राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं

यह पुरानी कहावत है। राजनीति हमेशा नई संभावनाओं से भरी होती है और कुछ भी नामुमकिन नहीं होता है। बिहार में राजद और जदयू का साथ आना, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का साथ मिल कर चुनाव लडऩा और महाराष्ट्र में कांग्रेस व एनसीपी के साथ शिव सेना का तालमेल इसकी मिसाल है। तभी पिछले दिनों जब शिव सेना के नेता आदित्य ठाकरे पटना पहुंचे और राजद नेता तेजस्वी यादव से मुलाकात की तो यह चर्चा शुरू हुई कि कैसे समय का चक्र 360 डिग्री पर घूम गया है। कुछ समय पहले तक महाराष्ट्र में शिव सेना के नेता बिहारी और पूर्वाचंल के भैया लोगों के खून के प्यासे होते थे। उन पर आए दिन हमला होता था और हर चौराहे पर उनको अपमानित किया जाता था।

लेकिन आज शिव सेना का तालमेल भाजपा से टूट गया है तो उसे प्रवासी वोटों की जरूरत है और उसके लिए बिहार की पार्टियां अहम हो गई हैं। मुंबई में प्रवासी आबादी बड़ी है और बिहार की राजनीति उनका वोट प्रभावित कर सकती है। वैसे भी उद्धव ठाकरे के कमान संभालने के बाद शिव सेना का नजरिया बदल गया है और उसने प्रवासियों पर हमले बंद कर दिए हैं। फिर भी भाजपा के नेता सुशील मोदी ने इसका जिक्र किया। उन्होंने बाल ठाकरे वाली असली शिव सेना एकनाथ शिंदे गुट को बताया। लेकिन वे भूल गए कि बाल ठाकरे वाली असली शिव सेना ही प्रवासियों पर हमला करती थी, उद्धव वाली शिव सेना नहीं करती है। इसी तरह प्रवासियों के प्रति ज्यादा नफरत राज ठाकरे ने दिखाई थी और वे भी अभी भाजपा के साथ हैं।

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भारतीय रेलवे ने आपदा को अवसर बनाया

भारतीय रेलवे ने कोरोना वायरस की महामारी के समय ट्रेन सेवाएं बंद की तो और सेवाएं भी बंद कर दीं। जैसे पहले बुजुर्गों को किराए में 50 फीसदी तक छूट मिलती थी। कोरोना के समय यह कहते हुए इसे बंद किया गया कि छूट बंद करने से बुजुर्ग लोग गैर जरूरी यात्राएं नहीं करेंगे। तब भी इसका मजाक उड़ा था और विरोध भी हुआ था।

लेकिन तब लगा था कि कोरोना खत्म होने के बाद शायद फिर से बुजुर्गों के लिए छूट बहाल हो जाएगी। लेकिन बुधवार को संसद सत्र के दौरान रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने साफ कर दिया कि कोई छूट बहाल नहीं होने जा रही है। पहले बुजुर्गों की गैर जरूरी यात्रा रोकने के लिए छूट बंद की गई थी लेकिन अब कारण बदल गया है। अब रेल मंत्री ने कहा है कि इस पर बहुत खर्च आता है इसलिए इसे बंद कर दिया गया है।

सोचें, बुजुर्ग लोगों को भाजपा की कई सरकारें मुफ्त में तीर्थयात्रा करा रही है। उस पर होने वाला खर्च उठाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन बुजुर्ग की दूसरी जरूरी ट्रेन यात्रा पर छूट नहीं दी जाएगी क्योंकि खर्च बहुत ज्यादा आ रहा है! इतना हीं नहीं रेल मंत्री ने यह भी कहा कि रेलवे में एसी 1, एसी 2, एसी 3 के अलावा एसी चेयर कार, स्लीपर और जनरल बोगी लगी होती है अगर किसी को यात्रा करनी है तो वह अपनी क्षमता के हिसाब से इनमें से किसी में यात्रा कर सकता है।

इसका मतलब है कि अगर किसी बुजुर्ग की हैसियत थर्ड क्लास में चलने की है तो वह उसी में चले वह क्यों सरकारी छूट लेकर सेकेंड क्लास में चलने की सोच रहा है! रेल मंत्री ने यह भी कहा कि अब भी रेलवे की सेवाएं बहुत सस्ती हैं और किराए का 50 फीसदी खर्च रेलवे खुद वहन करता है। सोचें, रेलवे खुद वहन करता है का क्या मतलब है?

क्या रेलवे ने कोई नोट छापने की अपनी मशीन लगा रखी है कि उसके पैसे भी लोगों के कर, किराए या मालभाड़े से ही आता है? बहरहाल, आपदा में अवसर बना कर बुजुर्गों और खिलाडिय़ों आदि को मिलने वाली छूट समाप्त कर दी गई।

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कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की भूमिका बढ़ेगी!

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की भूमिका बढ़ेगी। कांग्रेस के जानकार नेताओं का कहना है कि उनको सिर्फ उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना कर नहीं रखा जाएगा। उनको उत्तर प्रदेश के साथ साथ कुछ और राज्यों का प्रभारी बनाया जा सकता है या उनके लिए कोई नया पद बनाया जा सकता है।

यह भी कहा जा रहा है कि अगर राहुल गांधी अध्यक्ष नहीं बनते हैं तो प्रियंका या तो अध्यक्ष बनेंगी या संगठन महामंत्री बनेंगी। ध्यान रहे चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी उनको संगठन महामंत्री बनाने का सुझाव दिया था। कांग्रेस के जानकार सूत्रों के मुताबिक इस साल होने वाले दोनों राज्यों के चुनाव में वे अहम भूमिका निभाएंगी, खास कर हिमाचल प्रदेश में जहां उनके करीबी राजीव शुक्ला प्रभारी हैं। प्रियंका ने ही राजीव शुक्ला को राज्यसभा में भिजवाया है।

बहरहाल, मध्य प्रदेश में मेयर के चुनाव में कांग्रेस के तीन शहरों में जीतने के बाद जिस तरह की चर्चा हो रही है उससे भी लग रहा है कि वे मध्य प्रदेश में कुछ भूमिका निभाएंगी। मध्य प्रदेश के नतीजों बाद प्रियंका गांधी वाड्रा ने पार्टी कार्यकर्ताओं को बधाई दी तो पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने उनका आभार जताते हुए ट्विट किया की सभी कांग्रेसजनों के कमलनाथ के नेतृत्व में एकजुट होकर लडऩे से यह नतीजा आया है।

इसी ट्विट में उन्होंने लिखा कि अब 2023 के विधानसभा चुनावों की तैयारी करनी है। ध्यान रहे कमलनाथ भी प्रियंका गांधी वाड्रा के संपर्क में हैं और पार्टी उनकी कमान में चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही है।

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भारत की आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं.75 साल पर 75 कार्यक्रम!

