उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान

चेतनादित्य आलोक –
वैसे तो पशुओं से मनुष्य जाति का नाता आरंभ से ही रहा है, लेकिन हमारी सभ्यता में पशुओं का सदा से विशेष स्थान रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने पशुओं को मित्र एवं सहचर मान-समझकर उन्हें अपने जीवन में स्थान प्रदान किया था। हमारी परंपरा में एक ओर गाय को माता मानकर उसकी पूजा-अर्चना करने का विधान है तो दूसरी ओर हमारे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के अतिरिक्त गणेश, दुर्गा, इंद्र एवं यमराज समेत विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा पशुओं को अपने वाहन बनाकर उन्हें प्यार और सम्मान देने के प्रमाण भी मौजूद हैं। उल्लेखनीय है कि हमारी संस्कृति ने केवल पालतू पशुओं से ही नहीं, बल्कि हिंस्र एवं विषैले जानवरों समेत तमाम जीव-जगत से प्रेम और करुणापूर्ण व्यवहार करने की शिक्षाएं दी हैं। यही कारण है कि पंचतंत्र समेत हमारे तमाम प्राचीन ग्रंथों एवं धार्मिक आख्यानों में पशुओं और मनुष्यों के सहजीवन एवं उनकी मित्रता की कहानियां भरी पड़ी हैं। हमारे आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी मनुष्य के साथ पशुओं की मित्रता एवं उनके बीच के सहजीवन के महत्व को बखूबी दर्शाया गया है। प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ शीर्षक कहानी एवं बांग्ला के महान लेखक शरतचंद्र की प्रसिद्ध कहानी ‘महेश’ को कैसे भुलाया जा सकता है?
बहरहाल, विश्वभर में हो रही बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि एवं विकास के नाम पर वनों के विनाश तथा वन्यजीवों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचारों के कारण संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ मनाये जाने की घोषणा 20 दिसंबर, 2013 को की, जिसके बाद प्रत्येक वर्ष 3 मार्च को इसका आयोजन किया जाने लगा। बहरहाल, भारत सरकार की ओर से संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दिसंबर, 2018 में प्रस्तुत छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय वन्य जीवों की 900 से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां लुप्तप्राय एवं संकटग्रस्त श्रेणियों में शामिल हैं। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ नामक पुस्तक में संकटग्रस्त एवं लुप्तप्राय वन्य जीवों की 1180 प्रजातियों का वर्णन चिंतित करने वाला है। वैसे एशियाई शेरों, दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाये जाने वाले विशेष छछूंदरों, दलदली क्षेत्रों में पाये जाने वाले बारहसिंगा हिरण एवं मालाबर गंधबिलाव की स्थिति भी दयनीय है। मालाबर गंधबिलाव अब महज कुछ सैकड़ों की संख्या में मौजूद हैं। वहीं एशियाई शेर गुजरात के गिर वनों तक सिमट चुके हैं, जबकि बारहसिंगा हिरण अब देश के कुछ वनों में ही पाये जाते हैं।
ऐसे ही कश्मीर में पाये जाने वाले हांगलुओं की संख्या भी अब कुछ सैकड़ों में ही सिमट चुकी है। इसी प्रकार देश में पायी जाने वाले विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ की बात मानें तो भारत में पायी जाने वाली फूलों की 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां आज लुप्तप्राय हो चुकी हैं, जबकि पौधों की लगभग 45 हजार प्रजातियों में से 1336 प्रजातियां भी अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इनके अतिरिक्त वन्य जीवों पर मंडरा रहे खतरों के संदर्भ में यदि बाघों की बात की जाये तो आंकड़ों के अनुसार बाघों की संख्या में हालांकि वृद्धि तो हुई है, लेकिन उनकी हत्याओं का दौर अभी समाप्त नहीं हुआ है और न ही उनके आश्रय-स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ पर रोक लग पायी है। यही कारण है कि बाघ अब नये-नये गलियारे स्वयं ही ढूंढऩे लगे हैं। उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार तो हैडाखाल के अतिरिक्त यहां पिथौरागढ़ के अस्कोट एवं केदारनाथ में भी बाघों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार अब पहाड़ों पर स्थित जंगलों में पलायन करने वाले बाघ अपने नये आश्रय बनाने लगे हैं।
हालांकि, सरकार की मानें तो इस वर्ष देश में पांच नये टाइगर रिजर्वों का निर्माण किये जाने की योजना है। फिलहाल छत्तीसगढ़ के गुरु घासीदास नेशनल पार्क, राजस्थान के रामगढ़ विषधारी अभयारण्य, बिहार के कैमूर वन्यजीव अभयारण्य, अरुणाचल के दिव्यांग वन्यजीव अभयारण्य एवं कर्नाटक के एमएम हिल अभयारण्य को टाइगर रिजर्व के रूप में विकसित करने की सरकार ने स्वीकृति दे दी है। वैसे भारत में वन्य जीव-संरक्षण हेतु समय-समय पर कानून भी बनाये जाते रहे हैं। वर्ष 1956 में संशोधित एवं पारित ‘भारतीय वन अधिनियम’ मूलत: स्वतंत्रता से पूर्व 1927 में ही अस्तित्व में आ गया था। स्वतंत्रता के बाद पहली बार 1983 में ‘राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ बनाकर नेशनल पार्कों एवं अभयारण्यों का निर्माण शुरू किया गया। वैसे इससे पूर्व भी कस्तूरी मृग परियोजना-1970, गिर सिंह परियोजना-1972, बाघ परियोजना -1973, कछुआ संरक्षण परियोजना-1975 जैसी कई परियोजनाओं के माध्यम से वन्य जीवों एवं वनों की सुरक्षा की पहल की गयी थी।
इनके अतिरिक्त, 1987 में गैंडा परियोजना, 1992 में हाथी परियोजना, 2006 में गिद्ध संरक्षण परियोजना एवं 2009 में हिम तेंदुआ परियोजना के माध्यम से भी हमारी सरकारों ने देश में वन्य जीवों एवं वनों की सुरक्षा-संरक्षा करने का कार्य किया है। हालांकि, इस दिशा में किये गये सारे प्रयास कम ही महसूस होते हैं। कदाचित इसका प्रमुख कारण वन्य जीवों एवं वनों के प्रति हमारे भीतर करुणा एवं प्रेम का अभाव है। इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि हम अपने पूर्वजों की शिक्षाओं को पुन: स्वीकार करते हुए हिंस्र एवं विषैले जानवरों समेत तमाम जीव-जगत से प्रेम एवं करुणापूर्ण व्यवहार करें, ताकि सबको जीने का अधिकार मिल सके।

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