मोदी के आठ साल

वेद प्रताप वैदिक – मोदी के आठ साल. पिछले 75 साल में भारत में 14 प्रधानमंत्री हुए। उनमें से पांच कांग्रेसी थे और 9 गैर-कांग्रेसी हुए। इन गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों में यदि सबसे लंबा कार्यकाल किसी प्रधानमंत्री को अभी तक मिला है तो वह नरेंद्र मोदी को ही मिला है। उन्होंने आठ वर्ष पूरे कर लिए हैं और अपनी शेष अवधि पूरी करने में भी उन्हें कोई आशंका नहीं है। यह भी असंभव नहीं कि वे लगातार तीसरी अवधि भी पूरी कर डालें। यदि ऐसा हुआ तो जवाहरलाल नेहरु के बाद वे ऐसे पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे, जो लगातार सर्वाधिक अवधि वाले प्रधानमंत्री कहलाएंगे।
भारतीय लोकतंत्र के विपक्ष की यह बड़ी उपलब्धि होगी। हमारे कई पड़ौसी देशों में भी इतने लंबे समय तक राज करने वाले नेता नहीं हुए हैं। लेकिन मूल प्रश्न या सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह नहीं है कि आप कितने साल तक गद्दी पर बैठे रहे? उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि आपने अपने राष्ट्रोत्थान के लिए बुनियादी काम किए या नहीं? आपने क्या ऐसे काम भी किए हैं, जिन्हें इतिहास याद रखेगा?

इंदिरा गांधी ने आपात्काल लगाने की भयंकर भूल की लेकिन उन्हें याद किया जाएगा— परमाणु-परीक्षण, सिक्किम के विलय, पंजाब पर नियंत्रण और सबसे ज्यादा बांग्लादेश के निर्माण के लिए! उनके ‘गरीबी हटाओÓ का नारा सिर्फ चुनाव जीतने का हथकंडा बनकर रह गया लेकिन उनकी कार्यप्रणाली कुछ ऐसी रही कि भारत के लगभग सारे राजनीतिक दल उनकी देखादेखी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों में बदल गए हैं। अब क्या नरेंद्र मोदी इस ढर्रे को बदल पाएंगे या और अधिक मजबूत करके छोड़ जाएंगे? इस ढर्रे पर चलकर पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की बलि तो चढ़ती ही है, राष्ट्रीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा पैदा हो जाता है।

इसी तरह भारत की आर्थिक प्रगति भी सभी प्रधानमंत्रियों के काल में लंगड़ाती रही है। जो चीन अब से 50 साल पहले हमसे पीछे था, उसकी आर्थिक शक्ति हम से 5 गुना ज्यादा हो गई है। कहां वह और कहां हम? विश्व गुरु गुड़ चूस रहा है और चेला शक्कर के मजे ले रहा है। पिछले आठ साल में मोदी सरकार ने आम आदमियों को राहत देने के अदभुत और अपूर्व काम किए हैं। उन सबको यहां गिनाना संभव नहीं है लेकिन ये तो तात्कालिक सुविधाएं हैं।

धारा—370 और तीन तलाक को खत्म करना तो सराहनीय है लेकिन देश में एक समान आचार संहिता का निर्माण, जातिवाद का उन्मूलन और अंग्रेजी के वर्चस्व को घटाना, यह भी उतना ही जरुरी है। असली प्रश्न यह है कि शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के मामले में क्या कोई बुनियादी काम पिछले आठ साल में हुआ है? नौकरशाहों के दम पर आप राहत की राजनीति तो कर सकते हैं लेकिन क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए आपके पास अपनी मौलिक दृष्टि भी होनी चाहिए या दृष्टिसंपन्न लोगों के साथ नम्रतापूर्वक संवाद करने की कला भी आपके पास होनी चाहिए।

विदेश नीति के क्षेत्र में भी भारत कई नए बुनियादी कदम उठा सकता था, लेकिन न तो अभी तक वह पड़ौसी राष्ट्रों के संघ-दक्षेस- को ठप्प होने से रोक सका और न ही उसके पास कोई ऐसी विराट दृष्टि दिख रही है, जिसके चलते वह पुराने आयावर्त्त के डेढ़ दर्जन राष्ट्रों का कोई संघ खड़ा कर सके। महाशक्तियों से उसके संबंध काफी संतुलित हैं लेकिन भारत स्वयं कैसे महाशक्ति बने, इस दिशा में भी ठोस प्रयत्नों की जरुरत है।

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रेत-समाधि : बधाई लेकिन ?

वेद प्रताप वैदिक – गीताजंलि श्री के उपन्यास ‘रेत-समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम्ब ऑफ सेन्ड’ को बुकर सम्मान मिलने पर हिंदी जगत का गदगद होना स्वाभाविक है। मेरी भी बधाई। मूल अंग्रेजी में लिखे गए कुछ भारतीय उपन्यासों को पहले भी यह सम्मान मिला है। लेकिन किसी भी भारतीय भाषा के उपन्यास को मिलने वाला यह पहला सम्मान है। लगभग 50 लाख रु. की यह सम्मान राशि उसकी लेखिका और अनुवादिका डेजी रॉकवेल के बीच आधी-आधी बटेगी। इतनी बड़ी राशिवाला कोई सम्मान भारत में तो नहीं है। इसलिए भी इसका महत्व काफी है।

वैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में इतने उत्कृष्ट उपन्यास लिखे जाते रहे हैं कि वे दुनिया की किसी भी भाषा की कृतियों से कम नहीं हैं लेकिन उनका अनुवाद अपनी भाषाओं में ही नहीं होता तो विदेशी भाषाओं में कैसे होगा? भारतीय भाषाओं में कुल मिलाकर जितनी रचनाएं प्रकाशित होती हैं, उतनी दुनिया के किसी भी देश की भाषा में नहीं होतीं। इसीलिए पहले तो भारत में एक राष्ट्रीय अनुवाद अकादमी स्थापित की जानी चाहिए, जिसका काम भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ ग्रंथों का सिर्फ आपसी अनुवाद प्रकाशित करना हो।

इस तरह के कुछ उल्लेखनीय अनुवाद-कार्य साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और कुछ प्रादेशिक संस्थाएं करती जरुर हैं। उस अकादमी का दूसरा बड़ा काम विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को भारतीय भाषाओं में और भारतीय भाषाओं की रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करना हो। यह कार्य भारत की सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक तो होगा ही, विश्व भर की संस्कृतियों से भारत का परिचय बढ़ाने में भी यह अपनी भूमिका अदा करेगा। अभी तो हम सिर्फ अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद पर सीमित हैं, जो कि गलत नहीं है लेकिन यह हमारी गुलाम मनोवृत्ति का प्रतिफल है।

आज भी हम भारतीयों को पता ही नहीं है कि रूस, चीन, फ्रांस, जापान, ईरान, अरब देशों और लातीनी अमेरिका में साहित्यिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कौन-कौन से नए आयाम खुल रहे हैं। अंग्रेजी की गुलामी का यह दुष्परिणाम तो है ही, इसके अलावा यह भी है कि अंग्रेजी में छपे साधारण लेखों और पुस्तकों को हम जरुरत से ज्यादा महत्व दे देते हैं।

हमारे लिए बुकर सम्मान और नोबेल प्राइज़ हमारे भारत रत्न और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी अधिक सम्मानित और चर्चित हो जाते हैं। गीताजंलि का उपन्यास ‘रेत-समाधि’ भारत-पाक विभाजन की विभीषिका और उससे जुड़ी एक हिंदू और मुसलमान की अमर प्रेम-कथा पर केंद्रित है। वह भारत के अत्यंत प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह राजकमल ने छापा है तो वह उत्कृष्ट कोटि का तो होगा ही लेकिन सारे देश का ध्यान उस पर अब इसलिए जाएगा कि उसे हमारे पूर्व स्वामियों और पूर्व गुरुजन (अंग्रेजों) ने मान्यता दी है।

भारत अपनी इस बौद्धिक दासता से मुक्त हो जाए तो उसे पता चलेगा कि उसने जैसे दार्शनिक, विचारक, राजनीतिक चिंतक, साहित्यकार और पत्रकार पैदा किए हैं, वैसे दुनिया के अन्य देशों में मिलने दुर्लभ हैं।

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नागरिक उड्डयन के क्षितिज पर नई सुबह,जब भारत की पहली……

