महान पार्श्व गायिका ने भारतीय फिल्म संगीत को नये आयाम दिये। तभी उन्हें ‘स्वर साम्राज्ञी’ व भारत की ‘सुर कोकिला’ जैसे न जाने कितने नाम से पुकारा जाता रहा। जिस लता को कभी औपचारिक शिक्षा का मौका नहीं मिला, उन्होंने 36 भारतीय भाषाओं में करीब आधी सदी तक हजारों गाने गाये। दरअसल, लता मंगेशकर के गाये गीत आम भारतीय के जीवन में रच-बस गये। उनके गाये गीतों को जहां संगीत विशेषज्ञों ने सराहा, वहीं आम आदमी उनसे सीधा जुड़ता रहा। उनकी आवाज की तुलना मोतियों तथा पारदर्शी क्रिस्टल से होती रही। उनके गाये गीतों ने करोड़ों भारतीयों के जीवन में खुशियां भरीं। भारत ही नहीं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में उन्हें वही सम्मान मिला। एक बार अमिताभ बच्चन से किसी पाकिस्तानी ने कहा- हम बहुत खुश हैं, सब कुछ है, मगर ताजमहल व लता मंगेशकर की कमी खलती है। उनके गाये गीत करोड़ों लोगों की जिंदगी का संगीत बने। तभी उनके निधन पर पूरा देश गमगीन है। दुनिया के तमाम देशों से उनके लिये श्रद्धांजलि संदेश आ रहे हैं।
लता मंगेशकर का जीवन शुरुआत से ही इतना सुखमय व सहज-सरल नहीं रहा। कामयाबी की ऊंचाइयां छूने से पहले उनका जीवन तकलीफ, तिरस्कार व संघर्ष भरा रहा। आर्थिक तंगी के बीच पिता दीनानाथ मंगेशकर का अवसान और पारिवारिक जिम्मेदारी का बोझ संभालना पड़ा लता को। शास्त्रीय संगीत विरासत में मिला, मगर वह दौर संगीत के जरिये घर चलाने लायक नहीं था। मराठी व हिंदी फिल्मों में मन मारकर अभिनय भी किया। अपनी आवाज को स्थापित करने के लिये बड़ा संघर्ष किया। गुलाम हैदर जैसे लोगों ने उन्हें समझाया कि पतली आवाज बताकर जो लोग आज तुम्हें खारिज कर रहे हैं, वे ही आने वाले कल में तुम्हारे मुरीद होंगे। लता को प्रेरित करने वाले गुलाम हैदर व नूरजहां कालांतर पाक चले गये, लेकिन उनकी भविष्यवाणी सच हुई। लता ने अपनी आवाज को संवारा, परिवार को उबारा और फिल्म संगीत की दुनिया में अपनी विशिष्ट जगह बनायी। निस्संदेह कल कई गायिकाएं आएंगी, लेकिन वे लता मंगेशकर नहीं हो सकतीं। सही मायनों में भारत रत्न! गीत के भाव और नजाकत को आवाज में पिरोने का हुनर सिर्फ लता के ही पास था। वर्ष 1989 में उन्हें दादा साहब फाल्के तथा 2001 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न मिला। मगर पुरस्कारों से बढ़कर वे करोड़ों भारतीयों के दिलों में राज करती रहीं। निस्संदेह लता मंगेशकर के सुरों के करिश्मे को शब्दों में बयां करना कठिन ही है। उन्हें सिर्फ गायिका या संगीत जगत का प्रतिनिधि चेहरा ही नहीं कहा जा सकता, बल्कि सही मायनों में वे भारतीयों के अवचेतन में रच-बस गई थीं। वे भारतीय काव्यधारा का हिस्सा थीं।