भारत की आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं इसलिए पिछले एक साल से अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं। देश में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। इसके बाद के 25 साल को यानी आजादी के सौ साल पूरे होने तक के समय को अमृत काल कहा गया है। सो, चारों तरफ इस बात की होड़ लगी है कि 75 साल पूरे होने के मौके पर क्या ऐसा किया जाए, जिसमें 75 के अंक का इस्तेमाल हो।

सिर्फ सरकारी एजेंसियां ही इस होड़ में नहीं शामिल हैं, देश का निजी सेक्टर भी इस होड़ में शामिल हो गया है। अभी पूरे देश में सामानों की खरीद पर 75 फीसदी की छूट का ऐलान होने ही वाला है।बहरहाल, केंद्र सरकार ने 75 दिन तक वैक्सीन की प्रिकॉशन डोज फ्री में लगाने का ऐलान किया है। यह सबसे कमाल का काम है। एक साल से ज्यादा समय से देश भर के लोगों को मुफ्त में वैक्सीन लगाई जा रही है।

इसका देश भर में प्रचार भी हुआ है और थैंक्यू मोदीजी का अभियान भी चला था। लेकिन अब 18 से 60 साल की उम्र के लोगों के लिए 75 दिन तक बूस्टर डोज फ्री में लगाने का अभियान चल रहा है। शुक्रवार यानी 15 जुलाई से यह अभियान शुरू हो गया। हकीकत यह है कि देश में बूस्टर डोज को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिख रहा है।

देखते हैं कि 75 दिन के इस अभियान में क्या तेजी आती है।इसके बाद पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने एक अनोखी पहल की। मंत्रालय ने कहा है कि आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर देश के 75 समुद्र तटों की सफाई कराई जाएगी। सोचें, देश में समुद्र तटों की संख्या हजारों में है और हर जगह सफाई की जरूरत है। लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर सिर्फ 75 समुद्र तटों की सफाई होगी।

इस विभाग के मंत्री जितेंद्र सिंह हैं। उन्होंने इसमें एक और खास काम किया है। इसकी शुरुआत तीन जुलाई को हुई थी और समापन 17 सितंबर को होगा, जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है। उस दिन वैसे अंतरराष्ट्रीय समुद्र तट सफाई दिवस भी मनाया जाता है।इससे पहले खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2021 में अहमदाबाद में अमृत महोत्सव का आगाज कर दिया था।

उन्होंने कहा था कि आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर अगले 75 हफ्ते देश में हर दिन कोई न कोई कार्यक्रम होगा। उसी समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे स्कूल-कॉलेजों से आग्रह करेंगे कि वे कानूनी लड़ाई की 75 घटनाएं तलाशें। उन्होंने 75 आइडिया, 75 घटनाएं, 75 उपलब्धियां, 75 संकल्प आदि की भी बात कही थी।

इस आधार पर देश भर में 75 को केंद्र में रख कर अभियान चल रहा है। कहीं 75 कविताएं लिखी जा रही हैं तो कहीं 75 निबंध लिखवाए जा रहे हैं।

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राष्ट्रपति चुनाव, विपक्ष के वोट बंटते रहे हैं

राष्ट्रपति के चुनाव में इस बात का बहुत शोर हो रहा है कि विपक्षी पार्टियों के वोट बंट रहे हैं और उनकी एकता भंग हो गई है। मीडिया में इस बात के लंबे लंबे कार्यक्रम चल रहे हैं कि भाजपा के मास्टरस्ट्रोक के आगे कैसे विपक्ष धराशायी हो गया है। लेकिन यह कोई बात नहीं है। राष्ट्रपति के हर चुनाव में विपक्ष के वोट बंटते रहे हैं। उम्मीदवार के आधार पर पार्टियां फैसला करती हैं।

शिव सेना ने दबाव में या जैसे भी एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने का फैसला किया। लेकिन यह काम वह पहले भी कर चुकी है। भाजपा के साथ रहते हुए दो चुनावों में उसने कांग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन किया था। पहले 2007 में उसने मराठी के नाम पर प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया और फिर 2012 में पता नहीं किस आधार पर प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया।पता नहीं टेलीविजन चैनलों के पत्रकारों को ध्यान है या नहीं कि शिव सेना ने यह काम 1997 में भी किया था, जब कांग्रेस और भाजपा सबने मिल कर केआर नारायणन को समर्थन दिया था

तब शिव सेना ने भाजपा का साथ छोड़ कर निर्दलीय उम्मीदवार टीएन शेषन का साथ दिया था। इसी तरह 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम को कांग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टियों ने समर्थन दिया था लेकिन वामपंथी पार्टियों ने कैप्टेन लक्ष्मी सहगल तो उम्मीदवार बना कर उतारा था।

राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार राजद के समर्थन से मुख्यमंत्री थे लेकिन उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन किया, जबकि कांग्रेस और राजद ने बिहार की ही मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया था। इसी तरह 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के समय झारखंड मुक्ति मोर्चा एनडीए के साथ था और एनडीए ने आदिवासी उम्मीदवार के रूप में पीए संगमा को उतारा था पर जेएमएम ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया।

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भारत जोड़ो बनाम स्नेह यात्रा

भारत जोड़ो बनाम स्नेह यात्रा. देश की दोनों बड़ी पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस दो बड़ी यात्राओं की तैयारी कर रही हैं। दोनों का यात्राओं का आइडिया एक-दूसरे से मिलता-जुलता है और दोनों का मकसद भी एक जैसा है। कांग्रेस पार्टी अक्टूबर में भारत जोड़ो यात्रा करेगी और उससे पहले भाजपा को स्नेह यात्रा निकालनी है। यात्रा की घोषणा कांग्रेस ने पहले की थी, लेकिन उससे पहले भाजपा की यात्रा होगी।

ध्यान रहे स्नेह भी जोडऩे का ही मकसद लिए होता है। इसका आइडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में दिया था। इस महीने पार्टी के सभी सात मोर्चों की बैठक बिहार में होने वाली है, जिसमें इस यात्रा की तैयारियों के बारे में विचार किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने पार्टी के नेताओं से कहा कि वे लोगों के बीच जाएं, उनकी बात सुनें और अपनी बात उन्हें बताएं।

इससे पहले कांग्रेस ने उदयपुर में हुए नव संकल्प शिविर में भारत जोड़ो यात्रा का ऐलान किया था। दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की जयंती के दिन इसकी शुरुआत होगी। इसकी तैयारी पर विचार के लिए कांग्रेस ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्षों, प्रभारियों और महासचिवों की बैठक दिल्ली में बुलाई है। हालांकि इस बैठक से ठीक पहले पार्टी के नेता राहुल गांधी विदेश यात्रा पर चले गए।

वे रविवार को लौटेंगे और सोमवार को संसद के मॉनसून सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में हिस्सा लेंगे। कांग्रेस की तैयारी बड़ी हो रही है और उसे पूरे देश में माहौल बनाने व मैसेज देने के लिए यात्रा करनी है।

दूसरी ओर भाजपा की यात्रा जमीनी स्तर पर पार्टी के कार्यकर्ताओं को और आम मतदाताओं को जोडऩे के लिए होने वाली है। बेशक उसमें ज्यादा धूम-धड़ाका नहीं होगा लेकिन उसका असर कम नहीं होगा।

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आरंभ में जीएसटी काउंसिल को सहयोगात्मक संघवाद की उत्कृष्ट मिसाल बताया गया था

आरंभ में जीएसटी काउंसिल को सहयोगात्मक संघवाद की उत्कृष्ट मिसाल बताया गया था। लेकिन व्यवहार में हालत यह है कि कांग्रेस ने इसकी बैठक में भी ‘बुल्डोजर चलाए जाने’ का आरोप लगाया है।

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के लागू हुए पांच साल पूरे हो गए हैँ। पांचवीं सालगिरह से ठीक पहले जीएसटी काउंसिल की बैठक हुई। उसमें घरेलू जरूरत की चीजों पर टैक्स बढ़ाने का फैसला हुआ। इस फैसले से देश की आर्थिक हालत से परिचित लोग अचंभित हुए। इसलिए कि इस वक्त जबकि लगभग सारी दुनिया रिकॉर्ड महंगाई झेल रही है, सरकारों से अपेक्षा ऐसे कदम उठाने की है, जिससे मूल्यवृद्धि पर लगाम लगे।

जबकि भारत में उलटा फैसला हुआ है। जीएसटी काउंसिल की बैठक में एक एजेंडा राज्यों की यह मांग भी था कि उनके लिए मुआवजे का प्रावधान चार साल के लिए और बढाया जाए। जीएसटी लागू होते वक्त मुआवजे की पांच साल की अवधि तय की गई थी, जो जाहिर है कि अब पूरी हो चुकी है। इस बीच जीएसटी के आम असर, महामारी और अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली के कारण राज्यों माली सेहत काफी बिगड़ चुकी है।

