कोई भी नागरिक पीछे न छूटे

*केंद्रीय बजट 2022-23 का मूल तत्व

*ग्रामीण भारत में जीवन यापन में आसानी और आधारभूत अवसंरचना सुनिश्चित

करने वाली सूक्ष्म कल्याण योजनाओं पर रणनीतिक रूप से विशेष ध्यान

डॉ. नागेंद्र नाथ सिन्हा –
केंद्रीय बजट 2022-23 ने आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण-अनुकूल और सतत दृष्टिकोण के साथ सूक्ष्म कल्याण पर ध्यान देते हुए वृहद् स्तर पर विकास हासिल करने की योजना बनाई है। भारत महामारी की चुनौतियों को पीछे छोडऩे और ग्रामीण भारत को तेजी से प्रगति के लिए तैयार करने की मजबूत स्थिति में है। 2022-23 का बजट ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और ग्रामीण गरीबों को आजीविका प्रदान करने पर केंद्रित है। बजट में जलवायु के अनुकूल आवास, कृषि, स्वास्थ्य देखभाल, मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी और ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क तथा डिजिटल इन्फो-वे के विस्तार पर ध्यान देने के साथ आजीविका, आधारभूत अवसंरचना तक पहुंच का आश्वासन दिया गया है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आजीविका को सुदृढ़ करना
माननीय प्रधानमंत्री के विजन-ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन यापन में आसानी और कोई भी नागरिक पीछे न छूटे- को साकार करने का केंद्र बिंदु गुणवत्तापूर्ण आजीविका को सर्व-सुलभ बनाना है। इस विजन के अनुरूप, केंद्रीय बजट 2022; भारतञ्च100 के लिए एक महत्वाकांक्षी आधारशिला रखता है, जिसमें अवसंरचना, डिजिटल कनेक्टिविटी जैसे आर्थिक रूप से सक्षम बनाने वाले कारकों पर विशेष ध्यान दिया गया है- पूंजीगत व्यय के लिए 1 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन किया गया है, जिसमें पीएम ग्राम सड़क योजना के लिए पूरक आवंटन, सीमावर्ती क्षेत्रों में वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम, किफायती ब्रॉडबैंड और मोबाइल सेवा का प्रसार, भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण आदि शामिल है। हर घर नल से जल, पीएम आवास योजना, हर घर उज्ज्वला, सौभाग्य आदि कार्यक्रमों ने ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने में मदद की है। 15वें वित्त आयोग के तहत उपलब्ध धनराशि के साथ, पंचायतों को पानी और स्वच्छता के लिए 1.42 लाख करोड़ रुपये और प्राथमिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 70,000 करोड़ रुपये का अनुदान – ये जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के अभूतपूर्व प्रयास हैं, जो ग्राम पंचायतों को लोगों तक सेवाएं उपलब्ध कराने के साथ स्थानीय ‘सार्वजनिक सेवाओं’ के प्रदाता के रूप में सक्षम बनाएगा। नागरिक सेवाओं में हो रहे सुधार के साथ हम जल्द ही बेहतर सामाजिक सुविधाओं वाले गांवों को देखेंगे।
आवास, पाइप से जलापूर्ति, सड़क और इन्फो-वे कनेक्टिविटी के सार्वभौमिक कवरेज का ग्रामीण नौकरियों पर गुणात्मक प्रभाव पड़ेगा। इन बातों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आजीविका के अवसरों के तेजी से सृजन की योजना बनाई है और अगले 3 वर्षों में 2.5 करोड़ आजीविका के मौकों का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। 2022-23 में, ग्रामीण विकास विभाग को मनरेगा के मांग-आधारित पूरक आवंटन के साथ कुल 1,35,944 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं- पिछले 7 वर्षों में ग्रामीण अवसंरचना, सामाजिक सुरक्षा और आजीविका पर निरंतर ध्यान केंद्रित किया गया है। मनरेगा ग्रामीण गरीब परिवारों की आय बढ़ाने के प्रयास में 100 दिनों तक का रोजगार प्रदान करता है और इसके तहत परिवारों की आजीविका गतिविधियों का समर्थन करने के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक संपत्ति का निर्माण किया जाता है और डीएवाई-एनआरएलएम महिलाओं की आजीविका गतिविधियों के लिए सामुदायिक समूहों की ताकत का लाभ उठाता है, ताकि पारिवारिक आय में वृद्धि हो सके। एनएसएपी, डीडीजीकेयूवाई के साथ मंत्रालय 2030 के एसडीजी लक्ष्यों से बहुत पहले; विविध और लाभकारी स्व-रोजगार और कुशल मजदूरी आधारित रोजगार के अवसरों को बढ़ावा देकर गरीबी को खत्म करने की सकारात्मक स्थिति में है।
महामारी के दौरान प्रशासन से संबंधित पंचायतों और महिला समूहों के बीच नए गठबंधन की शुरुआत हुई है, हमने पंचायत योजना के साथ आजीविका योजना प्रक्रिया के एकीकरण के लिए उपाय किए हैं, जिससे दोनों पारस्परिक रूप से मजबूत हुए हैं और सभी परिवारों को विशेष रूप से सबसे कमजोर लोगों को शामिल करना सुनिश्चित हुआ है। सरकार ने स्वयं सहायता समूहों के लिए जमानत-मुक्त ऋण को 10 लाख रुपये से दोगुना करके 20 लाख रुपये कर दिया है। अब सरकार यह सुनिश्चित करने की भी योजना बना रही है कि एसएचजी को बिना किसी परेशानी के अपनी गतिविधियों को मजबूत करने के लिए ऐसे ऋण मिल सकें। डिजिटल लेन-देन के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग, बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच में सुधार और वित्तीय समझ; इन प्रयासों के प्राथमिक लक्ष्य हैं। कार्य का नया और अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र होगा- उद्यम शुरू करने वाले एसएचजी सदस्यों के लिए ऋण जुटाना। वर्तमान में डीएवाई-एनआरएलएम स्वयं सहायता समूह की महिला सदस्यों को- मिशन द्वारा महिला संस्थानों को दिए जाने वाले अनुदान एवं वित्तीय संस्थानों से ऋण के माध्यम से- पूंजी तक पहुंच प्रदान करता है। (2013-14 से लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपये का ऋण महिला एसएचजी द्वारा जुटाया गया है)। इसके अलावा, समन्वय के हाल के प्रयासों के परिणामस्वरूप मनरेगा से परिसंपत्ति समर्थन, डीडीजीकेयूवाई के तहत कौशल/प्रौद्योगिकी सहायता तथा पीएमएफएमई और विभिन्न सरकारी योजनाओं द्वारा समर्थन मिला है, जिससे स्वयं सहायता समूहों के सदस्य आजीविका को सुदृढ़ बनाने में सक्षम हुए हैं।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का वाटरशेड विकास घटक और डिजिटल इंडिया भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (डीआईएलआरएमपी) भी एक बड़ा बदलाव लाएगा और ग्रामीण विकास में तेजी लाएगा, क्योंकि बजट 2022-23 में इन पर विशेष ध्यान दिया गया है। इस योजना आवंटन में 64 प्रतिशत की वृद्धि की गई है और मनरेगा के साथ समन्वय से जलवायु अनुकूल भविष्य की आजीविका सुनिश्चित होगी। डीआईएलआरएमपी डिजिटल इंडिया पहल का एक हिस्सा है। कार्यक्रम के प्रमुख घटकों में शामिल हैं: (द्ब) सभी मौजूदा भूमि रिकॉर्ड का कम्प्यूटरीकरण, (द्बद्ब) नक्शों का डिजिटलीकरण, (द्बद्बद्ब) सर्वेक्षण/पुन: सर्वेक्षण और बंदोबस्त के सभी रिकॉर्ड को अद्यतन करना एवं (द्ब1) पंजीकरण प्रक्रिया का कम्प्यूटरीकरण और भूमि रिकॉर्ड रख-रखाव प्रणाली के साथ इसका एकीकरण।
कोई भी नागरिक पीछे न छूटे और जीवन यापन में आसानी
सरकार ने रेखांकित किया है कि सामुदायिक संस्थानों के माध्यम से डीएवाई-एनआरएलएम के तहत संरचना-आधारित सामाजिक विकास प्रयासों को विस्तार देना बहुत महत्वपूर्ण है। एसएचजी महिलाओं के सन्दर्भ में जीवन की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए पोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता व लैंगिक मुद्दों से संबंधित सेवाओं के प्रति जागरूकता और पहुंच पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, क्योंकि ये स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। मंत्रालय ने अब अतिरिक्त आजीविका गतिविधियों का समर्थन करने के लक्ष्य के लिए समग्र ग्रामीण विकास (डब्ल्यूआरडी) दृष्टिकोण अपनाया है। एकीकृत दृष्टिकोण के लिए केंद्र और राज्य सरकारों से आजीविका योजनाओं और कार्यक्रमों की आपूर्ति का एक सहज मिलान करना होगा- कौशल, परिसंपत्ति, सेवाएं और संसाधन; समुदाय की मांगों के साथ उपलब्ध किए जाने चाहिए। सीएसओ तथा स्टार्टअप सहित कृषि क्षेत्र की कंपनियों के साथ साझेदारी और गठबंधन पर ध्यान देना भी महत्वपूर्ण है, जो सार्वजनिक इकोसिस्टम से अलग उपभोक्ताओं/अंतिम उपयोगकर्ताओं, प्रौद्योगिकियों और अन्य सेवाओं के साथ मूल्य श्रृंखला तक पहुंच प्रदान करते हैं। यह और भी महत्वपूर्ण है कि केंद्र व राज्य सरकारों के सभी स्तर और संबंधित क्षेत्र अपनी सफलता के एक महत्वपूर्ण मानदंड के रूप में अतिरिक्त आजीविका विकास को अपनाएं। इसके अलावा, उद्यम विकास के लिए बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली भी वित्तीय संसाधनों तक पहुंच को सक्षम बनाएं।
सौभाग्य से, गरीबी-उन्मूलन की व्यापक रणनीति के एक घटक के रूप में उपरोक्त अधिकांश संरचनायें तैयार है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के अन्य उपायों के साथ, सरकार; जन धन खाताधारकों और अन्य गरीबों तक अपनी पहुंच का विस्तार करके खाद्यान्न और नकद सहायता प्रदान करना जारी रखे हुए हैं। सरकार सामाजिक सुरक्षा पात्रता जैसे राशन कार्ड को प्रशासनिक सीमाओं के साथ-साथ राज्यों के बाहर भी उपयोगी बनाने के लिए कदम उठा रही है।
केंद्रीय बजट 2022-23 में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों को सीधे समर्थन, पूंजीगत व्यय और सूक्ष्म स्तर के कल्याण कार्यक्रमों पर रणनीतिक ध्यान देने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के माध्यम से विकास को बढ़ावा देने की एक विवेकपूर्ण रणनीति का पालन किया गया है, जो भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए जीवन यापन को आसान बनाएगा।
लेखक सचिव (ग्रामीण विकास), भारत सरकार हैं

रूस के हमले से दांव पर दुनिया

जी. पार्थसारथी
बाईस फरवरी की शाम राष्ट्रपति व्लादिमीर ने अपने लोगों और शेष विश्व के नाम संबोधन में रूस को अमेरिका से दरपेश चुनौतियों के बारे में बताया। उनके दावे के मुताबिक यह सब रूस को पड़ोसी मुल्कों से दूर करने की गर्ज से है। उनका यह भाषण पड़ोसी यूक्रेन से बढ़ते तनावपूर्ण रिश्तों के बीच आया था। पुतिन ने भाषण में विशेष रूप से जिक्र किया कि अमेरिका ने दुर्भावनावश सोवियत रूस को कमतर और अस्थिर किया था। पुतिन ने पड़ोसी यूक्रेन की कथित भूमिका के बारे में भी तफ्सील से बताया कि वह भी रूसी संघ को अस्थिर करने वाली हालिया पश्चिमी साजिशों में शामिल हो गया है। उन्होंने भावुक होकर कहा, ‘यहां मैं पुन: कहना चाहूंगा कि यूक्रेन हमारे लिए केवल पड़ोसी देश नहीं है। यह हमारे साझे इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिकता का अभिन्न हिस्सा रहा है।’ उन्होंने आखिर में कहा कि मौजूदा हालात में यह जरूरी हो जाता है कि यूक्रेन में ‘दोनेस्तक गणतंत्र’ और ‘लुहांस्क गणराज्य’ द्वारा अपनी आजादी और संप्रभुता पाने वाली लंबित मांगों पर निर्णय लिया जाए। उनके इस प्रस्ताव को रूसी संसद ने आनन-फानन में मंजूर कर लिया।
इस तरह 22 फरवरी को यूक्रेन के साथ बढ़ते तनावों में रूसी आक्रमण की भूमिका तैयार हो गई थी जो मुख्यत: अमेरिका के खिलाफ थी। राष्ट्रपति बाइडेन को इस घटनाक्रम पर तीखी घरेलू आलोचना का सामना करना पड़ा है। पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप और उनके विदेश मंत्री रहे पोम्पियो के नेतृत्व में रिपब्लिकन राजनेताओं ने हल्ला बोलते हुए कहा कि जो कुछ हुआ वह स्थिति से सही तरह निपट पाने में बाइडेन प्रशासन की विफलता का नतीजा है और ठीक वैसा है जब प्रशासनिक शिकस्त की वजह से अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज को बेइज्जत होकर वापसी करनी पड़ी थी। इसी बीच रूसी मीडिया ने गर्व से घोषणा की है कि दोनेस्तक और लुहांस्क ने यूक्रेन से निश्चयपूर्ण आजादी पा ली है।
पुतिन ने यह साफ कर दिया है कि अब केवल दोनेस्तक और लुहांस्क ही नहीं बल्कि इलाकाई महत्वाकांक्षा का निशाना समूचा यूक्रेन है। उन्होंने अपने संबोधन में पूर्व सोवियत संघ की नीतियों की कटु आलोचना करते हुए किसी को नहीं बख्शा, जिसमें सोवियत काल के प्रतीक-पुरुष जैसे कि लेनिन, स्तालिन, ख्रुशचेव के अलावा कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन के नेतृत्व की तीन पीढिय़ां भी शामिल हैं। कम शब्दों में कहें तो, पुतिन द्वारा विगत के उन राजनेताओं की आलोचना करना अजीब और गैरवाजिब है, जिन्होंने रूस की वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों की नींव रखी और सोवियत संघ को विश्वशक्ति बनाया था।
पुतिन की इलाकाई महत्वाकांक्षा जाहिर होने के बाद चले घटनाक्रम ने रूस और दुनियाभर में हलचल पैदा कर दी है। जहां पहले यह महत्वाकांक्षा यूक्रेन के चंद इलाकों को ‘आजादी’ दिलवाने तक सीमित थी वहीं अब समूचा यूक्रेन कब्जाने के फैसले ने विश्व को चौंकाया है। उनका यह दावा यूक्रेन पर धावा बोलने के साथ लागू हुआ। आरंभ में कइयों को लगा कि वे सिर्फ क्रीमिया को रूस में मिलाना चाहते हैं, लेकिन पुतिन के ताजा कृत्य ने दुनिया को हैरान-परेशान कर दिया है। भारत ने पहले भी वार्ता के जरिए रूस-यूक्रेन तनाव कम करने वाले प्रयासों का समर्थन करके सही किया था और अब भी यूक्रेन की मौजूदा सीमारेखा में बदलावों के प्रयास की ताईद न करके समझदारी दिखाई है। भारत सहित शायद ही कोई मुल्क ऐसा होगा जो रूस द्वारा सैन्य कार्रवाई करके यूक्रेन को हड़पने या टुकड़ों में बांट देने को सही ठहराए।
कोई हैरानी नहीं कि राष्ट्रपति बाइडेन ने रूस पर दबाव बनाने के लिए तमाम नाटो, यूरोपियन और एशियाई सहयोगियों को लामबंद होने का आह्वान किया है। बाइडेन ने सबसे ज्यादा जिन मारक प्रतिबंधों का प्रस्ताव दिया था, उसमें रूस को उपलब्ध विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग सुविधाओं से महरूम करना शामिल था। अब इस पर अमल भी हो चुका है। अमेरिका स्थित ब्लूमबर्ग डॉट कॉम ने हालांकि बताया है कि राष्ट्रपति पुतिन द्वारा पृथक दोनेस्तक और लुहांस्क को मान्यता देने वाले दस्तावेज पर दस्तखत करने के 24 घंटों के अंदर अमेरिका और यूके ने आनन-फानन में रूस से 350 लाख बैरल कच्चा एवं परिशोधित तेल, सोना सहित 700 मिलियन डॉलर मूल्य की प्राकृतिक गैस, एल्यूमीनियम, टाइटेनियम, कोयला खरीदा है। रूस से इनका निर्यात आज भी जारी है। यूक्रेनी फौज और नागरिकों द्वारा रूसी सेना को कड़ी टक्कर के बीच पश्चिमी प्रतिबंध और सख्त होने जा रहे हैं। इसका विश्वव्यापी असर होना अवश्यम्भावी है।
अमेरिका और उसके यूरोपियन सहयोगियों द्वारा रूस पर प्रतिबंधों में सबसे करारा असर ‘स्विफ्ट’ नामक बैंकिंग व्यवस्था से महरूम करने से होगा। इसके अभाव में रूस की विश्व-व्यापार परिचालन क्षमता बाधित हो जाएगी और रूस के केंद्रीय बैंक का दुनिया के अन्य देशों से वैश्विक लेन-देन पंगु हो जाएगा। हालांकि, रूसी बैंक नियंताओं को इन उपायों का कयास पहले से था। इस सबके बीच रूसी अपना सैन्य अभियान बंद करने को तैयार नहीं हैं। हालांकि यूक्रेन ने सूझ-बूझ दिखाते हुए स्थिति सामान्य बनाने के लिए वारसा में शांति-वार्ता की पेशकश की है, लेकिन उम्मीद के मुताबिक रूस ने पहले यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था। हालांकि बैठक का एक दौर हो चुका है।
रूस द्वारा यूक्रेन पर दमन जारी रखने पर न केवल यूक्रेन को बल्कि रूसी नागरिकों को भी लंबे समय तक दुश्वारियां झेलनी पड़ेंगी, जिससे कटुता बढ़ेगी एवं आपसी एकता भंग होगी और बदनामी झेलनी पड़ेगी। उम्मीद करें कि रूस और यूक्रेन द्वंद्व में तमाम संबंधित पक्ष अपने जहन में रखेंगे कि अपने पड़ोस में शांति और सद्भावना कायम रखना दोनों की जिम्मेवारी है। शांति प्रयासों में फ्रांस और जर्मनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। रूसी समस्याओं पर अमेरिका और अन्य मुल्कों द्वारा व्यर्थ का छद्म-राष्ट्रवाद बघारने और घुड़कियों का भयावह परिणाम हो सकता है। रूस के पास फिलहाल 6400 परमाणु अस्त्रों का भंडार है, जिसमें 1600 सामरिक मिसाइलें तैयार हैं। रूस ने भड़काए जाने पर इनका इस्तेमाल करने का इरादा गुप्त नहीं रखा है।
यूक्रेन में स्थिति हाथ से निकलने पाए, इस हेतु वैश्विक राजनीतिक और कूटनीतिक प्रयास बहुत महत्वपूर्ण बन जाते हैं। राष्ट्रपति बाइडेन और पुतिन जब जेनेवा में मिले थे तो आदर्श राजनेता की तरह कहा था- ‘परमाणु युद्ध में कोई विजेता नहीं होता और यह कभी नहीं होना चाहिए।’ उम्मीद करें कि यह दोनों ताकतें तनाव को काबू से बाहर नहीं होने देंगी। अमेरिका और सहयोगियों द्वारा लगाए प्रतिबंधों की वजह से रूस के साथ भारत के व्यापारिक और आर्थिक संबंधों पर असर पड़ेगा। हालांकि इन अड़चनों से जुगत लगाकर पार पाया जा सकता है। लेकिन पुतिन के कृत्यों ने नया वैश्विक तनाव ऐसे समय बना डाला है जब दुनिया पहले से ही कोरोना महामारी का घातक असर झेल रही है। किंतु फिलहाल लगता नहीं कि व्लादिमीर पुतिन पीछे हटने को राजी होंगे, जाहिर है उन्हें अपने परमाणु भंडार की पाश्विक शक्ति पर यकीन है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

शिव साधना का महान पर्व महाशिवरात्रि!