आत्मनिर्भरता की पहल

मंगलवार को जब संसद में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपना चौथा आम बजट पेश किया तो कई मायनों में यह अलग था। कई परंपराएं बदलीं, ये पेपरलेस बजट और भाषण संक्षिप्त था। पांच राज्यों के चुनाव के बीच आये बजट में भले ही नये करों का प्रावधान नहीं था, लेकिन यह लोकलुभावन बजट भी नहीं था। वर्ष 2022-23 के बजट में नौकरीपेशा वर्ग को आयकर में छूट न मिलने पर निराशा जरूर हुई, जो कोरोना संकट में आय संकुचन के दौर में राहत की उम्मीद लगाये हुए था। दरअसल, सरकार का पूरा ध्यान इन्फ्रास्ट्रक्चर पर रहा। लेकिन महंगाई और बेरोजगारी दूर करने को बड़ी पहल होती नजर नहीं आई। सरकार का कहना है कि अमृतकाल में देश को आत्मनिर्भर बनाने की पहल हुई है। इसके अलावा भारत में दखल बनाती क्रिप्टो करंसी पर तीस फीसदी टैक्स लगाने, इसके लेन-देन में टीडीएस लगाने, आरबीआई द्वारा इस वर्ष डिजिटल करंसी जारी करने, डाकघरों को मुख्य बैंकिंग व्यवस्था से जोडऩे, ई-पासपोर्ट सेवा आरंभ करने जैसी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं बजट में की गई। वहीं पूर्वोत्तर के विकास हेतु 1500 करोड़ रुपये आवंटित करने तथा आगामी तीन सालों में चार सौ वंदे भारत ट्रेनों के परिचालन की घोषणा की गई। सरकार ने अर्थव्यवस्था में गति लाने के क्रम में राजस्व घाटा 6.4 फीसदी रहने का अनुमान जताया है तथा वर्ष 2022-23 में कुल खर्च 39.45 लाख करोड़ रुपये रहने का आकलन है। वहीं विपक्ष कह रहा है कि देश में रिकॉर्ड महंगाई और बेरोजगारी को नियंत्रित करने के लिये कोई ठोस पहल नहीं हुई है। कोरोना संकट से जूझते आम आदमी को यह बजट राहत नहीं देता। यह भी कि एक ओर सरकार सौर ऊर्जा को बढ़ावा तथा पर्यावरण सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात करती है, वहीं नदी जोड़ योजना के जरिये पारिस्थितिकीय संतुलन से खिलवाड़ कर रही है।
दरअसल, लगातार दो साल से महामारी का दंश झेल रहे और आय के स्रोतों के संकुचन से त्रस्त लोग आस लगाये बैठे थे कि सरकार की तरफ से उनकी क्रयशक्ति बढ़ाने की दिशा में पहल होगी। मगर सरकार ने आपूर्ति शृंखला को ही प्राथमिकता दी है। लेकिन आपूर्ति बढ़ाना तभी सार्थक होगा, जब लोगों की क्रय क्षमता बढऩे से बाजार में मांग बढ़ेगी। वह भी उन वैश्विक रिपोर्टों के बीच कि कोरोना संकट में देश के अस्सी फीसदी लोगों की आय में संकुचन हुआ है और अमीर लोगों की आय दुगुनी से अधिक हो गई है। वहीं लंबे किसान आंदोलन के बाद उम्मीद थी कि सरकार किसानों को राहत देने के लिये कुछ बड़ा करेगी क्योंकि प्रधानमंत्री ने इस साल तक किसानों की आय दुगुनी करने का लक्ष्य रखा था। कुछ लोग देश की आधी आबादी को रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र की आय को बढ़ाने के लिये बड़ी पहल की उम्मीद कर रहे थे। निस्संदेह कोरोना संकट में कृषि क्षेत्र ने ही भारतीय अर्थव्यवस्था को संबल दिया था। वहीं पीएम किसान सम्मान निधि में वृद्धि की उम्मीद भी जतायी जा रही थी। हालांकि, बजट में किसान ड्रोन, प्राकृतिक खेती, लैंड डिजिटाइजेशन, एमएसपी के लिये 2.37 लाख करोड़ रखने, नाबार्ड के जरिये कृषि स्टार्टअप्स के वित्तीय पोषण, 1208 मीट्रिक टन धान-गेहूं की खरीद के प्रावधान रखने से किसानों को राहत देने की पहल जरूर हुई है। दूसरी ओर वक्त की जरूरत के हिसाब से एनिमेशन, विजुअल इफेक्ट, गेमिंग और कॉमिक्स सेक्टर में रोजगार को बढ़ावा देने के लिये प्रमोशन टास्क फोर्स बनाने का फैसला किया गया है। साथ ही व्यावसयिक शिक्षा के लिए डिजिटल यूनिवर्सिटी बनाने का निर्णय हुआ है। अगले पांच साल के लिये छह हजार करोड़ रुपये का प्रावधान बताता है कि एमएसएमई सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है। दो लाख आंगनवाड़ी अपग्रेड करने का मकसद कुपोषण व अशिक्षा के खिलाफ लड़ाई को तेज करने का प्रयास है। लेकिन हेल्थ सेक्टर में महामारी के दौर में अपेक्षित बजट वृद्धि की कमी खलती है। इसके बावजूद साठ लाख रोजगारों का सृजन, अस्सी लाख घर बनाने का लक्ष्य, डाकघरों में एटीएम, पीएम ई-विद्या टीवी चैनल बढ़ाने तथा पच्चीस हजार किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने का लक्ष्य सरकार के कल्याणकारी एजेंडे को ही दर्शाता है।

टला नहीं संकट

यह अच्छी बात है कि कई राज्यों में कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर की तीव्रता कम होने के बाद कई तरह के प्रतिबंधों में ढील दी गई है। कुछ राज्यों में स्कूल खोलने की तैयारी की जा रही है। कोरोना संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र में राजनीतिक विरोध के बावजूद स्कूल खोल दिये गये हैं। हालांकि, दिल्ली में सम-विषम के आधार पर दुकानों की बंदी और सप्ताहांत का कर्फ्यू हटाने के साथ कुछ अन्य छूट दी गई हैं लेकिन स्कूलों को खोलने पर अभी अंतिम फैसला नहीं लिया गया। दिल्ली सरकार का मानना है कि किशोरों का टीकाकरण हो जाने के बाद स्कूल खोलने का उचित माहौल बन पायेगा। यह अच्छी बात है कि कुछ राज्यों में कोरोना के मामलों में गिरावट के बाद प्रतिबंधों का दायरा सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी क्रम में स्कूलों को खोलने की प्रक्रिया आरंभ हुई है। दरअसल, विशेषज्ञों का मानना है कि लंबे समय तक कोरोना संकट के चलते स्कूल बंद होने का बच्चों के मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वहीं कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों में प्राकृतिक तौर पर रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है। लेकिन बच्चों से अधिक भावनात्मक लगाव के कारण अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। तभी सरकारों ने तय किया है कि विद्यार्थी अभिभावकों की सहमति से स्कूल जा सकेंगे। स्कूलों को भी कोरोना से बचाव के उपायों पर सख्ती बरतने को कहा गया है। कोरोना संक्रमण रोकने को लगी बंदिशों का दायरा घटाने की खबरें ऐसे समय में आ रही हैं जब इंडियन सार्स-कोव-2 जीनोम कंसोर्शियम के अनुसार, कोविड-19 भारत में कम्युनिटी ट्रांसमिशन की स्थिति में पहुंच गया है, जिससे अस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ी है। इसके बावजूद ओमीक्रोन के ज्यादा मामले हल्के-बिना लक्षण वाले हैं, जिसमें यह पता लगाना कठिन होता है कि व्यक्ति किसके संपर्क में आने से संक्रमित हुआ।
बहरहाल, ऐसी स्थिति में समाज के बीच मौजूद वायरस के संक्रमण की चेन तोडऩा कठिन होता है। यह तेजी से प्रसार करता है। तभी स्वास्थ्य मंत्रालय टेस्टिंग-टीकाकरण के साथ ही टेली कंसल्टेशन पर जोर दे रहा है, ताकि अस्पतालों में ज्यादा भीड़ संक्रमण की वाहक न बने। इसके बावजूद कई राज्यों में बंदिशों में ढील देकर जान के साथ जहान बचाने की प्रक्रिया शुरू हुई है। दरअसल, पहली कोरोना लहर में सख्त बंदिशों के चलते अर्थव्यवस्था ने तेजी से गोता लगाया और करोड़ों लोग बेरोजगारी की कगार पर जा पहुंचे थे। अब संकट के बीच जीवन जीने को न्यू नॉर्मल बनाने की कोशिश हो रही है। हरियाणा में भी दसवीं से बारहवीं तक के स्कूल एक फरवरी से खोले जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ठंड व कोरोना प्रकोप के चलते स्कूलों को 31 जनवरी के बाद भी 15 फरवरी तक के लिये बंद कर दिया गया है। वहीं उत्तराखंड में नौवीं तक के स्कूल जनवरी के अंत तक बंद रहेंगे। झारखंड में फरवरी से स्कूल खोले जायेंगे। इसके बावजूद सामुदायिक संक्रमण की खबरें चिंता बढ़ाने वाली हैं। इसके शहरों के बाद ग्रामीण इलाकों में पांव पसारने की आशंका बनी हुई है। लेकिन राहत की बात यह है कि जनवरी के तीसरे सप्ताह में संक्रमण की आर वैल्यू में गिरावट आई है जो अभी डेढ़ के करीब है और उसके एक से कम होने पर महामारी के खत्म होने का संकेत माना जायेगा। वहीं आईआईटी मद्रास के प्रारंभिक विश्लेषण के अनुसार, अगले पखवाड़े में महामारी की तीसरी लहर अपने पीक पर पहुंच सकती है। वहीं इसी बीच केंद्र सरकार ने कोविशील्ड और कोवैक्सीन को कुछ शर्तों के साथ बाजार में बेचने की अनुमति दे दी है। ये टीके अस्पताल व क्लीनिक में उपलब्ध रहेंगे और 18 वर्ष या उससे अधिक का व्यक्ति कोविन पोर्टल पर जानकारी देकर व पंजीयन करवाकर टीके खरीद सकता है। इसके बावजूद जब देश में संक्रमितों का आंकड़ा प्रतिदिन ढाई लाख से अधिक है और चार सौ जिलों में संक्रमण की दर दस फीसदी से अधिक है तो हर स्तर पर सावधानी जरूरी है। यही वजह है कि केंद्र ने कोरोना प्रतिबंधों को 28 फरवरी तक बढ़ाया है।