ऐसे में अगर उनके लिए धन की व्यवस्था नहीं होगी, तो उनके लिए उन जिम्मेदारियों को पूरा करना संभव नहीं रह जाएगा, जिसकी भारतीय संविधान के तहत उनसे अपेक्षा की जाती है। लेकिन इस मांग को अगली बैठक तक के लिए टाल दिया गया।

आरंभ में जीएसटी काउंसिल को सहयोगात्मक संघवाद की उत्कृष्ट मिसाल बताया गया था। लेकिन व्यवहार में हालत यह है कि कांग्रेस ने इसकी बैठक में भी ‘बुल्डोजर चलाए जाने’ का आरोप लगाया है। दरअसल, एक जुलाई को कांग्रेस ने जीएसटी पर अब तक के अनुभव की जो आलोचना पेश की, उसमें बहुत-सी ऐसी खास बातें हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

इस लिहाज से कांग्रेस की यह मांग उचित है कि पांच साल पूरा होने के बाद अब सरकार को सर्वदलीय बैठक बुला कर इसके अमल के तजुर्बे पर विचार-विमर्श करना चाहिए। लेकिन जब बुल्डोजर सचमुच हमारी राजनीतिक संस्कृति का प्रतीक बन गया है, तब ऐसा होने की उम्मीद कम ही है।

बहरहाल, जीएसटी के कारण छोटे और मझौले कारोबार की मुश्किलें जिस तरह बढ़ीं और अब आम उपभोक्ताओं की और बढऩे वाली हैं, उसे देखते हुए इस मामले में बुल्डोजरी नजरिये का मतलब और भी बड़ी आर्थिक मुसीबतों को न्योता देना होगा।

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कांग्रेस में पुराने नेताओं का महत्व बढ़ा

कांग्रेस में पुराने नेताओं की पूछ बढ़ी है। ऐसा लग रहा है कि पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी पुराने नेताओं को सौंपने और उनके हिसाब से काम करने की सोच बन रही है। जयराम रमेश को संचार विभाग का प्रमुख बनाना इसी तरह का फैसला था। इसका असर भी दिख रहा है। कांग्रेस पहले के मुकाबले ज्यादा प्रभावी तरीके से अब भाजपा और उसके प्रचार का जवाब दे रही है। राहुल गांधी की छवि खराब करने वाले अभियान को रोकने के लिए भी कांग्रेस की नई मीडिया टीम ने ठोस पहल की है।

रमेश का फैसला करने से पहले कांग्रेस आलाकमान ने हरियाणा में भूपेंदर सिंह हुड्डा की कमान बनवाई। वे खुद विधायक दल के नेता हैं और उनकी पसंद के नेता को प्रदेश अध्यक्ष बना कर अभी से 2024 के विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी सौंप दी गई।जिस समय हुड्डा का फैसला हुआ उसी समय हिमाचल प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह की सांसद पत्नी प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और इस साल के चुनाव की जिम्मेदारी उनको सौंपी गई।

अगले साल कर्नाटक में चुनाव होने वाला है, जहां सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार की कमान में पार्टी चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही है। अशोक गहलोत और भूपेश बघेल का महत्व भी कांग्रेस ने समझा हुआ है। मध्य प्रदेश में भी पार्टी ने कमलनाथ को ही जिम्मेदारी सौंपी है। आने वाले दिनों मे ऐसे और फैसले होंगे। बताया जा रहा है कि पार्टी के पुराने नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाएगी और उनके साथ नए नेता जोड़े जाएंगे।असल में पिछले चार-पांच साल में पार्टी के नए नेताओं ने जितना निराश किया है उससे कांग्रेस आलाकमान की आंख खुली है।

कांग्रेस के युवा नेता सब कुछ मिलने के बाद या तो असफल रहे हैं या पार्टी छोड़ कर भाजपा और दूसरी पार्टियों के साथ चले गए हैं। पंजाब में चन्नी और सिद्धू का प्रयोग असफल रहा। गुजरात में चावड़ा और धनानी का प्रयोग असफल रहा। महाराष्ट्र में नाना पटोले का प्रयोग भी सफल होता नहीं दिख रहा है। असम में गौरव गोगोई और सुष्मिता देब का प्रयोग भी फेल हो गया।राहुल गांधी ने पहले नए नेताओं को लेकर बड़े प्रयोग किए। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के पाला बदलने के बाद उनका मोहभंग हुआ।

फिर जब जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी सब कुछ मिलने के बाद पार्टी छोड़ कर भाजपा में चले गए तो राहुल ने नए प्रयोग से तौबा की। बताया जा रहा है कि अपने आसपास के अराजनीतिक लोगों की सलाह से चलने की बजाय वे पुराने और राजनीतिक लोगों की सलाह के काम करने के पुराने मॉडल पर लौटे हैं। इससे आने वाले दिनों में कांग्रेस को फायदा हो सकता है।

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कौन बनेगा उप राष्ट्रपति?

कौन बनेगा उप राष्ट्रपति?. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के बारे में लगभग  अंदाजा सही साबित हो गया। पिछले दो-तीन महीने से द्रौपदी मुर्मू का नाम चर्चा में था और वे राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हो गईं। अब उप राष्ट्रपति पद के लिए नामों की चर्चा शुरू हो गई है। छह अगस्त को उप राष्ट्रपति का चुनाव होना है। उसके लिए पांच जुलाई को अधिसूचना जारी होगी और उसी दिन से नामांकन भी शुरू होगा।

सो, उम्मीद की जा रही है कि अगले हफ्ते किसी दिन पक्ष और विपक्ष दोनों की ओर से नाम की घोषणा होगी। राष्ट्रपति की तरह उप राष्ट्रपति का चुनाव भी औपचारिकता होगी क्योंकि सरकार के पास जीतने के लिए पर्याप्त संख्या है।

जिस तरह से राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के नाम की चर्चा हो रही थी उस तरह उप राष्ट्रपति के लिए किसी एक नाम की चर्चा नहीं हो रही है। लेकिन मुख्तार अब्बास नकवी से लेकर थावरचंद गहलोत और हरिवंश नारायण सिंह, आनंदी बेन पटेल और तमिलिसाई सौंदर्यराजन से लेकर बंडारू दत्तात्रेय, आरिफ मोहम्मद तक कई नाम चर्चा में हैं।

हालांकि महिला राष्ट्रपति के बाद महिला उप राष्ट्रपति की संभावना कम है और ओडि़शा की द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने के बाद किसी दक्षिण भारतीय नेता के उप राष्ट्रपति बनने की संभावना ज्यादा है। तेलंगाना में भाजपा के नेता इस पर विचार करेंगे। जानकार सूत्रों के मुताबिक तेलंगाना या तमिलनाडु से किसी को उप राष्ट्रपति बनाया जा सकता है।

ध्यान रहे प्रधानमंत्री पश्चिमी भारत से हैं और राष्ट्रपति पूर्वी भारत से हो रही हैं। दूसरे, दक्षिण भारत में भाजपा को अपना राजनीतिक विस्तार करना है।

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तेल का खेल है

अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने उम्मीद की थी कि रूस पर उनके प्रतिबंध लगाने के बाद रूस के लिए तेल बेचना मुश्किल हो जाएगा। इससे उसकी अर्थव्यवस्था ढह जाएगी। लेकिन कई देशों ने इसे अपने लिए सस्ता तेल पाने का एक मौका बना लिया। यूक्रेन युद्ध को लेकर पश्चिमी देशों की रणनीति अगर कारगर नहीं हुई है, तो उसका बड़ा कारण रूस के पास मौजूद तेल की ताकत है। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने उम्मीद की थी कि रूस पर उनके प्रतिबंध लगाने के बाद रूस के लिए तेल बेचना मुश्किल हो जाएगा।