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट –
शिवरात्रि का पावन पर्व शिव साधना से परमात्मा शिव को खुश करके उनकी कृपा प्राप्त कर अपनी मनोकामना की पूर्ति करना है। यह वह दिन है जब सभी साधक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पूजा अर्चना करते हैं। इस साल महाशिवरात्रि 1 मार्च को मनाई जा रही है। शिवरात्रि के दिन लोग मंदिर जाते हैं और वहाँ जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। इसी के साथ सभी साधक अपने-अपने तरीकों से भगवान शिव को साधना का प्रयास करते हैं। शिव की पूजा के समय खास रंग के कपड़े पहनने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। इस शिवरात्रि कौन से रंग के कपड़े आपकी पूजा को सफल बना सकते हैं।
भगवान शिव की आराधना के समय हरे रंग के कपड़े धारण करना शुभ माना जाता है। इसी के साथ अगर आप हरे रंग के साथ सफ़ेद रंग के वस्त्र भी धारण करते हैं तो यह अधिक लाभदायक होगा। जी दरअसल ऐसी मान्यता है कि भोले बाबा को सफ़ेद और हरा रंग बहुत प्रिये होता है इसलिए शिवरात्रि के दिन शिव जी को चढ़ाये हुए फूल और बेल-धतूरा सफ़ेद और हरे रंग के ही होते हैं।
इसी के साथ शिवरात्रि के दिन हरे रंग को धारण करना बहुत शुभ मन जाता है। वहीं अगर आपके पास हरे या सफ़ेद रंग के वस्त्र नहीं हैं तो आप लाल, केसरिया, पीला, नारंगी तथा गुलाबी रंग के वस्त्र धारण कर के भोले बाबा की आराधना कर सकते हैं। ध्यान रहे भगवान शिव को काला रंग बिलकुल भी प्रिये नहीं होता। दरअसल काला रंग अंधकार और भसम का प्रतीक होता है इसलिए कभी भी शिवरात्रि के दिन काले रंग के वस्त्र न धारण करें। आपको बता दें कि काले वस्त्रों के साथ काला दुपट्टा, बिंदी, चूडिय़ां भी नहीं पहनना चाहिए। वहीं अगर आप भगवान शिव को अपनी श्रद्धा और आराधना से प्रसन्न करना चाहते हैं तो शिवरात्रि के दिन काले रंग का त्याग कर दें।
महाशिवरात्रि पर्व शिव और शक्ति के मिलन का पर्व माना जाता है। वैसे तो प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ये पर्व मनाया जाता है। लेकिन फाल्गुन महीने में आने वाली मासिक शिवरात्रि सबसे खास होती है जिसे महा शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। शिव भक्तों के लिए ये दिन काफी खास होता है। इस साल ये पर्व 1 मार्च को मनाया जा रहा है।महाशिवरात्रि 1 मार्च को सुबह 3 बजकर 16 मिनट से शुरू होकर 2 मार्च को सुबह 10 तक रहेगी।
पहला प्रहर का मुहूर्त-:1 मार्च शाम 6 बजकर 21 मिनट से रात्रि 9 बजकर 27 मिनट तक है।
दूसरे प्रहर का मुहूर्त-: 1 मार्च रात्रि 9 बजकर 27 मिनट से 12 बजकर 33 मिनट तक है।
तीसरे प्रहर का मुहूर्त-: 1 मार्च रात्रि 12 बजकर 33 मिनट से सुबह 3 बजकर 39 मिनट तक है।
चौथे प्रहर का मुहूर्त-: 2 मार्च सुबह 3 बजकर 39 मिनट से 6 बजकर 45 मिनट तक है।
पारण समय-: 2 मार्च को सुबह 6 बजकर 45 मिनट के बाद है।सनातन धर्म के अनुसार शिवलिंग स्नान के लिये रात्रि के प्रथम प्रहर में दूध, दूसरे में दही, तीसरे में घृत और चौथे प्रहर में मधु, यानी शहद से स्नान कराने का विधान है. इतना ही नहीं चारों प्रहर में शिवलिंग स्नान के लिये मंत्र भी अलग हैं।
प्रथम प्रहर में- ‘ह्रीं ईशानाय नम:”
दूसरे प्रहर में- ‘ह्रीं अघोराय नम:”
तीसरे प्रहर में- ‘ह्रीं वामदेवाय नम:”
चौथे प्रहर में- ‘ह्रीं सद्योजाताय नम:”।। मंत्र का जाप करना चाहिए।एक साल में कुल 12 शिवरात्रि आती हैं, लेकिन फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि का विशेष महत्व है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान शिव और शक्ति का मिलन हुआ था। वहीं ईशान संहिता के अनुसार फाल्गुन मास की चतुर्दशी तिथि को भोलेनाथ दिव्य ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रकट हुए थे। शिवपुराण में उल्लेखित एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था और भोलेनाथ ने वैराग्य जीवन त्याग कर गृहस्थ जीवन अपनाया था। इस दिन विधिवत आदिदेव महादेव की पूजा अर्चना करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है व कष्टों का निवारण होता है।अमावस्या से एक दिन पूर्व, हर चंद्र माह के चौदहवें दिन को शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक कैलेंडर वर्ष में आने वाली सभी शिवरात्रियों के अलावा फरवरी-मार्च माह में महाशिवरात्रि मनाई जाती है। इन सभी में से महाशिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व सबसे ज्यादा है। इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध कुछ ऐसी स्थिति में होता है कि मनुष्य में ऊर्जा सहज ही ऊपर की ओर बढ़ती है। इस दिन प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में सहायता करती है। इस अवसर का लाभ उठाने के लिए ही, इस परंपरा में हमने इस पूरी रात चलने वाले उत्सव की स्थापना की। इस उत्सव का एक सबसे मुख्य पहलू ये पक्का करना है कि प्राकृतिक ऊर्जाओं के प्रवाह को अपनी दिशा मिल सके। इसलिए आप अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए जागते रहते हैं।आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए महाशिवरात्रि का पर्व बहुत महत्वपूर्ण है। पारिवारिक परिस्थितियों में जी रहे लोगों तथा महत्वाकांक्षियों के लिए भी यह उत्सव बहुत महत्व रखता है। जो लोग परिवार के बीच गृहस्थ हैं, वे महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव के रूप में मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से घिरे लोगों को यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण लगता है क्योंकि शिव ने अपने सभी शत्रुओं पर विजय पा ली थी।
साधुओं के लिए यह दिन इसलिए महत्व रखता है क्योंकि वे इस दिन कैलाश पर्वत के साथ एकाकार हो गए थे। वे एक पर्वत की तरह बिल्कुल स्थिर हो गए थे। यौगिक परंपरा में शिव को एक देव के रूप में नहीं पूजा जाता,, वे आदि गुरु माने जाते हैं जिन्होंने ज्ञान का शुभारंभ किया। ध्यान की अनेक सहस्राब्दियों के बाद, एक दिन वे पूरी तरह से स्थिर हो गए। वही दिन महाशिवरात्रि था। उनके भीतर की प्रत्येक हलचल शांत हो गई और यही वजह है कि साधु इस रात को स्थिरता से भरी रात के रूप में देखते हैं।
यौगिक परंपरा के अनुसार इस दिन और रात का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इस दिन आध्यात्मिक जिज्ञासु के सामने असीम संभावनाएँ प्रस्तुत होती हैं। आधुनिक विज्ञान अनेक चरणों से गुजऱते हुए, उस बिंदु पर आ गया है, जहाँ वे ये प्रमाणित कर रहे हैं – कि आप जिसे जीवन के रूप में जानते हैं, जिसे आप पदार्थ और अस्तित्व के तौर पर जानते हैं, जिसे ब्रह्माण्ड और आकाशगंगाओं के रूप में जानते हैं, वह केवल एक ऊर्जा है जो अलग-अलग तरह से प्रकट हो रही है।
यह वैज्ञानिक तथ्य ही प्रत्येक योगी का भीतरी अनुभव होता है। योगी शब्द का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति जिसने अस्तित्व की एकात्मकता का एहसास पा लिया हो। जब मैं ‘योगÓ शब्द का प्रयोग करता हूँ तो मैं किसी एक अभ्यास या तंत्र की बात नहीं कर रहा। उस असीमित को जानने की हर प्रकार की तड़प, अस्तित्व के उस एकत्व को जानने की इच्छा – योग है। महाशिवरात्रि की वह रात, उस अनुभव को पाने का अवसर भेंट करती है।हम सत्यम,शिवम,सुंदरम को आत्मसात कर स्वयं को आत्म बोध में स्थापित कर परमात्मा से अपनी लौ लगाये।यह लौ हमारे अंदर के विकारों से हमे मुक्त कर हमारे कल्याण का माध्यम बनती है।युग परिवर्तन के लिए भी परमात्मा शिव हमे संगम युग मे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति कराकर कलियुग से सतयुग में लाने के लिए यज्ञ रचते है।जिसमे स्त्री शक्ति का पोषण कर उन्हें युग परिवर्तन के निमित्त बनाया जाता है।वस्तुत:विश्व रचियता परमात्मा एक है जिसे कुछ लोग भगवान,कुछ लोग अल्लाह,कुछ लोग गोड ,कुछ लोग ओम, कुछ लोग ओमेन ,कुछ लोग सतनाम कहकर पुकारते है। यानि जो परम ऐश्वर्यवान हो,जिसे लोग भजते हो अर्थात जिसका स्मरण करते हो एक रचता के रूप में ,एक परमशक्ति के रूप में एक परमपिता के रूप में वही ईश्वर है और वही
शिव है। एक मात्र वह शिव जो ब्रहमा,विष्णु और शकंर के भी रचियता है। जीवन मरण से परे है। ज्योति बिन्दू स्वरूप है। वास्तव में शिव एक ऐसा शब्द है जिसके उच्चारण मात्र से परमात्मा की सुखद अनुभूति होने लगती है। शिव को कल्याणकारी तो सभी मानते है, साथ ही शिव ही सत्य है

शिव ही सुन्दर है यह भी सभी स्वीकारते है। परन्तु यदि मनुष्य को शिव का बोध हो जाए तो उसे जीवन मुक्ति का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है।
गीता में कहा गया है कि जब जब भी धर्म के मार्ग से लोग विचलित हो जाते है,समाज में अनाचार,पापाचार
,अत्याचार,शोषण,क्रोध,वैमनस्य,आलस्य,लोभ,अहंकार,का प्रकोप बढ़ जाता है।माया मोह बढ जाता है तब परमात्मा को स्वयं आकर राह भटके लोगो को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा का
कार्य करना पडता है। ऐसा हर पाचं हजार साल में पुनरावृत
होता है। पहले सतयुग,फिर द्वापर,फिर त्रेता और फिर कलियुग तक
की यात्रा इन पांच हजार वर्षो में होती है। हांलाकि
सतयुग में हर कोई पवित्र,सस्ंकारवान,चिन्तामुक्त और सुखमय
होता है।परन्तु जैसे जैसे सतयुग से द्वापर और द्वापर से त्रेता
तथा त्रेता से कलियुग तक का कालचक्र धूमता है। वैसे वैसे
व्यक्ति रूप में मौजूद आत्मायें भी शान्त,पवित्र और
सुखमय से अशान्त,दुषित और दुखमय हो जाती है। कलियुग
को तो कहा ही गया है दुखों का काल। लेकिन जब कलियुग
के अन्त और सतयुग के आगमन की धडी आती है तो उसके
मध्य के काल को सगंम युग कहा जाता है यही वह समय जब
परमात्मा स्वंय सतयुग की दुनिया बनाने के लिए आत्माओं
को पवित्र और पावन करने के लिए उन्हे स्वंय ज्ञान देते है
औरउन्हे सतयुग के काबिल बनाते है। समस्त देवी देवताओ में मात्र शिव ही ऐसे देव है
जो देव के देव यानि महादेव है जिन्हे त्रिकालदर्शी भी
कहा जाता है। परमात्मा शिव ही निराकारी और ज्योति स्वरूप
है जिसे ज्योति बिन्दू रूप में स्वीकारा गया है। परमात्मा
सर्व आत्माओं से न्यारा और प्यारा है जो देह से परे है
जिसका जन्म मरण नही होता और जो परमधाम का वासी है
और जो समस्त संसार का पोषक है। दुनियाभर में
ज्योतिर्लिगं के रूप में परमात्मा शिव की पूजा अर्चना और
साधना की जाती है। शिवलिंग को ही ज्योतिर्लिंग के रूप
में परमात्मा का स्मृति स्वरूप माना गया है।धार्मिक दृष्टि में विचार मथंन करे तो भगवान शिव ही एक मात्र ऐसे परमात्मा है जिनकी देवचिन्ह के रूप में शिवलिगं की स्थापना कर पूजा की जाती है। लिगं शब्द का साधारण अर्थ चिन्ह अथवा लक्षण है। चूंकि भगवान शिव ध्यानमूर्ति के रूप में विराजमान ज्यादा होते है इसलिए प्रतीक रूप में अर्थात ध्यानमूर्ति के रूप शिवलिगं की पूजा की जाती है। पुराणों में लयनाल्तिमुच्चते अर्थात लय या प्रलय से लिगं की उत्पत्ति होना बताया गया है। जिनके प्रणेता भगवान शिव है। यही कारण है कि भगवान शिव को प्राय शिवलिगं के रूप अन्य सभी देवी देवताओं को मूर्ति रूप पूजा की जाती है।
शिव स्तुति एक साधारण प्रक्रिया है। ओम नम: शिवाय का साधारण उच्चारण उसे आत्मसात कर लेने का नाम ही शिव अराधना है।

यूक्रेन और रूस युद्ध – गुटबंदी की ओर बढ़ती दुनिया

विकाश कुमार –
युद्ध दोनों पक्षों के लिए हानिकारक होते हैं। मानवता के समर्थक कभी भी युद्ध का समर्थन नहीं कर सकते, क्योंकि यह एक ऐसा भयावह आधार होता है जिससे आम जनमानस को पीड़ा की ज्वाला में झोंक दिया जाता है। यह कुछ तथाकथित हढधर्मी नेताओं का वह निर्णय होता है जो हिंसा के समर्थक और मानवता के शत्रु, शांति में विश्वास ना रखने वाले एवं संवाद प्रणाली से दूरी बनाए रखते हैं। प्रत्येक प्रकार की समस्या का हल संवाद प्रणाली से किया जा सकता है, परंतु याद रखने वाली स्थिति यह भी होती है कि संवादात्मक गतिविधियों में मध्यस्थ करने वाले स्तंभों को भी उन मूल्यों में विश्वास होना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की गतिविधियां वर्तमान वैश्विक समुदायों में देखी जा सकती हैं। रूस ने यूक्रेन से जंग का ऐलान कर दिया है उसके प्रमुख सैन्य ठिकानों में बमबारी एवं युद्ध पोतों से हमला करने के साथ-साथ उसके सैनिक यूक्रेन के प्रमुख शहरों में प्रवेश कर चुके हैं। वहां के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने भी हथियार उठा लिए हैं और उन्होंने वैश्विक महाशक्तियों से अपील की है कि ऐसी परिस्थितियों में संभावित सहायता करें। सहायता के लिए प्राय: फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं कनाडा सहित अन्य देश आगे बढ़े हैं। जेलेंस्की के स्वयं हथियार उठा लेने के बाद वहां के आम नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की चेतना और संचार का भाव दोगुना हो गया है। उन्होंने अपने राष्ट्र के रक्षा के लिए मरने और मारने दोनों के लिए तैयार हो गए हैं। उनके इस एक्शन को विश्व में सराहना की जा रही है, परंतु सवाल यह उठता है कि क्या यूक्रेन का जोश बिना हथियारों के रूस के विशाल सैन्य शक्ति के समक्ष कब तक टिक पाएगा? इसी बीच रूस ने यूक्रेन को बातचीत का ऑफर भी दिया ,परंतु जेलेंस्की ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा कि बेलारूस जैसे क्षेत्र से मेरे नागरिकों पर बमबारी और गोले बरसाए गए हैं ,ऐसे क्षेत्र से बातचीत का प्रस्ताव को स्वीकार मैं नहीं करता। दरसल रूस और यूक्रेन के मध्य का विवाद नाटो की सदस्यता को लेकर हो रहा है। नाटो की स्थापना 1949 में अमेरिका के नेतृत्व मी साम्यवादी गतिविधियों को रोकने के लिए किया गया था जिसके वर्तमान समय में 30 देश सदस्य हैं जिनकी संख्या स्थापना के समय 12 थी। यह एक सैन्य संगठन है जिसका नारा है कि यदि किसी भी सदस्य देश पर कोई भी बाहरी शक्ति आक्रमण करती है तब ऐसी स्थिति में वह उसका मुकाबला सामूहिक रूप से करेंगे। इस संगठन के विरुद्ध पूर्व सोवियत संघ ने भी 1955 में वारसा पैक्ट की स्थापना की थी परंतु 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के पश्चात वारसा पैक्ट का भी विघटन हो गया, परंतु नाटो अभी तक अस्तित्व में हैं। सोवियत संघ से विघटित अधिकतम देशों ने नाटो की सदस्यता ग्रहण कर ली है, यूक्रेन भी नाटो की सदस्यता ग्रहण करना चाहता था ,जिसका रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने विरोध किया। उन्होंने तो नोटों से यह भी कहा कि 1997 के पश्चात जितने देशों ने नाटो संगठन की सदस्यता ग्रहण की है उनकी सदस्यता को रद्द किया जाए, यूक्रेन ने नाटो के सदस्यता क प्रस्ताव जैसे ही प्रस्तावित किया वैसे ही व्लादीमीर पुतिन ने अपनी सेनाओं को यूक्रेन के सीमाओं में तैनात कर दिया। यूक्रेन फिर भी नहीं झुका और उसने भी अपने अस्तित्व बचाने के लिए एक विशाल सेना से युद्ध करने की ठान ली। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जब यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता ग्रहण करने के प्रस्ताव की पेशकश की थी तब ऐसे संकट में नाटो संगठन की सदस्य देश प्रत्यक्ष रूप से उसकी सहायता के लिए आगे क्यों नहीं आए ? नाटो संगठन के चार्टर 5 के अनुसार केवल सदस्य देशों के आक्रमण पर ही कार्यवाही की जा सकती है, परंतु चार्टर 4 के तहत कार्यवाही की जा सकती थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने किसी भी प्रकार की कार्यवाही क्यों नहीं की ? क्या उनको रूस का डर था ? क्या विवाद से दूर रहना चाहते थे ? क्या जानबूझकर समस्या को बढ़ाना चाहते थे? यदि नहीं तब ऐसी स्थिति में सभी सदस्यों को मिलकर यूक्रेन की सहायता करनी चाहिए। केवल आर्थिक प्रतिबंध लगा देने से और अपने देश में राजनैतिक आवागमन के प्रतिबंध कर देने से किसी भी देश का सैन्य साहस नहीं टूटता । हां यह जरूर कहा जा सकता है कि यदि युद्ध अधिक समय तक तक चला तोर उसको भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। कभी शाम में वहां का हिस्सा रहे यूक्रेन ने जब नाटो की सदस्यता का प्रस्ताव आगे बढ़ाया तब ऐसी स्थिति में अमेरिका सहित अन्य देशों को सैन्य सहायता अवश्य देनी चाहिए थी। प्रारंभ में यदि यह सभी देश यूक्रेन को विभिन्न प्रकार के आश्वासन ना दिए होते तो शायद आज यह स्थिति नहीं बनती। दरअसल इस युद्ध में विश्व के प्रमुख देश अपने गुट बंदियों की ओर बढ़ रहे हैं ,क्योंकि चीन जैसे देश सदैव रूस के समर्थन में ही रहेंगे। इधर भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में निंदा प्रस्ताव पर वोटिंग ना करके अपने आप को इससे दूर ही रखा है। उधर अमेरिका जैसे अन्य देश केवल अपील करते दिख रहे हैं विशेष एक्शन नहीं ले पा रहे हैं। छोटे देशों ने काफी कुछ हद तक सहायता पहुंचाई है परंतु वह यूक्रेन के लिए पर्याप्त नहीं होगी। रूस के पास एक विशाल सेन सकती है जो आधुनिक हथियारों से सुसज्जित है, जवाबी कार्यवाही के लिए चाहिए कि उसके पास भी ऐसे ही हथियार, युद्धपोत, मिसाइलें एवं राइफल्स हों जो रूस के अधिक प्रभावशाली हों। अभी तक इस प्रकार की सैन्य सामग्री की पेशकश किसी देश ने यूक्रेन के लिए नहीं किया है। परिस्थितियों में भी गुट बंदियों को आधार बनाया जा रहा है। अमेरिका की यह धारणा जरूर रही होगी कि यदि वह रूस के विरुद्ध सैन्य आक्रमण करता है तब ऐसी स्थिति में चीन भी एक्शन लेने से पीछे नहीं हटेगा और यह बात सर्व विदित है कि अमेरिका ने जहां पर भी हस्तक्षेप किया है उन देशों में सफल लोकतांत्रिक शासन स्थापित नहीं हो सका है। उसने सैन्य सहायता लेने की जगह जेलेंस्की को यह प्रस्ताव दिया कि वह चाहे तो विमान में बैठकर अमेरिका आ सकते हैं। शायद ऐसा ही प्रस्ताव अशरफ गनी को भी दिया होगा। इन सभी प्रकार के प्रभावहीन प्रस्तावों के बीच यूक्रेन अकेला दिख रहा है, परंतु इतने बड़े देश से सेंड संघर्ष लगातार जारी रखना साहस और अपने राष्ट्रप्रेम के प्रति समर्पण और बलिदान का भाव दिखाता है। युद्ध विराम जल्द से जल्द ही होना चाहिए, क्योंकि अधिक समय तक युद्ध चलने से आम नागरिकों की हत्याएं और कत्लेआम अधिक हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि यह क्षति और रूस और यूक्रेन दोनों को ही उठानी पड़ सकती है। अभी तक के जानकारी के मुताबिक 200 से अधिक यूक्रेन के नागरिकों कि इस युद्ध में मौत हो चुकी है। देश में भय का वातावरण व्याप्त है। ऐसे में मध्यम मार्ग निकालकर व्लादीमीर पुतिन को अपनी हठधर्मिता छोड़कर युद्ध विराम की घोषणा करनी चाहिए। इससे ही मानवता की रक्षा हो सकेगी। दोनों देशों को चाहिए की एक वार्ता करके संवाद शैली के माध्यम से आपसी विवादों को सुलझाएं ,क्योंकि युद्धों से आम नागरिकों की हत्याएं होती हैं।
(लेखक स्कॉलर केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक एवं राजनीति विज्ञान विषय में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)

केजरीवाल का कद भी तय करेगा पंजाब

राजकुमार सिंह –
कल जब पंजाब के मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे तो अपने लिए नयी सरकार ही नहीं चुनेंगे, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व संकट से गुजर रहे विपक्ष की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेंगे। दशकों तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल ही पंजाब की राजनीति के प्रमुख किरदार रहे। बेशक भाजपा और बसपा ने भी अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करवायी, लेकिन अक्सर इन बड़े दलों के छोटे साझीदार के तौर पर ही। वर्ष 2014 में पहली बार एक नये राजनीतिक दल ने पंजाब की चुनावी राजनीति में धमाकेदार एंट्री की। यह दल है, अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी, जो अब आप के संबोधन से लोकप्रिय है। लगातार तीन कार्यकाल तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेस और उसकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी भाजपा को करारी शिकस्त देकर आप दिल्ली की सत्ता पर पहले ही काबिज हो चुकी थी। कुछ ही अरसा पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आंदोलन से उपजी आप ने जिस तरह देश के दोनों प्रमुख दलों को हाशिये पर धकेल कर देश की राजधानी दिल्ली (बेशक उसे पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है) की सत्ता पर कब्जा किया, उसने देश ही नहीं, दुनिया को भी चौंका दिया।
शायद इसलिए भी कि अराजनीतिक लोगों के समूह द्वारा गठित इस दल ने चुनाव और सत्ता राजनीति में माहिर दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों को अप्रत्याशित मात दी थी। बेशक पहले चुनाव में बहुमत का आंकड़ा कुछ दूर रह गया था, लेकिन जब केजरीवाल ने मध्यावधि चुनाव का दांव चला तो मतदाताओं ने सारी कसर निकालते हुए कांग्रेस-भाजपा को मानो राजनीतिक वनवास ही दे दिया। आप ने यह करिश्मा तब कर दिखाया, जब नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार भाजपा (तीन दशक लंबे अंतराल के बाद) लोकसभा में अकेले दम बहुमत हासिल कर केंद्र की सत्ता पर काबिज हो चुकी थी। बेशक उन्हीं लोकसभा चुनाव में आप दिल्ली में तो खाता खोलने में नाकाम रही, लेकिन पंजाब में अपनी शानदार राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करायी थी—चार सीटें जीत कर। पहले दिल्ली और फिर पंजाब, आप की इस अप्रत्याशित चुनावी सफलता का निष्कर्ष यही निकाला गया कि परंपरागत राजनीति से जन साधारण का मोहभंग हो रहा है। यह भी कि अब राजनीतिक दलों को आम आदमी और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी मुश्किलों को अपने चुनावी एजेंडा में प्रमुखता से शामिल करना होगा। इसे उत्तर भारत में मुफ्त की रेवडिय़ों की लोकलुभावन चुनावी राजनीति की विधिवत एंट्री भी कह सकते हैं। बेशक मुफ्त बिजली-पानी से लेकर महिलाओं और बेरोजगार युवाओं को नकदी बांटने के वादों से वोट बटोर सत्ता में आ कर उन पर अमल करने वाले राजनीतिक दल या नेता अपने खजाने से खर्च नहीं करते, बल्कि सरकारी खजाने का मुंह ही खोलते हैं, जो दरअसल ईमानदार करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है, जिसे वोट की राजनीति के बजाय सर्वांगीण विकास पर खर्च होना चाहिए।
बेशक बहस और विश्लेषण का मुद्दा यह भी है कि कितने चुनावी वादों पर कब कितना अमल किया जाता है, लेकिन तेजी से फैलती मुफ्त की राजनीति को सरकारों द्वारा उद्योगों या अमीरों को दिये जाने वाले तमाम तरह के राहत पैकेज के मद्देनजर अब समाज कल्याण की अवधारणा से जोड़ कर देखा-दिखाया जाने लगा है। मुफ्त की राजनीति के सहारे ही सही, अधूरे राज्य दिल्ली में भी अपने वादों पर अमल कर अरविंद केजरीवाल ने उत्तर भारत में खुद को ऐसी राजनीति का ब्रांड बना लिया है। जो लोग कल तक उनकी इस राजनीति का मजाक उड़ाते थे या विरोध करते थे, आज उन्हीं का अनुसरण करते नजर आ रहे हैं। जिन पांच राज्यों में अब विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें से किसी के लिए भी किसी भी दल का चुनाव घोषणापत्र देख लीजिए बेहतर शासन के दृष्टिकोण के नाम पर मुफ्त की रेवडिय़ों की फेहरिस्त ही मिलेगी। अगर देश भर में किये जाने वाले ऐसे लोकलुभावन चुनावी वादों पर अमल की लागत का अनुमान लगाया जाये तो शायद आंकड़ा देश के बजट से भी आगे निकल जायेगा। दक्षिण भारत से शुरू हुई लोकलुभावन वादों से वोट बटोरने की यह राजनीतिक प्रवृत्ति अब जिस तरह सभी राजनीतिक दलों में पैर पसार रही है, उससे लगता नहीं कि तार्किक असहमति को भी खुले दिलो-दिमाग से सुना जायेगा।
पंजाब विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार आप सत्ता की प्रमुख दावेदार नजर आ रही है तो उसका मुख्य कारण, दोनों प्रमुख दलों : कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल से मोहभंग के अलावा, मुफ्त की राजनीति और दिल्ली में वैसे वादों पर अमल का केजरीवाल का ट्रैक रिकॉर्ड ही है, वरना तो ऐसे वादे करने में अब पीछे कोई भी दल नहीं रहा। 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव प्रचार में भी प्रतिद्वंद्वियों से आगे नजर आ रही आप अगर निर्णायक क्षणों में लंबे फासले से दूसरे स्थान पर रह गयी थी, तो उसके कई कारण बताये गये। जाहिर है, खुद आप के रणनीतिकारों को जो कारण नजर आये, वे विरोधियों को नजर आये कारणों से अलग थे। सच यह भी है कि 2014 में जीते चार लोकसभा सदस्यों का मामला हो या फिर 2017 में जीते 20 विधायकों का—आप उन्हें अगले चुनाव तक भी एकजुट नहीं रख पायी। निश्चय ही इसके लिए केजरीवाल किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा सकते और असल कारण उन्हें आप की राजनीति में ही खोजने होंगे। उस बिखराव के बावजूद अगर इस बार भी विधानसभा चुनाव में आप पंजाब में सत्ता की प्रमुख दावेदार नजर आ रही है तो मान लेना चाहिए कि मतदाताओं का परंपरागत राजनीतिक दलों से मोहभंग इतना ज्यादा है कि वे नया प्रयोग करना चाहते हैं। कांग्रेस ने नेतृत्व परिवर्तन कर और फिर आप के चुनावी वादों की तर्ज पर तत्काल राहत की घोषणाएं कर संभावित चुनावी नुकसान से बचने की कोशिश की है तो भाजपा से तकरार के बाद शिरोमणि अकाली दल ने बसपा से गठबंधन कर विजयी समीकरण बनाने की कवायद की है। सीमावर्ती राज्य होने के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पंजाब की संवेदनशीलता के मद्देनजर केजरीवाल की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। केजरीवाल की सत्ता महत्वाकांक्षाओं की बाबत उनके पुराने मित्र और आप के संस्थापक सदस्य रहे कवि कुमार विश्वास का ऐन चुनाव से पहले खुलासा आप की चुनावी संभावनाओं को ग्रहण भी लगा सकता है।
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही आप को एक-दूसरे की फोटोकॉपी बताते हैं, पर सच यह है कि केजरीवाल की राजनीति इन दोनों की राजनीतिक शैली का मिश्रण है। वह धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद, दोनों की बात एक साथ कर लेते हैं। शायद इसीलिए सत्ता से त्वरित लाभ की आस में न कांग्रेस के परंपरागत मतदाता को झाड़ू का बटन दबाने में संकोच होता है, न ही भाजपा के परंपरागत मतदाताओं को। आखिर दिल्ली में आप ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों के ही परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगायी। पंजाब में तो वह शिरोमणि अकाली दल के धार्मिक रुझान वाले परंपरागत वोट बैंक तक में सेंध लगाती नजर आ रही है। पंजाब के मतदाताओं ने अगली सरकार के लिए किसके पक्ष में जनादेश दिया—यह 10 मार्च को पता चल जायेगा, लेकिन अगर यह आप के पक्ष में हुआ तो उसका असर विपक्ष की राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना भी नहीं रहेगा। लगातार चुनावी पराभव झेल रही कांग्रेस में जैसी भगदड़ मची है, उसकी स्वाभाविक प्राथमिकता विपक्ष का नेतृत्व करने से पहले अपना अस्तित्व बचाना होगी। उस स्थिति में विपक्ष के नेतृत्व की दौड़ मुख्यत: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच रह जायेगी। माना कि पश्चिम बंगाल की गिनती देश के बड़े राज्यों में होती है,पर दिल्ली के बाद पंजाब में भी आप की सरकार बन जाने पर केजरीवाल उस अंतर को मिटा पाने की स्थिति में आ जायेंगे। बेशक कुशल हिंदी वक्ता होना भी अंतत: राष्ट्रीय राजनीति में केजरीवाल का कद बढ़ायेगा ही, लेकिन तभी जब दिल्ली के अलावा भी किसी राज्य में आप की सरकार बन पाये– जिसकी संभावना पंजाब से बेहतर कहीं और नजर नहीं आती।

*मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म के सवाल पर अदालत में..

