भारत के पक्ष में झुका लिया अमेरिकी सरकार को

वेद प्रताप वैदिक – भारत के पक्ष में झुका लिया अमेरिकी सरकार को . यूक्रेन के बारे में भारत पर अमेरिका का दबाव बढ़ता ही चला जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि हमारे रक्षा और विदेश मंत्रियों की इस वाशिंगटन-यात्रा के दौरान कुछ न कुछ अप्रिय प्रसंग उठ खड़े होंगे लेकिन हमारे दोनों मंत्रियों ने अमेरिकी सरकार को भारत के पक्ष में झुका लिया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह संयुक्त विज्ञप्ति है, जिसमें यूक्रेन की दुर्दशा पर खुलकर बोला गया लेकिन रूस का नाम तक नहीं लिया गया।

उस विज्ञप्ति को आप ध्यान से पढ़ें तो आपको नहीं लगेगा कि यह भारत और अमेरिका की संयुक्त विज्ञप्ति है बल्कि यह भारत का एकल बयान है।भारत ने अमेरिका का अनुकरण करने की बजाय अमेरिका से भारत की हां में हां मिलवा ली। अमेरिका ने भी वे ही शब्द दोहराए, जो यूक्रेन के बारे में भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहता रहा है। दोनों राष्ट्रों ने न तो रूस की भर्त्सना की और न ही रूस पर प्रतिबंधों की मांग की।

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने यह मांग जरुर की कि दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देशों को यूक्रेन के हमले की भर्त्सना करनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने यूक्रेन की जनता की दी जा रही भारतीय सहायता का भी जिक्र किया और रूस के साथ अपने पारंपरिक संबंधों का भी! ब्लिंकन ने भारत-रूस संबंधों की गहराई को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया।भारत प्रशांत-क्षेत्र में अमेरिकी चौगुटे के साथ अपने संबंध घनिष्ट बना रहा है।

इस यात्रा के दौरान दोनों मंत्रियों ने अंतरिक्ष में सहयोग के नए आयाम खोले, अब अमेरिकी जहाजों की मरम्मत का ठेका भी भारत को मिल गया है और अब भारत बहरीन में स्थित अमेरिकी सामुद्रिक कमांड का सदस्य भी बन गया है। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी पक्ष ने भारत में मानव अधिकारों के हनन का सवाल भी उठाया। जयशंकर ने उसका भी करारा जवाब दिया। उन्होंने पूछा कि पहले बताइए कि आपके देश में ही मानव अधिकारों का क्या हाल है?

अमेरिका के काले और अल्पसंख्यक लोग जिस दरिद्रता और असमानता को बर्दाश्त करते रहते हैं, उसे जयशंकर ने बेहिचक रेखांकित कर दिया। जयशंकर का अभिप्राय था कि अमेरिका की नीति पर उपदेशकुशल बहुतेरेÓ की नीति है। जहां तक रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सवाल है, उस विवादास्पद मुद्दे पर भी जयशंकर ने दो-टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा कि यह पाबंदी का अमेरिकी कानून है।इसकी चिंता अमेरिका करे कि वह किसी खरीददार पर पाबंदिया लगाएगा या नहीं? यह हमारी चिंता का विषय नहीं है।

जयशंकर पहले अमेरिका में भारत के राजदूत रह चुके हैं। उन्हें उसकी विदेश नीति की बारीकियों का पता है। इसीलिए उन्होंने भारत का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं बरती।

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श्रीलंका में वित्तिय प्रबंधन में विफलता से स्थितियां विषम..

डॉ. सुधीर सक्सेना – श्रीलंका में वित्तिय प्रबंधन में विफलता के चलते स्थितियां सम से विषम हो गयी हैं। भयावह मुद्रास्फीति और अंधाधुंध कर्ज ने चौतरफा संकट खड़ा कर दिया है, फलत: श्रीलंका इन दिनों अंधे बोगदे में नजऱ आ रहा है…- शरत कोनगहगेशरत कोनगहगे श्रीलंका की जानी-मानी शख्सियत हैं, राजनीतिज्ञ, वकील, राजनयिक, मीडियाकर्मी और ख्यातिलब्ध सलाहकार। वे राष्ट्रपति और मंत्रालयों के सलाहकार रहे, सांसद रहे, रूपवाहिनीÓ के चेयरमैन रहे, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में राजदूत और दक्षिण अफ्रीका में उच्चायुक्त रहे।

संप्रति वे दु:खी हैं। रूपये के अबाध अवमूल्यन और फोरेक्स-भंडार में अभूतपूर्व कमी ने जरूरी चीजों के अभाव की स्थिति उत्पन्न कर दी है। सड़कों पर बसों और गाडिय़ों के चक्के थम गये हैं। जिसों की कीमतें आसमान छू रही है।सुभाषिणी रत्नायका विश्वविद्यालय में शिक्षिका हैं। वे बताती हैं कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं और जीवन कठिन से कठिनतर। राजधानी कोलंबो में स्थिति विकराल होते देख वे कोलंबो से सुदूर कैंडी चली गई हैं, जहां उनके पति का घर और खेती-बाड़ी है। बताती हैं कि हालात सर्वत्र चिंताजनक हैं। शहरों में 12 से 15 घंटे बिजली कटौती हो रही है। स्ट्रीट लाइटें गुल हैं। न तो सरकारी बिजली संस्थानों के पास ईंधन है और न ही निजी परिवहन कंपनियों के पास। कीमतों में आग लगी हुई है।

श्रीलंका अपने इतिहास के भयावहतम पॉवरकट से गुजर रहा है। सभी 20 विद्युतजोनों में बिजली कटौती का ऐलान किया गया है। दुकानों में दवाओं का अभाव है। हालात का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अस्पतालों में भर्ती और ऑपरेशन प्रभावित हुए हैं। जीना इस कदर मुहाल है कि पूछिये मत। एक लिटर पेट्रोल की कीमत 254 रुपये है, जबकि एक लिटर दूध 263 रुपये में बिक रहा है। डबलरोटी के लिए डेढ़ सौ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं।

चीनी की कीमत 300 रुपये प्रति किलो तक पहुंच रही है। चावल 500 रुपये प्रति किलो है तो मिर्च 700 रुपये के पार। आलू 200 रुपये किलो है। करीब एक हजार बेकरियां बंद हो गई हैं। आप श्रीलंका में हैं तो यकीनन खुशकिस्मत कहे जायेंगे यदि आपको सौ रुपया खर्च कर एक प्याली चाय मिल जाये।अजित निशांत वरिष्ठ पत्रकार हैं। कोलंबो और दिल्ली में उनसे मुलाकातें हुईं। अब फोन पर बात हुई तो उन्होंने हादसे की पूर्वपीठिका समझाने की कोशिश की। यह स्थिति रातोंरात उत्पन्न नहीं हुई है। राजपक्षे सरकार ने स्थितियों से निपटने में कोताही बरती। हंबनटोटा का जिक्र न भी हो तो भी चीन व अन्य देशों से भारी ऋण लिया गया। परिणामत: फोरेक्स भंडार में 70 फीसद से अधिक गिरावट आई। अब श्रीलंका के पास मात्र 2.36 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा बची है, जबकि करीब तीन साल पहले विदेशी मुद्रा भंडार 7.5 बिलियन डॉलर था। अब उसके पास ब्याज और कर्ज को चुकाने के लिए पैसा नहीं है।

जरूरी चीजों का आयात करें तो कैसे करें?श्रीलंका सुंदर और सुरम्य द्वीप है, भारत का सदाशयी पड़ोसी। निर्गुट आंदोलन में भारत का साथी। इतना साफ-सुथरा कि आप विस्मय-विमुग्ध हो उठें। पुलिन (समुद्र तट) लुभाते हैं। रंग और स्वाद की उम्दा चाय के बागान और गरम मसालों की मह-मह खेती श्रीलंका का वैशिष्ट्य हैं। अपने प्रतापी राजवंशों, राजधर्म और संस्कृति के लिए श्रीलंका भारत का ऋणी है। दोनों देशों को समुद्र जोड़ता है। ऐसे श्रीलंका को लगता है कि किसी की नजर लग गयी है। अजित निशांत कहते हैं-परिस्थितियों के बिगडऩे में कोविड महामारी का भी बड़ा हाथ है। इसने खेती-बाड़ी और कारोबार तो प्रभावित किया ही, पर्यटन का भी सत्यानाश कर दिया। पर्यटन श्रीलंका में विदेशी मुद्रा की कमाई का बड़ा स्रोत था। इससे करीब 20 लाख लोग जुड़े थे और सालाना करीब 5 अरब डॉलर की आय होती थी। चिंतनीय स्थितियों का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि एजुकेशनल बोर्ड के पास कागज-स्याही नहीं है, लिहाजा उसने परीक्षाएं स्थगित कर दी हैं।

अखबारों की छपाई भी बंद है।श्रीलंका की आबादी दो करोड़ 20 लाख के आसपास है। लंबे समय तक वह अशांत और गृहयुद्ध से ग्रस्त रहा है। इसमें शक नहीं कि गोतबाया राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी है। यह भी निर्विवाद है कि यह राजपक्षे-परिवार के वर्चस्व का दौर है। राजनीति और व्यापार-वाणिज्य में परिवार की तूती बोलती है। भाई महिंदा प्रधानमंत्री हैं। एक अन्य भाई बासिल वित्तमंत्री और एक अन्य विपुल खेलमंत्री। इस राजवंश का प्रादुर्भाव और प्रभुत्व अलग कथा का विषय है, किन्तु दो-मत नहीं कि राजपक्षे परिवार सिंहली राष्ट्रवाद और राजपक्षे-परिवार की लौह-छवि तथा देश की समृद्धि के सब्जबाग के बूते सत्ता में आया है।

श्रीलंका में बरसों रहे एक राजनयिक ने बताया कि विक्रमसिंघे की तमिलों के प्रति नरम-नीति को बहुसंख्यक सिंहली जनता पसंद नहीं करती थी। इसी भावनात्मक ज्वार ने सत्ताच्युत राजपक्षे परिवार की एक बार फिर लॉटरी खोल दी। सन् 2019 में कोलंबो के सीरियल ब्लास्ट ने उनके समर्थन का ईंधन जुटाया। बहरहाल, श्रीलंका का रूपया आज अपने न्यूनतम स्तर पर है। आज एक डॉलर के लिए आपको वहां 318 रुपये चुकाने होंगे। भारत में यही विनिमय दर 76, पाकिस्तान में 182, मारीशस में 45 तथा नेपाल में 121 है।

श्रीलंका गत अप्रैल तक 32 अरब डॉलर का विदेशी ऋण ले चुका था। टेंट में रकम नहीं है, जबकि उसे जुलाई तक एक अरब और आगामी कुछ माह में 7 अरब डॉलर से अधिक की रकम चुकानी है। उसे 10 अरब डॉलर का सालाना व्यापारिक घाटा होने का अनुमान है। चीन से कर्ज की शर्तों और हंबनटोटा बंदरगाह के भविष्य को लेकर भी आशंकाओं का बाजार गर्म है।यह इन्हीं विषम परिस्थितियों का दुष्परिणाम है कि गुरूवार 31 मार्च की रात्रि को सैकड़ों लोगों की क्षुब्ध भीड़ ने मिरिहान की ओर रुख किया और राष्ट्रपति के निजी निवास को घेर लिया।

बेकाबू महंगाई और किल्लत से त्रस्त लोग राष्ट्रपति गोतेबाया राजपक्षे के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। आंसू गैस और पानी की बौछारों के बाद पुलिस ने गोलियां दागीं और रात का कर्फ्यू लगा दिया। गोलीबारी में दस लोग आहत हुए। अजित निशांत के अनुसार प्रदर्शनों का यह सिलसिला अभी और गति पकड़ेगा।श्रीलंका का यह संकट अभूतपूर्व और भयावह है। इस विषम वेला में श्रीलंका को सबसे बड़ा आसरा भारत का है। और भारत ने भी हालात की नाजुकी और अपने ऐतिहासिक दायित्व को समझा है।

भारत के विदेशमंत्री एस. जयशंकर की ताजा कोलंबो यात्रा इसी की परिचायक है। भारत के लिए नेबरहुड फर्स्टÓ की नीति मायने रखती है। वक्त के तकाजे को बूझ भारत ने 1.5 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता दी है, जबकि श्रीलंका ने एक अरब डॉलर और मांगे हैं। जहांतक इस सर्वग्रासी संकट से मुक्ति की बात है, इससे मुक्ति का कोई शॉर्ट कटÓ’नहीं है।

शरत कोनगहगे के ही शब्दों में समापन करें तो हर बोगदे की तरह इसका भी सिरा है और उस तक पहुंचने में समय लगेगा। प्रबंधन और नियोजन में सूझबूझ और धैर्य के बल पर श्रीलंका आहिस्ता-आहिस्ता इससे पार पा सकता है। हां, इस बीच उथलपुथल के दौरों से इंकार नहीं किया जा सकता।

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भारत और उसके पड़ौसी देश

बलबीर पुंज – भारत और उसके पड़ौसी देश. दो दशकों से जिस चीन के निवेश और भारी-भरकम कर्ज ने श्रीलंका को इस स्थिति में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है, वह ही संकट के समय वहां से भाग खड़ा हुआ है। वैसे भी चीन अपनी अधिनायकवादी मानसिकता और मानवाधिकारों के हनन के लिए कुख्यात रहा है। ऐसे में भारत, श्रीलंका के लिए देवदूत बनकर उभरा है। आलेख लिखे जाने तक, भारत ने 40 हजार मीट्रिक टन डीज़ल, तो 40 हजार टन चावल की सहायता की है, तो एक अरब डॉलर की आर्थिक मदद करने का वचन भी दिया है।

हालिया वैश्विक घटनाक्रम में भारत की स्थिति क्या है? देश का एक वर्ग, जिसे हम सेकुलर-वामपंथी-जिहादी कुनबा भी कह सकते है- वह बीते कुछ वर्षों, विशेषकर मई 2014 से लगातार अपने भारत-हिंदू विरोधी विरोधी एजेंडे की पूर्ति हेतु देश को कभी ‘मुसलमानों के लिए असुरक्षित’, ‘देश में भय का वातावरण’, तो ‘लोकतंत्र खतरे में है’ या फिर ‘नागरिक अधिकारों के हनन’जैसे जुमलों को निरंतर रट रहा है। यह भी दिलचस्प है कि जिस विश्व में यह जमात देशविरोधी विषवमन कर रहा है, उसी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई और इन्हें अब भी भारत ही सबसे अधिक ‘असुरक्षि’ लग रहा है।

शुरूआत अपने पड़ोसी देशों के साथ करते है। पाकिस्तान में क्या हो रहा है? यहां एक बार फिर ‘जनता द्वारा’ चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान के सत्ता अधिष्ठान में कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों और सेना की तूती बोलती है। घोषित इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़े इसलिए भी खोखली है और संभवत: आगे भी रहेगी, क्योंकि जिस ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित सर सैयद अहमद खां के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ ने भारत का रक्तरंजित विभाजन करके इस देश को जन्म दिया, उसके वैचारिक अधिष्ठान में ही लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता का कोई स्थान नहीं है। स्वयं पाकिस्तान की स्थापना का उद्देश्य ही लोकतंत्र का विरोधाभास है। चीन का दुमछल्ला बनने की भी पाकिस्तान बड़ी कीमत चुका रहा है। राजनीतिक अस्थिरता के बीच ध्वस्त आर्थिकी ने उसके संकट को कई गुना बढ़ा दिया है।

वित्तीय संकट से श्रीलंका भी जकड़ा हुआ है। श्रीलंका में आर्थिक बदहाली इतनी बढ़ गई है कि इसने लोगों के मुंह से निवाला तक छीन लिया है। इससे पैदा हुए भारी जनाक्रोश और हिंसक प्रदर्शन को नियंत्रित करने हेतु वहां के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने देश पर एक अप्रैल को आपातकाल थोप दिया था, जिसे 4-5 अप्रैल की आधी रात हटा लिया गया। अधिकांश श्रीलंकाई नागरिकों को न केवल पर्याप्त विद्घुत आपूर्ति मिल रही है, साथ ही उन्हें खाने-पीने, आवश्यक दवाओं और ईंधन की भारी कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। जो वस्तुएं वहां उपयोग हेतु उपलब्ध भी है, उनकी कीमतें आसमान छू रही है।

दो दशकों से जिस चीन के निवेश और भारी-भरकम कर्ज ने श्रीलंका को इस स्थिति में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है, वह ही संकट के समय वहां से भाग खड़ा हुआ है। वैसे भी चीन अपनी अधिनायकवादी मानसिकता और मानवाधिकारों के हनन के लिए कुख्यात रहा है। भारत सहित 17 देशों देशों के साथ चीन का सीमा विवाद, अपने देश में करोड़ों मुस्लिम नागरिकों पर मजहबी प्रतिबंध के साथ तिब्बत आदि में दमन- इसका प्रमाण है। ऐसे में भारत, श्रीलंका के लिए देवदूत बनकर उभरा है। आलेख लिखे जाने तक, भारत ने 40 हजार मीट्रिक टन डीज़ल, तो 40 हजार टन चावल की सहायता की है, तो एक अरब डॉलर की आर्थिक मदद करने का वचन भी दिया है। इस पृष्ठभूमि में मुझे उस विकृत “ग्लोबल हंगर इंडेक्स” रिपोर्ट का स्मरण होता है, जिसमें दावा किया गया था कि दुनिया के 117 देशों की सूची में 138 करोड़ की आबादी वाले भारत की स्थिति, पड़ोसी देश पाकिस्तान (22 करोड़) और श्रीलंका (2 करोड़) से भी खराब है। इसे आधार बनाकर देश का सेकुलर-वामपंथी-जिहादी कुनबा कई बार मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुका है।

श्रीलंका के अतिरिक्त भारत ने तालिबान शासन (खालिस शरीयत) के बाद संकट में आए अफगानिस्तान को भी बीते माह मानवीय आधार पर कई खेपों में 50 हजार टन गेहूं, 13 टन जीवनरक्षक दवाइयां, चिकित्सीय उपकरण और पांच लाख कोविड रोधी टीके की खुराकों के साथ अन्य आवश्यक वस्तुओं (ऊनी वस्त्र सहित) को भेजा था। फिर हमारे देश का एक कुनबा, वर्तमान भारतीय नेतृत्व को मुस्लिम विरोधी मानता है। क्या यह सत्य नहीं भारत ही नहीं, अपितु शेष विश्व में मुस्लिम समाज का एक वर्ग ‘असुरक्षा की भावना’ का शिकार है, जिसकी जड़े ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा में मिलती है?

बात यदि म्यांमार की करें, तो वहां गत वर्ष से सैन्य शासन है। कई संगठनों का दावा है कि 1 फरवरी 2021 को आंग सान सू की समर्थित सरकार के तख्तापलट के बाद वहां हजारों लोगों को मार दिया गया हैं, जिसमें प्रदर्शनकारियों के अतिरिक्त प्रतिरोध संघर्षकर्ता, सरकारी अधिकारी और कई नागरिक शामिल हैं। बर्मा पर सैन्य शासन को जहां चीन खुलकर समर्थन दे रहा है, वही अमेरिका के बिडेन प्रशासन ने म्यांमार में रोहिंग्या आतंकवादियों (प्रतिबंधित अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी) के खिलाफ हुए सैन्य कार्रवाई को औपचारिक रूप से नरसंहार घोषित कर दिया है।

सच तो यह है कि हाल के वर्षों में अमेरिका अपनी विरोधाभासी और दोहरी नीतियों के कारण विश्व कई संकटों का सामना कर रहा है। वर्ष 2001 से दिशाहीन आतंकवाद विरोधी वैश्विक अभियान इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। म्यांमारी सेना से पहले अमेरिका ने गत वर्ष बांग्लादेश के जिस प्रमुख अर्धसैनिकबल आरएबी पर प्रतिबंध लगाया था, उसने हिंदू-विरोधी दंगों पर काबू पाने के साथ इस्लामी कट्टरवाद-आतंकवाद की कमर तोडऩे में मुख्य भूमिका निभाई थी।

रूस-यूक्रेन युद्ध से दोनों ही देश स्वाभाविक रूप से बुरी तरह प्रभावित है। इससे अबतक असीम मानवीय और आर्थिक नुकसान हो चुका है। कटु सत्य तो यह है कि यूक्रेन-रूस को इस स्थिति में पहुंचाने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अमेरिका और उसके नेतृत्व वाला 30 सदस्यीय नाटो गठबंधन (दो अमेरिकी और 28 यूरोपीय देश) का हाथ है। यदि यह गुट अपनी रूस विरोधी मानसिकता के कारण यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की हठ नहीं करता, तो शायद ही अपने सामरिक हितों की रक्षा हेतु रूस हमले के लिए विवश होता। इस संबंध में अमेरिका द्वारा लाख चेतावनी के बाद भी रूस ने न केवल यूक्रेन पर हमला कर दिय, अपितु कई प्रकार के सख्त आर्थिक प्रतिबंध थोपने के बाद भी अमेरिका, रूस को नहीं रोक पाया है। यह सब स्पष्ट करने हेतु पर्याप्त है कि वर्तमान समय में अमेरिका और उसके प्रभावशाली सहयोगियों की विश्वसनीयता कितनी डगमग है। किसान आंदोलन के समय भारत सरकार को ‘उपदेश’ देने वाले कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपने देश में ट्रक-चालकों के ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ को घोड़ों के पैरों तले कुचलने के लिए आपातकालीन शक्तियों का उपयोग पहले ही कर चुके है। फिर भी कुछ लोगों को ‘भारत में ही लोकतंत्र खतरे में’ दिखता है।

वैश्विक संकट में भारत की स्थिति क्या है? जब कोई देश अपने घोषित शत्रु राष्ट्र की प्रशंसा करें, तो उससे समकक्ष की ताकत स्वत:स्पष्ट है। कुछ दिन पहले तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे इमरान खान ने एक जनसभा को संबोधित कहा था कि भारत की विदेशी नीति स्वतंत्र है और उसके अपने लोगों के हितों से जुड़ी है। यह ठीक है कि वैश्विक कारणों से विश्व के अन्य देशों के भांति भारत में भी ईंधन के दाम बढ़ रहे है, जिसके परिणाणस्वरूप महंगाई में भी बढ़ोतरी हुई है।