02.06.2022 – ज्योतिरादित्य सिंधिया – नागरिक उड्डयन के क्षितिज पर नई सुबह. जब भारत की पहली व्यावसायिक उड़ान ने 1911 में इलाहाबाद के भीतर उड़ान भरी, तो दुनिया को भारत जैसे कीमत के मामले में संवेदनशील और उभरते बाजार में उड्डयन के इस क्षेत्र में किसी उल्लेखनीय विकास की उम्मीद कम ही थी। हालांकि, समय के साथ, भारत के उभरते मध्यम वर्ग ने परिवहन के इस साधन को अपनाया और इसी क्रम में बड़े पैमाने पर किफायत की वजह से किराये में गिरावट आई। कुल मिलाकर, वर्ष 2016 तक की भारतीय नागरिक उड्डयन क्षेत्र के विकास की यही कहानी है।
वर्ष 2016 में, इस क्षेत्र में एक आमूल बदलाव हुआ। हवाई अड्डों के दरवाजे पहली बार उड़ान भरने वालों, जिनमें से ज्यादातर हवाई चप्पल पहनने वाले यानी भारत की गरीब से लेकर निम्न मध्यम वर्ग की आबादी, के लिए खोल दिए गए। निश्चित रूप से, यह रूझान केवल शहरों में रहने वालों तक ही सीमित नहीं था। दरभंगा, झारसुगुड़ा और किशनगढ़, जिनका पहले भारत के विमानन मानचित्र पर नामोनिशान तक नहीं था, जैसी जगहों पर छोटे-छोटे हवाई अड्डे शुरू हो गए। दरभंगा और झारसुगुड़ा, दोनों हवाई अड्डों ने पिछले एक साल में क्रमश: 5.75 लाख और 2.4 लाख यात्रियों की सेवा की है।
यह वो बदलाव है जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी के गतिशील नेतृत्व ने नीति निर्माण की समेकित दृष्टिकोण के तहत की है और जिसने वाकई समाज के सबसे निचले तबके के लोगों को लाभान्वित किया है। 2016 में उड़ान योजना के माध्यम से हवाई यात्रा के लोकतंत्रीकरण की शुरुआत और हालिया हेली-नीति नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में इस सरकार की अब तक की दो सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक रही है। पिछले आठ वर्षों में (70 वर्षों में 74 हवाई अड्डों की तुलना में) भारत के पहले वाटर एयरोड्रोम सहित 67 से अधिक हवाई अड्डों के साथ, 9 मिलियन से अधिक यात्रियों ने उड़ान योजना के तहत विभिन्न उड़ानों के माध्यम से 419 उन नए मार्गों पर यात्रा की है, जो 2014 तक नागरिक उड्डयन के दायरे से बाहर थे।
इस लोकतंत्रीकरण का मतलब किसी भी तरह से एयरलाइन उद्योग के विकास के साथ कोई समझौता करना नहीं था। घरेलू यात्रा करने वाले यात्रियों की वार्षिक संख्या 2013-14 में 60 मिलियन से बढ़कर 2019-20 में 141 मिलियन तक पहुंच गई और 2023-24 तक इस संख्या के 400 मिलियन तक पहुंच जाने की उम्मीद है। उच्च लागत और अति-नियमन से बुरी तरह प्रभावित इस क्षेत्र में एक समय कंपनियों के लिए न सिर्फ प्रवेश करना कठिन बन गया था बल्कि प्रवेश करने के बाद इसमें खुद को बनाये रखना और भी कठिन हो गया था। वर्ष 2005 से लेकर 2013 के बीच आधा दर्जन एयरलाइनों को अपना कारोबार बंद करने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन 2014 के बाद, इस सरकार के न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन के आदर्श वाक्य ने इस परिदृश्य को उलट दिया है। निरर्थकता और अक्षमताओं को लगभग समाप्त कर दिया गया है। हमारे नियामकों, डीजीसीए और बीसीएएस, ने अधिकांश प्रक्रियाओं को ऑनलाइन कर दिया है। घाटे में चल रही सरकारी एयरलाइन, एयर इंडिया के निजीकरण को अंतत: इस साल एक जीत में बदल दिया गया और परिपाटी के उलट जाकर 11 नई क्षेत्रीय एयरलाइनें शुरू हुई हैं। इसके अलावा, दो नई एयरलाइनें जल्द ही अपना परिचालन शुरू करने जा रही हैं।
इस क्षेत्र में तेजी के इस नए रूख को हवाई अड्डे से संबंधित बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर सरकारी एवं निजी निवेश द्वारा पूरक बनाया गया है। वर्ष 1999-2013 की अवधि में, सिर्फ तीन ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों का परिचालन शुरू किया गया था। इसके उलट, पिछले आठ वर्षों में आठ नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे बनकर तैयार हुए हैं। इसके अलावा, इस वर्ष दो और हवाई अड्डे बन जायेंगे। यहां तक कि कोविड-19 का असर भी कैपेक्स पाइपलाइन के 93,000 करोड़ रुपये के व्यापक निवेश के माध्यम से हवाई अड्डों के विस्तार की हमारी योजनाओं में बाधक नहीं बन सकेगा। विस्तार की ये योजनाएं इस तरह से बनाई जायेंगी कि भारत में न सिर्फ बुनियादी ढांचे, बल्कि कनेक्टिविटी के मामले में भी उछाल आएगा। अपने प्रमुख हवाई अड्डों को एविएशन हब में बदलकर, अधिक विस्तृत आकार वाले विमान लाकर और अपने द्विपक्षीय समझौतों पर फिर से विचार करके संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, अफ्रीका और सुदूर यूरोप के लिए सीधे अंतरराष्ट्रीय कनेक्टिविटी को प्रोत्साहित किया जाएगा।
दूसरा आमूल बदलाव इस क्षेत्र में एक नए संपूर्ण-सरकारी दृष्टिकोण (होल-ऑफ-गवर्नमेंट एप्रोच) के रूप में हुआ है, जिसने अब पूरे विमानन इकोसिस्टम पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। फ्लाइंग ट्रेनिंग ऑर्गनाइजेशन, ड्रोन, एयर कार्गो, एमआरओ, एयरक्राफ्ट लीजिंग आदि जैसे अब तक अनछुए संबद्ध क्षेत्रों को अब बड़े पैमाने पर आर्थिक और रोजगार सृजन क्षमता की दृष्टि से देखा जा रहा है। नया ड्रोन नियम 2021, नई एफटीओ नीति, नई एमआरओ नीति जैसी उदार नीतियों के साथ-साथ उपयुक्त प्रोत्साहन ने भारत में इन उद्योगों को उड़ान भरने के लिए उपयुक्त हवाई पट्टी तैयार की गई है। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र नागरिक उड्डयन और पर्यटन को भारत के विकास के नए इंजन के रूप उभरने में समर्थ बनाने में महत्वपूर्ण साबित होगा। भारत को ड्रोन के मामले में विश्व में अग्रणी बनाने के प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण की वजह से ड्रोन ने विशेष तौर पर भारत में एक क्रांति की शुरुआत की है। बदलाव की इस गति से उत्साहित, ई-वीटीओएल भी जल्द ही भारतीय आसमान में उड़ान भरेंगे और आने वाले दिनों में कम दूरी की हवाई यात्रा के परिदृश्य को पूरी तरह बदल देंगे।
नए क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके, ट्राइट नीति की व्यवस्था को समाप्त करके, निजी भागीदारी के माध्यम से दक्षता सुनिश्चित करके, नए बाजारों की तलाश और मांग का सृजन करके अगले कुछ दशकों में नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में विकास की नींव वर्तमान में रखी जा रही है। जैसे-जैसे भारत दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहा है, वह निकट भविष्य में घरेलू विमानन बाजार के मामले में भी सर्वश्रेष्ठ होने का खिताब हासिल करने की दिशा में तत्पर है।

(लेखक केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री है)

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अमेरिका की बंदूक संस्कृति,अमेरिका के टेक्सास प्रांत में वही हो गया..

वेद प्रताप वैदिक – अमेरिका के टेक्सास प्रांत में वही हो गया, जो पिछले 250 साल से उसके हर शहर और मोहल्ले में होता रहा है। हर आदमी के हाथ में बंदूक होती है। वह कब किस पर चला दे, पता नहीं चलता। बंदूक का प्रयोग आत्महत्या के लिए तो अक्सर होता ही है लेकिन अमेरिका में कोई हमला ऐसा नहीं गुजरता है, जबकि कहीं न कहीं से सामूहिक हत्या की खबरें न आती हों।

अभी टेक्सास में 18 साल के एक नौजवान ने बंदूक उठाई और अपनी दादी को मार डाला। फिर वह एक स्कूल में गया और वहां उसने दो अध्यापकों और 19 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। 10 दिन पहले ही न्यूयार्क के एक बड़े बाजार में एक नौजवान ने दस अश्वेत लोगों को मार डाला था। अब से लगभग 53-54 साल पहले जब न्यूयॉर्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी में मैं पढ़ता था तो मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि वहां बाजार में खरीदी करते हुए या किसी रेस्तरां में खाना खाते हुए भी लोग अपने बेग में या कमर पर छोटी-मोटी पिस्तौल छिपाए रखते थे।

लगभग सभी घरों में बंदूकें रखी होती थीं। इस समय अमेरिका के 33 करोड़ लोगों के पास 40 करोड़ से भी ज्यादा बंदूकें हैं। याने हर परिवार में तीन-चार बंदूकें तो रहती ही हैं। ये क्यों रहती हैं मुझे मेरे अध्यापकों ने बताया कि बंदूकें रखना अमेरिकी संस्कृति का अभिन्न अंग शुरु से ही है। जब दो-ढाई सौ साल पहले गोरे यूरोपीय लोग अमेरिका आने लगे तो उन्हें स्थानीय ‘रेड इंडियन्स’ का मुकाबला करना होता था। उसके बाद अफ्रीकी अश्वेत लोगों का बड़े पैमाने पर अमेरिका आगमन हुआ तो शस्त्र-धारण की जरुरत पहले से भी ज्यादा बढ़ गई।

इसीलिए अमेरिकी संविधान में जो दूसरा संशोधन जेम्स मेडिसन ने 1791 में पेश किया था, उसमें आम लोगों को हथियार रखने का पूर्ण अधिकार दिया गया था। वह अधिकार आज भी ज्यों का त्यों कायम है। अमेरिका की सीनेट याने वहां की राज्यसभा, जो वहां की लोकसभा याने हाऊस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स से ज्यादा शक्तिशाली है, इस संवैधानिक कानून को कभी खत्म होने ही नहीं देती है।

डेमोक्रेटिक पार्टी के बराक ओबामा और अब जो बाइडन इसके विरुद्ध हैं लेकिन वे कुछ नहीं कर सकते। कन्जर्वेटिव पार्टी के नेता अब भी पुरानी लीक को ही पीट रहे हैं। वे यह क्यों नहीं समझते कि उनकी अकड़ की वजह से औसत अमेरिकी नागरिक का जीवन कितना भयावह हो गया है।