*महिलाएं घर में शारीरिक संबंधों के नाम पर हिंसा झेलने को मजबूर हैं

*पति-पत्नी के जिन संबंधों को बिल्कुल निजी माना जाता है

*वहां कानून, वकील, सरकार और स्वयंसेवी समूह घुसे चले आ रहे हैं

*न्याय की कसौटी पर खरा भी उतरे कानून

– क्षमा शर्मा –
मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म के सवाल पर इन दिनों अदालत में बहस चल रही है। बताया जा रहा है कि महिलाएं घर में शारीरिक संबंधों के नाम पर हिंसा झेलने को मजबूर हैं। इसलिए मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बनना चाहिए। पत्नी अगर सहमत न हो तो पति को संसर्ग नहीं करना चाहिए। बहस के दौरान माननीय न्यायाधीश ने कहा भी कि पत्नी की कंसेंट या सहमति पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जा रहा है।
अफसोस कि पति-पत्नी के जिन संबंधों को बिल्कुल निजी माना जाता है, वहां कानून, वकील, सरकार और स्वयंसेवी समूह घुसे चले आ रहे हैं। विवाह यदि दो लोगों के बीच हुआ है, तो तीसरी पार्टी आखिर उनके बीच क्यों घुसना चाहती है। वैसे भी यह कैसे पता चलेगा कि पति ने पत्नी के साथ जबर्दस्ती की। मैरिटल रेप के पक्ष में कानून बनाने वाले कहेंगे कि इसे पत्नी के कहे से माना जाएगा। यानी कि पत्नी ही पहली और आखिरी गवाह और प्रमाण होगी। पति के कहे या न कहे के कोई मायने नहीं होंगे। पत्नी के कहते ही पति को अपराधी मान लिया जाएगा। कुछ लोग पत्नी को अनपेड सेक्स वर्कर कह रहे हैं। एक शादी और इतनी तरह की मुसीबतें तो क्या ऐसा दिन दूर नहीं, जब लड़के शादी ही नहीं करेंगे। मेरे एक परिजन बहुत पहले इंग्लैंड में थे। उन्होंने बताया था कि वहां बड़ी संख्या में लोग शादी ही नहीं करते हैं।
हम परिवार नाम की संस्था को शायद सिरे से खत्म करना चाहते हैं। इसके बरक्स यह देखना दिलचस्प है कि एक ओर यूरोप और अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग परिवार की वापसी के बारे में बातें कर रहे हैं। कोरोना महामारी के बाद यहां के लोग मनुष्य या ह्यूमन रिसोर्स की जरूरत और महत्व को अधिक महसूस कर रहे हैं। यह ह्यूमन रिसोर्स परिवार के सदस्यों के रूप में ही अधिक से अधिक मिल सकता है। और एक हम हैं कि परिवार किस तरह टूटे, किस तरह उसे एक यूनिट के रूप में रहने ही नहीं दिया जाए, इसकी जुगत भिड़ा रहे हैं। पश्चिमी विचार जिन अतियों से कराह रहा है, हम उनकी तरफ सिर के बल दौड़ रहे हैं। कानून की आड़ लेकर असली निशाना परिवार ही है। परिवार अगर हो तो किसी तीसरे को घर में घुसने में दिक्कत होती है। तीसरी पार्टी अक्सर आपके घर में जब घुसती है तब किसी अच्छे विचार या शुभकामनाओं के साथ नहीं, बल्कि तोड़-फोड़ के लिए ही। दो बिल्लियों की लड़ाई में तीसरी पार्टी बंदर की क्या भूमिका होती है, वह कहानी तो आपने सुनी ही होगी। परिवार में पत्नी को देवी और पति को राक्षस मानने की सोच अगर है, तो परिवार बसाने की क्या जरूरत। परिवार एक-दूसरे की सहायता और बढ़ोतरी के लिए होने चाहिए, न कि सतत् युद्ध में रहने के लिए। स्त्रीवादी सोच के तहत महिलाओं को अधिकार मिलें, उनकी प्रगति हो, यह तो अच्छी बात है, लेकिन इसी सोच के तहत परिवार में लगातार युद्ध की स्थिति हो, तो यह ठीक नहीं है। तब उस स्थिति को चुनना ही क्यों चाहिए। वह विचार सीधे हमारे बेडरूम में घुसा चला आ रहा है, जिसकी जड़ें कहीं ओर हैं।
पति को देवता मानना या खलनायक मानना दोनों ही तरह की सोच अतिवादी सोच है। इन दिनों आपने देखा होगा कि पत्नी की मत्यु चाहे जिस कारण से हुई हो, पुलिस और पत्नी के घर वाले सबसे पहला शक पति और उसके घर वालों पर करते हैं। उन्हें ही पकड़ा जाता है। स्त्रीवादी विमर्शों ने कुछ ऐसा रूप धरा है कि जिस घर में स्त्री रहती है, वहीं उसके सबसे अधिक दुश्मन बताए जाते हैं। इसीलिए सबसे पहले उन्हीं पर शक किया जाता है, उन्हें ही पकड़ा जाता है। महिला ने अगर आत्महत्या की हो, तो सौ में से सौ बार उसे दहेज हत्या कह दिया जाता है। अदालतें कह भी चुकी हैं कि हर आत्महत्या दहेज हत्या नहीं होती है। मगर कौन सुनता है।
यदि हम स्त्री के मानव अधिकार और कानूनी अधिकारों की बातें करते हैं, तो पुरुषों के मानव अधिकार और कानूनी अधिकारों को क्यों भूल जाते हैं। क्या पुरुष पैदाइशी खलनायक होते हैं। क्या उन्हें पैदा ही नहीं होना चाहिए। क्या उनका जीवन फूलों से भरा है, वहां कोई कष्ट नहीं। एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें, तो हर साल छियानवे हजार पुरुष आत्महत्या करते हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इस बारे में कोई चर्चा तक नहीं होती। इन आत्महत्याओं का कारण पारिवारिक दबाव, कलह बताया जाता है।
अपने देश में स्त्री कानून बेहद एकपक्षीय हैं। वे स्त्री के अधिकारों की बातें करते हैं और अपनी मूल प्रवृत्ति में तानाशाहीपूर्ण हैं। वे दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने तक की आजादी नहीं देते। ऐसे जेंडर बायस कानून क्यों होने चाहिए। अदालतें अपने न्याय में स्त्री और पुरुष का भेद क्यों करें। वे सभी को न्याय देने के लिए होती हैं। इसलिए कानूनों को जेंडर न्यूट्रल होना चाहिए। जांच एजेंसियों की मानें तो दहेज प्रताडऩा संबंधी कानून, यौन प्रताडऩा और दुष्कर्म इनका बहुत दुरुपयोग भी हो रहा है। बड़ी संख्या में ऐसी शिकायतें झूठी भी पाई जाती हैं। लेकिन चर्चा अक्सर उस समय होती है, जब किसी अपराध और अपराधी का जिक्र होता है। कितने लोग अपराधी थे ही नहीं, उन्हें झूठा फंसाने की कोशिश की गई- इस पर चर्चा नहीं होती।
यदि मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा तो इसके खतरे भी यही हैं कि इसे साबित कैसे किया जाएगा। क्या पत्नी की गवाही और उसे सत्यवादी हरिश्चंद्र मान लेना, उसी के आधार पर पति को सजा देना मानवीयता और मानवीय अधिकारों के खिलाफ नहीं होगा। सिर्फ स्त्रीवादी संगठनों की ही नहीं, इस मसले पर पुरुषों के लिए जो संगठन काम करते हैं, उनकी भी सुनी जानी चाहिए।
न्याय का तकाजा है कि कानून किसी के भी प्रति अन्याय न करे। वह सताई गई स्त्री और सताए गए पुरुष दोनों को न्याय दे। इस घिसे-पिटे विचार के दिन लद गए हैं कि पुरुषों के साथ भला कौन अन्याय करता है। कानून का आतंक किसी भी समस्या को हल नहीं करता।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

संगीत जगत की कोकिला आदरणीय लता दीदी

विकास कुमार –
रंगमंच एवं संगीत की दुनिया से प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। भारत का शास्त्रीय संगीत केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में अपनी अमिट छाप बनाए हुए हैं। भारतवर्ष में बहुत से संगीतकार हुए जिन्होंने अपनी पहचान अपने स्वर संधान के परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया। संगीत को प्रत्येक प्रकार के उत्सव धर्मिता में गायन करने की प्रथा भारतीय समाज में ही नहीं ,अपितु वैश्विक विकसित समाजों में भी इसकी परंपरा स्थापित है। वैवाहिक संबंधों, शैक्षणिक उत्सवों, खेल जगत एवं कोई भी शुभ कार्य करने के लिए विविध प्रकार के संगीत का प्रचलन होता है। संगीत की दुनिया में कोकिला के नाम से प्रसिद्ध आदरणीय लता मंगेशकर दीदी का 92 वर्ष की उम्र में, निधन की खबर केवल भारत के व्यक्तियों को ही नहीं अपितु वैश्विक समुदाय को स्तब्ध कर दिया। इनकी मृत्यु की खबर सुनकर सभी ने यही कहा की दुनिया में अब कोई दूसरी लता नहीं बन सकती है।इनका जन्म 29 सितंबर, 1929 को करहाना ब्राह्मण दादा और गोमतंक मराठा दादी के परिवार में, मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम पंडित दीनानाथ मंगेशकर था जो एक रंगमंच के गायक एवं कलाकार थे। अपने परिवार में एक भाई और चार बहनों में यह सबसे बड़ी थी। जिनमे भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों में उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोसले थी। बचपन में ही लता जी का संगीत के और सर्वाधिक रुझान था । इन्होंने नव वर्ष की उम्र में अपने पिता के साथ ‘सौभाद्र’ नाटक में नारद का किरदार निभाया था इस नाटक में उन्होंने पासना बढऩा या मना नाम का गाना गाया था। बचपन से ही इनकी संगीत के क्षेत्र में सर्वाधिक रुचि थी परंतु इनके पिता जी यह नहीं चाहते थे कि वह संगीत के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाएं। इसीलिए लता जी को बचपन में संगीत क्षेत्र से जुडऩे के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रारंभ में छोटे-छोटे काम मिलते थे और छोटी नाट्य शालाओं में गायन करती थी। इनका सर्वाधिक हौसला बढ़ाने का कार्य इनकी बहन आशा भोसले ने किया। यद्यपि जन्म तो इनका इंदौर में हुआ था परंतु बचपन से ही यह महाराष्ट्र में पली बडी। इसलिए संगीत और अभिनय के इनको अवसर प्राप्त होते रहे। 1942 में पिता की मृत्यु के बाद (जब लता सिफऱ् तेरह साल की थीं), लता को पैसों की बहुत किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की कारण से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फिल्मों में काम करना पड़ा। अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फिल्म पाहिली मंगलागौर (1942) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फि़ल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), माँद (1948), छत्रपति शिवाजी (1952) शामिल थी। बड़ी माँ, में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका निभाई आशा भोंसलेने। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।उन्होंने अपना पहला गाना मराठी फिल्म ‘किती हसल’ (1942) के लिए गाया था। इन्होंने 20 से अधिक भाषाओं में 30,000 से अधिक गाने गाए हैं जो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए सर्वाधिक गाए हुए गाने हो सकते हैं। 1980 के बाद से फिल्मों में अधिक गाने नागा कर स्टेज शो की ओर इनका ध्यान आकर्षित हुआ। स्टेज शो में भी इनको खूब लोकप्रियता मिली और दर्शकों ने खूब पसंद किया। इनके द्वारा गाया हुआ गाना ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’ आज भी जब गणतंत्रता दिवस या स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सुना जाता है तब वहां पर खड़े हुए संपूर्ण समुदायों के लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्लासिकल म्यूजिक में लता जी ने ठुमरी राग में अधिक गाने गाए हैं जिसमें ‘नदिया किनारे हेराई आई कंगना’ आदि खूब पसंद किए जाते हैं। लता जी संगीत क्षेत्र की एक मात्र व्यक्तित्व हैं जिनके जीवित में उनके नाम से उसी क्षेत्र में पुरस्कार दिए जाते हैं। यही कारण रहा कि कई विधाओं में तथा संगीत के समस्त क्षेत्रों में उनको विभिन्न प्रकार के पुरस्कारों से नवाजा गया। जिसमें 5 से अधिक (1958,1962,1965,1969,1993, तथा 1994) फिल्म फेयर पुरस्कार, तीन बार (1972,1975, एवं 1990) राष्ट्रीय पुरस्कार, 1969 में पदम भूषण, 1974 में गिनीज बुक रिकॉर्ड, 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, 1993 में फिल्म फेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1996 में स्क्रीन का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1997 में राजीव गांधी पुरस्कार, 2001 में नूरजहां पुरस्कार एवं 2001 में ही भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से उन्हें पुरस्कृत किया गया। लता जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने संगीत को जिया है। यह धारणा उन समस्त महापुरुषों के लिए अवश्य होती है जो उस क्षेत्र में अपना नाम करते हैं और अपना संपूर्ण जीवन उसी क्षेत्र के लिए न्यौछावर कर देते हैं। छह दशकों में उन्होंने जो नाम और जो काम संगीत के दुनिया के लिए किया है उनके जाने के पश्चात उसकी भरपाई शायद कभी हो सकेगी! इनके जैसे संगीतकार दुनिया में कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। यद्यपि, इनका शरीर इस भौतिक दुनिया में उपस्थित नहीं रहेगा परंतु इनके आवाज के कारण यह दुनिया सदैव इन्हें याद रखेगी और जब भी इनके द्वारा गाए हुए गाने सुने जाएंगे तब यही होगा कि भारत में एक कोकिला ऐसी भी थी। इनकी आवाज सदैव भारतीय संगीत और संगीत प्रेमियों के बीच अमर रहेगी। ऐसे महान व्यक्तित्वों के योगदान सदैव आम जनमानस के बीच प्रेरणात्मक तथ्य बनकर अमर रहते हैं। आने वाली आगामी पीढिय़ां संगीत के क्षेत्र में आदरणीय लता दीदी से सदैव प्रेरणा लेती रहेंगी और याद करेंगे की एक संगीत के क्षेत्र में ऐसी भी गायिका थी।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट है)

अनोखी आकृतियों से गहराया ब्रह्मांड का रहस्य

मुकुल व्यास –
हमारा ब्रह्मांड विचित्रताओं और रहस्यों से भरपूर है। इसके बारे में बहुत-सी चीजें अभी तक अज्ञात हैं। खगोल वैज्ञानिक निरंतर इन रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश करते रहते हैं। इस क्रम में उन्होंने कुछ ऐसी अनोखी संरचनाओं का पता लगाया है, जिनके बारे में पहले नहीं सुना गया था। इन संरचनाओं में हजारों प्रकाश वर्ष दूर तक फैली पट्टी, पटाखों की लडिय़ों जैसी आकृतियां और प्रचंड ऊर्जा छोडऩे वाले पिंड शामिल हैं। खगोल वैज्ञानिकों ने हाल ही में पृथ्वी से 55000 प्रकाश-वर्ष दूर एक हाइड्रोजन की लंबी पट्टी खोजी है। उनका कहना है कि यह हमारी मिल्की-वे यानी आकाशगंगा की सबसे बड़ी संरचना है। मैगी नामक हाइड्रोजन की यह विशाल पट्टी 3900 प्रकाश वर्ष लंबी और 130 प्रकाश वर्ष चौड़ी है। यह करीब 13 अरब वर्ष पहले बनी थी। जर्मनी के मैक्स प्लांक एस्ट्रोनॉमी इंस्टिट्यूट के खगोल वैज्ञानिकों के नेतृत्व में एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के गाइया उपग्रह की मदद से इस संरचना की नाप-जोख की है।
इस अध्ययन के एक सह-लेखक जुआन सोलेर को एक वर्ष पहले इस संरचना के अस्तित्व के कुछ संकेत मिल गए थे। उन्होंने अपने देश कोलंबिया की सबसे लंबी नदी के नाम पर इस संरचना का नाम मैगी रखा। आंकड़ों के प्रारंभिक विश्लेषण में मैगी को पहचानना संभव हो गया था लेकिन वर्तमान अध्ययन से ही यह साबित हुआ कि यह एक लंबी पट्टी है। बिग बैंग अथवा ब्रह्मांडीय महाविस्फोट के करीब 380000 वर्ष बाद हाइड्रोजन का निर्माण हुआ था। मिल्की-वे का गठन उससे एक अरब साल पहले हुआ था। हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे ज्यादा पाया जाने वाला पदार्थ है। लेकिन इस गैस को डिटेक्ट करना बहुत ही दुष्कर कार्य है। इस संदर्भ में हाइड्रोजन की लंबी पट्टी की खोज बहुत ही रोमांचक है।
इस अध्ययन के प्रथम लेखक जोनास सैयद ने कहा कि पट्टी की लोकेशन से इस खोज में मदद मिली। हम अभी यह नहीं जानते कि ये पट्टी वहां कैसे बनी लेकिन यह मिल्की-वे के समतल करीब 1600 प्रकाश वर्ष तक फैली हुई है। इसकी वजह से हाइड्रोजन से होने वाले विकिरण को पृष्ठभूमि में आसानी से देखा जा सकता है। इससे पट्टी को देखना संभव हो जाता है। मैगी का गहराई से विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि पट्टी में कुछ बिंदुओं पर गैस आकर मिलती है। ये संभवत: वे क्षेत्र हैं जहां गैस जमा होकर बड़े बादलों में तब्दील होती है। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसे क्षेत्रों में आणविक गैस मॉलिक्यूल के रूप में परिवर्तित होती है। नया अध्ययन एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
मिल्की-वे में हाइड्रोजन की पट्टी को खोजने में गाइया उपग्रह का बहुत बड़ा योगदान है। यह उपग्रह इस समय मिल्की-वे आकाशगंगा का त्रिआयामी नक्शा तैयार कर रहा है। अपने मिशन के दौरान उसने इसकी संरचना, गठन और विकास के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी हैं। इस उपग्रह को दिसंबर, 2013 में भेजा गया था। तब से यह पृथ्वी की कक्षा से करीब 16 लाख किलोमीटर की दूरी पर सूरज की परिक्रमा कर रहा है। अपनी यात्रा के दौरान वह मिल्की-वे की तस्वीरें खींच रहा है और छोटी आकाशगंगाओं के तारों की पहचान कर रहा है जिन्हें काफी समय पहले हमारी आकाशगंगा द्वारा निगल लिया गया था। गाइया के मिशन के दौरान हजारों पिंडों का पता चलने की उम्मीद है जो अभी तक खोजे नहीं गए हैं। इनमें निकटवर्ती तारों के इर्द-गिर्द घूमने वाले ग्रह, पृथ्वी के लिए खतरा बनने वाले क्षुद्रग्रह और सुपरनोवा विस्फोट शामिल हैं। इस मिशन से भौतिक-खगोलविदों को अंतरिक्ष में डार्क मैटर (अदृश्य पदार्थ) के वितरण के बारे में नई जानकारियां मिलने की उम्मीद है। समझा जाता है कि यह पदार्थ ब्रह्मांड को जोड़े हुए है।
ब्रह्मांड से आने वाली रेडियो तरंगों की निगरानी करने वाले खगोल वैज्ञानिकों के एक दूसरे दल को एक ऐसे रहस्यमय पिंड का पता चला है जो प्रचंड ऊर्जा उत्सर्जित कर रहा है। ऐसी कोई चीज पहले कभी नहीं देखी गई थी। इस फिरकते हुए पिंड का पता मार्च, 2018 में चला था लेकिन इसकी पुष्टि आंकड़ों के विस्तृत विश्लेषण के बाद हाल ही में हुई है। पृथ्वी से करीब 4000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित इस पिंड से हर 18 मिनट में तीव्र विकिरण निकल रहा था। उन क्षणों में यह ‘ब्रह्मांडीय प्रकाश स्तंभÓ की तरह रेडियो तरंगों का सबसे चमकदार स्रोत बन गया था, जिसे पृथ्वी से भी देखा जा सकता था। खगोल वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह या तो किसी ढह चुके तारे का अवशेष है या कुछ और है।
दरअसल, तारे के अवशेष भी दो तरह के हो सकते हैं। या तो यह अवशेष किसी न्यूट्रॉन तारे का है या एक प्रबल चुंबकीय क्षेत्र वाले एक छोटे तारे (वाइट ड्वार्फ स्टार) का है। इस खोज का विवरण नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन की प्रमुख लेखक और ऑस्ट्रेलिया के कर्टिन विश्वविद्यालय की खगोल भौतिकविद नताशा हर्ले-वॉकर ने कहा कि हमारे पर्यवेक्षण के दौरान यह पिंड कुछ-कुछ घंटों में प्रकट होता रहा और गायब होता रहा। यह हमारे लिए अप्रत्याशित घटना थी। कर्टिन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता टायरोन डोहर्टी ने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया स्थित मर्चिसन वाइडफील्ड टेलीस्कोप की मदद से इस अनोखे पिंड की खोज की।
इस बीच, मिल्की-वे के मध्य भाग की टेलीस्कोप से ली गई तस्वीर में करीब 1000 रहस्यमय लडिय़ों का पता चला है जो अंतरिक्ष में लटकती हुई प्रतीत होती हैं। 150 प्रकाश वर्ष तक फैली हुई ये लडिय़ां, जोड़ों या झुंड में हैं और हार्प वाद्य यंत्र के तारों की तरह समान दूरी पर स्थित हैं। अमेरिका की नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्स यूनिवर्सिटी के खगोल वैज्ञानिक फरहद यूसफ-जादेह ने सबसे पहले अस्सी के दशक में मिल्की-वे में चुंबकीय लडिय़ों का पता लगाया था। तब से इनकी उत्पत्ति को लेकर एक बड़ा रहस्य बना हुआ था अब टेलीस्कोप से ली गई नई तस्वीर में दस गुणा ज्यादा लडिय़ां दिखाई दे रही हैं। नई जानकारी से इन लडिय़ों के रहस्य को सुलझाने में मदद मिलेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