किंतु यह भी सच है कि देश में लोकतंत्र, संविधान और कुटिल पड़ोसियों के बीच हमारी सीमाएं पहले से अधिक सुरक्षित है। आर्थिक मामले में हमारी स्थिति संतोषजनक है। स्वतंत्र भारत ने पहली बार वित्तवर्ष 2021-22 में 400 बिलियन डॉलर के निर्यात का आकंड़ा पार किया है। इस प्रकार के ढेरों सकारात्मक उदाहरण है, जो ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमार’ को और भी अधिक प्रासंगिक बनाता है।

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श्रीलंका में राजनीति गहरी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गई है

वेद प्रताप वैदिक – श्रीलंका में अस्थिरता के बादल छा गए हैं।  श्रीलंका की राजपक्ष भाइयों की सरकार रहे या चली जाए, हमारे  पड़ौसी देश की राजनीति गहरी अस्थिरता के दौर में प्रवेश कर गई है। जहां तक श्रीलंका का प्रश्न है, वहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य तीन मंत्री एक ही राजपक्ष परिवार के सदस्य हैं। ऐसी पारिवारिक सरकार शायद दुनिया में अभी तक कभी नहीं बनी है। जब सर्वोच्च पदों पर इतने भाई और भतीजे बैठे हों तो वह सरकार किसी तानाशाह से कम नहीं हो सकती। राजपक्ष-परिवार श्रीलंका का राज-परिवार बन गया।

श्रीलंका में आर्थिक संकट इतना भीषण हो गया है कि कल पूरे मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया। सबसे बड़ी बात यह कि जिन चार मंत्रियों को फिर नियुक्त किया गया, उनमें वित्तमंत्री बसील राजपक्ष नहीं हैं। वित्तमंत्री के खिलाफ सारे देश में जबर्दस्त रोष फैला हुआ है, क्योंकि मंहगाई आसमान छूने लगी है। चावल 500 रु. किलो, चीनी 300 रु. किलो और दूध पाउडर 1600 रु. किलो बिक रहा है। बाजार सुनसान हो गए हैं। ग्राहकों के पास पैसे नहीं हैं। रोजमर्रा पेट भरने के लिए हर परिवार को ढाई-तीन हजार रु. चाहिए। लोग भूखे मर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दो-तीन दिन में सरे-आम लूट-पाट की खबरें भी श्रीलंका से आने लगें। पेट्रोल, डीजल और गैस का अकाल पड़ गया है, क्योंकि उन्हें खरीदने के लिए सरकार के पास डॉलर नहीं हैं।

लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग-भागकर भारतीय आ रहे हैं ।श्रीलंका के रिजर्व बैंक के गवर्नर अजीत निवार्ड कबराल ने भी इस्तीफा दे दिया है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के तीन बड़े आधार हैं। पर्यटन, विदेशों से आनेवाला श्रीलंकाइयों का पैसा और वस्त्र-निर्यात। महामारी के दौरान ये तीनों अधोगति को प्राप्त हो गए। 12 बिलियन डॉलर का विदेशी कर्ज चढ़ गया। उसकी किस्तें चुकाने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है।चाय के निर्यात की आमदनी घट गई, क्योंकि रासायनिक खाद पर प्रतिबंध के कारण चाय समेत सारी खेती लंगड़ा गई।

श्रीलंका को पहली बार चावल का आयात करना पड़ा। 2019 में बनी इस राजपक्ष सरकार ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लालच में तरह-तरह के टैक्स घटा दिए और मुफ्त अनाज बांटना शुरु कर दिया। सारा देश विदेशी कर्जे में डूब गया।

गांव-गांव और शहर-शहर में लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। घबराई हुई सरकार ने विरोधी दलों से अनुरोध किया कि सब मिलकर संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन वे तैयार नहीं हैं। राजपक्ष सरकार ने पहले आपात्काल घोषित किया, संचारतंत्र पर कई पाबंदियां लगाईं और अब उसे कर्फ्यू भी थोपना पड़ा है। भारत सरकार ने श्रीलंका की तरह-तरह से मदद करने की कोशिश की है लेकिन जब तक दुनिया के मालदार देश उसकी मदद के लिए आगे नहीं आएंगे, श्रीलंका अपूर्व अराजकता के दौर में प्रवेश कर जाएगा।

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भारत और ऑस्ट्रेलिया व्यापार के क्षेत्र में संयुक्त विजेता

पीयूष गोयल -भारत और ऑस्ट्रेलिया व्यापार के क्षेत्र में संयुक्त विजेता.  भारत ऑस्ट्रेलिया आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौता (इंडऑस ईसीटीए) के माध्यम से वैश्विक व्यापार परिदृश्य में भारत के प्रभावशाली उदय से जुड़े एक और नए अध्याय की शुरुआत हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में, अत्यधिक प्रतिस्पर्धी वैश्विक बाजार में देश लगातार नई ऊंचाइयां छू रहा है। पिछले महीने, भारत ने 2021-22 के लिए 400 बिलियन डॉलर के महत्वाकांक्षी निर्यात लक्ष्य को हासिल ही नहीं किया, बल्कि इससे आगे भी बढ़ गया है, क्योंकि छोटे उद्यमों समेत भारतीय निर्यातकों ने अपने मौजूदा परिचालनों में वृद्धि की, नए बाजारों में प्रवेश किया और नए उत्पादों का निर्यात किया।

इस प्रकार, भारतीय निर्यातकों ने आर्थिक विकास को गति प्रदान की एवं रोजगार के अवसरों का सृजन किया और वो भी ऐसे समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था महामारी के कारण संकट में थी। इससे एक महीने पहले, भारत ने संयुक्त अरब अमीरात के साथ व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौताÓ पर हस्ताक्षर किए, जिससे देश के लोगों के लिए नौकरियों के और धन अर्जित करने के नए अवसर पैदा हुए। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच एकता का प्रतीक, इंडऑस ईसीटीए एक प्रमुख मील का पत्थर है। यह अगले पांच वर्षों में द्विपक्षीय व्यापार को मौजूदा 27.5 बिलियन डॉलर से बढ़ाकर 45-50 बिलियन डॉलर के स्तर पर ले जाएगा, जिससे दोनों देशों को बहुत लाभ होगा। यह एक दशक से अधिक समय के बाद किसी विकसित अर्थव्यवस्था के साथ पहला व्यापार समझौता है, जिसे निर्यातकों, व्यापारियों, छोटे उद्यमों और पेशेवरों के साथ व्यापक परामर्श के बाद अंतिम रूप दिया गया है।

व्यापार सौदे और भारतीय निर्यातकों का प्रशंसनीय प्रदर्शन न्यू इंडिया की नई ऊर्जा, समर्पण, दृढ़ संकल्प और सफल होने की अदम्य इच्छा का प्रमाण है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, जो भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के पहले 75-सप्ताह की समयावधि को रेखांकित करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि कोरोना काल के बाद दुनिया बहुत तेजी से एक नई विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। उन्होंने कहा, यह एक ऐसा महत्वपूर्ण दौर है, जब भारत को इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी भारत की आवाज बुलंद रहनी चाहिए तथा भारत को नेतृत्व की भूमिका के लिए खुद को योग्य समझना चाहिए। इस संदर्भ में, भारत का पूरा निर्यात व्यवसाय- सामान्य बुनकरों और कामगारों से लेकर दुनिया को मात देने वाले उद्यमियों, इंजीनियरों और सॉफ्टवेयर पेशेवरों तक – भारत को वैश्विक बाजार में एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित कर रहा है और दुनिया भारत को एक उभरती हुई महाशक्ति के रूप में देख रही है।

भारत और ऑस्ट्रेलिया के आर्थिक संबंध एक-दूसरे के लिए पूरक हैं। भारत मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया को तैयार उत्पादों का निर्यात करता है और विशेषकर खनिजों, कच्चे माल और मध्यवर्ती वस्तुओं का आयात करता है। भारत को अपने सभी उत्पादों के लिए ऑस्ट्रेलिया में शुल्क-मुक्त पहुंच प्राप्त होगी। इससे भारत, प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों, जिनके पास पहले से ही ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार सौदे हैं, के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होगा और प्रतिकूल परिस्थिति से होने वाले नुकसान को कम करने में सफल होगा। भारत को अपने उत्पादों के लिए बाजार पहुंच का फायदा मिलेगा और नियामक प्रक्रियाओं को आसान बनाने से फार्मास्युटिकल उत्पादों के लिए, इस क्षेत्र का आकर्षक 12 बिलियन डॉलर का ऑस्ट्रेलियाई बाजार भी खुल जाएगा।इसी तरह, कपड़ा निर्यात के तीन वर्षों में तीन गुना होकर 1.1 बिलियन डॉलर के स्तर तक पहुंचने की उम्मीद है, जिससे हर साल 40,000 नए रोजगार सृजित होंगे और छोटे शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में नई इकाइयों के शुरू होने की संभावना बढ़ेगी। इंजीनियरिंग उत्पादों का निर्यात 2020-21 के 1.2 बिलियन डॉलर से बढ़कर पांच वर्षों में 2.7 बिलियन डॉलर होने की उम्मीद है।ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ व्यापार समझौतों से अगले पांच से सात वर्षों में प्रत्येक के सन्दर्भ में 10 लाख नौकरियां के सृजन होने का अनुमान है।

वे निवेशकों का उत्साह भी बढ़ाएंगे और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारत की स्थिति को बढ़ावा देंगे, जिससे समझौते में एक रणनीतिक आयाम जुड़ेगा। भारत पहले ही ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ त्रिपक्षीय आपूर्ति श्रृंखला लचीलापन पहल (एससीआरआई) व्यवस्था में शामिल हो चुका है।यह समझौता भारतीय कंपनियों के लिए कच्चे माल, खनिज और मध्यवर्ती वस्तुओं की लागत को कम करता है, जिससे उपभोक्ताओं को मदद मिलेगी और निर्यात में वृद्धि होगी। सरकार ने किसानों का ध्यान रखा है और कई क्षेत्रों को समझौते के दायरे से बाहर रखा है। इनमें डेयरी उत्पाद, काबुली चना, अखरोट, पिस्ता, गेहूं, चावल, बाजरा, सेब, सूरजमुखी-बीज का तेल, चीनी, खली, सोना, चांदी, प्लेटिनम, आभूषण, लौह अयस्क और अधिकांश चिकित्सा उपकरण शामिल हैं।

छात्रों को भी बहुत लाभ मिलेगा। वे अध्ययन के बाद चार साल तक के लिए वीज़ा प्राप्त कर पायेंगे, जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नौकरी का अनुभव देगा और ऑस्ट्रेलिया को युवा पेशेवरों के प्रतिभाशाली, मेहनती समुदाय का लाभ देगा, जिन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है और प्रमुख पश्चिमी कंपनियां के शीर्ष पदों को संभाल रहे हैं।इसके अलावा, भारतीयों को एक उदार वीजा व्यवस्था मिलेगी, जो कॉर्पोरेट के दायरे में स्थानांतरित होने वाले कर्मियों, अधिकारियों और संविदा सेवा प्रदाताओं को चार साल तक अस्थायी प्रवास की अनुमति देगा। परिवार के सदस्यों के लिए प्रवेश, निवास करने और काम के अधिकारों के लिए भी प्रतिबद्धताएं शामिल की गयीं हैं।

भारतीय शेफ और योग शिक्षक भी वीजा व्यवस्था में रियायतों के साथ ऑस्ट्रेलिया में अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे, जो उन्हें चार साल तक रहने की अनुमति देगा, यदि वे पात्रता मानदंडों को पूरा करते हैं। इससे भारत के सांस्कृतिक प्रभाव में वृद्धि होगी और आस्ट्रेलिया के लोगों को योग का लाभ प्राप्त करने में मदद मिलेगी।दोनों देश क्रिकेट के प्रति अपने लगाव से भी एकता की भावना प्रदर्शित करते हैं और भारतीय खेलप्रेमी डॉन ब्रैडमैन, स्टीव वॉ, ब्रेट ली और शेन वार्न जैसे ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के दिग्गजों के प्रशंसक रहे हैं। प्रत्येक टीम चुनौतीपूर्ण क्रिकेट प्रतियोगिताओं में दूसरे को पराजित करने के लिए कड़ी मेहनत करती है, लेकिन व्यापार-क्षेत्र में कोई पक्ष हारने वाला नहीं है – यह दोनों ही देशों के लिए जीत की स्थिति है।

भविष्य के प्रति और अधिक उत्साह है। भारत; यूरोपीय संघ, कनाडा और यूके जैसे प्रमुख पश्चिमी व्यापारिक भागीदारों के साथ व्यापार समझौतों पर बातचीत कर रहा है। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए व्यापार समझौते भारत की अदम्य इच्छा और उद्योग जगत के विश्वास को प्रदर्शित करते हैं, जहां दोनों देश लाभ की स्थिति में होते हैं तथा अन्य व्यापार समझौतों के लिए एक ठोस आधार मिलता है।

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कांग्रेस नेतृत्व से हकीकत यहीं है कि पार्टी नहीं संभल रही है

अजीत द्विवेदी –  कांग्रेस नेतृत्व से कोई कुछ भी कहे हकीकत यहीं है कि पार्टी नहीं संभल रही है। हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व में पार्टी को संभालने का न तो जुनून दिख रहा है और न कोई ठोस संरचनात्मक योजना दिख रही है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि कांग्रेस अब भी मजबूत है और सिर्फ चुनाव हार जाने से वह खत्म नहीं हो जाएगी। सैद्धांतिक रूप से यह बात ठीक है लेकिन कांग्रेस के सामने संकट सिर्फ यह नहीं है कि वह चुनाव हार रही है, बल्कि असली संकट यह है कि उसकी जगह लेने के लिए विकल्प उभर रहा है। भारतीय जनता पार्टी के लिए सबसे अच्छी बात यह थी कि हिंदुत्व की राजनीति के स्पेस में वह अकेली पार्टी थी।

इसलिए लगातार हारते रहने के बावजूद हिंदुत्व की विचारधारा और उसके राजनीतिक स्पेस की वह अकेली प्रतिनिधि पार्टी के तौर पर बची रही। इसके उलट कांग्रेस के आइडिया और उसके स्पेस में राजनीति करने वाली पार्टियों की भरमार है। कांग्रेस से अलग हुई पार्टियां हों या समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियां हों या आम आदमी पार्टी हो सब कांग्रेस के आइडिया और उसके स्पेस में राजनीति कर रहे हैं। तभी कांग्रेस का संकट बहुत गहरा है।कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व इस संकट की गंभीरता को नहीं समझ रहा है या समझ रहा है तो उसके पास इस संकट से निपटने की कोई योजना नहीं है।

राजनीति एक जुनून है, जो सत्ता की अदम्य चाहना से निर्देशित होती है। सारी पार्टियां और नेता कहते हैं कि वे देश और जनता की सेवा के लिए राजनीति में आएं हैं लेकिन यह सिर्फ कहने की बात होती है। हर पार्टी और राजनेता को निर्देशित करने वाली केंद्रीय शक्ति सत्ता की भूख होती है। कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व में या कम से कम राहुल गांधी में उसकी कमी है। वे यह मान कर राजनीति नहीं करते हैं कि इसमें असफल हो गए तो दुनिया खत्म हो जाएगी! वे यह मान कर राजनीति करते हैं और चुनाव लड़ते हैं कि हार गए तो क्या हो जाएगा? क्योंकि कांग्रेस की लगातार हार से भी उनकी स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता है

इसलिए वे जुनून के साथ न राजनीति करते हैं और न चुनाव लड़ते हैं। उनकी राजनीतिक ईमानदारी, बेबाकी और साहस अपनी जगह हैं लेकिन सिर्फ बयानों से राजनीति नहीं होती है।हकीकत यह है कि राहुल गांधी हों या कांग्रेस का पूरा मौजूदा नेतृत्व हो उसमें ऊर्जा का अभाव है। उसमें स्पष्ट वैचारिक सोच का अभाव है। उसको समझ में नहीं आ रहा है कि उसकी वैचारिक व राजनीतिक विशिष्टता क्या है! उसके नेता हिंदुत्व की राजनीति की काट में कभी मंदिरों में दौड़ते हैं और भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को चोट पहुंचाने वाली बातों पर भी चुप रह जाते हैं तो कभी खैरात बांटने वाली राजनीति के जवाब में ज्यादा खैरात बांटने की घोषणा करते हैं।

कभी इसकी तरफ तालमेल का हाथ बढ़ाते हैं तो कभी उसकी तरफ। दीर्घावधि की योजना से कुछ भी निर्देशित होता नहीं दिख रहा है। सारे फैसले तात्कालिक राजनीतिक और चुनावी जरूरतों को ध्यान में रख कर किए जा रहे हैं।इसके बाद जब पार्टी के नेता सवाल उठाते हैं और पार्टी छोड़ते हैं तो उनको कायर, डरपोक, अहसानफरामोश कहा जाने लगता है। किसी को कायर कह देना बहुत आसान है। आप साहसी हैं इसका यह मतलब नहीं है कि आपसे सहमत नहीं होने वाला हर व्यक्ति कायर है। क्या कांग्रेस छोडऩे वाले सारे लोग सिर्फ ईडी, सीबीआई या आयकर विभाग के डर से पार्टी छोड़ कर गए हैं या कोई और गहरी समस्या है, जिसने दशकों तक पार्टी में रहे नेताओं को मजबूर किया कि वे पार्टी छोड़ें? सत्ता का लालच पार्टी छोडऩे का एक कारण हो सकता है और हो भी क्यों नहीं क्या सारी राजनीति सत्ता के लिए ही नहीं होती है? राहुल गांधी में सत्ता की भूख नहीं है

या सत्ता की अदम्य चाहना नहीं है लेकिन उनको यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि बाकी लोग भी सत्ता से निरपेक्ष होकर राजनीति करेंगे। आज कांग्रेस के जो नेता पार्टी छोडऩे वालों को कायर, अहसानफरामोश या सत्ता का लालची कह रहे हैं, जरा राहुल गांधी उनका पद वापस लेकर दिखाएं, फिर पता चलेगा कि असलियत क्या है? क्या आज कोई मंत्री, मुख्यमंत्री या पार्टी का पदाधिकारी स्वेच्छा से अपना पद छोड़ेगा? अगर उसे लालच नहीं है और वह साहसी है तो पद छोड़ कर लड़े! यकीन मानिए ऐसा हुआ तो लडऩे वालों की संख्या बहुत कम बचेगी!इसलिए कांग्रेस नेतृत्व को अपने स्वप्न लोक से निकलना होगा और व्यावहारिकता के कठोर धरातल पर खड़े होकर राजनीति करनी होगी।

उसे समझना होगा कि सिर्फ केंद्र सरकार की एजेंसियों के डर से लोग कांग्रेस नहीं छोड़ रहे हैं, बल्कि उनको यकीन हो गया है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व उन्हें सत्ता नहीं दिला सकता है। वे अपने भविष्य की चिंता में कांग्रेस छोड़ रहे हैं। उनको लग रहा है कि कांग्रेस नेतृत्व का करिश्मा खत्म हो गया है। उसमें कोई ऊर्जा, कोई वैचारिकता और सत्ता हासिल करने की अदम्य इच्छा से निर्देशित होने का जुनून नहीं बचा है। उनको लग रहा है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस पार्टी को रसातल से नहीं निकाल पाएंगे। उनको दिख रहा है कि कांग्रेस एक खड़ी ढलान से लुढ़कती हुई पार्टी है, जिसके बीच में रूकने और वापस सत्ता की चढ़ाई चढऩे का कोई मौका अभी नहीं है।कांग्रेस को सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि पार्टी और नेतृत्व दोनों कमजोर हो गए हैं।

सोचें, कांग्रेस पार्टी ढाई साल से अध्यक्ष नहीं चुन पाई है। लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल ने इस्तीफा दिया तब से पार्टी सोनिया गांधी के तदर्थ नेतृत्व में चल रही है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस चिंता में दुबला हुआ जा रहा है कि भाजपा की ओर से वंशवाद के आरोप लगाए जा रहे हैं तो कैसे खुल कर पार्टी का नेतृत्व परिवार के हाथ में ही रखा जाए। कांग्रेस को यह भ्रम तत्काल खत्म करना होगा। पहले भी कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र टाइप की कोई चीज नहीं थी और पहले भी कांग्रेस का नेतृत्व परिवार के हाथ में रहा तभी कांग्रेस एकजुट रही और बची रही। या तो आंतरिक लोकतंत्र और वंशवाद की चिंता छोड़ कर नेहरू-गांधी परिवार कमान अपने हाथ में रखे या तत्काल किसी ऐसे नेता को कमान सौंपे, जिसमें सत्ता के लिए लडऩे-भिडऩे का जुनून हो।

नेतृत्व के साथ ही विचारों में स्पष्टता लानी होगी और अपनी राजनीति को धारदार बनाना होगा। सिर्फ प्रतीकात्मक विरोध से कुछ नहीं होगा और न ट्विटर पर आंदोलन करने से कुछ होगा। नेता को सड़क पर उतरना होगा। गांवों में जाना होगा। ट्रेन से सफर करना होगा। पैदल चलना होगा। लोग नेता को अपने बीच पाकर खुश होते हैं, उसके साथ अपने को जोड़ते हैं। चंद्रशेखर की भारत यात्रा ने उनको देश का नेता बनाया था। राजीव गांधी भी ट्रेन देश घूमे थे। नरेंद्र मोदी ने कन्याकुमारी से कश्मीर और सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा की है। राहुल या प्रियंका को अगर कांग्रेस को रसातल से बाहर निकालना है तो उन्हें भी तत्काल देश की खाक छानने के लिए निकलना होगा।

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अफ्सपा को हटाकर केंद्र सरकार ने सराहनीय कदम उठाया है

04.04.2022 – वेद प्रताप वैदिक – अफ्सपा याने आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट’ को केंद्र सरकार ने असम, नगालैंड और मणिपुर के ज्यादातर क्षेत्रों से हटाकर सराहनीय कदम उठाया है 1958 में यह कानून नेहरु सरकार को इसलिए बनाना पड़ा था कि भारत के इन पूर्वी सीमा के प्रांतों में काफी अराजकता फैली हुई थी। कई बागी संगठनों ने इन प्रांतों को भारत से तोडऩे का बीड़ा उठा रखा था। उन्हें ईसाइयत के प्रचार के नाम पर पश्चिमी मुल्क भरपूर सहायता दे रहे थे और चीन समेत कुछ पड़ौसी देश भी उनकी सक्रिय मदद कर रहे थे।