विश्व महाशक्ति होने का दावा करनेवाला अमेरिका अपनी इस हिंसक प्रवृत्ति के कारण सारी दुनिया में कितना बदनाम होता रहता है। अमेरिका की बदनामी उसके ईसाई समाज के लिए भी चिंता का विषय है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करनेवाले ईसा मसीह के बहुसंख्यक ईसाई समाज में हिंसा, बलात्कार और व्यभिचार की बहुतायत क्या उस राष्ट्र की छवि को मलिन नहीं कर रही है

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मुद्रा ऋण: समानता पर आधारित समृद्धि का एक सेतु

सौम्य कांति घोष – मुद्रा ऋण: समानता पर आधारित समृद्धि का एक सेतु. अपने शुरुआती दिनों से ही, मोदी सरकार आजादी के बाद के छह दशकों के दौरान गुप्त रूप से बनाई गई बहिष्करण की संस्कृति को अनिवार्य रूप से बदलना चाहती थी। बहिष्करण की यह संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हाशिए व पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर बैठे लोगों को छोड़कर आगे बढऩे की संस्कृति थी! इस स्थिति ने नए नीति-निर्माताओं को हमारे विशाल देश के कोने-कोने में समानता पर आधारित उद्यमशीलता के विकास के लिए बेचैन कर दिया। इस संबंध में, दो योजनाओं यानी प्रधानमंत्री जन धन योजना और मुद्रा ऋण ने इस देश की उद्यमशीलता की भावना को एक नई आजादी के वादे के साथ यहां के वित्तीय समावेशन, जमा एवं उधार, दोनों, से जुड़े परिदृश्य को बदलकार रख दिया है।

पिछले सात वर्षों में, बैंकों (आरआरबी सहित)/एनबीएफसी/एमएफआई ने कुल मिलाकर लगभग 18.4 लाख करोड़ रुपये की राशि के 35.32 करोड़ मुद्रा ऋण वितरित किए हैं, जिसमें सबसे छोटे उधारकर्ताओं के लिए औसतन 52,000 रुपये का ऋण शामिल है। इनमें से लगभग दो-तिहाई ऋण महिला उद्यमियों के लिए स्वीकृत किए गए हैं। यह मानते हुए कि प्रत्येक इकाई में कम से कम दो व्यक्ति कार्यरत हैं, एक रूढि़वादी आकलन के आधार पर, ये इकाइयां 10 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान कर रही हैं।

वित्तीय समझ के मामले में थोड़े कम जानकार, लेकिन व्यावसायिक कौशल और कुछ बड़ा करने के सपनों से भरपूर लोगों की विभिन्न जरूरतों से अवगत रहते हुए सरकार ने विशेष रूप से उद्यमियों की विभिन्न श्रेणियों- शिशु, तरुण और किशोर- के हितों के संरक्षण के लिए मुद्रा ऋण की तीन श्रेणियां बनाईं। इस संबंध में मार्गदर्शक सिद्धांत यह था कि बदलते समय के साथ एक शिशु ऋणी हमेशा के लिए शिशु की श्रेणी में नहीं रहेगा, बल्कि वह एक तरुण के रूप में विकसित होगा, एक तरुण समय के साथ किशोर बन जाएगा और इसी क्रम में वह आगे समानता और समृद्धि सुनिश्चित करता जाएगा!

लेकिन, सरकार को 2014 के बाद की परिस्थितियों में कई चुनौतियों से पार पाना पड़ा। कोई कारगर व्यवस्था मौजूद नहीं थी। इस प्रस्तावित विशाल आकार की योजना को सहारा देने के लिए कोई संरचना या बुनियादी ढांचा उपलब्ध नहीं था। सरकार ने आपसी विश्वास का माहौल बनाकर प्रचलित संस्कृति को अनुशासित किया। सरकार एक साफ–सुथरे मॉडल के जरिए इतने बड़े पैमाने पर उद्यमशीलता को बढ़ावा दे रही थी जिसे पहले कभी नहीं आजमाया गया था। विकास और आय सृजन के अवसर उपलब्ध थे, लेकिन हाशिए पर बैठे लोगों को इस बात का यकीन नहीं था कि उनकी उद्यमशीलता की भावना को बैंकिंग प्रणाली से उत्साहवर्द्धक समर्थन भी मिलेगा।

सरकार द्वारा गारंटी और भरोसे (सीजीएफएमयू) के निर्माण ने यह सुनिश्चित किया कि बैंक तथा अन्य वित्तीय मध्यस्थ ऋण स्वीकृति एवं वितरण के लिए आश्वस्त हो जायें। 10 लाख रुपये तक के ऋण पर अब केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित ट्रस्ट से गारंटी मिलती है। उधारदाताओं के पास बिना किसी अन्य संपार्शि्वक प्रतिभूति के उधार देने की अतिरिक्त सुविधा है। जल्द ही यह एक सर्वव्यापी परिघटना बन गई जिसमें इस देश के आम नागरिकों ने बड़ी वित्तीय संस्थाओं के पोर्टल को अपने लिए खुला पाया!

सरकार ने इस प्रक्रिया को कारगर बनाने और इसकी निगरानी करने के लिए प्रौद्योगिकी का भी इस्तेमाल किया। इस योजना की व्यापक स्वीकृति को प्रोत्साहित करने और लोगों को इस योजना के विवरण एवं बारीकियों से परिचित कराने के लिए बैंकिंग संवाददाताओं का सहारा लिया गया।

मुद्रा योजना के माध्यम से लोगों के सफल सशक्तिकरण की कई आकर्षक कहानियां हैं। सफलता की कई ऐसी कहानियां उन महिला कर्जदारों की हैं, जिन्होंने अपने परिवारों को आजीविका सहायता प्रदान करने के मामले में खुद को अग्रणी साबित किया है और यहां तक कि उन्होंने अन्य परिवारों को भी रोजगार प्रदान किया है। उन्होंने खुद को अनौपचारिक साहूकारों के चिरस्थायी बंधन से मुक्त कर लिया है और बैंकों द्वारा प्रदान किए गए वित्तीय सहायता के सहारे आगे बढ़ी हैं। मुद्रा ऋण पाने वाले कुल लाभार्थियों में दो-तिहाई महिलाएं हैं। उनमें से कई सामाजिक रूप से वंचित समूहों से आती हैं और वे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को बदल रही हैं।

सफलता की ये कहानियां इस बात की याद दिलाती हैं कि कोई भी सूक्ष्म व्यवसाय कठिनाइयों एवं नादानियों के जरिए, उथल-पुथल एवं चुनौतियों के जरिए ही बड़ा बन सकता है! कोई भी चुनौती उसके अदम्य साहस और जीवट को तोड़ नहीं सकती।

देश ने कोविड महामारी के दौरान उद्यमशील भारत की दृढ़ भावना को भी देखा। कुछ विद्वान लोगों ने कहा कि व्यवस्था पर काफी दबाव बनेगा, अटके हुए कर्ज कई गुना बढ़ जायेंगे। लेकिन, उन्हें विस्मित करते हुए यह व्यवस्था इतनी मजबूत थी कि बिना किसी खरोच के सुरक्षित तरीके से आगे बढ़ गई। सरकार ने व्यापारी वर्ग की इस निडर नई नस्ल को सहयोग देने का अपना संकल्प बनाए रखा। सरकार ने उधारकर्ताओं के बोझ को काफी हद तक कम करने के लिए 2 प्रतिशत ब्याज अनुदान योजना भी शुरू की जोकि आज भी जारी है।

एक नया डिजिटल इंडिया उभरकर सामने आ रहा है, जो हमारी वित्तीय प्रणाली में क्रांति ला रहा है। आज, भारत में एक ऐसी सुव्यवस्थित प्रणाली है जो किसी व्यक्ति को अपने घर बैठे ही ऋण के लिए आवेदन करने हेतु बैंक के ऐप का उपयोग करने में मदद करती है। मुद्रा ऋण देने के लिए एनबीएफसी और माइक्रो फाइनेंस संस्थानों ने बैंकों/आरआरबी के साथ हाथ मिलाते हुए नए अवसर पैदा किए हैं।

कॉरपोरेट जगत को नई आपूर्ति श्रृंखला प्राप्त हो रही। इस प्रक्रिया का गुणक प्रभाव यह है कि ऋण के रूप में दिया गया एक रुपया चक्रीय अर्थव्यवस्था में काफी कमाई कर रहा है। इसमें उधारकर्ताओं और उनके परिवारों के लिए ऐसी सामाजिक सुरक्षा अंतर्निहित हैं, जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा गया था! इससे आगे बढ़ते हुए, कृषि और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के क्षेत्र में विभिन्न सरकारी कल्याणकारी एवं प्रोत्साहन योजनाओं को मुद्रा योजनाओं के साथ बेहतर ढंग से एकीकृत किया जा सकता है। साथ ही, फिन-टेक और स्टार्ट-अप से संबंधित इकोसिस्टम का बेहतर उपयोग सीमा पार जाकर एक व्यापक एवं चहुमुखी विकास के परिप्रेक्ष्य को सामने लाने के लिए किया जा सकता है।
मुद्रा ऋण योजना सफलता की एक ऐसी कहानी है जो यह दिखलाती है कि कैसे एक सही राजनीतिक इरादा सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक शक्तियों के साथ मिलकर एक स्थायी एवं समानता आधारित बदलाव का गुणक प्रभाव पैदा सकता है। हालांकि हमारा यह मानना है कि यह एक ऐसे उद्यमी भारत के अमृत काल की सिर्फ शुरुआत भर है जिसे खुद पर काफी भरोसा है!