इससे उसकी अर्थव्यवस्था ढह जाएगी। लेकिन कई देशों ने इसे अपने लिए सस्ता तेल पाने का एक मौका बना लिया। उनमें प्रमुख चीन और भारत हैं। नतीजा यह हुआ कि जहां तेल और प्राकृतिक गैस की महंगाई से अमेरिका और यूरोप में हाहाकार मचा हुआ है, वहीं भारत और चीन अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं। इससे रूस को सहारा मिला। रूसी अर्थव्यवस्था उस तरह नहीं ढही, जिसकी उम्मीद पश्चिमी देशों ने की थी। उलटे डॉलर की तुलना में रूस की मुद्रा की कीमत रुबल आज सात साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है।ताजा आंकड़ों के मुताबिक मई में चीन ने रूस से अपना तेल आयात और बढ़ा दिया।

अब वह रूस का सबसे बड़ा तेल आयातक बन गया है। उधर सऊदी अरब को पीछे छोड़ते हुए रूस चीन का सबसे बड़ा तेल निर्यातक बन गया है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पिछले महीने उसने रूस से 84.2 लाख टन तेल आयात किया। फरवरी 2021 की तुलना में यह 55 प्रतिशत ज्यादा है। मई में चीन ने सऊदी अरब से 78.2 लाख टन तेल खरीदा था।

24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन में सैन्य कार्रवाई शुरू की थी। जिन देशों ने इस कार्रवाई के लिए रूस की आलोचना नहीं की है, उनमें भारत के अलावा चीन का भी नाम है। चीन ने संयुक्त राष्ट्र में कई प्रस्तावों पर रूस का साथ भी दिया है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों की स्थिति में उसके उत्पाद खरीद कर चीन ने रूस की आर्थिक मदद भी की है।

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की तेल के बारे में ताजा अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो महीनों में भारत ने रूस से कच्चा तेल खरीदने के मामले में जर्मनी को पीछे छोड़ दिया है और वह उसका दूसरा सबसे बड़ा आयातक बन गया है।

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गर्भावस्था की वजह से महिलाओं को जीवन में अवसरों से वंचित होते रहना पड़ा है

ये नजरिया महिला विरोधी

गर्भावस्था की वजह से महिलाओं को जीवन में अवसरों से वंचित होते रहना पड़ा है। अगर समाज अब अपने को आधुनिक कहता है, तो उसे अपना यह नजरिया अवश्य ही बदलना चाहिए।

बुनियादी सवाल है। अगर महिलाएं सृष्टि को आगे बढ़ाने में अधिक बड़ी भूमिका निभाती हैं- इस क्रम में वे अधिक कष्ट सहती हैं, तो इसका बदले उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए या दंडित? पारंपरिक समाज का नजरिया दंडित करने का रहा है। गर्भावस्था एक ऐसी सूरत है, जिसकी वजह से महिलाओं को जीवन के कई क्षेत्रों और अवसरों से वंचित होते रहना पड़ा है। लेकिन अगर समाज अब अपने को आधुनिक कहता है और अधिक मानवीय होने का दावा करता है, तो उसे अपना यह नजरिया अवश्य ही बदलना चाहिए।

एक बैंक ने हाल में जो दिशा-निर्देश जारी किया, उसमें ऐसे बदलाव के संकेत नहीं मिले। इसलिए समाज के जागरूक तबकों में उसको लेकर नाराजगी पैदा हुई है। दिल्ली महिला आयोग ने उचित ही एक  बैंक को इस मामले में नोटिस जारी किया है।इस  बैंक ने हाल ही में एक सर्कुलर में जारी किया था। उसमें बैंक में भर्ती की नई नीति बताई गई थी।

बैंक के सर्कुलर में कहा गया था- बारह सप्ताह या उससे अधिक की गर्भवती महिला को तब तक अस्थायी रूप से नौकरी पाने के अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए, जब तक कि वह फिट नहीं हो जाती। महिला उम्मीदवार को प्रसव की तारीख के छह सप्ताह बाद फिटनेस प्रमाण पत्र के लिए फिर से जांच की जानी चाहिए और रजिस्टर्ड डॉक्टर से उसे फिटनेस सर्टिफिकेट प्राप्त करना चाहिए।

जब इस सर्कुलर की चौतरफा आलोचना हुई, तब  बैंक ने सफाई दी। उसने कहा कि मौजूदा दिशा-निर्देशों में कोई बदलाव नहीं किया गया है और किसी महिला उम्मीदवार को रोजगार से वंचित नहीं किया गया है। बैंक ने कहा कि वह महिला कर्मचारियों की देखभाल और सशक्तीकरण को सर्वोपरि महत्व देता है।

बैंक ने यह जानकारी भी दी कि उसके कार्यबल में 29 फीसदी महिलाएं हैं। लेकिन महिला अधिकार कार्यकर्ताओँ ने ध्यान दिलाया था कि इस तरह के दिशा-निर्देश से गर्भवती महिलाओं की सेवा में भर्ती में देरी होगी और इसके बाद वे अपनी वरीयता खो देंगी।

ये आशंका गलत नहीं है। बेहतर होता, बैंक ऐसा सर्कुलर जारी नहीं करता। बहरहाल, सुधार का रास्ता उसके सामने था। संभवत: उसने उसे अपना लिया है।

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ठाकरे के पास प्रबंधकों की कमी

ठाकरे के पास प्रबंधकों की कमी. महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद इस तरह की कई खबरें आई हैं कि मुख्यमंत्री को महीनों से पता था कि उनकी पार्टी में बगावत की तैयारी हो रही है। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के हवाले से खबर आई कि उन्होंने एक महीने पहले उद्धव ठाकरे को बता दिया था कि शिव सेना के अंदर सब ठीक नहीं है और उनको अपना घर ठीक करना चाहिए।

पत्रकारों का भी कहना है कि सीआईडी की रिपोर्ट थी कि एकनाथ शिंदे नाराज हैं और वे विधायकों को एकजुट कर रहे हैं। सवाल है कि जब सबको खबर थी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी जानते थे तब समय रहते प्रबंधन क्यों नहीं किया गया? इसका एक कारण तो ठाकरे परिवार की कार्यशैली को बताया जा रहा है। ठाकरे परिवार के सामने पार्टी के किसी नेता की हैसियत चपरासी से ज्यादा नहीं होती है। इसी बीच उद्धव ठाकरे की सेहत खराब थी, जिससे वे अपने नेताओं से दूर रहे थे।

इसके अलावा एक बड़ा कारण यह है कि शिव सेना के पास कोई प्रबंधक नहीं है। इससे पहले महा विकास अघाड़ी बनी या उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने तो उसके पीछे शरद पवार का प्रबंधन था। बाद में भी गठबंधन सरकार चलाए रखने में पवार का प्रबंधन ही काम करता रहा। पहली बार शिव सेना में संकट पैदा हुआ और वह आउट ऑफ कंट्रोल हो गया क्योंकि पिछले दो दशक में शिव सेना ने कोई प्रबंधक नहीं बनाया।

उसके शीर्ष नेता यानी ठाकरे परिवार मानता रहा कि कोई भी शिव सैनिक बागी होने के बारे में सोच ही नहीं सकता था। बाल ठाकरे जमाने में शिव सेना के पास मनोहर जोशी, छगन भुजबल, नारायण राणे जैसे नेता थे, जो लोकप्रिय भी थे और प्रबंधन में भी माहिर थे। भुजबल और राणे के जाने के बाद ले-देकर एक संजय राउत बचे हैं, लेकिन वे भी बयान देने वाले नेता और प्रवक्ता हैं। वे प्रबंधक नहीं हैं।

आदित्य ठाकरे के बारे में माना जा रहा था कि वे प्रबंधन संभाल सकते हैं लेकिन बाल ठाकरे का पोता होने का जो अहंकार और अहसास है वह उन्हें पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूर रखता है।

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वीडियो गेम्स की लत, वीडियो गेम खेलना धीरे-धीरे लत बन जाती है

