कमाल ख़ान के नहीं होने का अर्थ

मैं पूछता हूँ तुझसे , बोल माँ वसुंधरे ,
तू अनमोल रत्न लीलती है किसलिए ?

राजेश बादल –
कमाल ख़ान अब नहीं है। भरोसा नहीं होता। दुनिया से जाने का भी एक तरीक़ा होता है। यह तो बिल्कुल भी नहीं। जब से ख़बर मिली है ,तब से उसका शालीन ,मुस्कुराता और पारदर्शी चेहरा आँखों के सामने से नहीं हट रहा। कैसे स्वीकार करूँ कि पैंतीस बरस पुराना रिश्ता टूट चुका है। रूचि ने इस हादसे को कैसे बर्दाश्त किया होगा ,जब हम लोग ही सदमे से उबर नहीं पा रहे हैं।यह सोच कर ही दिल बैठा जा रहा है।मुझसे तीन बरस छोटे थे ,लेकिन सरोकारों के नज़रिए से बहुत ऊँचे ।
पहली मुलाक़ात कमाल के नाम से हुई थी,जब रूचि ने जयपुर नवभारत टाइम्स में मेरे मातहत बतौर प्रशिक्षु पत्रकार ज्वाइन किया था। शायद 1988 का साल था । मैं वहाँ मुख्य उप संपादक था। अँगरेज़ी की कोई भी कॉपी दो,रूचि की कलम से फटाफट अनुवाद की हुई साफ़ सुथरी कॉपी मिलती थी। मगर,कभी कभी वह बेहद परेशान दिखती थी। टीम का कोई सदस्य तनाव में हो तो यह टीम लीडर की नजऱ से छुप नहीं सकता। कुछ दिन तक वह बेहद व्यथित दिखाई दे रही थी। एक दिन मुझसे नहीं रहा गया। मैने पूछा,उसने टाल दिया। मैं पूछता रहा,वह टालती रही।एक दिन लंच के दरम्यान मैंने उससे तनिक क्षुब्ध होकर कहा , रूचि ! मेरी टीम का कोई सदस्य लगातार किसी उलझन में रहे ,यह ठीक नहीं।उससे काम पर उल्टा असर पड़ता है।उस दिन उसने पहली बार कमाल का नाम लिया।कमाल नवभारत टाइम्स लखनऊ में थे।दोनों विवाह करना चाहते थे। कुछ बाधाएँ थीं । उनके चलते भविष्य की आशंकाएँ रूचि को मथती रही होंगीं । एक और उलझन थी । मैनें अपनी ओर से उस समस्या के हल में थोड़ी सहायता भी की । वक़्त गुजऱता रहा। रूचि भी कमाल की थी।कभी अचानक बेहद खुश तो कभी गुमसुम। मेरे लिए वह छोटी बहन जैसी थी।पहली बार उसी ने कमाल से मिलवाया।मैं उसकी पसंद की तारीफ़ किए बिना नहीं रह सका।मैने कहा, तुम दोनों के साथ हूँ।अकेला मत समझना।फिर मेरा जयपुर छूट गया। कुछ समय बाद दोनों ने ब्याह रचा लिया।अक्सर रूचि और कमाल से फ़ोन पर बात हो जाती थी। दोनों बहुत ख़ुश थे।
इसी बीच विनोद दुआ का दूरदर्शन के साथ साप्ताहिक न्यूज़ पत्रिका परख प्रारंभ करने का अनुबंध हुआ।यह देश की पहली टीवी समाचार पत्रिका थी। हम लोग टीम बना रहे थे।कुछ समय वरिष्ठ पत्रकार दीपक गिडवानी ने परख के लिए उत्तरप्रदेश से काम किया।अयोध्या में बाबरी प्रसंग के समय दीपक ही वहाँ थे। कुछ एपिसोड प्रसारित हुए थे कि दीपक का कोई दूसरा स्थाई अनुबंध हो गया और हम लोग उत्तर प्रदेश से नए संवाददाता को खोजने लगे। विनोद दुआ ने यह जि़म्मेदारी मुझे सौंपी । मुझे रूचि की याद आई। मैनें उसे फ़ोन किया।उसने कमाल से बात की और कमाल ने मुझसे।संभवतया तब तक कमाल ने एनडीटीवी के संग रिश्ता बना लिया था।चूँकि परख साप्ताहिक कार्यक्रम था इसलिए रूचि गृहस्थी संभालते हुए भी रिपोर्टिंग कर सकती थी।कमाल ने भी उसे भरपूर सहयोग दिया।यह अदभुत युगल था ।दोनों के बीच केमिस्ट्री भी कमाल की थी।बाद में जब उसने इंडिया टीवी ज्वाइन किया तो कभी कभी फ़ोन पर दोनों से दिलचस्प वार्तालाप हुआ करता था।एक ही ख़बर के लिए दोनों संग संग जा रहे हैं।टीवी पत्रकारिता में शायद यह पहली जोड़ी थी जो साथ साथ रिपोर्टिंग करती थी।जब भी लखनऊ जाना हुआ,कमाल के घर से बिना भोजन किए नहीं लौटा।दोनों ने अपने घर की सजावट बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से की थी। दोनों की रुचियाँ भी कमाल की थीं.एक जैसी पसंद वाली ऐसी कोई दूसरी जोड़ी मैंने नहीं देखी।जब मैं आज तक चैनल का सेन्ट्रल इंडिया का संपादक था,तो अक्सर उत्तर प्रदेश या अन्य प्रदेशों में चुनाव की रिपोर्टिंग के दौरान उनसे मुलाक़ात हो जाती थी।कमाल की तरह विनम्र,शालीन और पढऩे लिखने वाला पत्रकार आजकल देखने को नहीं मिलता।कमाल की भाषा भी कमाल की थी। वाणी से शब्द फूल की तरह झरते थे।इसका अर्थ यह नहीं था कि वह राजनीतिक रिपोर्टिंग में नरमी बरतता था। उसकी शैली में उसके नाम का असर था। वह मुलायम लफ्ज़़ों की सख़्ती को अपने विशिष्ट अंदाज़ में परोसता था। सुनने देखने वाले के सीधे दिल में उतर जाती थी।आज़ादी से पहले पद्य पत्रकारिता हमारे देशभक्तों ने की थी ।लेकिन,आज़ादी के बाद पद्य पत्रकारिता के इतिहास पर जब भी लिखा जाएगा तो उसमें कमाल भी एक नाम होगा। किसी भी गंभीर मसले का निचोड़ एक शेर या कविता में कह देना उसके बाएं हाथ का काम था । कभी कभी आधी रात को उसका फ़ोन किसी शेर, शायर या कविता के बारे में कुछ जानने के लिए आ जाता ।फिर अदबी चर्चा शुरू हो जाती। यह कमाल की बात थी कि कि रूचि ने मुझे कमाल से मिलवाया ,लेकिन बाद में रूचि से कम,कमाल से अधिक संवाद होने लगा था।
कमाल के व्यक्तित्व में एक ख़ास बात और थी। जब परदे पर प्रकट होता तो सौ फ़ीसदी ईमानदारी और पवित्रता के साथ। हमारे पेशे से सूफ़ी परंपरा का कोई रिश्ता नहीं है ,लेकिन कमाल पत्रकारिता में सूफ़ी संत होने का सुबूत था। वह राम की बात करे या रहीम की ,अयोध्या की बात करे या मक्क़ा की ,कभी किसी को ऐतराज़ नहीं हुआ।वह हमारे सम्प्रदाय का कबीर था।
सच कमाल ! तुम बहुत याद आओगे। आजकल पत्रकारिता में जिस तरह के कठोर दबाव आ रहे हैं ,उनको तुम्हारा मासूम रुई के फ़ाहे जैसा नरम दिल शायद नहीं सह पाया।पेशे के ये दबाव तीस बरस से हम देखते आ रहे हैं। दिनों दिन यह बड़ी क्रूरता के साथ विकराल होते जा रहे हैं । छप्पन साल की उमर में सदी के संपादक राजेंद्र माथुर चले गए। उनचास की उमर में टीवी पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह याने एस पी चले गए। असमय अप्पन को जाते देखा,अजय चौधरी को जाते देखा ।दोनों उम्र में मुझसे कम थे । साठ पार करते करते कमाल ने भी विदाई ले ली।अब हम लोग भी कतार में हैं।क्या करें ? मनहूस घडिय़ों में अपनों का जाना देख रहे हैं ।

याद रखना दोस्त।

जब ऊपर आएँ तो पहचान लेना।

कुछ उम्दा शेर लेकर आऊंगा ।

कुछ सुनूंगा ,कुछ सुनाऊंगा ।

महफि़ल जमेगी ।

अलविदा कमाल !

हम सबकी ओर से श्रद्धांजलि।

खेल से इतर विवादों के बीच जोकोविच

अरुण नैथानी  –
यह परिस्थितियों का खेल है कि दुनिया के नंबर एक टेनिस खिलाड़ी सर्बिया के नोवाक जोकोविच खेल से अलग कारणों से सुर्खियों में हैं। दरअसल, जोकोविच को आस्ट्रेलिया में प्रवेश करने से रोक दिया गया। हालिया विवाद खेल से जुड़ा नहीं है। जोकोविच कोरोना वैक्सीन लगाने के पक्षधर नहीं रहे हैं। एक सर्बिया डॉक्टर के पुत्र नोवाक की मान्यता रही है कि वैक्सीन लगाना, न लगाना व्यक्ति का निजी मामला है। लेकिन वैक्सीन को लेकर सोच के चलते उनकी आस्ट्रेलिया सरकार से ठन गई और हवाई अड्डे पर पहुंचते ही उनका वीजा रद्द कर दिया गया। उन्हें होटल में बने डिटेंशन सेंटर में ठहरा दिया गया, जिसके चलते आस्ट्रेलिया व विदेश में टेनिस व जोकोविच के समर्थकों की तल्ख प्रतिक्रिया सामने आई। यहां तक कि आस्ट्रेलिया की केंद्र सरकार व विक्टोरिया राज्य सरकार इस मुद्दे पर आमने-सामने आ गई। दरअसल, विक्टोरिया प्रांत की सरकार आस्ट्रेलिया ओपन टूर्नामेंट का आयोजन कराती है। नोवाक जोकविच ने वर्ष 2021 समेत नौ बार आस्ट्रेलिया ओपन टूर्नामेंट जीता है।
अब सर्बिया सरकार के तल्ख विरोध और खेल जगत की तीखी प्रतिक्रिया के बाद लगता है कि जोकोविच आगामी 17 जनवरी से आरंभ होने वाले वर्ष के पहले ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट में अपना दमखम दिखा सकेंगे। इससे पहले आस्ट्रेलिया में प्रवेश पर रोक लगाने के आस्ट्रेलियाई प्राधिकरण के फैसले के खिलाफ जोकोविच कोर्ट गये थे। वकीलों की बहस के बाद अदालत ने वीजा रद्द करने के फैसले को खारिज कर दिया। इसके मायने यह हैं कि जोकोविच का वीजा वैध है और वे साल के पहले ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट में भाग ले सकते हैं।
वास्तव में दुनिया के नंबर वन टेनिस खिलाड़ी चौंतीस वर्षीय नोवाक जोकोविच कोरोना संक्रमण की शुरुआत से ही वैक्सीन लगाने के पक्षधर नहीं रहे हैं। उन्होंने यह कभी स्पष्ट भी नहीं किया है कि उन्होंने वैक्सीन लगाई है। वर्ष 2020 में जब कोरोना संक्रमण बढ़ रहा था तब उन्होंने कहा था कि वे टीके लगाने का विरोध करते हैं। हालांकि, तब कोरोना का टीका नहीं आया था। उनकी धारणा थी कि व्यक्ति के शरीर के लिये अच्छा-बुरा क्या है, यह तय करना व्यक्ति का नितांत निजी मामला है। उनका मानना था कि यात्रा व किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिये टीका लगाने हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही उनका यह भी कथन था कि वे अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं और उन उपायों पर ध्यान देते हैं जो हमें कोरोना संक्रमण से बचाने में सहायक होते हैं। हालांकि, उनके देश सर्बिया में महामारी विशेषज्ञों का कथन था कि उनकी सोच अवैज्ञानिक है और लोगों के मन में वैक्सीन को लेकर संदेह पैदा करती है। वहीं जोकोविच की दलील थी कि सकारात्मक सोच हमारे स्वास्थ्य को बेहतर करती है, जैसे पानी के अणु हमारी भावनाओं के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं। हालांकि, जोकोविच ने कभी वैक्सीन का पुरजोर विरोध नहीं किया, लेकिन वैक्सीन विरोधी उन्हें अपना आइकन मानने लगे हैं। वे जोकोविच का वीजा रद्द करने पर खुलकर उनके समर्थन में आ खड़े हुए हैं। वहीं आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन कहते हैं कि कोई व्यक्ति चाहे कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, वह कानून से ऊपर नहीं हो सकता। दरअसल, इस मुद्दे पर राजनीति भी हो रही है क्योंकि कोरोना के मामले में सरकार की नीति को लेकर आलोचना होती रही है। फिर आस्ट्रेलिया में अगले साल चुनाव भी होने हैं। संघीय सरकार चाहती है कि प्रत्येक व्यक्ति कोरोना नियमों का पालन करे। वहीं आस्ट्रेलिया ओपन टूर्नामेंट का आयोजन करने वाली टेनिस ऑस्ट्रेलिया चाहती है कि अंतर्राष्ट्रीय खिलाडिय़ों को स्वस्थ रहने पर छूट दी जाये क्योंकि यह आयोजन देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा सवाल है। आस्ट्रेलिया सरकार की सख्ती को लेकर जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल जगत में आलोचना होती रही है, वहीं आस्ट्रेलिया में भी टेनिस प्रेमियों का बड़ा वर्ग जोकोविच के समर्थन में उतरा।
बहरहाल, कोर्ट के आदेश के बाद जोकोविच प्रवासी हिरासत केंद्र से बाहर आ चुके हैं। लोग मान रहे हैं कि संघीय सरकार व विक्टोरिया प्रांत की सरकार की अलग-अलग राय होने से हुई खींचतान के चलते लोगों में अविश्वास की भावना पैदा हुई है। जहां वैक्सीन विरोधी इस जीत को मनोबल बढ़ाने वाली बता रहे हैं, वहीं आम आस्ट्रेलियाई लोग मानते हैं कि खास लोगों को वैक्सीन से छूट दिया जाना गलत है। दरअसल, आस्ट्रेलिया में भी नये कोरोना वेरिएंट का खासा प्रभाव है और संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं।
इसी बीच जोकोविच के प्रबंधकों ने दावा किया है कि उन्हें चिकित्सा छूट के आधार पर आस्ट्रेलिया आने की अनुमति दी गई थी। अदालत में प्रस्तुत दस्तावेजों में कहा गया कि इस यात्रा से पूर्व टेनिस आस्ट्रेलिया के दो पैनलों ने नोवाक जोकोविच को वैक्सीन लगाने में छूट दी थी। दरअसल, यह ही संस्थान आस्ट्रेलिया व विक्टोरिया में टेनिस टूर्नामेंटों का आयोजन करता है। बहरहाल, 17 जनवरी से शुरू होने वाले आस्ट्रेलिया ओपन टूर्नामेंट में भाग लेने से जोकोविच को रोकने के बाद उन्हें व्यापक सहानुभूति भी मिली है। कुछ लोग मानते हैं कि उनके साथ उनकी प्रतिष्ठा के विपरीत व्यवहार किया गया। यहां तक कि कई मानवाधिकार संगठन भी उनके समर्थन में खड़े नजर आये। जोकोविच के देश सर्बिया में इस फैसले का तीखा विरोध हुआ। यहां तक कि सर्बिया के राष्ट्रपति एलेक्जेंडर वुचिच ने नोवाक को उत्पीडि़त बताया। लोगों का मानना है कि नौ बार टूर्नामेंट जीत चुके जोकोविच के साथ कम से कम ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था।

अवांछित एप्लीकेशंस पर कानून से अंकुश

पवन दुग्गल –
‘बुल्ली बाई’ एप मामले में मोबाइल फोन पर उपलब्ध होने वाली सामग्री में न केवल महिलाओं बल्कि समुदाय विशेष को निशाना बनाकर पेश करने वाली करतूतों ने यथेष्ट लगाम लगाने की जरूरत को पुन: रेखांकित किया है। इंटरनेट ने किसी दुनिया के एक हिस्से में बैठे रहकर दूसरे छोर के इंसानों तक पहुंच करने या किसी को निशाना बनाने की जुर्रत करने की सहूलियत इलेक्ट्रॉनिक सामग्री और मोबाइल एप्लीकेशंस के जरिए बना दी है।
मोबाइल एप्लीकेशंस आज के समय की जरूरत बन गई हैं, लगभग हर कोई इन पर निर्भर है। नित दिन नई-नई एप्लीकेशंस आती हैं, इस तथ्य से इंकार नहीं है कि इनका असर न केवल व्यक्ति की जिंदगी बल्कि उसकी सोच, व्यवहार या नजरिए पर भी काफी हो गया है। इसीलिए मोबाइल एप्लीकेशन बनाने वाले, किस क्षेत्र में मांग हो सकती है, इस पर लगातार नजऱ रखते हैं। ‘बुल्ली बाई’ एप मध्ययुगीन मानसिकता का एक जाहिर रूप है- जब महिलाओं को बतौर निजी वस्तु की तरह खरीदा-बेचा जाता था।
आज, यह कहना कि ऑनलाइन नीलामी के जरिये कोई महिला एक वस्तु की भांति उपलब्ध है, वह विचार है जो आधुनिक सभ्यता के मूल्यों के नितांत खिलाफ है। हालांकि, तथ्य यह है कि इस तरह की सामग्री अभी भी किसी न किसी आनलाइन प्लेटफॉर्म पर होगी। गौर करने लायक सवाल यह है कि भारत का कानून इस बाबत कहां खड़ा है? फिलहाल भारत के पास विशेष तौर पर मोबाइल एप्लीकेशंस को लेकर नीति नहीं है। भारत ने अमेरिका के राज्य कैलिफोर्निया से भी नहीं सीखा, जिसके पास इस विषय पर विस्तृत दिशा-निर्देश वाली नीति है कि एप्लीकेशन निर्माता किन जरूरी नियमों का पालन करके अपना एप बनाएं।
साइबर कानून के नाम पर भारत के पास ले-देकर इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कानून-2000 है, जो इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से संबंधित हर दिशा-निर्देश की जननी है। वर्ष 2000 में जब यह कानून बना था तब मोबाइल फोन इसके अंतर्गत नहीं आते थे। लेकिन आईएटी (संशोधन) एक्ट 2008 में मोबाइल फोन समेत सभी प्रकार के संचार उपकरणों को इस कानून के दायरे में लाया गया। हालांकि, इस आईटी कानून के प्रावधानों को भी गहराई से पढ़ें, तो इसमें अभी भी मोबाइल एप्लीकेशंस संबंधित कोई स्पष्ट नियम नहीं है। साफ है, कानून के अनुसार, एप्लीकेशंस बनाने वाले सभी निर्माता या तमाम एप्लीकेशन स्टोर, जहां सब एप्लीकेशंस उपलब्ध होती हैं, उन्हें इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाले सेवा-बिचौलिए की तरह लिया जाता है। इसमें आगे, यह वह वैध इकाइयां हैं जो अन्य लोगों के निमित्त, विशेष इलेक्ट्रॉनिक रिकार्ड को प्राप्त-भण्डारण-संप्रेषित कर सकते हैं। हालांकि, सरकार के पास आईटी एक्ट के अनुच्छेद 87 में सेवा-बिचौलियों से यथेष्ट सावधानी बरतवाने संबंधी अनेक मापदंड लागू करवाने की शक्ति है, किंतु मोबाइल एप्लीकेशंस के संदर्भ में आज तक इसका इस्तेमाल नहीं हुआ। दरअसल, अब इस देश में तमाम सेवा-बिचौलियों को, यदि संबंधित कानूनन जिम्मेवारी में संवैधानिक छूट चाहिए, तो उन्हें केवल अनुच्छेद 79 के प्रावधानों के तहत अपने फर्ज को अंजाम देते समय यथेष्ट सावधानी रखना अनिवार्य है।
जहां केंद्र सरकार ने सेवा-बिचौलियों के लिए माकूल सावधानी बरतने संबंधी नियम-कानून बनाए हैं, वहीं मोबाइल एप्लीकेशंस और इनको होस्ट करने वाले एप्लीकेशन प्लेटफॉर्म्स के व्यवहार संबंधी अलग से नियम बनाने के बारे में विचार नहीं किया गया।
यहां तक कि इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटर मीडिएट्री गाइड लाइंस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) रूल्स-2021 में भी मोबाइल एप्लीकेशंस के लिए अलग से दिशा-निर्देश नहीं हैं। अब तक हमने यही देखा है कि किसी अवांछित एप्लीकेशंस पर केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया यही होती है कि आईटी एक्ट 69-ए के तहत प्राप्त शक्ति का प्रयोग कर उसको ब्लॉक करवा दे। नतीजतन, पिछले सालों के दौरान सरकार ने कई मोबाइल एप्लीकेशंस को प्रतिबंधित किया है। हाल ही में कई चीनी एप्लीकेशंस को भारतीय डिजिटल अधिकार क्षेत्र में ब्लॉक किया गया है। लेकिन यह उपाय कभी भी जादुई गोली सिद्ध नहीं हुए, क्योंकि जैसे ही आपने इन्हें ब्लॉक किया वहीं उत्सुकतावश लोग इनकी ओर खिंचते हैं, परिणामस्वरूप इन प्रतिबंधित मोबाइल एप्लीकेशंस की ओर इंटरनेट ट्रैफिक और अधिक मुड़ जाता है। इसीलिए आपस में जुड़े मौजूदा विश्व में ऐसे प्रतिबंध कभी भी पूर्णरूपेण नहीं हो सकते। आप किसी एप्लीकेशन को भारतीय अधिकार क्षेत्र में ब्लॉक कर भी दें, फिर भी भारत के उपभोक्ताओं की इन तक पहुंच वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क के जरिए बरकरार रहती है। इसलिए इस किस्म की किसी मोबाइल सामग्री को प्रतिबंधित करने की बजाय मुल्कों को अवांछित सामग्री से निपटने को नूतन तरीका अपनाना पड़ेगा। भारत के संदर्भ में, देश के अधिकार क्षेत्र में मोबाइल एप्लीकेशंस पर नियंत्रण करने को एक अच्छा उपाय है, एक विस्तृत कानूनी ढांचा बनाना, साथ ही न्यूनतम मानदंड निर्धारण करना, जिनका पालन करना-करवाना प्रत्येक मोबाइल एप्लीकेशन निर्माता और इनको अपने प्लेटफॉर्म पर जगह देने वालों के लिए अनिवार्य हो।
उम्मीद है ‘बुल्ली बाई’ और अन्य मामले सरकार को मोबाइल एप्लीकेशंस पर उपलब्ध सामग्री पर अंकुश रखने के लिए एक अलग से नया कानून बनाने के लिए उत्प्रेरित करेंगे। आगे, आम उपभोक्ताओं की समझ एवं जागृति का स्तर बढ़ाने को सरकार प्रचार अभियान चलाए ताकि वे अवांछित मोबाइल एप्लीकेशंस पर आने वाली सामग्री से बहकने न पाएं।
तकनीक और कानून के बीच सदा ही प्रतिस्पर्धा रही है और तकनीक अक्सर कानून से दस कदम आगे रहती है। इसलिए, अब जबकि मोबाइल तकनीक और एप्लीकेशंस ने अच्छी-खासी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है, तो ऐसे यथेष्ट कदम उठाना भी लाजिमी हो जाता है, जिससे कि अवांछित एप्लीकेशंस द्वारा पेश मौजूदा चुनौतियों से निपटने को भारतीय कानून के ढांचे में सुधार हो। इस किस्म की राह अपनाकर देश को एप्लीकेशंस और मोबाइल के अन्य उपयोगों से प्राप्त अवांछित सामग्री की संभावित उपलब्धता से बचाया जा सकता है।
(लेखक साइबर कानून विशेषज्ञ हैं)