इसीलिए इस कानून के तहत भारतीय फौज को असाधारण अधिकार प्रदान कर दिए गए थे। इन क्षेत्रों में नियुक्त फौजियों को अधिकार दिया गया था कि वे किसी भी व्यक्ति पर जऱा भी शक होने पर उसे गिरफ्तार कर सकते थे, उसकी जांच कर सकते थे और उसे कोई भी सजा दे सकते थे। उन्हें किसी वारंट या एफआईआर की जरुरत नहीं थी। इन फौजियों के खिलाफ न तो कोई रपट लिखवा सकते थे और न ही उन पर कोई मुकदमा चल सकता था। दूसरे शब्दों में इन क्षेत्रों की जनता मार्शल लॉ’ के तहत जीवन गुजार रही थी।

कई निर्दोष और निरपराध लोग भी इस कानून की चपेट में आते रहे हैं। लगभग इन सभी राज्यों की सरकारें इस कानून को हटाने की मांग करती रही हैं। इस कानून को हटाने की मांग को लेकर मणिपुर से इरोम शर्मिला नामक महिला ने 16 वर्ष तक लगातार अनशन किया। यह विश्व का सबसे लंबा और अहिंसक अनशन था। हालांकि यह कानून अभी हर क्षेत्र से पूरी तरह नहीं हटाया गया है, फिर भी 60 प्रतिशत क्षेत्र इससे मुक्त कर दिए गए हैं।

पिछले 7-8 सालों में उग्रवादी हिंसक घटनाओं में 74 प्रतिशत की कमी हुई है। सैनिकों की मौत में 60 प्रतिशत और नागरिकों की मौत में 84 प्रतिशत कमी हो गई है। पिछले साल 4 दिसंबर को नगालैंड के मोन जिले में फौज के अंधाधुंध गोलीबार से 14 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना ने उक्त कानून की वापसी की मांग को काफी तेज कर दिया था। सच्चाई तो यह है कि पूर्वी सीमांत के इन इलाकों में इस तरह का कानून और पुलिस का निरंकुश बर्ताव अंग्रेजों के जमाने से चल रहा था।केंद्र की विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर इस कानून में थोड़ी-बहुत ढील तो दी थी लेकिन अब केंद्र सरकार ने इसे पूरी तरह से हटाने का रास्ता खोल दिया है।

पिछले कुछ वर्षों में इन इलाकों के लगभग 70,000 उग्रवादियों ने आत्म-समर्पण किया है। लगभग सभी राज्यों में भाजपा या उसकी समर्थक सरकारें हैं याने केंद्र और राज्यों के समीकरण उत्तम है। 2020 का बोदो समझौता और 2021 का कर्बी-आंगलोंग पेक्ट भी शांति की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह खुद इन क्षेत्रों के नेताओं के बीच काफी सक्रिय हैं। यही प्रक्रिया चलती रही तो अगले कुछ ही वर्षों में ये सीमांत के क्षेत्र भी दिल्ली और मुंबई की तरह संपन्न हो सकेंगे।

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जल शक्ति अभियान ने प्रत्येक को जल संरक्षण से जोड़ दिया है

04.04.2022 – गजेंद्र सिंह शेखावत – जल शक्ति अभियान  ”कैच द रेन- 2022” का शुभारम्भ राष्ट्रपति द्वारा 29 मार्च, 2022 को किया गया था। यह तीसरा वर्ष है, जब देश वर्षा जल के संरक्षण और भूजल पुनर्भरण के लिए एक जन आंदोलन का मिशन मोड में आयोजन कर रहा है।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में और उनकी प्रेरणा से, जल शक्ति अभियान को पहली बार वर्ष 2019 में सभी को वर्षा के लिए तैयार करने’ के विजऩ के साथ शुरू किया गया था, ताकि हम वर्षाजल का अधिक से अधिक भण्डारण और उपयोग कर सकें तथा हमारे भूजल भंडार को फिर से भरा भी जा सके।

भूजल को कभी-कभी अदृश्य संसाधन कहा जाता है। हर कोई इसका इस्तेमाल करता है। यह ज्यादातर मामलों में नि:शुल्क है और उन लोगों को उपलब्ध है, जो इन स्रोतों तक पहुंच पाते हैं, या जिनके पास इसे प्राप्त करने के साधन मौजूद हैं। यह झीलों, आर्द्रभूमि और जंगल जैसे महत्वपूर्ण पारितंत्र को बनाए रखता है।भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और उपलब्ध वैश्विक संसाधनों के एक चौथाई से अधिक का उपयोग करता है। भूजल ने कई दशकों से देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

यह लाखों नलकूपों के माध्यम से हरित क्रांति की सफलता सुनिश्चित करने में प्रमुख संचालक सिद्ध हुआ है। यह सीमित संसाधन वर्तमान में 60 प्रतिशत से अधिक कृषि की सिंचाई, 85 प्रतिशत ग्रामीण पेयजल आपूर्ति और 50 प्रतिशत से अधिक शहरी जल आपूर्ति की ज़रूरतों को पूरा करता है।भूजल के बढ़ते उपयोग और पुनर्भरण से अधिक दोहन के परिणामस्वरूप इस मूल्यवान संसाधन के भण्डार में महत्वपूर्ण कमी आयी है। बड़े पैमाने पर आजीविका के नुकसान से लेकर प्रवासी लोगों के लिए सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता में कमी से जुड़े स्वास्थ्य मुद्दों तक, जल-संकट का गंभीर प्रभाव पड़ा है।

जलवायु परिवर्तन के कारण यह समस्या और गंभीर हो जाती है, क्योंकि यह वर्षा के पैटर्न को अनिश्चित बनाता है और भूजल पुनर्भरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। वर्तमान में, देश के लगभग एक तिहाई भू-जल संसाधन विभिन्न स्तरों के संकट झेल रहे हैं। छोटे एवं सीमांत किसान, महिलाएं और समाज के कमजोर वर्ग, भूजल की कमी और दूषित जल का सबसे ज्यादा नुकसान सहते हैं।इस समस्या के समाधान के लिए प्रधानमंत्री की प्रेरणा से भारत सरकार ने 2019 में जल शक्ति अभियान (जेएसए) की शुरुआत की।

प्रधानमंत्री ने स्वयं सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केंद्र शासित प्रदेशों तथा सभी पंचायतों के अग्रणी कर्मियों को पत्र लिखा एवं उनसे अपने-अपने क्षेत्रों में अभियान को नेतृत्व प्रदान करने का अनुरोध किया।यह मिशन मोड में एक समयबद्ध जल संरक्षण अभियान था, जिसे देश में जल-संकट झेल रहे 256 जिलों के 1,592 ब्लॉकों में जुलाई-नवंबर 2019 की अवधि के दौरान लागू किया गया था। ये ब्लॉक भूजल के सन्दर्भ में संकटग्रस्त या अत्यधिक उपयोग किये जाने की श्रेणी में आते हैं, जहां संचय होने की तुलना में भूजल को अधिक मात्रा में निकाला जा रहा था।जेएसए, भारत सरकार और राज्य सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों का एक परस्पर सहयोगी प्रयास था, जिसका संचालन जल शक्ति मंत्रालय के पेयजल और स्वच्छता विभाग द्वारा किया जा रहा था।

इस अभियान के दौरान, भारत सरकार के अधिकारियों, भूजल विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने पांच लक्षित कार्यों के त्वरित कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करते हुए जल संरक्षण और जल संसाधन प्रबंधन के लिए भारत के सबसे जल-संकटग्रस्त जिलों में राज्यों और जिला अधिकारियों के साथ मिलकर काम किया। जेएसए का उद्देश्य व्यापक प्रचार-प्रसार और समुदायों की भागीदारी के माध्यम से जल संरक्षण को जन-आंदोलन बनाना है।जेएसए ने पांच बिन्दुओं पर ध्यान केंद्रित किया- जल संरक्षण और वर्षा जल संचयन, पारंपरिक और अन्य जल निकायों का पुनरुद्धार, पानी का पुन: उपयोग और संरचनाओं का पुनर्भरण, वाटरशेड विकास और गहन वनीकरण। इसके अलावा, विशेष कार्यक्रमों में ब्लॉक जल संरक्षण योजनाओं और जिला जल संरक्षण योजनाओं का निर्माण, कृषि विज्ञान केंद्र मेलों का आयोजन, शहरी अपशिष्ट जल का पुन: उपयोग और सभी गांवों के लिए 3 डी रूपरेखा मानचित्रण आदि शामिल हैं।

राज्यों ने कई स्रोतों से संसाधनों का इस्तेमाल किया। यह निर्धारित किया गया था कि मनरेगा निधि का कम से कम 60 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन गतिविधियों, मुख्य रूप से जल संरक्षण पर खर्च किया जाना चाहिए। पंद्रहवें वित्त आयोग अनुदान, कैम्पा निधि, सीएसआर संसाधनों का उपयोग इन कार्यक्रमों को निधि देने के लिए किया गया था।2019 में सभी हितधारकों के संयुक्त प्रयासों से 2.73 लाख जल संरक्षण और वर्षा जल संचयन संरचनाओं का निर्माण हुआ, 45,000 जल निकायों/टैंकों का पुनरुद्धार किया गया, 1.43 लाख पुन: उपयोग और पुनर्भरण संरचनाओं का निर्माण हुआ, 1.59 लाख वाटरशेड विकास संबंधी कार्य पूरे किये गए, 12.36 करोड़ पौधे लगाये गए और 1372 ब्लॉक जल संरक्षण योजनाओं की तैयारी की गयी।

इन आंकड़ों से अलग, अभियान ने जल पुनर्भरण और प्रबंधन के लिए काम कर रहे सभी हितधारकों को एक साथ लाने के लिए एक प्रभावशाली वातावरण तैयार किया। कई राज्यों ने मूल रूप से निर्धारित कार्य की तुलना में अधिक कार्य किये। कुछ राज्यों ने अपने सभी जिलों में इस अभियान का विस्तार किया, जबकि प्रारंभ में पानी की कमी वाले जिलों के लिए ही योजना की शुरुआत की गयी थी।वर्ष 2020 में देश ने कोविड महामारी से मुकाबले की शुरुआत की थी। इसलिए, उस वर्ष पूरे तौर पर जन-आंदोलन को लागू करना संभव नहीं था। इसलिए, जल शक्ति मंत्रालय ने वर्षा जल संचयन में वृद्धि के लिए शैक्षणिक संस्थानों, रक्षा प्रतिष्ठानों जैसे बड़े भूखण्डों पर काम किया।

2019 में प्राप्त प्रतिक्रिया से प्रोत्साहित होकर, वर्ष 2021 में जेएसए-2019 के दायरे का विस्तार किया गया और जल शक्ति अभियान: कैच द रेन (जेएसए: सीटीआर) को देश के सभी जिलों (ग्रामीण और शहरी) में शुरू किया गया। जेएसए: सीटीआर को 22 मार्च, 2021 से 30 नवंबर 2021 के दौरान कैच द रेन, व्हेयर फॉल्स, व्हेन फॉल्स थीम के साथ लागू किया गया था।22 मार्च, 2021 से 30 नवंबर, 2021 तक जेएसए: सीटीआर अभियान के दौरान लगभग 42 लाख जल से संबंधित कार्य किए गए और 36 करोड़ पौधे लगाए गए। इसमें 14.76 लाख जल संरक्षण और आरडब्ल्यूएच संरचनाओं का निर्माण/रख-रखाव, 2.78 लाख पारंपरिक जल निकायों का पुनरुद्धार, 7.34 लाख पुन: उपयोग और पुनर्भरण संरचनाओं का निर्माण/रख-रखाव और 17.02 लाख वाटरशेड विकास संबंधी कार्य शामिल हैं।

इन कार्यों पर अकेले मनरेगा के तहत 65,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुए।देश में जीवन और आजीविका के लिए पानी के महत्व को देखते हुए, जल संरक्षण कार्य को विस्तार देने के लिए वर्षा की तैयारी’ को वार्षिक कार्य का दर्जा दिया जाना चाहिए। इसलिए इस वर्ष भी जल शक्ति अभियान : कैच द रेन का आयोजन पूरे देश में किया जा रहा है। अभियान 22 मार्च, 2022 से 30 नवंबर, 2022 तक लागू किया जाएगा, जिसमें मानसून-पूर्व और मानसून अवधि को कवर किया जायेगा।पिछले वर्ष की तरह, जल संरक्षण और पुनर्भरण गतिविधियों में निम्न को शामिल किया जायेगा – सरकारी भवनों की प्राथमिकता के साथ सभी भवनों पर छत के ऊपर आरडब्ल्यूएचएस, सभी परिसरों में जल संचयन गड्ढे, पुराने/नए चेक बांधों/तालाबों का रख-रखाव/ निर्माण; तालाबों/झीलों से अतिक्रमणों को हटाना, तालाबों की भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए गाद निकालना, जल-प्रवाह के अवरोधों को हटाना, पारंपरिक बावडिय़ों और अन्य आरडब्ल्यूएचएस की मरम्मत करना, जलभृतों के पुनर्भरण के लिए निष्क्रिय बोरवेल/अप्रयुक्त कुओं का उपयोग करना, छोटी नदियों/नालों का कायाकल्प, आर्द्रभूमि का पुनरुद्धार और बाढ़-बांधों की सुरक्षा आदि।पर्वतीय राज्यों से प्राप्त फीडबैक के आधार पर इस वर्ष झरनों की पहचान, मानचित्रण और प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

प्रत्येक जिले से पुराने राजस्व रिकॉर्ड तथा एनआरएसए और जीआईएस मैपिंग तकनीक से प्राप्त रिमोट सेंसिंग चित्रों का उपयोग करके सभी मौजूदा जल-निकायों/जल संचयन संरचनाओं (डब्ल्यूएचएस) की सूची बनाने और भविष्य में डब्ल्यूएचएस की वैज्ञानिक योजना तैयार करने के लिए डेटा का उपयोग करने का अनुरोध किया गया है। राष्ट्रीय जल मिशन ने जीआईएस आधारित जल संरक्षण योजना तैयार करने और जिलों के जल निकायों की सूची तैयार करने के सन्दर्भ में दिशा-निर्देश तैयार किये हैं और क्रियान्वयन के लिए इन्हें सभी जिलों को भेजा गया है। कई जिलों ने इन योजनाओं को तैयार किया है और उन्हें लागू कर रहे हैं।

इस कार्य को इस वर्ष ही पूरा करने के लिए सभी जिलों को प्रोत्साहित किया जाएगा। जेएसए: सीटीआर अभियान 2021 के एक हिस्से के रूप में, राज्य सरकारों से सभी जिला मुख्यालयों में जल शक्ति केंद्र (जेएसके) स्थापित करने का अनुरोध किया गया था। ये जेएसके; जल, जल संरक्षण की तकनीकों और जल की बचत से संबंधित जानकारी के प्रचार-प्रसार के लिए ज्ञान केंद्र के रूप में कार्य करते हैं। जेएसके की स्थापना का उद्देश्य स्थानीय लोगों के साथ-साथ जिला प्रशासन को तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान करना था। अब तक पूरे देश में 336 जेएसके स्थापित किए जा चुके हैं। चालू वर्ष में अभियान के कार्यान्वयन के दौरान, देश के प्रत्येक जिले में जेएसके की स्थापना से संबंधित कार्यों में तेजी लाकर उन्हें पूरा किया जायेगा।

जल प्रबंधन के क्षेत्र में कार्यरत नागरिक समाज संगठन, जो केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के जिला प्रशासन और स्थानीय समुदायों के साथ काम कर रहे हैं, इस अभियान का हिस्सा हैं।लोग और समुदाय हमारे सभी कार्यक्रमों के केंद्र में हैं। चाहे वह हमारी नदियों का फिर से जीर्णोद्धार का प्रयास हो, जल पुनर्भरण और जल उपयोग दक्षता में सुधार हो, भूजल का सतत उपयोग करना हो, खुले में शौच से मुक्ति का लक्ष्य हासिल करना हो- जल सुरक्षा के लिए लोगों को शामिल करना, स्थायी परिवर्तन का आधार होता है।

यह जल शक्ति अभियान के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस अभियान को सफल बनाने के लिए सभी व्यक्ति, समूह, निवासी कल्याण संगठन, स्वयं सहायता समूह, कॉर्पोरेट, मीडिया हाउस, शैक्षणिक संस्थान सभी साथ मिलकर कार्य करें।हम पर वर्तमान पीढ़ी के लिए जल-सुरक्षा और आने वाली पीढिय़ों के लिए जल सुरक्षित भारत का उत्तरदायित्व है। जय हिन्द।

(लेखक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, जल शक्ति मंत्रालय हैं)

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शौचालयों से ही समृद्धि संभव

एक्शन मोड में क्यों दिखने लगे- शिवराज, कमल और कैलाश

अरुण पटेल – एक्शन मोड में इन दिनों पूरी तरह से हैं  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान  और सतपुड़ा सुंदरी पचमढ़ी की सुरम्य वादियों में दो दिन अपने मंत्रि-मंडलीय सहयोगियों के साथ चिंतन कर 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए एक ऐसा मंत्र तलाशेंगे जिसके सहारे प्रदेश फिर से भाजपा के अजेय गढ़ में तब्दील हो जाए जो कि 2018 में मामूली अन्तर से ढह गया था। पचमढ़ी में चिंतन-मनन के बाद निश्चित तौर पर शिवराज कुछ और नवाचार करेंगे तथा इस बार उनका सारा ध्यान इस बात पर रहेगा कि हरिजनों, आदिवासियों, महिलाओं व समाज के कमजोर वर्गों सहित जिस भी वर्ग के लिए योजनायें बनाई जा रही हैं

उनका क्रियान्वयन धरातल पर हो और इसमें किसी भी तरह की कोताही वे सहन करने वाले नहीं है। मंथन के बाद शिवराज एक ऐसे रुप में नजर आयेंगे जो माफियाओं, अपराधियों, निहित स्वार्थी तत्वों पर कहर बनकर टूटेंगे और इसमें आड़े आने वाली नौकरशाही को भी सहन नहीं करेंगे। अपने कार्यकाल के दो साल पूरे होने पर अपने नागरिक अभिनंदन के अवसर पर उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा कि राज्य शासन के ऊपर कोई दबंग नहीं जा सकता और उसे कुचल देंगे।

अपनी तथा कमलनाथ की कांग्रेस सरकार का अन्तर स्पष्ट करते हुए शिवराज का कहना है कि हमारी सरकार मिशन की सरकार है और कमलनाथ की सरकार कमीशन की सरकार थी। दिग्विजय सिंह के कार्यकाल की चर्चा करते हुए बिना नाम लिए उन्होंने कहा कि एक जमाना था जब सड़क में गड्ढा था या गड्ढ़े में सड़क समझ में ही नहीं आता था, बिजली आती ही नहीं थी यह आम बाती थी, आज दो घंटे के लिए बिजली चली जाए तो वह बड़ी खबर बन जाती है।

कमलनाथ दादा तो पैसे छोड़कर ही नहीं गये थे लेकिन चाह होती है वहां राह निकालनी पड़ती है और हमने गरीबों को सुविधा देने में पैसों की कमी नहीं आने दी।

शिवराज चाहते हैं कि हितग्राहियों का एक ऐसा वर्ग बने जो यह महसूस करे कि सरकार उनके लिए काफी कुछ कर रही है और क्रियान्वयन इस ढंग से हो कि लोगों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली जो योजनायें है उससे न केवल वे लाभान्वित हों बल्कि भाजपा के लिए एक मजबूत वोट बैंक भी तैयार हो। राज्य में कांग्रेस एवं भाजपा के बीच मत प्रतिशत का बहुत बारीक-सा अन्तर है और इसी अन्तर को बढ़ाकर भाजपा का मत प्रतिशत किस प्रकार 51 प्रतिशत किया जाए वही इस चिंतन का केंद्रीय बिन्दु होगा।

भांजे-भांजियों के मामा के रुप में सामाजिक रिश्ते जोडऩे वाले शिवराज की छवि अब एक सख्त प्रषासक के रुप में उभर रही है तथा मामा से लेकर अब उनकी छवि बुलडोजर मामा की गढ़ी जा रही है, जिसकी शुरुआत राजधानी भोपाल के भाजपा विधायक रामेश्वर शर्मा ने प्रारंभ कर दी है। शिवराज सिंह चौहान के पुन: मध्यप्रदेश की कमान संभालने के बाद दो साल पूरे हो गये हैं और इसके साथ ही उनके पुराने कार्यकाल को मिलाकर वह भाजपा के सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड बना चुके हैं।

दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के साथ ही कोरोना महामारी की चपेट में देश के साथ ही प्रदेश भी आ गया था और यह समय उनके नेतृत्व के लिए परीक्षा की घड़ी था जिसका उन्होंने सफलतापूर्वक सामना किया और ऐसे कोई हालात पैदा नहीं हुए जैसी दुश्वारियां अन्य राज्यों में देखी गयीं। न तो आक्सीजन की कमी हुई और न ही मरीजों में किसी प्रकार की अफरा-तफरी थी। दवाइयां और इंजेक्शन का भी समय रहते प्रबंध किया गया। लेकिन इस अवधि में भी उन्होंने विकास की गति अवरुद्ध नहीं होने दी।

शिवराज सरकार ने पिछले दो वर्षों में 1 लाख 72 हजार करोड़ रुपये से अधिक की सहायता किसानों को दी तथा प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण एवं शहरी के तहत 10 लाख से अधिक आवास बनाये गये। केन-बेतवा लिंक परियोजना जिससे 8 लाख 11 हजार हेक्टेयर में सिंचाई होगी और अटल प्रगति पथ 313 किलोमीटर की योजनायें स्वीकृत हुईं। ग्रामीण आजीविका मिशन के द्वारा महिला स्व-सहायता समूहों के लगभग 9 लाख सदस्यों को आर्थिक गतिविधियों के लिए 2 हजार करोड़ रुपये के ऋण वितरित किये गये।