इन पर राजनीति ना हो

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जन्मतिथि के मौके पर उनकी होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण करते हुए कहा कि देश अतीत की गलतियों को दुरुस्त करने की राह पर है। उनका मतलब आजादी के योद्धाओं की आजाद भारत में हुई उपेक्षा से था। इस क्रम में उन्होंने इंडिया गेट पर नेताजी की भव्य मूर्ति स्थापित करने की घोषणा के साथ ही सरदार वल्लभभाई पटेल, बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर और बिरसा मुंडा जैसी विभूतियों की स्मृतियों को सम्मान देने के लिए सरकार की ओर से उठाए गए कदमों का जिक्र किया।
इसमें संदेह नहीं कि देश की आजादी के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानियां दीं और इन सबकी तपस्या के परिणाम के रूप में देश को आजादी हासिल हुई। खास तौर पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बात की जाए तो यह सच है कि आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को उस रूप में मान्यता नहीं मिल सकी, जैसी मिलनी चाहिए थी। कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में चली आंदोलन की अहिंसक धारा की बहुत ज्यादा चर्चा हुई, इस मुकाबले नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज की प्रभावी भूमिका काफी हद तक पृष्ठभूमि में रह गई। मगर इसके बावजूद देश के आम जनमानस में नेताजी का स्थान कहीं से भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा। आज भी देशवासियों के मन में नेताजी के लिए वैसा ही आदर और सम्मान है जैसा गांधी, नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के लिए।
दूसरी बात यह कि आजादी की लड़ाई के दौरान इसमें अलग-अलग तरह से योगदान कर रहे इन व्यक्तित्वों में विभिन्न बिंदुओं पर असहमतियों के बावजूद आपसी तालमेल और परस्पर सम्मान की भावना लगातार बनी रही। उन सबको पता था कि रास्तों को लेकर उनकी प्राथमिकताओं में भले अंतर हो, मंजिल सबकी एक है। वे सब भारत को एक स्वतंत्र, सम्मानित और संपन्न देश के रूप में देखना चाहते थे। इसलिए चाहे नेताजी हों या स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानी, उनके योगदान को रेखांकित करना, उनके लिए अलग-अलग तरह से सम्मान प्रदर्शित करना तो स्वाभाविक है, हर कृतज्ञ राष्ट्र ऐसा करता है, लेकिन गलती से भी इसे राजनीति का हिस्सा नहीं बनने देना चाहिए। ऐसा हुआ तो यह एक गलत और खतरनाक परंपरा को जन्म दे सकता है। ये स्वतंत्रता सेनानी देशवासियों की साझा विरासत का हिस्सा हैं।