यह भारत के सामर्थ्य की जीत की कहानी है

डॉ. मनोहर अगनानी –
एक साल, 156 करोड़ वैक्सीनेशन! यानि कि हर दिन औसतन 42 लाख से ज़्यादा टीके। यह आलेख टीम हैल्थ इंडिया की इस असाधारण उपलब्धि की बेमिसाल यात्रा की कहानी, देशवासियों के साथ साझा करने की एक कोशिश है।
हम सभी जानते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े कोविड टीकाकरण अभियान की तैयारी करते समय कुछ बुद्धिजीवियों और विषय विशेषज्ञों ने अनेक तरह की शंकाएं अपने व्यक्तिगत अनुभवों, तथ्यों और तर्कों के आधार पर ज़ाहिर की थीं। मसलन-
* अव्वल तो देश की ज़रुरत के मुताबिक वैक्सीन उपलब्ध ही नहीं हो पाएगा। और अगर हो भी गया तो हमारे देश में इतनी अधिक मात्रा में वैक्सीन को सुरक्षित रखने की स्टोरेज क्षमता भी नहीं है।
*इस क्षमता को विकसित करने में तो बहुत समय लग जाएगा।
* वैक्सीन की स्टोरेज हो भी गई तो परिवहन की व्यवस्था और ट्रेन्ड मैन-पॉवर कहाँ है।
* इतनी विशाल जनसंख्या के टीकाकरण के लिए ट्रेन्ड मैन-पॉवर तैयार करने में कितना समय लगेगा, इसका कोई अंदाज़ा ही नहीं है।
* पूरी जनसंख्या को कवर करने में अनेकों साल लग जाएंगे।
* अब तक हमने कभी भी वयस्क आबादी को टीका नहीं लगाया है। राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के अंतर्गत हमने सिफऱ् छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण किया है, जो कि देश की आबादी का बहुत छोटा हिस्सा ही है।
* किस बच्चे को कौन सा टीका लगा? कब लगा? इसका नामवर डिजिटल रिकॉर्ड रखने की तो हमने शुरुआत भी नहीं की है।
* जनमानस की कोविड टीके से सम्बंधित शंकाओं का समाधान कैसे होगा? वैक्सीन हैज़ीटेंसी कैसे एड्रेस करेंगे?
* दूरदराज़ के क्षेत्रों में वैक्सीन समय पर और सुरक्षित कैसे पहुंचेगा? उनको टीका कौन लगाएगा? आदि-आदि !
इन सभी आलोचनाओं और अविश्वास के माहौल के बीच टीम हैल्थ इंडिया ने एक सुव्यवस्थित रणनीति और आत्मविश्वास के साथ एकजुट होकर काम करना शुरू कर दिया। इस आत्मविश्वास की पृष्ठभूमि में था-
* हमारा राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम (यू.आई.पी.) को चलाने का वर्षों का अनुभव।
* पल्स पोलियो अभियान के तहत सीमित समय में लगभग 10 करोड़ छोटे बच्चों को पोलियो की 2 बूँद पिलाने का 25 वर्षों से अधिक का तजुर्बा।
* पंद्रह साल तक के 35 करोड़ से ज़्यादा बच्चों को मीसल्स एवं रूबेला वैक्सीन लगा पाने की क्षमता।
* 29,000 से अधिक कोल्ड चेन पॉइंट्स पर वैक्सीन स्टोरेज कर दूर दराज़ के क्षेत्रों में नियमित रूप से वैक्सीन पहुंचाने का अनुभव।
* मानकों के अनुरूप वैक्सीन के रखरखाव एवं वितरण की मॉनिटरिंग करने वाली भारतीय प्रणाली ई-विन (इलेक्ट्रॉनिक वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क) का सफल क्रियान्वयन,
* छूटे हुए बच्चों एवं गर्भवती महिलाओं को केन्द्रित कर टीकाकरण करने की मिशन इन्द्रधनुष रुपी सटीक रणनीति को क्रियान्वित करने का अनुभव। और,
इस आत्मविश्वास का सबसे महत्वपूर्ण सबब बना- हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री जी का देश के नागरिकों की छुपी हुई क्षमताओं और योग्यताओं पर अटूट विश्वास, जिसने शुरुआत से ही एक नैतिक संबल प्रदान करने का काम किया।
इस पृष्ठभूमि के साथ टीम हैल्थ इंडिया ने सबसे पहले बुद्धिजीवियों एवं विषय विशेषज्ञों द्वारा ज़ाहिर की गई अपेक्षाओं एवं शंकाओं को व्यवस्थित रूप से समाधान करने की रणनीति पर ध्यान केन्द्रित किया। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय, राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के स्वास्थ्य विभाग, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों आदि सभी ने मिलकर ना सिफऱ् लगातार हुई मैराथन बैठकों में भाग लिया, हर विषय पर गहन चिंतन और विचार विमर्श किया बल्कि इन चिंतन बैठकों के निष्कर्षों को विभिन्न स्ट्रेटेजीज़ एवं गाइडलाइन्स का स्वरुप भी प्रदान किया।
आज से ठीक एक साल पहले माननीय प्रधानमंत्री द्वारा दुनिया के इस सबसे बड़े कोविड टीकाकरण अभियान की शुरुआत से पहले ना सिफऱ् सभी बुनियादी गाइडलाइन्स को अंतिम रूप दिया जा चुका था, बल्कि इसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण भी पूरे किए जा चुके थे।
हालांकि अभी टीकाकरण कार्यक्रम का औपचारिक प्रारंभ होना बाकी था, लेकिन टीम हैल्थ इंडिया आत्मविश्वास से सराबोर थी और इसके सबब भी थे। 16 जनवरी 2021 से पहले सभी आवश्यक तैयारियां जो पूरी हो चुकी थीं, उनमें प्रमुख हैं-
* कोविड टीकाकरण से संबंधित ऑपरेशनल गाइडलाइंस
* टीकाकरण के लिए पर्याप्त मात्रा में आवश्यक दलों के सदस्यों की पहचान एवं उनका प्रशिक्षण
* वैक्सीन को व्यवस्थित रूप से टीकाकरण केन्द्रों तक सुरक्षित रूप से पहुंचाने और आवश्यक अतिरिक्त भंडारण क्षमता का निर्माण
* वैक्सीन हैज़ीटेंसी, ईगरनेस और कोविड एप्रोप्रिएट बिहेवियर जैसे विषयों पर केंद्रित कम्यूनिकेशन स्ट्रेटेजी और
* सभी भारतीयों के टीकाकरण से संबंधित आवश्यक रिकॉर्ड डिजिटल रूप में संधारित करने के लिए आकल्पित कोविन प्लेटफार्म आदि।
इन सभी तैयारियों से संबंधित ड्राय रन भी सभी राज्यों में किया जा चुका था, जिससे संबंधित एक व्यक्तिगत अनुभव साझा करना प्रासंगिक है। देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के हज़ारों कोविड वैक्सीनेशन सेंटरों, राज्य के मुख्यालयों एवं भारत सरकार के मंत्रालय में पदस्थ टीम जो कोविन प्लेटफार्म पर काम कर रही थी, सभी को 15 जनवरी की सारी रात जागना पड़ा। कोई ऐसी तकनीकी समस्या थी, जिसे हल करने के लिए सभी थे। कड़ाके की ठंड थी। सूर्योदय होने तक सभी के दिल उसी तरह से ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहे थे, जैसे किसी अंतरिक्ष यान का प्रक्षेपण करते समय कमांड सेंटर पर बैठे वैज्ञानिकों का दिल धड़कता होगा। राष्ट्रीय कोविड टीकाकरण अभियान का नोडल अधिकारी होने के नाते मैं भी टीम हैल्थ इंडिया के नैतिक संबल के लिए मंत्रालय में ही साथ था और उस रात टीम की बेचैनी और अंततोगत्वा मिले सुखद परिणाम की अनुभूति का इज़हार शब्दों में नहीं कर सकता। ‘कोविन’ बखूबी चल पड़ा और हम सभी गवाह हैं, इस अनोखे भारतीय डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म की खूबियों के, जिसने लगातार कार्यक्रम की ज़रूरतों के मुताबिक खुद को और बेहतर किया है। यह वाकई देश-दुनिया के लिए एक अनूठी सौगात है।
और फिर अभी तो शुरुआत हुई थी। वैक्सीन सीमित मात्रा में उपलब्ध थी और अपेक्षाएं अनन्त थीं। सीमित मात्रा में उपलब्ध वैक्सीन का लगातार तर्कसंगत वितरण एक चुनौती थी। ना सिफऱ् भारत सरकार के स्तर पर, अपितु राज्यों एवं जिलों के स्तर पर भी। ऐसे में आलोचनाएं स्वभाविक थीं। टीम हैल्थ इंडिया ने इस काम को भी बखूबी अंजाम दिया। लेकिन यह आसान नहीं था। इसके लिए हर रोज़ घंटों वर्चुअल बैठकें करनी पड़ती थीं। वैक्सीन निर्माताओं के साथ, वैक्सीन परिवहन करने वाली एजेंसियों के साथ, वैक्सीन के भंडारण केंद्रों के साथ, वैक्सीन वितरण करने वाले कोल्ड चेन पाइंट्स के साथ और वैक्सीन लगाने वाले केंद्रों के साथ। और मकसद सिर्फ एक होता था, उपलब्ध वैक्सीन का यथासंभव सर्वश्रेठ इस्तेमाल और वैक्सीन की हर बूंद का सदुपयोग।
और अंदाज़ा लगाइए, देश के दूरदराज के क्षेत्रों में वैक्सीन पहुंचाया गया। जहां सड़क नहीं थी, वहां साइकिल दौड़ाई गई, रेगिस्तान में ऊंट का सहारा लिया गया, नदी पार करने के लिए नाव पर सवारी की गई। पहाड़ों पर तो वैक्सीन कैरियर को अपनी पीठ पर ही उठा लिया। वैक्सीन पहुंचाया भी, लगाया भी। पीले चावल देकर वैक्सीनेशन के लिए आमंत्रित किया। वैक्सीन नहीं लगवाने वाले नागरिकों के लिए ‘हर घर दस्तक’ देकर पुकार भी लगाई। इस सारी प्रक्रिया का कोई वेस्टर्न मॉडल नहीं था। यह विशुद्ध रूप से भारतीय मॉडल था। इसमें भारत के सामर्थ्य की अनूठी छाप थी।
एक वर्ष की कोविड टीकाकरण की यह अनूठी गाथा है क्योंकि तैयारी करने के लिए वक्त सीमित था। वक्त के साथ-साथ फील्ड से प्राप्त अनुभवों और सकारात्मक आलोचनाओं और सुझावों से हम सीखते चले गए, कार्यक्रम में सुधार करते चले गए, अपने संकल्प और इरादों को और दृढ़ करते चले गए और सही मायने में अंग्रेजी कहावत बिल्डिंग द शिप व्हाइल सेलिंग को चरितार्थ करते चले गए।
टीम हैल्थ इंडिया ने इस सारी धुन में अनदेखी की है अपनी जरूरतों की, अनदेखी की है अपने व्यक्तिगत समय की, अनदेखी की है अपने परिवार की, भुलाया है अपने सपनों को और खोया है अपनों को। लेकिन फ़ख्र ही नहीं, बल्कि यह टीम हैल्थ इंडिया का सौभाग्य भी है कि उसे सदियों में कभी एक बार आने वाला यह अवसर मिला और देश की सेवा करते हुए इस नोबल प्रोफेशन की नोबेलनेस बनाए रखने का मौका भी। हाँ, उन्हें ढेर सारा प्यार भी मिला।
मैं जो कुछ देख पाया हूं या लिख पाया हूँ वो तो मात्र टिप ऑफ़ द आइसबर्ग के समान है। टीम हैल्थ इंडिया के पास तो ऐसे अनगिनत संघर्ष और संतुष्टि के उदाहरण होंगे। ऐसे उदाहरण जो इंसानियत की मिसाल होंगे, ऐसे उदाहरण जो कृतज्ञता का एहसास कराते होंगे और ऐसे उदाहरण जो आशावाद के वाहक होंगे ।
अंत में यह याद दिलाना चाहता हूं कि हैल्थ को पब्लिक गुड माना गया है और भारत के कोविड टीकाकरण की इस असाधारण गाथा में सरकारी तंत्र की भूमिका ने इस विचारधारा को और पुख्ता किया है, मज़बूत किया है। जय हिन्द!
(लेखक अतिरिक्त सचिव, स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली हैं)

डब्ल्यूएचओ की चेतावनी को गंभीरता से लें

*विश्व के सभी देश विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों,

सलाह और उसके द्वारा दी गई चेतावनी को बहुत गंभीरता से लेते हैं.

*लेकिन पर आश्चर्य है कि शराब पीने-पिलाने के काम में भारत सरकार

और राज्य सरकारें चेतावनी को पूरी तरह अनसुना कर रही हैं.

*वैश्विक तौर पर वर्ष 2016 में शराब से जुड़ी मौतों का आंकड़ा करीब तीस लाख था.

लक्ष्मीकांता चावला
भारत सरकार और विश्व के सभी देश विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों, सलाह और उसके द्वारा दी गई चेतावनी को बहुत गंभीरता से लेते हैं। कोई भी बीमारी या महामारी हो, इस संगठन की ओर ही पूरी दुनिया देखती है। लेकिन पर आश्चर्य है कि शराब पीने-पिलाने के काम में भारत सरकार और राज्य सरकारें चेतावनी को पूरी तरह अनसुना कर रही हैं। कितनी भयानक सच्चाई है कि वैश्विक तौर पर वर्ष 2016 में शराब से जुड़ी मौतों का आंकड़ा करीब तीस लाख था। यह सबसे बड़ा और नवीनतम आंकड़ा है। संगठन के अनुसार, बहुत अधिक शराब पीने से जो मौतें हुई हैं उनकी संख्या एड्स, हिंसा और सड़क हादसों में होने वाली मौतों को मिलाने से प्राप्त आंकड़ों से भी ज्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर साल होने वाली बीस में से एक मौत शराब की वजह से होती है।
डब्ल्यूएचओ के शराब और अवैध नशीले पदार्थों पर नजर रखने वाले प्रोग्राम की मैनेजर करिना फेरिएरा बार्जेस का कहना है कि दुनिया भर में हर साल शराब पीने वाले तीस लाख लोगों की मौत होती है। यूरोप में एक-तिहाई मौतें शराब पीने से होती हैं। कोरोना से मरे लोगों में अधिकतर शराब पीते थे। इसमें भी पुरुष ज्यादा हैं। एक अध्ययन के अनुसार, प्रति दस मृत संक्रमितों में से एक व्यक्ति शराब पीता था।
अपनी रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने कहा कि करीब 23 करोड़ सत्तर लाख पुरुष और चार करोड़ साठ लाख महिलाएं शराब से जुड़ी समस्याओं का सामना कर रही हैं। भारत में शराब पीने वाले लोगों को चेताने का काम दिल्ली के एम्स के डाक्टरों ने किया। उनका कहना है कि महामारी में शराब पीने का असर रोग प्रतिरोधक क्षमता पर पड़ता है और संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है।? लेकिन अफसोस कि पंजाब, केरल और अन्य राज्य राजस्व के लिए लोगों की जान जोखिम में डाल शराब की अधिक दुकानें खोलने पर आमादा हैं। केवल भारत में ही 2018 में शराब पीने से 2 लाख साठ हजार लोगों की मौत हुई थी। इसीलिए एम्स के डाक्टरों तथा डब्ल्यूएचओ ने कहा था कि लोगों की सेहत का ध्यान रखते हुए लाकडाउन में शराब की दुकानों का बंद रहना जरूरी है।
एक तरफ तो यह जीवन की रक्षा के लिए चेतावनी वाली रिपोर्ट है, पर दूसरी ओर पंजाब सरकार और कांग्रेस के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू ने तो कुछ सप्ताह पहले कहा कि पंजाब में शराब पीने-पिलाने का ऐसा प्रबंध करेंगे जिससे सत्तर हजार करोड़ रुपया वार्षिक कमाई हो सके। उनका यह कहना था कि आर्थिक समृद्धि से पंजाब सुखी होगा। लेकिन यह नहीं बताया कि शराब पीने से कितने लोग महामारी, बीमारी, मृत्यु का शिकार हो जाएंगे। कितनी हिंसा होगी, पारिवारिक क्लेश बढ़ेगा, परिवार टूटेंगे। माता-पिता में मतभेद से बचपन अनाथ हो जाएगा। लेकिन किसी ने नहीं कहा कि सिद्धू का शराब मॉडल हानिकारक और पंजाब के हित में नहीं है।
इस समय देश और दुनिया में बड़ी विकट स्थिति है। कोरोना महामारी बहुत तेजी से फैल रही है। भारत के पांच राज्यों में चुनाव है। शराब घातक होने की रिपोर्ट डब्ल्यूएचओ ने दी, पर सरकारों ने तो मुनाफे के लिये शराब पिलानी है। चुनाव के दिनों में राजनीतिक दल शराब बांटते हैं। लोग बीमार हों, नशे की हालत में परिवारों में या समाज में अशांति फैलाएं, दुर्घटनाओं में मारे जाएं या कोरोना पीडि़त हों, राजनेताओं को तो वोट चाहिए। यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि आजादी का अमृत महोत्सव मनाने वाली सरकारें इस वर्ष भी शराब की कोई कमी नहीं रखेंगी। उन्हें वोट चाहिए। कितना अच्छा हो अगर चुनाव आयोग शराब पीने-पिलाने वालों को चुनाव लडऩे से अयोग्य घोषित करे।
पिछले डेढ़ वर्ष से कोरोना महामारी के कारण गरीबी और अन्न-धन का अभाव झेल रहे भारतवासियों को राहत देने के लिए भारत सरकार मुफ्त अनाज बांटती है। यह सच है कि अनाज इतनी मात्रा में दिया जाता है कि कोई परिवार भूखा न रहे, लेकिन विडंबना यह है कि जिन परिवारों को गरीब होने के कारण अनाज दिया जाता है, उनमें एक बड़ी संख्या में शराब पीने वाले लोग भी हैं। देश के कुछ बुद्धिजीवी बड़े लंबे समय से यह आवाज उठा रहे थे कि जो लोग शराब स्वयं अपनी कमाई से खरीदकर पी सकते हैं वे अन्न क्यों नहीं खरीद सकते। क्या यह तर्कसंगत है कि अपनी कमाई से तो ये कुछ गरीब लोग शराब पी लें और इनका पेट भरने के लिए देश के लोगों के टैक्सों के पैसों से इन्हें मुफ्त में अनाज दिया जाए। भारत सरकार कानून बनाए कि जो लोग शराब पीते हैं उन्हें मुफ्त अनाज योजना से बाहर निकाल दिया जाए। वहीं चुनाव के दौरान कोई राजनीतिक पार्टी यह नहीं बताती कि चुनावों में मुफ्त शराब देने के लिए बजट की व्यवस्था कौन कर रहा है। चुनाव से पहले ही और महामारी की भयावहता के बीच यह जरूरी है कि शराब पीने वालों को नियंत्रित करने के लिए विशेष कदम उठाये जायें। इसका लाभ होगा कि कोरोना महामारी के दिनों में शराब न पीने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी। बहुत अच्छा होगा कि डब्ल्यूएचओ के दिशा-निर्देशों पर चलते हुए शराब पीने-पिलाने और सरकारी गैर-सरकारी शराब की बिक्री पर रोक लगाई जाए।

अव्यावहारिक नीतियों से उपजा बेरोजगारी संकट

भरत झुनझुनवाला –
वर्तमान में अर्थव्यवस्था सुचारु रूप से चल रही दिखती है। जीएसटी की वसूली 1,30,000 करोड़ रुपये प्रति माह के नजदीक पहुंच गई है जो कि आज तक का अधिकतम स्तर है। कोविड के ओमीक्रोन वेरिएंट के आने के बावजूद शेयर बाजार का सेंसेक्स 5,500 से 6,000 के स्तर पर बना हुआ है। रुपये का मूल्य 70 से 75 रुपए प्रति डॉलर पर बीते कई वर्षों से स्थिर टिका हुआ है। तमाम वैश्विक संस्थाओं के आकलन के अनुसार, भारत विश्व की सबसे तेज बढऩे वाली व्यवस्था बन चुकी है। इन सब उपलब्धियों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेरोजगारी को एक विशेष चुनौती बताया है। तमाम आकलन भी बताते हैं कि वर्तमान में देश की जनता द्वारा की जा रही खपत कोविड-पूर्व के स्तर से भी नीचे है। यानी जीएसटी की वसूली 1,30,000 करोड़ रुपये प्रति माह के स्तर पर पहुंचने और अर्थव्यवस्था के सुचारु रूप से चलता दिखने के बावजूद आम आदमी की खपत सपाट है और रोजगार नदारद हैं। इस समस्या की जड़ें नीति आयोग के चिंतन में निहित हैं।
वर्ष 2018 में नीति आयोग ने देश की 75वीं वर्षगांठ के लिए बनाए गए रोड मैप में कहा था कि औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देना होगा और श्रम-सघन रोजगार को भी बढ़ावा देना होगा। नीति आयोग इन दोनों उद्देश्यों को एक साथ बढ़ावा देना चाहता है। आयोग समझता है कि यह दोनों उद्देश्य एक साथ मिलकर चल सकते हैं जैसे गाड़ी के दो चक्के मिल-जुलकर एक साथ चलते हैं। लेकिन वास्तव में इन दोनों उद्देश्यों के बीच में अंतर्विरोध है जैसे गाड़ी का एक चक्का आगे और दूसरा चक्का पीछे की तरफ चले तो गाड़ी डगमग हो जाती है। इसीलिए वर्तमान में रोजगार की गाड़ी डगमग हो चली है जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है।
औपचारिक रोजगार और श्रम-सघन उद्योग के बीच पहला अंतर्विरोध श्रम की लागत का है। जैसे मान लीजिए नुक्कड़ पर मोमो बेचने वाले अनौपचारिक कर्मियों को हम औपचारिक छत्रछाया के नीचे ले आते हैं। अब इनका पंजीकरण होगा। पंजीकरण के बाद इन्हें अपने द्वारा बेचे गए मोमो का वजन नियमानुसार प्रमाणित करना होगा। इनके कार्य पर स्वास्थ्य निरीक्षक की नजर रहेगी। इन्हें अपनी दुकान को खोलने व बंद करने के समय निर्धारित करने होंगे। इन्हें सही क्वालिटी की प्लेट लगानी होगी। अपने सहायकों को दिए गए वेतन का प्रोविडेंट फंड काटना होगा और उन्हें न्यूनतम वेतन देना होगा। बैंक में जाकर प्रोविडेंट फंड जमा कराने में इनका समय लग जायेगा। सरकारी निरीक्षक महोदय को मुफ्त मोमो भी देने होंगे। इन तमाम कार्यों से इनके द्वारा बनाए गए मोमो की लागत बढ़ जाएगी। आज वर्तमान में यदि ये 7 रुपये में मोमो बेचते हैं जो औपचारिक रोजगारी बनने के बाद इनके द्वारा उत्पादित मोमो का मूल्य बढ़कर 10 रुपये हो जाएगा। इनके मोमो का मूल्य बढ़ जाने से इनकी जो कम दाम में बेचने की विशेषता है, वह समाप्त हो जाएगी। खरीदार 7 रुपये में नुक्कड़ पर मोमो खरीदने के स्थान पर 10 रुपये में मॉल में मोमो खरीदेगा क्योंकि नुक्कड़ पर भी मोमो का दाम अब मॉल की तरह 10 रुपये हो जाएगा। श्रम-सघन उद्योग की बलि औपचारिक रोजगार की वेदी पर चढ़ा दी जायेगी। दोनों उद्देश्य साथ-साथ नहीं चलेंगे।
औपचारिक उत्पादन में दूसरा संकट ऑटोमेटिक मशीनों का है। मॉल में मोमो बेचने वाले औपचारिक विक्रेता द्वारा डिश वॉशर लगाया जाएगा और ऑटोमेटिक ओवन होगा, जिसमें बिजली की खपत कम होगी। इन ऑटोमेटिक मशीनों के कारण मोमो के औपचारिक उत्पादन में रोजगार की संख्या कम होगी। इसलिए औपचारिक रोजगार के चलते श्रम-सघन नहीं बल्कि श्रम -विघन रोजगार उत्पन्न होंगे। रोजगार की संख्या कम होगी।
औपचारिक रोजगार में तीसरा संकट वित्तीय औपचारिकता यानी नोटबंदी और जीएसटी का है। नोटबंदी के बाद वर्ष 2017 में एक ओला के ड्राइवर से चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि वे 35 वर्षों से चार महिलाओं को रोजगार दे रहे थे। उनसे घर पर कपड़ों में कसीदा करा रहे थे। नोटबंदी के बाद उनके क्रेताओं ने उन्हें नकद में पेमेंट करना बंद कर दिया। उनके पास व्यवस्था नहीं थी कि वे बैंक के माध्यम से कपड़े का पेमेंट ले सकें। यह भी कहा कि नकद माल खरीदने वाले ही नहीं रहे। अब बड़ी दुकानों में डेबिट कार्ड के पेमेंट से ही कपड़े खरीदे जा रहे हैं। उनका बाजार समाप्त हो गया। उन्होंने चारों महिलाओं को मुअत्तल कर दिया और स्वयं जीविका चलने के लिए ओला के ड्राइवर का काम शुरू कर दिया। लगभग यही स्थिति जीएसटी की है जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों को तमाम कानूनी पेचों से जूझना पड़ रहा है, जिसके कारण उनका धंधा कम हो रहा है। यह बात तमाम रपटों में दिखाई पड़ती है।
इन तमाम कारणों से औपचारिक और श्रम-सघन रोजगार में सीधा अंतर्विरोध है। औपचारिक रोजगार के चलते श्रम-सघन उत्पादन का मूल्य बढ़ता है और ऑटोमेटिक मशीनों के उपयोग से श्रम का उपयोग घटता है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण पुन: रोजगार घटता है। लेकिन नीति आयोग इस अंतर्विरोध को नहीं समझता अथवा नहीं समझना चाहता है इसलिए अनायास ही औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देने में नीति आयोग ने देश में रोजगार ही समाप्त कर दिए हैं। न्यून स्तर के अनौपचारिक जीवन के स्थान पर नीति आयोग ने औपचारिक मृत्यु को देशवासियों के पल्ले में डाल दिया है, जिसके कारण प्रधानमंत्री ने कहा है कि रोजगार हमारे सामने प्रमुख चुनौती है।
संभवत: नीति आयोग भारत को विकसित देशों की तर्ज पर औपचारिक श्रम की तरफ धकेलना चाहता है। लेकिन आयोग इस बात को भूल रहा है कि वर्तमान में पश्चिमी देश भी अनौपचारिक रोजगार की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। इसे वहां ‘गिगÓ रोजगार कहा जाता है जैसे श्रमिक घर में 3 घंटे बैठकर डेटा एंट्री इत्यादि करते हैं। इन गिग श्रमिकों को निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम वेतन दिए जाते हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपने देश में नुक्कड़ पर मोमो विक्रेता को न्यूनतम वेतन से कम आय होती है। इसलिए हमें विकसित देशों के मोह को छोडऩा चाहिए। उनकी अंदरूनी रोजगार की परिस्थिति को समझना चाहिए। अपने देश में अनौपचारिक रोजगार को बढऩे देना चाहिए, नुक्कड़ के मोमो बेचने वाले को सम्मान देना चाहिए कि वह स्वरोजगार कर रहा है और सरकार पर मनरेगा का बोझ नहीं डाल रहा है। औपचारिक मृत्यु की तुलना में न्यून स्तर का अनौपचारिक जीवन ही उत्तम है। वर्तमान में अर्थव्यवस्था ऊपर से सुचारु रूप से चल रही दिखती है। अन्दर गड़बड़ है।