इसी अवधि में 8 हजार 276 करोड़ रुपये की लागत से 5 हजार 322 किमी लम्बी सड़कों का निर्माण भी हुआ। अपने इस दो साल के कार्यकाल में शिवराज काफी बदले-बदले नजर आ रहे हैं और उन्होंने अपनी छवि एक सख्त प्रशासक की गढ़ ली है और अब जहां एक और नौकरशाही को भी नियंत्रित कर रहे हैं तो वहीं माफियाओं के खिलाफ जीरो टालरेंस की नीति अपना रखी है और उन्हें नेस्तनाबूद करने की दिशा में कदम उठाते हुए 21 हजार एकड़ से अधिक शासकीय भूमि अवैध कब्जे से मुक्त कराई गई है।

कमलनाथ की नजर में शिवराज के दो साल

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ की नजर में शिवराज सरकार के दो वर्षों में प्रदेश विकास की दृष्टि से आगे बढऩे की बजाय हर दृष्टि से पीछे ही गया है। कमलनाथ का आरोप है कि इस अवधि में किसी वर्ग का भला नहीं हुआ बल्कि हर वर्ग परेशान ही हुआ है। इन दो वर्षों में सिर्फ इवेन्ट आयोजनों के नाम पर जनता को गुमराह करने का काम जमकर हुआ है। उनका आरोप है कि उनकी सरकार के जाते और शिवराज सरकार के आते हमने प्रदेश में कोरोना काल में सरकार का कुप्रबंधन देखा है कि किस प्रकार हजारों लोगों की इलाज, बेड, अस्पताल, आक्सीजन, जीवन रक्षक दवाइयों के अभाव में मौतें हुई हैं। कोरोना के संकटकाल में भी सरकार लोगों को बचाने की बजाय सत्याग्रह पर बैठने, रथ पर सवार होकर घूमने, गोले बनाने जैसे इवेन्ट करती नजर आई है। सबसे ज्यादा परेशान किसान हुआ है और उसे अभी तक अतिवृष्टि व ओलावृष्टि से खराब हुई फसलों का मुआवजा नहीं मिल सका है, और यदि कुछ मिला है तो तो फिर केवल कोरे आश्वासन और भाषण। और यह भी

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि मध्यप्रदेश में अगला विधानसभा चुनाव शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ही लड़ा जायेगा। पार्टी ने अभी कोई निर्णय नहीं किया है अभी तो उन्हीं का चेहरा है और वे अच्छा काम कर रहे हैं। यूपी में बुलडोजर बाबा के रूप में योगी आदित्यनाथ की ख्याति के बाद शिवराज को बुलडोजर मामा प्रोजेक्ट किए जाने के सवाल पर विजयवर्गीय ने कहा कि मध्यप्रदेश में काफी पहले से बुलडोजर चल रहा है।

उनका कहना था कि शिवराज ने लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड कायम किया है और आज भी वे लोकप्रिय हैं। बच्चों के बीच मामा के नाम से जाने जाते हैं। उमा भारती और बाबूलाल गौर ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रदेश के विकास की नींव रखी थी उसके बाद शिवराज के नेतृत्व में एक बड़ी विकास की इमारत प्रदेश में बनाई गई है। चुनावी राजनीति में वापसी के सवाल पर कैलाश ने दोटूक शब्दों में कहा कि इस मामले में हमारा नेतृत्व फैसला करता है, संगठन का काम करने को कहा गया है वह मैं कर रहा हूं।

मैं स्वयं अपने बारे में निर्णय नहीं लेता। राजनीति में जितना आगे बढ़ जाओ उतना ग्लैमर बढ़ता जाता है लेकिन जनप्रतिनिधि के रुप में उनका सबसे अच्छा कार्यकाल तो पार्षद का था क्योंकि वह कार्यकाल आत्मीयता से भरा था। विजयवर्गीय लम्बे समय बाद भोपाल में पत्रकारों से पिट्टू टूर्नामेंट के आयोजन की जानकारी देने रुबरु हुए थे लेकिन उनसे ज्यादातर सवाल राजनीति पर हुए। उनका कहना था कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद विपक्ष पूरी तरह धराशाई हो गया है

इसलिए इस राजनीतिक माहौल में अभी सेकेंड या थर्ड फ्रंट बनेगा, इस बारे में कहना जल्दबाजी होगी। 2024 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी बड़ी चुनौती नहीं है। छोटा-छोटा कर कम करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि 130 करोड की जनसंख्या वाले देश में प्रभाव जमाने के लिए एक बड़े चिंतन की जरुरत है और आम आदमी पार्टी में इसका अभाव नजर आ रहा है।

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सहकारिता के रास्ते ग्रामीण भारत में विकास को बढ़ावा

हेमा यादव – 26.03.2022 – सहकारिता वर्ष 1904 में भारत में पहला कानून लागू होने के बाद से भारतीय सहकारी संगठन अब तेज गति के बदलाव के लिए तैयार हैं। सहकारिता के क्षेत्र में नए प्रतिमानों और सहकारी संगठनों के लिए बजटीय आवंटन के साथ अलग से एक सहकारिता मंत्रालय की मौजूदगी के रूप में इसके बदलते स्वरूप के साथ विकास के लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्र के रूप में भारत के सहकारिता आंदोलन में एक नए सिरे से रुचि बढ़ी है।

अलग-अलग समय पर, विशेष रूप से नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) तक, बदलाव के साधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले सहकारी मॉडल ने भारत की विकास योजना की सफलता में अहम योगदान दिया है। गरीबी उन्मूलन, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा, सामाजिक एकीकरण और रोजगार सृजन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के क्रम में इसके अंतर्निहित लाभ हुए हैं।

सहकारी क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में से एक है, जिसकी ऋण और गैर- ऋण समितियों के विशाल नेटवर्क के माध्यम से ग्रामीण भारत में व्यापक पहुंच है। भारत की कुल 8.5 लाख सहकारी इकाइयों में से, लगभग 20 प्रतिशत (1.77 लाख इकाइयां) ऋण संबंधी सहकारी समितियां हैं

शेष 80 प्रतिशत गैर-ऋण सहकारी समितियां हैं, जोकि लगभग नब्बे प्रतिशत गांवों को कवर करती हुई मत्स्य, डेयरी, उत्पादक, प्रसंस्करण, उपभोक्ता, औद्योगिक, विपणन, पर्यटन, अस्पताल, आवास, परिवहन, श्रम, खेती, सेवा, पशुधन, बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियां आदि जैसी विविध गतिविधियों में शामिल हैं। सदस्यता के संदर्भ में अगर बात करें, तो लगभग दो सौ नब्बे मिलियन किसान सहकारी समितियों में नामांकित हैं।

इनमें से 72 प्रतिशत किसान ऋण संबंधी सहकारी समितियों और 28 प्रतिशत किसान गैर- ऋण संबंधी सहकारी समितियों से जुड़े हैं (एनसीयूआई, 2018)।प्राथमिक कृषि सहकारी ऋण समितियां (पैक्स) देश की अल्पकालिक सहकारी ऋण संरचना (एसटीसीसीएस) से संबंधित निर्माण खंड हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, 31 मार्च 2018 तक कुल 6,39,342 गांवों को कवर करते हुए 13.2 करोड़ सदस्यों के साथ देश में कुल 95,238 पैक्स उपलब्ध थे।

ये समितियां गांवों में किसानों और निम्न-आय वर्ग के लोगों की वित्तीय सहायता करके उनके वित्तीय सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।एक अच्छे नेटवर्क और पैक्स जैसे संस्थानों की जरूरत होने के बावजूद, पैक्स के माध्यम से धीमी गति से सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (आईसीए) का कहना है कि सहकारी समितियां स्वयं सहायता, आत्म-जिम्मेदारी, लोकतंत्र, समानता, हिस्सेदारी और एकजुटता के मूल्यों पर आधारित होती हैं।

अपने संस्थापकों की परंपरा में, सहकारी समितियों के सदस्य ईमानदारी, खुलेपन, सामाजिक जिम्मेदारी और दूसरों की देखभाल जैसे नैतिक मूल्यों में विश्वास करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सहकारिता के मूल सिद्धांत से समझौता किए जाने की वजह से वित्तीय और गैर-वित्तीय सेवाओं के वितरण में गिरावट आई है।

ऋण चुकता करने के क्रम में अपर्याप्त धन संबंधी चूक, पेशेवर मानव संसाधनों की कमी और तकनीक के धीमे समावेश के परिणामस्वरूप प्रबंधन संबंधी सूचना की खराब प्रणाली, पारदर्शिता, आंतरिक नियंत्रण प्रणाली में शिथिलता, कदाचार की समस्याएं पैदा हुई है जिसके कारण विकास की प्रक्रिया में रुकावट आई है।

एक बहुउद्देशीय समिति के रूप में पैक्समेहता समिति (1937) ने बढ़ते संकट और असंतोष को दूर करने के लिए सहकारी ऋण समितियों को बहुउद्देश्यीयÓ सहकारी समितियों के रूप में पुनर्गठित करने की सिफारिश की थी। इसके अलावा, आजादी से पहले के काल में, सर मणिलाल नानावटी की अध्यक्षता वाली कृषि ऋण संगठन समिति ने सहकारी समितियों को एक व्यावहारिक व्यावसायिक इकाई बनाने के लिए कृषि वित्त में राजकीय सहायता और सभी सहकारी ऋण समितियों को बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियों में बदलने पर जोर दिया था

इस संबंध में सिफारिश की थी।सहकारिता मंत्रालय ने पैक्स को सिर्फ एक ऋण समिति के बजाय एक ऐसी बहु-धंधी समिति के रूप में प्राथमिकता दी है जोकि ऋण एवं विभिन्न सेवाओं के लिए एकल खिड़की के रूप में कार्य कर सके। पुनरुद्धार की यह प्रक्रिया पैक्स को सेवा संगठनों के रूप में एक नई दिशा देने और कृषि विपणन, बागवानी, खाद्य तेल, उत्तर पूर्व क्षेत्र के लिए जैविक मूल्य श्रृंखला विकास, प्राकृतिक खेती आदि से संबंधित कृषि बजट 2022-23 की विभिन्न योजनाओं के साथ एकीकृत करने का भी आह्वान करती है।

खरीद, भंडारण एवं वेयरहाउसिंग, प्रसंस्करण, ग्रामीण एवं कृषि संबंधी लॉजिस्टिक्स के प्रबंधन, बाजार संबंधी परामर्श एवं खुफिया जानकारी आदि जैसी गतिविधियों पर अमल कर पैक्स को बहुउद्देशीय समितियों के रूप में मजबूत किया जाएगा। हालांकि वर्तमान की बाजार एवं प्रौद्योगिकी संचालित अर्थव्यवस्था में सहकारी समितियों के प्रमुख सिद्धांतों के रूप में सदस्यों की आर्थिक भागीदारी और सहकारी समितियों के बीच परस्पर सहयोग की केंद्रीयता बनाए रखने की जरूरत है।

पैक्स का डिजिटलीकरणपैक्स का डिजिटलीकरण प्रौद्योगिकी को अपनाने और व्यावसायिक दृष्टि से व्यवहारिक बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक कदम है। केन्द्रीय बजट 2022-23 में प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों के डिजिटलीकरण के लिए 350 करोड़ रुपये की राशि निर्धारित की गई है। सहकारिता मंत्रालय द्वारा 63000 पैक्स को कम्प्यूटरीकृत करने की योजना तैयार की गई है।

पैक्स का डिजिटलीकरण कृषि संबंधी कई पहलों के कार्यान्वयन में सहायता करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि किसानों को डिजिटल समावेशिता के माध्यम से पारदर्शी तरीके से ऋण, उर्वरक और बीज प्राप्त हों। पैक्स में प्रौद्योगिकी और नवाचार के माध्यम से गुणवत्ता नियंत्रण किया जाना भी बेहद जरूरी है।

सहकारिता के इस डिजिटल ब्रह्मांड में अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी और स्थायी रूप से प्रदर्शन करने के लिए पैक्स द्वारा अपनी कार्यप्रणाली में विविधता लाना, नवाचार करना, ज्ञान साझा करने में सहयोग करना और उभरती हुई तकनीक का उपयोग किया जाना बेहद जरूरी है। बिग डेटा, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और ब्लॉकचेन तकनीक जैसे उद्योग 4.0 के विभिन्न पहलू वितरण संबंधी आपूर्ति श्रृंखला में दक्षता और विश्वास का समावेश करते हैं।

मसालों, मत्स्यपालन, काजू और केसर, जोकि सहकारी समितियों के सदस्यों की अच्छी भागीदारी के साथ उच्च मूल्य वाले और निर्यात-उन्मुखी उत्पाद हैं, की आपूर्ति श्रृंखला में ब्लॉकचेन तकनीक का समावेश करने का यह सही समय है। पैक्स के सदस्यों के निरंतर प्रशिक्षण और कौशल विकास के माध्यम से डिजिटल साक्षरता को बढ़ाना समय की मांग है।

पैक्स के डिजिटलीकरण के क्रम में विभिन्न संस्थानों द्वारा केएपी (ज्ञान, दृष्टिकोण व्यवहार) को अपनाए जाने की जरूरत है जोकि प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ-साथ अपेक्षित परिणाम की दिशा में एक व्यवस्थित दृष्टिकोण का समावेश करेगा।सहकारी समितियों को किया गया बजट आवंटन विकास और समृद्धि के संचालक के रूप में सहकारी समितियों की ओर ध्यान केन्द्रित किए जाने को दर्शाता है।

नवाचारों, उद्यमशीलता और प्रशिक्षण का लाभ उठाते हुए, यह बजटीय आवंटन इस तथ्य को रेखांकित करता है कि कैसे पिरामिड के सबसे निचले हिस्से से विकास को ऊपर की ओर ले जाया जाए और शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, कपड़ा, छोटे एवं मध्यम उद्यमों, ऊर्जा, पर्यावरण जैसे क्षेत्रों के साथ निरंतर जुड़ाव और एकीकरण को आगे बढ़ाया जाए। लेखक निदेशक, वैमनिकोम हैं

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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत की तारीफ की

वेद प्रताप वैदिक –
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारतीय विदेश नीति की खुले-आम तारीफ करके अपना फायदा किया है या नुकसान, कुछ कहा नहीं जा सकता। इस वक्त पाकिस्तान की फौज और उनके गठबंधन के कुछ सांसद उनसे इतने नाराज़ हैं कि उनकी सरकार अधर में लटकी हुई है। यदि इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के सम्मेलन में 50 देश भाग लेने के लिए इस्लामाबाद नहीं पहुंच रहे होते तो इमरान सरकार शायद अब तक गुड़क जाती। लगभग उनके दो दर्जन सांसदों ने बगावत का झंडा खड़ा कर दिया है। पाकिस्तानी संसद में वे सिर्फ 9 सांसदों के बहुमत से अपनी सरकार चला रहे हैं।
पाकिस्तान के पत्रकारों ने मुझे बताया कि इमरान के बागी सांसद तभी पार्टी का साथ देंगे जबकि इमरान की जगह उनके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी या परवेज खट्टक को प्रधानमंत्री बना दिया जाए। इनके नामों पर फौज सहमत हो सकती है। फौज के घावों पर इमरान ने यह कहकर नमक छिड़क दिया है कि पाकिस्तानी विदेश नीति हमेशा किसी न किसी महाशक्ति की गुलामी करती रही है जबकि भारत हमेशा आजाद विदेश नीति चलाता रहा है। भारत ने यूक्रेन के मामले में भी अमेरिका और नाटो देशों का समर्थन नहीं किया है।
अमेरिका के साथ भारत के सामरिक रिश्ते घनिष्ट हैं लेकिन वह रूस से तेल आयात कर रहा है। जो यूरोपीय देशों के राजदूत पत्र लिखकर पाकिस्तान को उपदेश दे रहे हैं कि वह रूस की निंदा करे, वे ये ही सलाह भारत को देने की हिम्मत क्यों नहीं करते? पाकिस्तान को उन्होंने क्या गरीब की जोरु समझ रखा है? उन्होंने कहा है कि मैं पाकिस्तान का सिर ऊँचा रखूंगा। न किसी के आगे कभी झुका हूं, न पाकिस्तान को झुकने दूंगा।
इमरान ने यह भी याद दिलाया कि अगस्त में जब अमेरिकी अफगानिस्तान खाली कर रहे थे तो उन्होंने पाकिस्तान से एक सैन्य अड्डे की सुविधा मांगी थी तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया था। प्रधानमंत्री इमरान से जब—जब मेरी भेंट हुई है, भारत के प्रति उनका रवैया अन्य पाकिस्तानी नेताओं से मुझे भिन्न मालूम पड़ा है। प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने भारत के बारे में जो बयान दिए थे, उसमें भी वह प्रकट हुआ था। लेकिन पाकिस्तान की फौज और नेतागण हमेशा भारत से इतने डरे रहते हैं कि वे कभी अमेरिका या कभी चीन की गोद में बैठकर ही अपने आप को सुरक्षित समझते हैं।
प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान खान भी अभी तक इसी नीति पर चलते रहे हैं। दो-चार साल तक प्रधानमंत्री बने रहने पर हर पाकिस्तानी नेता फौज के वर्चस्व से मुक्त होना चाहता है लेकिन हमने बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ का हश्र देखा है। क्या मालूम, इमरान खान भी उसी तरह उछालकर फेंक दिए जाएं। उन्हें तख्ता-पलट के द्वारा नहीं, वोट-पलट के द्वारा उलट दिया जा सकता है।

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बेटों का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं : बॉम्बे हाईकोर्ट

विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था

शौचालयों से ही समृद्धि संभव

जापान के नए प्रधानमंत्री ने विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना

वेद प्रताप वैदिक – जापान के नए प्रधानमंत्री फ्यूमियों किशिदा ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना, यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। भारत और जापान के बीच कुछ दिन पहले चौगुटे (क्वाड) की बैठक में ही संवाद हो चुका था लेकिन इस द्विपक्षीय भेंट का महत्व इसलिए भी था कि यूक्रेन-रूस युद्ध अभी तक चला हुआ है। दुनिया यह देख रही थी कि जो जापान दिल खोलकर भारत में पैसा बहा रहा है, कहीं वह यूक्रेन के सवाल पर भारत को फिसलाने की कोशिश तो नहीं करेगा. लेकिन भारत सरकार को हमें दाद देनी होगी कि मोदी-किशिदा वार्ता और संयुक्त बयान में वह अपनी टेक पर अड़ी रही और अपनी तटस्थता की नीति पर टस से मस नहीं हुई।यह ठीक है कि जापानी प्रधानमंत्री ने अगले पांच साल में भारत में 42 बिलियन डॉलर की पूंजी लगाने की घोषणा की और छह मुद्दों पर समझौते भी किए लेकिन वे भारत को रूस के विरुद्ध बोलने के लिए मजबूर नहीं कर सके। भारत ने राष्ट्रों की सुरक्षा और संप्रभुता को बनाए रखने पर जोर जरुर दिया और यूक्रेन में युद्धबंदी की मांग भी की लेकिन उसने अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए जबानी जमा-खर्च नहीं किया। अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने पहले तो यूक्रेन को पानी पर चढ़ा दिया।उसे नाटो में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया और रूस ने जब हमला किया तो सब दुम दबाकर बैठ गए। यूक्रेन को मिट्टी में मिलाया जा रहा है लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों की हिम्मत नहीं कि वे रूस पर कोई लगाम कस सकें। किशिदा ने मोदी के साथ बातचीत में और बाद में पत्रकारों से बात करते हुए रूस की काफी भर्त्सना की. लेकिन मोदी ने कोरोना महामारी की वापसी की आशंकाओं और विश्व राजनीति में आ रहे बुनियादी परिवर्तनों की तरफ ज्यादा जोर दिया। जापानी प्रधानमंत्री ने चीन की विस्तारवादी नीति की आलोचना भी की।उन्होंने दक्षिण चीनी समुद्र का मुद्दा तो उठाया लेकिन उन्होंने गलवान घाटी की भारत-चीन मुठभेड़ का जिक्र तक नहीं किया। भारत सरकार अपने राष्ट्रहितों की परवाह करे.या दुनिया भर के मुद्दों पर फिजूल की चौधराहट करती फिरे ? चीनी विदेश मंत्री वांग यी भी भारत आ रहे हैं।

चीन और भारत, दोनों की नीतियां यूक्रेन के बारे में लगभग एक-जैसी हैं।भारत कोई अतिवादी रवैया अपनाकर अपना नुकसान क्यों करें? भारत-जापान द्विपक्षीय सहयोग के मामले में दोनों पक्षों का रवैया रचनात्मक रहा।

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विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था

अजीत द्विवेदी, 20.03.2022 – अब अचानक सारी चीजें थम गई हैं। विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था, जिसका खेला अब खत्म हो गया है। पांच में से चार राज्यों में भाजपा को मिली जीत के बाद विपक्ष की उम्मीदें खत्म हैं।

विपक्षी नेताओं की ओर से की जा रही पहल का निष्कर्ष यह था कि अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव हारती तो विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतारा जाता।

पांच राज्यों में हुए हाल के विधानसभा चुनावों के दौरान विपक्षी पार्टियां गजब राजनीति करती दिख रही थीं। जो पार्टियां इन पांच राज्यों में चुनाव लड़ रही थीं उनको छोड़ कर बाकी प्रादेशिक पार्टियों के नेता जबरदस्त भागदौड़ कर रहे थे।

ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, के चंद्रशेखर राव, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव आदि प्रादेशिक क्षत्रपों का इन पांच राज्यों में कुछ भी दांव पर नहीं लगा था लेकिन इनके नतीजों से पहले ये सारे नेता विपक्ष का मोर्चा बनाने या भाजपा विरोधी राजनीति के दांव-पेंच में लगे थे।

ममता दिल्ली-मुंबई की दौड़ लगा रही थीं तो चंद्रशेखर राव दिल्ली-मुंबई-रांची की दौड़ लगा रहे थे। केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ संघीय मोर्चा बन रहा था और दिल्ली या हैदराबाद में विपक्षी मुख्यमंत्रियों की बैठक होने वाली थी। राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष का साझा उम्मीदवार तय किया जाना था।