यूक्रेन में रूसी-अमेरिकी हितों का टकराव

जी. पार्थसारथी – 
दिसंबर, 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो मुख्य चिंता संघ के घटक रहे मध्य एशियाई इस्लामिक प्रजातांत्रिक देशों में बड़ी संख्या में बसे रूसियों के भविष्य को लेकर थी। सौभाग्य से यह मुद्दा अधिकांशत: राजनीतिक और शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जा चुका है। हालांकि चेचन्या के मुस्लिम बहुल इलाके में होने वाली हिंसा और सशस्त्र विद्रोह से सख्ती से निपटा गया था, जब इस गुट ने कुछ इस्लामिक देशों की मदद से हथियारबंद बगावत कर दी थी। मुस्लिम बहुल एशियाई प्रजातांत्रिक मुल्क मसलन कजाखिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीज़स्तान और तुर्कमेनिस्तान की सोवियत संघ के अलग होने की प्रक्रिया शांतिपूर्ण संपन्न हुई थी। इससे आगे समूचे मध्य एशिया में ज्यादातर धर्म-सहिष्णु सरकारें बन पाईं।
इन मुल्कों का नेतृत्व उन हाथों में बना रहा जो सोवियत संघ बिखरने से पहले भी प्रभावशाली थे। उन्होंने अक्लमंदी दिखाते हुए रूस और अपने रूसी भाई-बंदों से अच्छे संबंध कायम रखे और ठीक इसी वक्त धार्मिक कट्टरवाद को त्यागे रखा। इसके बदले में उन्हें रूस से धार्मिक चरमपंथियों से पार पाने में तगड़ी सहायता मिली जिन्हें अफगान तालिबान सहित बाहरी ताकतों की मदद प्राप्त थी। इतना ही नहीं, इन मध्य एशियाई देशों में विशाल संख्या में बसे रूसी वहीं बने रहे। जबकि सोवियत संघ के तीन पूर्व सदस्य यानी एस्टोनिया, लातविया और लिथुएनिया के अलावा सोवियत-वारसा संधि के भागीदार मुल्क बुल्गारिया, रोमानिया और स्लोवाकिया अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैनिक गठबंधन में शामिल हो गए।
लेकिन रूस और इसके पश्चिमी पड़ोसी यूक्रेन के बीच थल और जलीय सीमा क्षेत्र को लेकर तनाव गहराता गया। इसके पीछे रूस और यूक्रेन के बीच प्रतिद्वंद्विता और मतभेद का इतिहास रहा है। इसमें वर्ष 2004 में यूक्रेन में अमेरिकी दखलअंदाजी के बाद और इजाफा हुआ जब अमेरिका की शह प्राप्त राजनीतिक नेतृत्व ने राजधानी कीव में रूस मित्र यूक्रेनी सरकार को सत्ताच्युत कर दिया। रूस ने इस अमेरिकी हरकत को काला सागर और भूमध्य सागर के गर्म जलीय मार्गों तक उसकी पहुंच को नियंत्रित करने वाले यत्न की तरह लिया। राष्ट्रपति पुतिन ने इस खतरे का पूर्वानुमान लगाते हुए फरवरी, 2014 में निर्णायक कार्रवाई कर क्रीमिया क्षेत्र पर नियंत्रण बना लिया। इस तरह काला सागर तक रूस की निर्बाध पहुंच बनाए रखी।
क्रीमियाई प्रायद्वीप पर अपना शिकंजा कसने के बाद रूस ने अफगानिस्तान की सीमा से लगते मध्य एशियाई पूर्ववर्ती सोवियत घटक रहे मुस्लिम बहुल देश, जैसे कि उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीस्तान और तुर्कमेनिस्तान में सुरक्षा की भावना भरने पर ध्यान केंद्रित कर दिया। इन जटिलताओं के आलोक में पुतिन के नेतृत्व वाला रूस तालिबान के साथ व्यावहारिक रिश्ता बनाने में अग्रसर है। अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर रूस और भारत के बीच निकट संपर्क बना हुआ है। हालांकि यूरेशिया क्षेत्र पर रूस की चीन के साथ समझ बनी हुई है लेकिन रूस को पता है कि सीमा संबंधी मुद्दे पर चीनी हरकतों पर निकट नजर रखने की जरूरत है।
अमेरिका की गलतफहमी की परवाह न करते हुए भारत ने साफ कर दिया है कि वह रूस के साथ अपना पुराना निकट संबंध कायम रखेगा। अमेरिका की इस धमकी के बावजूद कि जो कोई मुल्क रूस से हथियार खरीदेगा उसे प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा, भारत ने रूस से महत्वपूर्ण रक्षा उपकरण पाने की प्रक्रिया पर आगे बढऩे का निर्णय लिया है, इसमें जमीन से हवा में मार करने वाली परिष्कृत एस-400 मिसाइल प्रणाली भी शामिल है। अधिक महत्वपूर्ण यह कि पुतिन सरकार ने रूस-भारत संयुक्त उपक्रम से विकसित की गई और सटीक निशाने में समर्थ ब्रह्मोस मिसाइलें फिलीपींस को देने के निर्णय पर टोकने की बजाय भारत के साथ अपना रक्षा सहयोग मजबूत बनाए रखा है। कोविड महामारी के चरम के बावजूद राष्ट्रपति पुतिन भारत की यात्रा पर आए थे, यह दर्शाता है कि रूस भारत के साथ रिश्ते को कितना महत्व देता है।
रूस के विरुद्ध सार्वजनिक तौर पर अपने विचार जताने के बाद राष्ट्रपति बाइडेन ने यूक्रेन सरकार तक हथियारों की खेप पहुंचाई है, जिसके रूस के साथ इलाकाई और अन्य गंभीर विवाद चल रहे हैं। अफगानिस्तान से अपने शर्मनाक और अव्यवस्थित पलायन के बाद बाइडेन की घरेलू लोकप्रियता में खासी कमी आई थी, लिहाजा अमेरिका के लिए कोई कड़ा ‘संज्ञान’ प्रदर्शित करना जरूरी हो गया। हालांकि रूस के पास यूक्रेन पर चढ़ाई करने की कोई वजह नहीं है और न ही वह किसी बड़े सैन्य द्वंद्व में खुद को अकारण फंसाना चाहता है। अलबत्ता यूक्रेन के सीमावर्ती इलाके में, जहां रूसी लोगों की खासी तादाद है, वहां राष्ट्रपति पुतिन सीमित सैन्य कार्रवाई करें, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जहां अमेरिका के अधिकांश यूरोपियन सहयोगी अमेरिकी रवैये का मोटे तौर पर समर्थन कर रहे हैं वहीं कुछ मुल्क मसलन फ्रांस और जर्मनी को गंभीर अंदेशा है कि कहीं नाटो गठबंधन द्वारा की गई कार्रवाई बड़े सैन्य द्वंद्व में न तब्दील हो जाए। रूस को नेक सलाह है कि यूक्रेन में वह अपनी क्रिया और प्रतिक्रिया में सावधानीपूर्ण कोई कदम उठाए।
इसी बीच, चीन यह पाकर कि उपरोक्त घटनाक्रम से उसके द्वारा अपने प्रशांत-एशियाई पड़ोसियों की जलीय सीमा उल्लंघनों वाले कृत्यों पर अतंर्राष्ट्रीय ध्यान बंट गया है, वह राष्ट्रपति पुतिन के साथ खड़े होने का आभास देकर, इस इलाके में ‘शांति कायम रखने वाले’ की भूमिका का आनंद उठा रहा है। हालांकि चीन का मंतव्य रूस और अमेरिका के बीच अविश्वास के बीज बोना है ताकि रूस के लगातार बढ़ते जा रहे फालतू तेल और गैस भंडारों से आपूर्ति पश्चिम में जर्मनी या अन्य यूरोपियन-बाल्टिक मुल्कों की बजाय पूरबी ‘मध्यस्थ सम्राट’ यानी चीन की ओर मुड़ जाए। पश्चिमी यूरोप पर अपना प्रभाव बनाने की रूसी आकांक्षा में गैस की सप्लाई एक महत्वपूर्ण अंग है।
सोवियत संघ के टूटने के बाद रूस का प्रभाव वारसा-संधि सदस्यों पर घटना लाजिमी था। हालांकि रूस के साथ लगते पूरबी यूरोपियन देशों में अनेक को रूस द्वारा प्रभुत्व बनाने का डर सताता रहता है। यह भाव मध्य एशियाई मुस्लिम देशों पर कायम रूसी प्रभाव से एकदम उलट है, जिनका प्रशासनिक ताना-बाना रूस के साथ रहे ऐतिहासिक रिश्तों, आधुनिकीकरण में उसकी भूमिका और धार्मिक सहिष्णुता बरकरार रखने में काफी निर्भर है, जिसका आनंद ये मुल्क ले रहे हैं। रूस अपने तेल और गैस भंडारों की बदौलत वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव आज भी कायम रखे हुए है, जो न केवल उसकी घरेलू जरूरतें पूरी करने में बल्कि नॉर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन के जरिए यूरोप भर में, खासकर जर्मनी की ऊर्जा आवश्यकता पूरी करता है।
मौजूदा अमेरिकी नीतियां अब ज्यादातर रूस के यूक्रेन के साथ संबंध पर केंद्रित हैं, जबकि चीन नए कानून के जरिए अपने तटीय प्रभाव को सक्रियता से मजबूत कर रहा है और पड़ोसी मुल्कों की समुद्री सीमा पर अपने बेजा दावे लागू करने में जोर-जबरदस्ती करने पर उतारू है। इन देशों में फिलीपींस, मलेशिया, वियतनाम और इंडोनेशिया उल्लेखनीय हैं। भारत को क्षेत्रीय सहयोगियों और क्वाड गुट के साथ मिलकर काम करना होगा ताकि चीन की समुद्री सीमा विस्तार महत्वाकांक्षा से सुरक्षा पर पडऩे वाले गंभीर असरातों पर अमेरिका और अन्य देशों का खासा ध्यान बरकरार रहे। भारत को मध्य एशियाई देशों के साथ आर्थिक एवं निवेश सहयोग को विस्तार देने हेतु अब नए उपाय करने पर और अधिक ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी और मध्य एशियाई मुल्कों के नेतृत्व के बीच हुई हालिया शिखर वार्ता को फलीभूत करने में, ईरान में चाबहार बंदरगाह का विकास और क्षेत्र में अर्थपूर्ण आर्थिक भागीदारी बनाने में भारत को काम जारी रखना होगा।
(लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।)

आर्द्रभूमि का संरक्षण, गंगा का कायाकल्प

जी. अशोक कुमार –
एक संवेदनशील क्षेत्र के तौर पर वेटलैंड्स (आद्रभूमि) ऐसे अनोखे इकोसिस्टम हैं जहां जमीनी और जलीय प्राकृतिक वास आपस में मिलते हैं। ये झीलों, नदियों से इतर पानी से सराबोर रहने वाले क्षेत्र होते हैं। ये न तो पूरी तरह से शुष्क भूमि होती है और न ही पूरी तरह से पानी में डूबी होती है। इसमें दोनों विशेषताएं मौजूद होती हैं। रामसर कन्वेंशन के तहत आर्द्रभूमि को परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार दलदल भूमि, पानी भरा रहने वाला मैदान, पिट (नमी वाला कोयला या अन्य) और पानी चाहे वह प्राकृतिक हो या कृत्रिम, स्थायी हो या अस्थायी, पानी रुका हो या बह रहा हो, ताजा, खारा या नमकीन, समुद्री जल क्षेत्र, जो कम ज्वार पर छह मीटर से अधिक गहरे न हो- आदि को आर्द्रभूमि कहते हैंÓ। आर्द्रभूमि एक प्रकार से प्राकृतिक अपशिष्ट जल शोधन वाले स्थान हैं क्योंकि वे प्रदूषकों को रोकने के साथ हानिकारक जीवाणुओं को बेअसर करने में सक्षम होते हैं। कार्बन सोखने की क्षमताओं के कारण, आर्द्रभूमि जलवायु परिवर्तन को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आर्द्रभूमि भोजन का भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं जहां चावल और मछली होती है जिससे अरबों लोगों का पेट भरता है।
आर्द्रभूमि के नष्ट होने और इसे बेकार भू-भाग समझकर सुखाने, भरने और दूसरे उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने के विचार को देखते हुए, 2 फरवरी को हर साल ‘विश्व आर्द्रभूमि दिवसÓ मनाया जाता है। इसका मकसद पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में इन महत्वपूर्ण जल क्षेत्रों की भूमिका के बारे में दुनियाभर में जागरूकता फैलाना है। इसी दिन 2 फरवरी 1971 में ईरान के रामसर शहर में वेंटलैंड्स कन्वेंशन आयोजित हुआ था। विश्व आर्द्रभूमि दिवस 2022 का विषय लोगों और प्रकृति के लिए आर्द्रभूमि संरक्षण की कार्रवाई है, जिससे मानवीय उद्देश्यों के लिए आर्द्रभूमि के संरक्षण और सतत उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए किए जाने वाले कार्यों के महत्व पर जोर दिया जा सके।
भूजल के स्तर को बढ़ाने के अलावा, आर्द्रभूमि विशाल स्पंज (जलशोषक) या जलाशयों की तरह भी काम करती है जो भारी बारिश के दौरान अतिरिक्त पानी को अवशोषित कर लेती है। यहां बहुत ही समृद्ध जलीय जैव-विविधता पाई जाती है और ये महत्वपूर्ण पोषक तत्व परिवर्तक के रूप में कार्य करते हैं। आर्द्रभूमि पक्षियों की कई प्रजातियों के प्रजनन के लिए उचित वातावरण प्रदान करती है। आर्द्रभूमि में पर्यटन की भी अपार संभावनाएं हैं और हंटिंग, लंबी पैदल यात्रा, मछली पकडऩे, पक्षियों को देखना और फोटोग्राफी जैसे कई लोकप्रिय मनोरंजक गतिविधियां भी यहां की जा सकती हैं। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) एक सार्वभौमिक एजेंडा सामने रखता है, जिसमें पानी की कमी को दूर करने के लिए आर्द्रभूमि सहित पानी के अन्य पारिस्थितिकी तंत्र के प्रबंधन और उसके पुनरोद्धार की जरूरत पर जोर दिया गया है। इस तरह, आर्द्रभूमि दुनियाभर में पानी, भोजन और जलवायु से संबंधित कई चुनौतियों का समाधान करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
नदी के कायाकल्प में आर्द्रभूमि का संरक्षण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह नदियों की पारिस्थितिक और भूगर्भीय चीजों के संरक्षण में मदद करता है। नदियों में प्राकृतिक बहाव को बनाए रखने में आर्द्रभूमि का योगदान नदियों, विशेष रूप से गंगा को बचाने में इन जल क्षेत्रों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में से एक है।
भारत में लगभग 4.6 प्रतिशत भूमि आर्द्रभूमि के रूप में है, जो 15.26 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र को कवर करती है। भारत में ऐसी 47 जगहें हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि (रामसर साइट्स) के रूप में मान्यता मिली हुई है, जिसके सतह का क्षेत्रफल 1.08 मिलियन हेक्टेयर से अधिक है। भारत के 47 रामसर स्थलों में से 21 गंगा बेसिन में हैं। अधिकतर रामसर स्थल उत्तर प्रदेश राज्य (9) में हैं, जो एक गंगा बेसिन राज्य है।
वेटलैंड्स दुनिया के सबसे चुनौतीपूर्ण नदी कायाकल्प परियोजना में से एक-नमामि गंगे कार्यक्रम से अटूट रूप से जुड़े हैं। आर्द्रभूमि नदी के बेसिन क्षेत्र में समग्र जल विज्ञान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और उप-सतह व नदी धाराओं में जल प्रवाह में अहम योगदान करती है। गंगा बेसिन भारत में सबसे समृद्ध नदी प्रणाली है और इससे विविध प्राकृतिक और मानव निर्मित आर्द्रभूमि तैयार होती है जो गंगा और उसकी सहायक नदियों के साथ पारिस्थितिक और जलीय रूप से जुड़े हुए हैं। 4500 से अधिक जलाशय गंगा बेसिन की आर्द्रभूमि व्यवस्थाओं का एक अभिन्न हिस्सा हैं। एमओईएफ एंड सीसी द्वारा राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में चिन्हित 180 वेटलैंड्स में से 49 गंगा बेसिन में स्थित हैं (हिमाचल प्रदेश में एक, उत्तराखंड में सात, हरियाणा में दो, राजस्थान में चार, मध्य प्रदेश में नौ, उत्तर प्रदेश में 16, बिहार में तीन और पश्चिम बंगाल में सात)। साल 2020 में, भारत में घोषित कुल 14 स्थलों में से 9 रामसर स्थलों को गंगा के मुख्य प्रवाह पथ- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार में घोषित किया गया है। सुर सागर कीठम, काबर ताल और आसन इसके कुछ उदाहरण हैं। आर्द्रभूमि की सूची में नया नाम भी उत्तर प्रदेश के गंगा बेसिन- हैदरपुर वेटलैंड का है, जिसे दिसंबर 2021 में मान्यता मिली। 2021 और 2022 में शामिल किए गए अन्य वेटलैंड्स में त्सो कर आर्द्रभूमि क्षेत्र, लद्दाख, लोनार झील, महाराष्ट्र, थोल झील वन्यजीव अभयारण्य और वाधवाना वेटलैंड (गुजरात) और हरियाणा में सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान व भिंडावास वन्यजीव अभयारण्य शामिल हैं। सुंदरबन खारे पानी का दलदली क्षेत्र है जो भारत और बांग्लादेश के भूभाग में फैला हुआ है। यह दुनिया में सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है और पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के डेल्टा के पास बहकर आई मिट्टी पर स्थित है। पर्यावरण मंत्रालय के साथ मिलकर काम करते हुए, गंगा बेसिन में राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरणों को मजबूत किया जा रहा है और अन्य राज्यों को आर्द्रभूमि को मान्यता देने व रामसर स्थलों के लिए काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
नमामि गंगे कार्यक्रम विश्व वन्य कोष (डब्लूडब्लूएफ), भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआईआई), राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण आदि जैसे कई साझीदारों के साथ मिलकर काम कर रहा है जिससे आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए एक संस्थागत संरचना तैयार की जा सके। 27 जिलों में गंगा नदी के 10 किमी के बफर क्षेत्र के भीतर राज्य में 282 गंगा के बाढ़ वाले वेटलैंड्स के व्यापक संरक्षण और प्रबंधन के लिए जून 2020 में उत्तर प्रदेश में गंगा के बाढ़ के मैदानों का संरक्षण और सतत प्रबंधन परियोजना को मंजूरी दी गई थी। शहरी आर्द्रभूमि के प्रबंधन के लिए शहरी आर्द्रभूमि/जल निकाय प्रबंधन दिशा-निर्देश नामक एक टूल किट भी एसपीए, नई दिल्ली द्वारा तैयार किया गया है। विकेंद्रीकृत जल भंडारण प्रणालियों के रूप में कार्य करते हुए पेयजल उपलब्ध कराने में छोटे वेटलैंड्स की भूमिका को देखते हुए, एनएमसीजी ने डब्लूडब्लूएफ के सहयोग से जिला स्तर की संस्थाओं को आर्द्रभूमि की पहचान करने, वस्तुसूची बनाने, जमीनी सत्यापन करने और उनके संरक्षण के लिए कार्य योजना विकसित करने में सहयोग करने के लिए जिला गंगा समितियों के साथ एक कार्यक्रम शुरू किया है। आर्द्रभूमि की सुरक्षा और संरक्षण एनएमसीजी की प्राथमिकताओं में से एक है, जो आर्द्रभूमि संरक्षण को बेसिन स्तर पर लाने का प्रयास कर रहा है।
हाल के समय में, आर्द्रभूमि के संरक्षण और बचाव को सामान्य रूप से भारत के जल संरक्षण प्रयासों और विशेष रूप से नदी कायाकल्प पहलों में सबसे आगे रखा जा रहा है। जल सुरक्षा सुनिश्चित करने में आर्द्रभूमि के महत्व को स्वीकार करते हुए, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ एंड सीसी) ने नेशनल सेंटर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट, चेन्नई के एक हिस्से के रूप में अपनी तरह का पहला वेटलैंड संरक्षण और प्रबंधन केंद्र (सीडब्लूसीएम) स्थापित किया है। इस केंद्र की स्थापना विशिष्ट अनुसंधान जरूरतों और जानकारी जुटाने के साथ-साथ एकीकृत तरीके से आर्द्रभूमि के संरक्षण, प्रबंधन और बेहतर उपयोग में सहायता के लिए की गई है। इस केंद्र को पिछले साल रामसर कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर शुरू किया गया था। पिछले साल के विश्व आर्द्रभूमि दिवस (आर्द्रभूमि और जल) का विषय भी महत्वपूर्ण था जिसने जल, आर्द्रभूमि और जीवन के एक दूसरे से जुड़े होने का महत्व समझाया। गांधी जयंती 2021 के अवसर पर एमओईएफ एंड सीसी ने एक वेब पोर्टल-वेटलैंड्स ऑफ इंडिया- को आर्द्रभूमि से संबंधित सभी सूचनाओं के लिए सिंगल प्वाइंट एक्सेस वेबसाइट के रूप में लॉन्च किया है। ये सभी पहल भारत में आर्द्रभूमि को दिए गए महत्व का प्रमाण हैं, विशेष रूप से जल शक्ति अभियान और जल जीवन मिशन, जो स्रोत निरंतरता के जरिए जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाने और भारत के हर घर में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से काम कर रहा है।
आर्द्रभूमि के महत्व- उसके पानी, भोजन और जलवायु परिवर्तन से सीधे संबध को लेकर जागरूकता फैलाना समय की मांग है। भारत सरकार इन छोटे, पर भारत की नदी प्रणालियों के अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्से को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस विश्व आर्द्रभूमि दिवस पर, आइए हम भारत को जल-समृद्ध बनाने के लिए अपनी आर्द्रभूमि का संरक्षण करने का संकल्प लें।
लेखक महानिदेशक, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन हैं

प्रकृति परिवर्तन का पर्व बसंत पंचमी

बसंत पंचमी पर विशेष

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट –
बसंत पंचमी का पावन पर्व माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है।इस दिन मां सरस्वती की पूजा अर्चना करने का विधान है। बसंत पंचमी 5 फरवरी को सिद्ध साध्य और रवि योग के त्रिवेणी योग में मनायी जाएगी। अबूझ मुहूर्त के कारण सभी इस घड़ी को विवाह योग के रूप में उपयोग कर सकते है। मंदिर में मां सरस्वती का विशेष श्रृंगार और पूजा की जाएगी। इस बार बसंत पंचमी 5 फरवरी, के दिन मनाई जा रही है। धार्मिक मान्यता है कि मां सरस्वती की पूजा करने से व्यक्ति को करियर और परीक्षा में सफलता मिलती है। खासतौर पर नौकरी-पेशा, स्कूल-कॉलेज, संस्थान और कला के क्षेत्र से जुड़े लोग इस दिन मां सरस्वती की पूजा करते हैं। आज ही के दिन पृथ्वी की अग्नि, सृजन की तरफ अपनी दिशा करती है। जिसके कारण पृथ्वी पर समस्त पेड़ पौधे फूल मनुष्य आदि गत शरद ऋतु में मंद पड़े अपने आंतरिक अग्नि को प्रज्जवलित कर नये सृजन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि स्वयं के स्वभाव प्रकृति एवं उद्देश्य के अनुरूप प्रत्येक चराचर अपने सृजन क्षमता का पूर्ण उपयोग करते हुए, जहां संपूर्ण पृथ्वी को हरी चादर में लपेटने का प्रयास करता है, वहीं पौधे रंग—बिरंगे सृजन के मार्ग को अपनाकर संपूर्णता में प्रकृति को वास्तविक स्वरूप प्रदान करते हैं। इस रमणीय, कमनीय एवं रति आदर्श ऋतु में पूर्ण वर्ष शांत रहने वाली कोयल भी अपने मधुर कंठ से प्रकृति का गुणगान करने लगती है। एवं महान संगीतज्ञ बसंत रस के स्वर को प्रकट कर सृजन को प्रोत्साहित करते हैं। प्रकृति में प्रत्येक सौंदर्य एवं भोग तथा सृजन के मूल माने जाने वाले भगवान शुक्र देव अपने मित्र के घर की यात्रा के लिए बेचैन होकर इस उद्देश्य से चलना प्रारंभ करते हैं कि उत्तरायण के इस देव काल में वह अपनी उच्च की कक्षा में पहुंच कर संपूर्ण जगत को जीवन जीने की आस व साहस दे सकें।

शास्त्रों के अनुसार बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती के मंत्रों का जाप और सरस्वती वंदना अवश्य करनी चाहिए।इसके बाद मां सरस्वती की आरती करना बिल्कुल न भूलें।तभी सरस्वती की पूजा संपन्न मानी जाती है और पूजा का पूर्ण फल प्राप्त होता है।