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शहादत की ज्योति

पिछली आधी सदी से इंडिया गेट पर प्रज्वलित ‘अमर जवान ज्योति’ हर देशवासी को राष्ट्र की बलिदानी गाथा से जोड़ती रही है। अमर जवान ज्योति 26 जनवरी, 1972 को अस्तित्व में आई थी, जिसे वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में शहीद जवानों की स्मृति में प्रज्वलित किया गया था। वहीं 25 फरवरी, 2019 को इसके निकट ही राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का उद्घाटन हुआ, जहां आजाद भारत में शहीद हुए पच्चीस हजार से अधिक जवानों के नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं, जिनकी याद में वहां भी अमर जवान ज्योति प्रज्वलित है। मोदी सरकार ने दोनों ज्योतियों के विलय के बारे में फैसला लिया था और देश के महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जन्मशती को इस मौके के रूप में चुना। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण किया और ऐतिहासिक गलती सुधारने की बात कही। साथ उन असंख्य बलिदानी स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण किया जो त्याग और बलिदान के बावजूद चर्चाओं में न आ सके। दरअसल, इंडिया गेट 1921 में प्रथम विश्व युद्ध तथा तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में बनाया गया था। सत्ता पक्ष के लोग जहां इसे साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक मानते रहे हैं वहीं विपक्षी दलों का कहना है कि आजादी से पहले भारतीय सैनिकों के बलिदान को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। अतीत को लेकर एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। बहरहाल, देश में एक समग्र राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की कमी जरूर पूरी हुई है जो देश के बहादुर शहीद सैनिकों के प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता का ही पर्याय है। इसका निर्माण भी नई दिल्ली में विकसित सेंट्रल विस्टा एवेन्यू में इंडिया गेट के पास ही किया गया है जहां अमर जवान ज्योति का विलय राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में प्रज्वलित ज्योति में हुआ है। निस्संदेह, कृतज्ञ राष्ट्र अपने शहीदों के बलिदान से कभी उऋण नहीं हो सकता है। उनके बलिदान की अखंड ज्योति हमेशा नई पीढ़ी को प्रेरणा देती रहेगी कि देश ने अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिये कितनी बड़ी कीमत चुकायी है।
बहरहाल, यह तार्किक ही है कि शहादत को समर्पित ज्योति को दिल्ली में एक ही स्थान पर रखा जाना चाहिए। हालांकि, इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की अमिट स्मृतियां भारतीय जनमानस के दिलो-दिमाग में सदैव ही रही हैं। इस मार्ग से गुजरते लोगों का ध्यान बरबस इस ओर सम्मान से चला ही जाता था। वहीं सरकार व सेना का मानना रहा है कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ही वह एकमात्र स्थान हो सकता है जहां शहीदों को गरिमामय सम्मान मिल सकता है। दूसरी ओर, इंडिया गेट क्षेत्र में छत्र के नीचे जहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा लगायी गई है, वहां कभी इंग्लैंड के पूर्व राजा जॉर्ज पंचम की प्रतिमा हुआ करती थी। निस्संदेह स्वतंत्र भारत में उसका कोई स्थान नहीं हो सकता था। माना जा रहा है कि इस महत्वपूर्ण स्थान में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा का लगाया जाना, उनके अकथनीय योगदान का सम्मान ही है। विगत में सरकारों के अपने आदर्श नायक रहे हैं और उन्हीं के स्मारक नजर भी आते हैं, जिसके मूल में वैचारिक प्रतिबद्धताएं भी शामिल रही हैं। इसके बावजूद देशवासियों में आत्मसम्मान व गौरव का संचार करने वाले नायकों को उनका यथोचित सम्मान मिलना ही चाहिए जो कालांतर में आम नागरिकों में राष्ट्र के प्रति समर्पण व राष्ट्रसेवा का भाव ही जगाते हैं। शहादत की अमर ज्योति भी देशवासियों के दिलों में शहीदों के प्रति उत्कट आदर की अभिलाषा को ही जाग्रत करती है। वहीं स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिमा देश की स्वतंत्रता की गौरवशाली लड़ाई का पुनर्स्मरण भी कराती है कि हमने आजादी बड़े संघर्ष व बलिदान से हासिल की थी। ऐसे में यदि ज्योति में ज्योति मिलने से राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की आभा में श्रीवृद्धि होती है तो यह बलिदानियों का कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा किया जाने वाला सम्मान ही कहा जायेगा। वहीं नेताजी की प्रतिमा लगने से इंडिया गेट को भी प्रतिष्ठा मिलेगी।

अमीरों पर बढ़े टैक्स

दुनिया के सौ से ज्यादा अरबपति एक अपील लेकर सामने आए हैं। उनका कहना है कि उन पर जो टैक्स लगाया जा रहा है, वह काफी नहीं है। उनसे और ज्यादा टैक्स लिया जाए और अभी लिया जाए। पहली नजर में अजीब सी लगती इस अपील के पीछे कुछ ही दिनों पहले आई वह स्टडी रिपोर्ट है, जो बताती है कि दुनिया में अमीर और गरीब के बीच का अंतर तेजी से बढ़ रहा है।
ग्लोबल चैरिटी ऑक्सफैम द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के दस सबसे अमीर लोगों ने अपनी संपत्ति महामारी वाले उन दो वर्षों में दोगुना बढ़ाकर 1.5 ट्रिलियन डॉलर कर ली, जब दुनिया के ज्यादातर लोग तरह-तरह की तकलीफों से गुजरते हुए गरीबी में और गहरे धंस गए। ऐसे में इन 102 अरबपतियों ने अपनी इस साझा अपील के जरिए यह बात उठाई है कि मौजूदा टैक्स सिस्टम न्यायपूर्ण नहीं है। इसे जानबूझकर ऐसा रखा गया है, जिससे अमीर और अमीर, गरीबी और गरीब होते जाएं। इसीलिए इस टैक्स सिस्टम में बदलाव लाते हुए अमीरों पर और ज्यादा टैक्स लगाने की पहल की जानी चाहिए।
हालांकि कहां कितना टैक्स लगाना है, यह हर देश की सरकार अपने हिसाब से ही तय कर सकती है, फिर भी इस पत्र में सुझाव के तौर पर 50 लाख डॉलर तक की संपति वालों पर 2 फीसदी, 5 करोड़ डॉलर तक पर तीन फीसदी और सौ करोड़ से ऊपर की संपत्ति वालों पर पांच फीसदी का वेल्थ टैक्स लगाने की बात कही गई है। अगर इतना वेल्थ टैक्स लगाया जाए तो सालाना इतनी रकम इक_ा हो जाएगी कि न केवल सबको मुफ्त टीका लगाया जा सकेगा बल्कि सबको स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के साथ ही कम और मध्यम आय वर्ग के देशों के 3.6 अरब लोगों को सामाजिक सुरक्षा भी दी जा सकेगी।
अपने देश में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। ऑक्सफैम की ही रिपोर्ट के मुताबिक मात्र 98 सबसे अमीर भारतीयों के पास इतनी संपत्ति है जितनी कि सबसे गरीब 55 करोड़ लोगों के पास भी नहीं है। और अगर सिर्फ इन 98 भारतीयों की संपत्ति पर चार फीसदी का अतिरिक्त टैक्स लगा दिया जाए तो उससे इतना पैसा आ जाएगा है कि अगले 17 साल तक मिड-डे मील स्कीम बिना किसी बाहरी मदद के चलती रहेगी। देश में सिर्फ एक फीसदी संपत्ति कर से पूरी स्कूली शिक्षा का खर्च निकल सकता है। सचमुच वक्त आ गया है, जब सरकारों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए।