न्यायपालिका के सुझावों की फिर अनदेखी

अनूप भटनागर –
लड़कियों की विवाह की आयु बढ़ाकर लड़कों के समान करने के लिए संसद में विधेयक पेश करने वाली केंद्र सरकार के रुख से ऐसा लगता है कि समान नागरिक संहिता बनाने संबंधी संविधान का अनुच्छेद 44 अभी लंबे समय तक सुप्त प्रावधान ही रहेगा। इस निष्कर्ष पर पहुंचने की वजह केन्द्र सरकार का हलफनामा है जो उसने समान नागरिक संहिता के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित जनहित याचिका में दाखिल किया है।
देश में तेजी से हो रहे सामाजिक बदलाव के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और पंथों में प्रचलित विवाह और विवाह विच्छेद के कानून एवं रीति-रिवाज, तलाक की स्थिति में महिलाओं के अधिकार, गुजारा भत्ता और संपत्ति में उनके अधिकार जैसे मुद्दों के न्याय संगत समाधान के लिए अब समान नागरिक संहिता की जरूरत पहले से ज्यादा महसूस की जा रही है।
यही वजह है कि 1985 में शाहबानो प्रकरण से लेकर कई मामलों में न्यायपालिका ने संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार करने का सरकार को सुझाव दिया है। परंतु ऐसा लगता है कि महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के न्यायपालिका के सुझावों के प्रति केंद्र गंभीर नहीं है या फिर वह इसमें राजनीतिक नफा-नुकसान की संभावनाएं तलाश रहा है। संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार, ‘शासन भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’
बहुचर्चित शाहबानो प्रकरण में 1985 में उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता बनाने का सुझाव दिया था। इसके बाद भी हिन्दू व्यक्ति द्वारा पहली पत्नी से विवाह विच्छेद के बगैर ही धर्म परिवर्तन करके दूसरी शादी करने या फिर अंतरजातीय विवाह में उत्पन्न विवादों के समाधान में आड़े आने वाली परंपराओं और तीन तलाक की कुप्रथा से प्रभावित मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता जैसे मामले हल करने के लिए न्यायपालिका लगातार समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर देती रही है।
लेकिन अब केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालय में दाखिल हलफनामे में साफ कर दिया है कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र का मामला है जिस पर गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है। सरकार ने यह हलफनामा भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका में दाखिल किया है। उपाध्याय चाहते हैं कि न्यायालय समान नागरिक संहिता का मसौदा तीन महीने के भीतर तैयार करने का निर्देश केंद्र को दे।
केंद्र में दाखिल इस हलफनामे में कानून मंत्रालय ने कहा है कि संविधान के अंतर्गत सिर्फ संसद ही यह काम कर सकती है और न्यायालय कोई कानून विशेष बनाने का निर्देश विधायिका को नहीं दे सकता है। यह सर्वविदित है कि कानून बनाने का अधिकार संसद का ही है और इसीलिए शाहबानो प्रकरण से लेकर अभी तक कई मामलों में न्यायपालिका ने संसद को समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार करने का सुझाव दिया है। यह सुझाव वैसे भी महत्वपूर्ण है क्योंकि गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है।
भारतीय जनता पार्टी हमेशा ही समान नागरिक संहिता की पक्षधर रही है और उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसे शामिल भी किया था। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने इस संवेदनशील विषय को जून, 2016 में विधि आयोग के पास भेजा था। हालांकि, उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 31 अगस्त, 2018 को सरकार को भेजे अपने परामर्श पत्र में कहा था कि फिलहाल समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है। विधि आयोग का मत था कि समान नागरिक संहिता बनाने में कुछ बाधाएं हैं। आयोग ने इनमें पहली बाधा के रूप में संविधान के अनुच्छेद 371 और इसकी छठवीं अनुसूची की व्यावहारिकता का उल्लेख किया था। अनुच्छेद 371(ए) से (आई) तक में असम, सिक्किम, अरुणाचल, नगालैंड, मिजोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा के बारे में कुछ विशेष प्रावधान हैं, जिनके तहत इन राज्यों को कुछ छूट प्राप्त हैं।
विधि आयोग की राय है कि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी और समाज के विभिन्न धर्मों और समुदायों में प्रचलित कानूनों में महिलाओं को ही कई तरह से वंचित किया गया है। और यही भेदभाव तथा असमानता की मूल जड़ है। इस समानता को दूर करने के लिये संबंधित पर्सनल लॉ में उचित संशोधन करके इनके कतिपय पहलुओं को संहिताबद्ध किया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय में केन्द्र सरकार के हलफनामे के बाद एक बात तो साफ हो गयी है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त समान नागरिक संहिता का विषय फिलहाल जस का तस राजनीतिक मुद्दा ही बना रहेगा और निकट भविष्य में शायद ही प्रावधान अमल में आ सके।
इस बीच, अश्विनी उपाध्याय ने ‘एक देश-एक नागरिक संहिताÓ विषय पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिख कर इसे लागू करने के लाभ और इसे लागू नहीं करने से उत्पन्न हो रही समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लड़कियों की विवाह की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने संबंधी बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक के माध्यम से विभिन्न समुदायों में प्रचलित उनके निजी कानूनों में भी प्रस्तावित संशोधन करके समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकेगा। फिलहाल तो यह विधेयक संसदीय स्थायी समिति के पास विचारार्थ है।

मकर सक्रांति शुभ कार्यो की शुरुआत का पर्व !

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट –
14 जनवरी को मकर राशि में सूर्य और शनि ग्रह का एक साथ होना बहुत ही दुर्लभ संयोग है। यह संयोग 29 साल के बाद पड़ रहा है। इससे पूर्व यह योग सन 1993 में बना था।मकर संक्रांति का पुण्यकाल मुहूर्त सूर्य के संक्रांति समय से 16 घटी पहले और 16 घटी बाद का पुण्यकाल होता है। इस बार पुण्यकाल 14 जनवरी को सुबह 7 बजकर 15 मिनट से शुरू हो जाएगा, जो शाम को 5 बजकर 44 मिनट तक रहेगा। इसमें स्नान, दान, जाप कर सकते हैं. वहीं स्थिर लग्न यानि समझें तो महापुण्य काल मुहूर्त 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक रहेगा। इसके बाद दोपहर 1 बजकर 32 मिनट से 3 बजकर 28 मिनट तक भी पुण्यकाल है।पंजाब, यूपी, बिहार और तमिलनाडु में यह समय नई फसल काटने का होता है। इसलिए किसान इस दिन को आभार दिवस के रूप में भी मनाते हैं। इस दिन तिल और गुड़ की बनी मिठाई बांटी जाती है। इसके अलावा मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाने की भी परंपरा है।महाभारत काल में मकर संक्रांति दिसंबर में मनाई जाती थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि छ्ठी शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय में 24 दिसंबर को मकर संक्रांति मनाई गयी थी। अकबर के समय में 10 जनवरी और शिवाजी महाराज के काल में 11 जनवरी को मकर संक्रांति मनाये जाने का उल्लेख मिलता है।
मकर संक्रांति की तिथि का यह रहस्य इसलिए है क्योंकि सूर्य की गति एक साल में 20 सेकंड बढ जाती है। इस हिसाब से 5000 साल के बाद संभव है कि मकर संक्रांति जनवरी में नहीं, बल्कि फरवरी में मनाई जाने लगे। मकर सक्रांति को देश मे विभिन्न नामो से जाना जाता है।तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायणी भी कहते हैं, यह भ्रान्ति है कि उत्तरायण भी इसी दिन होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति उत्तरायण से भिन्न है। हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का विशेष महत्व माना गया है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य का उत्तरायण होना बहुत ही शुभ माना जाता है। इस दिन गंगा नदी या पवित्र जल में स्नान करने का विधान है। साथ ही इस दिन गरीबों को गर्म कपड़े, अन्न का दान करना शुभ माना गया है। संक्रांति के दिन तिल से निर्मित सामग्री ग्रहण करने शुभ होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार असुरों पर भगवान विष्णु की विजय के तौर पर भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।गरीब और असहाय लोगों को गर्म कपड़े का दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इस माह में लाल और पीले रंग के वस्त्र धारण करने से भाग्य में वृद्धि होती है। माह के रविवार के दिन तांबे के बर्तन में जल भर कर उसमें गुड़, लाल चंदन से सूर्य को अर्ध्य देने से पद सम्मान में वृद्धि होने के साथ शरीर में सकारात्मक शक्तियों का विकास होता है। साथ ही आध्यात्मिक शक्तियों का भी विकास होता है।कहते है कि मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का संहार उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर फेंका था। भगवान की जीत को मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। मकर संक्रांति से ही ऋतु में परिवर्तन होने लगता है। शरद ऋतु का प्रभाव कम होने लगता है और इसके बाद बसंत मौसम का आगमन आरंभ हो जाता है। इसके फलस्वरूप दिन लंबे और रात छोटी होने लगती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन सूर्यदेव अपने पुत्र शनिदेव के घर जाते हैं। ऐसे में पिता और पुत्र के बीच प्रेम बढ़ता है। ऐसे में भगवान सूर्य और शनि की अराधना शुभ फल देने वाला होता है।संक्रांति का यह पर्व भारतवर्ष तथा नेपाल के सभी प्रान्तों में अलग-अलग नाम व भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा भक्ति एवं उत्साह के साथ धूमधाम से मनाया जाता है।भारत में इसके विभिन्न नाम है छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू में मकर सक्रांति,तमिलनाडु मेंताइ पोंगल, उझवर तिरुनल गुजरात, उत्तराखण्ड में उत्तरायण, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में माघी,असम में
भोगाली बिहु ,कश्मीर में शिशुर सेंक्रात ,उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में खिचड़ी,पश्चिम बंगाल में
पौष संक्रान्ति ,कर्नाटक में मकर संक्रमण व पंजाब में लोहड़ी रूप में मनाया जाता है।इस खगोलीय परिवर्तन का स्वागत मकर सक्रांति रूप में हम करते है।साथ ही अपने बड़ो का सम्मान करने की परंपरा भी वर्षों से चली आ रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

मकर संक्रांति का महत्व

कु. कृतिका खत्री –
–  मकर संक्राति के दिन सूर्य मकर राशी में प्रवेश करता है । हिन्दू धर्म में संक्रांति को भगवान माना गया है। भारतीय संस्कृति में मकरसंक्रांति का त्योहार आपसी कलह को मिटाकर प्रेमभाव बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। इस दिन तिल गुड़ एक दुसरे को देकर आपसी प्रेम बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में सर्वत्र कोरोना महामारी के कारण सदा की भांति त्योहार मनाने में बाधा आ सकता है। तो भी इस आपातकाल में सरकार द्वारा बताए गए सभी नियमों का कठोरता से पालन कर यह त्योहार मनाया जा सकता है। यह त्योहार मनाते समय इसका महत्त्व, त्योहार मनाने की पद्धति, तिल गुड़ का महत्त्व, पर्व काल में दान का महत्त्व, अन्य स्त्रियों को हल्दी कुमकुम लगाने का आध्यात्मिक महत्त्व तथा इस दिन की जाने वाली धार्मिक विधियों की जानकारी इस लेख में देने का प्रयास किया है। हम इसका लाभ लेंगे।
तिथि – यह त्योहार तिथि वाचक न होकर अयन-वाचक है। इस दिन सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होता है। वर्तमान में मकर संक्रांति का दिन 14 जनवरी है। सूर्य भ्रमण के कारण होने वाले अंतर को भरने ने लिए ही संक्रांति का दिन एक दिन आगे बढ़ाया जाता है। सूर्य के उत्सव को ‘संक्रांत’ कहते हैं। कर्क संक्रांति के उपरांत सूर्य दक्षिण की ओर जाता है और पृथ्वी सूर्य के निकट, अर्थात नीचे जाती है। इसे ही ‘दक्षिणायन’ कहते हैं। मकर संक्रांति के पश्चात सूर्य उत्तर की ओर जाता है और पृथ्वी सूर्य से दूर, अर्थात ऊपर जाती है। इसे ‘उत्तरायण’ कहते हैं। मकरसंक्रांति अर्थात नीचे से ऊपर चढने का उत्सव; इसलिए इसे अधिक महत्व है।
इतिहास – संक्रांति को देवता माना गया है। संक्रांति ने संकरासुर दैत्य का वध किया, ऐसी कथा है ।
तिल गुड़ का महत्व – तिल में सत्त्वतरंगें ग्रहण और प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए तिलगुड का सेवन करने से अंत:शुद्धि होती है और साधना अच्छी होने हेतु सहायक होते हैं । तिलगुड के दानों में घर्षण होने से सात्त्विकता का आदान-प्रदान होता है । ‘श्राद्ध में तिल का उपयोग करने से असुर इत्यादि श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते ।’ सर्दी के दिनों में आने वाली मकर संक्रांति पर तिल खाना लाभप्रद होता है । ‘इस दिन तिल का तेल एवं उबटन शरीर पर लगाना, तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल पीना, तिल होम करना, तिल दान करना, इन छहों पद्धतियों से तिल का उपयोग करने वालों के सर्व पाप नष्ट होते हैं ।’ संक्रांति के पर्व काल में दांत मांजना, कठोर बोलना, वृक्ष एवं घास काटना तथा कामविषयक आचरण करना, ये कृत्य पूर्णत: वर्जित हैं ।’
त्यौहार मनाने की पद्धति – ‘मकर संक्रांति पर सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पुण्य काल रहता है । इस काल में तीर्थ स्नान का विशेष महत्त्व हैं । गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियोंके किनारे स्थित क्षेत्र में स्नान करने वाले को महापुण्य का लाभ मिलता है ।
मकर संक्रांति पर दिए गए दान का महत्व – मकर संक्रांति से रथ सप्तमी तक की अवधि पर्वकाल है। इस पर्व में किया गया दान और शुभ कार्य विशेष फलदायी होता है। धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन दान, जप और साथ ही धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यधिक महत्व बताया गया है।
हल्दी और कुमकुम का आध्यात्मिक महत्व – हल्दी और कुमकुम लगाने से सुहागिन स्त्रियों में श्री दुर्गा देवी का अप्रकट तत्त्व जागृत होता है तथा श्रद्धा पूर्वक हल्दी और कुमकुम लगाने से यह जीव में कार्यरत होता है। हल्दी कुमकुम धारण करना अर्थात एक प्रकार से ब्रह्मांड में अव्यक्त आदिशक्ति तरंगों को जागृत होने हेतु आवाहन करना है । हल्दी कुमकुम के माध्यम से पंचोपचार करना अर्थात एक जीव का दूसरे जीव में उपस्थित देवता तत्त्व की पूजा करना है । हल्दी, कुमकुम और उपायन देने आदि विधि से व्यक्ति पर सगुण भक्ति का संस्कार होता है साथ ही ईश्वर के प्रति जीव में भक्ति भाव बढऩे में सहायता होती है ।
उपायन देने का महत्व तथा उपायन में क्या दें – ‘उपायन देना’ अर्थात तन, मन एवं धन से दूसरे जीव में विद्यमान देवत्व की शरण में जाना । संक्रांति-काल साधना के लिए पोषक होता है । अतएव इस काल में दिए जाने वाले उपायन से देवता की कृपा होती है और जीव को इच्छित फल प्राप्ति होती है । आजकल प्लास्टिक की वस्तुएं , स्टील के बर्तन इत्यादि व्यावहारिक वस्तुएं उपायन के रूप में देने के कारण उपायन देनेवाला तथा ग्रहण करने वाला दोनों के बीच लेन देन का सम्बन्ध निर्माण होता है । वर्तमान में अधार्मिक वस्तुओं के उपायन देने की गलत प्रथा आरम्भ हुई है इन वस्तुओं की अपेक्षा सौभाग्य की वस्तु जैसे उदबत्ती (अगरबत्ती), उबटन, धार्मिक ग्रंथ, पोथी, देवताओं के चित्र, अध्यात्म संबंधी दृश्य श्रव्य-चक्रिकाएं (ष्टष्ठह्य) जैसी अध्यात्म के लिए पूरक वस्तुएं उपायन स्वरूप देनी चाहिए । सात्विक उपायन देने के कारण ईश्वर से अनुसन्धान होकर दोनों व्यक्ति को चैतन्य मिलता है जिसके कारण ईश्वर की कृपा होती है।
मिटटी के बर्तनों (घडिया) के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का त्यौहार – सूर्य देव ने अधिक मात्रा में उष्णता देकर पृथ्वी के बर्फ को पिघलाने के लिए साधना (तपस्या) आरम्भ की । उस समय रथ के घोड़े सूर्य की गर्मी को सहन नहीं कर पा रहे थे और उन्हें प्यास लगी । तब सूर्यदेव ने मिट्टी के घड़े के माध्यम से पृथ्वी से जल खींचकर घोड़ों को पीने के लिए दिया; इसलिए संक्रांति पर घोड़ों को पानी पिलाने के कारण मटकों की प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मिट्टी के बर्तनों की पूजा करने की प्रथा आरम्भ हुई। रथ सप्तमी के दिन तक सुहागिन महिलाऐं हल्दी कुमकुम के अवसर पर इन पूजित बर्तनों को एक-दूसरे को उपायन स्वरूप भेंट में देती हैं । मिट्टी के बर्तन (घडिय़ा) को अपनी अंगुलिओं के माध्यम से हल्दी-कुमकुम लगा कर घडि़ए पर धागा लपेटा जाता तथा उसमे गाजर, बेर, गन्ने के टुकड़े, मूंगफली, कपास, काले चने, तिल के लड्डू, हल्दी आदि वस्तु भरकर भेंट स्वरुप दिया जाता है ।
पतंग न उड़ाएं – इस काल में अनेक स्थानों पर पतंग उड़ाने की प्रथा है परन्तु वर्तमान में राष्ट्र एवं धर्म संकट में होते हुए मनोरंजन हेतु पतंग उडाना, ‘जब रोम जल रहा था, तब निरो बेला (फिडल) बजा रहा थाÓ, इस स्थिति समान है । पतंग उडाने के समय का उपयोग राष्ट्र के विकास हेतु करें, तो राष्ट्र शीघ्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा और साधना एवं धर्मकार्य हेतु समय का सदुपयोग करने से अपने साथ समाज का भी कल्याण होगा ।

