यूक्रेन और रूस युद्ध – गुटबंदी की ओर बढ़ती दुनिया

विकाश कुमार –
युद्ध दोनों पक्षों के लिए हानिकारक होते हैं। मानवता के समर्थक कभी भी युद्ध का समर्थन नहीं कर सकते, क्योंकि यह एक ऐसा भयावह आधार होता है जिससे आम जनमानस को पीड़ा की ज्वाला में झोंक दिया जाता है। यह कुछ तथाकथित हढधर्मी नेताओं का वह निर्णय होता है जो हिंसा के समर्थक और मानवता के शत्रु, शांति में विश्वास ना रखने वाले एवं संवाद प्रणाली से दूरी बनाए रखते हैं। प्रत्येक प्रकार की समस्या का हल संवाद प्रणाली से किया जा सकता है, परंतु याद रखने वाली स्थिति यह भी होती है कि संवादात्मक गतिविधियों में मध्यस्थ करने वाले स्तंभों को भी उन मूल्यों में विश्वास होना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की गतिविधियां वर्तमान वैश्विक समुदायों में देखी जा सकती हैं। रूस ने यूक्रेन से जंग का ऐलान कर दिया है उसके प्रमुख सैन्य ठिकानों में बमबारी एवं युद्ध पोतों से हमला करने के साथ-साथ उसके सैनिक यूक्रेन के प्रमुख शहरों में प्रवेश कर चुके हैं। वहां के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने भी हथियार उठा लिए हैं और उन्होंने वैश्विक महाशक्तियों से अपील की है कि ऐसी परिस्थितियों में संभावित सहायता करें। सहायता के लिए प्राय: फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं कनाडा सहित अन्य देश आगे बढ़े हैं। जेलेंस्की के स्वयं हथियार उठा लेने के बाद वहां के आम नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की चेतना और संचार का भाव दोगुना हो गया है। उन्होंने अपने राष्ट्र के रक्षा के लिए मरने और मारने दोनों के लिए तैयार हो गए हैं। उनके इस एक्शन को विश्व में सराहना की जा रही है, परंतु सवाल यह उठता है कि क्या यूक्रेन का जोश बिना हथियारों के रूस के विशाल सैन्य शक्ति के समक्ष कब तक टिक पाएगा? इसी बीच रूस ने यूक्रेन को बातचीत का ऑफर भी दिया ,परंतु जेलेंस्की ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा कि बेलारूस जैसे क्षेत्र से मेरे नागरिकों पर बमबारी और गोले बरसाए गए हैं ,ऐसे क्षेत्र से बातचीत का प्रस्ताव को स्वीकार मैं नहीं करता। दरसल रूस और यूक्रेन के मध्य का विवाद नाटो की सदस्यता को लेकर हो रहा है। नाटो की स्थापना 1949 में अमेरिका के नेतृत्व मी साम्यवादी गतिविधियों को रोकने के लिए किया गया था जिसके वर्तमान समय में 30 देश सदस्य हैं जिनकी संख्या स्थापना के समय 12 थी। यह एक सैन्य संगठन है जिसका नारा है कि यदि किसी भी सदस्य देश पर कोई भी बाहरी शक्ति आक्रमण करती है तब ऐसी स्थिति में वह उसका मुकाबला सामूहिक रूप से करेंगे। इस संगठन के विरुद्ध पूर्व सोवियत संघ ने भी 1955 में वारसा पैक्ट की स्थापना की थी परंतु 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के पश्चात वारसा पैक्ट का भी विघटन हो गया, परंतु नाटो अभी तक अस्तित्व में हैं। सोवियत संघ से विघटित अधिकतम देशों ने नाटो की सदस्यता ग्रहण कर ली है, यूक्रेन भी नाटो की सदस्यता ग्रहण करना चाहता था ,जिसका रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने विरोध किया। उन्होंने तो नोटों से यह भी कहा कि 1997 के पश्चात जितने देशों ने नाटो संगठन की सदस्यता ग्रहण की है उनकी सदस्यता को रद्द किया जाए, यूक्रेन ने नाटो के सदस्यता क प्रस्ताव जैसे ही प्रस्तावित किया वैसे ही व्लादीमीर पुतिन ने अपनी सेनाओं को यूक्रेन के सीमाओं में तैनात कर दिया। यूक्रेन फिर भी नहीं झुका और उसने भी अपने अस्तित्व बचाने के लिए एक विशाल सेना से युद्ध करने की ठान ली। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जब यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता ग्रहण करने के प्रस्ताव की पेशकश की थी तब ऐसे संकट में नाटो संगठन की सदस्य देश प्रत्यक्ष रूप से उसकी सहायता के लिए आगे क्यों नहीं आए ? नाटो संगठन के चार्टर 5 के अनुसार केवल सदस्य देशों के आक्रमण पर ही कार्यवाही की जा सकती है, परंतु चार्टर 4 के तहत कार्यवाही की जा सकती थी। ऐसी स्थिति में उन्होंने किसी भी प्रकार की कार्यवाही क्यों नहीं की ? क्या उनको रूस का डर था ? क्या विवाद से दूर रहना चाहते थे ? क्या जानबूझकर समस्या को बढ़ाना चाहते थे? यदि नहीं तब ऐसी स्थिति में सभी सदस्यों को मिलकर यूक्रेन की सहायता करनी चाहिए। केवल आर्थिक प्रतिबंध लगा देने से और अपने देश में राजनैतिक आवागमन के प्रतिबंध कर देने से किसी भी देश का सैन्य साहस नहीं टूटता । हां यह जरूर कहा जा सकता है कि यदि युद्ध अधिक समय तक तक चला तोर उसको भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। कभी शाम में वहां का हिस्सा रहे यूक्रेन ने जब नाटो की सदस्यता का प्रस्ताव आगे बढ़ाया तब ऐसी स्थिति में अमेरिका सहित अन्य देशों को सैन्य सहायता अवश्य देनी चाहिए थी। प्रारंभ में यदि यह सभी देश यूक्रेन को विभिन्न प्रकार के आश्वासन ना दिए होते तो शायद आज यह स्थिति नहीं बनती। दरअसल इस युद्ध में विश्व के प्रमुख देश अपने गुट बंदियों की ओर बढ़ रहे हैं ,क्योंकि चीन जैसे देश सदैव रूस के समर्थन में ही रहेंगे। इधर भारत ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में निंदा प्रस्ताव पर वोटिंग ना करके अपने आप को इससे दूर ही रखा है। उधर अमेरिका जैसे अन्य देश केवल अपील करते दिख रहे हैं विशेष एक्शन नहीं ले पा रहे हैं। छोटे देशों ने काफी कुछ हद तक सहायता पहुंचाई है परंतु वह यूक्रेन के लिए पर्याप्त नहीं होगी। रूस के पास एक विशाल सेन सकती है जो आधुनिक हथियारों से सुसज्जित है, जवाबी कार्यवाही के लिए चाहिए कि उसके पास भी ऐसे ही हथियार, युद्धपोत, मिसाइलें एवं राइफल्स हों जो रूस के अधिक प्रभावशाली हों। अभी तक इस प्रकार की सैन्य सामग्री की पेशकश किसी देश ने यूक्रेन के लिए नहीं किया है। परिस्थितियों में भी गुट बंदियों को आधार बनाया जा रहा है। अमेरिका की यह धारणा जरूर रही होगी कि यदि वह रूस के विरुद्ध सैन्य आक्रमण करता है तब ऐसी स्थिति में चीन भी एक्शन लेने से पीछे नहीं हटेगा और यह बात सर्व विदित है कि अमेरिका ने जहां पर भी हस्तक्षेप किया है उन देशों में सफल लोकतांत्रिक शासन स्थापित नहीं हो सका है। उसने सैन्य सहायता लेने की जगह जेलेंस्की को यह प्रस्ताव दिया कि वह चाहे तो विमान में बैठकर अमेरिका आ सकते हैं। शायद ऐसा ही प्रस्ताव अशरफ गनी को भी दिया होगा। इन सभी प्रकार के प्रभावहीन प्रस्तावों के बीच यूक्रेन अकेला दिख रहा है, परंतु इतने बड़े देश से सेंड संघर्ष लगातार जारी रखना साहस और अपने राष्ट्रप्रेम के प्रति समर्पण और बलिदान का भाव दिखाता है। युद्ध विराम जल्द से जल्द ही होना चाहिए, क्योंकि अधिक समय तक युद्ध चलने से आम नागरिकों की हत्याएं और कत्लेआम अधिक हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि यह क्षति और रूस और यूक्रेन दोनों को ही उठानी पड़ सकती है। अभी तक के जानकारी के मुताबिक 200 से अधिक यूक्रेन के नागरिकों कि इस युद्ध में मौत हो चुकी है। देश में भय का वातावरण व्याप्त है। ऐसे में मध्यम मार्ग निकालकर व्लादीमीर पुतिन को अपनी हठधर्मिता छोड़कर युद्ध विराम की घोषणा करनी चाहिए। इससे ही मानवता की रक्षा हो सकेगी। दोनों देशों को चाहिए की एक वार्ता करके संवाद शैली के माध्यम से आपसी विवादों को सुलझाएं ,क्योंकि युद्धों से आम नागरिकों की हत्याएं होती हैं।
(लेखक स्कॉलर केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक एवं राजनीति विज्ञान विषय में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)

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