वीडियो गेम खेलना धीरे-धीरे लत बन जाती है। उसके बाद संबंधित बच्चा खेल के बारे में नहीं सोचना चाहे, तब भी वह अपने-आप को रोकने में सक्षम नहीं होता। हिंसा से भरपूर वीडियो गेम्स खेलने वाले लोग निष्ठुर हो जाते हैं।

हाल की दो घटनाओं ने आम जन मानस को झकझोर रखा है। इन दोनों का संबंध मोबाइल गेम्स की बढ़ती लत से है। इनमें से एक घटना में 16 साल के एक लड़के पर अपनी ही मां की हत्या का आरोप लगा। बताया जाता है कि मां बेटे को मोबाइल गेम खेलने से मना करती थी। उधर दूसरी घटना में इसी वजह से बेटे ने खुदकुशी कर ली।

इन घटनाओं ने मोबाइल्स गेम्स के कारण परिवारों में खड़ी समस्याओं को फिर से हमारे सामने ला दिया है। ऐसी मुश्किलों से दुनिया भर के मध्यवर्गीय परिवार जूझ रहे हैँ। कुछ समय पहले ऑस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी में हुए शोध में इस बात के ठोस सबूत जुटाए गए थे कि वीडियो गेम खेलना धीरे-धीरे लत (एडिक्शन) बन जाती है।

उसके बाद हाल यह हो जाता है कि संबंधित बच्चा खेल के बारे में नहीं भी सोचना चाहे तब भी वह अपने-आप को रोकने में सक्षम नहीं होता। कुछ दूसरे जानकारों का भी कहना है कि हिंसा से भरपूर वीडियो गेम्स खेलने वाले लोग निष्ठुर हो जाते हैं। उन्हें हिंसक चित्र देख कर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। ऐसे लोग तनाव से मुक्ति पाने के लिए वीडियो गेम का सहारा लेते हैं और अपराध करने की जगह अपना गुस्सा ऑनलाइन या वीडियो गेम पर उतारने लगते हैं।

भारत में पिछले साल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से अभिभावकों ने शिकायत की थी कि ऑनलाइन गेमिंग साइट्स बच्चों में जुआ, सट्टेबाजी और शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही हैं। जब कोरोना महामारी के दौरान बच्चों की पढ़ाई डिजिटल रूप से होने लगी थी, तो कई बार बच्चे मोबाइल लेकर पढ़ाई के नाम पर ऑनलाइन गेम भी खेलने लगे।

आयोग ने गेमिंग साइट्स से बच्चों के भ्रमित होने से रोकने के लिए दिशा-निर्देशों के बारे में पूछा था। साथ ही आयोग ने सवाल किया कि उनकी साइट्स पर बाल अधिकारों के हनन को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाते हैं। लेकिन संभवत: बात वहीं ठहर गई। लेकिन हाल की घटनाओं ने यह साफ कर दिया है कि इस समस्या पर अब अधिक गंभीर रुख अपनाए जाने की जरूरत है।

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गुजरात में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी का पटेल चैप्टर बंद

गुजरात में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी का पटेल चैप्टर बंद हो गया। कांग्रेस के डेकोरेटेड पटेल नेता हार्दिक पटेल पार्टी छोड़ कर चले गए हैं और अब भारतीय जनता पार्टी व नरेंद्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं। तो दूसरी ओर नरेश पटेल ने ऐलान कर दिया है कि वे अभी सक्रिय राजनीति में नहीं उतरेंगे। ध्यान रहे नरेश पटेल प्रभावशाली लेउवा पटेल समुदाय के नेता हैं और श्रीखोडलधाम ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं।

उन्होंने कहा कि समाज से जुड़े वरिष्ठ लोग नहीं चाहते हैं कि वे राजनीति में उतरें। वैसे भी प्रशांत किशोर के साथ कांग्रेस की डील फेल होने के बाद से ही लग रहा था कि नरेश पटेल कांग्रेस से दूर रहेंगे।ध्यान रहे प्रशांत किशोर के कांग्रेस के साथ जुडऩे के समय ही नरेश पटेल के कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा हुई थी। प्रशांत किशोर ने ही उनकी कांग्रेस के बड़े नेताओं से मुलाकात कराई थी।

पटेल की भी शर्त थी कि अगर प्रशांत किशोर कांग्रेस को चुनाव लड़ाते हैं तभी वे कांग्रेस से जुड़ेंगे। अब चूंकि उन्होंने सक्रिय राजनीति में उतरने से ही इनकार कर दिया इसलिए कांग्रेस से जुडऩे का सवाल ही नहीं है। इस तरह कांग्रेस एक बार फिर पटेल राजनीति करने से दूर हो गई। वैसे भी गुजरात में कांग्रेस कभी भी पटेल राजनीति नहीं करती थी। पिछले 30 साल से ज्यादा समय से पटेल भाजपा को वोट करते रहे हैं।

पटेलों के उलट कांग्रेस का फोकस खाम समीकरण यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम पर होता है। इस बार भी कांग्रेस इसी फॉर्मूले पर चुनाव लड़ेगी।

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ईडी की कार्रवाई से कांग्रेस में जान

ईडी की कार्रवाई से कांग्रेस में जान. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से प्रवर्तन निदेशालय यानी की पूछताछ 23 जून को होनी है। अगर उनकी सेहत ठीक रही तो पूछताछ होगी नहीं तो आगे की कोई नई तारीख मिलेगी। इस बीच तीन दिन लगातार राहुल गांधी से पूछताछ हुई है और कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता तीनों दिन दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे।

कांग्रेस के दोनों मुख्यमंत्री अपना राज-काज छोड़ कर दिल्ली में डेरा डाले रहे और लुटियन की दिल्ली से लेकर बदरपुर बॉर्डर तक भागदौड़ करते रहे। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के नेता भीड़ जुटा रहे हैं, जिससे मीडिया में खबरें बन रही हैं। देश के सभी राज्यों में ईडी कार्यालय के बाहर भी कांग्रेस का प्रदर्शन चल रहा है।

तभी सवाल है कि क्या ईडी की कार्रवाई कांग्रेस के लिए मौका है? कांग्रेस के कई नेता और यहां तक कि कांग्रेस विरोधी रहे बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता भी इसे एक मौका मान रहे हैं। इसकी तुलना बिहार में लालू प्रसाद पर हुई कार्रवाई से की जा रही है। इसी तरह 1997 में लालू प्रसाद के पीछे सीबीआई पड़ी थी।

लालू भी पूरे तामझाम के साथ पूछताछ के लिए पहुंचे थे और एक समय तो ऐसी स्थिति आई थी उनकी गिरफ्तारी से पहले तब के सीबीआई अधिकारी ने सेना बुलाने की पहल कर दी थी। उस पूरे ड्रामे के बाद आठ साल और लालू प्रसाद की पार्टी ने बिहार में राज किया। हालांकि राहुल अभी गिरफ्तार नहीं हुए हैं लेकिन तुलना कर रहे लोग गिरफ्तारी की संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं।

प्रशांत भूषण जैसे वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईडी की कार्रवाई की तुलना 1977 में हुई इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी से कर रहे हैं। उन्होंने ट्विट करके कहा कि जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी की जिद पकड़ी। तब प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण कानून मंत्री थे और उन्होंने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने से मना किया था।

लेकिन चरण सिंह की जिद के चलते इंदिरा गिरफ्तार हुईं और फिर वहीं से कांग्रेस की वापसी हुई। सो, प्रशांत भूषण सहित कई लोग इस पूरे मामले को 1977 के चश्मे से देख रहे हैं।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के सलाहकार रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने इस मामले में राहुल गांधी का समर्थन करते हुए कहा कि राजनीतिक बदले की भावना से की जा रही इस कार्रवाई के विरोध में वे राहुल के साथ हैं। उनको लग रहा है कि राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के विरोध की यह निर्णायक लड़ाई है।