संकटकाल में नयी चाल में ढला साहित्य

अतुल सिन्हा –
निस्संदेह, कोरोना काल में मानवीय त्रासदी का चरम दिखा, जिसने रचनाकारों को उद्वेलित किया। इस काल के सृजन में मानवीय त्रासदी की गहरी छाया रही। इस दौरान साहित्य ने अपनी चाल बदली। विपुल साहित्य का सृजन हुआ। डिजिटल माध्यम की स्वीकार्यता बढ़ी।?लेकिन पुस्तक छपवाने का मोह कम नहीं हुआ। प्रकाशकों का काम बढ़ा। इस दौरान हमने अनेक नामचीन साहित्यकारों को भी?खोया।
एक महामारी ने पूरी जीवन शैली बदल दी। तकरीबन दो सालों से हम सब के बीच फासले बढ़ गए। सोचने-समझने और लिखने-पढऩे के तौर-तरीकों में बदलाव आया और साहित्य सृजन की दृष्टि भी काफी हद तक बदल गई। कोरोना काल में साहित्य रचने का यह दूसरा साल था। लॉकडाउन भले ही कुछ महीनों का रहा हो, लेकिन इसका असर दीर्घकालिक है। वर्ष 2021 के इस सबसे भयानक कालखंड में हमारे बीच से बहुत से लोग, रचनाकार, पत्रकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी चले गए। कुछ रचते हुए चले गए, कुछ रचने की बहुत-सी योजनाओं को साथ लिए चले गए। सन् 2020 के कोरोना कालखंड में जहां मजदूरों का पलायन और सड़कों पर मजबूरन धकेल दिए गए श्रमिकों का दर्द रचनाओं में झलकता रहा तो इस बार लगातार और असमय अलविदा कह देने वालों से जुड़ी मानवीय पीड़ा और एक बेबसी दिखाई देती रही। रचनाकार या तो सदमे में रहा, लिखने-पढऩे से विरक्ति का शिकार रहा, या फिर रचा तो इतना रचा कि उसकी सारी संवेदनाएं अपने विभिन्न रूपों में सामने आती रहीं। कविताएं हों, कहानियां हों, डायरी के पन्ने हों, उपन्यास हों या संस्मरण– इस दौर में जो भी लिखा गया, ज्यादातर में इसकी झलक मिली। सत्ता के प्रति गुस्सा, संवेदनहीन सरकार और बेबस प्रशासन की अव्यवस्थाएं, अस्पतालों की भयावहता, ऑक्सीजन को लेकर त्राहि-त्राहि और सरकारों के दावे, वैक्सीनेशन की सरकारी प्रतियोगिताएं और सबसे ज्यादा उन परिवारों और व्यक्तियों की त्रासदी जो या तो अचानक चले गए, या अव्यवस्थाओं के शिकार होकर अलविदा कह गए।
कोरोना काल में डिजिटल हो चुके देश में वैसे तो अब ज्यादातर साहित्य फेसबुक या सोशल मीडिया पर रचा जा रहा है, लेकिन ये प्लेटफॉर्म बस आपके डायरी के पन्नों की तरह है। आखिरकार सभी की यह चाहत रहती है कि उनका यह रचनाकर्म पुस्तक के रूप में आए, बेशक इसके लिए पैसे खर्च करके प्रकाशकों की तलाश की जाए और अपने हिस्से का साहित्य रच दिया जाए। ज्यादातर लेखक और कवि चाहते हैं कि उनकी कोई न कोई किताब पुस्तक मेलों में जरूर आए ताकि कम से कम उनके रचनाकर्म को एक पहचान मिल सके। लखनऊ समेत तमाम शहरों में पुस्तक मेले लगने शुरू हो गए हैं और एक बार फिर जनवरी के दूसरे हफ्ते में दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले की तैयारी है। वर्ष 2021 में छपी हजारों पुस्तकों को एक बड़ा आयाम यहां मिलने जा रहा है। प्रकाशकों के पास पुस्तकों के जबरदस्त ऑर्डर हैं और तमाम पुस्तकें छपने के अंतिम चरण में हैं। प्रकाशकों के लिए यह वक्त बहुत मुफीद होता है और कोरोना काल ने तो उनका प्रिंट ऑर्डर काफी बढ़ा दिया है। तमाम प्रकाशक बताते हैं कि कोरोना काल से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा है, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा किताबें इस बार छप रही हैं। कोरोना काल में घर बैठे लोगों ने खूब लिखा है। सबसे बड़ी बात कि अब किताबों को बेचने के लिए पुस्तक मेलों के अलावा अमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध होने से काफी सहूलियत हो गई है, इसलिए बड़ी संख्या में किताबें छप भी रही हैं और बिक भी रही हैं। किताबें छपवाने के लिए कई लेखक प्रकाशकों को मोटी धनराशि भी देने लगे हैं इसलिए आम तौर पर प्रकाशन के व्यवसाय पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। फिर भी कई प्रकाशक ऐसे भी हैं, जिनके लिए मुश्किलें बढ़ गईं और उन्हें अपने कर्मचारियों की छंटनी भी करनी पड़ी।
कोरोना काल में 2021 का विश्व पुस्तक मेला पहली बार डिजिटल माध्यम से जनवरी की जगह मार्च के पहले हफ्ते में चार दिनों के लिए 6 से 9 मार्च तक आयोजित हुआ। कोरोना की पहली लहर से धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य होती दिख रही थीं, लेकिन लोगों में डर था, ढेर सारी पाबंदियां थीं और अगले ही महीने कोरोना का सबसे खतरनाक दूसरा दौर आया जो तमाम लोगों पर कहर बनकर टूटा और एक बार फिर दहशत से भरी जि़ंदगी घरों में कैद हो गई। फेसबुक और सोशल मीडिया मौत की सूचनाओं के अलावा अस्पतालों की चरमराई व्यवस्थाओं से भरा रहा। इसी दौरान तमाम लेखकों ने फेसबुक पर रोजाना साहित्य रचना शुरू कर दिया। जाने-माने कवि मदन कश्यप कहते हैं कि 2020 के लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद रचे गए साहित्य में जहां विस्थापन का दर्द बहुत गहराई से सामने आया, वहीं 2021 में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों और आदमी की असहायता और करुणा को साहित्य के विभिन्न रूपों में पेश किया गया। अभी यह सिलसिला जारी है और लंबे समय तक यह कविता, कहानी, उपन्यास और डायरी जैसे रूपों में सामने आता रहेगा। उनका कहना है कि जिस तरह विश्वयुद्ध के बाद पोस्ट वर्ल्डवार लिटरेचर का दौर था, वैसे ही पोस्ट कोरोना पोएट्री, फिक्शन और अन्य लेखन का एक रचनात्मक आंदोलन दिखाई दे रहा है।
मदन कश्यप की लॉकडाउन डायरी भी छपकर लगभग तैयार है। 2021 में श्रीप्रकाश शुक्ल की ‘महामारी और कविताÓ के अलावा अरुण होता के संपादन में ‘तिमिर में ज्योति जैसेÓ और कौशल किशोर के संपादन में ‘दर्द के काफिलेÓ जैसे कई महत्वपूर्ण संग्रह आए हैं, जिनमें कोरोना काल के दौरान रची गई कविताएं, आलेख और संस्मरण शामिल हैं।
कवि और संस्कृतिकर्मी कौशल किशोर बताते हैं कि इस महामारी के दौर में सभी संवेदनशील रचनाकारों ने सृजनात्मक हस्तक्षेप किया और इस दौरान रची गई कविताएं, कहानियां और संस्मरण अपने समय के दस्तावेज हैं। जब भी ऐसा कोई बड़ा संकट आया है, साहित्यकारों ने अपने दायित्व का निर्वाह किया है। इस बार भी ऐसा ही देखने में आ रहा है। इस बार तो कोरोना ही नहीं, दूसरी तरह की तमाम परिस्थितियां भी झेलनी पड़ रही हैं, जिसकी अभिव्यक्ति रचनाओं में हो रही है। इसी दौरान सेतु प्रकाशन ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें छापीं। आनंद स्वरूप वर्मा का ‘पत्रकारिता का अंधा युगÓ से लेकर रज़ा फाउंडेशन के साथ कई किताबों की शृंखला, ज्ञानरंजन की किताब ‘जैसे अमरूद की खुशबूÓ, जयप्रकाश चौकसे का ‘सिनेमा जलसाघरÓ, प्रचंड प्रवीर का ‘कल की बात – षडज़, ऋषभ और गांधारÓ, रणवीर सिंह की पारसी थिएटर पर एक महत्वपूर्ण किताब, संजीव की ‘पुरबी बयारÓ, आधुनिक हिन्दी रंगमंच और हबीब तनवीर के रंगकर्म पर अमितेश कुमार की किताब ‘वैकल्पिक विन्यासÓ, चंडी प्रसाद भट्ट की जीवनगाथा, फणीश्वरनाथ रेणु पर भारत यायावर की पुस्तकें और ऐसी तमाम पुस्तकें जो अलग अलग विषयों और संदर्भों में रची गईं।
सेतु प्रकाशन के अमिताभ राय का कहना है कि साहित्य सृजन एक निरंतर प्रक्रिया है और कोरोना काल के दौरान लेखकों, रचनाकारों और कई पत्रकारों ने इस प्रक्रिया को और तेज़ किया है। लॉकडाउन की त्रासदी, कोरोना का आतंक, जीवन शैली से लेकर सोच में आए बदलाव के साथ-साथ सत्ता की विद्रूपता के कई रंग इन रचनाओं में सामने आए हैं। उनके पास पुस्तक मेले को लेकर कम से कम सौ से ज्यादा किताबों को छापने का दबाव तत्काल है। इसके अलावा अशोक वाजपेयी रचनावली भी अंतिम चरण में है। मधुकर उपाध्याय की दस खंडों में छपी किताब– बापू और मदीह हाशमी की लिखी फैज़ अहमद फ़ैज़ की जीवनी – प्रेम और क्रांति के अलावा मंगलेश डबराल का कविता संग्रह भी सेतु प्रकाशन ने इसी साल छापा है।
वहीं अनुभव प्रकाशन के पराग कौशिक कहते हैं कि कोरोना काल में इस साल उनके कामकाज में और तेजी आई है। अब तक इस साल करीब डेढ़ सौ किताबें छाप चुके हैं। पुस्तक मेले में भी कुछ किताबें आने वाली हैं। उनका कहना है कि इस दौरान ई-बुक के क्षेत्र में भी काफी काम हुआ है और तमाम प्लेटफॉर्म्स पर उनकी ई-बुक्स उपलब्ध हैं।
इस दौरान प्रलेक प्रकाशन से सुभाष राय की किताब भी आई ‘अंधेरे के पारÓ जो कई कवियों और लेखकों पर आलेख और संस्मरणों का संकलन है। इसके अलावा कवि और पत्रकार शैलेन्द्र का छठा कविता संग्रह ‘सुने तो कोईÓ, सुरेश कांटक का कहानी संग्रह ‘अनावरणÓ, चंद्रेश्वर का कविता संग्रह ‘डुमराव नजर आएगाÓ, उषा राय का कहानी संग्रह ‘हवेलीÓ, सुभाष चंद्र कुशवाहा का ‘भील विद्रोहÓ, मीना सिंह का कविता संग्रह ‘काली कविताएं, दक्षिणी भूखंड और मैं, आशा राम जाग्रत की अवधी काव्य गाथा ‘पाही माफीÓ, प्रलेक प्रकाशन से छपा सलिल सुधाकर का उपन्यास ‘तपते कैनवास पर चलते हुएÓ, रणेन्द्र का ‘गूंगी रुलाई का कोरसÓ, संजीव पालीवाल का न्यूजरूम थ्रिलर ‘पिशाचÓ, सुरेन्द्र मनन का उपन्यास ‘हिल्लोलÓ, राजवंत राज का ‘ट्रंपकार्डÓ, सीमा आजाद का ‘औरत का सफर – जेल से जेल तकÓ, रामकुमार कृषक की कोरोना केन्द्रित कविताओं का संकलन ‘साधो, कोरोना जनहंताÓ, उर्मिलेश की किताब ‘गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेलÓ, शोभा सिंह का कविता संग्रह ‘यह मिट्टी दस्तावेज़ हमाराÓ जैसी कई अहम किताबें 2021 में आईं। एक महत्वपूर्ण किताब इस बीच ममता कालिया की भी आई ‘जीते जी इलाहाबादÓ। इसमें उनके भीतर रचे-बसे इलाहाबाद की वो यादें हैं जो उनके स्नायुतंत्र में दौड़ती रहती हैं। इस बीच स्त्री विमर्श और उसकी आलोचना पक्ष पर केन्द्रित पुस्तकें भी आई हैं। इसी कड़ी में राजकमल प्रकाशन ने सुजाता की एक अच्छी किताब छापी है ‘आलोचना का स्त्री पक्षÓ।
प्रभात प्रकाशन की ओर से सच्चिदानंद जोशी की दो किताबें आईं ‘जिंदगी का बोनसÓ और ‘पुत्रिकामेष्टिÓ। आनंद स्वरूप वर्मा ने नेपाली साहित्य पर केन्द्रित समकालीन तीसरी दुनिया का एक संग्रहणीय अंक निकाला। फेहरिस्त बहुत लंबी है, कितनों का जि़क्र करें। प्रभात प्रकाशन ने भी इस बीच सौ से ज्यादा पुस्तकें छापीं और साल के जाते-जाते आशुतोष चतुर्वेदी के संपादन में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी पर एक खास किताब भी छापी, जिसका लोकार्पण राज्यसभा के सभापति हरिवंश ने किया। प्रभात कुमार कहते हैं कि कोरोना काल में लेखकों की संख्या बहुत बढ़ गई है और ई-बुक्स का चलन काफी बढ़ा है। किताबें छप तो रही हैं लेकिन बिक कम रही हैं।
वहीं अनुभव प्रकाशन के पराग कौशिक कहते हैं कि अब तक इस साल करीब डेढ़ सौ किताबें वो छाप चुके हैं। उनका कहना है कि इस दौरान ई-बुक के क्षेत्र में भी काफी काम हुआ है और तमाम प्लेटफॉर्म्स पर उनके ई-बुक्स उपलब्ध हैं। इस दौरान अनुभव प्रकाशन ने सूरजपाल चौहान, डॉ. प्रदीप जैन, कैलाश दहिया, नरेन्द्र निगम, मृदुला भटनागर, ईशकुमार गंगानी, डॉ. धनंजय सिंह जैसे 30 से ज्यादा लेखकों की किताबें छापीं। दरअसल, इस बीच रचनात्मकता के कई आयाम दिखे। कोरोना काल में लिखी गई रचनाओं के ज्यादातर संग्रह आए, कई पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक निकाले। खास बात यह भी रही कि सबने सिर्फ महामारी की विभीषिका की ही बात नहीं की, कई ऐसे उपन्यास, कहानी संग्रह, संस्मरण और कविताएं रची गईं, जिनका सरोकार समाज के तमाम आयामों, जीवन की सच्चाइयों, राजनीतिक व्यवस्था और जातिगत, धार्मिक उन्माद जैसे विषयों से भी जुड़ा रहा। जाहिर है देश में मौजूदा सत्ता और सोच पर केन्द्रित किताबों की भी लंबी फेहरिस्त रही और तमाम लेखकों ने अपनी आस्था का रचनात्मक इजहार भी किया। धार्मिक और पौराणिक पुस्तकों के अलावा, देशप्रेम और शौर्य गाथाओं के भी किस्से खूब छापे गए और यह सिलसिला जारी है।
साल के अंत में चंडीगढ़ में भारत-पाक युद्ध की स्वर्ण जयंती पर आधारित पांचवां मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल-2021 देश की सुरक्षा चुनौतियों व गौरवशाली सैन्य उपलब्धियों पर गंभीर विमर्श नई पीढ़ी तक पहुंचाने में सफल रहा।
डिजिटल मंचों पर साहित्यिक आयोजन
कोरोना काल के पहले कालखंड ने साहित्यकारों और रचनाकारों को फेसबुक लाइव से लेकर ऑनलाइन तमाम ऐसे मंच दिए, जिसमें साहित्य की तमाम धाराओं पर समय-समय पर चर्चाएं होती रहीं। 2021 में अब यह परंपरा थोड़े और वृहद और स्वीकार्य रूप में सामने आई। ज्यादातर प्रकाशन संस्थानों ने अपनी नई किताबों का ऑनलाइन विमोचन करवाए, उसपर चर्चाएं करवाईं और तमाम साहित्यिक मंचों पर कविताओं, कहानियों के पाठ हुए, साहित्यिक चर्चाएं हुईं। विश्व पुस्तक मेला और दिल्ली पुस्तक मेला तो ऑनलाइन हुआ ही, यहां के साहित्यिक सेशन भी डिजिटल मंचों पर हुए।
प्रतिरोध का साहित्य
सत्ता के जनविरोधी चरित्र को केन्द्र में रखकर अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में कई लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध के साहित्य सृजन का अभियान शुरू किया। इस दौरान अशोक वाजपेयी ने प्रतिरोध पूर्वज के नाम से तमाम कालजयी रचनाकारों की कविताओं का संग्रह छापा। स्वप्निल श्रीवास्तव के संपादन में ताकि स्पर्श बचा रहे और विमल कुमार की मृत्यु की परिभाषा बदल दो, किताबों में स्त्री जैसी कई किताबें भी इसी कड़ी में सामने आईं और सौ से ज्यादा रचनाकारों ने एक प्रस्ताव पास करके पूरे देश के रचनाकारों से अपील की कि वो अपनी सीमा में प्रतिरोध का साहित्य रचते रहें और जनपक्षधर साहित्य का सृजन करते रहें।
जिनको हमने खो दिया
कोरोना काल के दूसरे सबसे भयानक काल ने बहुत से साहित्यकारों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को हमसे छीन लिया। वर्ष 2021 में मन्नू भंडारी, कुंअर बेचैन, नरेन्द्र कोहली, विनोद दुआ, रमेश उपाध्याय, ईश मधु तलवार, ओम भारती, राजकुमार केसवानी को हमने खो दिया।?

कांग्रेस का आजादी व देश के विकास में योगदान अहम!

कांग्रेस स्थापना दिवस पर विशेष

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट –
कांग्रेस का स्वर्णिम इतिहास देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है। इसका गठन सन 1885 में हुआ, जिसका श्रेय एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को जाता है। एलेन ओक्टेवियन ह्यूम का जन्म सन1829 को इंग्लैंड में हुआ था। वह अंग्रजी शासन की सबसे प्रतिष्ठित ‘बंगाल सिविल सेवा’ में पास होकर सन 1849 में ब्रिटिश सरकार के एक अधिकारी बने।सन 1857 की गदर के समय वह इटावा के कलक्टर थे। लेकिन ए ओ ह्यूम ने खुद ब्रटिश सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाई और सन1882 में पद से अवकाश ले लिया और कांग्रेस यूनियन का गठन किया। उन्हीं की अगुआई में मुंबई में पार्टी की पहली बैठक हुई थी। शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिल कर भारत की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की और इसने प्रांतीय विधायिकाओं में हिस्सा भी लिया। लेकिन सन1905 में बंगाल के विभाजन के बाद पार्टी का रुख़ कड़ा हुआ और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरु हए।इसी बीच महात्मा गाँधी भारत लौटे और उन्होंने ख़िलाफ़त आंदोलन शुरु किया। शुरु में बापू ही कांग्रेस के मुख्य विचारक रहे। इसको लेकर कांग्रेस में अंदरुनी मतभेद गहराए। चित्तरंजन दास, एनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं ने अलग स्वराज पार्टी बना ली।साल 1929 में ऐतिहासिक लाहौर सम्मेलन में जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया। पहले विश्व युद्ध के बाद पार्टी में
महात्मा गाँधी की भूमिका बढ़ी, हालाँकि वो आधिकारिक तौर पर इसके अध्यक्ष नहीं बने, लेकिन कहा जाता है कि सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से निष्कासित करने में उनकी मुख्य भूमिका थी।स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सबसे मज़बूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। महात्मा गाँधी की हत्या और सरदार पटेल के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरु के करिश्माई नेतृत्व में पार्टी ने पहले संसदीय चुनावों में शानदार सफलता पाई और ये सिलसिला सन 1967 तक लगातार चलता रहा। पहले प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को सरकार का मुख्य आधार बनाया जो कांग्रेस पार्टी की पहचान बनी।नेहरू की अगुआई में सन1952, सन1957 और सन1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अकेले दम पर बहुमत हासिल करने में सफलता पाई। सन1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में कमान सौंप गई लेकिन उनकी भी सन 1966 में ताशकंद में रहस्यमय हालात में मौत हो गई। इसके बाद पार्टी की मुख्य कतार के नेताओं में इस बात को लेकर ज़ोरदार बहस हुई कि अध्यक्ष पद किसे सौंपा जाए। आखऱिकार पंडित नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी के नाम पर सहमति बनी।देश की आजादी के संघर्ष से जुड़े सबसे मशहूर और जाने-माने लोग इसी कांग्रेस का हिस्सा थे।गांधी-नेहरू से लेकर सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद तक आजादी की लड़ाई में आम हिंदुस्तानियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी ने देश को एकता के सूत्र में बांधने की कोशिश की थी।एलेन ओक्टेवियन ह्यूम सन1857 के गदर के वक्त इटावा के कलेक्टर थे। ह्यूम ने खुद ब्रटिश सरकार के खिलाफ आवाज उठाई और 1882 में पद से अवकाश लेकर कांग्रेस यूनियन का गठन किया। उन्हीं की अगुआई में बॉम्बे में पार्टी की पहली बैठक हुई थी. व्योमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष बने। शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर भारत की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की और इसने प्रांतीय विधायिकाओं में हिस्सा भी लिया लेकिन 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद पार्टी का रुख कड़ा हुआ और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए।दादाभाई नौरोजी और बदरुद्दीन तैयबजी जैसे नेता कांग्रेस के साथ आ गए थे।आजादी के बाद सन1952 में देश के पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई। सन1977 तक देश पर केवल कांग्रेस का शासन था।लेकिन सन 1977 में हुए चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस से सत्ता की कुर्सी छीन ली थी। हालांकि तीन साल के अंदर ही सन1980 में कांग्रेस वापस गद्दी पर काबिज हो गई।सन 1989 में कांग्रेस को फिर हार का सामना करना पड़ा।दादा भाई नौरोजी 1886 और 1893 में कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन1887 में बदरुद्दीन तैयबजी तो सन1888 में जॉर्ज यूल कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे।सन1889 से सन1899 के बीच विलियम वेडरबर्न, फिरोज़शाह मेहता, आनंदचार्लू, अल्फ्रेड वेब, राष्ट्रगुरु सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आगा खान के अनुयायी रहमतुल्लाह सयानी, स्वराज का विचार देने वाले वकील सी शंकरन नायर, बैरिस्टर आनंदमोहन बोस और सिविल अधिकारी रोमेशचंद्र दत्त कांग्रेस अध्यक्ष रहे।इसके बाद हिंदू समाज सुधारक सर एनजी चंदावरकर, कांग्रेस के संस्थापकों में शुमार दिनशॉ एडुलजी वाचा, बैरिस्टर लालमोहन घोष, सिविल अधिकारी एचजेएस कॉटन, गरम दल व नरम दल में पार्टी के टूटने के वक्त गोपाल कृष्ण गोखले, वकील रासबिहारी घोष, शिक्षाविद मदनमोहन मालवीय, बीएन दार, सुधारक राव बहादुर रघुनाथ नरसिम्हा मुधोलकर, नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर, भूपेंद्र नाथ बोस, ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में पहले भारतीय सदस्य बने एसपी सिन्हा, एसी मजूमदार, पहली महिला कांग्रेस अध्यक्ष एनी बेसेंट, सैयद हसन इमाम और नेहरू परिवार के मोतीलाल नेहरू सन 1900 से सन 1919 के बीच कांग्रेस अध्यक्ष रहे।सन 1915 में अफ्रीका से लौटकर भारत आए मोहनदास करमचंद गांधी का प्रभाव कांग्रेस की विचारधारा व आंदोलन तय करने में सन1920 के आसपास से साफ दिखना शुरू हो गया था।जो गांधी के जीवन के बाद तक भी बना हुआ है। सन1920 से भारत की आज़ादी अर्थात सन 1947 के बीच के युग में कांग्रेस अध्यक्ष पंजाब केसरी लाला लाजपत राय थे, जिन्होंने सन1920 के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता की। स्वराज संविधान बनाने में अग्रणी रहे सी विजयराघवचारियार, जामिया मिल्लिया के संस्थापक हकीम अजमल खान, देशबंधु चितरंजन दास, मोहम्मद अली जौहर, शिक्षाविद मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन1924 में बेलगाम अधिवेशन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी और यहां से कांग्रेस के ऐतिहासिक स्वदेशी, सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलनों की नींव पड़ी थी। सरोजिनी नायडू, मद्रास के एडवोकेट जनरल रहे एस श्रीनिवास अयंगर, मुख्तार अहमद अंसारी कांग्रेस अध्यक्ष रहे। गांधी के अनुयायी जवाहरलाल नेहरू सन 1929 में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने थे सरदार वल्लभभाई पटेल, नेली सेनगुप्ता, राजेंद्र प्रसाद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और गांधी के अनुयायी जेबी कृपलानी भारत को आज़ादी मिलने तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे।सन1948 और सन 1949 में पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और यही वह साल था जब गांधी की हत्या हो चुकी थी. महात्मा गांधी का प्रभाव आज तक भी भारतीय राजनीति पर है, लेकिन उनकी हत्या के बाद कांग्रेस का नेहरू युग शुरू हुआ। पहले प्रधानमंत्री बन चुके पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में जिस साल संविधान लागू हुआ ।सन 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष साहित्यकार पुरुषोत्तमदास टंडन थे।सन1951 से सन 1954 तक खुद नेहरू अध्यक्ष रहे। पंडित नेहरू युग में 1955 से सन19 59 तक यूएन धेबार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। सन 1959 में पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी बनी थी।सन 1960 से सन 1963 तक नीलम संजीव रेड्डी, नेहरू के निधन के सन 1964 से सन19 67 तक कामराज कांग्रेस अध्यक्ष रहे। हालांकि नेहरू का निधन 1964 में हो चुका था, लेकिन कांग्रेस का अगला इंदिरा गांधी युग लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद शुरू होता है।सन 1966 में पहली बार देश की पहली और इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनीं। कामराज के साथ उनका सत्ता संघर्ष काफी चर्चित रहा। इसके बाद ही इंदिरा की लीडरशिप और उनके ‘आयरन लेडी’ होने के ख्याति मिलने लगी। इंदिरा गांधी के प्रभाव के समय में सन 1968से सन 1969 तक निजालिंगप्पा, 1970से सन 1971 तक बाबू जगजीवन राम ,1972से सन 1874 तक शंकर दयाल शर्मा और सन 1975 से सन 1977 तक देवकांत बरुआ कांग्रेस अध्यक्ष रहे।
सन1977 से सन1978 के बीच केबी रेड्डी ने कांग्रेस को संभाला लेकिन इमरजेंसी के बाद कांग्रेस टूटी तो सन 1978 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की अध्यक्ष वे स्वयं बनीं।कुछ समय को छोड़कर 1984 में अपनी हत्या के पहले तक इंदिरा ही अध्यक्ष रहीं। कांग्रेस ने करीब 15 साल का इंदिरा गांधी युग देखा और इसके बाद राजीव गांधी युग शुरू हुआ, कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री भी बने और सन1985 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए थे। जब प्रधानमंत्री व कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की हत्या हुई तब फिर कांग्रेस के सामने अध्यक्ष को लेकर संकट खड़ा हो गया था,क्योंकि शुरुआत में सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने में रुचि नहीं दिखाई थी।इसी कारण सन1992 से सन1996 तक पीवी नरसिम्हाराव ने कांग्रेस का नेतृत्व किया ।सन 1996 से सन 19 98 तक गांधी परिवार के वफादार सीताराम केसरी अध्यक्ष रहे।सोनिया गांधी का सक्रिय राजनीति में पदार्पण हुआ और सन1998 से सन 2017 तक करीब 20 वर्षो तक सोनिया ही कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं।राहुल गांधी को सन 2017 में पार्टी की कमान सौंपी गई, लेकिन सन 2019 के आम चुनावों में बड़ी हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोडऩे की पेशकश की और कहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार के बाहर के नेता को होना चाहिए।लेकिन इसपर सहमति नही हुई। तबसे कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ही ने कांग्रेस का नेतृत्व कर रही है। सन1991,सन 2004, सन2009 में कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर केंद्र की सत्ता हासिल की।आजादी के बाद कांग्रेस कई बार विभाजित हुई। लगभग 50 नई पार्टियां इस संगठन से निकल कर बनीं। इनमें से कई निष्क्रिय हो गए तो कईयों का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और जनता पार्टी में विलय हो गया। कांग्रेस का सबसे बड़ा विभाजन सन1967 में हुआ। जब इंदिरा गांधी ने अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम कांग्रेस (आर) रखा। सन 1971 के चुनाव के बाद चुनाव आयोग ने इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया।राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का काम देखना एआईसीसी की जिम्मेदारी होती है. राष्ट्रीय अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के अलावा पार्टी के महासचिव, खजांची, पार्टी की अनुशासन समिती के सदस्य और राज्यों के प्रभारी इसके सदस्य होते हैं.हर राज्य में कांग्रेस की ईकाई है जिसका काम स्थानीय और राज्य स्तर पर पार्टी के कामकाज को देखना होता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

