संगीत जगत की कोकिला आदरणीय लता दीदी

विकास कुमार –
रंगमंच एवं संगीत की दुनिया से प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। भारत का शास्त्रीय संगीत केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में अपनी अमिट छाप बनाए हुए हैं। भारतवर्ष में बहुत से संगीतकार हुए जिन्होंने अपनी पहचान अपने स्वर संधान के परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया। संगीत को प्रत्येक प्रकार के उत्सव धर्मिता में गायन करने की प्रथा भारतीय समाज में ही नहीं ,अपितु वैश्विक विकसित समाजों में भी इसकी परंपरा स्थापित है। वैवाहिक संबंधों, शैक्षणिक उत्सवों, खेल जगत एवं कोई भी शुभ कार्य करने के लिए विविध प्रकार के संगीत का प्रचलन होता है। संगीत की दुनिया में कोकिला के नाम से प्रसिद्ध आदरणीय लता मंगेशकर दीदी का 92 वर्ष की उम्र में, निधन की खबर केवल भारत के व्यक्तियों को ही नहीं अपितु वैश्विक समुदाय को स्तब्ध कर दिया। इनकी मृत्यु की खबर सुनकर सभी ने यही कहा की दुनिया में अब कोई दूसरी लता नहीं बन सकती है।इनका जन्म 29 सितंबर, 1929 को करहाना ब्राह्मण दादा और गोमतंक मराठा दादी के परिवार में, मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम पंडित दीनानाथ मंगेशकर था जो एक रंगमंच के गायक एवं कलाकार थे। अपने परिवार में एक भाई और चार बहनों में यह सबसे बड़ी थी। जिनमे भाई हृदयनाथ मंगेशकर और बहनों में उषा मंगेशकर, मीना मंगेशकर और आशा भोसले थी। बचपन में ही लता जी का संगीत के और सर्वाधिक रुझान था । इन्होंने नव वर्ष की उम्र में अपने पिता के साथ ‘सौभाद्र’ नाटक में नारद का किरदार निभाया था इस नाटक में उन्होंने पासना बढऩा या मना नाम का गाना गाया था। बचपन से ही इनकी संगीत के क्षेत्र में सर्वाधिक रुचि थी परंतु इनके पिता जी यह नहीं चाहते थे कि वह संगीत के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाएं। इसीलिए लता जी को बचपन में संगीत क्षेत्र से जुडऩे के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रारंभ में छोटे-छोटे काम मिलते थे और छोटी नाट्य शालाओं में गायन करती थी। इनका सर्वाधिक हौसला बढ़ाने का कार्य इनकी बहन आशा भोसले ने किया। यद्यपि जन्म तो इनका इंदौर में हुआ था परंतु बचपन से ही यह महाराष्ट्र में पली बडी। इसलिए संगीत और अभिनय के इनको अवसर प्राप्त होते रहे। 1942 में पिता की मृत्यु के बाद (जब लता सिफऱ् तेरह साल की थीं), लता को पैसों की बहुत किल्लत झेलनी पड़ी और काफी संघर्ष करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की कारण से पैसों के लिये उन्हें कुछ हिन्दी और मराठी फिल्मों में काम करना पड़ा। अभिनेत्री के रूप में उनकी पहली फिल्म पाहिली मंगलागौर (1942) रही, जिसमें उन्होंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्होंने कई फि़ल्मों में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी माँ (1945), जीवन यात्रा (1946), माँद (1948), छत्रपति शिवाजी (1952) शामिल थी। बड़ी माँ, में लता ने नूरजहाँ के साथ अभिनय किया और उसके छोटी बहन की भूमिका निभाई आशा भोंसलेने। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये और आशा के लिये पार्श्वगायन किया।उन्होंने अपना पहला गाना मराठी फिल्म ‘किती हसल’ (1942) के लिए गाया था। इन्होंने 20 से अधिक भाषाओं में 30,000 से अधिक गाने गाए हैं जो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए सर्वाधिक गाए हुए गाने हो सकते हैं। 1980 के बाद से फिल्मों में अधिक गाने नागा कर स्टेज शो की ओर इनका ध्यान आकर्षित हुआ। स्टेज शो में भी इनको खूब लोकप्रियता मिली और दर्शकों ने खूब पसंद किया। इनके द्वारा गाया हुआ गाना ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’ आज भी जब गणतंत्रता दिवस या स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सुना जाता है तब वहां पर खड़े हुए संपूर्ण समुदायों के लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्लासिकल म्यूजिक में लता जी ने ठुमरी राग में अधिक गाने गाए हैं जिसमें ‘नदिया किनारे हेराई आई कंगना’ आदि खूब पसंद किए जाते हैं। लता जी संगीत क्षेत्र की एक मात्र व्यक्तित्व हैं जिनके जीवित में उनके नाम से उसी क्षेत्र में पुरस्कार दिए जाते हैं। यही कारण रहा कि कई विधाओं में तथा संगीत के समस्त क्षेत्रों में उनको विभिन्न प्रकार के पुरस्कारों से नवाजा गया। जिसमें 5 से अधिक (1958,1962,1965,1969,1993, तथा 1994) फिल्म फेयर पुरस्कार, तीन बार (1972,1975, एवं 1990) राष्ट्रीय पुरस्कार, 1969 में पदम भूषण, 1974 में गिनीज बुक रिकॉर्ड, 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, 1993 में फिल्म फेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1996 में स्क्रीन का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1997 में राजीव गांधी पुरस्कार, 2001 में नूरजहां पुरस्कार एवं 2001 में ही भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से उन्हें पुरस्कृत किया गया। लता जी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने संगीत को जिया है। यह धारणा उन समस्त महापुरुषों के लिए अवश्य होती है जो उस क्षेत्र में अपना नाम करते हैं और अपना संपूर्ण जीवन उसी क्षेत्र के लिए न्यौछावर कर देते हैं। छह दशकों में उन्होंने जो नाम और जो काम संगीत के दुनिया के लिए किया है उनके जाने के पश्चात उसकी भरपाई शायद कभी हो सकेगी! इनके जैसे संगीतकार दुनिया में कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। यद्यपि, इनका शरीर इस भौतिक दुनिया में उपस्थित नहीं रहेगा परंतु इनके आवाज के कारण यह दुनिया सदैव इन्हें याद रखेगी और जब भी इनके द्वारा गाए हुए गाने सुने जाएंगे तब यही होगा कि भारत में एक कोकिला ऐसी भी थी। इनकी आवाज सदैव भारतीय संगीत और संगीत प्रेमियों के बीच अमर रहेगी। ऐसे महान व्यक्तित्वों के योगदान सदैव आम जनमानस के बीच प्रेरणात्मक तथ्य बनकर अमर रहते हैं। आने वाली आगामी पीढिय़ां संगीत के क्षेत्र में आदरणीय लता दीदी से सदैव प्रेरणा लेती रहेंगी और याद करेंगे की एक संगीत के क्षेत्र में ऐसी भी गायिका थी।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट है)

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