(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के समूह मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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जीएसटी पर फैसले से संतुलन बहाल!

अजीत द्विवेदी – जीएसटी पर फैसले से संतुलन बहाल!. सुप्रीम कोर्ट ने वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी की मौजूदा व्यवस्था को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। हालांकि देश में चल रहे मंदिर-मस्जिद के विवाद में यह फैसला दब गया और इसके असर को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत दूरगामी असर वाला है। सर्वोच्च अदालत ने ‘वन नेशन, वन टैक्स’ के पूरे सिद्धांत को प्रभावित करने वाला फैसला दिया है। उसने कहा है कि जीएसटी की दर तय करने से लेकर वस्तुओं व सेवाओं को अलग अलग स्लैब में डालने का फैसला करने वाली जीएसटी कौंसिल का कोई भी फैसला बाध्यकारी नहीं है। वह सिफारिश करेगी और समझा-बूझा कर केंद्र व राज्यों को उसे लागू करने के लिए तैयार करेगी। अब तक यह धारणा थी कि जीएसटी कौंसिल का फैसला अंतिम है और उसे केंद्र व राज्यों को मानना ही होगा। लेकिन असल में ऐसा पहले भी नहीं था। तभी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद केंद्रीय राजस्व सचिव ने कहा कि सर्वोच्च अदालत ने सिर्फ वास्तविक स्थिति बताई है और इसका जमीनी स्थिति पर कोई असर नहीं होगा।

यह केंद्र सरकार या उसके राजस्व सचिव की सदिच्छा होगी कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कुछ नहीं बदलेगा लेकिन असल में इससे बहुत कुछ बदलेगा। अगर कुछ नहीं बदलना होता तो विपक्ष के शासन वाले राज्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इतना बढ़-चढ़ कर स्वागत नहीं करते। भाजपा शासित राज्यों ने चुप्पी साधे रखी लेकिन विपक्षी शासन वाले राज्यों ने इसका स्वागत किया। उनको अब मौका मिल गया है कि वे राजस्व के नुकसान की भरपाई की मौजूदा व्यवस्था को कुछ समय और जारी रखने का दबाव बना सकें। ध्यान रहे जीएसटी की वसूली अनुमान से कम होने पर राज्यों को मुआवजा देने का जो प्रावधान है वह इस साल खत्म हो रहा है। वह प्रावधान पांच साल के लिए था और इस साल जून में जीएसटी के पांच साल पूरे होते ही वह व्यवस्था समाप्त हो जाएगा। लेकिन कई राज्य सरकारें इसे बढ़ाना चाहती हैं। उनका कहना है कि कोरोना वायरस की महामारी में पिछले दो साल में राजस्व का बड़ा नुकसान हुआ है और इसलिए केंद्र सरकार इसे आगे बढ़ाए। विपक्षी शासन वाले राज्य मुआवजे के प्रावधान को दो से पांच साल तक बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।

जीएसटी कौंसिल में बहुमत से फैसला होता है लेकिन मौजूदा संरचना में विपक्षी राज्य कमजोर पड़ जाते हैं। जीएसटी कौंसिल के बहुमत में एक-तिहाई अकेले केंद्र सरकार का है और बाकी दो-तिहाई में सभी राज्यों का बराबर हिस्सा है। इस दो-तिहाई में से आधे भी केंद्र के साथ चले जाते हैं तो बहुमत का फैसला उसके पक्ष में हो जाता है। ध्यान रहे ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है या उसकी घोषित व अघोषित सहयोगी पार्टियों की सरकार है। हालांकि उन राज्य सरकारों को भी राजस्व का नुकसान हो रहा है या मुआवजे की व्यवस्था समाप्त होना उनके लिए भी चिंता की बात है लेकिन राजनीतिक मजबूरी में वे खुल कर इस व्यवस्था को जारी रखने की मांग का समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि मुआवजे की रकम जुटाने के लिए लगाया गया उपकर 2026 तक बढ़ा दिया गया है लेकिन ऐसा मुआवजा चुकाने के लिए जुटाए गए कर्ज के ब्याज की भरपाई और कर्ज की रकम लौटाने के लिए किया गया है। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहला बदलाव तो यह हुआ है कि इस मामले में अब राज्यों की मोलभाव की ताकत बढ़ गई है।

हो सकता है कि यह व्यवस्था पहले से हो और सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ उसकी व्याख्या की हो लेकिन इससे संघवाद की धारणा को मजबूती मिली है। यह सत्य स्थापित हुआ है कि कर लगाने और वसूलने का संप्रभु अधिकार केंद्र और राज्यों के पास है। अब तक ऐसी धारणा थी पेट्रोलियम उत्पादों और शराब जैसी एकाध वस्तुओं को छोड़ कर बाकी सभी वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स लगाने और वसूलने का अपना अधिकार राज्यों ने केंद्र को सौंप दिया है और उनके पास अपना कोई अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस अधिकार पर मुहर लगी है। इसका सीधा मतलब है कि अब राज्य बराबर के अधिकार के साथ टैक्स की व्यवस्था पर बात रख सकेंगे और केंद्र या जीएसटी कौंसिल के किसी प्रस्ताव पर तभी सहमत होंगे, जब उन्हें उसमें अपना हित दिखेगा। इसका यह भी मतलब है कि अब कोई भी कर प्रस्ताव थोपा नही जा सकेगा। राज्यों के साथ लगातार मोलभाव और वार्ता के जरिए उस पर सहमति बनानी होगी। इससे एक तरह से केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनेगा।

सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद टकराव की संभावना भी बनती है। संभव है कि राज्य अपने हितों को देखते हुए अपने बजट में टैक्स के नए प्रावधान करें और उसे विधानसभा से पास कराएं तो यहीं काम केंद्र सरकार भी केंद्रीय बजट में कर सकती है। यह भी संभव है कि किसी खास टैक्स व्यवस्था की जीएसटी कौंसिल की सिफारिश को दोनों खारिज कर दें। लेकिन इसकी गुंजाइश कम है। ध्यान रहे वित्त आयोग की सिफारिशें भी राज्यों या केंद्र पर बाध्यकारी नहीं होती है। कई बार राज्यों ने वित्त आयोग की सिफारिशों पर आपत्ति भी की है। परंतु अंत में राज्य सरकारें उसे स्वीकार करती हैं। उसी तरह हो सकता है कि जीएसटी कौंसिल की सिफारिश स्वीकार करने से पहले कुछ विचार-विमर्श हो, मोलभाव हो, कुछ बदलाव करना पड़े लेकिन अंतत: जब राज्य इस व्यवस्था से बंधे हैं तो उन्हें इसकी सिफारिशें माननी होंगी। टकराव एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ेगा।

इसके बावजूद कह सकते हैं कि जीएसटी कानून की जो व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने की है उससे राज्यों को ताकत मिली है। अगर यह ताकत नई नवेली जीएसटी व्यवस्था को कमजोर या बरबाद करने में इस्तेमाल हुई तो उसका बड़ा नुकसान होगा।

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प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी): शहरी भारत में बदलता जीवन

प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी): शहरी भारत में बदलता जीवन, प्रत्येक पात्र लाभार्थी को एक पक्का घर उपलब्ध कराने के माननीय प्रधान मंत्री के विजन को पूरा करने के उद्देश्य से , प्रधान मंत्री आवास योजना (शहरी) (पीएमएवाई-यू) वर्ष 2015 में शुरू की गई थी । पिछले सात वर्षों में, पीएमएवाई-यू में लगभग 8.31 लाख करोड़ रुपये के निवेश, जिसमें से 2.03 लाख करोड़ रुपये केंद्रीय सहायता है, के साथ लगभग 1.23 करोड़ घरों को स्वीकृति दी गई है । मई 2022 तक, 1 करोड़ से अधिक घरों का निर्माण शुरू हो चुका है और वे निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं, जिसमें से 60 लाख से अधिक मकान बनकर तैयार हो चुके हैं और लाभार्थियों को सौंप दिए गए हैं ।

पीएमएवाई-यू निसंदेह दुनिया में सबसे महत्वाकांक्षी और सबसे बड़ा आवास कार्यक्रम है । यह अत्यधिक प्रासंगिक है और सबके लिए आवास प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय विकास की प्राथमिकताओं और वैश्विक लक्ष्यों के अनुरूप है । कार्यकाल सुरक्षा की आवश्यकता को मानते हुए, मिशन ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, निम्न आय वर्ग और मध्यम आय वर्ग सहित सभी आय वर्गों में आवास की मांग को स्वीकार किया, और इसका उद्देश्य पानी के कनेक्शन, रसोई और शौचालय की सुविधा के साथ सभी मौसमों के अनुकूल, शालीन आवासीय इकाइयां प्रदान करके पर्याप्त भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करना है । आवास में लेंगिक समावेश में तेजी लाते हुए, मिशन आवास इकाइयों में संयुक्त रूप से या एकमात्र मालिक के रूप में महिलाओं का मालिकाना हक अनिवार्य करता है । मिशन ने व्यापक रूप से सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रतिबद्धता को पूरा किया है : शून्य गरीबी का लक्ष्य 1, लैंगिक समानता का लक्ष्य 5, स्वच्छ पानी और स्वच्छता का लक्ष्य 6 , संवहनीय शहरों और समुदायों का लक्ष्य 11 और जलवायु कार्रवाई का लक्ष्य 13 ।