अमेरिका से अच्छे संकेत

अमेरिका से मिल रहे ये ताजा संकेत स्वागत योग्य हैं कि रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदने के मामले में वह भारत को प्रतिबंधों से छूट दे सकता है। भारत ने अक्टूबर 2018 में रूस के साथ 5 अरब डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके मुताबिक एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की पांच युनिट खरीदने की बात तय हुई थी। अमेरिका की तत्कालीन ट्रंप सरकार ने चेतावनी दी थी कि अगर भारत ने इस समझौते पर अमल किया तो उसे काटसा (काउंटरिंग अमेरिकाज ऐडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट) के तहत कड़े प्रतिबंध झेलने पड़ सकते हैं। बावजूद इसके, भारत ने सौदे को रद्द या स्थगित नहीं किया और समझौते के मुताबिक पिछले साल इसकी सप्लाई शुरू हो गई।
हालांकि अभी तक बाइडन प्रशासन ने प्रतिबंधों को लेकर कोई फैसला नहीं किया है, लेकिन जिस तरह की चर्चा वहां निर्णयकर्ताओं के बीच चल रही है, उससे लगता है कि अमेरिकी सरकार प्रतिबंध लगाने से बचना चाहेगी। सैंक्शन पॉलिसी के को-ऑर्डिनेटर पद के लिए राष्ट्रपति बाइडन के नॉमिनी जेम्स ओÓब्रायन का यह कहना महत्वपूर्ण है कि भारत पर प्रतिबंध लगाने का फैसला करने से पहले अमेरिका को जियो स्ट्रैटजिक पहलुओं, खासकर चीन के संदर्भ में बदले समीकरणों पर विचार करना होगा। यह भी कि इस मामले में भारत की तुलना तुर्की से नहीं की जा सकती। तुर्की ने भी रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदा था, जिसके कारण अमेरिका उस पर प्रतिबंध लगा चुका है।
अच्छी बात है कि अमेरिका में नीति-निर्माताओं को नए अंतरराष्ट्रीय समीकरणों के मद्देनजर भारत की बढ़ती अहमियत का अहसास है। वे भारत की स्थिति और उसकी जरूरतों को लेकर भी संवेदनशीलता दिखा रहे हैं। वैसे उन्हें यह भी पता है कि यूक्रेन के सवाल पर रूस के साथ अमेरिका के संबंधों में चाहे जितना भी तनाव आ गया हो, भारत को रूस से दूर करने की कोशिश में वे एक हद से आगे नहीं बढ़ सकते। फिलहाल चीन के आक्रामक तेवर के मद्देनजर क्वॉड के एक महत्वपूर्ण सदस्य की हैसियत से भी भारत की भूमिका खासी महत्वपूर्ण है। ऐसे में बहुत संभव है कि अमेरिका प्रतिबंध लगाकर भारत को खुद से दूर कर लेने के बजाय उसे रूस से हथियार के और ज्यादा समझौता न करने को राजी करने की नीति अपनाए।
जहां तक भारत की बात है तो यह पहले दिन से साफ है कि उसकी विदेश नीति दूसरे देशों के आग्रहों या सुझावों से नहीं बल्कि अपने हितों से निर्धारित होती है। हथियारों के मामले में रूस लंबे अर्से से भारत का सबसे बड़ा सहयोगी रहा है। पिछले दशक के दौरान भी भारत में हथियारों के कुल आयात का करीब दो तिहाई हिस्सा रूस से ही आया है। ऐसे में अचानक इस पर रोक लगाना न तो उचित है और न व्यावहारिक। यह बात अमेरिका समझ रहा है तो यह दोनों देशों के रिश्तों में आती गहराई का सूचक है।

जान और जहान

ऐसे वक्त में जब कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर में संक्रमितों का आंकड़ा ढाई लाख पार कर गया है, प्रधानमंत्री का विभिन्न मुख्यमंत्रियों के साथ महामारी से लड़ाई के लिये बैठक करना तार्किक नजर आता है। एक सप्ताह में यह प्रधानमंत्री की दूसरी बैठक थी, जिसमें कहा गया कि संक्रमण से बचाव हेतु प्रतिबंधों व उपायों को लागू करते वक्त ध्यान रहे कि स्थानीय स्तर पर लोगों की जीविका पर प्रतिकूल असर न पड़े। स्मरण रहे कि पहली लहर के दौरान लगे सख्त लॉकडाउन से नयी तरह का मानवीय संकट पैदा हुआ था। देश ने विभाजन के बाद पलायन की सबसे बड़ी त्रासदी को देखा। अब तक भी आर्थिक दृष्टि से स्थिति पूरी तरह सामान्य नहीं हो पायी है। तीसरी लहर के दौरान राज्य सरकारों को स्थानीय प्रशासन को निर्देश देने होंगे कि संक्रमण की कड़ी तोडऩे के लिये एहतियाती उपाय जरूरी हैं, लेकिन जान के साथ जहान की रक्षा भी जरूरी है। देर-सवेर संक्रमण का दायरा सिमटेगा, लेकिन अर्थव्यवस्था को लगी चोट से उबरने में लंबा वक्त लग सकता है। मगर नये संक्रमण को लेकर जैसी दुविधा शासन-प्रशासन के सामने है, वैसी ही दुविधा देश की श्रमशील आबादी के सामने है। हालांकि, केंद्र व राज्य सरकारें आश्वासन दे रही हैं कि पूरा व सख्त लॉकडाउन नहीं लगाया जायेगा, लेकिन दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। पहली लहर की सख्त बंदिशों से महानगरों में श्रमिकों की त्रासदी की कसक अभी मिटी नहीं है। यही वजह है कि देश के कई राज्यों से श्रमिकों के पलायन की खबरें मीडिया में तैरती रही हैं। जाहिर है असुरक्षा बोध को दूर करने का आश्वासन उन उद्योगों की तरफ से श्रमिकों को नहीं मिल पाया, जहां वे काम करते हैं। ऐसे संकट के दौर में उद्योग व श्रमिकों के रिश्ते महज आर्थिक आधार पर न देखे जायें और उन्हें मानवीय संकट के संदर्भ में देखकर ऐसे आश्वासन दिये जाएं कि वे ऊहापोह की स्थिति से निकल सकें।
निस्संदेह, कोरोना की तीसरी लहर ने देश के सामने नये सिरे से बड़ी चुनौती पैदा की है, अच्छी बात यह है कि तेज संक्रमण के बावजूद अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है। निस्संदेह, इसके मूल में देश में चला सफल टीकाकरण अभियान भी है। आंकड़े बता रहे हैं कि मरने व अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्होंने वैक्सीन नहीं लगवाई थी। अब वे लोग भी टीका लगवा रहे हैं, जिन्होंने पहले इसकी अनदेखी की। सुखद है कि देश की पंद्रह से 18 साल तक की किशोर आबादी का टीकाकरण शुरू हो गया है और किशोरों ने उत्साह के साथ टीकाकरण अभियान में भागीदारी की है। इसके बावजूद जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि टेस्टिंग, ट्रैकिंग और ट्रीटमेंट की व्यवस्था जितनी बेहतर होगी, लोगों को अस्पताल में भर्ती करवाने की जरूरत उतनी ही कम पड़ेगी। उन्होंने अधिक संक्रमण वाले इलाकों में निषेध क्षेत्र घोषित करने तथा घरों में पृथकवास पर जोर दिया। दरअसल, जब से विशेषज्ञों ने कहा कि नया वेरिएंट कम घातक है, तो लोग इस संकट को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। भीड़भाड़ वाले इलाकों में कोरोना प्रोटोकॉल का पालन न करने की खबरें हैं। पूरी दुनिया कह रही है कि मास्क, सुरक्षित दूरी और बार-बार हाथ धोने से बचाव संभव है। विडंबना ही है कि जब तक प्रशासन सख्ती नहीं करता, हम नियम-कानूनों का पालन स्वेच्छा से नहीं करते। जबकि हमने पहली व दूसरी लहर में बड़ी कीमत चुकायी है। एक संकट यह भी है कि देश में बड़ी आबादी ऐसी है जो खांसी-जुकाम को सामान्य फ्लू मानकर जांच करने से बचती है। फिर गांव-देहात में कोरोना जांच की पर्याप्त चिकित्सा सुविधा न होने की बात कही जाती है। यही वजह है कि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यदि अमेरिका में रोज दस लाख मामले आ रहे हैं तो उनकी जांच प्रक्रिया में तेजी और पर्याप्त चिकित्सा तंत्र का होना है। जांच की स्थिति ठीक होने पर भारत में वास्तविक संक्रमण की दर काफी अधिक हो सकती है।