लेकिन अब अचानक सारी चीजें थम गई हैं।विपक्षी मोर्चे का पहला मुकाम राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था, जिसका खेला अब खत्म हो गया है। पांच में से चार राज्यों में भाजपा को मिली जीत के बाद विपक्ष की उम्मीदें खत्म हैं।

विपक्षी नेताओं की ओर से की जा रही पहल का निष्कर्ष यह था कि अगर भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव हारती तो विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतारा जाता। शरद पवार को साझा उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा था। लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ी जीत मिली है। देश में उसके अपने विधायकों की संख्या 1,543 है और दोनों संसद के दोनों सदनों में उसके सदस्यों की संख्या चार सौ है। अगर उसकी सहयोगी पार्टियों के विधायकों और सांसदों की संख्या जोड़ दें तो राष्ट्रपति चुनने वाले इलेक्टोरल कॉलेज में भाजपा के पास 40 से 45 फीसदी तक वोट हो जाते हैं।

उसके बाद जिस राज्य या समूह के व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाता है उसका वोट आमतौर पर मिल जाता है। सो, भाजपा बहुत आसानी से राष्ट्रपति के अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित कर लेगी।इसके बाद विपक्ष का दूसरा प्रयास राज्यों के अधिकारों के अतिक्रमण के खिलाफ एक संघीय मोर्चा बनाने का है। यह एक बड़ा मुद्दा है और दक्षिण भारत के राज्यों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया है।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और उनके वित्त मंत्री ने इस मसले पर विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात की है। जीएसटी में राज्यों का हिस्सा कम होने या मुआवजे की समय सीमा दो साल और बढ़ाने का मसला संसद के चालू बजट सत्र में भी विपक्षी पार्टियों ने उठाया है। इसके अलावा केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी घटने और बीएसएफ का दायरा राज्यों के अंदर 50 किलोमीटर तक करने के मामले में भी राज्यों में एकजुटता है।

ऐसा लग रहा था कि संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होते ही विपक्षी मुख्यमंत्रियों की बैठक दिल्ली में होगी लेकिन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद इस मसले पर भी पार्टियां सुस्त पड़ गई हैं।तीसरा प्रयास भाजपा के खिलाफ एक साझा राजनीतिक मोर्चा बनाने का है। इसकी पहल कैसे होगी और कौन करेगा यह यक्ष प्रश्न है। कांग्रेस पार्टी अंदरूनी कलह से जूझ रही है। पार्टी के नेता आलाकमान से अलग बैठकें कर रहे हैं और पार्टी में बड़ी टूट का अंदेशा भी जताया जा रहा है।

अगर अगले दो-तीन महीने में कांग्रेस अपने को संभालती है और अगस्त से पहले तक पार्टी एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव करके संगठन को मजबूत करती है फिर उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस विपक्षी मोर्चा बनाने की पहल का केंद्र रहेगी। हालांकि तब भी यह आसान नहीं होगा क्योंकि कई प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस के साथ सहज महसूस नहीं कर रही हैं।

कम से कम दो प्रादेशिक क्षत्रपों- ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा इतनी बड़ी हो गई है कि किसी भी दूसरी पार्टी का नेतृत्व स्वीकार करने में इनको दिक्कत होगी।अगर कांग्रेस की बजाय विपक्षी मोर्चा बनाने की पहल कहीं और से होती है, जैसे प्रशांत किशोर पहल करते हैं तो वह एक बड़ा प्रयास होगा लेकिन उसमें कांग्रेस के शामिल होने पर संदेह रहेगा।

अभी तक का इतिहास रहा है कि चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देती रही लेकिन चुनाव से पहले किसी तीसरे मोर्चे की पार्टियों के पीछे चलने का कांग्रेस का इतिहास नहीं रहा है। अब भी यह संभव नहीं लग रहा है कि वह किसी ऐसे मोर्चे का हिस्सा बनेगी, जिसकी कमान उसके हाथ में न रहे।

ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि विपक्ष का एक साझा मोर्चा कैसे बनेगा? अगले कुछ दिनों में कांग्रेस का संगठन चुनाव हो जाएगा, जिसके बाद संभावना है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनेंगे। उसके बाद कांग्रेस चाहेगी कि कांग्रेस की कमान में राहुल के चेहरे पर चुनाव हो। दूसरी ओर मोदी बनाम ममता और मोदी बनाम केजरीवाल की तैयारी अलग चल रही है।

अब तक का इतिहास रहा है कि चुनाव दो बड़ी पार्टियों या बड़ी ताकतों के बीच होता है। जब कांग्रेस भारतीय राजनीति की केंद्रीय ताकत थी तब भी उसका मुकाबला दूसरी बड़ी ताकत से होता था। किसी एक या दो राज्य का नेता चाहे कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो वह राजनीति की केंद्रीय ताकत को चुनौती नहीं दे सकता है।

कांग्रेस के शीर्ष पर रहते विपक्ष में अनेक चमत्कारिक नेता हुए और राज्यों में भी कई करिश्माई नेता रहे लेकिन वे कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सके। वैसे ही अभी किसी राज्य में कोई कितना भी चमत्कारिक नेता क्यों न हो वह भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनौती नहीं दे सकता है। ध्यान रहे आम चुनाव सिर्फ चेहरों का चुनाव नहीं होता है।

वह विचारधारा और संगठन का भी चुनाव होता है। भाजपा को चुनौती देने वाली विचारधारा अब भी कांग्रेस के पास है और संगठन के लिहाज से भी भाजपा विरोधी स्पेस का प्रतिनिधित्व कांग्रेस ही कर रही है। इसलिए अगले दो साल में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजे चाहे जो आएं, कांग्रेस अपने दम पर और अपने बचे हुए सहयोगियों को साथ लेकर भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ेगी।

राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रपों का एक मोर्चा अलग बन सकता है, जो मुख्य रूप से उन राज्यों में होगा, जहां कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला नहीं है। अगर प्रशांत किशोर कांग्रेस और प्रादेशिक क्षत्रपों के मोर्चे का रणनीतिक तालमेल कराने और सीटों के एडजस्टमेंट में कामयाब होते हैं तो चुनाव दिलचस्प होगा।

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कांग्रेस के लिए किसी गांव तक में नहीं गए कपिल सिब्बल

गांधी-नेहरू खूंटा तभी कांग्रेस और विकल्प भी!

20.03.2022 – हरिशंकर व्यास – कांग्रेस को ले कर स्यापा है। कोई उस पर परिवारवाद का ठीकरा फोड़ रहा है, उसे प्राइवेट लिमिटेड करार दे रहा है तो कोई उसे खत्म मान रहा है।

कोई राहुल गांधी को कोस रहा है तो कोई उसके कारण सन् 2024 का चुनाव नरेंद्र मोदी का तय मान रहा है। ऐसे ही कई लोग सोनिया-राहुल-प्रियंका को असली-सच्ची कांग्रेस बनाने में बाधक मानता है।

मोटा मोटी कांग्रेसी हताश हैं, निराश हैं और अधिकांश राहुल गांधी को नासमझ, निकम्मा, नालायक मान सोच रहे होंगे कि उन्हें कब अक्ल आएगी? कब सोनिया गांधी समझेंगी? राहुल के चक्कर में प्रियंका की संभावना भी खत्म कर दी है। क्यों यूपी में भाई-बहन ने ऐसे प्रतिष्ठा दांव पर लगाई? क्यों सोनिया गांधी पुत्रमोह में राहुल गांधी का कहना मान रही हैं?

वे क्यों नहीं किसी गैर-परिवार नेता को अध्यक्ष बना कांग्रेस में जान डालती हैं? सोनिया गांधी को भी सोचना चाहिए कि पार्टी को ऐसे खत्म होने दे कर वे अपने ही परिवार की विरासत को मिटा देने का

इतिहासजन्य पाप करेंगी!दरअसल, देश का हर वह व्यक्ति सोनिया-राहुल गांधी से दुखी है जो नरेंद्र मोदी के आइडिया ऑफ इंडिया में घुटन महसूस करता है। हर वह नेता सोनिया-राहुल गांधी को कोसते हुए है, जो मोदी राज के कारण सत्ता से बेदखल है।

पॉवर का भूखा है। हर वह जमात, वह वर्ग नाराज है, जिसने सेकुलर आइडिया ऑफ इंडिया के वक्त में मलाई खाई।

जो लुटियन दिल्ली का एलिट था। ये सब सोचते और मानते हैं कि नरेंद्र मोदी लगातार जीत रहे हैं तो वजह राहुल गांधी हैं। उनकी नासमझी और निकम्मेपन की लोगों के दिल-दिमाग में ऐसी छाप पैठी है कि वे मोदी के बतौर विकल्प क्लिक नहीं हो सकते।

इसलिए उनसे (गांधी-नेहरू परिवार) कांग्रेस की मुक्ति जरूरी है।कैसे? जवाब में तमाम तरह की पतंगबाजी है। हाल-फिलहाल की सुर्खियों में कपिल सिब्बल की दलील है कि वक्त का तकाजा है जो घर की जगह सबकी कांग्रेस बने!

उधर अमेरिकी मॉडल पर मतदाताओं के कच्चे माल को फैक्टरी में अलग-अलग फॉर्मूलों से पका कर प्रोडक्शन लाइन पर भक्त वोटरों में कन्वर्ट करने के पेशेवर प्रशांत किशोर की थीसिस है कि कांग्रेस विकल्प’ के स्पेस पर कब्जा जमाए हुए है सो, वह उसे खाली करे।

लोगों के दिमाग में भाजपा और मोदी के आगे कांग्रेस और राहुल का चेहरा बना हुआ है, वह विकल्प के बोर्ड पर है तो जब तक विपक्ष की दुकान पर लगा खानदानी चेहरों का बोर्ड नहीं हटेगा तब तक लोगों में विकल्प की दुकान लोक-लुभावन नहीं होगी।

सो, विकल्प के खातिर नई कांग्रेस बने, नई दुकान और उसका बोर्ड हो या तृणमूल जैसी कोई अपने को अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनाए तो उसकी लीडरशीप में फिर क्षेत्रीय पार्टियों का ग्रैंड एलायंस बनना संभव होगा। तब सन् 2024 में नरेंद्र मोदी हार सकेंगे।

सो परिवारवादी खूंटे से कांग्रेस को छूटाना सन् 2024 के चुनाव की तात्कालिकता से है तो दीर्घकालीन मकसद सेकुलर आइडिया ऑफ इंडिया के इकलौते प्रणेता-पोषक परिवारवादी गांधी-नेहरू खूंटे को हमेशा के लिए मिटाना है।

अपना मानना है कि न सोनिया-राहुल-प्रियंका और न कपिल सिब्बल एंड जी-23 नेताओं को समझ है कि नरेंद्र मोदी-संघ परिवार के मकसद में कैसी दीर्घकालीन राजनीति छुपी हुई है और उसमें देश के आइडिया व अस्तित्व के गंभीर पहलू भी हैं।

परिवार की नासमझी अपनी जगह है तो कपिल सिब्बल, गुलाम नबी, आनंद शर्मा याकि दुखी-अंसुतष्ट-सत्ता भूखे कांग्रेसी चेहरों और प्रशांत किशोर ले देकर सन् 2024 के चुनाव की जल्दी में हैं। वे इस रियलिटी को सोच नहीं पा रहे हैं कि बिना गांधी परिवार के न कांग्रेस रह सकती है, न उसका असली कांग्रेस या सबकी कांग्रेस का रूपांतरण संभव है और न मोदी को हरा सकने का विकल्प संभव।

क्यों? तब आजाद भारत की राजनीति पर गौर करें। सबको ध्यान रखना चाहिए कि 1969 में कांग्रेस की दो बैलों की जोड़ी जब बिखरी थी और इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत हुई व मोरारजी, कामराज, संजीवैय्या रेड्डी ने सबकी कांग्रेस’ के ख्याल में जो संगठन कांग्रेस’ नाम की पार्टी बनाई तो उसका क्या भविष्य हुआ? जगजीवन राम-बहुगुणा ने 1977 में कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाई तो उनका और उनकी कथित असली कांग्रेस का क्या हुआ?

ऐसे ही एक दफा नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह ने अलग कांग्रेस बनाई तो क्या हुआ? ऐसे कई प्रयोग हुए।  ममता बनर्जी, शरद पवार आदि कईयों ने विद्रोह किया। पार्टियां बनाईं लेकिन गांधी-नेहरू के खूंटे से बाहर होने के बाद एक भी कोई नेता व उसकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चली।वह सब याद कराना त्रासद है तो अपने लोकतंत्र व राजनीति की कमियों का खुलासा भी है।

सोचे, जब ऐसी रियलिटी है तो कपिल सिब्बल या ममता बनर्जी, शरद पवार को क्यों यह गलतफहमी पालनी चाहिए कि परिवारवादी कांग्रेस को खत्म करके या उसे दरकिनार करके नरेंद्र मोदी को हरा सकते हैं? या संघ परिवार के आइडिया ऑफ इंडिया के आगे अपने बूते नया-टिकाऊ विकल्प बना सकते हैं? संभव ही नहीं है।

इससे उलटे 2024-2029 में लगातार भाजपा मजे से चुनाव जीतेगी। अगले दस सालों में ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस का अता-पता भी नहीं होगा। न ही महाराष्ट्र में अघाड़ी पार्टियां बचेंगी और न तेजस्वी या अखिलेश यादव या अरविंद केजरीवाल का हल्ला चलता हुआ होगा।मैं फतवाई निष्कर्ष लिख दे रहा हूं।

भारत के हर सुधी नागरिक को समझना चाहिए कि मोदी-शाह-संघ परिवार ने अखिल भारतीय स्तर पर भारत को दो पालों में बांट दिया है। एक पाला शुद्ध भक्त हिंदुओं का है, जिसमें 2024 आते-आते 40 प्रतिशत वोट होंगे और बाकी वोट गैर-हिंदू व सेकुलर होने की अलग पहचान, आईडेंटिटी के बावजूद बिखरे हुए होंगे। 140 करोड़ लोग और वे दो हिस्सों में मोदी जिताओ और मोदी हटाओ के दो पालों में। निश्चित ही 55-60 प्रतिशत वोट मोदी हटाओ की बहुसंख्या वाले।

मगर ये विरोधी वोट इसलिए बेमतलब व जीरो हैसियत लिए हुए होंगे क्योंकि कपिल सिब्बल एंड पार्टी कांग्रेस को खत्म कर चुकी होगी तो प्रशांत किशोर नई कांग्रेस का कोई नया शॉपिंग मॉल लिए हुए होंगे। ममता-केजरीवाल अपने को राष्ट्रीय नेता मान उड़ते हुए होंगे तो मोदी-शाह महाराष्ट्र-झारखंड की विरोधी सरकारों में उथल-पुथल करवा कर, विधानसभा चुनावों से कांग्रेस का उत्तर भारत में पूरा सफाया करके विपक्ष में लडऩे की ताकत ही नहीं बचने देंगे। झूठ के नैरेटिव से क्षत्रप याकि ममता-अखिलेश-तेजस्वी मुस्लिमपरस्त तो केजरीवाल खालिस्तानी-खालिस्तानी के शोर में लिपटे हुए।

मोदी सरकार इन सबकों ऐसे तोड़ेगी-मरोड़ेगी कि मजबूरन ओवैसी से लेकर, मायावती, केजरीवाल सब अलग-अलग लड़ मोदी हटाओ की चाहना वाले 55-60 प्रतिशत वोटों को छितरा देंगे।क्या यह सिनेरियो सोनिया-राहुल, कपिल सिब्बल, ममता, केजरीवाल, प्रशांत किशोर, अखिलेश आदि को दिखलाई नहीं दे रहा होगा?

क्या ये नेता इतना भी नहीं बूझ सकते हैं कि आपस में एक-दूसरे को हरा कर अपना स्पेस बनाना संभव है लेकिन सन् 2024 में नरेंद्र मोदी (या जैसे अभी चार राज्यों में) जीते तो उसके बाद प्रदेशों के चिडीमार नेताओं का सारा स्पेस धरा रह जाएगा। आपस में एक-दूसरे से लड़ कर भले छोटा-मोटा स्पेस बना लें लेकिन वह सब नरेंद्र मोदी के अंगूठे के नीचे!

इसमें मील के पत्थर जैसा मामला परिवार से कांग्रेस की मुक्ति का है। कल्पना करें कांग्रेस खत्म हो जाए। वह सन् 2024 का लोकसभा चुनाव लडऩे लायक नहीं रहे (इसका मिशन है और इस पर कल) तो कपिल सिब्बल-प्रशांत किशोर क्या विकल्प का नया स्पेस बना कर (नई धुरी बना कर) उससे सभी क्षत्रपों को जोड़ करके नरेंद्र मोदी को हरा सकेंगे?

लोगों के जेहन में क्या ममता का चेहरा बनेगा या केजरीवाल का? क्या केजरीवाल 2014-15 जैसे तेवर लिए मोदी के खिलाफ बोलते हुए होंगे? कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, गुलाम नबी क्या नारा लगा सकते हैं कि मोदी हटाओ देश बचाओ? प्रशांत किशोर किसी भी एक्सवाईजेड नेता या पार्टी को उत्तर भारत में बतौर विकल्प मोदी विरोधियों के जहन में पैठा सकते हैं?कतई नहीं!

विपक्ष के लिए सन् 2024 का चुनाव कायदे से लड़ सकना तभी संभव है जब परिवारवादी कांग्रेस जिंदा रहे। परिवार के तीनों चेहरों को समझदार होना होगा तो उन नेताओं, पार्टियां को भी समझदारी बनानी होगी जो चाहते है मोदी को हटाना।

55-60 प्रतिशत मोदी विरोधी वोटों के सभी प्रतिनिधि चेहरों को पहले यह समझना होगा कि उनकी असुरक्षा, उनका पॉवर से दूर रहना मोदी-संघ परिवार व उनके आइडिया ऑफ इंडिया की वजह से है न कि विरोधी पाले में एक-दूसरी की धक्का-मुक्की याकि कांग्रेस बनाम आप बनाम सपा बनाम राजद बनाम बसपा के छोटे-छोटे स्वार्थों और ईगो से।

निश्चित ही समझ की कसौटी में सबसे पहले राहुल गांधी, प्रियंका और सोनिया गांधी को प्राथमिक तौर पर समझदार होना होगा। वे जाने कि वे कैसे सन् 2024 में चुनाव लडऩे लायक नहीं रह सकेंगे।

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कांग्रेस का आजादी व देश के विकास में योगदान अहम!

भारत की गौरवशाली परंपरा को बहाल करने की जरूरत – उपराष्ट्रपति

कांग्रेस के लिए किसी गांव तक में नहीं गए कपिल सिब्बल

 

मुझे बचाने कोई न आया मैं कश्मीरी पंडित हूं!

जगदीश सिंह – 20.03.2022, मेरी पीडा मुझसे न पूछ मैं खुद के घर से दंडित हूं! सवाल सियासत का नहीं! मुझे बचाने कोई न आया मैं कश्मीरी पंडित हूं!सवाल हिमाकत का नहीं! सवाल वक्त के नजाकत नहीं! सवाल सिर्फ सवाल इन्सानियत का है!आखिर कहां चले गये सर्व धर्म सम्भाव का ढपोरशंखी भाषण पिलाने वाले!

कहां चले गये थे सारे जहां से अच्छा का तराना गाने वाले! कहा चले गये थे मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना का सगूफा सुनाने वाले! कहां चले गये थे इस देश में इन्सानियत का फर्ज निभाने वाले! कहा चले गये थे

धर्म मजहब के ठिकेदार जो सबको समान आदर सबको सामान समादर से सलूक करने की गली गली गला फाड़ फाड़ कर तकरीर करते हैं?वो कहां मर गये थे!जिन्हें दम्भ है की देश की सत्ता हमारी कौम के बिना नहीं चल सकती है?

सदीयो सदियों से राजसत्ता से लेकर सियासत तक में दमदार दखल रखने वाले परशुराम के बंशज जो सैकड़ों संगठन बनाकर सियासत की दूकान चला रहें है?कश्मीरी पंडितों के समर्थन में क्यो नहीं उतरे सड़कों पर! क्यो नहीं कश्मीर कूच का ऐलान किया? क्यो गिरवी रख दिये अपना मान सम्मान स्वाभिमान ! जब कश्मीरी पंडितों का कत्लेयाम सरेयाम हो रहा था! कहां सो रहे थे इस देश के रहनुमा!

जो सबका भारत होने का दावा करते है! राष्ट्र वादी होने का दिखावा करते हैं?। बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी! बहुत दर्द हैआज जो कुछ दिखाया जा रहा है देख कर शर्म आ रही है! चुल्लू भर पानी में डुब मरो चाणक्य के बशजों! भगवान परशुराम के अनुयाइयों! इन दंगाईयों को सबक सिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये!अपने भाईयों को आजाद भारत में बे मौत मरते देखते रहे! कोई पैदा नहीं हुआ चनद्रशेखर आजाद! बर्बाद हो गया कश्मीरी पंडितों का समाज!

बेशर्म सियासत के दोगले रहनुमा 1990से आज तक उन सांपों को दूध पिलाते रहे! गाते रहे सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा!भला हो उस निर्माता का जो असलियत को दुनियां के सामने परोस दिया! दोगले सियासत बाजों की जबान को खामोश कर दिया!दहल उठा है सारा देश! बदल गया घर घर का परिवेश!

आज हम अपने को भाग्यशाली मानते है की देश भक्त मोदी महान ने सम्मान के साथ हिन्दुस्तान के कलंकित इतिहास पर आधारित द कश्मीर फाईल्स मूबी का उद्घाटन कर उच्चाटन मन्त्र का जाप शुरू करा दिया? सोते समाज को जगा दिया! देश में हलचल है!आग फैलती जा रही है! लोगों के दिलों में नफरत की आंधी चल रही है! मगर यह हिन्दू समाज तफरका में बिश्वास नहीं रखता बसुधैव कूटुम्बकम का सूत्र उसके खून में समाहित है।

इसी लिये उसका इतिहास कलंकित है!!इतिहास गवाह है इस देश के आन बान शान को बरवाद करने के लिये बिधर्मियो ने बार बार सनातनी समाज को विखंडित करने का कुत्सित प्रयास किया! सैकड़ों साल तक अत्याचार का खेल खेला! मगर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!देश को लूट कर चले आक्रान्ता! चले गये ब्यापारी! मगर आज भी सनातनी समाज सम्बृधी के साथ समता का बिजारोपण करते हुये वैभवशाली ब्यवस्था का अनुगामी बना हुआ है!