पीएमएवाई-यू पांच मूलभूत तरीकों से कुकी कटर यूनिट्स और सिल्वर-बुलेट सॉल्यूशंस के साथ पूर्ववर्ती आवास योजनाओं से अलग है । सबसे पहले, पीएमएवाई-यू चार घटकों द्वारा आपूर्ति पक्ष या मांग पक्ष समर्थन के साथ, कैफेटेरिया दृष्टिकोण अपनाते हुए शहरी परिवारों के विभिन्न सेगमेंट्स की आवास मांग को पूरा करता है। स्थानीय स्तर पर महत्वाकांक्षी मांग सर्वेक्षणों के माध्यम से अलग-अलग आवास की मांग को जाना, जिससे इच्छुक लाभार्थियों को उपयुक्त घटक का विकल्प चुनने की अनुमति मिली और इससे शहर आवास की मांग तैयार कर पाये, जिसके आधार पर प्रत्येक घटक के लिए राष्ट्रीय लक्ष्य तैयार किए गए। इस तरह के बॉटम-अप दृष्टिकोण के साथ, मिशन ने आवास और सम्मानजनक जीवन के लिए विभिन्न लक्षित समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जरूरत के अनुसार उचित रूप से विभिन्न डिजाइन तत्वों को विकसित किया है। पीएमएवाई-यू के लोकाचार समावेशी हैं तथा लिंग, जाति, पंथ या धर्म पर ध्यान दिये बिना सभी को समान अवसर प्रदान करते हैं।

दूसरा, पीएमएवाई-यू के तहत विजन पहले के आवास कार्यक्रमों के स्लम-फ्री सिटी के बजाय सबके लिए आवास है, जिसका अर्थ है कि यह केवल एक सेगमेंट और सबमार्केट के बजाय सभी आय वर्गों के लिए आवास की जरूरत को पूरा करता है ।

तीसरा, यह शहरी स्थानीय निकायों को पीएमएवाई-यू को आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के अन्य मिशनों जैसे अमृत, एसबीएम, एनयूएलएम के साथ अभिशरण का अवसर प्रदान करता है और इस तरह आवास मूल्य श्रृंखला और सीढ़ी में एकीकृत आवास नीतिगत ढांचा प्रदान करता है ।

चौथा, मिशन सहकारी संघवाद की भावना को मजबूत करते हुए मांग आधारित दृष्टिकोण अपनाता है । यहाँ राष्ट्रीय और राज्य स्तर के संस्थान मौजूद हैं जो मिशन के कार्यान्वयन में सहायता प्रदान करते हैं ।

पांचवां, अनपेक्षित समूहों को लाभ कम करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि वास्तविक और पात्र लाभार्थियों तक इच्छित लाभ पहुंचें, डिजिटल प्रौद्योगिकी को अपनाया गया है । इसमें विभिन्न लिंकेज शामिल हैं जिन्हें लाभार्थियों के आधार सत्यापन के लिए यूआईडीएआई पोर्टल के साथ रखा गया है, पीएफएमएस के साथ डीबीटी मोड के माध्यम से निर्माण से जुड़ी सब्सिडी का हस्तांतरण और जीआईएस आधारित केंद्रीय एमआईएस आदि । एक व्यापक और मजबूत एमआईएस प्रणाली विकसित की गई है जो सभी हितधारकों को निर्बाध रूप से जानकारी का प्रबंधन करने और भौतिक और वित्तीय प्रगति से संबंधित रिकॉर्ड रखने में मदद करती है । मकानों के निर्माण की प्रगति की निगरानी के लिए एमआईएस पांच चरणों वाली जियो-टैगिंग सुविधाओं से युक्त है । सूचना के प्रसार के लिए एमआईएस को विभिन्न डैशबोर्ड और डीबीटी भारत पोर्टल के साथ भी एकीकृत किया गया है ।

प्रत्यक्ष भौतिक और वित्तीय प्रगति के अलावा, मिशन ने अपने बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज के कारण अर्थव्यवस्था पर एक व्यापक प्रभाव डाला है, जो अर्थव्यवस्था के लगभग 130 क्षेत्रों को प्रभावित करता है । यह अनुमान लगाया गया है कि मिशन के तहत निर्माण गतिविधि में लगभग 413 मीट्रिक टन सीमेंट और 94 मीट्रिक टन स्टील की खपत होगी, जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत आवश्यक प्रोत्साहन होगा । ऐसा अनुमान है कि मिशन 246 लाख रोजगार सृजित करने में सक्षम रहा है ।

इसके अलावा, पीएमएवाई-यू प्रौद्योगिकी नवाचार अनुदान (टीआईजी) के माध्यम से नई निर्माण प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा दे रही है । इस उद्देश्य के लिए ग्लोबल हाउसिंग टेक्नोलॉजी चैलेंज-इंडिया और इंडियन हाउसिंग टेक्नोलॉजी मेला आयोजित किया गया था। माननीय प्रधान मंत्री के विजन के तहत किफायती आवास को हकीकत में बदलने के प्रयास ने लाइट हाउस परियोजनाओं की शुरुआत की । देश के छह स्थानों- चेन्नई, इंदौर,

राजकोट, लखनऊ, रांची और अगरतला में 6,000 से अधिक फ्लैटों का निर्माण चल रहा है। निर्माण प्रक्रिया में उपयोग की जा रही नवीन तकनीकों को जीएचटीसी-इंडिया के तहत शॉर्टलिस्ट किया गया था और जो अब गरीबों के लिए किफायती, आरामदायक, समावेशी, ऊर्जा-कुशल और आपदा-रोधी घरों के निर्माण में मदद कर रही हैं । इन तकनीकों का उपयोग छात्रों, प्रोफेशनल्स, बिल्डर और विभिन्न हितधारकों को सिखाया जा रहा है, ताकि वे उन्हें भारतीय संदर्भ में दोहरा सकें । हाल ही में, एलएचपी चेन्नई का उद्घाटन माननीय प्रधान मंत्री द्वारा किया गया था । परियोजना को 12 महीने के रिकॉर्ड समय में पूरा किया गया था।

कोविड-19 महामारी ने शहरों में प्रवासी कार्यबल को किफायती किराये के आवास प्रदान करने की आवश्यकता को रेखांकित किया, जिसके परिणामस्वरूप 2020 में अफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग कॉम्प्लेक्स योजना की शुरुआत हुई । अब तक, एआरएचसी के तहत लगभग 80,000 आवास इकाइयों को मंजूरी दी गई है, जबकि 22,000 इकाइयों में निर्माण कार्य शुरू हो गया है ।

मिशन के माध्यम से लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान देने की दिशा में काम करने का प्रयास किया गया है । पिछले कुछ वर्षों में, सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों और विशेष रूप से पीएमएवाई-यू लाभार्थियों के सहयोग से सबके लिए आवास सुनिश्चित करने के प्रयासों को एक नई गति मिली है । पीएमएवाई-यू की सात साल की शानदार यात्रा रही है : दुनिया भर के लोगों के जानने योग्य एक प्रेरणादायक कहानी ।

*लेखक प्रोफेसर एवं चेयर, हाउसिंग फैकल्टी ऑफ प्लानिंग, हेड, इंटरनेशनल ऑफिस आई, सीईपीटी यूनिवर्सिटी, आईकेएल कैंपस, अहमदाबाद हैं ।

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विनाशकारी है, जातीय-जनगणना

वेद प्रताप वैदिक – विनाशकारी है, जातीय-जनगणना. खबर है कि 1 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार एक सर्वदलीय बैठक बुला रहे हैं, जो बिहार में जातीय जनगणना की रुप-रेखा तय करेगी। पहले भाजपा इसका विरोध कर रही थी, अब वह भी इस बैठक में शामिल होगी। नीतीश इस सवाल पर दो बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल चुके हैं। जहां तक मोदी का सवाल है, वह जातीय जनगणना के पक्के विरोधी हैं। जब 2010 में जातीय जनगणना के विरुद्ध मैंने दिल्ली में जन-अभियान शुरु किया तो गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने मुझे कई बार फोन किया और हमारे आंदोलन को अपने खुले समर्थन का एलान किया।
उस आंदोलन में कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के अनेक बड़े नेता भी सक्रिय भूमिका अदा करते रहे। सोनिया गांधी ने न्यूयार्क से लौटते ही पहल की और ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ के आग्रह पर जातीय जनगणना रुकवा दी। मनमोहनसिंह की कांग्रेस सरकार ने उन आंकड़ों को प्रकाशित भी नहीं होने दिया, जो हमारे आंदोलन के पहले एकत्र हो गए थे। मुझे खुशी है कि नरेंद्र मोदी ने भी अपने प्रधानमंत्री काल में उसी नीति को चलाए रखा।
अब नीतीश जो पहल कर रहे हैं, वह बिहार के लिए नहीं, सारे देश के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। वैसे नेताओं में नीतीश मेरे प्रिय हैं। उन्होंने रेल मंत्री रहते हुए हिंदी के लिए और बिहार में शराबबंदी के लिए मेरे कई सुझावों को तुरंत लागू किया है लेकिन यदि जातीय जनगणना उन्होंने बिहार में करवा दी तो यह बीमारी सारे भारत में फैल जाएगी। कर्नाटक और तमिलनाडु में उसकी असफल कोशिश हो चुकी है। अब छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र की सरकारें भी इसे अपने यहां करवाना चाहती हैं।
यदि सभी प्रांतों में जातीय जन-गणना होने लगी तो भारत की एकता के लिए यह विनाशकारी सिद्ध होगी। जातीय अलगाव मजहबी अलगाव से भी अधिक जहरीला है। 1947 में भारत के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब भारत हजारों-लाखों टुकड़ों में बंट जाएगा। पिछली जनगणना में 46 लाख जातियों और उप-जातियों का पता चला था। एक ही प्रांत में एक ही जाति के लोग अलग-अलग जिलों में अपने आपको उच्च या नीच जाति का मानते हैं। यदि जातीय आधार पर आरक्षण और सुविधाएं बंटने लगीं तो कौन जाति के लोग अपने आपको पिछड़ा या दलित साबित नहीं करना चाहेंगे?
जातीय जन-गणना सामूहिक लूट-खसोट का हथियार बन जाएगी। वैसे देश के कुछ नेता इन आंकड़ों का इस्तेमाल कुर्सी पाने और उसे बचाने के लिए करते ही है। जातीय जनगणना देश के लोकतंत्र को भेड़तंत्र में बदल डालेगी। देश की न्यायपालिका, विधानपालिका और कार्यपालिका में ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में योग्यता की जगह जाति ही पैमाना बन जाएगी। गरीबी दूर करने का लक्ष्य धरा का धरा रह जाएगा।
आज 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन क्या जाति के आधार पर मिल रहा है? नहीं, गरीबी के आधार पर मिल रहा है। जातीय जनगणना हुई तो यह आधार नष्ट हो जाएगा। देश में गरीबी बढ़ेगी। देश के 70 करोड़ से ज्यादा वंचितों का जातीय आरक्षण ने सबसे ज्यादा नुकसान किया है। सिर्फ 5-7 हजार सरकारी नौकरियों की रेवडिय़ां बांटकर देश के 80 करोड़ गरीबी की रेखा के नीचे लोगों को उपेक्षा का शिकार क्यों बनाया जाए? जो लोग भारत का भला चाहते हैं, उन्हें जन्मना जातिवाद का डटकर विरोध करना चाहिए।