अपूरणीय क्षति

ऐसे समय में जब देश चीन-पाक सीमा पर सुरक्षा की गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है, सेना के आधुनिकीकरण और तीनों सेनाओं के बीच रणनीतिक दृष्टि से बेहतर तालमेल बनाने वाले प्रमुख रक्षा अध्यक्ष यानी सीडीएस जनरल बिपिन रावत की हेलिकॉप्टर हादसे में मृत्यु देश के लिये अपूरणीय क्षति है। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रावत की आवश्यकता देश की सुरक्षा से जुड़े विभिन्न आयामों के लिए अपरिहार्य थी। जब राजग सरकार ने देश की सुरक्षा चुनौतियों के मद्देनजर तीनों सेनाओं में बेहतर तालमेल और कारगर निर्णय क्षमता के लिये सीडीएस पद सृजित किया तो वे देश की पहली पसंद थे। थल सेनाध्यक्ष के कार्यकाल के रूप में उनका योगदान उन्हें इस महत्वपूर्ण पद के लिये अतिरिक्त योग्यता के रूप में देखा गया। दुखद ही है कि इस हादसे में बिपिन रावत, उनकी पत्नी समेत सेना के वरिष्ठ अधिकारियों, चालक दल के सदस्यों व जवानों समेत तेरह लोगों को देश ने खोया है। एक लेफ्टिनेंट जनरल के पुत्र बिपिन रावत ने सेना को अपना भविष्य बनाने के संकल्प के साथ देश की सेवा में एक बेदाग भूमिका निभायी। हालांकि, अपनी स्पष्टवादिता के चलते कई बार उनके बयानों को लेकर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी आई हैं, लेकिन शत्रुओं के खिलाफ उनकी रणनीति स्पष्ट और लक्ष्यों को हासिल करने वाली थी। पुलवामा हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई थी। कारगर कार्यशैली के चलते ही वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ बेहतर तालमेल के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े अभियानों को बेहतर ढंग से अंजाम दे पाये। उन्हें इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि मौजूदा रक्षा चुनौतियों के बीच वे भारतीय सेना के तीनों अंगों के संरचनात्मक परिवर्तन के माध्यम बने। इसके जरिये सेना के तीनों अंगों में बेहतर तालमेल स्थापित हो पाया। उम्मीद थी कि अपने बचे एक साल के कार्यकाल में वे देश की सुरक्षा से जुड़े बाकी मुद्दों को निर्णायक दिशा दे पायेंगे। मृत्यु से एक दिन पूर्व एक कार्यक्रम में जैविक युद्ध के खतरे के प्रति चेताकर उन्होंने नई सुरक्षा चुनौतियों की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था।
निस्संदेह, देश का हर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने आप में विशिष्ट होता है, उसका कोई विकल्प नहीं होता। ऐसे में उसकी रक्षा देश का दायित्व ही होता है। तमिलनाडु में कुन्नूर के निकट हुए हादसे ने महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े किये हैं। यूं तो वे वायुसेना के जांचे-परखे एम.आई-17, बी-5 के जरिये यात्रा कर रहे थे, जो उन्नत किस्म का हेलिकॉप्टर है, लेकिन इस हादसे ने इसकी उपादेयता पर नये सिरे से बहस छेड़ी है। हालांकि, बकौल रक्षामंत्री इस हादसे की त्रिस्तरीय जांच की जा रही है, लेकिन देश को आश्वस्त करना होगा कि इस हादसे से सबक लेकर देश की अनमोल हस्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। निस्संदेह, दुर्घटना की हकीकत जांच के बाद ही सामने आएगी, लेकिन देश के रक्षा के महत्वपूर्ण निर्णयों से जुड़े बड़े सैन्य अधिकारी की हवाई दुर्घटना मौत में साजिश के कोण से भी जांच होनी चाहिए। विगत में हमने देश के अपने क्षेत्रों के अनमोल रत्नों को संदिग्ध हादसों में खोया है। देश में युद्धक विमानों व हेलिकॉप्टर हादसों से देश को फिर कोई बड़ी क्षति न उठानी पड़े, इस दिशा में गंभीर प्रयासों की जरूरत है। ताकि देश यह भी जान सके कि यह हादसा सिर्फ कोहरे के कारण कम दृश्यता के कारण हुआ है या फिर इसके पीछे कुछ तकनीकी खामियां थीं। आज जब देश आर्थिक व तकनीक के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित कर रहा है तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि देश की महत्वपूर्ण हस्तियों की हवाई यात्रा आधुनिक तकनीकी सुविधा से दुर्घटनाओं से निरापद रहे। यूं तो हर भारतीय का जीवन महत्वपूर्ण है, फिर एक जवान का जीवन और महत्वपूर्ण है, तो उन जवानों का नेतृत्व करने वाले सेनानायक का जीवन तो अनमोल होता है, जिसकी कारगर सुरक्षा की जिम्मेदारी देश की है। बहरहाल, जनरल बिपिन रावत और हादसे में मारे गये अन्य सैनिक अधिकारियों व जवानों के बलिदान को कृतज्ञ राष्ट्र याद रखेगा।