कहते है,सृष्टि के आरम्भ में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों की रचना की थी। जिनमे मनुष्य का भी उदभव हुआ।लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगा कि कुछ कमी रह गई है, जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहा।तब भगवान विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कम्पंन होने लगा। तभी एक चतुर्भुजी स्त्री के रूप में अदभुत शक्ति का प्राकट्य हुआ, जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला प्रतिष्ठित थीं।
ब्रह्मा जी ने प्रकट हुई देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुर नाद किया, संसार के समस्त जीव-जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल हो गया व हवा चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्माजी ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती नाम दिया। मां सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादिनी और बाग्देवी आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। यह देवी विद्या और बुद्धि की प्रदाता हैं, संगीत की उत्पत्ति करने के कारण यह संगीत की देवी भी कहलाती हैं।वही वसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने मां सरस्वती को वरदान दिया था कि उनकी प्रत्येक ब्रह्मांड में माघ शुक्ल पंचमी के दिन विद्या आरम्भ के शुभ अवसर पर पूजा होगी। श्रीकृष्ण के वर प्रभाव से प्रलयपर्यन्त तक प्रत्येक कल्प में मनुष्य, मनुगण, देवता, मोक्षकामी, वसु, योगी, सिद्ध, नाग, गन्धर्व और राक्षस आदि सभी बड़ी भक्ति के साथ सरस्वती की पूजा करते है। पूजा के अवसर पर विद्वानो द्वारा सम्यक् प्रकार से मां सरस्वती का स्तुति-पाठ होता है। भगवान श्री कृष्ण ने सर्वप्रथम देवी सरस्वती की पूजा की थी, तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु , शिव और इंद्र आदि देवताओं ने मां सरस्वती की आराधना की। तब से मां सरस्वती सम्पूर्ण प्राणियों द्वारा सदा पूजित हो रही है। बसंत पंचमी पर मां सरस्वती को पीले रंग का फूल और फूल अर्पण किए जाते हैं। शुभ मुहूर्त में कई गई पूजा और साधना का भी महत्व है। यह दिन बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक माना जाता है। इसलिए श्रद्धालु गंगा मां के साथ-साथ अन्य पवित्र नदियों में डुबकी लगाने के साथ आराधना भी करते है। वहीं इस समय फूलों पर बाहर आ जाती है, खेतों में सरसों के फूल चमकने लगते हैं, गेहूं की बालियां भी खिलखिला उठती हैं। इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनने के साथ पतंग और स्वादिष्ट चावल बनाए जाते हैं। पीला रंग बसंत का प्रतीक है।संगीत के क्षेत्र से जुड़े लोग इस दिन का सालभर से इंतजार करते हैं। बसंत पंचमी के अवसर पर इस साल दो उत्तम योग बन रहे हैं, जिसके कारण पूरे जिन शुभ कार्य किए जा सकते हैं। इस दिन लोग पीले वस्त्र पहनकर सुबह सवेरे मां सरस्वती की अराधना करते हैं।

बसंत पंचमी के दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए। कोशिश करनी चाहिए कि सूर्योदय से कम से कम दो घंटे पहले बिस्तर छोड़ देने चाहिए।बसंत पंचमी के दिन स्नान करके साफ कपड़े पहनने चाहिए।

बसंत पंचमी के दिन मंदिर की सफाई करनी चाहिए। मां सरस्वती को पूजा के दौरान पीली वस्तुएं अर्पित करनी चाहिए। जैसे पीले चावल, बेसन का लड्डू आदि।सरस्वती पूजा में पेन, किताब, पेसिंल आदि को जरूर शामिल करना चाहिए और इनकी पूजा करनी चाहिए।बसंत पंचमी के दिन लहसुन, प्याज से बनी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार नामक काव्य में इसे ”सर्वप्रिये चारुतर वसंते” कहकर अलंकृत किया है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ”ऋतूनां कुसुमाकरा:” अर्थात मैं ऋतुओं में वसंत हूं, कहकर वसंत को अपना स्वरुप बताया है। वसंत पंचमी के दिन ही कामदेव और रति ने पहली बार मानव ह्रदय में प्रेम और आकर्षण का संचार किया था। इस दिन कामदेव और रति के पूजन का उद्देश्य दांपत्त्य जीवन को सुखमय बनाना है, जबकि सरस्वती पूजन का उद्देश्य जीवन में अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश उत्त्पन्न करना है।वसंत पंचमी के दिन यथाशक्ति ”? ऐं सरस्वत्यै नम: ” का जाप करें। माँ सरस्वती का बीजमंत्र ” ऐं ” है, जिसके उच्चारण मात्र से ही बुद्धि विकसित होती है। इस दिन से ही बच्चों को विद्या अध्ययन प्रारम्भ करवाना चाहिए। ऐसा करने से बुद्धि कुशाग्र होती है और माँ सरस्वती की कृपा बच्चों के जीवन में सदैव बनी रहती है।इस बार पंचमी तिथि 5 फरवरी को प्रात: 3.47 बजे से अगले दिन छठे दिन प्रात: 3.46 बजे तक रहेगी। इस अवसर पर अगले दिन शाम 4 बजे से शाम 7.11 बजे से शाम 5.42 बजे तक सिद्धयोग रहेगा। 5.43 बजे से दिन तक साध्य योग रहेगा। इसके अलावा रवि योग का संयोग भी बना रहा। ये संयोग दिन को शुभ बना रहे हैं। इससे पहले गुप्त नवरात्रि 2 फरवरी से शुरू हो जाएगी।बसंत पंचमी 5 फरवरी शनिवार के दिन मनाई जाएगी। इस विशेष अवसर पर सिद्ध, साध्य और रवि योग के त्रिवेणी योग में ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा की जाएगी। जो कार्य में शुभता और सिद्धि प्रदान करती है। अबूझ मुहूर्त के चलते शहर भर में एक हजार से अधिक विवाह कार्यक्रम होंगे। इसके साथ ही विद्यारंभ समारोह होगा और मंदिरों में मां सरस्वती का विशेष श्रृंगार और पूजा की जाएगी। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि 5 फरवरी को प्रात: 3.47 बजे से अगले दिन छठे दिन प्रात: 3.46 बजे तक रहेगी। इस अवसर पर अगले दिन शाम 4 बजे से शाम 7.11 बजे से शाम 5.42 बजे तक सिद्धयोग रहेगा। 5.43 बजे से दिन तक साध्य योग रहेगा। इसके अलावा रवि योग का संयोग भी बना रहा। ये संयोग दिन को शुभ बना रहे हैं। इससे पहले गुप्त नवरात्रि 2 फरवरी से शुरू होगी।
बसंत पंचमी का दिन दोषमुक्त दिन माना जाता है। इसी वजह से इसे सेल्फ साइडिंग और अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता है। इसी वजह से इस दिन बड़ी संख्या में शादियां होती हैं। विवाह के अलावा मुंडन समारोह, यज्ञोपवीत, गृह प्रवेश, वाहन खरीदना आदि शुभ कार्य भी किए जाते हैं। इस दिन को बागेश्वरी जयंती और श्री पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

आर्थिकी के अहम मुद्दों की अनदेखी

भरत झुनझुनवाला –
वित्तमंत्री ने बजट में ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा दिया है। उन्होंने कई मशीनों पर आयात कर बढ़ाया है, जिनका भारत में उत्पादन हो सकता था। इससे भारत में मशीनों के उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा। जैसे मोबाइल फोन के घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए मोबाइल फोन के लेंस के आयात पर छूट दी गई है। केमिकल में भी जहां देश में उत्पादन क्षमता उपलब्ध है वहां आयात करों को बढ़ाया गया है। सोलर बिजली के उत्पादन के लिए घरेलू सोलर पैनल के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया गया है। रक्षा क्षेत्र में कुल बजट का पिछले साल 58 प्रतिशत घरेलू स्रोतों से खरीद की जा रही थी जो इस वर्ष बढ़ाकर 68 प्रतिशत कर दिया गया है। यह सभी कदम सही दिशा में हैं। इनसे घरेलू उत्पादन में वृद्धि होगी और मेक इन इंडिया बढ़ेगा।
लेकिन इसके बावजूद अर्थव्यवस्था पुन: चल निकलेगी इस पर संशय है। मुख्य कारण यह है कि सरकार सप्लाई बढ़ाने की अपनी पुरानी गलत नीति पर ही चल रही है। जैसे घरेलू उत्पादन को ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ यानी उत्पादन के अनुसार उन्हें सहयोग मात्रा दिए जाने को बढ़ावा दिया गया है। लेकिन प्रश्न उठता है कि जब बाजार में मांग नहीं है तो उद्यमी उत्पादन करेगा क्यों और ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ लेने की स्थिति में पहुंचेगा कैसे? उद्यमी के लिए प्रमुख बात होती है कि वह अपने माल को बाजार में बेच सके। जब तक देश के नागरिकों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी और वे बाजार में माल खरीदने को नहीं उतरेंगे तब तक बाजार में मांग उत्पन्न नहीं होगी और घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ेगा। जैसे यदि किसी की जेब में नोट न हो तो बाजार में आलू 20 रुपये के स्थान पर 10 रुपये प्रति किलो में भी उपलब्ध हो तो वह खरीदता नहीं है। इसी प्रकार ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ की उपयोगिता तब है जब बाजार में मांग हो। लेकिन वित्तमंत्री ने आम आदमी की क्रय शक्ति को बढ़ाने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाए हैं। करना यह चाहिए था कि सरकारी कर्मियों के वेतन में कटौती और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में रिसाव को खत्म करके आम आदमी को सीधे नगद वितरण करना चाहिए, जिससे कि आम आदमी बाजार से माल खरीद सके और अर्थव्यवस्था चल सके। जो रकम ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ में दी जा रही है उसे सीधे जनता के हाथ में वितरित करना चाहिए, जिससे वित्तमंत्री चूक गईं।
वित्तमंत्री ने कहा है कि सरकारी निवेश में वृद्धि की गई है। यह भी सही है लेकिन बड़ा सच यह है कि सरकार के कुल बजट में 5 लाख करोड़ की वृद्धि हुई है, जिसमे पूंजी खर्चों में 2 लाख करोड़ की और सरकारी खपत में 3 लाख करोड़ की। कहा जा सकता है कि यह 2 लाख करोड़ की वृद्धि अच्छी है और है भी। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इस समय जब देश आयातों से हर तरफ से पिट रहा है, उस स्थिति में अपने देश में बुनियादी संरचना एवं अन्य पूंजी खर्चों में भारी वृद्धि करने की जरूरत थी, जिससे कि हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खड़े हो सकें। उस जरूरत को देखते हुए सरकारी खपत में 3 करोड़ की वृद्धि और सरकारी निवेश में 2 करोड़ की वृद्धि उचित नहीं दिखती है। अधिक वृद्धि पूंजी खर्चों में की जानी चाहिए थी जो कि वित्तमंत्री ने नहीं की है। इसलिए हम विश्व अर्थव्यवस्था में वर्तमान की तरह पिटते रहेंगे ऐसी संभावना है। सरकारी कर्मियों के लिए एसयूवी खरीदने से हम विश्व बाजार में खड़े नहीं होंगे।
वित्तमंत्री ने जीएसटी की वसूली में अप्रत्याशित वृद्धि की बात कही है जो कि सही भी है। लेकिन प्रश्न यह है कि यदि जीएसटी में पिछले समय की तुलना में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है; तो जीडीपी में मात्र 9 प्रतिशत की वृद्धि क्यों? कारण यह है कि जो 9 प्रतिशत की वृद्धि बताई जा रही है यह विवादास्पद है। जीडीपी की गणना अपने देश में मुख्यत: संगठित क्षेत्र के आंकड़ों के आधार पर की जाती है। जीएसटी में वृद्धि उत्पादन के कारण नहीं बल्कि इसलिए हो रही है कि असंगठित क्षेत्र पिट रहा है, असंगठित क्षेत्र का उत्पादन घट रहा है और वह उत्पादन जो अभी तक असंगठित क्षेत्र में होता था वह अब संगठित क्षेत्र में होने लगा है। जैसे बस स्टैंड पर पहले रेहड़ी पर लोग चना बेचते थे और अब पैकेट में बंद चना बिक रहा है। असंगठित रेहड़ी वाले का धंधा कम हो गया और उतना ही उत्पादन संगठित पैकेटबंद चने का बढ़ गया। कुल उत्पादन उतना ही रहा। लेकिन जीएसटी रेहड़ी वाला नहीं देता था और पैकेटबंद उत्पादक जीएसटी देता है इसलिए जीएसटी की वसूली बढ़ गई। वित्तमंत्री को जीएसटी की वृद्धि को गंभीरता से समझना चाहिए कि इसके समानांतर जीडीपी में वृद्धि क्यों नहीं हो रही है? मेरे अनुसार यह एक खतरे की घंटी है कि छोटे आदमी का धंधा कम हो रहा है, उसकी क्रय शक्ति कम हो रही है और देश का कुल उत्पादन सपाट है जबकि जीएसटी बढ़ रही है।
जीएसटी की वसूली का दूसरा पक्ष राज्यों की स्वायत्तता का है। जून, 2022 में केंद्र सरकार द्वारा राज्यों द्वारा जीएसटी में जो वसूली की कमी हुई है, उसकी भरपाई करना बंद हो जाएगा। जुलाई, 2022 के बाद राज्यों को जीएसटी की कुल वसूली में अपने हिस्से मात्र से अपने बजट को चलाना होगा। कई राज्यों की आय 25 से 40 फीसदी तक एक ही दिन में घट जाएगी। इस समस्या से निपटने के लिए वित्तमंत्री ने राज्यों के लिए ऋण लेना और आसान कर लिया है जो कि तात्कालिक समस्या के लिए ठीक है लेकिन ऋण लेकर राज्य कब तक अपना बजट चलाएंगे? उन्हें कहीं न कहीं से आय तो अर्जित करनी ही पड़ेगी। आज के संकट को 5 साल बाद पीछे धकेल देने से संकट समाप्त नहीं होता है। इसी संकट को जीएसटी को लागू करते समय 5 साल के लिए पीछे धकेला गया था और अब इसे और पीछे धकेला जा रहा है। वित्तमंत्री को जीएसटी में लचीलापन लाना चाहिए और राज्यों को अपने विवेक के अनुसार अपने राज्य की सरहद में बिकने वाले माल पर जीएसटी की दर में परिवर्तन करने की छूट देनी चाहिए। इस बजट का एकमात्र गुण मेक इन इंडिया के तहत विशेष वस्तुओं के आयात कर में वृद्धि करना है। बाकी अर्थव्यवस्था की सभी मूल समस्याओं की अनदेखी की गई है।

चेहरों पर सिमटती पंजाब की चुनावी जंग

राजकुमार सिंह –
पंजाब में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान अभी दूर है, लेकिन मुफ्त-रेवडिय़ों की राजनीति से शुरू हुई चुनावी जंग तेजी से चेहरों तक सिमटती दिख रही है। प्रकाश सिंह बादल परिवार के वर्चस्व वाले शिरोमणि अकाली दल और उसके गठबंधन के चेहरे को लेकर कभी संदेह नहीं रहा। पिछले विधानसभा चुनाव तक बिना घोषणा के भी यह सभी को पता रहता था कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ही होंगे। 94 वर्ष की उम्र में प्रकाश सिंह बादल इस बार भी लंबी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव तो लड़ रहे हैं, लेकिन पिछले मुख्यमंत्रित्वकाल में ही शिरोमणि अकाली दल की कमान अपने बेटे सुखबीर सिंह बादल को सौंप चुकने के बाद इस बार सत्ता की बागडोर भी उन्हें सौंप उत्तराधिकार की राजनीतिक प्रक्रिया पूरी कर देना चाहते हैं। तीन दर्जन से भी ज्यादा सीटों पर असरदार भूमिका वाले हिंदू मतों के समर्थन के लिए भाजपा से गठबंधन की जरूरत प्रकाश सिंह बादल को भी पड़ती थी। फिर सुखबीर बादल को तो पंजाब की राजनीति में अपनी व्यापक स्वीकार्यता अभी साबित करना शेष है। इसीलिए भाजपा से अलगाव के बाद शिरोमणि अकाली दल, 25 साल लंबे अंतराल के बाद फिर बसपा से गठबंधन कर चुनाव मैदान में उतरा है।
यह पहेली व्यापक राजनीतिक-सामाजिक चिंतन-मनन की मांग करती है कि उत्तर भारत में दलितों की राजनीतिक अस्मिता की पहचान बन कर उभरी बसपा, देश में सर्वाधिक दलित आबादी (लगभग 32 प्रतिशत) पंजाब में होने के बावजूद, यहां अपनी बड़ी लकीर क्यों नहीं खींच पायी—जबकि उसके संस्थापक कांशीराम मूलत – यहीं के निवासी थे? बहरहाल अकाली-बसपा गठबंधन ने ऐलान किया है कि बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री तो सुखबीर बादल ही होंगे, लेकिन दलित और हिंदू समुदाय से एक-एक उपमुख्यमंत्री बनाया जायेगा। अब जबकि उतावले नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन अमरेंद्र सिंह को अपमानजनक ढंग से हटाते हुए दलित समुदाय से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री ही बना दिया है, यह देखना दिलचस्प होगा कि अकाली-बसपा गठबंधन का दलित उपमुख्यमंत्री का दांव चुनाव में कितना प्रभावी होगा। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह तथ्य बार-बार रेखांकित किया जा रहा है कि पंजाब में सर्वाधिक आबादी होने के बावजूद इससे पहले ज्ञानी जैल सिंह के रूप में सिर्फ एक बार ही दलित को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि जैल सिंह को मुख्यमंत्री बनाये जाने के वास्तविक कारण पंजाब की तत्कालीन, खासकर कांग्रेसी राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले बखूबी जानते-समझते हैं, लेकिन कांग्रेस आज चुनाव प्रचार में यह दावा तो कर ही सकती है कि राज्य में दोनों बार दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। हालांकि हर दांव के दोनों तरह के परिणाम निकल सकते हैं, लेकिन विडंबना देखिए कि कांग्रेस चुनाव प्रचार में दलित मुख्यमंत्री का अपना ट्रंप कार्ड ही खुल कर नहीं चल पा रही, क्योंकि चंद महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने को आतुर सिद्धू अब मुख्यमंत्री का चेहरा बनने को उतावले हैं।
दरअसल सिद्धू को यह अहसास ही नहीं था कि कैप्टन अमरेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटवाने में उन्हें इतनी जल्दी सफलता मिल जायेगी, वरना वह प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए आलाकमान पर इतना दबाव नहीं बनाते। अब सिद्धू को लगता है कि कैप्टन अमरेंद्र सिंह की बेआबरू विदाई की पटकथा तो उन्होंने लिखी; तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ समेत तमाम दिग्गजों को विरोधी भी बना लिया— पर फलस्वरूप मुख्यमंत्री का पद चन्नी की झोली में जा गिरा। न सिर्फ तब जा गिरा, बल्कि पंजाब के राजनीतिक-सामाजिक समीकरण का चुनावी दबाव ऐसा है कि भविष्य में अवसर आने पर उसके फिर उसी झोली में गिरने की प्रबल संभावना है। इसलिए अब चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंकने से पहले ही सिद्धू की सुई एक बार फिर ‘दूल्हा कौन’ पर अटक गयी है। ज्यादातर राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस के लिए आदर्श स्थिति मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किये बिना ही चुनाव लडऩे की होगी, क्योंकि तब उसे दलित मुख्यमंत्री का तो लाभ मिलेगा ही, सिद्धू के चेहरे से जट्ट सिख समुदाय समेत युवा भी आकर्षित हो सकते हैं। लेकिन बृहस्पतिवार को पंजाब दौरे पर आये पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कार्यकर्ताओं से चर्चा के बाद मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने की बात कह कर विवाद को नये सिरे से हवा दे गये हैं। बेशक अब ऐसा करने का दबाव सिद्धू और चन्नी, दोनों की ओर से है। सिद्धू बेचैन हैं कि अगर उन्हें चेहरा घोषित किये बिना ही लड़े चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो चन्नी के दावे को नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होगा, क्योंकि पार्टी उन्हीं के 111 दिन के शासन के आधार पर वोट मांग रही है। चन्नी को भी लगता है कि खुद को चेहरा घोषित करवाने का उनके पास चुनाव पूर्व से बेहतर मौका दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि ऐतिहासिक राजनीतिक पराभव के दौर से गुजर रही कांग्रेस मौजूदा दलित मुख्यमंत्री को नजरअंदाज करने का जोखिम कम से कम चुनाव के दौरान तो नहीं ही उठायेगी।
वैसे सिद्धू के दावे के मद्देनजर दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सत्ता के तमाम प्रमुख दावेदार लगभग 20 प्रतिशत आबादी वाले जट्ट सिख मतदाताओं पर ही दांव खेलने को बेताब हैं। अकाली-बसपा गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरा सुखबीर बादल इसी समुदाय से आते हैं तो मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी ने पंजाब की जनता में राय शुमारी से जिन भगवंत मान को चेहरा चुनने का दावा किया है, वह भी जट्ट सिख ही हैं। आबादी के आंकड़ों की दृष्टि से यह स्थिति चौंकाने वाली लग सकती है, लेकिन वास्तविकता यही है कि खासकर 1966 में विभाजन के बाद से पंजाब की सत्ता में जट्ट सिख समुदाय का ही दबदबा रहा है। दलित समुदाय से चन्नी के रूप में दूसरा मुख्यमंत्री पंजाब को मिला है तो हिंदू मुख्यमंत्री का दांव चलने का राजनीतिक साहस अभी तक कोई राजनीतिक दल नहीं दिखा पाया है। जबकि लगभग सवा करोड़ सिख मतदाताओं के मुकाबले हिंदू मतदाताओं की संख्या 82 लाख है। 117 विधानसभा सीटों में से 78 सीटें सिख बहुल हैं, तो 37 हिंदू बहुल, जबकि शेष दो मुस्लिम बहुल। कैप्टन अमरेंद्र सिंह की पहले मुख्यमंत्री पद और फिर कांग्रेस से भी विदाई के बाद बागी अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा के साथ मिल कर भाजपा ने जो गठबंधन बनाया है, उसने मुख्यमंत्री के चेहरे पर अपने पत्ते अभी तक नहीं खोले हैं। पंजाब में सत्ता संघर्ष के चौथे कोण के रूप में उभर रहे इस गठबंधन में भाजपा सबसे बड़ा दल है, जो दशकों तक शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में जूनियर पार्टनर रहा। अगर राहुल गांधी के संकेत के मुताबिक कांग्रेस ने वाकई मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया तो उसकी पार्टी के अंदर क्या प्रतिक्रिया होगी, और उसके बाद क्या भाजपा-पंजाब लोक कांग्रेस- अकाली दल (संयुक्त) गठबंधन भी मुख्यमंत्री चेहरे का दांव चलेगा— यह देखना बेहद दिलचस्प होगा।