सो, ज्यादातर जानकारों का मानना है कि नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ हो रही ईडी की कार्रवाई किसी न किसी तरह से कांग्रेस को और समूचे विपक्ष को फायदा पहुंचाएगा।

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ईडी की कार्रवाई पर विपक्ष चुप

सोनिया और राहुल गांधी के खिलाफ चल रही प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्रवाई के खिलाफ कांग्रेस अकेले लड़ रही है। लगभग सभी विपक्षी पार्टियों ने इस पर चुप्पी साधी है। यहां तक कि कांग्रेस की सहयोगी और यूपीए में शामिल पार्टियां भी इस पर कुछ नहीं बोल रही हैं। आमतौर पर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के खिलाफ विपक्षी पार्टियां स्टैंड लेती हैं। एक-दूसरे का साथ देती हैं।

लेकिन इस बार कोई कांग्रेस का साथ नहीं दे रहा है। इक्का-दुक्का नेताओं के छिटपुट बयान के अलावा कांग्रेस को कोई खास समर्थन नहीं मिला है। ध्यान रहे पिछले दिनों राजद नेता लालू प्रसाद और उनके परिवार के यहां सीबीआई का छापा पड़ा तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया था और केंद्र सरकार पर आरोप लगाए थे। लेकिन राहुल गांधी से हो रही पूछताछ में लालू का परिवार चुप है। खुद लालू ने भी कोई बयान नहीं दिया है।
ध्यान रहे लगभग सभी विपक्षी पार्टियां केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना कर रही हैं। ममता बनर्जी से लेकर शरद पवार और हेमंत सोरेन से लेकर लालू प्रसाद और अखिलेश यादव से लेकर एमके स्टालिन तक सबकी परिवार के सदस्यों और पार्टी के नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा है। तभी सवाल है कि क्या डर के मारे पार्टियां चुप हैं या कोई राजनीतिक कारण हैं?

संभव है कि इसी बहाने विपक्षी पार्टियों को लग रहा है कि कांग्रेस परेशान है तो वे अपनी राजनीति कर सकते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने भी विपक्षी पार्टियों को साथ लेने या इस पर साझा आंदोलन के लिए प्रयास नहीं किया। सारे विपक्षी नेता ममता बनर्जी की बुलाई बैठक में शामिल होने के लिए मंगलवार को ही दिल्ली पहुंच गए थे लेकिन किसी ने राहुल से मिल कर उनका समर्थन करने की जरूरत नहीं समझी।

राहुल से पूछताछ के तीसरे दिन अखिलेश यादव ने जरूर छायावादी अंदाज में एक टिप्पणी की, जिसमें उन्होंने किसी का नाम नहीं लिखा लेकिन कहा कि विपक्ष को केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

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क्या यह समाधान है?

क्या यह समाधान है? यूक्रेन युद्ध के बाद बने हालात में तीन दशक पहले आई वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था डावांडोल हो गई है। इससे सिर्फ वे देश उबर पाएंगे, जो ताजा हालात में नया सोचने का जज्बा दिखाएंगे। बाकी उपाय महरम पट्टी हैं, जिनसे समस्या दूर नहीं होगी।

भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर में अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी की है। अगर पिछले महीने अचानक की गई बढ़ोतरी को भी ध्यान में रखें, तो आरबीआई ब्याज दर को दो महीनों के अंदर 90 आधार अंक- यानी लगभग एक फीसदी- बढ़ा चुका है। बैंक के सामने दो चुनौतियां हैं- बढ़ती महंगाई और देश से विदेशी पूंजी के हो रहे पलायन को रोकने की। तो यही दो कसौटियां हैं, जिन पर मौद्रिक नीति में लाए गए बदलाव की सफलता या नाकामी को परखा जाएगा।

ताजा बढ़ोतरी के बावजूद रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में मुद्रास्फीति दर 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है। स्पष्टत: यह बैंक और भारत सरकार के तय लक्ष्य से काफी ऊंचा है। तो ब्याज दर बढऩे से तुरंत महंगाई काबू में आएगी, इसकी उम्मीद रिजर्व बैंक को भी नहीं है। दूसरी तरफ पूंजी का पलायन अमेरिका में ब्याज दर बढऩे से हो रहा है। वहां हो रही बढ़ोतरी से रिजर्व बैंक की बढ़ोतरियां मुकालबा कर पाएंगी, ये आस जोडऩा किसी नजरिए से यथार्थवादी नहीं होगा।

दूसरी तरफ ब्याज दर बढऩे का असर उन कारोबारियों/ लोगों पर पड़ेगा, जिन्होंने आसान मौद्रिक नीति के दौर में उदारता से कर्ज लिया। अब चाहे वो कर्ज उद्यम लगाने के लिए लिया गया हो, या मकान या कार खरीदने के लिए- उन पर चुकाई जाने वाली किस्तें बढ़ जाएंगी। महंगाई और अधिक किस्त चुकाने के दबाव में उनका उपभोग खर्च घटेगा, ये अनुमान सहज लगाया जा सकता है। तो पहले से ही कम मांग की समस्या से जूझ रहे बाजार पर यह एक और मार होगी।

फायदा सिर्फ उन लोगों को होगा, जिन्होंने फिक्स्ड डिपोजिट जैसी योजनाओं में निवेश कर रखा है। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि आरबीआई ने जो कदम उठाए हैं, उनके अलावा उसके पास कोई और विकल्प भी नहीं है। विकल्प अगर किसी के पास हो सकता है, तो वह सरकार है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि कोरोना महामारी और खास कर यूक्रेन युद्ध के बाद तीन दशक पहले आई वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था डावांडोल हो गई है। इससे सिर्फ वे देश उबर पाएंगे, जो ताजा हालात में नया सोचने का जज्बा दिखाएंगे। बाकी उपाय महरम पट्टी हैं, जिनसे समस्या दूर नहीं होगी।

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कांग्रेस महंगाई के खिलाफ लड़े

सोशल मीडिया में यह दिलचस्प पोस्ट देखने को मिली कि कांग्रेस को जो लड़ाई अदालत में लडऩी चाहिए वह सड़क पर लड़ रही है और जो लड़ाई सड़क पर लडऩी चाहिए वह ट्विटर पर लड़ रही है। सचमुच ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस कहीं की लड़ाई कहीं लड़ रही है। राहुल गांधी को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले में हुई कथित गड़बड़ी के बारे में पूछताछ के लिए बुलाया तो पूरी कांग्रेस पार्टी सड़क पर उतर गई।

ध्यान रहे यह मामला काफी पुराना है और कांग्रेस सर्वोच्च अदालत तक जा चुकी है इस मामले को खारिज कराने के लिए। लेकिन अदालत से भी राहत नहीं मिली। यह मामला भी सुब्रह्मण्यम स्वामी का शुरू किया हुआ, जिन्होंने कभी सोनिया गांधी के साथ जयललिता को बैठा कर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरवाई थी। इसलिए यह सरकार के राजनीतिक बदले वाला बहुत सरल मामला नहीं है।

तभी जब कांग्रेस के सारे बड़े नेता सड़क पर उतरे तो उसका यह मैसेज गया कि कांग्रेस के नेता सिर्फ एक परिवार के प्रति समर्पित हैं। उनकी निष्ठा अवाम से नहीं, परिवार से है। दूसरे, भाजपा को भी यह कहने का मौका मिला कि भ्रष्टाचार के मामले में नेहरू-गांधी परिवार का बचाव करने के लिए कांग्रेस पार्टी आंदोलन कर रही है। सचमुच कांग्रेस को यह लड़ाई अदालत में लडऩी है।

कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि कैसे गुजरात दंगों के लिए बनी एसआईटी ने गुजरात के तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से घंटों पूछताछ की थी। मोदी चुपचाप एसआईटी के दफ्तर गए थे और पूछताछ में शामिल हुए थे।