जीत गये किसान, क्या भाजपा भी जीतेगी

राजकुमार सिंह –
साल भर पहले याचक की मुद्रा में देश की राजधानी दिल्ली की दहलीज पर पहुंच कर आंदोलनकारी बन गये किसान कल 11 दिसंबर को विजय दिवस मना कर घर वापसी करेंगे। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरुद्ध पिछले साल 26 नवंबर को जब किसानों ने दिल्ली में प्रवेश न मिलने पर दहलीज पर ही अनंतकाल तक धरने पर बैठ जाने का ऐलान किया था, तब खुद उनके अलावा किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि कठोर निर्णय लेने और उन पर अडिग रहने के लिए चर्चित, प्रचंड बहुमत से निर्वाचित नरेंद्र मोदी सरकार कानून वापसी की उनकी मांग कभी मानेगी। सरकार ने आंदोलनकारी किसानों के विभिन्न संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा प्रतिनिधियों से एक नहीं, 12 दौर की बातचीत की, लेकिन हर बार वार्ता तीन कृषि कानूनों की वापसी की शर्त पर ही टूटी। सरकार ने कृषि कानून वापसी से दो टूक इनकार कर दिया था और संयुक्त किसान मोर्चा कानून वापसी से कम पर तैयार ही नहीं था। दोनों पक्षों की हठधर्मिता से उपजी संवादहीनता के बीच ही 26 जनवरी का दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम भी सामने आया तो लगा कि किसान आंदोलन अपना नैतिक दबाव खो रहा है, जिससे सरकार को सख्ती का अवसर मिल जायेगा, पर वही नाजुक मोड़ आंदोलन को नयी धार दे गया।
26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद बढ़ते पुलिस दबाव के चलते सूने होते धरनास्थलों पर, गाजीपुर बॉर्डर पर निकले किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं से, फिर से जुटे किसानों के जज्बे को फिर न मौसम की मार हरा पायी और न ही सरकार। किसानों का यह अहसास और भी गहरा हो गया कि इस बार उनके आंदोलन की हार दरअसल सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष की हार होगी, जिसका खमियाजा आने वाली पीढिय़ों को भी भुगतना पड़ेगा। इसी अहसास ने किसानों को सरकार की उपेक्षा के साथ ही कोरोना के कहर और मौसम की मार के बीच भी दिल्ली की दहलीज पर डटे रहने का मनोबल दिया। संघर्ष आसान नहीं था, बकौल संयुक्त किसान मोर्चा 700 किसानों की आंदोलनकाल में विभिन्न कारणों से मौत इसका प्रमाण है। इसलिए मानना होगा कि विश्व के सबसे लंबे आंदोलनों में शुमार इस आंदोलन की 380 दिन बाद अपनी शर्तों पर समाप्ति दरअसल एकजुटता और संघर्ष क्षमता के साथ किसानों के विश्वास की जीत भी है। भोलेभाले किसानों ने अपने शांतिपूर्ण, मगर सुनियोजित आंदोलन के जरिये एक मजबूत सरकार से जिस तरह अपनी मांगें मनवायी हैं, उसके विजय दिवस का संदेश बहुत दूर तक जायेगा। लोक के दबाव में अगर तंत्र को झुकना पड़े तो उससे अंतत: लोकतंत्र मजबूत ही होता है, पर मांगों को जस-का-तस मानने में भी पूरा साल गुजार देने वाली सरकार को इसका सकारात्मक फल नहीं मिल पाता, क्योंकि तब तक अविश्वास की खाई बहुत चौड़ी हो चुकी होती है। जनवरी में वार्ताओं के दौरान ही मांगें स्वीकार कर लेने पर जहां सरकार की संवेदनशीलता की चर्चा होती, वहीं नौ दिसंबर को सभी मांगें लिखित रूप में मानने को भी चुनावी डर से उपजी मजबूरी माना जा रहा है।
सच तो यह है कि नयी पीढ़ी तक इस बात पर विश्वास से ज्यादा आश्चर्य करने लगी थी कि बीसवीं शताब्दी में महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन के जरिये उस अंग्रेज सत्ता को भारत से खदेड़ कर आजादी हासिल कर ली गयी थी, जिसके साम्राज्य में सूरज ही नहीं डूबता था। आम आदमी के मन में संघर्ष के टूटते विश्वास को किसान आंदोलन की सफलता मजबूत करेगी कि खासकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में, सरकार कितनी भी मजबूत क्यों न हो, जनता की जायज मांगों के लिए संघर्ष की अनदेखी अनिश्िचतकाल तक नहीं कर सकती। यह अलग बात है कि इक्कीसवीं शताब्दी आते-आते बदली जीवन और कार्यशैली में कामकाजी आम आदमी के लिए संघर्ष का रास्ता सहज नहीं रह गया है, और इसी मजबूरी का लाभ व्यवस्था उठाती है। किसानों ने विवादास्पद तीन कृषि कानूनों को अपने जीवन-मरण का प्रश्न मान कर संघर्ष किया तो परिणाम सामने है कि कानून वापसी पर बातचीत से ही इनकार करने वाली सरकार के प्रधानमंत्री ने क्षमा-याचना करते हुए राष्ट्र के नाम संदेश में तीनों कानून वापस लेने की एकतरफा घोषणा की। हर किसी के मन में सवाल होगा कि अचानक सरकार का हृदय परिवर्तन कैसे हो गया? इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर भी लोकतंत्र की शक्ति में निहित है। कोई सरकार कितने ही प्रचंड बहुमत से क्यों न चुनी गयी हो, समय-समय पर सत्तारूढ़ दल को जनता के बीच आना ही पड़ता है, और तब एक-एक वोट कीमती होता है।
सरकार के हृदय परिवर्तन का रहस्य पांच राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनावों में निहित है। पूछा जा सकता है कि आखिर किसान आंदोलन जारी रहते हुए ही बिहार और पश्चिम बंगाल में भी तो विधानसभा चुनाव हुए। बेशक हुए और उनमें से बिहार में भाजपानीत राजग सत्ता बरकरार रखने में सफल रहा, जबकि पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की सीटें कई गुणा बढ़ीं, पर मत भूलिए कि कृषि की बदहाली राष्ट्रव्यापी होने के बावजूद किसान आंदोलन का असर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वी राजस्थान यानी कि दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में ज्यादा रहा है। इसलिए अब जबकि अगले साल के शुरू में ही पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी चुनाव होने हैं, किसान आंदोलन के राजनीतिक प्रभाव और परिणाम का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। माना कि पंजाब में भाजपा का बहुत कुछ दांव पर नहीं है, पर हाल तक कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरेंद्र सिंह और शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) से गठबंधन कर वह इस सीमावर्ती राज्य में अपनी गोटियां तो बिछा ही रही है। उत्तराखंड में भाजपा की सरकार है, पर चंद महीने में तीन मुख्यमंत्री बदलने के बावजूद बरकरार रहने के आसार कम ही हैं। सबसे अहम है उत्तर प्रदेश, जो लोकसभा में सर्वाधिक सांसद चुन कर भेजता है। लंबे वनवास के बाद भाजपा वहां सत्ता में लौटी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विश्वस्त केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बखूबी जानते हैं कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही निकलता है। नहीं भुलाया जा सकता कि वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अकेलेदम बहुमत दिलवाने में उत्तर प्रदेश की ही निर्णायक भूमिका रही।
माना कि अगले लोकसभा चुनाव 2024 में होंगे, लेकिन अगर 2022 में लखनऊ की सत्ता ही भाजपा के हाथ से फिसल गयी तो दिल्ली किसने देखी है! चुनाव मुद्दों-नारों-जुमलों के साथ-साथ हवा पर भी लड़े जाते हैं, और हवा बनने में देर लगती है, बिगडऩे में नहीं। फिर लगभग 100 विधानसभा सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ जिस तरह विजयी समीकरण बनाने में जुटे हैं, उसके खतरे का आकलन चुनाव प्रबंधन में माहिर भाजपा-संघ नेतृत्व से बेहतर कौन कर सकता है? कांग्रेस-बसपा के अलग रहने के बावजूद अखिलेश कई अन्य छोटे दलों से भी गठबंधन कर भाजपा की चुनावी घेराबंदी कर रहे हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम के मद्देनजर निर्णायक भूमिका पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ही मानी जा रही है। उत्तर प्रदेश हो या उत्तराखंड अथवा पंजाब, सरकार द्वारा मांगें मान लिये जाने पर आंदोलन समाप्त कर किसान सब कुछ भुला कर भाजपा समर्थक हो जायेंगे—ऐसी खुशफहमी शायद भाजपा-संघ रणनीतिकारों को भी नहीं होगी, पर हां साल भर से किसान आंदोलन पर सवार हो कर अपनी राजनीतिक-चुनावी रणनीतियां बनाने वाले विपक्षी दलों से बड़ा भावनात्मक मुद्दा चुनाव से ऐन पहले निश्चय ही छिन गया है। पर सिर्फ चुनावी मुद्दा छीनने के लिए, साल भर चले आंदोलन से सरकार की साख पर लगे सवालिया निशान को और गहरा करते हुए समर्पण की मुद्रा में सभी मांगों की लिखित स्वीकारोक्ति की यह राजनीतिक शैली मोदी-शाह की चार कदम आगे रहने की रणनीतिक छवि से फिलहाल तो उलट ही नजर आती है, बाकी तो जनता जनार्दन है।

मजदूर की दिहाड़ी से कम वेतन में शिक्षक

विश्वनाथ सचदेव – 
आपने भी देखी होगी शायद वह तस्वीर टी.वी. पर, जिसमें मोहाली के कुछ अध्यापक पानी की टंकी पर चढ़े हुए हैं। यह उनके विरोध-प्रदर्शन का तरीका है। विरोध इस बात का कि पिछले 18-18 साल से काम करने के बावजूद उन्हें स्थाई नौकरी क्यों नहीं मिल रही? मीरा रानी इनमें से एक हैं, पिछले ग्यारह साल से ‘कांट्रेक्ट टीचरÓ के रूप में बच्चों को पढ़ा रही हैं। देश का भविष्य बना रही हैं मीरा रानी, पर उनके वर्तमान की हालत यह है कि ग्यारह साल से उनका वेतन छह हज़ार प्रति माह ही है। यानी दिन के दो सौ रुपये!
कांट्रेक्ट टीचर अर्थात् नियोजित शिक्षक। यह पूछे जाने पर कि वे घर का नियोजन कैसे करती हैं, मीरा रानी की आंखों में आंसू बहने लगे थे। मनीष शर्मा ने भी अपनी हालत रोते हुए ही बयां की थी। मनीष शर्मा अंग्रेजी में एम.ए. हैं। कंप्यूटर का कोर्स भी कर चुके हैं। उन्हें भी प्रति माह छह हज़ार रुपये ही मिलते हैं। आय बढ़ाने के लिए वे मज़दूरी करते हैं। जब उनसे बात की गयी तो वे एक निर्माणाधीन मकान में इंटें ढोने का काम कर रहे थे। इस काम में उन्हें 450 रुपये रोज़ मिलते हैं! मोहाली में पानी की टंकी पर चढ़कर प्रदर्शन करने वाले इन ‘बेचारे अध्यापकोंÓ को समझाने के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री तो नहीं पहुंचे पर दिल्ली के मुख्यमंत्री पहुंचे हुए थे। वे अध्यापकों से खतरनाक टंकी से नीचे उतरने का आग्रह करते हुए यह आश्वासन दे रहे थे कि यदि पंजाब में उनकी सरकार बनी तो वे ‘दिल्ली की तरहÓ ही पंजाब में भी अध्यापकों की स्थिति बेहतर बना देंगे।
विडम्बना यह है कि टी.वी के जिस कार्यक्रम में मोहाली का यह दृश्य दिखाया जा रहा था, उसी में एक समाचार यह भी था कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सिद्धू दिल्ली के मुख्यमंत्री के घर के सामने प्रदर्शन करने वाले अध्यापकों की भीड़ में शामिल थे। दिल्ली का मुख्यमंत्री मोहाली में जाकर स्थिति सुधारने का आश्वासन दे रहा है और पंजाब की सरकारी पार्टी का अध्यक्ष दिल्ली में स्थिति सुधारने की मांग कर रहा है।
बरसों पहले एक फिल्म आयी थी ‘शोलेÓ। शायद इसी फिल्म में पहली बार फिल्म के हीरो को पानी की ऊंची टंकी पर चढ़कर अपनी मांग मनवाते हुए देखा गया था। शायद उसी से प्रेरणा लेकर मोहाली के नियोजित अध्यापक पानी की टंकी पर चढ़ गये थे। पता नहीं उन्हें संबंधित अधिकारियों ने कोई ठोस आश्वासन दिया या नहीं, पर यह दृश्य देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा को अच्छी तरह दिखा रहा था।
सरकारें भले ही कुछ भी दावे करती रहें पर देश की शिक्षा-व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि आज देश में मीरा रानी और मनीष शर्मा जैसे बारह लाख अध्यापक हैं जो सालों से ‘कांट्रेक्ट टीचरÓ की तरह दो सौ रुपये की दिहाड़ी पर देश का भविष्य संवारने का काम कर रहे हैं। पंजाब की शिक्षा-व्यवस्था का सच देश के अनेक राज्यों की स्थिति का प्रतिनिधित्व करने वाला है। अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम जैसे कुछ राज्यों में तो आधे से अधिक अध्यापक ठेके पर पढ़ा रहे हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019-2020 में देश में कुल मिलाकर लगभग दस लाख दिहाड़ी अध्यापक हैं। कहीं इन्हें कांट्रेक्ट टीचर कहा जाता है, कहीं ‘गेस्ट टीचरÓ और कहीं शिक्षा मित्र। पंजाब, बंगाल और उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से हैं जहां कुछ अध्यापकों की एक-तिहाई संख्या इसी तरह के ‘अस्थाई अध्यापकोंÓ की है।
यह व्यवस्था किस तरह और क्यों काम कर रही है, यह सवाल विस्तृत सर्वेक्षण की अपेक्षा करता है। महत्वपूर्ण यह है कि हमारे हुक्मरानों की दृष्टि में शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दा वरीयता के क्रम में इतना नीचे क्यों है? क्यों उन्हें नहीं लगता कि शिक्षा की इस तरह उपेक्षा करके वे देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं? हमारी नयी शिक्षा-नीति में शिक्षकों को स्थाई बनाने का उल्लेख तो है, पर फिलहाल इस स्थिति से शिक्षकों और शिक्षा का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी, उसकी बात कोई नहीं कर रहा। क्यों ऐसी स्थिति आये कि किसी मीरा रानी को पानी की ऊंची टंकी पर चढ़कर यह कहना पड़े कि वह दो सौ रुपये से अपने परिवार को दिनभर का खाना नहीं खिला सकती। मोहाली के प्रदर्शनकारी अध्यापकों ने यह भी बताया कि 2016 के चुनाव से पहले अमरेंद्र सिंह ने ऐसे ही टीचरों के किसी प्रदर्शन-स्थल पर जाकर वादा किया था कि ‘सत्ता में आते ही मैं इन अध्यापकों की नौकरी को नियमित करूंगा।Ó वे सत्ता में आये भी, और सत्ता से चले भी गये, पर ‘बेचारे अध्यापकोंÓ का जीवन ‘अनियमितÓ ही बना रहा।
सच तो यह है कि हमारे राजनेताओं के लिए ऐसी स्थितियां वोट कमाने का साधन बन कर आती हैं। हर चुनाव से पहले राजनीतिक दल और राजनेता वादों की झड़ी लगा देते हैं और फिर चुनाव के बाद ऐसे अधिकांश वादे ठंडे बस्ते में डाल दिये जाते हैं— अगले चुनावों में भुनाने के लिए। पंजाब समेत देश के पांच राज्यों में फिर चुनाव होने वाले हैं। दावों और वादों की बरसात शुरू हो गयी है। शिलान्यासों और योजनाओं के उद्घाटन की झड़ी लगी हुई है। राज्यों के नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री तक, आये दिन अरबों-खरबों की योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं। सवाल उठता है कि यह सब कुछ चुनावों से पहले ही क्यों शुरू होता है, और चुनावों के बाद अक्सर भुला क्यों दिया जाता है? सवाल यह भी उठता है कि क्या यह मात्र संयोग ही है कि शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता? क्यों किसी नेता को यह अहसास नहीं होता कि कोई मीरा रानी छह हज़ार रुपये महीना में कैसे जीवन-यापन कर सकती है? क्यों एम.ए. पास मनीष शर्मा को बाध्य होना पड़ता है मुंह छिपा कर ईंटें ढोने के लिए? जी हां, दो सौ रुपये रोज़ की दर से बच्चों को पढ़ाने वाले मनीष शर्मा को शर्म आती है, कहीं कोई छात्र उसे ईंटें ढोते हुए देख न ले।
सच यह भी है कि ‘शर्म उनको नहीं आतीÓ जिन्हें आनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में यह स्थिति उन सबके लिए शर्म की बात है, जिनके हाथों में देश का वर्तमान संवारने और भविष्य बनाने का काम सौंपा गया है। शानदार सड़कें, भव्य इमारतें, विशालकाय मूर्तियां, इन सबकी भी जगह होती है जीवन में, पर उस शिक्षा की अवहेलना किसी अपराध से कम नहीं है जो देश का भविष्य बनाती है। एक आदत-सी बन गयी है हमारे नेताओं को यह कहने की कि पिछली सरकारों ने वह काम नहीं किया जो उन्हें करना चाहिए था। सही हो सकती है यह बात, पर सही यह भी है कि आज की सरकारें भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजग़ारी जैसे मुद्दों को वह वरीयता नहीं दे रहीं जो देनी चाहिए। बुनियादी मुद्दे हैं यह, उनकी उपेक्षा किसी अपराध से कम नहीं है। इस अपराध की सज़ा भी तो किसी को मिलनी चाहिए।
किसी मोहाली में पानी की टंकी पर चढ़कर प्रदर्शन करने वाला दिहाड़ी अध्यापक उन सब प्रदर्शनकारियों से अधिक महत्वपूर्ण है नमाज़ और आरती के नाम पर नारे लगा रहे हैं। शिक्षा के मंदिरों को प्राथमिकता कब मिलेगी? कब हमारे हुक्मरानों का ध्यान इस ओर जायेगा कि अकेले मध्य प्रदेश में 21 हज़ार स्कूलों में एक शिक्षक चार-चार कक्षाओं को पढ़ा रहा है। और इस बात की पूरी संभावना है कि वह ‘दिहाड़ी शिक्षकÓ हो और उसे हमने शिक्षा-मित्र का नाम दे रखा हो!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