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सेवा, सुशासन और गरीबों के कल्याण के 8 वर्ष

जगत प्रकाश नड्डा –  सेवा, सुशासन और गरीबों के कल्याण के 8 वर्ष. आज केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गतिशील एवं निर्णायक नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने सफल 8 वर्ष पूरे कर रही है। पिछले 8 वर्ष भारत के लिए एक मानक स्थापित करने वाले वर्ष रहे हैं जिसके दौरान राष्ट्र ने कई बंधनों को तोड़ा है और जातिवाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार एवं तुष्टिकरण की राजनीति से आगे बढ़ते हुए विकास, उन्नति, एकता और राष्ट्रवाद की राजनीति को अपनाया है।

यह उल्लेखनीय यात्रा हमारे समाज के हाशिए के वर्गों-गरीबों से लेकर पिछड़े वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों तथा उत्पीडि़त वर्गों से लेकर महिलाओं एवं युवाओं तक – को सशक्त बनाकर लोकतंत्र को सही अर्थों में मजबूत करने की रही है। यह भारतीय मानस को बदलने की यात्रा भी रही है-इस देश में कुछ भी संभव नहीं है से लेकर सब कुछ संभव है अगर सरकार और लोगों की इच्छा एवं प्रतिबद्धता हो।

यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विजन के प्रति 135 करोड़ भारतीयों की प्रतिबद्धता ही है जो आज धरातल पर झलक रही है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अगर किसी नेता के पास कोई नीति एवं कार्यक्रम, संकल्प एवं समर्पण हो, तो हर चुनौती से निपटा जा सकता है और हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश सिर्फ बदला ही नहीं है, बल्कि उल्लेखनीय उन्नति और तेजी से विकास का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है। आज जब देश ‘आजादी का अमृत कालÓ मना रहा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की चुनौतियों एवं समस्याओं से निपटने और उनका हल निकालने के लिए दृढ़ संकल्प और लचीलापन दिखाया है।
आज बदलते भारत के आठ वर्षों की झलक हर भारतीय की आंखों में दिखाई देती है। पिछले आठ वर्षों में हमारी गरीबी दर 22 प्रतिशत से घटकर 10 प्रतिशत रह गई है, जबकि अत्यधिक गरीबी एक प्रतिशत से नीचे गिर गई है और 0.8 प्रतिशत पर स्थिर बनी हुई है। पिछले आठ वर्षों में जहां हमारी प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो गई है, वहीं हमारे विदेशी भंडार में भी दो गुना वृद्धि हुई है।

आजादी के बाद से पिछले 70 वर्षों में जहां सिर्फ 6.37 लाख प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण किया गया था, वहीं नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक 6.53 लाख स्कूल बनाए गए हैं। पिछले आठ वर्षों में हमारी साक्षरता दर में छह प्रतिशत का सुधार हुआ है, जोकि एक अनुकरणीय उपलब्धि है।

नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 15 नए एम्स को मंजूरी दी गई है, जिनमें से 10 में कामकाज शुरू हो गए हैं। अन्य पांच में निर्माण कार्य अपने अंतिम चरण में है। इसी तरह, डॉक्टरों की संख्या में 12 लाख से अधिक का उछाल आया है। पिछले 8 वर्षों में भारत ने दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा सड़क नेटवर्क बनाया है, वहीं पिछले पांच वर्षों में हमारी सौर एवं पवन ऊर्जा की उत्पादन क्षमता दोगुनी हो गई है।

भारत ने साल दर साल खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड तोड़े हैं। 2012-13 की अवधि में हमारा खाद्यान्न उत्पादन 255 मिलियन टन था जोकि 2021-22 में बढ़कर 316.06 मिलियन टन हो गया। यह हमारे अब तक के इतिहास में सबसे अधिक उत्पादन है। कोविड महामारी के कारण वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद, भारत पिछले वित्तीय वर्ष में निर्यात के क्षेत्र में 418 अरब डॉलर का रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहा।

नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में कई नए मानक स्थापित किए गए हैं और देश की सेवा, सुशासन एवं गरीबों के कल्याण में कई मील के पत्थर पार किए गए हैं। भारत ने कोरोना महामारी के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबसे आगे बढ़कर इस लड़ाई का नेतृत्व किया। उन्होंने भारत को सिर्फ एक ही नहीं, बल्कि दो ‘मेड इन इंडिया’ टीके दिए। उन्होंने पिछले दो वर्षों में 3.40 लाख करोड़ रुपये के खर्च से 80 करोड़ से अधिक भारतवासियों को मुफ्त राशन प्रदान करने के लिए सरकारी खजाने खोल दिए। भारत ने जहां दुनिया का सबसे बड़ा मुफ्त टीकाकरण अभियान चलाया, वहीं इसका खाद्य वितरण कार्यक्रम भी दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य वितरण कार्यक्रम है। पूरी दुनिया ने भारत की इन दो अहम उपलब्धियों की सराहना की है।

नरेन्द्र मोदी सरकार के पिछले आठ वर्षों के दौरान कई बातें पहली बार हुई हैं। आयुष्मान भारत योजना के माध्यम से आम आदमी को जहां मुफ्त चिकित्सा बीमा कवरेज मिला, वहीं किसानों एवं मजदूरों को मासिक पेंशन मिली। पहली बार किसानों को जहां खेती के लिए किसान सम्मान निधि का लाभ मिलना शुरू हुआ, वहीं हमारी सरकार ने ही जैविक खेती के लिए एक नीति बनाई।

इसके अलावा, कई अनूठी योजनाएं भी हैं – जन धन योजना, उज्ज्वला योजना, किसान सम्मान निधि, आयुष्मान भारत योजना, गरीब कल्याण योजना, स्वच्छ भारत योजना, आवास योजना, जल जीवन मिशन, डिजिटल इंडिया, ग्राम विकास योजना एवं जीएसटी। इन योजनाओं ने न सिर्फ नागरिकों को सशक्त बनाया, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था को भी मजबूत किया और भारत को लचीला एवं आत्मनिर्भर बनाया। कठिन वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद भारत की सुदृढ़ और मजबूत सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के पीछे यही कारण है। आत्मनिर्भर भारत, वोकल फॉर लोकल, गति शक्ति योजना, पीएलआई (उत्पादन आधारित प्रोत्साहन) जैसी योजनाओं ने भारत को वैश्विक व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचा दिया है।
पिछली सरकारों में हमारी कुछ चिरस्थायी समस्याओं से निपटने की इच्छाशक्ति की कमी थी, और सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया था। लेकिन समस्याओं से निपटने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नवीन एवं निर्णायक दृष्टिकोण ने सब कुछ बदल दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दृढ़ संकल्प के कारण ही अनुच्छेद 370 को निरस्त करना, अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक की कठोर प्रथा को समाप्त करना, सीएए को पारित करना और सीमा पार आतंकी शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक करना संभव हुआ।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनूठी शैली की वजह से ही बेमानी हो चुके 1800 पुराने कानूनों की पहचान हुई और इनमें से अब तक 1450 कानूनों को खत्म कर दिया गया है। पिछली किसी भी सरकार ने इसके बारे में नहीं सोचा था। इस कदम से नागरिकों का जीवन आसान हो गया और सरकार की दक्षता में सुधार हुआ।

