मानसिक अवसाद व विभिन्न वजहों से जूझने वाले छात्रों की फिक्र कहां?

मानसिक अवसाद व विभिन्न वजहों से भारत में हर साल छात्र आत्महत्या कर रहें  हैं। ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की गई। कुछ संस्थानों ने मानसिक अवसाद से जूझने वाले छात्रों की काउंसलिंग के लिए केंद्र खोले हैँ। लेकिन उसका खास फायदा नहीं नजर आ रहा है।कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च के एक छात्र की रहस्यमय हालात में मौत ने एक बार फिर उच्च शिक्षा क्षेत्र में जारी समस्याओं की तरफ ध्यान खींचा है। लगातार बढ़ती ऐसी घटनाओं से साफ है कि उच्च शिक्षा क्षेत्र में कहीं कोई गड़बड़ी है। दुखद यह है कि ऐसे किसी मामले के सामने आने पर दो-चार दिन चर्चा होती है। फिर सब कुछ जस का तस हो जाता है। गौरतलब है कि कोलकाता में शुभदीप राय के पहले बीते महीने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र संजय पटेल ने आत्महत्या की थी। उससे पहले पिछले जुलाई में आईआईटी- चेन्नई के शोध छात्र उन्नीकृष्णन का शव परिसर के भीतर जली हुई हालत में बरामद किया गया था। ऐसी घटनाओं की सूची काफी लंबी है। कोलकाता के छात्र ने अपनी डायरी में अपने गाइड की आलोचना करते हुए लिखा था कि वे किसी तरह का सहयोग नहीं करते और खुद कुछ लिखते-पढ़ते नहीं हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल विभिन्न वजहों से हजारों छात्र आत्महत्या कर लेते हैं।ऐसे मामलों पर अंकुश लगाने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की गई। कुछ संस्थानों ने मानसिक अवसाद से जूझने वाले छात्रों की काउंसलिंग के लिए केंद्र खोले हैँ। लेकिन उसका खास फायदा नहीं नजर आ रहा है। अफसोसनाक यह है कि ऐसी हर घटना के बाद लीपापोती का प्रयास तेज हो जाता है। ज्यादातर मामलों को मानसिक अवसाद की आड़ में दबा दिया जाता है। लेकिन मूल कारणों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। यही वजह है कि ऐसे मामले थमने की बजाय बढ़ते ही रहे हैं। जबकि शिकायत यह है कि ज्यादातर मशहूर संस्थानों में दाखिले के कुछ साल बाद ही संस्थान और प्रोफेसरों के रुख के कारण शोध छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगते हैं। देश में शिक्षण संस्थानों में जड़ें जमा चुकी इन गड़बडिय़ों के कारण ही हर साल भारी तादाद में शोध छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करते हैं। लेकिन सबके पास इतना सामर्थ्य नहीं होता। नतीजतन उनके पास देश में ही शोध करने का विकल्प बचता है। और यहां हालात अवसाद पैदा करने वाले हैँ। जबकि शिक्षाविद ये बात बार-बार कह चुके हैं कि शिक्षण संस्थानों में खासकर शोध के क्षेत्र में मौजूद गड़बडिय़ों को दूर करने की दिशा में ठोस पहल करनी होगी। क्या अब ऐसा होगा?

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