आम नागरिकों को कब सुलभ होंगे मानवाधिकार

10 दिसंबर  विश्व मानवाधिकार दिवस

विकास कुमार –
प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह पहल संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसंबर ,1948 से की गयी थी। 1939 से 1945 द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात वैश्विक राजनीति के चिंतकों एवं विचार को ने मानवीय गरिमा एवं मनुष्य के मूलभूत अधिकारों से ओतप्रोत होकर इस नवाचार की पहल को संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों एवं उद्देश्य में लागू किया। तत्पश्चात सदस्य देशों को भी निर्देशित किया गया की वह अपने देश में मानवाधिकार से संबंधित आयोग कि स्थापना करें जो देश में रहने वाले नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा कर सकें जिनको सरकारें और शासन नकार देती हैं एवं अनदेखा कर देती हैं। भारत में भी इस अनुक्रम को अपनाते हुए 1993 में मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई जिसका कार्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है। यह एक यात्रा का परिणाम है सर्वप्रथम 1215 में ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा के रूप में नागरिकों के कुछ अधिकारों को सुनिश्चित किया गया था। यही पहल अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा पत्र 1776 में मानव गरिमा को प्रमुख मानते हुए अधिकारों को सक्रियता प्रदान की गई थी। यही कारण रहा कि अमेरिका जैसे विकसित देश ने संविधान अपनाते समय मौलिक अधिकारों का समायोजन एवं संकलन अपने संविधान में किया। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारे पर हुई थी जिन में मानवाधिकारों के मूलभूत प्रावधान देखने को मिलते हैं। 1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया एवं 1948 में सार्वभौमिक रूप से मानव अधिकार दिवस की घोषणा की गई। इन्हीं आयामों से संबंधित 1949 में जिलों में संधि हुई तथा 1950 में मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रता ओं के संरक्षण हेतु यूरोपीय संधि हुई। इसी प्रक्रिया में 1961 में यूरोपीय सामाजिक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर की हुई तथा 1966 में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय संधि ,नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय संधि, नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों से जुड़ी ऐच्छिक संधि का प्रावधान किया गया। इस प्रकार से आधुनिक समय में मानव अधिकारों का विकास हुआ। भारत में 1993 के अधिनियम के द्वारा राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग एवं राज्य के मानव अधिकार आयोग से संबंधित प्रावधान किए गए। मानव अधिकार आयोग के धारा 2(1) स्र में प्रावधान मिलता है कि जो मानव गरिमा एवं मानव सम्मान को प्रबलता प्रदान करते हैं ऐसे अधिकारों को मानव अधिकार की श्रेणी में रखा जाएगा। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 को मानवाधिकार से संबंधित बताया है। संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार से संबंधित है जिसमें जीवन से संबंधित इन मूलभूत अन्य अधिकारों की भी वृहद एवं विस्तृत चर्चा की गई है। कई अन्य मामलों की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कई प्रकार की श्रेणियों के अधिकारों को अनुच्छेद 21 में सम्मिलित करने का निर्देश देते रहे हैं। आज विश्व सार्वभौमिक रूप से मानव अधिकारों की अवधारणा को अपना चुका है। यह कहना बिल्कुल सत्य है कि इस अवधारणा को अपनाने के पश्चात मनुष्य में मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता एवं उनके अधिकार कुछ हद तक सुरक्षित एवं संरक्षित हुए हैं परंतु जिस संरचना के संरक्षण के तहत इनकी परिकल्पना की गई थी क्या वह आज साकार होते दिख रहे हैं? यह समाज और शासन दोनों के समक्ष एक बड़ा प्रश्न है? जिसको ना अकादमिक जगत के लोग, नाही न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोग और स्वयं मानव अधिकारों के सक्रिय लोग भी इसको नकार नहीं सकते। सामान्य तौर पर शिक्षित नागरिकों के भी अधिकार सुरक्षित होते नहीं दिखाई दे रहे हैं कई प्रकार के मानवाधिकारों से मेल न खाने वाली गतिविधियों का प्रयोजन बता कर उनके अधिकारों को ठेस पहुंचाई जाती है। यहां पर एक पक्ष लेना उचित नहीं होगा। यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि कई संगठन और राजनेताओं का जत्था मानवाधिकारों की दुहाई देकर प्रशासन की गरिमा को भी ठेस पहुंचाते हैं। परंतु यह अल्प संख्या में होता है। गरीब लोगों को नाही कानून की जानकारी होती है और ना ही मानवाधिकारों की। छोटे से छोटे काम के लिए उनसे व्यापक रूप से रिश्वत ली जाती है। फुटपाथ पर सोने वाले बिहारी मजदूरों से वसूली की जाती है। रिक्शा चलाने वाले दैनिक रूप से दो से ?300 कमाने वाले असंगठित मजदूर से छोटे से कानून के उल्लंघन पर पैसा लिया जाता है। किसानों के क्रेडिट कार्ड बनवाने एवं सरकारी योजनाओं से लाभान्वित प्रक्रिया में पहले से ही परसेंटेज तय कर दिया जाता है। आवास एवं सरकारों द्वारा संचालित आवंटित राशन में कई तकनीकी समस्याओं का हवाला देकर परेशान किया जाता है। सरकारी अस्पतालों में अच्छी दवा लेने के लिए डॉक्टर को अलग से पैसा देना होता है। एक ग्लोबल सूचकांक के अनुसार एवं यूएनडीपी के रिपोर्ट के अनुसार 27 फ़ीसद से अधिक भारत की जनसंख्या मूलभूत प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य से वंचित है। आज भ्रष्टाचार का स्तर बढ़ता जा रहा है, लोकतांत्रिक शासन प्रक्रिया में आम नागरिकों को महत्वहीन समझा जा रहा है। केवल मतदान के समय ही उसका महत्व समझा जाता है। कई प्रकार के प्रोटोकॉल और कानूनों को केवल आम नागरिकों पर ही लागू किया जाता है। आज तक किसी सामंत, बड़े घराने, राजनेताओं एवं पूंजी पतियों को किसी भी प्रकार की गतिविधियों में लाइन में खड़े होते हुए नहीं देखा गया है। जब तक मानव अधिकारों का प्रावधान आम जनमानस को नहीं मिलेगा तब तक तब तक मानव अधिकारों का श्रेष्ठ उद्देश्य साकार नहीं होगा। क्योंकि यह अधिकार संपूर्ण मानव के विकास के लिए एवं मानवता के रक्षा के लिए निर्धारित किए गए हैं। यदि किसी वर्ग विशेष को इससे वंचित रखा जाएगा तो इनका सिद्धांत और सपना अधूरा रह जाएगा। संस्थाओं और सरकारों को चाहिए कि मानव अधिकारों से संबंधित गतिविधियों को कानून पर आधारित प्रक्रिया के माध्यम से संचालित करें। जिससे विधि का शासन सुनिश्चित होगा और लोकतंत्र अधिक मजबूत बन सकेगा। 1992 के पश्चात नागरिक समाज कि अधिक सक्रियता और गतिविधियों को सुनिश्चित करने के लिए सुशासन की अवधारणा लोकतंत्र में सुनिश्चित हुई जिसमें मानवाधिकार से संबंधित संरक्षण का प्रावधान एक अहम मूल्य है। क्योंकि मानवाधिकारों का मूल्यांकन शासन की जवाबदेही, उत्तरदाई, विधि के शासन, संविधानवाद, एवं मानव गरिमा को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए किया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि मानव अधिकारों का लाभ संपूर्ण मानव समुदाय को मिले। इसके प्रति सभी जागरूक हों। तभी वास्तविकता मानवाधिकारों के उद्देश्यों का सपना साकार हो सकेगा।
( लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट है।)

रोजगार व संप्रभुता हेतु संरक्षणवाद जरूरी

भरत झुनझुनवाला –
बीते वर्ष में अपने निर्यातों में 10 अरब डालर की वृद्धि हुई है तो आयातों में 21 अरब डालर की। सच यह है कि निर्यात बढ़ाने के प्रयास में हमारे आयात बढ़ रहे हैं और हम दबते जा रहे हैं। सरकार ने पिछले वर्ष इस समस्या का संज्ञान लेते हुए चीन के की एप जैसे जूम और कैम स्कैनर पर और रक्षा से सम्बन्धित लगभग 100 वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगाया था। कोट, पैंट, ज्यूलरी, प्लास्टिक, केमिकल, चमड़ा इत्यादि पर आयात कर बढ़ाए थे। लेकिन ये कदम पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए हैं। हमारे आयात दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। कारण यह है कि हमने खुले व्यापार को अपना रखा है।
अर्थव्यवस्था को चलाने के दो माडल हैं। एक यह कि हम खुले व्यापार को अपनाएं और अपने माल का निर्यात करने का प्रयास करें। विदेशी माल आयात करने की छूट दें ताकि हमारे निर्यात क्षेत्र में रोजगार उत्पन्न हो सके और हमारे उपभोक्ता को सस्ता विदेशी माल उपलब्ध हो। इस माडल की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम कितना निर्यात कर पाते हैं। सस्ते आयातों का पेमेंट करने के लिए निर्यात से डॉलर अर्जित करना जरूरी होता है। पिछले वर्ष का अनुभव प्रमाणित करता है कि खुले व्यापार के माडल से हमें सफलता नहीं मिल रही है। निर्यातों में वृद्धि कम और आयातों में वृद्धि अधिक हो रही है। इसलिए हमें दूसरे संरक्षणवाद के माडल को अपनाना चाहिए।
इस माडल में हम केवल अति जरूरी माल के आयात को छूट देते हैं। शेष माल पर भारी आयात कर लगा देते हैं, जिससे कि अधिकाधिक माल का उत्पादन अपने देश में हो। संरक्षणवाद का लाभ यह है कि हम अधिकतर माल में आत्मनिर्भर हो जाते हैं। हमारी आर्थिक संप्रभुता की रक्षा होती है। नुकसान यह है कि हमें विदेशों में बना सस्ता माल नहीं मिलता। दूसरा नुकसान है कि हमारे उद्यमी अकुशल उत्पादन में लिप्त हो जाते हैं। विदेशी माल पर आयात कर अधिक होने से आयातित माल महंगा पड़ता है और हमारे उद्यमी मुनाफाखोरी करते हैं या अकुशल उत्पादन करते हैं क्योंकि उन्हें सस्ते विदेशी माल से प्रतिस्पर्धा करने की जरूरत नहीं रह जाती। इस तथ्य के बावजूद हमें संरक्षणवाद को अपनाना चाहिए।
मान लें कि संरक्षणवाद को अपनाने से अपने देश में अकुशल उत्पादन होता है तो भी इस अकुशल उत्पादन में हमारे श्रमिकों को रोजगार मिलता ही है। उनकी क्रय शक्ति में वृद्धि होती है। अत: प्रश्न यह है कि हम अपने श्रमिकों को रोजगार के साथ महंगा घरेलू माल परोसेंगे या बेरोजगारी के साथ सस्ता विदेशी माल? यदि हम खुले व्यापार को अपनाते हैं और सस्ता विदेशी माल अपने देश में आता है तो हमारे उद्योग बंद हो जाते हैं। हमारे श्रमिक बेरोजगार हो जाते हैं। विदेश का बना सस्ता माल हमारी दुकानों में उपलब्ध तो होता है लेकिन श्रमिक की जेब में नकद नहीं होता कि वह उस माल को खरीद सके। सस्ता माल उपलब्ध कराकर उन्हें बेरोजगारी के साथ भुखमरी की कगार पर लाने की तुलना में रोजगार के साथ महंगा माल उपलब्ध कराना उत्तम है। तब माल कम भी मिलेगा तो भी वे कुछ खपत तो कर ही सकेंगे। भूखे नहीं मरेंगे।
खुले व्यापार का सिद्धांत है कि हर देश उस माल का उत्पादन करेगा, जिसे वह कुशलतापूर्वक बना सकता है। जैसे भारत गलीचे का कुशल उत्पादन करे और चीन बिजली के बल्ब का कुशल उत्पादन करे। भारत सस्ते गलीचों का निर्यात करे और चीन सस्ते बल्ब का निर्यात करे। तब भारत में गलीचे के उत्पादन में रोजगार बनेंगे और उस आय से भारतीय नागरिक चीन के सस्ते बल्ब को खरीद सकेंगे। इसी प्रकार चीन के नागरिक को बल्ब के उत्पादन में रोजगार मिलेंगे और उस आय से वे भारत में बने सस्ते गलीचे को खरीद सकेंगे।
यह सिद्धांत सही है लेकिन यह गैर आवश्यक माल मात्र पर लागू होता है। जैसे मान लीजिये हम स्टील का आयात चीन से करने लगें तब हम अपने देश में बंदूक, पनडुब्बियां, हवाई जहाज इत्यादि का उत्पादन भी नहीं कर सकेंगे क्योंकि इनके उत्पादन के लिए हमें स्टील चाहिए, जिसे प्राप्त करने के लिए हम चीन पर आश्रित हो जायेंगे। इसलिए अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए जरूरी है कि हम आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में ही करें, यह चाहे महंगा ही क्यों न पड़े। जैसे यदि देश में उत्पादित स्टील का दाम 50 रुपये प्रति किलो है और विदेश में उत्पादित स्टील का दाम 40 रुपयेे प्रति किलो है तो हम विदेशी स्टील पर 10 रुपये का संप्रभुता अधिभार लगा सकते हैं। चूंकि हमारे लिए अपने ही देश में स्टील का उत्पादन करना आवश्यक है। तब अपने देश में बने स्टील और आयातित स्टील दोनों का दाम 50 रुपये प्रति किलो हो जाएगा और अपने देश में स्टील का उत्पादन हो सकेगा। फिर हम चीन पर आश्रित नहीं होंगे।
संरक्षणवाद के विरोध में तर्क 1950 से 1990 की हमारी दुर्गति का दिया जाता है। यह सही है कि उस समय हमने संरक्षणवाद को अपनाया और और अपना देश वांछित प्रगति नहीं कर सका लेकिन इसका कारण केवल संरक्षणवाद को ही नहीं ठहराया जा सकता है। सही बात यह है कि यदि हम संरक्षणवाद के साथ अपने घरेलू उद्यमियों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन दें तो आपसी प्रतिस्पर्धा में ये स्वयं कुशल उत्पादन करने लगेंगे। फिर उद्यमी कुशल भी हो जायेंगे और हम निर्यातों का सामना भी कर सकेंगे।
आश्चर्य की बात है कि इस तथ्य को हमारे सरकारी अधिकारी क्यों नहीं समझते? अधिकांश अधिकारियों और नेताओं के संतानें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में कार्य करती हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ये स्वयं विश्व बैंक की सलाहकारी करने को उत्सुक रहते हैं। इसलिए इनकी मानसिकता ही बन जाती है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों को साधें और वे अनजाने में ही देश हित की ऐसी गलत परिभाषा कर बैठते हैं जिसके अंतर्गत हम आयातों पर निर्भर होते जा रहे हैं और हमारे नागरिक बेरोजगार होते जा रहे हैं।

कुसुमलता गोयल ,एक ममतामयी मां का जाना!

डॉ श्रीगोपाल नारसन (एडवोकेट) –
जीवन के आखिरी दिनों में शारिरीक रुग्णता के कारण असहाय रही कुसुमलता गोयल ने जीवटता कभी नही छोड़ी।रुग्णता के दौर में जब वे बेसुध पड़ी रहती थी तब भी,मेरे आने की आहट सुनते ही न जाने कहा से उनमे चेतना और स्फूर्ति आ जाती ।वे उठकर बैठ जाती।फिर शिकायत भरे लहजे में कहती,भाई !कहां है तू,लगता है हमें भूल गया?या फिर मेरे मरने पर ही आएगा।लेकिन जैसे ही मैं उन्हें कहता,चाची जी,क्यो ऐसा कहती हो,आप कही नही जाने वाली,मैंने ऊपरवाले से आपका स्टे लिया हुआ है।इतना सुनते ही ,वे खिलखिला कर हंसने लगती थी।फिर कहती भाई तू ,आता रहा कर,बहु व बच्चों को भी लेकर आना,बहुत मन करता है ,उन्हें देखने का।यह आत्मीय लगाव ही मुझे बार बार उनसे मिलने को लालायित करता था।मेरा उनसे मात्र कुछ वर्षों का सम्बंध नही था ।बल्कि लगभग 35 वर्षों से मुझे उनका सानीदय,स्नेह,आशीर्वाद, पालना निरंतर मिलता रहा ।सहारनपुर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पूर्व विधान परिषद सदस्य डॉ जयगोपाल के माध्यम से मुझे ग्रामीण जनता से जुडऩे और पत्र के सम्पादक डॉ एनआर गोयल की छत्रछाया में रहने का सौभाग्य मिला।ग्रामीण जनता के लिए पहले कई वर्षों तक नारसन क्षेत्र से प्रतिनिधित्व किया और फिर रुड़की में ग्रामीण जनता के समाचार सम्पादक के रूप में कार्य किया।जिसके लिए मेरी नियमित सिटिंग ग्रामीण जनता कार्यालय में होने लगी।सात आठ साल तक चले इस सेवा कार्य के दौरान प्राय: हर रोज़ चाची जी के हाथ की बनी चाय पीने को मिलती।वे मुझे हमेशा खाना खाने के लिए कहती और मना करने पर नाराज़ भी हो जाती थी।सचमुच अन्नपूर्णा थी हमारी कुसुमलता गोयल चाची जी।जहां डॉ एनआर गोयल जी मुझकर बेहद विश्वास करते थे,वही चाची जी का मेरे प्रति विश्वास कम नही था।
तभी तो उन्होंने उस दौर में जब मेरी वकालत शुरू ही हुई थी और आमदनी बहुत कम थी,मुझे आर्थिक मजबूती देने के लिए डॉ एनआर गोयल जिन्हें हमेशा मैंने चाचाजी सम्बोधन के साथ अपना गुरु माना से ग्रामीण जनता द्वारा जो मानदेय मिलता था,उसका चैक हमेशा बिना धनराशि अंकित किए ही मुझे मिलता था,गोयल साहब ,हमेशा चैक देते हुए कहते थे,बेटा ,जितने पैसों की जरूरत हो ,उतने भर लेना, ग्रामीण जनता की प्रोपराइटर होने के नाते चैक पर हस्ताक्षर चाची जी कुसुमलता गोयल के होते थे,यह बात दीगर है कि मैंने चैक में पांच सौ रुपये से अधिक की राशि कभी नही भरी,क्योंकि मुझे उस समय उतनी ही राशि मानदेय के रूप में उचित लगती थी।ग्रामीण जनता वालो के यहां रामायण का पाठ वर्षो तक निर्बाध होता रहा।उस घर मे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हेमवतीनंदन बहुगुणा से लेकर मुख्य सचिव तक आए, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मंत्री चौधरी यशपाल सिंह का तो ग्रामीण जनता दूसरा घर था।वही पंजाब के गर्वनर वीरेंद्र वर्मा भी ग्रामीण जनता और पत्र के प्रधान सम्पादक डॉ एनआर गोयल के मुरीद थे।विधान परिषद सदस्य रहे स्वाधीनता सेनानी डॉ जयगोपाल, पंडित ताराचंद वत्स जो मेरे मामा जी थे,भी गोयल साहब को बहुत मानते थे।इस घर मे नवभारत टाइम्स के सम्पादक राजेंद्र माथुर ,कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जैसी बड़ी हस्तियां समय समय पर आती रही,जिनकी सेवा भाव के लिए कुसुमलता गोयल हमेशा तत्पर रही।उनकी रसोई में बने पकवानों की तारीफ़ हर कोई करता था।हरिद्वार के तत्कालीन जिलाधिकारी भगत सिंह वर्मा तो प्राय: हर सप्ताह ही ग्रामीण जनता के कार्यालय आ जाते थे।उन्होंने गोयल साहब को एक कार भी भेंट करने की कोशिश की,ताकि स्कूटर से उन्हें आना जाना न पड़े,लेकिन गोयल साहब ने विन्रमता से उनका आग्रह अस्वीकार कर दिया।कुसुमलता गोयल ने कभी गोयल साहब को ऐसे धन के लिए नही कहा,जो अनुचित हो।वे जब कभी पैसों की तंगी हुई तब भी खुश रहती थी और कम खर्च में अच्छा गुजारा करना उन्हें अच्छे से आता था।धार्मिक विचारों से ओतप्रोत कुसुमलता गोयल की आध्यात्मिक सोच के चलते ही उनके घर स्वामी कल्याण देव,पथिक जी महाराज, स्वामी सत्यमित्रानंद जैसे सन्तो के चरण पड़ते थे।ऐसी महान विदुषी कुसुमलता गोयल चाची जी,जो मेरे किए मां ही थी, को शत शत नमन।

कहीं खत्म न हो जाए गरीबों का रिजर्वेशन

वेदप्रताप वैदिक –
आजकल सर्वोच्च न्यायालय में मलाईदार परत (क्रीमी लेयर) को लेकर जोरदार बहस चल रही है। कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि क्रीमी लेयर का पैमाना सबके लिए एक-जैसा क्यों हो? उसने पूछा है कि 8 लाख रुपये की सालाना आमदनी की सीमा सब पर एक-जैसी क्यों थोपी गई है? ऊंची जातियों के गरीब लोगों को जो 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है, उसका आधार क्या है? गरीब पिछड़ों और गरीब अगड़ों को एक ही तुला पर क्यों तोला जा रहा है? सरकार ने संकेत दिए हैं कि वह 8 लाख रुपये की सीमा को बढ़ाकर 12 लाख करना चाहती है। यानी जिन परिवारों की आमदनी 1 लाख रुपये प्रतिमाह से कम है, उनके सदस्यों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण दिया जाए। यदि यह छूट दोनों वर्गों को समान रूप से दी जाएगी तो क्या अन्य पिछड़े वर्ग के साथ अन्याय नहीं होगा?
कमजोर आधार
अदालत का कहना है कि जो लोग सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं, क्या सरकार ने विस्तृत जांच करके मालूम किया है कि वे लोग ऊंची जातियों या सवर्णों की तरह ही वंचित हैं? क्या उनकी वंचना या गरीबी ऊंची जाति के लोगों की गरीबी और वंचना-जैसी ही है? सचाई तो यह है कि सरकार ने इस तरह का कोई भी व्यवस्थित अध्ययन अभी तक नहीं करवाया है। ऐसे में यही आशंका है कि कहीं सरकार ऊंची जातियों के इस 10 प्रतिशत आरक्षण को खत्म ही न कर दे।
यह आरक्षण 2019 में मोदी सरकार ने संविधान में 103 वां संशोधन करके स्वीकृत करवाया था। जब यह प्रावधान पहले कांग्रेस सरकार करवाना चाहती थी, तब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया और कहा कि संविधान आर्थिक पिछड़ेपन को मान्यता नहीं देता है। अब डर यह है कि सरकार कहीं इस प्रावधान को ही ताक पर न रख डाले। बीजेपी सरकार, जो जातीय वोटों पर कभी आधारित नहीं रही, उसने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करते समय कुछ हफ्ते पहले अपने नए मंत्रियों की जातीय पहचान पर भी जोर दिया था। सरकार को ज्यादा सुविधा इसी हल में महसूस होगी कि वह 10 प्रतिशत का यह विशेष कोटा खत्म कर दे, क्योंकि आरक्षण के आर्थिक आधार को सिद्ध करना बड़ा पेचीदा मामला है। जो आर्थिक आधार एक राज्य में जीवन-यापन के लिए पर्याप्त है, वही दूसरे राज्य में अपर्याप्त हो सकता है। एक ही राज्य के दो जिलों में भी प्रति व्यक्ति आमदनी और खर्च में काफी अंतर हो सकता है। गांव और शहर तथा नगर और महानगर में भी काफी अंतर होता है। इसीलिए अकेले आर्थिक आधार पर आरक्षण की सीमा कैसे बांधी जा सकती है और यदि बांधी ही गई तो उसके दर्जनों संस्करण सरकार और लोगों को तंग करके रख देंगे।
अभी वास्तव में आर्थिक आधार पर आरक्षण मांगने वालों की संख्या 10 प्रतिशत से कम ही रही है। यह आरक्षण दो साल पहले शुरू हुआ था। अभी भी ऊंची जातियों के गरीब लोगों को आरक्षण की यह कला पूरी तरह आकर्षित नहीं कर सकी है लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरेगा, यह मांग 10 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ सकती है। अगड़ी जातियों के ये गरीब लोग शिक्षित और जागरूक ज्यादा होते हैं। वे अपने विशेषाधिकारों के लिए नया राजनीतिक अभियान भी छेड़ सकते हैं। इस समय देश में अनुसूचितों और पिछड़ों की संख्या देश के अगड़ों से कई गुना ज्यादा है। जो सरकार लोकप्रिय बने रहना चाहती है और वोट-प्राप्ति ही जिसकी प्राणवायु है, वह देश की बहुसंख्या को खुश रखने के लिए जो कुछ कर सकती है, जरूर करेगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगड़ों को जब पिछड़ों के बाद 10 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया तो उनके पैरों में काफी चुभीली जंजीरें बांध दी गई थीं। अगड़ों की आठ लाख रुपये की वार्षिक आय में उनका वेतन जोड़ा जाता रहा है जबकि पिछड़ों को जो वेतन मिलता है, वह नहीं जोड़ा जाता है। यदि वे किसान हैं तो उनकी खेती की आय भी नहीं जोड़ी जाती है। पिछड़ी जातियों में मालदार किसानों की भी कमी नहीं है। अदालत के जोर देने पर यह संभव है कि सरकार दोनों वर्गों को दी जा रही सुविधाओं और रियायतों पर शीघ्र ही पुनर्विचार करे और अदालत के सामने आरक्षण का नया नक्शा पेश कर दे।
यहां मूल प्रश्न यह है कि यह जातीय आरक्षण और गरीबी-आरक्षण कब तक चलता रहेगा? यह तो ठीक है कि सदियों से चले आ रहे जातीय भेदभाव से भारतीय जनता को मुक्त करने के लिए ही हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण का प्रावधान किया था लेकिन स्वयं डॉ. आंबेडकर की इच्छा के विपरीत यह अल्पकालिक दवाई भारत की सर्वकालिक खुराक बन गई है। इसमें मु_ीभर लोगों को आरक्षण का झांसा देकर करोड़ों गरीबों को जस का तस सड़ते रहने के लिए मजबूर कर दिया है। मेहनतकश मजदूर लोग, वे किसी भी जाति या मजहब के हों या किसी भी गांव या शहर के हों, गरीबी का नरक भोगने के लिए विवश हैं।
गाढ़ा होता जातिवाद
नौकरियों और शिक्षा में जातीय आरक्षण ने हमारे देश में जातिवाद के जहर को पहले से भी गाढ़ा कर दिया है। कोई भी पार्टी जातिवाद का सहारा लिए बिना चुनाव की वैतरणी पार नहीं कर सकती। जातिवाद के जहर से भारत के सभी धर्म त्रस्त हैं। जो धर्म, जातियों को मानते ही नहीं, उनमें भी जातीय ऊंच-नीच का भाव जीवित है। भारत ही नहीं, मैंने भारत के पड़ोसी देशों में भी देखा है कि जातिवाद ने उनके सामाजिक जीवन को डस रखा है। यदि भारत में शिक्षा और चिकित्सा लगभग मुफ्त कर दी जाए और वह सबको समान रूप से उपलब्ध हो तो नौकरियों में जातीय आरक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जिन्हें पिछड़ा और अनुसूचित कहते हैं, वे लगभग 100 करोड़ लोग कुछ ही वर्षों में भारत को एक महाशक्ति और महासंपन्न राष्ट्र में परिवर्तित कर सकते हैं।