सनातनी समाज के लिये 1990 की घटना ने आखरी तबाही की कील कश्मीर मे ठोक दिया !हजारों लोगों को मौत के मुंह में झोंक दिया! आज उसी पर आधारित सच द कश्मीर फाईल्स मूबी का प्रदशर्न जन जागरण करा रही है।कश्मीरी पंडितों की तबाही अत्याचार की कहानी बता रही हैं।

देश द्रोही गद्दारों की जमात इसका भी विरोध कर रही है! जगह जगह अवरोध कर रही है।मगर जन सैलाब कि आवाज बन चुकी मूबी को रोकना आसान नहीं! यह 1990का हिन्दुस्तान नहीं है।मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है।मानवाधिकार जिसका हौवा बनाती है सरकार! कश्मीर मैं नाकाम है!वह भी वहीं कामयाब है जहां मुद्दा बेकार है।

आजाद भारत में दुसरी बार कश्मीर में हैवानियत का खेला सियासतदारो की मिलीभगत से खेला गया!तत्कालीन सरकार तत्कालीन रसूखदार तत्कालीन मानवाधिकार संगठन आंखें मूंद कर तमाशा देखते रहे।कश्मीर जलती रही! कश्मीरी पंडितों का बलिदान होता रहा! देश का सम्विधान रोता रहा। शर्म से सर झुक जाता है अपने को हिन्दुस्तानी कहने पर जितना अत्याचार हुआ कश्मीरी बहनों पर! उठो सिंह सावको मां भारती पुकार रही है! मिटा दो कलंकित इतिहास के पन्नों को!

जनसमर्थन के सैलाब से मजबूत सरकार का निर्माण करो! ताकी राणा शिवा के शौर्य गाथा दुबारा सिंहनाद हो सके।आताताईयो का सम्पुर्ण बिनाश हो सके! सियासत के जहरीले सांप विष बमन कर रहें हैं! रोज रोज रंग बदल रहे हैं! समय की मांग है जो तुमको कांटा बुये ताहि बोई तू भाला!——? सठेशाठ्यम समाचरेत! जैसे को तैसा की जरुरत आन पड़ी है।

लेकिन इसके साथ ही सरकार पर की जिम्मेदारी है कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में पुनर्स्थापित करें!उनके जान-माल सुरक्षा की ब्यवस्था करें! उनका हक दिलावे!ऐसा नहीं हुआ तो केवल मूबी से लोग कुछ दिनों तक बदले की आग में जलते रहेंगे! फिर सब कुछ यथावत हो जायेगा!कश्मीर की घटना इतिहास में कहावत हो जायेगा?आज नहीं तो कल इसी को लेकर बगावत हो जायेगा!

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लोकगीतों में खूब जमता है होली का रंग

डा0 श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट –  देश के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से होली मनाई जाती है। मध्य प्रदेश के मालवा अंचल में होली के पांचवें दिन रंगपंचमी मनाई जाती है।यह मुख्य होली से भी अधिक जोर-शोर से मनाई जाती है।ब्रज की होली पूरे भारत में मशहूर है। बरसाना की लट्ठमार होली देखने के लिए देश विदेश से लोग आते हैं। हरियाणा में भाभी द्वारा देवर को सताने की परंपरा है। महाराष्ट्र में रंग पंचमी के दिन सूखे गुलाल से खेलने की परंपरा है।दक्षिण गुजरात के आदि-वासियों के लिए होली एक खास पर्व है। छत्तीसगढ़ में होली पर लोक-गीतों का प्रचलन है।
विभिन्न रंगो का पर्व होली एक ऐसा सामाजिक त्यौहार है जिसे सभी मिलकर हर्षोल्लास के साथ मनाते है। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली का मुख्य पर्व मनाया जाता है। भद्रा रहित लग्न में सायंकाल के बाद होलिका दहन करने की होली पर परम्परा है। इससे पूर्व दिन भर होलिका का पूजन किया जाता है तथा घर की बालिकाओं द्वारा गोबर से बनाये गए बडकल्ले भी होलिका पर चढाये जाते है।होलिका दहन
के बाद होलिका की राख ठन्डी होने पर उसे भस्म रूप में शरीर पर लगाने की भी परम्परा है। ताकि मन और शरीर वर्षभर स्वस्थ्य रह सके। वैदिक काल में होली पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत में पैदा हुए अधपके अन्न को यज्ञ में आहुत किया जाता था और यज्ञ में पके अन्न को होला कहा जाता था। इसी कारण इस पर्व का नाम होला से होली पडा है। एक अन्य मान्यता के अनुसार
होली अग्नि देव की पूजा का माध्यम भी है। चूंकि इस दिन मनु
महाराज का जन्म हुआ था इस कारण इस पर्व को मन्वादितिथि भी कहा जाता है। इस पर्व का एक उददेश्य काम दहन से भी है। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को
भस्म कर दिया था, तभी से इस पर्व की शुरूआत होना बताई गई
है।प्रकृति जब अपना आवरण बदलने लगे ,मौसम में बासंती ब्यार बहने लगे और लोगो में मस्ती का भाव जगने लगे तो समझो फाल्गुन आ
गया और होली लोगो के दिलो पर दस्तक देकर उन्हे अपने रगं में रगंने लगती है। प्रकृति का यही उल्लास लोगो के मन में एक
नई उमंग,एक नई खुशी, एक नई स्फूर्ति को जन्म देकर उनके
मन को आल्हादित करती है। प्रकृति की इस अनूठी छटा व मादकता के उत्सव को होलिकोत्सव के रूप में मनाए जाने की परम्परा सदियों
से चली आ रही है। जिस पर हम सब रंगो से सराबोर हो जाते है।
होली के इस पर्व को यौवनोत्सव,मदनोत्सव,बसंतोत्सव दोलयात्रा व शिमागा के रूप में मनाये जाने की परम्परा है।लेकिन इस पर्व की
वास्तविक शुरूआत प्रकृति परिवर्तन से ही होती है। प्रकृति अपना आवरण बदलती है। पेड पोधे अपने पुराने पत्तो को त्यागकर पेड का तना
अपने बक्कल को छोडकर नये पत्तो व नये स्वरूप में परिवर्तित होते है। इसी प्रकार मनुष्य के शरीर की खाल तक धीरे धीरे बदल जाती है।
पांच तत्वों से बना हमारा शरीर भी चूंकि प्रकृति का अंग है
इसकारण वह भी मन और शरीर दोनो तरह से अपने आपमें परिवर्तन का अनुभव करता है। यही अनुभव हम होली के रूप में तहसूस करते है।
धार्मिक पुस्तको व शास्त्रों में होली को लेकर विभिन्न दन्त
कथायें प्रचलित है। इन कथाओं के अनुसार नारद पुराण में यह
पर्व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के अन्त व भक्त प्रहलाद की ईश्वर के प्रति आस्था के प्रति विजय का प्रतीक है। प्रचलित कथा के अनुसार हिरण्य कश्यपको जब उनके पुत्र प्रहलाद ने भगवान मानने से इंकार कर
दिया तो अहंकारी शासक हिरण्य कश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद की हत्या के लिए उसे आग में न जलने का वरदान प्राप्त होलिका की गोद में जलती
चिता में बैठा दिया किन्तु होलिका का आग में न जलने का वरदान
काम नही आया और वह आग में जलकर भस्म हो गई। जबकि प्रहलाद सकुशल बच गया। तभी से होलिकोत्सव पर होली दहन की परम्परा की शुरूआत हुई।
होली पर्व पर गाये जाने वाले होली से जुडे लोकगीतो की
अनूठी परम्परा है। मै कैसे खेलू होली सांवरियां के संगए कोरे
कोरे कलस भराये उनमें धोला रंग।जैसे लोक गीत का गायन कर महिलाएं झूम झूम कर होली पर नृत्य भी करती है। होली के
लोकगीतो में
ब्रज में हरि होरी मचाईए
इतते निकली सुधर राधिका
उतते कुंवर कन्हाईखेलत फाग परस्पर हिलमिलए
शोभा वरनी न जाई।
जहां लोकप्रिय हैए वही होली आई रे कन्हाई ब्रज के रसिया
एहोली आई रे भी जोर सोर से गाया जाता है।
चाहे शहर हो या गांव हर गली मोहल्ले में पुरातन परम्परा
से जुडी महिलायें पूर्णिमा की चांदनी में एकत्र होकर होली के
गीत गाती है और होली नृत्य करती है। इन होली लोकगीतो
में ,होली खेलो जी राधे सम्भाल के।जमना तट श्याम खेले
होरी जमना तट ।होरी खेलन आयों श्यामएआज याको रंग में
बोरो सखी वृन्दावन के बीच आज ढफ बाजे है।
।फागुन आयों रे ऐ ली फागण आयों रे ,मेरी भीजे
रेशम चुनरी रे,मै कैसे खेलूं होरी रे।होरी खेल रहे नन्द
लाल मथुरा की कुंज गलिन मे।एआज बिरज की होरी रे रसिया
होरी तो होरी बरजोरी रे रसिया उडत अबीर गुलाल कुमकुम केसर की
पिचकारी रे रसिया। आदि शामिल है।
होली के पर्व को मुगल शासक भी शान से मनाया करते थे।
मुगल बादशाह अकबर अपनी महारानी जोधाबाई के साथ जमकर होली खेलते थे। बादशाह जहांगीर ने भी अपनी पत्नी नूरजहां के साथ रंगो की होली खेली। इसी तरह बादशाह औरंगजेब उनके
पुत्र शाह आलम और पोत्र जहांदर शाह ने भी होली का त्योहार रंगो के साथ मस्ती के आलम में मनाया जिसका उल्लेख इतिहास में पढने को मिलता है। जिससे स्पष्ट है कि हिन्दू ही नही मुस्लमान भी होली का पर्व मनाते रहे है। पिरान कलियर के वार्षिक उर्स में
पाकिस्तान से आने वाले जायरीन हर साल फूलो की होली खेलते है
जिसमें हिन्दू और मुस्लमान दोनो शामिल होते है। राजस्थानी की होली रेगिस्तान की पहचान राजस्थान में सांभर की होली का अपना महत्व है। सांभर की होलीमनाने के लिए आदिवासी समाज की लडकियां वस्त्रो की जगह अपने शरीर को टेसू की फूल मालाओं से
ढककर अपने प्रेमियों के साथ नदी किनारे जाकर सर्प नृत्य करती है।
इस सर्प नृत्य के बाद इन लडकियो की शादी उनके प्रेमियों के साथ कर दी जाती है।
होली जिसमें देवर भाभी व जीजा शाली एक दुसरे को कोडे मार
कर होली के रगं में रंग जाते है। इसी राजस्थान में होली पर
अकबर बीरबल की शोभा यात्रा निकालकर होली का रगं व गुलाल
खेला जाता है। राजस्थान के बाडमेंर में तो होली की मस्ती
के लिए जीवित व्यक्तियों की शवयात्रा बैण्डबाजे के साथ निकालने की
परम्परा है। वही राजस्थान के जालोर क्षेत्र में होली पर लूर नृत्य
किया जाता है तो झालावाड क्षेत्र में गधे पर बैठकर होली की
मस्ती में झूमने की परम्परा है। बीहड क्षेत्र में तो पुरूष धाधरा
चोली पहन कर ढोल नंगाडे बजाते हुए होली का नृत्य करते है
तथा होली का गायन करते है। मथुरा की लठठमार होली बीकानेर
की डोलचीमार होली की कहानी भी गजब है।
मथुरा की लठठमार होली
लठठमार होली मथुरा के बरसाने में खेली जाती है।
जिसमें महिलाए पुरूषो पर लठठ से प्रहार करती है और पुरूष ढाल का
उपयोग कर अपना बचाव करते है।इस लठठमार होली को देखने के
लिए देश विदेश से बडी सख्ंया में श्रद्धालु मथुरा आते है। भले
ही इस होली को लठठमार होली के रूप में मनाया जाता हो परन्तु
किसी के भी मन में होली खेलते समय कोई बैर भाव नही
होता सभी प्यार और माहब्बत को नया जन्म देने के लिए यह होली
खेलते है।
होली यानि पवित्र होने का दिन
यूं तो होली रंगों का त्यौहार है ताकि जीवन रंग बिरगां रहे
और कोई भी दुख दर्द पास न आने पाये लेकिन साथ ही यह पर्व
पांच विकारों को त्यागने का भी एक बडा अवसर है। होली शब्द
का अर्थ यदि हम अंग्रेजी के में देखे तो पवित्र होता है जिसका मायने है कि हमें होली पर पवित्र बनने का सकल्ंप लेना चाहिए। जिसके लिए जरूरी है काम,क्रोध,मोह लोभ और अहंकार से मुक्त हो
जाना। तभी हमारा जीवन देवतूल्य बन सकता है और होली पर्व की सार्थकता हो सकती है। लेकिन कुछ लोग होली पर नशा करते है। एक दुसरे पर कीचड उछालते है और होली के रंग को बदरंग बना देते है। जो कि पूरी तरह से गलत है। होली का सही मायने है।
आपसी भाई चारा बढाना और जो भी बैर भाव किसी के प्रति है
उसे हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर देना। तभी होली का असली
रसानन्द प्राप्त किया जा सकता है। होली का रंग
चढऩे लगा है
हर कोई मदमस्त
होने लगा है
प्रकृति भी खिली खिली
दिखने लगी
मौसम मे गर्माहट सी
होने लगी
पर होली पर हुड़दंग
ठीक नही है
होली पर बदरंगता
ठीक नही है
होली पर होली
रहना जरूरी है
बुराईयों से मुक्ति
पाना जरूरी है
जो भी विकार बचे है
जला दो होली मे
आत्मा का परमात्मा से
योग लगा लो होली में।

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चुनाव जीतने की मशीनरी

कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं..

अजीत द्विवेदी – कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं, बल्कि रणनीतिकार लड़ाएंगे और मुकाबला रैलियों, रोड शो में नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर लड़ा जाएगा तो पार्टियों के नेता कहते थे कि भारत कोई अमेरिका नहीं है।

भाजपा के पास एक शानदार मशीनरी है, जिसके दम पर उसने कांग्रेस से उसकी 70 साल की उपलब्धियां छीन ली हैं।भाजपा की यह मशीनरी सिर्फ चुनाव के समय काम नहीं करती है, बल्कि 365 दिन और 24 घंटे काम करती है।पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने भारतीय राजनीति की एक अहम जरूरत को रेखांकित किया है। वह जरूरत है चुनाव लड़ाने और जिताने वाली मशीनरी की। कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा कि भारतीय जनता पार्टी इसलिए चार राज्यों में चुनाव जीती क्योंकि उसके पास चुनाव लड़ाने वाली आधुनिक मशीनरी है, कांग्रेस को भी ऐसी मशीनरी तैयार करनी होगी।

सवाल है कि इस मशीनरी में क्या क्या चीजें हैं, जो चुनाव लडऩे और सकारात्मक नतीजे हासिल करने के लिए जरूरी हैं? और क्या आम आदमी पार्टी जैसी नई बनी पार्टी ने भी वह मशीनरी विकसित कर ली है, जिसके दम पर उसने पंजाब का चुनाव जीता?राहुल गांधी ने जिस आधुनिक मशीनरी का जिक्र किया उसका एक हिस्सा नए सॉफ्टवेयर और अल्गोरिदम आधारित मशीनरी है, जिसके बिना इन दिनों चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है। चुनाव रणनीतिकार, सर्वेक्षण करके फीडबैक जुटाने वाली टीम, उस फीडबैक के आधार पर नैरेटिव गढऩे वाली टीम, सोशल मीडिया में इस नैरेटिव को वायरल करने और उस पर ओपिनियन बनवाने वाली टीम, अपने प्रतिद्वंद्वियों की गलतियां निकालने और उस पर ट्रोल कराने वाली टीम, ये सब इस आधुनिक मशीनरी का हिस्सा हैं। भाजपा के पास इसकी एक शानदार मशीनरी है, जिसके दम पर उसने कांग्रेस से उसकी 70 साल की उपलब्धियां छीन ली हैं और तमाम झूठी-सच्ची असफलताओं के लिए उसे जिम्मेदार बनाया है। इसी मशीनरी के दम पर भाजपा ने गांधी परिवार को कांग्रेस और देश के लिए एक लायबिलिटी साबित किया है।

भाजपा की यह मशीनरी सिर्फ चुनाव के समय काम नहीं करती है, बल्कि 365 दिन और 24 घंटे काम करती है।भाजपा के उलट कांग्रेस अब भी पारंपरिक तरीके से चुनाव लड़ती है। उम्मीदवार तय करने से लेकर प्रचार सामग्री तैयार करने और प्रचार करने तक का कांग्रेस का तरीका पारंपरिक है। सोशल मीडिया में भी कांग्रेस की जो उपस्थिति दिखती है वह कांग्रेस की वजह से कम और भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकार का विरोध करने वाले सोशल मीडिया के स्वंयभू योद्धाओं की वजह से ज्यादा है। इसलिए यह ज्यादा असरदार नहीं है। यह बुनियादी रूप से वैचारिक है, इसमें कोई नियोजन नहीं है और कोई तालमेल नहीं है। इनकी दूसरी सीमा यह है कि ये किसी घटना के हो जाने के बाद उस पर प्रतिक्रिया देते हैं। किसी एजेंडे के तहत कोई विमर्श इनके दम पर खड़ा नहीं किया जा सकता है। उसके लिए पार्टियों के पास अपना पूरा तंत्र होना चाहिए।अगर पांच राज्यों में हुए चुनाव और उसके नतीजे देखें तो जीतने वाली दोनों पार्टियों- भाजपा और आप को देख कर साफ लगेगा कि चुनाव प्रबंधन, रणनीतिकार और मशीनरी की कितनी जरूरत है।

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस इन तीन चीजों की कमी के चलते हारे। भाजपा की राज्य सरकारों के खिलाफ लोगों में गुस्सा था, सरकार के कामकाज से निराशा थी और बदलाव की चाहत भी थी फिर भी सपा और कांग्रेस इस हालात का फायदा नहीं उठा पाए तो उसका कारण यह था कि इन पार्टियों के साथ रियल टाइम में फीडबैक जुटाने, उस पर प्रतिक्रिया देने, आकर्षक नारे गढऩे, झूठे-सच्चे नैरेटिव तैयार करने वाली टीम नहीं थी। मिसाल के तौर पर पंजाब का चुनाव देखें। जिस दिन कांग्रेस पार्टी ने दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया उस दिन से आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया में उनको नकली दलित बताना शुरू किया। उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और अरविंद केजरीवाल ने पता नहीं अपने किस सर्वेक्षण के आधार पर कहना शुरू किया कि चन्नी दोनों सीटों- चमकौर साहिब और भदौर से चुनाव हार रहे हैं।मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के घोषित दावेदार दोनों सीटों से चुनाव हार रहे हैं, इसका ऐसा प्रचार आम आदमी पार्टी ने किया कि सचमुच कांग्रेस के नेता चुनाव से पहले ही मान लिए वे हार रहे हैं।

यह मनोवैज्ञानिक लड़ाई है, जो टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो या सोशल मीडिया के स्पेस में लड़ी जाती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में यह और भी जरूरी इसलिए है क्योंकि चुनाव कई चरण में होते हैं और हर चरण के मतदान के बाद चुनाव बदलता जाता है। अगर किसी पार्टी के पास अच्छा चुनाव रणनीतिकार हो और अच्छी मशीनरी हो तो वह हर चरण के बाद बदलते चुनाव को अपने पक्ष में मोड़ सकता है। सोचें, उत्तर प्रदेश के जाट और मुस्लिम बहुल पश्चिमी हिस्से में पहले चरण की 58 सीटों में से 48 सीटें भाजपा को मिली हैं, जबकि माना जा रहा था कि किसान आंदोलन की वजह से जाट बुरी तरह से नाराज हैं और भाजपा को वोट नहीं देंगे।

लेकिन क्या यह फीडबैक सपा प्रमुख अखिलेश यादव को मिली थी? अगर मिली तो उन्होंने दूसरे और तीसरे चरण के लिए अपनी रणनीति में क्या बदलाव किया?कुछ समय पहले जब कहा जाता था कि चुनाव अब नेता नहीं, बल्कि रणनीतिकार लड़ाएंगे और मुकाबला रैलियों, रोड शो में नहीं, बल्कि ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर लड़ा जाएगा तो पार्टियों के नेता कहते थे कि भारत कोई अमेरिका नहीं है। ध्यान रहे अमेरिका का 2016 का राष्ट्रपति चुनाव पूरी तरह से ट्विटर पर लड़ा गया था। अब भारत में यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत कोई अमेरिका नहीं है। अब यहां भी चुनाव स्मार्टफोन और सोशल मीडिया में लड़ा जा रहा है। उसी के जरिए धारणा बनाई और बदली जा रही है। नेताओं और मुद्दों को लोगों के मानस में स्थापित किया जा रहा है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि तकनीक और मशीनरी के इस दौर में कार्यकर्ता और संगठन की जरूरत खत्म हो गई है। लेकिन अब उनकी भूमिका बदल गई है। वे इस तकनीक या मशीनरी का सहायक पुर्जा है, जिनका काम पार्टियों या नेताओं के चुनाव रणनीतिकारों द्वारा गढ़े गए नैरेटिव और नारे को आम लोगों तक पहुंचाना है। वह भी फिजिकल तरीके से कम और इलेक्ट्रोनिक तरीके से ज्यादा। जितने ज्यादा लोगों तक पहुंच बनेगी और उस पहुंच में जितनी निरंतरता रहेगी, उतना फायदा होगा। प्रशांत किशोर और उनकी कंपनी इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी यानी आईपैक यहीं काम करती है। पोलिटिकल एक्शन कमेटी यानी पैक्स पूरी तरह से अमेरिकी राजनीति से लिया गया विचार है। वहां पार्टियों के पैक्स और सुपर पैक्स होते हैं, जो सारे चुनावी मुद्दे, नारे और नैरेटिव तय करते हैं और उन्हें लोगों तक पहुंचाने के उपाय करते हैं। यह सब लोगों की राय के आधार पर किया जाता है। भारत के लिए यह नया विचार है और इसलिए सब इस विचार के मोहपाश में बंधे हैं। ध्यान रहे भारत में जैसे ही कोई नया विचार आता है या नई तकनीक आती है, उसका इस्तेमाल करने वाला सबको पराजित कर देता है। भारतीय राजनीति का वहीं दौर अभी चल रहा है, जो इस दौर के साथ नहीं चलेगा वह पिछड़ जाएगा।