जारा के हौसलों ने नाप दी दुनिया

अरुण नैथानी –
आमतौर पर भारत में जिस उम्र में बेटियां पढ़ाई पूरी कर करिअर की दिशा तलाश रही होती हैं, उस छोटी-सी उम्र में बेल्जियम की जारा रदरफोर्ड ने पूरी दुनिया का चक्कर लगा दिया। वह भी अकेले अपने छोटे से हवाई जहाज से। उसने दुष्यंत के कथन को सार्थक कर दिया कि तबीयत से पत्थर उछालो तो आसमान में भी छेद हो सकता है। जारा विश्व में सबसे कम उम्र में दुनिया का चक्कर लगाने वाली महिला बन गई हैं। मगर पांच माह का यह सफर कम खतरों से भरा नहीं था। कहीं रक्त जमाती ठंड, कहीं ज्वालामुखी के ऊपर से उडऩा, कहीं ठहरी तो भूकंप के झटकों से हिल गई। मगर खतरों की यह खिलाड़ी थमी नहीं। मौसम की खराबियों से उसका तीन माह का सफर तब पांच माह में पूरा हुआ जब वह पिछले दिनों बेल्जियम के कॉर्टिज्क-वेवेलगेम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरी, जहां उसके परिवार व देशवासियों ने उसका जोरदार स्वागत किया।
महज उन्नीस साल की उम्र में अकेले दुनिया घूमने वाली पायलट जारा तमाम झंझावातों से गुजरते हुए इस मुकाम तक पहुंची। कई बार तो उसे लगा कि अब जीवन खत्म होने को है। वह बर्फीले बियाबान इलाकों में फंसी। एक महीने उसे अलास्का के नोम और करीब इकतालीस दिन रूस के अयान में बर्फीले तूफान के कारण फंसना पड़ा। वहीं एक बार तूफान के चलते कोलंबिया में रुकना पड़ा तो कहीं नौकरशाही की जटिलताओं से वीजा की दिक्कतों के कारण फंसना पड़ा। बेहद हल्के शार्क यूएल अल्ट्रालाइट स्पोर्ट प्लेन के जरिये अपने भारी-भरकम इरादों को पूरा करने के लिये निकली जारा ने आखिर अपने जुनून को हकीकत में बदला। वह पांच महीनों में पांच महाद्वीपों की यात्रा पूरी कर पायी। उसने करीब 51 हजार किलोमीटर का सफर बावन देशों से गुजर कर पूरा किया। वह 18 अगस्त, 2021 को अपने इस जुनून भरे सफर पर निकली थी।
जारा कहती है कि यह अनुभव रोमांचित करने वाला था। वह अलास्का में मौसम खराब होने के कारण फंसी। पूर्वी रूस में तूफान आने के कारण उलझकर रह गई। आइसलैंड में ज्वालामुखी की चुनौती का सामना किया। साइबेरिया व उत्तरी कोरिया के हवाई स्पेस से निकलते हुए लगा कि कहीं जीवन खत्म न हो जाये। इस दौरान उत्तरी कोरिया मिसाइल परीक्षण कर रहा था, लेकिन किसी तरह की चेतावनी नहीं दी थी। इस यात्रा में पृथ्वी के दो विपरीत सिरों को छूने की जिद में वह इंडोनेशिया के जांबी और कोलंबिया के टुमाको में उतरी। इस तरह जारा ने अमेरिका की अफगान मूल की शाइस्ता वैस का वह रिकॉर्ड तोड़ दिया, जो उसने तीस साल की उम्र में बनाया था। वैसे पुरुषों में यह रिकॉर्ड 18 साल के एक युवक का है। लेकिन पुरुष और महिलाओं की उम्र का जो फासला पहले ग्यारह साल का था, उसे जारा ने महज ग्यारह महीने का कर दिया।
दरअसल, जारा रदरफोर्ड पायलट मां-बाप की बेटी है। ऊंची उड़ान के सपने उसने बचपन में ही देखने शुरू कर दिये थे। ब्रिटेन में हैंपशायर के एक स्कूल में जारा ने प्रारंभिक पढ़ाई की, लेकिन उसका परिवार बेल्जियम में रहता है। उसने चौदह साल की उम्र में हवाई जहाज उड़ाने का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया था। वर्ष 2020 में ही उसे पायलट का लाइसेंस मिला और 2021 में वह विश्व जीतने निकल पड़ी। अब उसका सपना एक सफल अंतरिक्ष यात्री बनने का है। वह कहती है कि उसकी यह सफल उड़ान निश्चय ही महिलाओं को विज्ञान, तकनीक और हवाई क्षेत्र में उम्दा करने के लिये प्रेरित करेगी। वह कहती है कि आमतौर पर लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वे सुंदर बनें, दयालु बनें तथा दूसरों की सहायता करने वाली बनें, लेकिन मैंने सिद्ध किया कि यदि मौका मिले तो वे अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकती हैं। प्रफुल्लित जारा मानती है कि यह अनुभव उद्वेलित करने वाला था। हालांकि, राह में बाधाएं कम न थीं। खासकर साइबेरिया की ठंड में, जहां यदि इंजन बंद हो जाता तो बचना मुश्किल था। लेकिन इसके बावजूद हमें रोमांच की राह चुनने से कतराना नहीं चाहिए। वह कहती है कि इस यात्रा का एक मकसद है कि लड़कियां विज्ञान, तकनीकी, इंजीनियरिंग व गणित के क्षेत्र में अपना भविष्य तलाशें।
जारा की इस यात्रा के लिये परिवार व प्रायोजकों का भरपूर साथ मिला। उनके स्कूल ने भी उनका मनोबल बढ़ाया। वहीं शार्क अल्ट्रालाइट विमान बनाने वाली स्लोवानिया की कंपनी शार्क ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस तरह जारा के नाम कई रिकॉर्ड बन गये हैं। वह सबसे छोटी उम्र की अकेली दुनिया का सफर तय करने वाली पहली महिला के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो गई हैं। वह विमान से दुनिया घूमने वाली बेल्जियम की पहली नागरिक भी बन गई हैं लेकिन यह यात्रा इतनी आसान भी नहीं थी।
साइबेरिया में एक समय वहां का तापमान सतह पर माइनस 35 डिग्री व और हवा में माइनस 20 डिग्री था। इसी तरह इंडोनेशिया में खराब मौसम के कारण दो दिन रुकना पड़ा और टर्मिनल में ही सोना पड़ा क्योंकि वहां से बाहर निकलने के दस्तावेज नहीं थे। कैलिफोर्निया में जंगल की आग के धुएं में विमान उड़ाया, मैक्सिको में उनके विमान में खराबी आ गई, सिंगापुर में उनके विमान का टायर फट गया। उसे यह भी खला कि वह क्रिसमस व नये साल पर परिवार से दूर है। सफर में गाने सुनकर वह अपना मन बहलाती रही। सोशल मीडिया में अपने वीडियो पोस्ट करके अपने परिजनों के साथ जुड़ी रही।

अदालत का सुझाव स्थाई व्यवस्था बने

अनूप भटनागर
राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में वर्ष 1985 में देश में पहली बार बनाया गया दल बदल कानून विवादों के निपटारे में अत्यधिक विलंब की वजह से अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। दसवीं अनुसूची के तहत बने इस कानून के अभी तक के अनुभव और दल बदल के खिलाफ याचिकाओं के निपटारे के मामले में अध्यक्षों की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में अब इसमें व्यापक संशोधन करने और ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थाई न्यायाधिकरण की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
सदन का अध्यक्ष भी चूंकि राजनीतिक दल का ही सदस्य होता है, इसलिए दल बदल संबंधी विवादों के निष्पादन में निष्पक्षता की कमी महसूस होती है। इस बाबत शीर्ष अदालत ने दो साल पहले सुझाव दिया था कि संसद को दसवीं अनुसूची के तहत ऐसे विवादों के निपटारे की जिम्मेदारी अर्द्ध न्यायाधिकरण के रूप में अध्यक्षों को सौंपने के प्रावधान पर नये सिरे से विचार करना चाहिए।
इसकी एक प्रमुख वजह दल बदल करने वाले सांसदों और विधायकों को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत बने कानून के तहत अयोग्य घोषित करने की याचिकाओं के निपटारे के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होने की वजह से अध्यक्ष द्वारा ऐसे मामलों में फैसला करने में अत्यधिक विलंब भी है। इस संबंध में तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मणिपुर सहित अनेक विधान सभा अध्यक्षों के समक्ष लंबित ऐसे मामलों का उदाहरण दिया जा सकता है।
राज्यों की विधान सभाओं में दल बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य घोषित करने के लिए मूल राजनीतिक दल की याचिकाओं पर निपटारे में अत्यधिक विलंब की वजह से कई बार ये मामले सर्वोच्च अदालत तक पहुंचे। शीर्ष अदालत ने पिछले साल जुलाई में ही एक मामले में दल बदल कानून के तहत लंबित याचिकाओं के निपटारे के लिए समय सीमा और दिशा-निर्देश प्रतिपादित करने से इंकार कर दिया था। न्यायालय का स्पष्ट मत था कि यह काम संसद का है और उसे ही इस पर विचार करना होगा। यही नहीं, कर्नाटक विधान सभा में हुए दल बदल से संबंधित मामले में 2019 में शीर्ष अदालत ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सदन का अध्यक्ष अगर तटस्थ रहने का संवैधानिक दायित्व नहीं निभा सकता है तो वह इस पद के योग्य नहीं है।
संसद और विधानमंडल में निर्वाचित सदस्यों की आया राम-गया राम की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए 1985 में संविधान में संशोधन कर दल बदल कानून बनाया गया था। इस कानून में हालांकि, कुछ संशोधन भी किए गए लेकिन इसके बाद भी सदन में पाला बदलने वाले सांसदों और विधायकों के बारे निर्णय का अधिकार पूरी तरह से अध्यक्ष के पास ही था। ऐसे मामलों के निपटारे में हो रहे विलंब का ही नतीजा था कि 21 जनवरी, 2020 को सर्वोच्च अदालत ने सुझाव दिया कि संसद को दल बदल कानून के तहत सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित विवाद सुलझाने के लिए संविधान में संशोधन करके एक स्थाई न्यायाधिकरण की स्थापना करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
न्यायालय का विचार था कि संसद को दल बदल करने वाले सदस्य के मामले में फैसला करने का अधिकार एक अर्द्ध-न्यायाधिकरण के रूप में अध्यक्ष को सौंपने संबंधी व्यवस्था पर पुनर्विचार करना चाहिए। दरअसल, ऐसे विवाद का निपटारा करते समय भी अध्यक्ष एक राजनीतिक दल विशेष का ही सदस्य होता है।
इसकी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए न्यायाधिकरण का अध्यक्ष शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को बनाने का प्रावधान किया जा सकता है।
दरअसल, आज जहां दल बदल करने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों के मामले में फैसला होने में अत्यधिक समय लग रहा है तो दूसरी ओर दल बदल कानून की मार से बचने के लिए निर्वाचित प्रतिनिधि सदन के कार्यकाल के अंतिम साल में चुनाव नजदीक आने पर पाला बदलने का रास्ता अपना रहे हैं। चुनावी साल में निर्वाचित प्रतिनिधियों के अपने राजनीतिक दल से इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होने की इस बीमारी से हालिया दिनों में सभी दल पीडि़त हैं। अक्सर ऐसी गतिविधियां भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं।
सरकार अगर वास्तव में दल बदल जैसी समस्या पर अंकुश पाना चाहती है तो उसे कानून में यह प्रावधान करने पर विचार करना चाहिए कि चुनावी साल में सदन और मूल राजनीतिक दल से इस्तीफा देने वाला व्यक्ति कम से कम एक साल तक किसी अन्य राजनीतिक दल का प्रत्याशी बनने के अयोग्य होगा।
यह सर्वविदित है कि न्यायिक हस्तक्षेप से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की स्वच्छता, पारदर्शिता और पवित्रता बनाये रखने और इससे संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों को बाहर रखने में काफी सफलता मिली है। उम्मीद है कि सरकार सर्वोच्च अदालत के सुझावों पर और समय गंवाए बगैर ही उचित कदम उठायेगी।

गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा का वादा करें दल

भरत झुनझुनवाला –
चुनाव के इस माहौल में मुफ्त बांटने के वादे करने की होड़ मची हुई है। कोई साड़ी बांटता है, कोई साइकिल, कोई लैपटॉप और कोई मुफ्त में बस यात्रा। यहां तक कि कहीं तो शराब भी मुफ्त बांटने की बात की जा रही है। कुछ मतदाता मानते हैं कि कम से कम जनता को 5 साल में एक बार ही सही, कुछ तो हासिल हो। सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियां लागू कर जनता के रोजगार और धंधे को पस्त कर दिया है इसलिए मुफ्त में जो मिले कुछ लोग उसका स्वागत करते हैं। लेकिन विचारणीय यह है कि मुफ्त क्या बांटा जाए? ऐसे में यदि सच्ची अंग्रेजी शिक्षा को ही मुफ्त बांट दीजिए तो जनता भी सुखी हो जाएगी और पार्टी को संभवत: जीत भी हासिल हो जाए? कहावत है कि किसी व्यक्ति को मछली देने के स्थान पर मछली पकडऩा सिखाना ज्यादा उत्तम है क्योंकि यदि मछली पकडऩा सीख लेगा तो वह आजीवन अपनी आय अर्जित कर सकता है। इसी प्रकार यदि हम युवाओं को मुफ्त साइकिल और लैपटॉप वितरित करने के स्थान पर यदि मुफ्त अंग्रेजी शिक्षा दें तो वे साइकिल और लैपटॉप स्वयं खरीद लेंगे और आजीवन अपनी जीविका भी चला सकेंगे।
जनता में अंग्रेजी शिक्षा की गहरी मांग है। शहरों में घरों में काम करने वाली सहायिकाओं द्वारा भी अपने बच्चों को 1,500 से 2,000 रुपए प्रतिमाह की फीस देकर अच्छी अंग्रेजी के लिए प्राइवेट स्कूल में भेजने का प्रयास किया जाता है। वे अपनी आय का लगभग तिहाई हिस्सा बच्चों की फीस देने में व्यय कर देती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि शिक्षा की मांग है लेकिन अच्छी शिक्षा खरीदने की उनकी क्षमता नहीं है। दिल्ली की आप सरकार ने सरकारी शिक्षा में महत्वपूर्ण सुधार किए हैं लेकिन इसके बावजूद सरकारी विद्यालयों के हाई स्कूल में 72 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए जबकि प्राइवेट स्कूलों में 93 प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए। दूसरे राज्यों में सरकारी विद्यालयों की स्थिति बहुत अधिक दुरूह है जबकि इन पर सरकार द्वारा भारी खर्च किया जा रहा है।
वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में प्रति छात्र 25,000 रुपये प्रतिवर्ष खर्च किए जा रहे थे। वर्तमान वर्ष 2021-22 में यह रकम लगभग 30,000 रुपये हो गई होगी। इसमें भी सरकारी विद्यालयों में तमाम दाखिले फर्जी किए जा रहे हैं। बिहार के एक अध्ययन में 9 जिलों में 4.3 लाख फर्जी विद्यार्थी सरकारी विद्यालयों में पाए गए। इन फर्जी दाखिलों को दिखाकर स्कूल के कर्मचारी मध्यान्ह भोजन और यूनिफॉर्म इत्यादि की रकम को हड़प जाते हैं। किसी अन्य आकलन के अभाव में हम मान सकते हैं कि 20 प्रतिशत विद्यार्थी फर्जी दाखिले के माध्यम से दिखाए जाते होंगे। इन्हें काट दें तो उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रति सच्चे विद्यार्थी पर 37,000 रुपये प्रति वर्ष खर्च किया जा रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार, लगभग 60 प्रतिशत बच्चे वर्तमान में सरकारी विद्यालयों में जा रहे हैं। अत: यदि इस 37,000 रुपये प्रति सच्चे छात्र की रकम को प्रदेश के सभी छात्रों यानी सरकारी एवं प्राइवेट स्कूल दोनों में पढऩे वाले छात्रों में वितरित किया जाए तो प्रत्येक छात्र पर उत्तर प्रदेश सरकार लगभग 20,000 रुपये प्रति वर्ष खर्च रही है।
चुनाव के समय पार्टियां वादा कर सकती हैं कि इस 20,000 रुपये की रकम में से 12,000 रुपये प्रदेश के सभी छात्रों को मुफ्त वाउचर के रूप में दे दिये जाएंगे। इस वाउचर के माध्यम से वे अपने मनचाहे विद्यालय में फीस अदा कर सकेंगे। यह 12,000 रुपये प्रति वर्ष प्रति छात्र सरकारी शिक्षकों के वेतन में से सीधे कटौती करके किया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सरकारी अध्यापकों का वेतन वास्तव में कम हो जाएगा। वे अपने विद्यालय को आकर्षक बना कर पर्याप्त संख्या में छात्रों को आकर्षित करेंगे तो वे अपने वेतन में हुई इस कटौती की भरपाई वाउचर से मिली रकम से कर सकते हैं। जैसे वर्तमान में तमाम विश्वविद्यालयों में सेल्फ फाइनेंसिंग कोर्स चलाए जा रहे हैं। इन कोर्सों में छात्र द्वारा भारी फीस दी जाती है, जिससे पढ़ाने वाले अध्यापकों के वेतन का पेमेंट किया जाता है। इसी तर्ज पर सरकारी प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षक, छात्रों को आकर्षित कर उनके वाउचर हासिल कर अपने वेतन की भरपाई कर सकते हैं।
ऐसा करने से सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार के विद्यालयों को लाभ होगा। सरकारी विद्यालयों के लिए अनिवार्य हो जाएगा कि वे अपनी शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाएं, जिससे कि वे पर्याप्त संख्या में छात्रों को आकर्षित कर सकें, उनके वाउचर हासिल कर सकें और अपने वेतन में हुई कटौती की भरपाई कर सकें। प्राइवेट विद्यालयों के लिए भी यह लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि उनमें दाखिला लेने वाले छात्र 1,000 रुपये प्रति माह की फीस इन वाउचरों के माध्यम से कर सकते हैं और शेष फीस वह अपनी आय से दे सकते हैं। जो सहायिका अपने 6,000 रुपये के मासिक वेतन में से वर्तमान में 1,500 रुपये अंग्रेजी स्कूल में बच्चे की फीस अदा करने के लिए कर रही है उसे अपनी कमाई में से केवल 500 रुपये ही देने होंगे। जिस प्राइवेट विद्यालय द्वारा आज 600 रुपये प्रति माह फीस के रूप में लिए जा रहे हैं उसे वाउचर के माध्यम से 1,000 रुपये मिल जायेंगे और कुल 1,600 रुपये की रकम से वे अच्छे अध्यापक की नियुक्ति कर सकेंगे। प्राइवेट विद्यालयों की गुणवत्ता में भी सुधार होगा।
वर्तमान समय में रोबोट और बड़ी कंपनियों द्वारा सस्ते माल का उत्पादन किए जाने से आम आदमी के रोजगार का भारी हनन हो रहा है। इसके सतत जारी रहने का अनुमान है। इसलिए आम आदमी की जीविका को आगे आने वाले समय में बनाए रखने के लिए जरूरी है कि वह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करें, जिससे इंटरनेट आदि के माध्यम से वे सॉफ्टवेयर, संगीत, अनुवाद इत्यादि सेवाओं की बिक्री कर सकें और अपनी जीविका चला सकें। वर्तमान चुनाव के माहौल में पार्टियों को चाहिए कि साड़ी, साइकिल और लैपटॉप बांटने के वादों के स्थान पर सच्ची शिक्षा को मुफ्त बांटने पर विचार करें, जिससे उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो और सरकार पर आर्थिक बोझ भी न पड़े। वहीं जनता को आने वाले समय में और रोजगार भी उपलब्ध हो जाए।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

केंद्र को राज्यों और आईएएस अधिकारियों दोनों से परामर्श करके केंद्रीय प्रतिनियुक्ति में आयी कमी का समाधान करना चाहिए

केएम चंद्रशेखर और टीकेए नायर –
भारतीय प्रशासनिक सेवा सुर्खियों में है, क्योंकि पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा आईएएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति संबंधी नियमों में केंद्र सरकार के प्रस्तावित संशोधनों पर गंभीर आपत्तियां दर्ज करायी गईं हैं। प्रभावी शासन के लिए और सहकारी संघवाद की भावना का सम्मान करते हुए, नियमों में किसी भी बड़े बदलाव के लिए राज्यों के साथ परामर्श किया जाना चाहिए।
आईएएस अधिकारियों की भर्ती, नियुक्ति, उन्हें प्रशिक्षण देने तथा विभिन्न राज्य कैडर में आवंटित करने का कार्य केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है, आईएएस अधिकारियों को न केवल अपने राज्य कैडर में बल्कि, केंद्र सरकार में भी, जब भी ऐसा करने के लिए कहा जाये, सेवाएँ प्रदान करने का कार्यादेश दिया जाता है।
केंद्र सरकार में उप सचिव/निदेशक से सचिव तक के वरिष्ठ पदों पर विभिन्न राज्य कैडर से आईएएस अधिकारियों की केंद्रीय प्रतिनियुक्ति एवं अन्य सेवाओं के अधिकारियों, क्षेत्र-विशेष के विशेषज्ञों तथा अन्य अधिकारियों की नियुक्ति होने की उम्मीद की जाती है।
इस प्रकार आईएएस अधिकारी उन राज्य सरकारों, जिनसे वे संबंधित हैं और केंद्र सरकार जो उनकी नियुक्ति प्राधिकारी है, के दोहरे नियंत्रण में होते हैं। आईएएस की योजना और संरचना में केंद्र और राज्य दोनों को- देश के प्रभावी शासन के लिए अधिकारियों की सेवाओं का उपयोग करने में सक्षम बनाने के लिए शक्ति के विभाजन की परिकल्पना की गई है।
आईएएस अधिकारियों की सेवा शर्तों से संबंधित मामलों में अंतिम अधिकार केंद्र सरकार में निहित है, जिसमें नियुक्ति, स्थानान्तरण और अनुशासनात्मक कार्रवाई शामिल हैं, लेकिन राज्य सरकारों के पास भी प्रासंगिक नियमों के माध्यम से इन मामलों में भागीदारी की भूमिका है।
इसलिए केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित आईएएस कैडर नियमों में बदलाव को हमारी अर्ध-संघीय राजनीति के अंतर्गत केंद्र एवं राज्य सरकारों की संरचना और कामकाज के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
विभिन्न मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार द्वारा 5 और 12 जनवरी को लिखे दो पत्रों में आईएएस कैडर नियमों में बदलाव करने और कुछ जोडऩे का प्रस्ताव दिया गया है। पहले पत्र में प्रस्ताव है कि राज्य सरकारें केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्ति के लिए विभिन्न स्तरों पर पात्र अधिकारी उपलब्ध कराएंगी, जिन्हें प्रतिनियुक्ति आरक्षित माना जायेगा। इसकी गणना केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से की जाएगी और असहमति की स्थिति में केंद्र सरकार का विचार अंतिम रूप से मान्य होगा। इसके अलावा, यह राज्य सरकारों को एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर केंद्र सरकार के निर्देश को पूरा करने का कार्यादेश देता है।
12 जनवरी को लिखे पत्र के माध्यम से और आगे जाते हुए, केंद्र ने किसी भी केंद्रीय पद पर नियुक्ति के लिए किसी राज्य में किसी भी आईएएस अधिकारी की सेवाओं को प्राप्त करने का अधिकार अपने पास रखा है, जहां राज्य सरकार निर्धारित समय के भीतर केंद्र के निर्णय को प्रभाव में लायेगी। अधिक बदलाव के साथ यह कहा गया है कि यदि राज्य सरकार केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट अवधि के भीतर इस निर्देश की उपेक्षा करती है, तो अधिकारी (अधिकारियों) को केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट तिथि से कैडर से कार्यभार-मुक्त कर दिया जाएगा।
इन कदमों में जल्दबाजी दिखती है। ऐसा करना जरूरी हो गया, क्योंकि केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले अधिकारियों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गयी है। एक अनुमान के मुताबिक, अनिवार्य आरक्षित वर्ग 2014 के 69 फीसदी से कम होकर 2021 में 30 फीसदी रह गया है।
यह निश्चित रूप से गंभीर कमी को दर्शाता है, लेकिन नियमों में बड़े बदलावों का प्रस्ताव करने के बजाय, भारत सरकार को पहले आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और जांच करनी चाहिए कि केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति अब पहले की तरह लोकप्रिय क्यों नहीं रह गई है।
क्या केंद्र में सेवा की शर्तें राज्यों की तुलना में खराब हो गई हैं, जिससे केंद्रीय प्रतिनियुक्ति राज्यों में नियुक्त अधिकारियों के लिए कम आकर्षक हो गई है? क्या उच्च स्तर पर पैनल प्रणाली में बदलाव ने उन अधिकारियों के लिए दरवाजे बंद कर दिए हैं जो अन्यथा केंद्र में सेवा के लिए उपलब्ध होते? क्या केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर आईएएस अधिकारियों के सेवा कार्यकाल में अनिश्चितता बढ़ गई है?
भारत सरकार को इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि जमीनी स्तर के प्रशासन की जिम्मेदारी राज्यों की होती है। यहां तक कि केंद्रीय योजनाओं को भी बड़े पैमाने पर राज्य सरकारों के माध्यम से लागू किया जाता है। राज्यों से केंद्र में अधिकारियों का मनमाना और अचानक स्थानांतरण राज्य में शासन को कमजोर करते हुए अत्यधिक हानिकारक हो सकता है।
इसके अलावा, गैर-भाजपा राज्य इस बात से चिंतित हैं कि वे अपने संवैधानिक रूप से प्रदत्त शासन करने के अधिकार के गंभीर उल्लंघन के रूप में देखते हैं, जिसमें कुछ औचित्य भी है राज्य संस्थानों के माध्यम से शासन करते हैं, जिनका एक महत्वपूर्ण हिस्सा आईएएस होते हैं।
केंद्र सरकार और गैर-भाजपा राज्य सरकारों के बीच बढ़ते मतभेदों और टकराव के क्षेत्रों की पृष्ठभूमि में, प्रस्तावित संशोधनों पर विवाद टाला जा सकता है।
इसलिए यह अच्छा है कि केंद्र सरकार ने राज्यों के साथ परामर्श की प्रक्रिया शुरू की है। उन्हें अधिकारियों को भी शामिल करते हुए प्रक्रिया को व्यापक करने की सलाह दी जाएगी। इसके बाद राज्य तय करें कि केंद्र में प्रतिनियुक्ति के लिए विभिन्न स्तरों पर आईएएस अधिकारियों की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रस्तावित संशोधन सही दिशा में हैं, या नहीं – इसके साथ ही राज्यों के प्राधिकार, शासन की जिम्मेदारी और कार्यात्मक दक्षता को भी कमजोर नहीं किया जाना चाहिए तथा अधिकारियों पर अनुचित संकट और उनके पारिवारिक जीवन में व्यवधान भी पैदा नहीं होना चाहिए।
अंत में, यह कहा जा सकता है कि समाधान, सहकारी संघवाद में निहित है। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2015 में बर्नपुर में एक समारोह में कहा था, हमारे संविधान ने हमें एक संघीय ढांचा दिया है। अफसोस की बात है कि केंद्र-राज्य संबंध लंबे समय से तनावपूर्ण थे। मैं मुख्यमंत्री रहा हूं, और मैं जानता हूं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए हमने सहकारी संघवाद पर फोकस रखते हुए बदलाव किये हैं… इसलिए मैं टीम इंडिया कहता हूं… टीम इंडिया के दृष्टिकोण के बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता।

(लेखक-केएम चंद्रशेखर, पूर्व कैबिनेट सचिव, भारत सरकार रहे हैं और

टीकेए नायर ने पीएम मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव के रूप में कार्य किया है।)