कॉमन रूम : कानून है फिर भी लड़नी पड़ रही हक की लड़ाई

देवेन्द्रराज सुथार –
पिछले दिनों कोलकाता पुलिस में इंस्पेक्टर भर्ती परीक्षा का विज्ञापन निकला तो पल्लवी ने इस परीक्षा में बैठने का मन बना लिया। जब उसने आवेदन पत्र डाउनलोड किया तो उसमें जेंडर के केवल दो ही कॉलम थे एक पुरुष और दूसरा महिला। मजबूरन उनको हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ा।
अपने वकील के जरिए उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की और 2014 के ट्रांसजेंडर एक्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए अपनी दलील रखी। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के अधिवक्ता से इस मामले पर राय पेश करने को कहा। अगली तारीख पर राज्य सरकार के अधिवक्ता ने हाईकोर्ट को बताया कि सरकार आवेदन के प्रारूप में पुरुष और महिला के साथ-साथ ट्रांसजेंडर कॉलम रखने के लिए सहमत हो गई है। अब पल्लवी पुलिस अफसर बनें या ना बनें, उन्होंने भारत भर के ट्रांसजेंडर्स के लिए एक खिड़की तो खोल ही दी है।
ऐसे ही पुलिस में भर्ती होने वाली देश की पहली ट्रांसजेंडर और तमिलनाडु पुलिस का हिस्सा पृथिका यशिनी की ऐप्लिकेशन रिक्रूटमेंट बोर्ड ने खारिज कर दी थी, क्योंकि फॉर्म में उनके जेंडर का विकल्प नहीं था। ट्रांसजेंडर्स के लिए लिखित, फिजिकल परीक्षा या इंटरव्यू के लिए कोई कट-ऑफ का ऑप्शन भी नहीं था। इन सब परेशानियों के बावजूद पृथिका ने हार नहीं मानी और कोर्ट में याचिका दायर की। उनके केस में कटऑफ को 28.5 से 25 किया गया। पृथिका हर टेस्ट में पास हो गई थी, बस 100 मीटर की दौड़ में वह 1 सेकेंड से पीछे रह गई। मगर उनके हौसले को देखते हुए उनकी भर्ती कर ली गई। मद्रास हाईकोर्ट ने 2015 में तमिलनाडु यूनिफॉर्म्ड सर्विसेज रिक्रूटमेंट बोर्ड को ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों को भी मौका देने के निर्देश दिए। इस फैसले के बाद से प्रवेश फॉर्म के जेंडर में तीन कॉलम जोड़े गए।
तमिलनाडु में ही क्यों, राजस्थान में भी यही हुआ था। जालोर जिले के रानीवाड़ा इलाके की गंगा कुमारी ने वर्ष 2013 में पुलिस भर्ती परीक्षा पास की थी। हालांकि, मेडिकल जांच के बाद उनकी नियुक्ति को किन्नर होने के कारण रोक दिया गया था। गंगा कुमारी हाईकोर्ट चली गईं, और दो साल के संघर्ष के बाद उन्हें सफलता मिली। ये फैसले बताते हैं कि जरूरत इस बात की है कि समाज के हर व्यक्ति का नजरिया बदले नहीं तो कुर्सी पर विराजमान अधिकारी अपने नजरिए से ही समुदाय को देखेगा।
2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में लगभग पांच लाख ट्रांसजेंडर्स हैं। अक्सर इस समुदाय के लोगों को समाज में भेदभाव, फटकार, अपमान का सामना करना पड़ता है। अधिकांश लोग भिखारी या सेक्स वर्कर के रूप में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। 15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने थर्ड जेंडर को संवैधानिक अधिकार दिए और सरकार को इन अधिकारों को लागू करने का निर्देश दिया। उसके बाद 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जेंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता मिल गई।
लैंगिकता पर सभी देशों में चर्चा होती है, उन्हें समान अधिकार और स्वतंत्रता दिए जाने की वकालत होती है। बावजूद इसके लिंग के आधार पर सभी को समान अधिकार और स्वतंत्रता अभी भी नहीं मिल पाई है। 2011 की जनगणना बताती है कि महज 38 प्रतिशत किन्नरों के पास नौकरियां हैं जबकि सामान्य जनसंख्या का प्रतिशत 46 है। 2011 की जनगणना यह भी बताती है कि केवल 46 प्रतिशत किन्नर साक्षर हैं, जबकि समूचे भारत की साक्षरता दर 76 प्रतिशत है। किन्नर समाज अत्याचार, शोषण, उत्पीडऩ का शिकार है। इनको नौकरी और शिक्षा पाने का अधिकार बहुत कम मिलता है। जीवन के सुअवसर प्राप्त न होने के कारण इन्हें अपने स्वास्थ्य की समुचित देखभाल करने में भी दिक्कत आती है।
विकास के इस दौर में किन्नर समाज आज भी हाशिए पर खड़ा है। किन्नर समुदाय के विकास की अनदेखी एक गंभीर विषय है। सभी समुदायों के हक तथा अधिकारों के बारे में चर्चा की जाती है, लेकिन किन्नर समुदाय के विषय में चर्चा तक नहीं होती। हर किन्नर पल्लवी जितने मजबूत मन का भी नहीं होता कि लड़कर अपना हक ले ले। सवाल है कि आखिर वह स्थिति कब आएगी जब समाज के सामान्य सदस्यों की तरह इन्हें भी सहजता से इनका हक उपलब्ध रहेगा।

ज्ञान विज्ञान – ब्रह्मांड की गहराई को देखेगी अब एक नई आंख

मुकुल व्यास –
अमेरिकी खगोल वैज्ञानिक एडविन हबल ने सबसे पहले यह सिद्ध किया था कि हमारी मिल्की-वे आकाशगंगा के आगे दिखने वाले अनेक ऑब्जेक्ट दरअसल दूसरी आकाशगंगाओं की मौजूदगी दर्शाते हैं। तब से खगोल वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि सबसे पुरानी आकाशगंगाएं कितनी पुरानी हैं, उनका गठन कैसे हुआ और बाद में उनमें क्या बदलाव हुए?
हबल के नाम से मशहूर हो चुके नासा के टेलिस्कोप ने ब्रह्मांड के बारे में बहुत सी नई जानकारियां हमें दी हैं। लेकिन उसके बहुत से रहस्य अनसुलझे हैं, बहुत से सवालों के जवाब खोजे जाने बाकी हैं। खगोल वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि नए जेम्स वेब टेलिस्कोप से ब्रह्मांड में ज्यादा गहराई तक झांका जा सकेगा। यह टेलिस्कोप 22 दिसंबर को अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। ब्रह्मांड में दूर तक झांकने के लिए इस टेलिस्कोप में बहुत बड़ा दर्पण लगाया गया है। यह दर्पण करीब 6 मीटर चौड़ा है। इस पर एक शेड लगा हुआ है जिसका आकार टेनिस कोर्ट के बराबर है। यह शेड सूरज के विकिरण को अवरुद्ध करेगा।
इसके अलावा टेलिस्कोप में चार पृथक कैमरे और सेंसर सिस्टम हैं। यह टेलिस्कोप एक सैटलाइट डिश की तरह काम करता है। किसी तारे या आकाशगंगा से आने वाली रोशनी टेलिस्कोप के मुख में प्रवेश करेगी और प्राथमिक दर्पण से टकराकर चार सेंसरों तक जाएगी। एक सेंसर प्रकाश को विभिन्न रंगों में विभक्त करेगा और हर एक रंग की ताकत को नापेगा। एक अन्य सेंसर प्रकाश की वेवलेंथ को नापेगा। जेम्स वेब टेलिस्कोप से वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि हमारी मिल्की-वे आकाशगंगा में तारों का गठन किस प्रकार होता है। साथ ही इससे सौर मंडल के बाहर दूसरे ग्रहों के वायुमंडलों का भी अध्ययन किया जा सकेगा।

इस टेलिस्कोप का एक प्रमुख लक्ष्य पर्यवेक्षण के लायक ब्रह्मांड के छोर के पास स्थित आकाशगंगाओं का अध्ययन करना है। इन आकाशगंगाओं के प्रकाश को ब्रह्मांड पार कर पृथ्वी तक पहुंचने में अरबों वर्ष लगते हैं। टेलिस्कोप से जुड़े एक वैज्ञानिक के अनुसार टेलिस्कोप द्वारा ली जाने वाली तस्वीरों में उन प्राथमिक आकाशगंगाओं को देखा जा सकेगा, जिनका गठन बिग बैंग घटना के 30 करोड़ वर्ष बाद हुआ था। बिग बैंग थियरी के मुताबिक ब्रह्मांडीय महाविस्फोट से ब्रह्मांड की शुरुआत हुई थी। बिग बैंग के बाद बने तारों के पहले जमघट को खोजना बहुत ही जटिल काम है क्योंकि ये प्राथमिक आकाशगंगाए बहुत दूर हैं और मंद दिखाई देती हैं।
वेब टेलिस्कोप के दर्पण में 16 भाग हैं और वह हबल टेलिस्कोप के दर्पण के मुकाबले 6 गुणा ज्यादा प्रकाश एकत्र कर सकता है। वेब टेलिस्कोप को पर्यवेक्षण के दौरान एक बड़ी जटिल समस्या का सामना करना पड़ेगा। चूंकि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है, वे आकाशगंगाएं भी पृथ्वी से दूर जा रही हैं जिनका वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किया जाएगा। दूर जाने वाली आकाशगंगाओं के प्रकाश की वेवलेंथ दृश्य प्रकाश से इंफ्रारेड लाइट में तब्दील हो जाएगी। इंफ्रारेड लाइट एक विद्युत- चुंबकीय रेडिएशन है जिसकी वेवलेंथ दृश्य प्रकाश से बड़ी होती है। वेब टेलिस्कोप इंफ्रारेड प्रकाश को डिटेक्ट कर सकता है लेकिन मंद आकाशगंगाओं को इंफ्रारेड प्रकाश में देखने के लिए टेलिस्कोप का अत्यंत ठंडा होना जरूरी है, नहीं तो वह अपना ही इंफ्रारेड रेडिएशन देखने लगेगा। इसी वजह से टेलिस्कोप के कैमरों और सेंसरों को माइनस 224 सेल्सियस तापमान पर रखने के लिए उसमें एक विशेष हीट शील्ड बनाई गई है।
जेम्स वेब टेलिस्कोप आधुनिक इंजीनियरिंग का उत्कृष्ट नमूना है। इसका विकास नासा, यूरोपियन एजेंसी और कैनेडियन स्पेस एजेंसी ने मिल कर किया है। इस प्रॉजेक्ट पर काम 1996 में शुरू हुआ था। इसे पहले 2005 में अंतरिक्ष में स्थापित किया जाना था, लेकिन प्रक्षेपण की तारीख आगे खिसकती रही। इस दौरान टेलिस्कोप के डिजाइन में सुधार होते रहे। 2016 में टेलिस्कोप के निर्माण का कार्य पूरा हुआ। इसके पश्चात इसके विस्तृत परीक्षण का दौर शुरू हुआ। 2018 में परीक्षण के दौरान टेलिस्कोप की शील्ड फट जाने के बाद नासा ने इसका प्रक्षेपण स्थगित कर दिया। मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण टेलिस्कोप के एकीकरण और परीक्षण के काम को स्थगित करना पड़ा। टेलिस्कोप की टीम ने अब यान की रवानगी से पहले हर उपकरण को अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों में आजमा कर देख लिया है।

स्वस्थ परंपराओं का निर्वहन करें पक्ष-विपक्ष

विश्वनाथ सचदेव –
पिछले दिनों हमने संविधान-दिवस मनाया था। 26 नवम्बर 1949 को देश ने अपना संविधान पूरा करके उस पर हस्ताक्षर किये थे। हमारे संविधान-निर्माताओं के ये हस्ताक्षर देश के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हस्ताक्षर कुल मिलाकर इस बात की सहमति और स्वीकृति हैं कि देश का संविधान सर्वोपरि है। हमारे प्रधानमंत्री कई बार इसे ‘हमारा सबसे बड़ाÓ धर्म ग्रंथ कह चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी जब सांसद बनकर पहली बार संसद भवन पहुंचे थे तो उन्होंने संसद भवन की सीढिय़ों पर शीश झुकाकर जनतंत्र के सर्वोच्च मंदिर को प्रणाम किया था। जनतंत्र का यह मंदिर और धर्म ग्रंथ, दोनों, हमारे देश की गरिमा के प्रतीक हैं। इनका सम्मान उन मूल्यों और आदर्शों का सम्मान है जो जनतांत्रिक व्यवस्था की महत्ता को रेखांकित करते हैं।
उस दिन जब संसद में संविधान-दिवस मनाया गया तो सांसदों को प्रधानमंत्री के अलावा राष्ट्रपति ने भी संबोधित किया था। एक चीज़ जो खलने वाली थी, वह कार्यक्रम का विपक्ष द्वारा बहिष्कार था। यह कार्यक्रम सरकार का नहीं था, पूरी संसद का था। संविधान में अपनी आस्था और निष्ठा प्रकट करने के इस अवसर को किसी भी पक्ष द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार और विपक्ष दोनों का कर्तव्य बनता था कि वे इस अवसर की गरिमा और पवित्रता की रक्षा के प्रति सजग दिखाई देते। पर ऐसा हुआ नहीं। दोनों पक्षों की बराबर की भागीदारी होनी चाहिए थी इस कार्यक्रम में। सभी पक्षों को अवसर मिलना चाहिए था संविधान के प्रति अपनी निष्ठा को स्वर देने का। यह सहभागिता ही जनतांत्रिक व्यवस्था को महत्वपूर्ण बनाती है। गरिमा प्रदान करती है।
अच्छी बात है कि इस सहभागिता को संसद का सत्र प्रारंभ होने से पहले प्रधानमंत्री ने फिर से रेखांकित किया। पर इसे सुनिश्चित करने का काम भी मुख्यत: सत्ता पक्ष को ही करना होता है। पर, दुर्भाग्य से, संसद के पिछले कई सत्रों में सहभागिता की भावना का अभाव दिखाई दिया है। दोनों पक्ष इसके लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा सकते हैं, ठहराते भी हैं। लेकिन इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि संसद की कार्रवाई सुचारु रूप से चले, इसका दायित्व मुख्यत: सत्तारूढ़ पक्ष पर ही होता है।
जनतंत्र में यह अवसर संसद के कामकाज में सहभागिता से परिभाषित होता है। सहभागिता का अर्थ है विचार-विमर्श में हिस्सेदारी। मुद्दों पर बहस ही वह माध्यम है, जिससे सदन में सदस्यों की सहभागिता सुनिश्चित होती है। लेकिन, जिस तरह से संसद में विवादास्पद कृषि-कानूनों की वापसी का विधेयक पारित हुआ, वह इस सहभागिता को अंगूठा दिखाने वाला काम ही कहा जा सकता है। लोकसभा में सिर्फ तीन मिनट और राज्यसभा में नौ मिनट में इन कानूनों को वापस ले लिया गया। कानूनों की वापसी करने का निर्णय लेने में सरकार को पूरा एक साल लग गया, और मिनटों में कानूनों को निरस्त कर दिया गया। कोई बहस नहीं, कोई विचार-विमर्श नहीं। तीनों कानूनों को वापस लेने की घोषणा भी प्रधानमंत्री ने सदन के बजाय मीडिया में राष्ट्र के नाम संदेश में करना बेहतर समझा। संसद को इस बारे में सरकार से सवाल-जवाब का अवसर मिलना ही चाहिए था। कानून वापस लेने के कुछ घंटे पहले ही प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि सरकार खुले दिमाग से हर मुद्दे पर सभी सवालों के जवाब देने के लिए तैयार है।
वे तो यह भी कह चुके हैं कि सीमित समय के लिए ही सही, कुछ बहस तो राजनीतिक छींटाकशी के बगैर भी होनी चाहिए। पर सिर्फ बातों से बात नहीं बनती। संसद की गरिमा और महत्व का तकाज़ा है कि सांसदों को गंभीर बहस का अवसर मिले। मुद्दों पर विचार-विमर्श हो। संसद के पिछले सत्र में पंद्रह कानून दस मिनट से भी कम समय में पारित हुए थे। स्पष्ट है, यह काम विचार-विमर्श के बिना ही हुआ होगा। कृषि-कानूनों पर ज़रूर दोनों सदनों में लगभग दो-दो घंटे तक बहस हुई थी, पर शायद पर्याप्त नहीं था इतना समय। समुचित समय मिलता तो शायद कोई स्वीकार्य कानून बन सकते। अब भी जब कृषि कानूनों को निरस्त करने वाला विधेयक पारित हुआ तो विपक्ष की बहस की मांग को ठुकरा दिया गया।
बहरहाल, संसद के शीतकालीन सत्र का पहला ही कानून बिना किसी बहस के पारित हो, यह कोई शुभ संकेत नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों पक्ष, सरकार और विपक्ष, इस संदर्भ में अपने-अपने दामन में झाकेंगे। पर इससे भी महत्वपूर्ण बात उस मतदाता के सम्मान की है, जिसने दोनों को चुना है। कृषि कानूनों को वापस लेने के प्रधानमंत्री के निर्णय को उनके समर्थक ‘राष्ट्र-हितÓ में लिया गया ‘महानÓ निर्णय बता रहे हैं, लेकिन यह बात सदन में होती तो बेहतर होता। तब यह भी पूछा जा सकता कि कृषि-कानूनों के संदर्भ में वह क्या था जो राष्ट्र-हित में नहीं था? इस तरह के अवसर बहस से ही मिल सकते हैं। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष, दोनों को ऐसे अवसरों की संभावनाएं बढ़ाने के बारे में सोचना होगा। यह याद रखना ज़रूरी है कि बहस संसद की प्राणवायु है!

लोकतंत्र की बुनियादी आधार हैं पंचायती व्यवस्थाएं

विकास कुमार –
पंचायती व्यवस्थाओं को स्थानीय प्रशासन का मूल आधार स्तंभ माना जाता है। भारत में प्राचीन काल से ही स्थानीय स्वशासन का प्रावधान मिलता है। भारतीय लोकतंत्र में आजादी के बाद से ही पंचायती व्यवस्थाओं को महत्व दिया जाने लगा था। यही कारण है कि भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसके लिए अलग से प्रावधान जोड़े थे। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जिसमें चुनाव आयोग के 2019 के सूची के अनुसार ,लगभग 90 करोड़ मतदाता पंजीकृत हैं। रूरल कनेक्शन नेटवर्क के अनुसार, पूरे देश में 239000 ग्राम पंचायतें हैं, जो संविधान के सातवीं अनुसूची में वर्णित राज्य सूची का विषय है। इनके प्रबंधन, वित्तीय व्यवस्था ,निर्वाचन एवं संरचना की व्यवस्था का दायित्व राज्य सरकार पर निर्भर होता है।भारत की शासन व्यवस्था तीन स्तर पर कार्य करती है। जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय स्वशासन (पंचायती व्यवस्था) हैं। भारतीय संविधान के भाग 4 अनुच्छेद 40 में इससे संबंधित उपबंध थे जो प्रवर्तनीय प्रक्रिया नहीं थी।पंचायती व्यवस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने के पीछे राज्य संघात्मक व्यवस्था का उल्लंघन बताकर इसके पक्ष में नहीं थे। यही कारण रहा कि राजीव गांधी जी का 64 वां संशोधन (1989) और वी0पी0 सिंह का संवैधानिक प्रयास (1 जून 1990) असफल रहा। पंचायतों को संवैधानिक दर्जा 1992 और 1993 में 73 वे संवैधानिक संशोधन के द्वारा दिया गया था जिसमें नरसिम्हा राव जी ने अथक प्रयास किया था।इनके चुनाव कराने की जिम्मेदारी राज्य निर्वाचन आयोग की होती है जिसका उपबंध भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243 का (्य) करता है।कुछ राज्यों ने इसके चुनाव की घोषणा कर दिया है क्योंकि संविधान था इनका कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है जिसका प्रावधान भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243( श्व) ही करता है। सभी प्रत्याशी शासनादेश का इंतजार कर रहे हैं और अपनी -अपनी सुविधानुसार तैयारियां भी आरंभ कर दिया है।मतदाताओं और प्रत्याशियों के मध्य वार्तालाप प्रारंभ हो चुका है परंतु संवाद प्रारंभ नहीं हुआ, क्योंकि संवाद की प्रक्रिया तो चुनाव में अक्सर रिक्त रहती है। संवाद की स्थिति में ना ही मतदाता है और ना ही प्रत्याशी। राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेताओं का भी इन चुनावों में आगमन होगा जिससे वह अपनी उपलब्धियां गिनाते हैं।मतदाता भी सुनकर आनंदित होता है और बाद में नेता जी जिंदाबाद भी बोलता है क्योंकि वह भूल चुका होता है कि हमारी स्थानीय समस्याएं लोन के पैसों का कमीशन, आवास कमीशन ,सड़क और पानी की समस्याएं क्या है? शिक्षा और स्वास्थ्य तो इन चुनावों में गौड मुद्दे बन जाते हैं । प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति और अन्य सभी स्थानीय कार्य मतदाता भूल चुका होता है और मुखिया भी उसी को बना देता है, जिसका कोसों इनसे संबंध नहीं होता। इन चुनाव में उम्मीदवारों का उद्देश्य और कार्य अनुभव भी नहीं पूछा जाता जिसका कारण जागरूकता की कमी कहें या शिक्षा का अभाव ।
हालांकि पंचायती व्यवस्थाओं से स्थानीय निकायों में सुधार भी हुआ है परंतु उन सभी परियोजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता जो ग्रामीणों के लिए होती हैं। ऐसे में सभी मतदाताओं को चाहिए कि जातिवाद, धर्म, क्षेत्रवाद और व्यक्तिगत लाभ पहुंचाने वाले ‘केवल’ प्रत्याशी को ना चुनकर सार्वजनिक आकांक्षाओं में खरे उतरने वाले प्रत्याशी का चयन करें। जब स्थानीय स्तर पर सुधार होगा तभी यह प्रक्रिया आगे बढ़ सकेगी। मतदाता को अपने मत का प्रयोग स्वेच्छा और सोच विचार कर करना चाहिए जिससे 5 वर्षों के लिए योग्य नेता के निर्देश लागू हो सके और स्थानीय संस्थाओं की स्थिति मजबूत हो जिससे अन्य स्तरों पर भी सुधार हो।