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कांग्रेस और जी-हुजूर—23

वेद प्रताप वैदिक –
16.03.2022, पांच राज्यों के चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में वही हुआ, जो पहले भी हुआ करता था।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि यदि पार्टी कहे तो हम तीनों (माँ, बेटा और बेटी) इस्तीफा देने को तैयार हैं। पांच घंटे तक चली इस बैठक में एक भी कांग्रेसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह नेतृत्व-परिवर्तन की बात खुलकर कहता। जो जी-23 समूह कहलाता है, जिस समूह ने कांग्रेस के पुनरोद्धार के लिए आवाज बुलंद की थी, उसके कई मुखर सदस्य भी इस बैठक में मौजूद थे लेकिन जी-23 अब जी-हुजूर-23 ही सिद्ध हुए।

उनमें से एक आदमी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह कांग्रेस के नए नेतृत्व की बात छेड़ता। सोनिया गांधी का रवैया तो प्रशंसनीय है ही और उनके बेटे राहुल गांधी को मैं दाद देता हूं कि उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद छोड़ दिया लेकिन मुझे कांग्रेसियों पर तरस आता है कि उनमें से एक भी नेता ऐसा नहीं निकला, जो खम ठोककर मैदान में कूद जाता। वह कैसे कूदे? पिछले 50-55 साल में कांग्रेस कोई राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है। वह पोलिटिकल पार्टी की जगह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है।उसमें कई अत्यंत सुयोग्य, प्रभावशाली और लोकप्रिय नेता अब भी हैं लेकिन वे नेशनल कांग्रेस (एनसी) याने नौकर-चाकर कांग्रेस’ बन गए हैं। मालिक कुर्सी खाली करने को तैयार हैं

लेकिन नौकरों की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वे उस पर बैठ जाएं। उन्हें दरी पर बैठे रहने की लत पड़ गई है। यदि कांग्रेस का नेतृत्व लंगड़ा हो चुका है तो उसके कार्यकर्ता लकवाग्रस्त हो चुके हैं। कांग्रेस की यह बीमारी हमारे लोकतंत्र की महामारी बन गई है। देश की लगभग सभी पार्टियां इस महामारी की शिकार हो चुकी हैं।भारतीय मतदाताओं के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट प्रांतीय पार्टियों को जाते हैं। ये सब पार्टियां पारिवारिक बन गई हैं। कांग्रेस चाहे तो आज भी देश के लोकतंत्र में जान फूंक सकती है। देश का एक भी जिला ऐसा नहीं है, जिसमें कांग्रेस विद्यमान न हो। देश की विधानसभाओं में आज भाजपा के यदि 1373 सदस्य हैं तो कांग्रेस के 692 सदस्य हैं।                                                     लेकिन पिछले साढ़े छह साल में कांग्रेस 49 चुनावों में से 39 चुनाव हार चुकी है। उसके पास नेता और नीति, दोनों का अभाव है।मोदी सरकार की नीतियों की उल्टी-सीधी आलोचना ही उसका एक मात्र धंधा रह गया है। उसके पास भारत को महासंपन्न और महाशक्तिशाली बनाने का कोई वैकल्पिक नक्शा भी नहीं है। कांग्रेस अब पचमढ़ी की तरह नया चिंतन-शिविरÓ करनेवाली है। उसे अब चिंतन शिविर नहीं, चिंता शिविर करने की जरुरत है। यदि कांग्रेस का ब्रेक फेल हो गया तो भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी कहां जाकर टकराएगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।

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 *मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म के सवाल पर अदालत में..

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 रूस पर प्रतिबंधों का मकडज़ाल

अब खत्म हो यूक्रेन-संकट

वेद प्रताप वैदिक –

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के इस दावे का यूक्रेन ने खंडन कर दिया है कि रूस-यूक्रेन वार्ता में कुछ प्रगति हुई है। इधर तुर्की में रूस और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों के बीच पिछले तीन दिनों से बराबर संवाद चल रहा है। जब यूक्रेन पर रूस का हमला शुरु हुआ था तो ऐसा लग रहा था कि दो-तीन दिन में ही झेलेंस्की-सरकार धराशायी हो जाएगी और यूक्रेन पर रूस का कब्जा हो जाएगा लेकिन दो हफ्तों के बावजूद यूक्रेन ने अभी तक घुटने नहीं टेके हैं। उसके सैनिक और सामान्य नागरिक रूसी फौजियों का मुकाबला कर रहे हैं। इस बीच सैकड़ों रूसी सैनिक मारे गए हैं और उसके दर्जनों वायुयान तथा अस्त्र-शस्त्र मार गिराए गए हैं। यूक्रेनी लोग भी मर रहे हैं और कई भवन भी धराशायी हो गए हैं। यूक्रेन का इतना विध्वंस हुआ है कि उससे पार पाने में उसे कई वर्ष लगेंगे। अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र उसकी क्षति-पूर्ति के लिए करोड़ों-अरबों डॉलर दे रहे हैं। रूसी जनता को भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस हमले को पूतिन इतना लंबा क्यों खींच रहे हैं? जब झेलेंस्की ने नाटो से अपने मोहभंग की घोषणा कर दी है और यह भी कह दिया है कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा तो फिर अब बचा क्या है? पूतिन अब भी क्यों अड़े हुए हैं? शायद वे चाहते हैं कि नाटो के महासचिव खुद यह घोषणा करें कि यूक्रेन को वे नाटो में शामिल नहीं करेंगे। इस झगड़े की जड़ नाटो ही है। नाटो के सदस्य यूक्रेन की मदद कर रहे हैं, यह तो अच्छी बात है लेकिन वे अपनी नाक नीची नहीं होना देना चाहते हैं। उन्हें डर है कि यदि नाटो ने अपने कूटनीतिक हथियार डाल दिए तो उसका असर उन राष्ट्रों पर काफी गहरा पड़ेगा, जो पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के हिस्सा थे। लेकिन अमेरिका और नाटो अब भी संकोच करेंगे तो यह हमला और इसका प्रतिशोध लंबा खिंच जाएगा, जिसका बुरा असर सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यूरोपीय राष्ट्रों को अभी तक रूसी गैस और तेल मिलता जा रहा है। उसके बंद होते ही उनकी अर्थव्यवस्था लंगड़ाने लगेगी। एशियाई और अफ्रीकी राष्ट्र भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। जहां तक रूस का सवाल है, उसकी भी दाल पतली हो जाएगी। पूतिन के खिलाफ रूस के शहरों में प्रदर्शन होने शुरु हो गए हैं। प्रचारतंत्र पर तरह-तरह के प्रतिबंध लग गए हैं। पूतिन ने यूक्रेन में युद्धरत आठ कमांडरों को बर्खास्त कर दिया है। पूतिन को यह समझ में आ गया है कि यूक्रेन पर रूसी कब्जा बहुत मंहगा पड़ेगा। कीव में थोपी गई कठपुतली सरकार ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। खुद पूतिन की लोकप्रियता को रूस में धक्का लगेगा। यूक्रेन में होनेवाली फजीहत का असर मध्य एशिया के गणतंत्रों के साथ रूस के संबंधों पर भी पड़ेगा। यूक्रेनी संकट के समारोप का यह बिल्कुल सही समय है। रूसी और अमेरिकी खेमों, दोनों को अब यह सबक सीखना होगा कि एक फर्जी मुद्दे को लेकर इतना खतरनाक खेल खेलना उचित नहीं है।

 

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मोदी मैजिक व कांग्रेसी चूक ने जमाया केसरिया रंग

दिनेश जुयाल –

एक हाथ में गरीबों के लिए राशन की थैली, दूसरे में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का मिक्स्चर, वाणी में देवभूमि की आराधना… उत्तराखंड में मोदी मैजिक इस बार कुछ इस रूप में था। पिछले राज के पहले सीएम त्रिवेंद्र सिंह की बेअंदाजी, उल्टे-सीधे फैसले और तीरथ सिंह के अनाड़ीपन ने जो जबरदस्त सत्ता विरोधी रुझान बनाया था उसके जहर को काटने के लिए ये जादू कारगर साबित हुआ। वैसे कांग्रेस के बुजुर्ग क्षत्रप हरीश रावत भी श्रेय के हकदार हैं। फिर से सीएम बनने की जिद में अपने आगे किसी को खड़ा नहीं होने दिया। कांग्रेस की दिल्ली भी समझ रही थी कि बुजुर्गवार इस बार नैया डुबो सकते हैं लेकिन उन्होंने बड़े ही भावुक अंदाज में ऐसी सौदेबाजी की कि इधर कुआं उधर खाई वाली कहानी बना कर ही माने। भारी बहुमत से भाजपा लगातार दूसरी बार सत्ता में लौट रही है। बसपा को सीट मिली लेकिन वोट पिछली बार जितने भी नहीं, आम आदमी पार्टी कुछ नहीं कर पाई। निर्दलीयों की सौदेबाजी की गुंजाइश नहीं बची। भाजपा के सारे अवगुण हर की पौड़ी में धुल गए हैं। सीएम फेस कांग्रेस और आप का ही नहीं, भाजपा का भी पिट गया। यहां का मुख्यमंत्री वैसे भी 22 साल से दिल्ली से तय होकर आता है। अब कौनÓ का जवाब भी जल्द मिलेगा।कुछ एक्जिट पोल विशेषज्ञों के अलावा, सारे चुनावी विश्लेषक, ग्राउंड रिपोर्ट लिखने वाले और एनालिस्ट भी हार गए। भाजपा का अपना खुफिया एक्जिट पोल भी फेल। उत्तराखंड में मोदी पास हो गए, वह भी विशेष योग्यता के साथ। मोदी के जादू ने उत्तराखंड में सत्ता की सवारी बारी-बारी’ के मिथक को भी तोड़ दिया लेकिन एक मिथक नहीं टूटा कि सीएम दुबारा नहीं जीतता।14 फरवरी को वोट पडऩे के बाद एक के बाद एक भाजपा के चार विधायक बोले, हम तो हार रहे हैं और हमें पार्टी अध्यक्ष हरा रहे हैं। कुछ और आवाजें ऐसी ही आईं तो लगा भाजपा तो गई। तभी पोस्ट पोल अपनी खास भूमिका निभाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की उत्तराखंड में एंट्री हुई और वह निशंक के साथ बसपा और जीतने की क्षमता वाले निर्दलीयों को साधने लगे। वहीं कांग्रेस ने अपना रेवड़ बचाने के लिए छत्तीसगढ़ से भूपेश बघेल की मदद मांगी और राजस्थान में मुख्यमंत्री गहलोत साहब को विधायकों की सेवा के लिए तैयार रहने को कहा। हरदा यानी अपने हरीश रावत कभी अपनी आने वाली सरकार की प्राथमिकताएं गिनाने तो कभी अपनी विजय की पूर्व-घोषणा करने के लिए मीडिया को दर्शन देते रहे। पार्टी देना तो उन्हें अच्छा लगता है। कुछ नहीं तो सड़क किनारे टिक्की तलते हुए ही अपनी खुशी बांटते रहे। उत्तराखंड के दो पत्रकारों ने यहां के बाकी पत्रकारों को जोड़ कर दो एक्जिट पोल अलग से किए। सब कांग्रेस को बढ़त दे रहे थे। तो हरदा के लिए खुश होने के तमाम कारण थे। गांव-गांव में महिला मंगल दलों को चंदा तो कांग्रेस ने भी दिया, वे गई भी उत्साह से थीं। पुरुषों से दो फीसदी अधिक वोट करने वाली इन संगठित महिलाओं ने कुछ और ही सोच रखा था। हरक सिंह जैसे बेजोड़ खर्चीले कांग्रेसियों का सोमरस भी तो सबने पिया लेकिन सुबह जब नहा-धोकर वोट करने निकले तो उसका असर गायब था।हरदा फैक्टर की बात करें तो उन्होंने पहले सीएम फेस की लड़ाई लड़ी फिर सीएम बनने की जुगत में ऐसी फौज सजाई कि मोदी जी के लिए किला भेदना आसान हो गया। रामनगर से रणजीत सिंह को सल्ट भगा कर ही माने। रामनगर वालों ने हाथ खड़े कर दिए तो लालकुआं के कुएं में जाकर खुद भी डूब गए। इधर सल्ट और रामनगर की जीती हुई-सी सीटें भी गई। नैनीताल सीट भाजपा से लौटे यशपाल आर्य के नाम कर उसे भी गंवा दिया। हरक सिंह को आखिरी वक्त में एंट्री तो दे दी लेकिन चुनाव नहीं लडऩे दिया। मुस्लिम यूनिवर्सिटी खोलने जैसी घोषणा कर नया विवाद खड़ा कर दिया। अब भाजपा की इससे अधिक मदद क्या कर सकते थे। अब घर बैठेंगे जैसा कि उन्होंने वचन दिया है।पिछले 22 साल में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए यहां की सदाबहार म्यूजिकल चेयर रेस में पिछली बार कुछ ज्यादा ही रंग दिखे थे। सत्ता की हनक के नमूने भी जनता ने गजब देखे। हालात ऐसे हो गए कि भाजपा को एक टर्म में तीन मुख्यमंत्रियों को आजमाना पड़ा। पिछले 22 साल में राज्य सरकार की इतनी किरकिरी कभी नहीं हुई। मुख्यमंत्री धामी की हार के बाद एक बार फिर ये तमाशा होगा। 21 साल में 11 मुख्यमंत्री देने वाले उत्तराखंड की नई विधानसभा में मदन कौशिक और सतपाल महाराज के अलावा कितने सीएम फेस हैं अभी पता नहीं। अनिल बलूनी जैसे कुछ दिल्ली में भी बैठे हैं और लंबे समय से जुगाड़ भिड़ा रहे हैं। हां, हरक सिंह के कांग्रेस में जाने से कुर्सी-खींच वाले खेल की रौनक कुछ कम रहेगी। वह अपनी बहू को विधायक बनाने के फेर में खुद भी किनारे हो गए। हो सकता है फिर माफीनामा तैयार कर भाजपाई साफा पहन कर खेल करें। मंत्री बनने के लिए भी यहां खूब रूसा-रूसी होती है। अब पर्यवेक्षकों पर जिम्मेदारी पडऩे वाली है। उत्तराखंड पर 2024 से पहले मोदी जी कितनी कृपा बरसाते हैं, यह भी देखना दिलचस्प होगा।

चला बुल्डोजर’ मंत्र, सपा गई चूक

अतुल सिन्हा –

उत्तर प्रदेश में डबल इंजन’ और बुल्डोजर’ का मंत्र कुछ इस कदर सिर चढ़कर बोला कि विपक्षी गठबंधन के सपने चकनाचूर हो गए। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग पूरी तरह फेल हुई तो प्रियंका गांधी का लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का जबरदस्त अभियान फ्लॉप’ हो गया। बेशक समाजवादी पार्टी एक मजबूत विपक्ष बनकर जरूर उभरने में कामयाब रहा। अगर आपने अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी के अभियानों और सभाओं की भीड़ देखी होगी और खासकर अखिलेश यादव के हौसले देखे होंगे तो यह मानना मुश्किल हो रहा होगा कि आखिर नतीजे ऐसे कैसे आ गए। लेकिन भाजपा की जो कार्यशैली रही है और जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर तमाम दिग्गज नेताओं ने खुद को यूपी पर केन्द्रित किया है, उससे ये नतीजे बहुत हैरत नहीं पैदा करते।दरअसल, पिछले कई सालों से यूपी की सियासत एक खास दिशा में चलती रही है और अगर आप भाजपा की रणनीतियों पर गौर करें तो उसका सबसे बड़ा रणक्षेत्र यही प्रदेश रहा है। बेशक राम मंदिर और अयोध्या अब विवादास्पद या चुनावी मुद्दा न रहा हो, लेकिन मंदिर की राजनीति और हिन्दुत्व की प्रयोगशाला में भाजपा ने इस प्रदेश में अपनी पुख्ता ज़मीन ज़रूर तैयार कर ली है। उसे सबसे बड़ा फायदा अगर मिला है तो वह है यहां के बिखरे हुए और कमज़ोर विपक्ष का। सपा के दागदार अतीत और बसपा की लगातार कमजोर होती ज़मीन, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बदहाली और इन तमाम पार्टियों से लोगों का तेजी से मोहभंग, भाजपा के लिए हमेशा से फायदेमंद रहा है।बतौर विपक्ष अगर देखें तो इस बार समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर से खड़े होने की कोशिश जरूर की है। चुनाव से पहले के गठबंधन की जो रणनीति बनी थी बेशक उस पर कई सवाल अब उठेंगे और उसकी खामियों का भी विश्लेषण जरूर होगा। लेकिन इतना तो जरूर है कि जब विपक्ष इतने खेमों में बंटा हो और सबके अपने-अपने अहंकार हों तो भला आप भाजपा जैसी पार्टी को सत्ता से कैसे उखाड़ सकते हैं। यूपी के चुनावी गणित कम पेचीदा नहीं हैं। जातिगत आधार पर देखें या धर्म-संप्रदाय के आधार पर, यहां मुख्य मुद्दे हर बार कहीं न कहीं गुम हो जाते हैं और वोटों का ध्रुवीकरण इन आपसी बयानबाजियों और आरोपों-प्रत्यारोपों के भावनात्मक जाल में उलझ कर रह जाता है।यूपी में जिस विपक्ष को कोरोना में सरकार की नाकामी, महंगाई, बेरोजग़ारी, किसानों की समस्या, छुट्टा पशु से त्रस्त किसान, लखीमपुर कांड या महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे अहम लग रहे थे, वहीं भाजपा के लिए इनकी कोई अहमियत नहीं थी। विपक्ष लगातार लोगों में ये अवधारणा बनाने की कोशिश करता रहा कि योगी सरकार तमाम मोर्चों पर नाकाम रही है, वहीं योगी और उनकी टीम डबल इंजन, विकास की गाथाएं, सरकारी योजनाओं के लाभ को अंतिम आदमी तक पहुंचाने के साथ गुंडों, दंगइयों पर बुल्डोजर चलाने के साथ-साथ वाराणसी, अयोध्या और अन्य धर्मस्थलों के कायाकल्प की बात करते रहे। बेशक उनके लाभार्थियों ने उनकी बात सुनी और उन्हें दोबारा मौका दे दिया।लेकिन अब ये अहम सवाल है कि क्या इन नतीजों की रोशनी में हमें सपा या विपक्ष को एकदम कमजोर या असरहीन मान लेना चाहिए? क्या इसे 2024 में मोदी को वॉकओवर देने वाले नतीजे के तौर पर देखा जाना चाहिए? या फिर इससे सीख लेकर विपक्ष को नए और धारदार तरीके से अपनी रणनीति तैयार करने के तौर पर देखा जाना चाहिए। बेशक भाजपा ने यूपी में इतिहास रचा है। पहली बार प्रदेश में कोई सरकार दोबारा बनी है। इसने कई मिथक भी तोड़े हैं लेकिन पिछली बार की तुलना में देखें तो अखिलेश यादव की सपा को भी लोगों ने नकारा नहीं है। पिछली बार जहां विपक्ष सत्ता पक्ष के आगे कहीं नहीं ठहरता था, वहां इस बार वह एक मजबूत ताकत के तौर पर जरूर उभरा है।कांग्रेस को जरूर आत्ममंथन करने की जरूरत है कि आखिर उनकी स्टार महासचिव और लोगों से सीधा कनेक्ट करने वाली, भावनात्मक तौर पर जुडऩे की कोशिश करने वाली प्रियंका गांधी को भी लोगों ने क्यों ठुकरा दिया और क्यों अब कांग्रेस का वजूद इस नई पीढ़ी के नेतृत्व में लगातार खतरे में पड़ता दिख रहा है। अगर अब भी कांग्रेस अपने नेतृत्व में बदलाव और संगठन की खामियों को लेकर गंभीर नहीं हुई तो आने वाले कुछ राज्यों के चुनावों के साथ-साथ 2024 में उसकी हालत और खस्ता हो सकती है। यूपी तो एक बानगी भर है।मायावती की सोशल इंजीनियरिंग अब आम लोगों को या उनके तथाकथित वोट बैंक को कमरे में बंद होकर नहीं पसंद आ रही। न तो उनमें वो धार बची, न सियासत करने का वो जज्बा। ऊपर से उनके भाजपा के साथ दोस्ताना रिश्तों की चर्चा और आने वाले वक्त में उपराष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा। अब पता नहीं भाजपा के साथ भीतर ही भीतर उनकी क्या बात’ हुई कि उन्होंने पूरी पार्टी को ही दांव पर लगा दिया।ऐसे में अब भी अगर यूपी के लोगों के लिए उम्मीद की कोई किरण हैं तो वे थोड़े-बहुत अखिलेश यादव ही हैं। बेशक इस बार अखिलेश यादव ने अपने गठबंधन और प्रत्याशियों के चयन में कई रणनीतिक गलतियां कीं, जिसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। सपा के दागदार इतिहास को दोहराते हुए उन्होंने एक बार फिर ऐसे ही कई दागदार उम्मीदवार उतारने की गलती की। अपने सहयोगियों में न तो राष्ट्रीय लोकदल को सही प्रतिनिधित्व दे पाए और चाचा शिवपाल यादव को खुश करने के चक्कर में अपने ही कुछ लोगों को नाराज होने से भी नहीं बचा पाए। इससे कम से कम उन्हें पचास सीटों का नुकसान तो हुआ ही। जाहिर है ये सपा की अंदरूनी चिंता का विषय है और अखिलेश की टीम इसकी समीक्षा करेगी।लेकिन फिलहाल तो अगले पांच साल एक बार फिर योगी आदित्यनाथ और भाजपा के खाते में चले गए। जाहिर है हर पार्टी अपनी हार की रणनीतिक खामियों की समीक्षा करेगी, कुछ समय बाद फिर से उठ खड़ी भी होगी, कुछ का मोहभंग होगा तो कुछ फिर से सत्ताधारी पार्टी की तरफ दौड़ लगाएंगे लेकिन सियासत में जंग कभी खत्म नहीं होती। खुद को फिर से स्थापित करने की कोशिश और सत्ता के दांवपेंच कभी कम नहीं होते। फिलहाल, यूपी में जश्न का माहौल है। भाजपा की जबरदस्त कामयाबी के बीच अब सबकी निगाह साल 2024 के इंतजार में है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