कोविड से अनाथ

कोविड-19 ने हमारे समाज को आर्थिक व सामाजिक रूप से बुरी तरह झकझोरा है। सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो देश में ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में है जिन्होंने माता-पिता या दोनों में से एक को कोरोना महामारी में खोया है। इस संकट के दौरान देश में मानवता के जीवंत उदाहरण तब नजर आये जब व्यक्ति व संस्था के स्तर पर लोग जरूरतमंदों की मदद को आगे आये। उन्होंने खाने, पैसे, दवा व अन्य संसाधनों से मुसीबत के मारे लोगों की मदद की। लेकिन इस संकट में समाज का स्याह पक्ष भी उजागर हुआ, जब कुछ लोगों ने संकट को अवसर बनाया। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो महामारी से अनाथ हुए बच्चों का शोषण करने पर उतारू हैं। अमानवीयता की हद देखिये कि कोरोना महामारी में अपनों को खोने वाले मुसीबत के मारे बच्चों की सौदेबाजी की जा रही है। एक समाचार संगठन की पड़ताल और जम्मू-कश्मीर में अधिकारियों की जांच के बाद दो आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। वे बच्चों के लिये एनजीओ चलाने की आड़ में गैरकानूनी रूप से बच्चों को गोद देने का रैकेट चला रहे थे। प्रपंच करके लाये गये बच्चों में से एक बच्चे को पौने लाख से पौने दो लाख रुपये में बेचने की कोशिश हो रही थी। दिल्ली में एक अन्य एजेंसी बिना कागजी कार्रवाई पूरी किये बच्चों का व्यापार करती नजर आई। यह गंभीर चिंता का विषय है।
निस्संदेह समाज में ऐसे अनैतिक कार्यों में लिप्त लोग सख्त सजा के अधिकारी हैं। वास्तव में देश में आई कोरोना की दूसरी लहर से देश में जनधन की व्यापक क्षति हुई। इसके बाद सोशल मीडिया पर माता-पिता या दोनों में एक अभिभावक को खोने वाले बच्चों की खबरें बड़ी संख्या में देखी गईं। अनाथ बच्चों के विवरण के साथ उन्हें गोद लेने के आग्रह भी शामिल थे। एक अनुमान के अनुसार एक लाख बच्चों ने माता-पिता में से एक को खो दिया। तब भी बाल अधिकारों से जुड़े कार्यकर्ताओं और कानून क्रियान्वयन करने वाली संस्थाओं ने इन पोस्टों की वस्तुस्थिति पर शंका जताते हुए इनके जरिये बाल तस्करी के बढऩे की आशंका जतायी थी। ऐसे में जब राज्य सरकारें इन बच्चों की अभिभावक हैं तो अधिकारियों से ऐसे मामलों में जिम्मेदारी की भूमिका की उम्मीद की जाती है। दरअसल, किशोर न्याय अधिनियम 2015 गोद लेने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले रिश्तेदारों द्वारा उनकी देखभाल को प्राथमिकता देता है। यानी जहां परिवार के सदस्य बच्चे को रखने के इच्छुक हों, तो उन्हें वरीयता दी जाती है। ऐसे में जब महामारी का संकट पूरी तरह टला नहीं है और तीसरी लहर की आशंका जाहिर की जा रही है तो प्रभावित बच्चों का भरोसमंद रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए। ताकि उन्हें बाल तस्करी करने वालों के चंगुल में आने से बचाया जाये। जो लोग बच्चों को गोद लेने के वास्तव में इच्छुक हैं, उनकी विश्वसनीयता को गंभीरता के साथ जांचा जाना चाहिए। जिला स्तर पर अधिकारियों को सतर्कता के साथ मामले की पूरी पड़ताल करनी चाहिए।

  तीसरी लहर का खतरा

कोविड-19 वायरस के अब तक के सबसे संक्रामक रूप ओमिक्रॉन के मरीज कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली में भी मिले हैं। यह बात सही है कि अभी भारत में इसके मामले बहुत कम हैं, लेकिन इसकी संक्रामकता को ध्यान में रखते हुए जानकार यहां कोविड की तीसरी लहर की भविष्यवाणी करने लगे हैं। एक और दिक्कत यह है कि ओमिक्रॉन के मामले में वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां भी अपने टीकों को लेकर श्योर नहीं हो पा रही हैं।
पिछले दिनों अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना के सीईओ ने कहा भी था कि ओमिक्रॉन के स्पाइक प्रोटीन में इतनी बड़ी संख्या में म्यूटेशन हो रहे हैं कि यह वैक्सीन लगाने के बाद बनी एंटीबॉडीज से बचने में कामयाब हो सकता है। इससे ओमिक्रॉन को लेकर फिक्र बढ़ी है। इसके साथ यह भी कहा गया है कि ओमिक्रॉन भले ही संक्रामकता के मामले में कोविड-19 वायरस की दूसरी किस्मों से आगे है, लेकिन यह उतना जानलेवा नहीं है। यों तो इस बारे में समय के साथ अधिक जानकारी सामने आएगी, लेकिन यह मानी हुई बात है कि म्यूटेशन के साथ वायरस कम जानलेवा होता जाता है।
अभी तक दुनिया के जिन देशों में ओमिक्रॉन के मरीज मिले हैं, उनमें से किसी के भी मरने की खबर नहीं आई है। फिर भी एक्सपर्ट्स की भविष्यवाणी को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को संभावित तीसरी लहर से निपटने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। इस मामले में दूसरी लहर के दौरान के सबक याद रखने होंगे, जब स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से लाचार दिख रही थी। तीसरी लहर से निपटने की तैयारियों के साथ कुछ और बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। इधर, वैक्सिनेशन की रफ्तार धीमी पड़ी है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो वैक्सीन की पहली डोज लेने के बाद दूसरी डोज लगवाने में लापरवाही बरत रहे हैं।
इस मामले में केंद्र और खासतौर पर राज्य सरकारों को खास पहल करनी होगी। राज्यों को यह भी पक्का करना होगा कि कोविड की जांच की रफ्तार धीमी ना पड़े। दूसरी लहर के बाद कोरोना के मामलों के कम होने के साथ लोग सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क लगाने को भी लेकर लापरवाह हुए हैं। याद रखना होगा कि कोविड-19 महामारी खत्म नहीं हुई है और इससे बचने का पहला उपाय सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क का प्रयोग है। सरकार को भी ओमिक्रॉन को लेकर चौकस रहना होगा। अगर इसके हॉट स्पॉट उभरते हैं तो जल्द से जल्द वहां से दूसरी जगहों पर संक्रमण रोकने के उपाय करने होंगे। दूसरी लहर के दौरान जिस तरह से पूर्ण लॉकडाउन से बचा गया, वह इकॉनमिक रिकवरी में मददगार साबित हुआ।
संभावित तीसरी लहर में यह सबक भी याद रखना होगा। आखिर में, ओमिक्रॉन को लेकर घबराने की जरूरत नहीं है। जिस तरह से दुनिया से कोरोना महामारी से निपटने के लिए रेकॉर्ड समय में वैक्सीन बनाई। जिस तरह से सामान्य जिंदगी की ओर लौटने की कोशिश हो रही है, वह काबिल-ए-तारीफ है। इसमें कोई शक नहीं है कि दुनिया ओमिक्रॉन के खतरे से भी उबर जाएगी।