आज लगभग पूरे देश में पंचायती राज पद्धतियों का गठन किया जा चुका है ,परंतु वास्तविक स्थिति में उतनी आत्मनिर्भर निर्भरता देखने को नहीं मिली, जितना कि इसको लागू करने के समय सपना देखा गया था। आरक्षण का प्रावधान पंचायती पद्धतियों में अनुच्छेद 243 क (ष्ठ,4) किया तो गया है, परंतु उसका पूरा लाभ ना महिलाएं ले पाती पाती हैं और ना ही नीचे तबके के वर्ग, क्योंकि आज भी कई पूर्वाग्रह प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान किया जाता है द्य जब पंचायती व्यवस्था सुदृढ़ और आत्मनिर्भर बनेगी तभी भारत का लोकतंत्र और मजबूत होगा द्य सुधार की प्रक्रिया ग्रामीण से ही शुरू हो सकती है। महिलाएं सरपंच तो बन जाती हैं परंतु वह प्रशासन नहीं चलाती हैं प्रशासन उसके पति द्वारा चलाया जाता है। एससी एसटी वर्ग का व्यक्ति सरपंच तो बन जाता है परंतु प्रशासन किसी धनाढ्य लोगों द्वारा चलाया जाता है। आज भी कई राज्य ऐसे हैं जिन्होंने पंचायती व्यवस्थाओं को उनके संपूर्ण विषयों को हस्तांतरित नहीं किया है। पंचायत के चुनाव में भी छल और बल से काम लिया जाता है। किस व्यक्ति की पहुंच शासन प्रशासन के ऊपर तक होती है प्रमुख पदों पर वही आसीन होता है। यही कारण है कि जिन उद्देश्य से भी का निर्माण किया गया था वह पूरा नहीं हो पा रहा है। गांव के विकास के नाम पर करोड़ों का फंड सरकारों के द्वारा दिया जाता है, परंतु उसका संपूर्ण लाभ गांव के सही व्यक्ति पर नहीं खर्च होता है।यही कारण रहा कि आज तक पंचायती व्यवस्था पूर्णतया आत्मनिर्भर और उन संपूर्ण सपनों को साकार नहीं कर सकी जिनके लिए इनको संगठित किया गया है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि पंचायती राज को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रयास करें और इस प्रयास में सबसे बड़ा कदम हो सकता है शिक्षा।बिना शिक्षा के जागरूकता संभव नहीं है और जब नागरिक और मतदाता जागरूक होंगे तभी यह सब संभव हो पाएगा।
( लेखक – केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट है।)

बदलते वैश्विक परिदृश्य में ब्रिक्स की गतिशीलता

विकास कुमार –
ब्रिक्स संगठन की संकल्पना का प्रावधान जिम ओ नील ने किया, जब उन्होंने एक रिसर्च में बताया कि आने वाले समय में यह देश विश्व के आर्थिक विकास के इंजन साबित होंगे। वर्तमान समय में यह एक महत्वपूर्ण संगठन बनकर के उभरा है। समय-समय पर सभी सदस्य देश मिलकर इसमें बैठक संपन्न करते रहते हैं। इस संगठन में चीन और भारत दोनों सदस्य हैं। कई प्रकार की गतिविधियों को लेकर इसमें विवाद चलता रहता है, परंतु इसका भी समाधान किया जाता है। वर्तमान समय में इसमें 5 सदस्य हैं ,जिनमें ब्राजील ,रूस, भारत ,चीन एवं दक्षिण अफ्रीका हैं।बदलते वैश्विक संरचना के साथ कई अंतरराष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय संगठन गतिशील हैं। जिसमें सभी नई आर्थिक संरचना के नव निर्माण के लिए प्रयासरत हैं। आज पूरा विश्व कोरोनावायरस संकट से परेशान है इसलिए सभी संगठनों में करोना महामारी का मुद्दा, जलवायु परिवर्तन ,आतंकवादी गतिविधियों से निपटारा, एवं सतत विकास के लक्ष्य के मुद्दे समान रूप से चर्चा में रहते हैं। ब्रिक्स के इस बैठक में भी इन मुद्दों पर चर्चा की गई, जिनमें सहयोग एवं सामंजस्य से इन सभी मुद्दों को व्यवहारिक जामा पहनाने की सहमत भी जताई गई। इस संगठन की स्थापना एक ध्रुवीय वैश्विक संरचना के परिवर्तन के उद्देश्य हेतु हुई थी, । ब्रिक्स सदस्य देशों की कुल जीडीपी 16.6 खरब अमेरिकी डॉलर है। जो किसी भी नव निर्माण एवं नव संरचना के कार्यक्रम को संचालित करने के लिए काफी है। इस संगठन के देश दुनिया के कुल आबादी का 41 फ़ीसदी( 360 करोड़) का प्रतिनिधित्व करते हैं। चीन के सामने प्रमुख समस्या कोविड-19 के टीकाकरण की है। चीन के विदेश मंत्री श्री वांगी यी ने कहा चीन भारत के साथ इस महामारी से निपटने के लिए हर संभावित सहयोग करने के लिए तैयार है, परंतु इस सहमति के बावजूद जब अन्य प्रकार के विवाद चीन के आते हैं तो वह मुखर जाता है । एक तरफ सहयोग की बात कर रहा है, दूसरी ओर सीमा विवाद में उलझा रहता है। चीन इस संगठन में द्विपक्षीय विवादों को भी उठाता है। जिसमें केवल उसके ही विवाद सम्मिलित नहीं होते बल्कि दक्षिण एशियाई देशों के कई विवादों को वह इस मंच में उठाता है , जिसका भारत ने सदैव विरोध किया है। ऐसे में क्या यह सभी उद्देश्यों पर सहमति है? चीन सदैव भारत को पड़ोसी राजनीति में ही उलझ आए रखना चाहता है। लद्दाख विवाद , लिपुलेखा , लिपियाधूरा विवाद हो या पाकिस्तान के आतंकवादी गतिविधियों को लेकर हो। यही कारण रहा कि जब 2017 में शंघाई सहयोग संगठन की सदस्यता भारत ने ली, उसी समय चीन ने पाकिस्तान को भी उस में सम्मिलित किया। एक और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद को खत्म करने की सहमति देता है दूसरी ओर यू एन ओ में इस संबंध में भी तो कर देता है। यह चीन का दोहरा रवैया है। इस सम्मेलन में सम्मिलित दक्षिण अफ्रीका के अंतरराष्ट्रीय संबंध एवं सहयोग मंत्री श्रुति नलेदी मंडीसा पंडोर ने कहा हमें टीकाकरण पर विचार करना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की सदस्य देशों के नागरिकों को जल्द से जल्द टीकाकरण हो । कोरोनावायरस की दूसरी लहर से सर्वाधिक प्रभावित भारत हुआ है ऐसे में भारत के सहयोग के लिए सभी सदस्य देशों को एकजुट होना चाहिए। रूस के विदेश मंत्री सरगेई लावरोव ने एवं ब्राजील के विदेश मंत्री कार्लोस फ्रैंको फ्रांका ने आतंकवादी गतिविधियों के उन्मूलन एवं सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने की बात कही। इस महामारी के पश्चात सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने की समस्या विकासशील देशों पर निश्चित रूप से आ सकती है ,क्योंकि इस दौर में सभी देशों के अर्थव्यवस्था का स्तर गिरा है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है , जो भविष्यवाणी 2003 में गोल्डमैन चेंज कंपनी के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जिम ओ नील द्वारा ब्रिक्स सदस्य देशों के लिए की गई है क्या वह ऐसे में पूरी हो पाएगी? उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 2050 तक यह देश विश्व अर्थव्यवस्था के इंजन साबित होंगे। यदि सभी देश सहयोग और सामंजस्य की रणनीति बनाकर प्रगति करें तो निश्चित रूप से यह सच साबित हो सकता है। वैश्विक परिदृश्य बदल गया है ।सभी देश अपने विचारधारा के दोनों को छोड़कर आर्थिक विकास और प्रगति की पहल कर रहे हैं। अपने आर्थिक हितों को देखते हुए एक देश कई संगठनों की सदस्यता लिए हुए हैं ,जिससे उसके आर्थिक हितों और व्यापारिक बाजार का साझा सहयोग हो सके। इस बदलती गतिशीलता का अनुसरण करते हुए वृक्ष को भी अपने उद्देश्य में परिवर्तन करना होगा। केवल उद्देश्यों में नहीं बल्कि रणनीतिक और सामरिक संरचनाओं में भी परिवर्तन करना होगा। चीन को भी यह समझना होगा कि आतंकवाद की समस्या सभी देशों को किसी न किसी रूप से प्रभावित करती है। इसका निपटारा सभी मिलकर ही कर सकते हैं। क्योंकि आज इस ग्लोबल दौर में सभी प्रकार के संगठन और व्यक्ति एक दूसरे से कनेक्ट हैं। वर्तमान समय में दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन और फिलीपींस का विवाद चल रहा है। चीन का कहना है कि यह संपूर्ण क्षेत्र उसका है जबकि फिलिपिंस का कहना है कि यह क्षेत्र उसका है। दक्षिण चीन सागर में हो रही तमाम गतिविधियों का अमेरिका सहित अन्य कई देशों ने आलोचना किया है। इस प्रकार से विवादों वाले मुद्दों में सदस्य देश चाह करके भी एक दूसरे का सहयोग नहीं कर पा रहे हैं। इन सभी सदस्य देशों में चीन का हस्तक्षेप किसी ना किसी भूभाग या सीमा या फिर समुद्री क्षेत्र पर होता ही रहता है। इन विवादों को सुलझाते ,सभी प्रकार के उद्देश्यों को चिन्हित करके जब सदस्य देश व्यवहारिक रूप पर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत होंगे, तभी इस ग्लोबल दौर में ब्रिक्स और गतिशील बन सकेगा।
(लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर है एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं।)

मोदी से पहले राहुल का विकल्प बनेंगी ममता

राजकुमार सिंह –
पश्चिम बंगाल में भाजपा के चुनावी चक्रव्यूह को भेद कर लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर मोदी विरोधी ध्रुवीकरण का केंद्र बनने की कवायद में जुटी हैं। यह अप्रत्याशित नहीं है। भाजपा की हरसंभव कोशिशों के बावजूद पश्चिम बंगाल फतह कर लेने पर ममता के हौसले बुलंद होना स्वाभाविक है। कई राजनीतिक प्रेक्षक भी मानने लगे थे कि बंगाल की शेरनी इस बार वाकई मुश्किल में है, लेकिन भाजपा की सीटें कई गुणा बढऩे के बावजूद तृणमूल की सीटें कम नहीं हुईं। बेशक ममता स्वयं अपने ही पुराने सिपहसालार शुभेंदु से हार गयीं, पर उसका नैतिक से ज्यादा कोई राजनीतिक महत्व नहीं था। बाद में उपचुनाव जीत कर ममता ने मीडिया जनित असमंजस पर भी पूर्ण विराम लगा दिया। पश्चिम बंगाल में अपनी सत्ता सुदृढ़ कर लेने के बाद यह स्वाभाविक ही है कि ममता राज्य से बाहर ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की ओर भी देखें। फिर राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की विकल्पहीनता ममता के कद वाले किसी भी राजनेता को ललचा सकती है।
ऐसा नहीं है कि मोदी का विकल्प बनने की महत्वाकांक्षा सिर्फ ममता के मन में है। वर्ष 2014 में राजग से अलगाव के पीछे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मन में यह महत्वाकांक्षा भी एक बड़ा कारण रही, लेकिन मोदी की राष्ट्रव्यापी लहर और दुश्मन से फिर दोस्त बने लालू यादव की दबाव की राजनीतिक शैली ने उन्हें फिर वापस लौटने को बाध्य कर दिया। पिछले मुख्यमंत्रित्वकाल में अरविंद केजरीवाल जिस तरह मोदी से भिडऩे के बहाने ढूंढ़ते थे, उसके मूल में भी स्वयं को विकल्प के रूप में पेश करने की महत्वाकांक्षा ही थी, लेकिन पंजाब विधानसभा चुनावों में ध्वस्त मंसूबों और अपूर्ण राज्य दिल्ली के सीमित अधिकारों ने उन्हें उनकी सीमाओं का भी अहसास करवा दिया। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहते अखिलेश यादव को भी लगा होगा कि वह मोदी का स्वाभाविक विकल्प बन सकते हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव और फिर लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव ने उनकी भी गलतफहमी दूर कर दी। लोकतंत्र में पिता विरासत में सिंहासन तो दे सकते हैं, पर राजनीतिक कद तो जनता ही तय करती है।
इस महत्वाकांक्षी तिकड़ी के अलावा मोदी का विकल्प बनने की स्वाभाविक महत्वाकांक्षा उन राहुल गांधी का स्थायी भाव माना जा सकता है, जिनकी कांग्रेस का ऐतिहासिक मान-मर्दन कर भाजपा ने लगातार दूसरी बार अकेलेदम स्पष्ट बहुमत हासिल कर केंद्र में सरकार बनायी है। बेशक दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें गिनती के लिहाज से कुछ बढ़ीं भी, पर यह मान-मर्दन कितना आहत करने वाला रहा, इसका अंदाजा नेहरू परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से हार और फिर अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे से लगाया जा सकता है। तब से दो साल से भी ज्यादा समय बीत गया, लेकिन कांग्रेस अपना नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुन पायी। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस की बागडोर संभाल रही हैं। कहा कुछ भी जाये, पर कांग्रेस की राजनीति को समझने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नेहरू परिवार से ही होगा, और राहुल गांधी ही होंगे, पर चुनावी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर छोड़े गये पद पर वापसी के लिए माहौल भी तो बनना चाहिए। जाहिर है, यह माहौल कांग्रेसियों को ही बनाना था, लेकिन वे तो राग दरबारी के बजाय मौका मिलते ही स्वयंभू सुधारक बन गये।
फिर भी तय है कि अगले साल जब नये पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव होगा तो वह चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, क्योंकि कांग्रेस में नेहरू परिवार का कोई विकल्प नहीं। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि स्वयं कांग्रेस में विकल्पहीनता के चलते पुन: अध्यक्ष पद संभालने वाले राहुल गांधी वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बन पायेंगे? कहा जाता है कि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सुविचारित रणनीति के तहत राहुल गांधी की छवि अगंभीर और हास्यास्पद बनाने का अभियान चला रखा है, पर क्या कई बार वह स्वयं अपने विरोधियों को ऐसा मौका नहीं दे देते? कोरोना काल में सोशल मीडिया से संचालित राजनीति में मोदी सरकार पर हमला करने का कोई मौका राहुल गांधी नहीं चूकते, लेकिन इस वास्तविकता से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि तमाम ज्वलंत मुद्दों-समस्याओं पर वैकल्पिक नजरिया पेश करने में वह अभी तक विफल ही रहे हैं। कहना नहीं होगा कि लोकतांत्रिक राजनीति में वास्तविक विकल्प बनने के लिए नीतिगत-व्यवस्थागत वैकल्पिक नजरिया पहली शर्त है।
कह सकते हैं कि मुद्दों-समस्याओं पर वैकल्पिक नजरिया तो ममता बनर्जी ने भी पेश नहीं किया है, लेकिन एक बड़ा फर्क है। ममता तीन दशक से भी लंबे वामपंथी शासन के विरुद्ध संघर्ष कर पश्चिम बंगाल में जुझारू नेत्री के रूप में उभरीं और फिर मतदाताओं ने उन्हें लगातार तीसरी बार सत्ता का जनादेश भी दिया है। दूसरी-तीसरी बार मिला जनादेश उनके शासन की रीति-नीति पर मतदाताओं की मुहर भी माना ही जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि संघर्ष के दौरान हासिल जन विश्वास को वह सत्ता में रहते हुए भी बरकरार रखने में सफल रही हैं। दूसरा बड़ा फर्क संगठनात्मक ढांचा और लोकप्रियता का है। दो दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले कुछ राज्यों को छोड़ दें तो कांग्रेस का लगातार चुनावी पराभव राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ भी बता ही देता है। माना कि राहुल को बेहद प्रतिकूल परिस्थितियां विरासत में मिली हैं, पर नेतृत्व कौशल की असली परीक्षा भी तो प्रतिकूल परिस्थितियों में ही होती है।
लालकृष्ण आडवाणी सरीखे दिग्गज नेता को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित करने के बाद भी 2009 के लोकसभा चुनाव में जिस भाजपा की दो सीटें घट गयी थीं, उसने मोदी को चेहरा बनाने पर 2014 में अगर अकेलेदम स्पष्ट बहुमत हासिल कर दिखाया तो उनके नेतृत्व कौशल और लोकप्रियता का डंका देश भर में बजना ही है। नोटबंदी समेत कुछ विवादास्पद फैसलों के बावजूद 2019 में भाजपा को पिछली बार से भी ज्यादा सीटें मिलना निश्चय ही मोदी की लोकप्रियता के साथ-साथ विकल्पहीनता का भी परिणाम रहा, पर इसके मूल में भाजपा के विशाल संगठन और सुनियोजित रणनीति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए अगले लोकसभा चुनाव में मोदी का विकल्प बनने के लिए लोकप्रियता के साथ-साथ ऐसा संगठनात्मक ढांचा भी जरूरी होगा, जो चुनावी रणनीति को कारगर ढंग से अंजाम दे सके। कांग्रेस अभी तक जहां नेतृत्व संकट से ही जूझ रही है, ममता ने पश्चिम बंगाल में लोकप्रियता साबित करने के बाद अपनी तृणमूल कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे का शेष देश में भी विस्तार–अभियान शुरू कर दिया है।
बेशक सामान्य राजनीतिक समझ रखने वाला भी यह समझ सकता है कि किसी एक दल में भाजपा का विकल्प बनने का माद्दा नजर नहीं आता। ऐसे में विपक्षी दलों का गठबंधन ही एकमात्र संभावना नजर आती है, लेकिन गठबंधन का नेतृत्व स्वाभाविक ही सबसे बड़ा दल करेगा। अपने गौरवशाली अतीत और मौजूदा राजनीतिक आधार के चलते भी कांग्रेस स्वयं को विपक्ष का स्वाभाविक अगुआ मानती है, लेकिन मोदी का विकल्प बनने की ममता की कवायद कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए दोहरी चुनौती पेश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस के पश्चिम बंगाल से बाहर संगठनात्मक विस्तार में सबसे ज्यादा मार कांग्रेस पर ही पड़ रही है। पूर्वोत्तर राज्य असम से आने वाली महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव ही नहीं, गोवा, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों के परंपरागत कांग्रेसियों को भी ममता बेहतर विकल्प नजर आ रही हैं। मेघालय में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद सरकार बनाने से वंचित रह गयी कांग्रेस के 17 में से 12 विधायकों का पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के नेतृत्व में तृणमूल में शामिल हो जाना कांग्रेस के लिए खतरे की ऐसी घंटी है, जिसे ज्यादा समय तक अनसुना करना भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देगा।

भारतीय नौसेना को एक और ‘समंदर का धुरंधर’ मिल गया है

समंदर का धुरंधर

भारतीय नौसेना को एक और ‘समंदर का धुरंधर’ मिल गया है। नौसेना के बेड़े में ‘आईएनएस विशाखापट्टनम’ के शामिल होने से हमारी समुद्री सैन्य ताकत में शानदार इजाफा हुआ है। यह प्रोजेक्ट 15बी का पहला स्टील्थ गाइडेड मिसाइल विध्वंसक जहाज है। इसे नौसेना के शीर्ष कमांडरों की मौजूदगी में रविवार को सेवा में शामिल किया गया। नौसेना अध्यक्ष एडमिरल करमबीर सिंह ने इस अवसर को ‘युद्धपोत आत्मनिर्भरता का शानदार उदाहरण’ करार दिया। दो दिन बाद पनडुब्बी ‘वेलाÓ को भी नौसेना में शामिल किया जाएगा। इसके अलावा अगले महीने सर्वे वैसल ‘संध्या’ को नौसेना की सेवा में ले लिया जाएगा। मिसाइल भेदी जहाज ‘आईएनएस विशाखापट्टनम’ कई खूबियों वाला है। सभी अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस यह जहाज ब्रह्मोस-बराक जैसी विध्वंसक मिसाइलों से लैस है। इसमें सुपरसोनिक सतह से सतह और सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें, मध्यम और शॉट रेंज गन, एंटी सबमरीन रॉकेट, एडवांस इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर और कम्युनिकेशन सूट जैसी खूबियां भी हैं। आईएनएस विशाखापट्टनम की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह दुश्मन के जहाज को देखते ही एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल लॉन्च कर उसका खात्मा कर सकता है। साथ ही यह भी गर्व की बात है कि यह युद्धक जहाज पूरी तरह से स्वदेशी है। कुल 74 हजार टन वजनी इस जहाज की लंबाई 535 फुट है। बताया जा रहा है कि लगभग 56 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाला यह युद्धक जहाज जब धीमी गति से भी चलता है तो इसकी रेंज में 7400 किलोमीटर क्षेत्र रहता है। यानी विशाल समुद्री क्षेत्र में भारतीय नौसैनिकों की सजग निगाहें बनी रहेंगी। बेशक भारतीय नौसेना के पास और भी कई युद्धक जहाज हैं, लेकिन आईएनएस विशाखापट्टनम अत्याधुनिक खूबियों वाला और समयानुकूल है। कई खूबियों वाले इस जहाज का नौसेना के बेड़े में शामिल होना गौरव की बात तो है ही, साथ ही दुनिया भी भारत की समुद्री ताकत से रू-ब-रू हो गई। आईएनएस विशाखापट्टनम के साथ ही पनडुब्बी वेला जब नौसेना का हिस्सा बन जाएगी तो इसकी ताकत में इजाफा ही होगा। भारत के पास अभी कुल 13 पनडुब्बियां हैं। ये पनडुब्बियां रूस और जर्मनी में निर्मित हुई हैं। देश की पहली परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी अरिहंत पहले से नौसेना के बेड़े का हिस्सा है। नौसेना प्रमुख के मुताबिक फिलवक्त 41 में से 39 पोत और पनडुब्बी के ऑर्डर भारतीय शिपयार्ड को दिए गए हैं। यानी भारतीय नौसेना को मजबूत बनाने की दिशा में पूरी पहल हो रही है।
यूं तो भारतीय सेनाओं के तीनों अंगों को लगातार मजबूत किया जा रहा है, लेकिन समुद्री ताकत को ज्यादा मजबूत करना वक्त की जरूरत है। जैसा कि इस जहाज को नौसेना के बेड़े में शामिल करते वक्त रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि स्थिरता, आर्थिक प्रगति और दुनिया के विकास के लिए नेविगेशन की नियम आधारित स्वतंत्रता, समुद्री गलियारों की सुरक्षा पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। ऐसे में इस बात का ध्यान रखना लाजिमी है कि सभी भागीदार देशों के हित सुरक्षित रह सकें। इस क्षेत्र की सुरक्षा में हमारी नौसेना की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि पड़ोसी देश चीन ने अपनी विस्तारवादी सोच को समुद्र में भी नहीं छोड़ा है। दक्षिण चीन सागर में चीन द्वीपों का सैन्यीकरण कर रहा है, जिसकी वैश्विक रूप से आलोचना होती रही है। इस क्षेत्र को लेकर पूर्वी और दक्षिण पूर्वी कई एशियाई देशों के व्यापक दावे हैं। ऐसे में शक्ति संतुलन के लिए आईएनएस विशाखापट्टनम जैसे युद्धक जहाजों की जरूरत भारत को थी। सामरिक महत्ता के अलावा विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी भारत का समुद्री क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है। आज वैश्विक सुरक्षा कारणों, सीमा विवादों और समुद्री प्रभुत्व को बनाए रखने के महत्व के कारण दुनियाभर के देश अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत और आधुनिक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। ऐसे में भारत ने खुद को समुद्री शक्ति संपन्न देशों की कतार में ला खड़ा किया है जो गौरवान्वित करने वाली बात है। (एजेंसी)

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