अगर कांग्रेस राहुल की ईडी के सामने पेशी के विरोध में सड़क पर उतरने की बजाय उत्तर प्रदेश में लोगों के घरों पर चल रहे बुलडोजर के विरोध में सड़क पर उतरती या महंगाई, गरीबी और बेरोजगारी के मुद्दे पर इस तरह सड़क पर उतर कर संघर्ष करती तो उससे आम लोग ज्यादा कनेक्ट होते। लेकिन इस तरह की सारी लड़ाई कांग्रेस पार्टी ट्विटर पर लड़ रही है।

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कांग्रेस को विपक्षी पार्टियों से निपटना है

राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार से लडऩे से पहले कांग्रेस को विपक्षी पाटियों से निपटना है। क्योंकि विपक्षी पार्टियां गैर भाजपा और गैर कांग्रेस मोर्चा बना कर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही हैं। अगर तीसरा या संघीय मोर्चा नहीं भी बनता है तब भी विपक्षी पार्टियां इस प्रयास में लगी हैं कि वे एक साझा उम्मीदवार उतारें और कांग्रेस को मजबूर करें कि वह उसका समर्थन करे। दूसरी ओर कांग्रेस किसी हाल में अपनी पार्टी के अलावा दूसरी पार्टी के नेता को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं है।

कांग्रेस चाहती है कि वह उम्मीदवार दे और बाकी पार्टियां उसका समर्थन करें, जैसा पहले होता रहा है। तभी मल्लिकार्जुन खडग़े को कांग्रेस ने इस अभियान में लगाया है।
दूसरी ओर ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव और आम आदमी पार्टी के नेता अलग प्रयास में लगे हैं। कुछ दिन पहले तक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी इस मामले में पहल कर रहे थे। लेकिन उनके राज्य में दो लोकसभा सीटों- आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव आ जाने से वे उलझ गए हैं।

दोनों सीटें उनके लिए प्रतिष्ठा की हैं क्योंकि दोनों उनकी पार्टी की सीट रही है और एक सीट तो उनके इस्तीफे से ही खाली हुई है। बहरहाल, ममता बनर्जी ने बुधवार को विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई है। इस बीच आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह मुंबई जाकर शरद पवार से मिले हैं। के चंद्रशेखर राव पहले ही स्टालिन, हेमंत सोरेन, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल आदि से मिल चुके हैं।

सो, कांग्रेस को अभी असली लड़ाई से पहले उम्मीदवार तय कराने की लड़ाई लडऩी है। इसी बीचच सोनिया गांधी की सेहत बिगड़ गई है और राहुल गांधी ईडी की पूछताछ में उलझे हैं।

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तीन-एक से भाजपा की जीत,भाजपा ने चार राज्यों में दांव लगाया था

भारतीय जनता पार्टी ने चार राज्यों में दांव लगाया था, जिसमें वह तीन-एक से जीती। यह बहुत बड़ी बात है। भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में कर्नाटक और महाराष्ट्र में अतिरिक्त उम्मीदवार उतारा था और राजस्थान व हरियाणा में दो निर्दलीय उम्मीदवारों को समर्थन दिया था।

इन चार में से एक कर्नाटक छोड़ कर बाकी तीन जगहों पर कांटे की लड़ाई थी। कर्नाटक में भी भाजपा के पास संख्या नहीं थी लेकिन यह तय था कि अगर कांग्रेस और जेडीएस दोनों मिल कर नहीं लड़ते हैं तो कम वोट पाकर भी भाजपा का उम्मीदवार जीत जाएगा।

अगर कांग्रेस और जेडीएस मिल जाते तो भाजपा के लिए कोई मौका नहीं था। इसके उलट बाकी तीन राज्यों में बेहद नजदीकी मुकाबला था।इन तीन में से भाजपा दो राज्यों में जीती और कांग्रेस को सिर्फ एक राज्य में कामयाबी मिली।

कांग्रेस को राजस्थान में कामयाबी मिली, जिसका श्रेय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को जाता है। उन्होंने न सिर्फ सरकार का समर्थन कर रहे निर्दलीय और छोटी पार्टियों को साथ में रखा, बल्कि भाजपा की एक विधायक से भी क्रॉस वोटिंग करा ली।

राजस्थान की तरह महाराष्ट्र में भी शिव सेना के नेतृत्व वाली सरकार के पास जरूरी संख्या थी लेकिन वह सरकार का समर्थन कर रहे सारे विधायकों को एक नहीं रख पाई। हरियाणा में भी कांग्रेस के पास चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त संख्या थी पर तमाम ऐहतियात के बावजूद कांग्रेस के एक विधायक ने भाजपा को वोट दिया और दूसरे ने अपना वोट जान-बूझकर अवैध करा लिया।

कर्नाटक में कांग्रेस ने जान- बूझकर एक सीट भाजपा को जीतने दी क्योंकि उसे जेडीएस को सबक सिखाना था लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा ने अपने प्रबंधन से चुनाव जीता।

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उद्धव-पवार पर भारी फडऩवीस

उद्धव-पवार पर भारी फडऩवीस. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने अपने अपमान का बदला ले लिया है। उन्होंने राज्यसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के साझा प्रयास को विफल करके भाजपा का तीसरा उम्मीदवार जिता लिया। इससे पहले उद्धव और पवार की वजह से फडऩवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के चार दिन में ही इस्तीफा देना पड़ा था।

तब से वे मौके की ताक में थे। इस बार जब फडऩवीस के कहने पर भाजपा ने तीसरा उम्मीदवार उतारा तो ऐसा लग रहा था कि इस बार भी उद्धव और पवार के सामने उनकी नहीं चलेगी। आखिर खुद शरद पवार ने समाजवादी पार्टी के नेताओं से बात की और उनके दो वोट अपने साथ किए और ओवैसी की पार्टी के दो वोट भी कांग्रेस के समर्थन में कराए गए। फिर भी शिव सेना के दूसरे उम्मीदवार संजय पवार चुनाव हार गए।
महाराष्ट्र में राज्यसभा की पांच सीटों पर पहली वरीयता के वोट से फैसला हो गया। भाजपा के दो और शिव सेना, एनसीपी व कांग्रेस के एक-एक उम्मीदवार जीत गए। असली लड़ाई छठी सीट के लिए थी, जिस पर शिव सेना के संजय पवार का मुकाबला भाजपा के धनंजय महाडिक से थे। फडऩवीस ने यह सुनिश्चित किया कि इसका फैसला पहली वरीयता के वोट से न हो। वे जानते थे कि दूसरी वरीयता के वोटों में वे जीत जाएंगे। इसके लिए उन्होंने सरकार को समर्थन दे रही छोटी पार्टियों के नौ विधायकों से क्रॉस वोटिंग कराई। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा के अपने 106 विधायक हैं और उसे सात अन्य विधायकों का समर्थन है। उन्हें राज ठाकरे की पार्टी के एक विधायक का समर्थन मिला और नौ अन्य विधायकों का समर्थन उन्होंने हासिल कर लिया। फडऩवीस तीसरी सीट जीतने के लिए इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने पहले दोनोंउम्मीदवारों पीयूष गोयल और अनिल बोंडे को 48-48 वोट आवंटित कराए, जबकि एक सीट जीतने के लिए 41 वोट की ही जरूरत थी।

उनके तीसरे उम्मीदवार को पहली वरीयता के 27 वोट मिले और दूसरी वरीयता के वोट मिला कर साढ़े 41 से ज्यादा हो गया।

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भारत की जानलेवा सड़कें. सड़क हादसे एक तरह की आपदा हैं

भारत की जानलेवा सड़कें. सड़क हादसे एक तरह की आपदा हैं, जो अचानक किसी परिवार पर टूट पड़ती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे रोकने की कोशिशें प्रभावी नहीं हुई हैँ। नतीजतन, हादसे अधिक जानलेवा होते जा रहे हैँ।