टीके से परहेज

ऐसे वक्त में जब देश एक सौ चार करोड़ से अधिक लोगों को टीके की पहली डोज लगा चुका है, कुछ विसंगतियां हमारी चिंता बढ़ाने वाली साबित हो रही हैं जो कहीं न कहीं कोरोना के खिलाफ जीती जा रही लड़ाई को कमजोर कर सकती हैं। हाल ही में एक परेशान करने वाला यह तथ्य सामने आया है कि देश में करीब ग्यारह करोड़ लोगों ने पहली खुराक के बाद दूसरी खुराक का समय आ जाने के बावजूद टीका नहीं लगवाया। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि देश में लगभग चार करोड़ वयस्क दूसरी खुराक के लिये निर्धारित तिथि से छह सप्ताह से अधिक लेट हो चुके हैं। इसी तरह डेढ़ करोड़ लोगों को दूसरी डोज के समय से चार से छह सप्ताह अधिक हो चुके हैं। वहीं डेढ़ करोड़ लोग दो से चार सप्ताह गुजरने के बावजूद टीका लगवाने नहीं पहुंचे। साथ ही करीब 3.38 करोड़ लोग दूसरे टीके की निर्धारित अवधि से दो सप्ताह बीत जाने के बावजूद टीका लगाने को उत्सुक नजर नहीं आते। ऐसे समय में जब देश में कोविशील्ड व कोवैक्सीन के अलावा स्पूतनिक-वी वैक्सीन उपलब्ध हैं और उनका भारत में ही उत्पादन हो रहा है, टीके लगाने में उदासीनता का कारण समझ से परे है। देश में पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध हैं और देश अब जरूरतमंद देशों को निर्यात का भी मन बना चुका है। ऐसे में जब पहले टीके की खुराक ले चुके लोग दूसरा टीका लेने में कोताही बरत रहे हैं तो अधिकारियों को भी ऐसे लोगों को टीका लगाने के लिये तैयार करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। यह चिंता की बात है कि पिछले दिनों इस गंभीर समस्या के बाबत केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा आहूत बैठक में कुछ उत्तरी राज्यों ने भाग नहीं लिया। भले ही हमने सौ करोड़ टीकाकरण का मनोवैज्ञानिक लक्ष्य छू लिया हो लेकिन अभी तीसरी लहर का खतरा टला नहीं है। ऐसे में कोई ऐसी चूक नहीं होनी चाहिए जो कालांतर आत्मघाती साबित हो।
भारत जैसे बड़ी आबादी और सीमित संसाधनों वाले देश में यह गर्व की बात है कि हम देश की 76 फीसदी आबादी को टीके की एक खुराक और बत्तीस फीसदी लोगों को दोनों खुराक दे चुके हैं। विगत में कई वैज्ञानिक अध्ययन इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि टीके की एक खुराक की तुलना में दो खुराक कोविड-19 के खिलाफ अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा प्रदान करती है। ऐसे में यह विश्वसनीय निष्कर्ष स्वयं में प्रमाण है और लोगों को दोनों डोज लेने के लिये प्रेरित करने के लिये पर्याप्त प्रयास होने चाहिए। यदि इसके बावजूद लोग दुराग्रह-अज्ञानता और आलस्यवश दूसरा टीका लगाने आगे नहीं आते तो केंद्र व राज्यों को मिलकर उन्हें प्रेरित करना चाहिए कि वे जितना जल्दी हो सके, दूसरा टीका लगा लें। इसके लिए केंद्र व राज्यों को मल्टी-मीडिया साधनों और जागरूकता अभियानों के जरिये लोगों को इस मुहिम में शामिल करने को प्रेरित किया जाना चाहिए। यदि इसके बावजूद बड़ी संख्या में लोग आगे नहीं आते तो इस बाबत चेतावनी भी देनी चाहिए। दरअसल, कुछ लोगों की लापरवाही सुरक्षा शृंखला को तोड़ सकती है और बड़ी समस्या की वजह बन सकती है। निस्संदेह, इस मामले में हम चूके हैं कि कोवैक्सीन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने में हम कामयाब नहीं हो सके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैक्सीन निर्माता भारत बायोटेक से क्लीनिकल ट्रायल का विस्तृत ब्योरा मांगा है। इस बाबत तीन नवंबर को होने वाली बैठक में कोवैक्सीन को आपातकालीन उपयोग के लिये मंजूरी से जुड़े जोखिम व लाभ पर विचार किया जायेगा। इसके साथ ही डब्ल्यूएचओ की रीति-नीतियों पर भी सवाल उठता है कि बीते जुलाई में भारत बायोटेक द्वारा डाटा उपलब्ध कराये जाने के बावजूद अभी तक इस पर अंतिम निर्णय नहीं लिया गया। विडंबना यह है कि इस टीके को लगाने वाले लाखों वे भारतीय भी हैं जो डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुमति के इंतजार के कारण विदेश यात्रा करने में सक्षम नहीं हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियां भारत के टीकाकरण कार्यक्रम को कमजोर कर सकती हैं, जिसने हाल के महीनों में तेजी से प्रगति की है।

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