अनाथ बच्चों को क्यों नहीं मिल रही प्यार भरी गोद

अनु जैन रोहतगी –
नैशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स ने सुप्रीम कोर्ट में दिए अपने आंकड़ों में बताया है कि अप्रैल 2021 से अब तक देश में कोरोना के कारण 10,094 बच्चों के सिर से मां-बाप का साया उठ गया। 1,36,910 बच्चों के मां या पिता कोरोना की भेंट चढ़ गए और 488 बच्चों को अनाथों की तरह छोड़ दिया गया।
इसके बरक्स एक और रिपोर्ट ध्यान देने लायक है कि देश में बच्चों को गोद देने के काम को नियंत्रित करने वाली नोडल एजेंसी ‘सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स एजेंसी'(कारा) की लिस्ट में दिसंबर 2021 तक सिर्फ 1,936 बच्चे ही गोद देने कि लिए उपलब्ध थे जबकि गोद लेने की चाहत रखने वाले कपल्स की लिस्ट 36 हजार तक लंबी है। बता दें कि यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल, दि इंपिरियल कॉलेज ऑफ लंदन और ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी तक ने भारत में कोरोना के कारण अनाथ हुए बच्चों के भविष्य पर चिंता जताई है। एक मार्च 2020 से 30 अप्रैल 2021 तक देश में एक लाख 19 हजार बच्चों ने अपने माता-पिता और रखरखाव करने वाले ग्रैंड पैरंट्स खो दिए।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि पिछले डेढ़-दो सालों में कोरोना के कारण हजारों बच्चों के सिर से मां-बाप का साया उठ जाने के बावजूद इन्हें गोद देने के लिए सही समय पर सरकारी प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई गई? बता दें कि जब कोई भी अनाथ, लावारिस, घर से भागा बच्चा मिलता है तो उसे सबसे पहले उस स्थान की चाइल्ड वेल्फेयर कमिटी के समक्ष पेश किया जाता है। कमिटी पूरी जांच-पड़ताल के बाद उसे देखभाल के लिए अलग-अलग बाल गृहों, अडॉप्शन एजेंसियों में भेजती है। इसके बाद कमिटी निर्णय लेती है कि कौन-कौन से बच्चे कानूनी रूप से गोद दिए जाने की स्थिति में हैं। उन बच्चों को चिह्नित कर उनके लिए प्रमाणपत्र जारी किया जाता है और उसके बाद प्रमाणपत्र और बच्चे के पूरे विवरण को ‘कारा’ की ओर से संचालित बच्चा गोद देने की नोडल लिस्ट में अपलोड किया जाता है।
लेकिन यह प्रक्रिया उतनी सरल नहीं जितनी दिखती है। अगर सरकारी आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि वर्ष 2015 से 2021 के बीच दो साल से कम उम्र के 18,415, दो से चार साल के 1,782, चार से छह साल के 1,398 और छह से आठ साल के 797 बच्चों को गोद दिया गया है। ये संख्याएं अपने आप में ही एजेंसियों के काम पर सवाल खड़ा करती हैं। कोरोना काल में कई कारणों से हालात बद से बदतर हुए हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि पिछले पांच साल के मुकाबले वर्ष 2020-21 में कोरोना के चलते सबसे कम केवल 3,142 बच्चों को गोद दिया गया। गोद देने वाली संस्थाओं का कहना है कि वित्तीय संकट के कारण वे अनाथ बच्चों को अपने यहां जगह नहीं दे सकीं। कुछ संस्थाओं की शिकायत है कि कोरोना काल में उन्हें राज्य सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली।
हैरानी की बात है कि जब एक तरफ देश में अनाथ बच्चों की संख्या इतनी अधिक है तो दूसरी तरफ कानूनी रूप से बच्चा गोद लेने का फैसला करने के बाद भी कपल्स को अमूमन दो-तीन साल का इंतजार करना पड़ जाता है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि देश में अनाथ, घर से निकाले गए या छोड़ दिए गए बच्चों की देखभाल करने और उनसे जुड़ी सारी जानकारी एकत्र करने के बाद उनका नाम अडॉप्शन पूल लिस्ट में डालने में मदद करने वाली संस्थाएं बहुत कम हैं। सवाल है कि क्या इन संस्थाओं की संख्या या इनका संसाधन बढ़ाने के उपाय क्यों नहीं किए जा रहे।
कोरोना काल ने हमें बहुत सी सीख दी है। एक सीख बच्चों की देखभाल करने में लगी संस्थाओं, अडॉप्शन एजेंसियों, कारा और सरकार को भी लेनी चाहिए कि कोरोना के कारण अनाथ हुए बच्चों को जल्दी से जल्दी एक नया घर-परिवार देने के लिए सिस्टम में सुधार के जरूरी कदम जल्द से जल्द उठाने हैं। इस दिशा में की गई पहल अनाथ बच्चों को एक नया भविष्य देने के साथ बच्चों की किलकारियां और शरारतें सुनने-देखने को तरसते कपल्स के लिए भी वरदान के समान होगी।

पाकिस्तान की इस नीति पर कैसे करें ऐतबार

वेदप्रताप वैदिक –
पाकिस्तान ने 14 जनवरी को पहली बार अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की है। जब से पाकिस्तान बना है, ऐसी घोषणा पहले कभी नहीं की गई। इसका अर्थ यह नहीं है कि पाकिस्तान की कोई सुरक्षा नीति ही नहीं थी। यदि ऐसा होता तो वह अपने पड़ोसी भारत के साथ कई युद्ध कैसे लड़ता और आतंकवाद को अपनी स्थायी रणनीति क्यों बनाए रखता? परमाणु बम तो वैसी स्थिति में बन ही नहीं सकता था। अफगानिस्तान के साथ वह कई-कई बार युद्ध के कगार पर कैसे पहुंच जाता? अफगानिस्तान के सशस्त्र गिरोहों को पिछले 50 साल से वह शरण क्यों देता रहता? किसी सुरक्षा नीति के बिना अमेरिका के सैन्य-गुटों में वह शामिल क्यों हो गया था? पहले अमेरिका और अब चीन का पिछलग्गू बनने के पीछे उसका रहस्य क्या है? बस वही, सुरक्षा नीति! सुरक्षा किससे? भारत से।
डर से उपजी नीति
जब से पाकिस्तान बना है, उसके दिल में यह डर बैठा हुआ है कि भारत उसका वजूद मिटा देगा। भारत उसे खत्म करके ही दम लेगा। भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बना दिया। उसे लगता है कि वह पाकिस्तान के कम से कम चार टुकड़े करना चाहता रहा है। एक पंजाब, दूसरा सिंध, तीसरा बलूचिस्तान और चौथा पख्तूनिस्तान। तो पाकिस्तान भी भारत के टुकड़े करने की कोशिश क्यों न करे? उसकी कोशिश कश्मीर, खालिस्तान, असम, नगालैंड और मिजोरम को खड़ा करने की रही है। तू डाल-डाल तो हम पात-पात! नहले पर दहला मारने की यही नीति पाकिस्तान की सुरक्षा नीति रही है। भारत ने परमाणु बम बनाया तो पाकिस्तान ने भी जवाबी बम बना लिया।
ऐसी सुरक्षा नीति की भला कोई सरकार घोषणा कैसे कर सकती थी? उसे जितना छिपाकर रखा जाए, उतना ही अच्छा। लेकिन उसके नतीजों को आप कैसे छिपा सकते हैं? पिछले 7-8 दशकों में वे नतीजे सारी दुनिया के सामने अपने आप आने लगे। अपने आप को तुर्रम खां बताने वाले पाकिस्तान के फौजी तानाशाहों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को मालदार मुल्कों के आगे भीख का कटोरा फैलाए खड़े रहना पड़ता रहा है। मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का जो गुब्बारा 1947 में फुलाया था, उसकी हवा आज तक निकली पड़ी है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान एक आदर्श इस्लामी राष्ट्र क्या बनता, वह दक्षिण एशिया के सबसे पिछड़े राष्ट्रों में शुमार हो गया।
अब इमरान सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की जो घोषणा की है, उसमें आर्थिक सुरक्षा का स्थान सबसे ऊंचा है। इसीलिए उसमें साफ-साफ कहा गया है कि पाकिस्तान अब सामरिक सुरक्षा के बजाय आर्थिक सुरक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा। यदि वह सचमुच ऐसा करेगा तो बताए कि उसका रक्षा-बजट कुल बजट का 16 प्रतिशत क्यों है? यदि अपने इस 9 बिलियन डॉलर के फौजी बजट को वह आधा कर दे तो क्या बचे हुए पैसों का इस्तेमाल पाकिस्तानियों की शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की कमियों को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? इस नई सुरक्षा नीति की घोषणा के बाद देखना है कि अब उसका बजट कैसा आता है।
यह नई सुरक्षा नीति कोई रातोरात बनकर तैयार नहीं हुई है। पिछले सात साल से इस पर काम चल रहा है, नवाज शरीफ के जमाने से। मियां नवाज के विदेश मंत्री और सुरक्षा सलाहकार रहे बुजुर्ग नेता सरताज अजीज ने इस नई नीति पर काम शुरू किया था। उन्हीं दिनों भारत में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार कायम हुई थी। मियां नवाज के घर मोदी अचानक जाकर उनकी नातिन की शादी में शामिल भी हुए थे। उसके पहले मोदी के शपथ-विधि समारोह में नवाज और अजीज ने शिरकत की थी। उन्हीं दिनों इस नई सुरक्षा नीति की नींव पड़ी थी, लेकिन अब जो दस्तावेज प्रकट हुआ है, उसमें मोदी और संघ की कटु आलोचना है। इस नीति की घोषणा करते समय कही गई इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि पाकिस्तान अगले सौ साल तक भारत से अपने संबंध सहज बनाए रखेगा? सचमुच आपका यही इरादा है तो अभी भी आपने आधी नीति छिपाकर क्यों रखी है?
भारत ने तो अफगानिस्तान के लिए 50 हजार टन अनाज और दवाइयां भिजवाने की घोषणा की थी, लेकिन पाकिस्तान ने अभी तक उसे काबुल पहुंचाने का रास्ता नहीं खोला है। भारत ने अफगानिस्तान पर बात करने के लिए पड़ोसी राष्ट्रों की बैठक में पाकिस्तान को भी बुलाया था। लेकिन उसने चीन के साथ मिलकर उसका बहिष्कार कर दिया। अफगान-संकट ने तो ऐसा मौका पैदा कर दिया था कि उसका मिल-जुलकर समाधान करते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती हो सकती थी। यदि पाकिस्तान को आर्थिक रूप से समृद्ध होना है तो उसे दक्षिण और मध्य एशिया के बीच एक सेतु की भूमिका तुरंत स्वीकार करनी चाहिए। यदि वह एक सुरक्षित पुल बन जाए तो मध्य एशिया के गैस, तेल, लोहा, तांबा, यूरेनियम आदि से भारत और पाकिस्तान मालामाल हो सकते हैं। अभी तो भारत-पाक व्यापार पर भी तालाबंदी लगी हुई है।
संवाद पर हो जोर
नई नीति में यह ठीक कहा गया है कि अब पाकिस्तान कश्मीर के कारण भारत से बातचीत बंद नहीं करेगा। लेकिन तब भी वह राग कश्मीर अलापता ही रहेगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अब कश्मीर में कोई रुचि नहीं है। चीन भी उस पर चुप ही रहता है। लेकिन हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर को घसीटने से पाकिस्तान बाज नहीं आता। अच्छा हो कि इमरान सरकार इस मुद्दे पर भारत सरकार से सीधे संवाद की पहल करे। पाकिस्तान के जितने भी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बुद्धिजीवियों से पिछले 50 साल में मेरा संवाद हुआ है, उनसे मैंने यही कहा है कि जुल्फिकार अली भुट्टो का यह कथन आप भूल जाइए कि कश्मीर लेने के लिए आप हजार साल तक भारत से लड़ते रहेंगे। कश्मीर का हल लात से नहीं, बात से ही होगा। कश्मीर के बहाने पाकिस्तान ने सारी दुनिया से बदनामी मोल ले ली। वह आतंक और फौजी तानाशाही का गढ़ बन गया। भारत के साथ उसकी दुश्मनी खत्म हो जाए तो उसे अमेरिका या चीन जैसे राष्ट्रों का चरणदास नहीं बनना पड़ेगा और पाकिस्तान के लोग भारतीयों की तरह लोकतंत्र और खुशहाली में जी सकेंगे।

दल बदल के मौसम में आहत लोकतंत्र

लक्ष्मीकांता चावला –
लगभग चार दशक पहले तक पूरे देश में चुनाव एक ही समय होते थे। विधानसभा और लोकसभा के लिए भारत की जनता वोट करती थी। अपने प्रतिनिधि चुनती थी। लोकतंत्र के मंदिर में अपने-अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए मानो संगम का मेला ही लगता था। धीरे-धीरे परिस्थितिवश देश के अनेक भागों में चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे, जिसका यह परिणाम हुआ कि अपना देश हर वर्ष ही चुनावी संग्राम में जूझता है। जहां कहीं पहले यह आदर्श वाक्य था कि साध्य के लिए साधन भी शुद्ध चाहिए। अब साधनों की शुचिता तो अतीत की बात हो गई। साध्य अर्थात चुनावों में सफलता, सत्ता प्राप्ति एकमात्र लक्ष्य हो गया। उसके लिए साम-दाम-दंड-भेद या इससे भी कुछ आगे है तो इसका प्रयोग किया जा रहा है।
जब से 2022 में पांचों विधानसभा के चुनावों की घोषणा हुई तभी से राजनेताओं ने एक तो आश्वासनों की बौछार की। मुफ्तखोरी बनी नहीं रहेगी, अपितु बढ़ेगी इसका भरोसा दिया। जनता को रोजगार, उद्योग-धंधे, चिकित्सा शिक्षा के स्वावलंबन की कोई चर्चा नहीं की और इसके साथ ही सत्ता की दौड़ में लगे ये राजनेता दल बदलने के सारे पिछले रिकार्ड तोड़ रहे हैं। हो सकता है कि चुनावों के नामांकन की तिथि तक सैकड़ों और तथाकथित नेता दल बदल लेंगे। इनको तथाकथित इसलिए कहा है क्योंकि ये नेतृत्व नहीं कर रहे, अपितु अपनी-अपनी सत्ता या परिवार की सत्ता सुरक्षित रखने के लिए ही काम कर रहे हैं।
कभी हरियाणा से निकला— आया-राम गया-राम का व्यंग्य वाक्य अब पूरे देश में वैसे ही फैल गया जैसे केरल में एक कोरोना रोगी मिलने के बाद पूरा देश कोरोना की पहली, दूसरी और अब तीसरी लहर में जकड़ा तड़प रहा है। आज का प्रश्न यह है कि समाज दल-बदलुओं को स्वीकार क्यों करता है? आमजन का यह कहना है कि राजनीतिक पार्टियां उत्तर दें, वे उन लोगों के लिए अपने दरवाजे पलक पांवड़े बिछाकर हर समय खुले क्यों रखते हैं, जो सिद्धांतहीन हैं पर सत्ता के लालच में दौड़ते हुए उनके दरवाजों पर आते हैं, फूलों का आदान-प्रदान होता है, पटे या पटके गलों में डाले जाते हैं और दल बदलू नेता इतने समभाव वाले दिखाई देते हैं कि निंदा, स्तुति, मान-अपमान से उन्हें कोई अंतर ही नहीं पड़ता। प्रश्न एक यह भी है कि जो लोग उस पार्टी के वफादार नहीं, जिससे उन्हें पहचान मिली, सम्मान मिला, राजपद प्राप्त हुए और उनकी जिंदाबाद के नारे गली-गली में लगे, ऐसे लोग दूसरी पार्टी में जाकर उनके कैसे वफादार हो जाएंगे। जो लोग सार्वजनिक सभाओं में अपनी जनता के दुख-सुख में साथी बनने की घोषणा करते रहे वे केवल अपने परिवार की विधानसभा सीट के लिए ही क्यों दल बदल जाते हैं? अपने मतदाताओं को धोखा देते हैं?
अभी तो हालत यह हो गई जो उत्तर प्रदेश ने देखा, पंजाब ने देखा, उत्तराखंड ने दिखाया कि ये याद ही नहीं रहता कि दल बदलने वाले नेता पहले किस-किस गली का चक्कर लगाकर आए हैं और वर्तमान पार्टी में आने से पहले किस पार्टी में धन-सत्ता कमा रहे थे। उत्तर प्रदेश का उदाहरण तो बड़ा अफसोसजनक है। सरकार के एक मंत्री कांग्रेस से बीएसपी में, बीएसपी से समाजवादी पार्टी में, फिर भाजपा में और भाजपा से वापस समाजवादी पार्टी में चले गए। संभवत: वहां और कोई ऐसी बड़ी पार्टी नहीं, जिसकी दलदल में वह डुबकी लगा सकें। आश्चर्य यह भी है कि दल बदलने की बीमारी का एक सीजन विशेष ही होता है। वर्षों तक एक पार्टी में सत्तासुख भोगने के बाद अचानक ही इन्हें दलितों की पीड़ा, कमजोरों के साथ हो रहा अन्याय, युवकों की बेरोजगारी का दर्द तंग करने लगता है और फिर एक नहीं बल्कि आधा दर्जन से ज्यादा मंत्री और विधायक दूसरी पार्टी का झंडा और डंडा थाम लेते हैं। पंजाब में तो दो बहुत दुखद, पर रोचक दल बदल हुए। एक एमएलए भाजपा में गए। फूलों के हार पहनाए, पर अगले दिन ही वापस कांग्रेस में चले गए। अमृतसर जिले के एक कांग्रेस नेता चौबीस घंटे भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में न काट सके। वहां उन्हें जितने फूल और पटके मिले थे उतने घंटे बिताए बिना ही वे वापस कांग्रेस में आ गए। पंजाब का शायद ही ऐसा कोई शहर बचा हो जहां यह बीमारी स्वार्थी दल बदली की न फैल रही हो। उत्तराखंड का भी एक ऐसा ही उदाहरण है। उसके अनुसार अपनी पुत्रवधू के लिए जब टिकट प्राप्त नहीं कर सके तो फिर वापस कांग्रेस में चले गए। समाचार क्यों मिलता है भाजपा का पलटवार, कांग्रेस की पूर्व महिला अध्यक्षा भाजपा में आ गई। आदान-प्रदान हो रहा है। आप जानते ही हैं कि सत्तापतियों और धनपतियों को शगुन ज्यादा मिलता है। मुलायम सिंह की पुत्रवधू भी चुनाव लडऩे के लिए यूं कहिए घरेलू राजनीतिक क्लेश के कारण अब भाजपा की ध्वज वाहिका बन चुकी हैं।
अब चुनाव पूर्व दल बदलने की बात छोडि़ए, चुनावों के बाद जो शब्द राजनेताओं ने दिया हार्स ट्रेडिंग अर्थात घोड़ों की बिक्री, वह भी लोकतंत्र पर धब्बा है। दल बदल मन बदल न हो जाए। जनता यह सोचे कि जिन पर पार्टी के नेताओं को ही विश्वास नहीं उन पर जनता आखिर क्यों विश्वास करे। अभी तक तो वह चुनावी खर्च पर भी नियंत्रण नहीं कर सका। चालीस करोड़ उड़ाने वाले चालीस लाख के आंकड़े आयोग को दे देते हैं।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली शेंकल !

तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट – 
आजादी मन्त्र के महानायक सुभाष चंद्र बोस के बारे में बहुत कम लोग जानते है नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एमिली शेंकल से सन1937 में विवाह किया था।एमिली शेंकल ने एक ऐसे देश भारत को ससुराल के रूप में चुना जहां कभी वह “बहू” के रूप में आई ही नही, तभी तो न बहू के आगमन पर मंगल गीत गाये गये, न उनकी बेटी अनीता बोस के पैदा होने पर कोई खुशियां ही मनाई गई।
उन्हें सात साल के अपने वैवाहिक जीवन में पति सुभाष चन्द्र बोस के साथ मात्र तीन वर्ष रहने का अवसर मिला, इसके बाद नेताजी अपनी पत्नी और नन्हीं सी बेटी को छोड़कर देश को आजाद कराने के लिए संघर्ष करने चले गये।जाते समय नेताजी
अपनी पत्नी से यह वायदा करके गये कि, पहले देश आजाद करा लूँ ,फिर हम साथ-साथ रहेंगे, पर अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ क्योंकि कथित विमान दुर्घटना में नेता जी हमेशा हमेशा के लिए लापता हो गए। उस समय उनकी पत्नी एमिली शेंकल युवा थीं वह चाहती तो युरोपीय संस्कृति के अनुसार दूसरी शादी कर लेती, परन्तु उन्होंने ऐसा नही किया और बेहद कठिन दौर में अपना जीवन गुजारा।उन्होंने एक तारघर में मामूली क्लर्क की नौकरी और बेहद कम वेतन के साथ वह अपनी बेटी को पालती रही. उनका बहुत मन था भारत आने का, कि एक बार अपने पति के वतन की मिट्टी को हाथ से छू कर उसमे नेताजी को महसूस कर सकू ,लेकिन भारत को आजादी मिलने के बाद भी ऐसा हो न सका । नेताजी की पत्नी का बड़प्पन देखिये कि उन्होंने इसकी कभी किसी से शिकायत भी नहीं की और गुमनामी में ही मार्च 1996 में अपना जीवन को अलविदा कह दिया।
सुभाष चंद्र बोस ने एमिली शेंकल से प्रेम-विवाह किया था। सन 1934 में सुभाष चंद्र बोस अपना इलाज कराने के लिए ऑस्ट्रिया गए थे ,इसी दौरान उन्हें अपनी जीवनी लिखने का विचार आया, जिसके लिए उन्हें एक टाइपिस्ट की आवश्यकता महसूस हुई ।
तब ऑस्ट्रिया के एक मित्र ने उनकी मुलाकात एमिली शेंकल से करवाई, जो धीरे-धीरे पहले उनकी मित्र बनीं और बाद में प्रेमिका और फिर पत्नी। दोनों ने सन 1937 में शादी कर ली। 29 नवंबर सन1942 को विएना में एमिली ने एक बेटी को जन्म दिया। सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी बेटी का नाम अनीता बोस रखा था।
शेंकल ने कभी भी बोस की पत्नी होने की पहचान उजागर नहीं की और वह अपनी बेटी को लेकर आस्ट्रिया में रहती थीं औऱ आजीविका के लिए एक तारघर में काम करती थीं। सुभाष की बेटी अनीता बोस ने काफी समय बाद मीडिया से कहा था कि उनकी मां को भी उनके पिता की मौत की खबर अन्य लोगों की तरह रेडियो समाचार से मिली थी।
एक दिलचस्प बात यह है कि उनकी शादी हिंदू परंपरा से हुई थी।लेकिन बोस और एमिली की शादी का पंजीयन नहीं हो सका था, क्योंकि जर्मन सरकार ने यह आपत्ति कर दी थी कि दोनों ने चूंकि हिंदू परंपरा से शादी की है,इसलिए इनका पंजीयन नही हो सकता। बोस की पत्नी के अतीत में झांके तो पता चलता है कि एमिली अपने परिवार के लिए कमाने वाली एक मात्र सदस्य थीं। वह एक जिम्मेदार बेटी भी थीं, इसीलिए शादी के बाद बूढ़ी मां को छोड़कर भारत आने को राजी नहीं हुईं। एक बार विएना में सुभाष चंद्र बोस के भाई सरत चंद्र बोस, उनकी पत्नी और बच्चों से वह मिली थीं और भावुक हो गई थीं। बोस और एमिली की शादीशुदा जिदंगी 9 साल रही। इसमें से दोनों केवल 3 साल ही साथ रहे। 18 अगस्त 1945 को ताईवान में विमान दुर्घटना में बोस का निधन हो गया था। मार्च 1996 में 85 वर्ष की उम्र में एमिली का भी निधन हो गया।
उनकी बेटी अनिता बोस एक जर्मन अर्थशास्त्री हैं। वे ऑग्सबर्ग यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर रही और इस समय अपने पति प्रो. मार्टिन फाफ के साथ उनकी जर्मन सोशल डिमोक्रेटिक पार्टी में सक्रिय रहती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