चुनावी मुद्दा नहीं बनता नदियों का जीना-मरना

कृष्ण प्रताप सिंह –

पहले चुनाव आते थे तो आम लोगों के रोटी, कपड़ा और मकान कहें या उनके जीवन निर्वाह से जुड़े मुद्दों पर सार्थक चर्चाएं हुआ करती थीं। पार्टियां व प्रत्याशी मतदाताओं को इन मुद्दों से जुड़ा अपना नजरिया व नीतियां समझाते नहीं थकते थे। साथ ही अपीलें करते थे कि मतदाता बूथों पर जायें तो किसी के बहकावे में न आयें और इन मुद्दों के आधार पर ही वोट दें। लेकिन अब चुनाव आते हैं, तो जान-बूझकर ऐसे मुद्दों को हाशिये में डालकर कुछ बहकाने वाले मुद्दों को आगे ला दिया जाता है और सारी बहसें उन्हीं के इर्द-गिर्द केंद्रित कर दी जाती हैं। ताकि मतदाताओं की जातियां व धर्म आगे आ जायें और उनके कौआ रोर में किये जाने वाले इमोशनल अत्याचार से वे इतने त्रस्त हो जायें कि अपनी जाति’ व अपने धर्म’ से आगे सोच ही न सकें। फिर उन्हीं के आधार पर सरकार चुन लें और फुरसत से पश्चाताप करते रहें।इन विधानसभा चुनावों में इसकी सबसे बड़ी नजीर यह है कि पंजाब में पीने के पानी के जहरीले हो जाने की जटिल होती जा रही समस्या वहां मतदान के दिन तक मुद्दा नहीं बन पाई। यह तब था, जब कभी पांच नदियों के पानी के लिए जाने जाने वाले इस प्रदेश में जहरीला पानी पीने की मजबूरी के शिकार अनेक नागरिक कैंसर से पीडि़त होकर त्रासद मौतों के शिकार हो रहे हंै। जब यह समस्या मुद्दा ही नहीं बन पाई तो इसी पर चर्चा क्यों होती। दरअसल, बीती शताब्दी के सातवें दशक में हरित क्रांति लाने की कोशिशों के दौरान अत्यधिक अनाज उगाने के लिए अपनाई गई कृषि पद्धति रासायनिक उर्वरकों पर कुछ ज्यादा ही निर्भर है। और अब वह अपना विकल्प तलाशे जाने की मांग करती है। इसी तरह मानव जीवन की रेखा कही जाने वाली नदियों से उनका ही जीवन छीन लेने पर आमादा प्रदूषण न सत्तापक्ष के लिए चुनाव का कोई मुद्दा है, न ही विपक्षी दलों के लिए। भले ही नदियां न केवल लोगों की प्यास बुझाती आई हों, बल्कि उनकी आजीविका का माध्यम भी हों। साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र और भूजल के स्तर को बनाए रखने में भी बड़ा योगदान देती हों। एक जानकार के शब्द उधार लें तो आज जो नदियां मैल व गन्दगी ढोने को अभिशापित हैं, वे धरती पर अपने अवतरण के वक्त से ही जीवन बांटती आई हैं। खास तौर पर मनुष्य का जीवन-मरण किस तरह नदियों पर निर्भर है, इसे यों समझ सकते हैं कि मनुष्य के मरणोपरांत उसके शारीरिक अवशेष भी नदियों में बहाए जाते हैं। ऐसे में कायदे से होना तो यह चाहिए था कि लगातार बढ़ते जा रहे प्रदूषण के कारण अस्तित्व के खतरे झेल रही नदियों और उनके बहाने मानव जीवन को पैदा हो रहे अंदेशों पर भरपूर चर्चा होती। इस कारण और कि इंग्लैंड की यॉर्क यूनिवर्सिटी द्वारा दुनिया भर की नदियों में दवाओं के अंशों का पता लगाने के लिए हाल में ही किये गये शोध से खुलासा हुआ है कि अब नदियों के जल के लिए पैरासिटामोल, निकोटिन व कैफीन के अलावा मिर्गी और मधुमेह आदि की वे दवाएं भी खतरा बनती जा रही हैं, जिनके अंश लापरवाही से नदियों के हवाले कर दिये जा रहे हंै। किसी एक देश में नहीं, प्राय: दुनिया भर में। अमेरिका की प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा प्रकाशित की गई इस शोध की रिपोर्ट में इस स्थिति को पर्यावरण के साथ ही मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक बताया गया है। यॉर्क यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने इस शोध के लिए 104 देशों में नदियों की शहरों व कस्बों के नजदीक बहने वाली 1,052 साइटों से उनके पानी के नमूने एकत्रित किये और उनमें सक्रिय 61 दवाओं के अंशों (एपीआई) का परीक्षण किया, तो पाया कि दवा निर्माण संयंत्रों से निकले दूषित जल, बिना उपचार के सीवेज के पानी, शुष्क जलवायु और कचरा निपटान के तरीके का नदियों के पानी को प्रदूषित करने में योगदान लगातार बढ़ रहा है। हां, जिन देशों में आधुनिक दवाओं का इस्तेमाल कम होता है या उनके अंशों के अत्याधुनिक दूषित जल उपचार का ढांचा और नदियों में पर्याप्त बहाव है, वहां वे दवा प्रदूषण से अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।दवाओं से नदी जल प्रदूषण की समस्या इसलिए भी जटिल हो रही है क्योंकि ज्यादातर देशों में दवा उद्योग से निकले प्रदूषित जल के निपटान के कानून बने तो हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा। लेकिन अपने देश के सिलसिले में इसकी बात करें तो हम पाते हैं कि अभी इसे लेकर न सरकारें ठीक से सजग हैं और न ही लोग इतने जागरूक कि इसे लेकर सरकारों पर दबाव बना सकें। जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, जब वे चुनावों के वक्त भी ऐसी समस्याओं को चर्चा के केन्द्र में नहीं लाना चाहते तो उनकी वास्तविक मंशा समझने के लिए और कौन से तथ्यों की जरूरत है? बिना जन दबाव के इन दलों को क्या फर्क पड़ता है अगर कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाये जा रहे रसायन, उर्वरक और भूमि कटाव के साथ दवाओं में प्रयुक्त हो रहे रसायन भी नदी जल को दूषित करने वाले कारकों में शामिल हो जायें। इसे लेकर वोट की चोट के बगैर वे क्योंकर समझने लगे कि नदियां महज जल-मार्ग नहीं हैं, वे बरसात की बूंदों को सहजेती हैं और धरती की नमी बनाये रखती है। जलवायु में हो रहे बदलाव में नदियां ही धरती पर जीवन का आधार हैं और उनमें बहता पानी मनुष्य की सांस की सीमा भी तय करता है। सिविल सोसायटी ने अभी भी इसके लिए सत्तातंत्र पर दबाव नहीं बनाया और सब कुछ राजनीतिक दलों व सरकारों की इच्छा और मंशा पर ही छोड़े रखा, तो कौन कह सकता है कि हालात वैसे ही नहीं होंगे, जैसे गंगा की सफाई के मामले में हुए हैं?

रिजर्व बैंक कमेटी की संस्तुति-पूंजी का पलायन रोकने के हों प्रयास

भरत झुनझुनवाला – रिजर्व बैंक कमेटी ने संस्तुति की है कि देश को पूंजी के मुक्त आवागमन की छूट देनी चाहिए। यानी विदेशी निवेशक भारत में स्वच्छंदता से आ सकें और भारतीय निवेशक अपनी पूंजी को स्वच्छंदता से भारत से बाहर ले जाकर निवेश कर सकें, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए। कमेटी का कहना है इसके चार लाभ हैं। पहला यह कि देश में पूंजी की उपलब्धि बढ़ जाएगी। यह सही है कि विदेशी पूंजी का भारत में आना सरल हो जाएगा। जो विदेशी निवेशक भारत में निवेश करेंगे उनके लिए समय क्रम में अपनी पूंजी को निकाल कर अपने देश वापस ले जाना आसान हो जाएगा।

लेकिन यह दोधारी तलवार है। यदि विदेशी निवेशकों के लिए भारत में पूंजी लाना आसान हो जाएगा तो उसी प्रकार भारतीयों के लिए भी अपनी पूंजी को बाहर ले जाना आसान हो जाएगा। रिजर्व बैंक के ही आंकड़े बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में हमारा पूंजी खाता ऋणात्मक रहा है यानी जितनी विदेशी पूंजी अपने देश में आई है उससे ज्यादा पूंजी अपने देश से बाहर गई है।

इससे प्रमाणित होता है कि पूंजी का मुक्त आवागमन विपरीत दिशा में ज्यादा चल रहा है। जैसे दो टंकियों के बीच में एक वॉल लगा हो तो पानी उस तरफ ज्यादा जाएगा जहां पानी का स्तर कम होगा। इसी प्रकार विदेशी और भारतीय पूंजी के बीच में वॉल को खोल दें तो किस तरफ पूंजी का बहाव होगा यह इस पर निर्भर करेगा कि पूंजी का आकर्षण किस तरफ अधिक है।

कमेटी का दूसरा कथन है कि पूंजी के मुक्त आवागमन से अपने देश में पूंजी की लागत कम हो जाएगी और ब्याज दर कम हो जाएगी। लेकिन रिजर्व बैंक के ही आंकड़े इसी के विपरीत खड़े हैं जो कि बता रहे हैं हमारा पूंजी खाता ऋणात्मक है यानी पूंजी बाहर जा रही है और जिसके कारण अपने देश में पूंजी का मूल्य बढ़ रहा है, घट नहीं रहा है। कमेटी ने तीसरा तर्क दिया है कि पूंजी के मुक्त आवागमन से भारतीय कंपनियों द्वारा लिए जाने वाले लोन का विविधीकरण हो जाएगा।

जैसे किसी कंपनी को यदि फैक्टरी लगानी हो तो कुछ पूंजी वह भारतीय बैंक से लेंगे, कुछ विदेशी बैंक से लेंगे, कुछ विदेशी निवेशकों से लेंगे। इस प्रकार उनके ऊपर जो लोन का भार है वह किसी एक स्रोत पर निर्भर होने के स्थान पर विविध स्रोतों पर बंट जाएगा और ज्यादा टिकाऊ होगा। यह बात सही है। कई कंपनियों ने हाल ही में विदेशी पूंजी का लोन लिया भी है।

लेकिन जितना इन्होंने लिया है उससे ज्यादा बाहर भी गया है इसलिए यह विविधीकरण कंपनियों के लिए लाभप्रद रहा हो सकता है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ हो, ऐसा नहीं दिखता है। कमेटी के अनुसार चौथा लाभ भारतीय निवेशकों के लिए निवेश का विविधीकरण है। भारतीय निवेशक विदेशी प्रॉपर्टी एवं शेयर बाजार के साथ-साथ भारतीय प्रॉपर्टी एवं शेयर बाजार में निवेश कर सकेंगे।

लेकिन पुन: यह लाभ निवेशक विशेष को होगा। यह देश का लाभ नहीं है क्योंकि जब भारतीय निवेशक अपनी पूंजी को विदेशों में निवेश करते हैं तो भारत की पूंजी बाहर जाती है और भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर होती है।

इन इस दृष्टि से कमेटी के दिए गए तर्क मान्य नहीं हैं।विशेष बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि आपदा के समय विकासशील देशों को पूंजी के मुक्त आवागमन पर रोक लगानी चाहिए। उन्होंने कोरिया और पेरू द्वारा कोविड संकट के दौरान ऐसे प्रतिबंध लगाने का स्वागत किया है। हमें भी इस दिशा पर विचार करना चाहिए। वर्तमान में हमारे सामने एक और संकट है कि अभी तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व बोर्ड ने ब्याज दर शून्य के लगभग कर रखी थी। निवेशकों के लिए लाभप्रद था कि अमेरिका में लोन लेते और भारत में निवेश करते।

लेकिन अब फेडरल रिजर्व बोर्ड ने संकेत दिए हैं कि वे शीघ्र ही ब्याज दरों में वृद्धि करेंगे। यदि ऐसा होता है तो निवेशकों के लिए अपनी पूंजी को भारत से निकालकर अमेरिका ले जाना ज्यादा लाभप्रद हो जाएगा क्योंकि अमेरिका में निवेश को ज्यादा स्थाई और टिकाऊ माना जाता है। इसलिए हमको विचार करना चाहिए कि आखिर हमारी देश से पूंजी का पलायन हो क्यों रहा है।जर्नल ऑफ इंडियन एसोसिएशन ऑफ सोशल साइंस इंस्टिट्यूशन में छपे एक पर्चे के अनुसार, भारत से पूंजी के पलायन के चार कारण हैं।

पहला कारण भ्रष्टाचार का है। यह सही है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्तर पर भ्रष्टाचार में भारी कमी आई है लेकिन यह भी सही है कि जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार में उससे ज्यादा वृद्धि हुई है। इसलिए सरकार को नीचे से भ्रष्टाचार को दूर करने के कदम उठाने चाहिए। दूसरा यह कि सरकारी ऋण ज्यादा होने से निवेशकों को भय होता है कि ऋण की भरपाई करने के लिए आने वाले समय में रिजर्व बैंक नोटों को ज्यादा मात्रा में छापेगा, जिससे देश में महंगाई बढ़ेगी और भारतीय रुपये का अवमूल्यन होगा। तब उनकी पूंजी का मूल्य स्वत: घट जाएगा।

इसलिए सरकारी ऋण की अधिकता से पूंजी का पलायन होता है। वर्तमान में कोविड संकट के कारण ही क्यों न हो फिर भी यह तो सत्य है ही कि अपनी सरकार द्वारा लिए गए ऋण में भारी वृद्धि हुई है। इस परिस्थिति में भारत सरकार को ऋण कम लेना चाहिए। लेकिन इससे निवेश में कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा पुन: आर्थिक विकास की गति में ठहराव आएगा।

इसलिए सरकार को चाहिए कि अपनी खपत को कम करे, जिससे कि सरकार को लोन कम लेने पड़ें और पूंजी का पलायन न हो। तीसरा कारण बताया गया है कि मुक्त व्यापार को अपनाने से भी पूंजी का पलायन होता है। इसका कारण यह दिखता है कि जब हम मुक्त व्यापार को अपनाते हैं तो उद्यमियों के लिए आसान हो जाता है कि अपनी पूंजी को उस देश में ले जाएं जहां पर उत्पादन करना सुलभ हो।

जैसे भारतीय उद्यमी के लिए यह सुलभ हो जाएगा कि वह अपनी फैक्टरी को बांग्लादेश में लगाए और बांग्लादेश में माल का उत्पादन करके भारत को निर्यात कर दे। ऐसे में मुक्त व्यापार के कारण पूंजी का पलायन बढ़ता है।

इसलिए सरकार को चाहिए कि रिजर्व बैंक की कमेटी की रिपोर्ट को अमान्य करते हुए भ्रष्टाचार पर रोक लगाए, सरकारी खपत को घटाए और मुक्त व्यापार को अपनाने के स्थान पर आयात कर बढ़ाये। तब ही अपने देश से पूंजी का पलायन कम होगा और देश की आर्थिक विकास दर बढ़ेगी।

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उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान

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उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान

चेतनादित्य आलोक –
वैसे तो पशुओं से मनुष्य जाति का नाता आरंभ से ही रहा है, लेकिन हमारी सभ्यता में पशुओं का सदा से विशेष स्थान रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने पशुओं को मित्र एवं सहचर मान-समझकर उन्हें अपने जीवन में स्थान प्रदान किया था। हमारी परंपरा में एक ओर गाय को माता मानकर उसकी पूजा-अर्चना करने का विधान है तो दूसरी ओर हमारे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के अतिरिक्त गणेश, दुर्गा, इंद्र एवं यमराज समेत विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा पशुओं को अपने वाहन बनाकर उन्हें प्यार और सम्मान देने के प्रमाण भी मौजूद हैं। उल्लेखनीय है कि हमारी संस्कृति ने केवल पालतू पशुओं से ही नहीं, बल्कि हिंस्र एवं विषैले जानवरों समेत तमाम जीव-जगत से प्रेम और करुणापूर्ण व्यवहार करने की शिक्षाएं दी हैं। यही कारण है कि पंचतंत्र समेत हमारे तमाम प्राचीन ग्रंथों एवं धार्मिक आख्यानों में पशुओं और मनुष्यों के सहजीवन एवं उनकी मित्रता की कहानियां भरी पड़ी हैं। हमारे आधुनिक हिन्दी साहित्य में भी मनुष्य के साथ पशुओं की मित्रता एवं उनके बीच के सहजीवन के महत्व को बखूबी दर्शाया गया है। प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ शीर्षक कहानी एवं बांग्ला के महान लेखक शरतचंद्र की प्रसिद्ध कहानी ‘महेश’ को कैसे भुलाया जा सकता है?
बहरहाल, विश्वभर में हो रही बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि एवं विकास के नाम पर वनों के विनाश तथा वन्यजीवों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचारों के कारण संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘विश्व वन्यजीव दिवस’ मनाये जाने की घोषणा 20 दिसंबर, 2013 को की, जिसके बाद प्रत्येक वर्ष 3 मार्च को इसका आयोजन किया जाने लगा। बहरहाल, भारत सरकार की ओर से संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दिसंबर, 2018 में प्रस्तुत छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय वन्य जीवों की 900 से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां लुप्तप्राय एवं संकटग्रस्त श्रेणियों में शामिल हैं। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ नामक पुस्तक में संकटग्रस्त एवं लुप्तप्राय वन्य जीवों की 1180 प्रजातियों का वर्णन चिंतित करने वाला है। वैसे एशियाई शेरों, दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाये जाने वाले विशेष छछूंदरों, दलदली क्षेत्रों में पाये जाने वाले बारहसिंगा हिरण एवं मालाबर गंधबिलाव की स्थिति भी दयनीय है। मालाबर गंधबिलाव अब महज कुछ सैकड़ों की संख्या में मौजूद हैं। वहीं एशियाई शेर गुजरात के गिर वनों तक सिमट चुके हैं, जबकि बारहसिंगा हिरण अब देश के कुछ वनों में ही पाये जाते हैं।
ऐसे ही कश्मीर में पाये जाने वाले हांगलुओं की संख्या भी अब कुछ सैकड़ों में ही सिमट चुकी है। इसी प्रकार देश में पायी जाने वाले विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ की बात मानें तो भारत में पायी जाने वाली फूलों की 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां आज लुप्तप्राय हो चुकी हैं, जबकि पौधों की लगभग 45 हजार प्रजातियों में से 1336 प्रजातियां भी अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इनके अतिरिक्त वन्य जीवों पर मंडरा रहे खतरों के संदर्भ में यदि बाघों की बात की जाये तो आंकड़ों के अनुसार बाघों की संख्या में हालांकि वृद्धि तो हुई है, लेकिन उनकी हत्याओं का दौर अभी समाप्त नहीं हुआ है और न ही उनके आश्रय-स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ पर रोक लग पायी है। यही कारण है कि बाघ अब नये-नये गलियारे स्वयं ही ढूंढऩे लगे हैं। उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार तो हैडाखाल के अतिरिक्त यहां पिथौरागढ़ के अस्कोट एवं केदारनाथ में भी बाघों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार अब पहाड़ों पर स्थित जंगलों में पलायन करने वाले बाघ अपने नये आश्रय बनाने लगे हैं।
हालांकि, सरकार की मानें तो इस वर्ष देश में पांच नये टाइगर रिजर्वों का निर्माण किये जाने की योजना है। फिलहाल छत्तीसगढ़ के गुरु घासीदास नेशनल पार्क, राजस्थान के रामगढ़ विषधारी अभयारण्य, बिहार के कैमूर वन्यजीव अभयारण्य, अरुणाचल के दिव्यांग वन्यजीव अभयारण्य एवं कर्नाटक के एमएम हिल अभयारण्य को टाइगर रिजर्व के रूप में विकसित करने की सरकार ने स्वीकृति दे दी है। वैसे भारत में वन्य जीव-संरक्षण हेतु समय-समय पर कानून भी बनाये जाते रहे हैं। वर्ष 1956 में संशोधित एवं पारित ‘भारतीय वन अधिनियम’ मूलत: स्वतंत्रता से पूर्व 1927 में ही अस्तित्व में आ गया था। स्वतंत्रता के बाद पहली बार 1983 में ‘राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ बनाकर नेशनल पार्कों एवं अभयारण्यों का निर्माण शुरू किया गया। वैसे इससे पूर्व भी कस्तूरी मृग परियोजना-1970, गिर सिंह परियोजना-1972, बाघ परियोजना -1973, कछुआ संरक्षण परियोजना-1975 जैसी कई परियोजनाओं के माध्यम से वन्य जीवों एवं वनों की सुरक्षा की पहल की गयी थी।
इनके अतिरिक्त, 1987 में गैंडा परियोजना, 1992 में हाथी परियोजना, 2006 में गिद्ध संरक्षण परियोजना एवं 2009 में हिम तेंदुआ परियोजना के माध्यम से भी हमारी सरकारों ने देश में वन्य जीवों एवं वनों की सुरक्षा-संरक्षा करने का कार्य किया है। हालांकि, इस दिशा में किये गये सारे प्रयास कम ही महसूस होते हैं। कदाचित इसका प्रमुख कारण वन्य जीवों एवं वनों के प्रति हमारे भीतर करुणा एवं प्रेम का अभाव है। इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि हम अपने पूर्वजों की शिक्षाओं को पुन: स्वीकार करते हुए हिंस्र एवं विषैले जानवरों समेत तमाम जीव-जगत से प्रेम एवं करुणापूर्ण व्यवहार करें, ताकि सबको जीने का अधिकार मिल सके।

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