भारत में अगर जान की कीमत समझी जाती, तो बेशक यह एक बड़ी खबर बनती। लेकिन शायद ही इसकी वैसी चर्चा हुई, यह खबर जिसके लायक है। यह खबर बताती है कि सड़क हादसे भारत में लोगों की मृत्यु, विकलांगता, और अस्पताल में भर्ती होने के प्रमुख कारणों में से एक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बारे में एक रिपोर्ट तैयार की है। उसके मुताबिक दुनिया भर में सड़क हादसों में मरे 10 लोगों में से कम से कम एक भारत से होता है।

भारत के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने “रोड एक्सिडेंट्स इन इंडिया-2020” नाम की रिपोर्ट के मुताबिक सड़क पर घातक दुर्घटनाओं की चपेट में सबसे अधिक युवा आ रहे हैं। उसका उनके परिवारों पर क्या असर होता है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि साल 2020 के दौरान राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 3,66,138 सड़क हादसे हुए, जिनमें 1,31,714 लोगों की जान गई और 3,48,279 लोग घायल हुए। हर एक सौ सड़क हादसे में 36 लोगों की जान गई, जबकि 2019 में ये संख्या 33 थी।

यानी उस साल सड़कों पर अधिक मौत हुई, जिसमें कई महीने लॉकडाउन में गुजरे थे। 2020 में सड़क हादसों की चपेट में आने वालों में 18-45 साल के आयु वर्ग युवा वाले वयस्कों का हिस्सा 69 प्रतिशत था। जबकि 18-60 वर्ष के लोगों की हिस्सेदारी कुल सड़क दुर्घटनाओं में 87.4 प्रतिशत थी।

रिपोर्ट में बताया गया कि 2020 में ट्रैफिक नियम उल्लंघन की श्रेणी के तहत ओवर स्पीडिंग के तहत 69.3 फीसदी लोगों की मौत हुई, जबकि गलत दिशा में गाड़ी चलाने से हुए हादसे में 5.6 फीसदी लोगों की जान गई। सड़क पर होने वाले हादसे के कारण पीडि़त और उसके परिवार पर आर्थिक बोझ भी पड़ता है।

असामयिक मौतों, चोटों और विकलांगताओं के कारण संभावित आय का नुकसान होता है। यानी सड़क हादसे एक तरह की आपदा हैं, जो अचानक किसी परिवार पर टूट पड़ती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे रोकने की कोशिशें प्रभावी नहीं हुई हैँ। नतीजतन, हादसे अधिक जानलेवा होते जा रहे हैँ।

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बुनियादी सवाल है कि आखिर कार्ड वापस करने का सारा मामला..?

बुनियादी सवाल है कि आखिर कार्ड वापस करने का सारा मामला किसके कहने पर चर्चित हुआ? गौरतलब है कि मई महीने की शुरुआत से ही ऐसी खबरें आने लगी थीं। ये खबरें स्थानीय अधिकारियों के हवाले से छप रही थीं।
इस खबर पर गौर कीजिए और लगे हाथ उत्तर प्रदेश के लाखों लोगों के असमंजस पर विचार भी कर लीजिए। खबर यह है कि इस राज्य में 50 हजार से ज्यादा लोगों ने वसूली के डर से राशन कार्ड वापस कर दिया। लेकिन अब राज्य सरकार ने कहा है कि वसूली या कार्ड वापसी के बारे में उसने कोई आदेश दिया ही नहीं। तो बुनियादी सवाल है कि आखिर कार्ड वापस करने का सारा मामला किसके कहने पर बहुचर्चित हुआ? गौरतलब है कि मई महीने की शुरुआत से ही इस तरह की खबरें कई जिलों से आने लगी थीं। ये खबरें स्थानीय अधिकारियों के हवाले से छप रही थीं। कई जगह तो डुगडुगी पिटवाकर इस बारे में बाकायदा घोषणा की जा रही थी। इसका असर यह हुआ कि तमाम जिलों में लोग लाइनों में लगकर राशन कार्ड सरेंडर करने लगे। ऐसी खबरें कई दिन तक अखबारों में छपती रहीं, टीवी चैनलों पर दिखाई जाती रहीं। नतीजतन लोग लाइनों में लगकर राशन कार्ड सरेंडर करने लगे। तब लेकिन ना तो स्थानीय अधिकारियों ने और ना ही राज्य सरकार की ओर से इस बारे में कोई स्पष्टीकरण दिया गया। उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेंस की और राशन कार्ड के कथित नए नियमों और राशन वसूली को लेकर सरकार पर जमकर निशाना साधा।
पार्टी ने कहा कि भाजपा सरकार ने वोट लेने के लिए अपने नेताओं की तस्वीर लगे झोलों में भरकर खूब राशन बांटे। अब वही लोगों से उस राशन की वसूली करने पर उतारू है। इसके तुरंत बाद राज्य के खाद्य एवं रसद आयुक्त सौरव बाबू की ओर से एक बयान जारी किया गया। उसमें कहा गया कि ये सारी खबरें फर्जी और भ्रामक हैं। किसी तरह की वसूली करने या फिर राशन कार्ड सरेंडर करने के कोई आदेश जारी नहीं किया गया है। खाद्य एवं रसद आयुक्त स्पष्ट किया कि राशन कार्डों के लिए वही नियम लागू हैं जो सात अक्टूबर 2014 को लागू थे- यानी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनने के बाद। लेकिन प्रश्न है कि जब मीडिया में इसको लेकर शोर मचा हुआ था, तब सरकार क्यों चुप बैठी रही?

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महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाई है

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस ने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाई है। शुक्रवार को नाम वापसी के आखिरी दिन उन्होंने भाजपा के तीसरे उम्मीदवार धनंजय महाडिक का नामांकन वापस नहीं कराया। सो, अब महाराष्ट्र में राज्यसभा का चुनाव होगा। दो दशक के बाद पहली बार महाराष्ट्र में राज्यसभा का चुनाव होगा। पिछले दो दशक से ज्यादा समय से राज्य में चुनाव की नौबत नहीं आई थी।

ऐसा लग रहा है कि फडऩवीस मुख्यमंत्री बनने के बाद चार-पांच दिन में ही इस्तीफा देने का दर्द भूले नहीं हैं। दूसरे उनको यह दिखाना है कि वे महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे बड़े खिलाड़ी बन गए हैं। लेकिन उनका मुकाबला उद्धव ठाकरे और शरद पवार की जोड़ी से है। महाराष्ट्र के जानकार नेता मान रहे हैं कि अगर पवार ने साथ दिया तो छठी सीट आराम से शिव सेना जीतेगी।

राज्यसभा की पांच सीटों पर कोई लड़ाई नहीं है। भाजपा के पीयूष गोयल और अनिल बोंडे चुनाव जीत जाएंगे और दूसरी ओर शिव सेना के संजय राउत, एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल और कांग्रेस के इमरान प्रतापगढ़ी का जीतना भी तय है। लेकिन छठी सीट पर शिव सेना के संजय पवार का मुकाबला भाजपा के धनंजय महाडिक से होगा। एक सीट जीतने के लिए 41 वोट की जरूरत है।

इस लिहाज से दो सीट जीतने के बाद भाजपा के पास 31 वोट बचते हैं और उसे 10 वोट का इंतजाम करना होगा।। उसे राज ठाकरे की पार्टी का एक वोट मिल जाएगा तब भी नौ वोट चाहिए होंगे। दूसरी ओर महा विकास अघाड़ी सरकार के पास 169 वोट हैं। तीन सीट जीतने के बाद उनके पास 46 वोट बचते हैं। इसके अलावा एमआईएम के दो और सीपीआई का एक वोट है।

चूंकि उद्धव सरकार का अभी ढाई साल का कार्यकाल बचा है इसलिए किसी छोटी पार्टी के उनका साथ छोडऩे की संभावना कम है। तभी ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने बेवजह जोखिम लिया है।

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