भारत की जवाबी परमाणु नीति के मायने

जी. पार्थसारथी –
भारत की परमाणु प्रति-चेतावनी उपायों की एक खासियत इस पर गोपनीयता बरतने की रही है। यह आवश्यक भी है क्योंकि भारत के परमाणु अस्त्र और मिसाइल कार्यक्रम में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र, मसलन, डीआरडीओ, परमाणु ऊर्जा विभाग, अकादमिक संस्थान और व्यावसायिक संगठनों के वैज्ञानिक एवं इंजीनियरों की प्रतिबद्धता जुड़ी है। भारत के परमाणु कार्यक्रम पर दुनियाभर के विशेषज्ञों की टोही नजर लगातार बने रहना स्वाभाविक है, जैसे कि फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट, यूके, फ्रांस, रूस के संगठन और फिर चीन और पाकिस्तान की खास नजऱ तो रहती ही है।
जहां भारतीय वैज्ञानिक बैलेस्टिक मिसाइल परीक्षणों पर न्यूनतम जानकारी वाले वक्तव्य देते हैं, वहीं अमेरिकी प्रकाशन जैसे कि बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट और मैक्आर्थर फाउंडेशन सरीखे संगठनों की पत्रिकाओं में भारतीय परमाणु अस्त्र और अणु कार्यक्रम के बारे में तफ्सील होती है। यह लेख, अध्ययन सावधानीपूर्वक खोजपरक और सत्यापना युक्त होते हैं। रोचक यह कि उक्त जानकारी भारत में समय-समय पर छपे लेखों से कुछ खास अधिक नहीं होती।
बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट के मुताबिक, भारत के पास 150-200 परमाणु अस्त्रास्त्र बनाने लायक मात्रा का संवर्धित प्लूटोनियम है और तैयार हथियारों का अनुमानित भंडार लगभग 150 है। फिर भारत के पास फास्ट ब्रीडर एवं अन्य प्लूटोनियम रिएक्टरों के बूते परमाणु हथियार ग्रेड परमाणु पदार्थ बढ़ाने की क्षमता भी है। कुख्यात रहे पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक डॉ. एक्यू खान के मुताबिक, पाकिस्तान ने चीन को यूरेनियम संवर्धन की सेंट्रीफ्यूगल तकनीक दी थी, जिसकी जानकारी उन्होंने 1970 और 1980 के दशक में यूरोप में काम करते वक्त चुराई थी। बदले में, चीन ने पाकिस्तान को परमाणु अस्त्रास्त्र लायक स्वदेशी यूरेनियम संवर्धन करने की तकनीक साझा की थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने इस घटनाक्रम को जानबूझकर अनदेखा किया था क्योंकि तब वे 1978 में चीनी नेता देंग शियाओ पिंग की वाशिंगटन यात्रा के दौरान दिखाए दोस्ताना रवैये से अभिभूत हो चुके थे।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस इंस्टिट्यूट (सिपरी) के आकलन के अनुसार, आज की तारीख में चीन के पास कोई 350 परमाणु अस्त्र हैं, पाकिस्तान की संख्या 165 है, तो भारत के पास 156 आणविक मिसाइलें हैं। भारत ने थलीय मिसाइलों के परीक्षणों के अलावा लगभग एक महीने पहले अपनी तीसरी परमाणु पनडुब्बी को सेवारत किया है, जो कि 8 बैलेस्टिक मिसाइलों से लैस है। इससे पहले वाली दो पनडुब्बियों में, प्रत्येक में 4 बैलेस्टिक मिसाइलें तैनात हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि में अब भारत के पास मिसाइलें पाइपनुमा मौसम-रोधी सील युक्त डिब्बों में रखकर एक से दूसरी जगह पहुंचाने की काबिलियत भी है। यह नई सुविधा हाल ही में परीक्षणों से गुजरी है और 5000 किमी. तक मार करने वाली अग्नि-पी और अग्नि-वी समेत तमाम अन्य मिसाइलों के लिए उपयुक्त है। अनेकानेक अध्ययनों में भारत की आणविक मिसाइलें दागने की क्षमता में फ्रांस निर्मित मिराज़-2000 और राफेल विमानों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया है।
चीन ने पाकिस्तान को परमाणु हथियार और कई दूरियों वाली मिसाइलें बनाने का डिज़ाइन दिया है। उसने पाकिस्तान को जो मिसाइलें दी हैं, उनमें कम दूरी (320 किमी.) की गजऩवी से लेकर 2500 किमी. तक मार करने वाली शाहीन-2 और 2780 किलोमीटर रेंज वाली शाहीन-3 शामिल हैं। मजेदार यह कि चीन ने आणविक-अस्त्रों का जो डिज़ाइन पाकिस्तान को दिया है, वह वही है जो एक्यू खान ने लीबिया और इराक जैसे इस्लामिक देशों से भी साझा किया था।
भारत अब तक तीन परमाणु-शक्ति चालित पनडुब्बियां बना चुका है और चौथी अगले साल बेड़े में शामिल होने की उम्मीद है। यह खबर भी है कि भारत में मल्टीपल वार-हैड युक्त मिसाइलें बनाने पर काम चल रहा है। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि 18 दिसंबर, 2021 को भारत ने अग्नि-पी मिसाइल का दूसरा परीक्षण अब्दुल कलाम रेंज नामक एकीकृत परीक्षण स्थल से किया है। इसका पहला टेस्ट जनवरी, 2020 में हुआ था। इससे भारत के लगातार बढ़ते परमाणु पनडुब्बी बेड़े में अग्नि-पी मिसाइलों की तैनाती की संभावना प्रशस्त हो गई है, जिसके पास पहले ही पनडुब्बियों से दागी जाने वाली अग्नि-5 और मल्टीपल वारहैड मिसाइलें हैं।
रिवायती ‘महान हान समुदाय श्रेष्ठता’ से ग्रस्त चीन आगे भी दिखावा करता रहेगा कि उसे भारत के साथ परमाणु अस्त्रों पर कोई संवाद करने में दिलचस्पी नहीं है। इसी बीच भारत पनडुब्बी से दागी जा सकने और 3500 किमी. रेंज वाली के-4 मिसाइल विकसित कर रहा है। यह अंतर-मध्यम दूरी वाली अग्नि-3 का नौसैन्य रूपांतर है। के-4 के अनेक परीक्षण हो चुके हैं लेकिन तैनाती होना बाकी है। जनवरी, 2020 में इसका एक परीक्षण विशाखापट्टनम के तट से लगे समुद्र में जलमग्न पन्टून मंच से दागकर किया गया था। हालांकि डीआरडीओ ने इस टेस्ट की तस्दीक नहीं की थी, लेकिन अधिकारियों को उद्धृत करती मीडिया रिपोर्टों में इसके सफल रहने का दावा था।
हालांकि पाकिस्तान ने कभी औपचारिक रूप से अपने परमाणु अस्त्र उपयोग सिद्धांत का खुलासा नहीं किया है, परंतु न्यूक्लियर कमांड ऑथोरिटी के सामरिक योजना विभाग के लंबे अर्से तक मुखिया रहे ले. जनरल खालिद किदवई ने वर्ष 2002 में इटली के लांडाऊ नेटवर्क के भौतिक वैज्ञानिकों को बताया था कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार ‘केवल भारत को निशाना बनानेÓ हेतु हैं। किदवई ने आगे कहा कि यदि कभी भारत बड़े पाकिस्तानी हिस्से को जीत लेता है या हमारी थल और वायुसेना को भारी नुकसान पहुंचाता है या फिर पाकिस्तान की आर्थिकी का गला घोटे अथवा राजनीतिक रूप से अस्थिर करे, इन सूरतों में भी हम परमाणु हथियार इस्तेमाल करेंगे। वह शख्स, जो एक दशक से ज्यादा समय तक पाकिस्तान के परमाणु हथियार जखीरे का नियंता और बांग्लादेश लड़ाई में 1971-73 के बीच युद्ध-बंदी रहने के अलावा एक व्यावसायिक फौजी हो, उसका यह वक्तव्य पाकिस्तान के परमाणु मंतव्यों की रूपरेखा स्पष्ट करता है। चूंकि भारत का इरादा पाकिस्तान के साथ लंबा युद्ध चलाकर अपने स्रोतों का ह्रास करने का नहीं है और न ही घनी आबादी से पटे शहर कब्जाने की ख्वाहिश है, तथापि पाकिस्तान को मुगालता न रहे कि 26/11 जैसा हमला होने की सूरत में नया भारतीय नेतृत्व, गांधी के अहिंसावादी विचारों का नव-अनुगामी होने के बावजूद, आराम से बैठा रहेगा।
अब यह एकदम साफ है कि दिवालिया हुए पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों का भारी दबाव है, ऐसे में उसको भारत को अस्थिर करने की चाहत में आतंकवादियों की मदद जारी रखने से पहले सोच-विचार करना चाहिए। फिर, वह ड्यूरंड सीमा रेखा को मान्यता न देने वाली पश्तून आकांक्षा को तालिबान का समर्थन मिलने के मद्देनजर दूरंदेशी से काम ले। रोचक है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में कहा है कि बेशक भारत परमाणु हथियार पहले प्रयोग न करने वाली अपनी नीति पर कायम है, वहीं भविष्य में क्या होता है यह हालात पर निर्भर होगा।
देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को चीन और पाकिस्तान से दरपेश दोहरी चुनौतियों का सामना करने के लिए विकसित की गई स्वदेशी मिसाइल एवं परमाणु क्षमता प्राप्त करने में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम एवं उनकी टीम के इंजीनियरों और परमाणु ऊर्जा विभाग के विशिष्ट साइंसदानों का योगदान सदा याद रखना चाहिए। साथ ही निजी क्षेत्र के उन लोगों का भी, जिन्होंने इस राष्ट्रीय प्रयास में गुप्त रूप से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

उनके जाने से सूना हुआ कथक का आंगन

अतुल सिन्हा –
16 जनवरी, 2022 की रात करीब बारह-सवा बारह बजे का वक्त। दिल्ली के अपने घर में पंडित जी अपनी दो पोतियों रागिनी और यशस्विनी के अलावा दो शिष्यों के साथ पुराने फिल्मी गीतों की अंताक्षरी खेल रहे थे। हंसते-मुस्कराते, बात-बात पर चुटकी लेते पंडित जी को अचानक सांस की तकलीफ हुई और कुछ ही देर में वह सबको अलविदा कह गए। आगामी 4 फरवरी को 84 वर्ष के होने वाले थे। बेशक उन्हें कुछ वक्त से किडनी की तकलीफ थी, डायलिसिस पर भी थे, लेकिन उनकी जीवंतता और सकारात्मकता अंतिम वक्त तक बरकरार थी।
पंडित जी में आखिर ऐसा क्या था जो उन्हें सबका एकदम अपना बना देता था? कथक को दुनियाभर में एक खास मुकाम और पहचान दिलाने वाले पंडित जी आखिर कैसे एक संस्था बन गए थे और कैसे उन्हें नई पीढ़ी भी उतना ही प्यार और सम्मान देती थी? इसके पीछे थी उनकी कभी न टूटने वाली उम्मीद। कुछ साल पहले उनके साथ हुई मुलाकात के दौरान ऐसी कई यादगार बातें पंडित जी ने कहीं। वे कहते– कथक और शास्त्रीय नृत्य का भविष्य उज्ज्वल है, इसकी संजीदगी और भाव-भंगिमाएं आपको बांध लेती हैं। नई पीढ़ी को इसकी बारीकी समझ में आ रही है और बड़ी संख्या में देश-विदेश में बच्चे कथक सीख रहे हैं। वह यह भी बताते थे कि कैसे कथक मुगलों के ज़माने से सम्मान पाता रहा, भारतीय नृत्य और संगीत की परंपरा कितनी पुरानी है और कैसे उनके वंशज आसफुद्दौला से लेकर नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में राज नर्तक और गुरु थे। उनके दादा कालिका महाराज और उनके चाचा बिंदादीन महाराज ने मिलकर लखनऊ के कालिका-बिंदादीन घराने की नींव रखी।
बातचीत में अक्सर पंडित जी अपने पिता अच्छन महाराज के अलावा अपने चाचा लच्छू महाराज और शंभु महाराज का जिक्र करते थे। तीन साल के थे तभी पिता अच्छन महाराज ने उनमें ये प्रतिभा देखी और नृत्य सिखाने लगे। नौ साल के होते-होते पिता का साया उठ गया तो चाचा लच्छू महाराज और शंभु महाराज ने उन्हें शिक्षा दी। एक दिलचस्प किस्सा भी पंडित जी ने बताया था कि जिस वार्ड में उनका जन्म हुआ, उसमें उस दिन वे अकेले बालक थे, बाकी लड़कियां। सबने तभी कहा कि कृष्ण-कन्हैया आया है साथ में गोपियां भी आई हैं। ऐसे में नाम रखा गया बृजमोहन, जो बाद में बिरजू हो गया।
अपने जीवन से जुड़े ऐसे कई दिलचस्प किस्से पंडित जी सुनाया करते थे। वह यह भी कहते कि नर्तक सिर्फ नर्तक नहीं होता, उसे सुर की समझ होती है, संगीत उसके रग-रग में होता है। संगीत और नृत्य को कभी अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। इसलिए पंडित बिरजू महाराज बेहतरीन गायक भी थे, शानदार तबलावादक भी थे और तमाम तरह के तार और ताल वाद्य वे बजा लेते थे। अपने घराने की खासियत पंडित जी कुछ इस तरह बताते थे– बिंदादीन महाराज ने करीब डेढ़ हजार ठुमरियां रचीं और गाईं, कथक की इस शैली में ठुमरी गाकर भाव बताना इसी शैली में आपको मिलेगा। तत्कार के टुकड़ों ‘ता थई, तत थई कोÓ भी कई शैलियों और तरीकों से नाच में उतारा जाता है।
कथक के तकनीकी पहलुओं पर आप उनसे घंटों बात कर सकते थे। नृत्य में आंखों का इस्तेमाल, भाव-भंगिमाएं और पैरों की थिरकन और हाथों की मूवमेंट के बारे में उनसे बैठे-बैठे बहुत कुछ समझ सकते थे। एक खास बात और जो वह बार-बार कहते थे कि नृत्य को कभी लड़का या लड़की की सीमा में बांध कर नहीं देखना चाहिए। ये सोच बदलनी चाहिए कि शास्त्रीय नृत्य सिर्फ लड़कियों के लिए है। जिसके अंदर लचक है, सुर की समझ है, संवेदनशीलता है, भाव-भंगिमाएं हैं वह नाच सकता है। शायद इसी लिए पंडित बिरजू महाराज को एक संस्था कहा जाता है।
पंडित जी ने कई नृत्य शैलियां भी विकसित कीं और नए-नए प्रयोग किए। चाहे वह माखन चोरी हो, मालती माधव हो या फिर गोवर्धन लीला। इसी तरह उन्होंने कुमार संभव को भी उतारा और फाग बहार की रचना की।
मात्र तेरह साल के थे तभी दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य सिखाने लगे थे। भारतीय कला केन्द्र से लेकर कथक केन्द्र तक वह लगातार संगीत और नृत्य की शिक्षा देते रहे। 1998 में कथक केन्द्र से रिटायर होने के बाद पंडित जी ने दिल्ली के गुलमोहर पार्क में अपना केन्द्र खोला– कलाश्रम कथक स्कूल। देश-विदेश में पंडित जी ने हजारों प्रस्तुतियां दीं। कोई भी संगीत और नृत्य समारोह पंडित बिरजू महाराज के बगैर खाली खाली-सा लगता था। स्पिक मैके के तमाम आयोजनों में नए बच्चों के बीच अक्सर पंडित जी घुल-मिलकर बातें करते और कथक के बारे में बताते।
पद्मविभूषण से नवाजे जाने से पहले पंडित जी को संगीत नाटक अकादमी सम्मान और कालीदास सम्मान समेत तमाम प्रतिष्ठित मंचों पर सम्मानित किया गया। लेकिन वह हमेशा यही कहते कि हमारा सबसे बड़ा सम्मान लोगों का प्यार है। फिल्म देवदास के मशहूर डांस सीक्वेंस काहे छेड़े मोहे… के बारे में बात करते हुए वह माधुरी दीक्षित को एक बेहतरीन कलाकार बताते थे। वे कहते थे कि माधुरी को इस नृत्य में जो भाव-भंगिमाएं और आंखों की अदा हमने एक-दो दफा बताई और उन्होंने इसे लाजवाब तरीके से कर दिखाया। बाद में उन्होंने दीपिका पादुकोण की फिल्म बाजीराव मस्तानी के मशहूर डांस सीक्वेंस का निर्देशन किया – मोहे रंग दो लाल। शतरंज के खिलाड़ी में भी पंडित जी के दो डांस सीक्वेंस थे। ऐसी फेहरिस्त बहुत लंबी है।
जाहिर है पंडित जी का जाना कथक और भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य परंपरा के लिए एक गहरे सदमे की तरह है। बेशक उनके काम को उनकी अगली पीढिय़ां आगे बढ़ाती रहेंगी और कथक को लेकर उनके भीतर जो जुनून था वह बरकरार रहेगा। लेकिन पंडित जी जैसा भला कोई और कैसे हो सकता है।

विचार शून्य राजनीति की चुनावी नाटकीयता

राजकुमार सिंह –
दशकों तक नीति-सिद्धांत-कार्यक्रम के आवरण में लिपटी रही राजनीति अब पूरी तरह नाटकीय हो गयी है। खासकर चुनाव के समय तो यह नाटकीयता चरम पर होती है। देश की राजनीति को दिशा देते रहे उत्तर प्रदेश के राजनेताओं का यह आलम है कि लगभग पांच साल तक सत्ता-सुख भोग चुकने के बाद ऐन चुनाव से पहले उन्हें अहसास होता है कि वे अपने-अपने वर्गों की सेवा करने के बजाय उनका शोषण करने वाली व्यवस्था का ही हिस्सा बने हुए थे। तीन दिन में योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल से इस्तीफा देनेवाले तीनों मंत्रियों के इस्तीफे की समान भाषा से उनकी समझ के साथ ही मंसूबों पर भी सवाल उठते ही हैं। अपने-अपने जाति-वर्ग के बड़े नेता माने जानेवाले ये तीनों महानुभाव पिछले विधानसभा चुनाव से पहले ही अचानक निष्ठा बदल कर भाजपाई बने थे। जाहिर है, तब भी उन्होंने अपने समुदाय के हित में पाला बदलने का दावा किया था, जैसा कि अब भाजपा को अलविदा कहते समय किया है। वैसे इन सभी ने दावा किया है कि मंत्री पद पर रहते हुए अपने दायित्व का पूरी निष्ठा से निर्वहन किया। ऐसे में यह स्वाभाविक प्रश्न अनुत्तरित है कि अगर पिछड़े, दलित, युवाओं, बेरोजगारों आदि वर्गों की योगी सरकार में निरंतर अनदेखी हुई तो ये महानुभाव किस दायित्व का निर्वहन कर रहे थे, और क्यों? कई दलों की परिक्रमा कर चुके इन महानुभावों से पूछा जाना चाहिए कि नेताजी, आखिर आपकी राजनीति क्या है!
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा और उसके मित्र दलों को अलविदा कह कर मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले विधायक भी खुद को अपने-अपने जाति-वर्गों के हितों के प्रति चिंतित दिखा रहे हैं—बिना इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर दिये कि पांच साल तक वे अपने लोगों के हितों के साथ अन्याय के मूकदर्शक क्यों बने रहे? असहज सवालों से मुंह चुराना हमारी राजनीति की पुरानी फितरत है। फिर भी, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही उत्तर प्रदेश भाजपा में जैसी भगदड़ मची है,उसे सामान्य नहीं माना जा सकता—खासकर तब जबकि केंद्र में भाजपा सरकार का कार्यकाल अभी दो वर्ष से भी ज्यादा शेष है। ऐन चुनाव से पहले दलबदल करनेवाले राजनेताओं के लिए भारतीय राजनीति में एक नया शब्द ईजाद हुआ—चुनावी मौसम विज्ञानी। दिवंगत रामविलास पासवान को इस श्रेणी के राजनेताओं में अगुवा गिना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में अब चुनाव से ठीक पहले दल बदलने वाले नेताओं के लिए भी यही शब्द इस्तेमाल करते हुए सवाल पूछा जा रहा है, क्या यह राज्य के बदलते राजनीतिक मिजाज का संकेत है? शायद शब्द कटु लगें,पर सच यही है कि अब खुद को तमाम जाति-वर्गों का हित चिंतक दर्शा रहे ये नेता दरअसल अपनी-अपनी जातियों के ही नेता हैं और उन्हीं के लिए सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर राजनीति करते हैं। आश्चर्यजनक सच यह भी है कि ये महानुभाव किसी भी सरकार या राजनीतिक दल में रहते हुए अपने वर्ग की हितचिंता में कभी मुखर नजर नहीं आये। वैसे दो दशक से भी ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के स्वयंभू ठेकेदार दलों-नेताओं की सरकारें रहने के बावजूद पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बदहाली की बातें क्या उनके रहनुमाओं को ही कठघरे में खड़ा नहीं करतीं?
स्वामी प्रसाद मौर्य कांशीराम-मायावती की बसपा से राजनीति में आगे बढ़े। बसपा ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री ही नहीं, विपक्ष में आने पर नेता प्रतिपक्ष भी बनाया, पर पिछले चुनाव से पहले वह अचानक भाजपाई हो गये। अगर भाजपा ने उन्हें लिया और फिर सरकार बनने पर कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री भी बनाया तो जाहिर है, उनकी राजनीतिक उपयोगिता ही मुख्य आधार रहा होगा, पर अब जब फिर चुनाव की बारी आयी तो मौर्य अपने समर्थकों सहित समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये। तीन मंत्रियों और आधा दर्जन से भी अधिक विधायकों के भाजपा से इस्तीफे के बाद दावा किया जा रहा है कि यह सिलसिला जारी रहेगा। तब क्या इस कदर मची भगदड़ को वाकई राज्य की राजनीति में किसी बड़े बदलाव की आहट माना जाये? ध्यान रहे कि अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में भी बबुआ की छवि से नहीं उबर पाये सपा प्रमुख अखिलेश न सिर्फ इस बार गठबंधन के लिए छोटे दलों की पहली पसंद हैं, बल्कि उनकी सभाओं में भीड़ भी जुट रही है। राजनीति की सामान्य समझ भी कहती है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति को गहरे तक प्रभावित करने वाले सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं। यह भी कि यह बदलाव भाजपा के लिए नुकसानदेह और सपा के लिए फायदेमंद नजर आ रहा है, लेकिन वर्ष 2017 के विधानसभा तथा 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और सपा के मत प्रतिशत और सीटों में फासला इतना ज्यादा रहा, जिसे हालिया नेताओं के पाला बदल और सीमित जनाधार वाले छोटे दलों से गठबंधन के जरिये मिटा पाना आसान नहीं होगा। फिर इस बीच कांग्रेस न सही, बसपा ने तो अपना मत प्रतिशत बढ़ाया ही होगा, जिसे जीत की संभावना वाली सीटों पर अल्पसंख्यक मतों का साथ भी मिलेगा ही। सभी राजनीतिक दलों-नेताओं की बयानबाजी से साफ है कि विधानसभा चुनाव कमंडल-मंडल के बीच होगा। ऐसे में परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि योगी के कमंडल में से अखिलेश कितना मंडल वापस ले पाते हैं।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए जारी सेंधमारी के साथ ही सीमावर्ती राज्य पंजाब में भी चुनावी राजनीति नित नये रंग बदल रही है। पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से ही अपनी राज्य सरकार के साथ-साथ आलाकमान का भी सिरदर्द बढ़ाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने अब पार्टी चुनाव घोषणापत्र से पहले ही अपना अलग पंजाब मॉडल घोषित करते हुए यह ऐलान भी कर दिया है कि मुख्यमंत्री आलाकमान नहीं, पंजाब के लोग चुनेंगे। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि विधानसभा चुनाव में राज्य के मतदाता अपना-अपना विधायक चुनते हुए मुख्यमंत्री कैसे चुनेंगे? भारतीय राजनीति, खासकर कांग्रेस की रीति-नीति को जानने वाले समझ सकते हैं कि यह सीधे-सीधे पार्टी आलाकमान को चुनौती है कि वह दलित कार्ड के चुनावी लालच में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का चेहरा न घोषित कर दे। कांग्रेस आलाकमान के लिए यह सांप-छछूंदर वाली स्थिति है : ऐन चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष को नाराज करना भी ठीक नहीं और उनकी बेलगाम राजनीति के खतरे भी कम नहीं।
पिछली बार पंजाब के मतदाताओं ने कांग्रेस को जनादेश दिया था और आम आदमी पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। उससे पहले लगातार 10 साल तक, भाजपा के साथ गठबंधन कर, सरकार चलाने वाला शिरोमणि अकाली दल भी इस बार बसपा से गठबंधन कर ताल ठोंक रहा है और भाजपा भी कैप्टन अमरेंद्र सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस एवं सुखदेव सिंह ढींढसा के संयुक्त अकाली दल से गठबंधन कर चुनाव को चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन फिलहाल मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आप के बीच ही नजर आ रहा है। यही नहीं, मुख्यमंत्री चुनने के सवाल पर भी कांग्रेस-आप में अंतर्कलह कमोवेश एक जैसा ही है। जैसे चन्नी का दबाव है कि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुनाव लडऩा कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहता है, वैसे ही आप सांसद भगवंत मान भी दबाव बना रहे हैं कि इस बार तो उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाये। चन्नी के दबाव की काट में ही सिद्धू ने रंग बदलते हुए अब पंजाब के लोगों द्वारा मुख्यमंत्री चुने जाने का दांव चला है तो आप में अंतर्कलह से संभावित नुकसान को न्यूनतम रखने के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा चुनने को अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के लोगों के बीच रायशुमारी का रास्ता निकाला है। प्रयोगवादी कहें या नाटकीय, इस कवायद से दलीय हित पर नेता की निजी राजनीति हावी होती दिख रही है, जिससे चुनावी मुद्दे पार्श्व में चले जायेंगे, जिसे चुनाव प्रक्रिया और लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता। ऐसी चुनावी राजनीति में विचारधारा की तो बात ही अप्रासंगिक लगती है, पर क्या यह भारतीय राजनीति की बड़ी विडंबना नहीं है!

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