विदेश नीति एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। हमने कई कीर्तिमान बनाए हैं और नए मील के पत्थर पार किए हैं। भारत की विदेश नीति को भारत के लाभ की दृष्टि से फिर से तैयार किया गया है। इराक, यमन, अफगानिस्तान से लेकर यूक्रेन तक के मामले में, भारत ने दुनिया को यह दिखाया है कि एक प्रभावी विदेशी संबंध कैसे नागरिकों का जीवन बचाने में मदद करते हैं। आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल सोलर अलायंस, क्वाड की प्रभावशीलता और हमारे पड़ोसियों के साथ हमारे मजबूत संबंधों के मुद्दों पर भी भारत ने आगे बढ़कर नेतृत्व किया है। हमारी विदेश नीति हमेशा सटीक रही है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आठ वर्ष भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के काल भी रहे हैं। योग एवं आयुर्वेद ने जहां दुनिया का ध्यान खींचा है, वहीं भारत के खोए हुए सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रतीकों ने अपना गौरव वापस पा लिया है। इनमें काशी विश्वनाथ धाम और केदारनाथ धाम जैसे हमारे पवित्र स्थलों का जीर्णोद्धार भी शामिल है। यह अभी शुरुआत है क्योंकि भारत अपने गौरवशाली इतिहास को पुन: हासिल करने की प्रतीक्षा कर रहा है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने भी कई रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और नई ऊंचाइयों को छू लिया है। आज भाजपा 18 करोड़ से अधिक सदस्यों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन है। 2014 में भाजपा एवं उसके सहयोगी दलों की सात राज्यों में सरकारें थीं और आज 18 राज्यों में हमारी सरकारें हैं। राज्यसभा में पहली बार भाजपा ने 100 सांसदों का आंकड़ा पार किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, असम, गोवा, मणिपुर और त्रिपुरा में चुनावी रिकॉर्ड तोड़ दिया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सफलता का राज यह है कि हमारी पार्टी ने 135 करोड़ भारतीयों का विश्वास और आशीर्वाद अर्जित किया है। आज देश भर के लोग जानते हैं कि केन्द्र में एक ऐसी सरकार है जो उनके कल्याण के लिए काम करती है और सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास के लिए प्रतिबद्ध है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी भारत को बदलने और भारत को एक ऐसा देश बनाने के लिए प्रतिबद्ध है जहां सभी एक हों और सुख एवं समृद्धि से लैस हों। एक बार फिर से भारत को एक खुशहाल एवं समृद्ध राष्ट्र बनाने के लिए कड़ी मेहनत करने और खुद को प्रतिबद्ध करने का संकल्प लेने का समय आ गया है।

(लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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धार्मिक-सामाजिक एजेंडे का क्या जवाब?

अजीत द्विवेदी – कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां कैच-22 सिचुएशन में हैं। उनकी स्थिति सांप-छुछुंदर वाली हो गई है। पिछले आठ साल से भाजपा की ओर से सेट किए गए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देते देते विपक्षी पार्टियां अपना एजेंडा सेट करना भूल गई हैं और अब भाजपा की ओर से सेट किए गए एजेंडे पर प्रतिक्रिया देने की स्थिति में भी नहीं हैं। भाजपा अब ऐसा एजेंडा सेट कर रही है, जिस पर कोई भी प्रतिक्रिया देना विपक्ष के लिए राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकता है। सभी पार्टियां शिव सेना की तरह नहीं हैं, जो भाजपा को दो टूक जवाब दे सकें। भाजपा के एक नेता ने कहा कि बाबरी मस्जिद का ढांचा टूटा तो वे वहीं पर थे और वहां कोई शिव सैनिक नहीं था। इसके जवाब में शिव सेना ने खुल कर कहा कि शिव सैनिकों ने ढांचा गिराया और सुप्रीम कोर्ट तक में इसके सबूत हैं। शिव सेना ने लालकृष्ण आडवाणी का एक इंटरव्यू भी साझा किया, जिसमें वे कह रहे हैं कि गुंबद पर चढ़े लोग मराठी बोल रहे थे और भाजपा के नहीं थे इसलिए उमा भारती और प्रमोद महाजन की बात नहीं मान रहे थे।
क्या ऐसे किसी मुद्दे पर कोई दूसरी विपक्षी पार्टी इस तरह का जवाब दे सकती है? सोचें, जब सारे मुद्दे ऐसे ही होंगे तो विपक्ष क्या जवाब देगा? भाजपा ने हिंदी का मुद्दा छेड़ा है। हिंदी को पूरे देश में संपर्क भाषा बनाने की बात केंद्रीय गृह मंत्री ने कही है। दिल्ली में सरकारी कामकाज अब हिंदी में होने लगे हैं और संसद में केंद्रीय मंत्री अब किसी भी भाषा में पूछे गए सवाल का जवाब हिंदी में देते हैं। दक्षिण भारत की पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। वे कर सकती हैं क्योंकि उनको हिंदी विरोध से फायदा होगा। भाषायी अस्मिता की राजनीति करने वाली कुछ और पार्टियां इसका विरोध कर सकती हैं। लेकिन कांग्रेस या उत्तर भारत की दूसरी प्रादेशिक विपक्षी पार्टियां क्या करेंगी? उनके सामने चुप रहने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है। कांग्रेस के लिए तो चुप्पी भी कोई समाधान नहीं है क्योंकि उसे उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हर राज्य में राजनीति करनी है। अगर भाषा का विवाद बढ़ता है तो कांग्रेस को कोई स्टैंड लेना होगा और पहली नजर में कोई भी स्टैंड उसको फायदा पहुंचाने वाला नहीं होगा।
हिंदी की तरह ही कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा कर उसका विशेष राज्य का दर्ज खत्म करने का मुद्दा है। कश्मीर की पार्टियों और वामपंथी दलों को छोड़ दें तो किसी विपक्षी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों का विरोध इतने तक सीमित है कि केंद्र सरकार जम्मू कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्ज बहाल करे और विधानसभा के चुनाव कराए। सोचें, साढ़े तीन साल से कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है और देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी सहित किसी की हिम्मत नहीं है कि वह इसके खिलाफ सड़क पर उतरे और आंदोलन करे कि कश्मीर में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल हो। विपक्ष को पता है कि कश्मीर का मुद्दा बेहद संवेदनशील है और उसे छेडऩा भारी पड़ सकता है।
असल में नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में भाजपा और सरकार ने खुद ऐसा एजेंडा सेट किया है, जिस पर विपक्ष की चुप रहने की मजबूरी है। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो या काशी कॉरिडोर का निर्माण हुआ, विपक्ष इनका विरोध नहीं कर सकता है। दबे स्वर में एकाध टिप्पणियों के अलावा इन मुद्दों पर विपक्ष की मौन सहमति रही। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ देश भर में आंदोलन हुआ लेकिन इस आंदोलन का नेतृत्व विपक्ष नहीं कर रहा था। मुस्लिम संगठनों और आम मुस्लिम आवाम ने इसके विरोध में आंदोलन किया इसलिए सरकार की सेहत पर इसका रत्ती भर असर नहीं हुआ। उलटे भाजपा को इससे राजनीति के ध्रुवीकरण में मदद मिली। असम इस आंदोलन का एक केंद्र था, जहां पिछले साल हुए चुनाव में एक बार फिर भाजपा का गठबंधन भारी बहुमत से जीता।
अभी देश भर में हनुमान चालीसा का मुद्दा छाया हुआ है। अजान बनाम हनुमान चालीसा के इस विवाद में विपक्ष को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। कहीं धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर उतारे जा रहे हैं तो कहीं मुफ्त लाउडस्पीकर बांट कर धर्मस्थलों पर लगाए जा रहे हैं। विपक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ है। रोटी, कपड़ा और मकान की जगह नया नैरेटिव बना दिया गया है। रोटी की जगह हलाल मीट, कपड़े की जगह हिजाब और मकान की जगह बुलडोजर ने ले ली है। इस विमर्श में विपक्ष क्या कर सकता है? कांग्रेस और विपक्ष की ऐसी मजबूरी है कि गरीबों और मजलूमों के घर पर बिना कानूनी कार्रवाई के बुलडोजर चलाने का भी वह विरोध नहीं कर पा रहा है। हलाल मीट और हिजाब के विवाद में भी कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों का कोई दो टूक स्टैंड नहीं है। वे गोलमोल प्रतिक्रिया देकर उम्मीद कर रहे हैं देर सबेर यह विवाद खत्म जाएगा। उनको समझ ही नहीं आ रहा है कि खत्म होने के लिए ये विवाद शुरू नहीं हुए हैं। इन्हें सुनियोजित तरीके से शुरू किया गया है और ये खत्म तभी होंगे, जब इनका राजनीतिक मकसद पूरा हो जाएगा।
सोचें, लव जिहाद रोकने के नाम पर देश के कई राज्यों में अंतरधार्मिक विवाहों को प्रतिबंधित करने वाला कानून बन गया और विपक्ष क्या कर सका? एक के बाद एक राज्यों में भगवद्गीता को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो विपक्ष क्या कर ले रहा है? एक के बाद एक कई राज्यों ने समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है तो विपक्ष क्या कर रहा है? विपक्ष के पास चुपचाप तमाशा देखने का विकल्प है या इसी खेल में घुस जाने का विकल्प है। कई विपक्षी पार्टियों ने दूसरा रास्ता चुना है यानी वे खुद भी इसी खेल में घुस गए हैं। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों और संगठनों ने इन दिनों गौरक्षा का काम स्थगित कर रखा है और इस एजेंडे पर बहुत मंथर गति से काम हो रहा है लेकिन कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ में गौरक्षा का ज्यादा काम शुरू हो गया। वहां के मुख्यमंत्री गोबर खरीद रहे हैं और गोबर से बने बैग में दस्तावेज लेकर बजट पेश करने गए थे। धीरे धीरे बाकी धार्मिक-सामाजिक एजेंडे पर भी विपक्षी पार्टियों का ऐसा ही रवैया देखने को मिले तो हैरानी नहीं होगी।
विपक्ष के पास ले-देकर महंगाई और बेरोजगारी का एक मुद्दा है। यह बड़ा मुद्दा है लेकिन अव्वल तो विपक्ष इसे प्रभावी तरीके से उठा नहीं पा रहा है और दूसरे सरकार ने सामाजिक विकास की अपनी योजनाओं के जरिए इस समस्या का असर काफी हद तक कम कर दिया है। अगले दो साल में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है तो उसी अनुपात में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त अनाज की मात्रा बढ़ा दी जाएगी। पांच किलो अनाज और एक किलो दाल के साथ तेल, नमक और मसाले भी दे दिए जाएंगे। किसान सम्मान निधि के तहत मिलने वाली सालाना राशि छह से बढ़ा कर 12 हजार रुपए कर दी जाएगी। महिलाओं को मिलने वाली सहायता राशि बढ़ा दी जाएगी और आवास योजना का दायरा बढ़ा दिया जाएगा। इतनी योजनाओं के लिए सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है। हर महीने जीएसटी की वसूली बढ़ रही है और हर साल आयकर की वसूली में भी रिकॉर्ड बढ़ोतरी हो रही है। सरकार हर साल सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपया वसूल रही है, उतने से ही समाज कल्याण की सारी योजनाओं का संचालन हो जाएगा।

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चीन की टक्कर में नया पैंतरा

वेद प्रताप वैदिक – चीन की टक्कर में नया पैंतरा. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने दक्षिण-पूर्व एशिया के 12 देशों को अपने साथ जोड़कर एक नया आर्थिक संगठन खड़ा किया है, जिसका नाम है, ”भारत-प्रशांत आर्थिक मंच (आईपीईएफ)”। तोक्यो में बना यह 13 देशों का संगठन बाइडन ने जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ घोषित किया है। वास्तव में यह उस विशाल क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी संगठन (आरसीईपी) का जवाब है, जिसका नेता चीन है। उस 16 राष्ट्रों के संगठन से भारत ने नाता तोड़ा हुआ है। इसके सदस्य और इस नए संगठन के कई सदस्य एक-जैसे हैं।

जाहिर है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा इतनी तगड़ी है कि अब चीन द्वारा संचालित संगठन अपने आप कमजोर पढ़ जाएगा। बाइडन ने यह पहल भी इसीलिए की है। इस क्षेत्र के राष्ट्रों को जोडऩे वाले ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप संगठन (टीपीपी) से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपना हाथ खींच लिया था, क्योंकि अमेरिका की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति में इन सदस्य राष्ट्रों के साथ मुक्त-व्यापार उसके लिए लाभकर नहीं था।

अब इस नए संगठन के राष्ट्रों के बीच फिलहाल कोई मुक्त-व्यापार का समझौता नहीं हो रहा है लेकिन ये 13 ही राष्ट्र आपस में मिलकर डिजिटल अर्थ-व्यवस्था, विश्वसनीय सप्लाय श्रृंखला, स्वच्छ आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार मुक्त उद्योग आदि पर विशेष ध्यान देंगे। ये लक्ष्य अपने आप में काफी ऊँचे हैं। इन्हें प्राप्त करना आसान नहीं है लेकिन इनके पीछे असली इरादा यही है कि इस क्षेत्र के राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्थाओं को चीन ने जो जकड़ रखा है, उससे छुटकारा दिलाया जाए। बाइडन प्रशासन को अपने इस लक्ष्य में कहां तक सफलता मिलेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि वह इन सदस्य-राष्ट्रों को कितनी छूट देगा।

बाइडन-प्रशासन पहले से ही काफी दिक्कत में है। अमेरिका में मंहगाई और बेरोजगारी ने उसकी अर्थव्यवस्था की गति को धीमा कर दिया है और बाइडन प्रशासन की लोकप्रियता पर भी इसका असर पड़ा है। ऐसी हालत में वह इन दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ कितनी रियायत कर पाएगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। अमेरिका को यह बात तो अच्छी तरह समझ में आ गई है कि शीतयुद्ध काल का वह जमाना अब लद गया है, जब सीटो और सेंटो जैसे सैन्य-संगठन बनाए जाते थे।

उसने चीन से सीखा है कि अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आर्थिक अस्त्र ही सबसे ज्यादा कारगर है लेकिन अमेरिका की समस्या यह है कि वह लोकतांत्रिक देश है, जहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों ही सबल और मुखर हैं जबकि चीन में पार्टी की तानाशाही है और लोकमत नामक कोई चीज़ वहां नहीं है। जो भी हो, इन दोनों महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता में भारत को तो अपना राष्ट्रहित साधना है।

इसीलिए उसने बार-बार ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि भारत किसी (चीन) के विरुद्ध नहीं है। वह तो केवल आर्थिक सहकार में अमेरिका का साथी है। चीन से विवाद के बावजूद उसका आपसी व्यापार बढ़ता ही जा रहा है। इस नए संगठन के जरिए उसका व्यापार बढ़े, न बढ़े लेकिन इसके सदस्य-राष्ट्रों के साथ भारत का आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है।

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सेवा, सुशासन और सशक्त नेतृत्व के आठ साल, राष्ट्र गौरव के आठ साल

जी. किशन रेड्डी – सेवा, सुशासन और सशक्त नेतृत्व के आठ साल, राष्ट्र गौरव के आठ साल. निस्संदेह जब 2014 में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने सत्ता संभाली, तो उस समय देश घोर निराशा के वातावरण से गुजर रहा था। भ्रष्टाचार चरम पर था, हर दिन कोई एक नया घोटाला सामने आता था। सामान्य जनमानस के मन में था कि अब इस देश का कुछ नहीं हो सकता। ऐसे में वर्ष 2014 के दौरान भारत की जनता को नरेंद्र मोदी में आशा की नई किरण दिखाई दी और हुआ भी वही। आज यह गर्व की बात है कि केंद्र सरकार में बीते आठ वर्षों में एक भी घोटाला नहीं हुआ। यह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि 2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने संसद को लोकतंत्र का मंदिर मानकर माथा टेका और देश की देवतुल्य 135 करोड़ जनता के सामने प्रण लिया ना खाऊँगा ना खाने दूंगा।

एक नई सोच के साथ नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली और उनकी नई सोच यह थी कि हमारे समक्ष विश्व गुरु भारत का लक्ष्य है और यह लक्ष्य जनभागीदारी से पूर्ण होगा। इसलिए जब हम दुनिया का नेतृत्व करने की बात करते हैं तो हमारे देश के सामान्य व्यक्ति की बुनियादी जरूरत सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान नहीं हो सकती, 21वीं सदी में इस सब के अलावा कनेक्टिविटी चाहिए, अच्छी शिक्षा चाहिए, चिकित्सा सुविधा चाहिए, पीने का स्वच्छ जल चाहिए, बिजली चाहिए, इंटरनेट चाहिए, शौचालय चाहिए, सुरक्षा चाहिए, सम्मान चाहिए और विकास में भागीदारी के नए अवसर चाहिए। बस इसी सोच से इस यात्रा की शुरुआत हुई, जिस प्रकार एक पिरामिड बनता है, उसी प्रकार 2014 से लगातार साल-दर-साल विश्वगुरु भारत के लक्ष्य को केंद्रित कर मोदी सरकार ने सैकड़ों योजनाओं का श्रीगणेश किया।

सुशासन किसी भी लोकतांत्रिक देश की सबसे बड़ी ताकत होती है, इसलिए मोदी सरकार की दूरदर्शिता, पारदर्शिता, दृड़ इच्छाशक्ति, गरीब कल्याण और सेवा भाव की नई सोच के साथ सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास और सबका प्रयास सुशासन का मूल मंत्र बना। सुशासन की जड़ें पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय सिद्धांत पर आधारित हैं, जिसमें उन्होंने सरकारी योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति को मिलने की बात कही है। मोदी सरकार के पिछले आठ वर्षों में, ना सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ अंतिम व्यक्ति को मिला है, बल्कि पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण जैसे सर्वोच्च सम्मान भी उन सामान्य लोगों के हाथों में आए, जो हर दृष्टि से इसके हकदार थे। यह सुशासन, सरकार के प्रति सामान्य जनमानस के मन में विश्वास को और दृढ़ करता दिखाई देता है।

यह सत्य है कि छोटी-छोटी बातों से बड़े बदलाव आते हैं। इसलिए सबसे पहले केंद्र सरकार ने उन योजनाओं पर ध्यान दिया, जिन्होंने सामान्य जन के आत्मगौरव, आत्मविश्वास और बुनियादी जरूरतों को पूरा किया। कनेक्टिविटी सबसे पहली जरूरत है, आज बड़ी बात यह है कि देश में सड़कों का जाल बिछ गया है, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, भारत माला परियोजना और पर्वत माला परियोजना के माध्यम से सारा भारत जुड़ गया है। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को इन आठ वर्षों में पहली बार ट्रेन का सफर करने का अवसर मिला। देश के करोड़ों लोग ऐसे थे, जिन्होंने बैंक में प्रवेश तक नहीं किया था। जन धन योजना के तहत लगभग 45 करोड़ देशवासियों को बैंक से जोड़ा गया। 2014 में स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया तथा देश में 11 करोड़ से अधिक शौचालय बने व देश के 6 लाख से अधिक गाँव ‘खुले में शौच मुक्त’ हुए। उज्ज्वला योजना के तहत देश की 9 करोड़ महिलाओं को धुएं से आजादी मिली और उन्हे गैस कनेक्शन मिला।

सरकार ने नया जल शक्ति मंत्रालय बनाया और 9 करोड़ से अधिक परिवारों को पीने का स्वच्छ जल दिया। देश में 22 एम्स हॉस्पिटल का निर्माण हो रहा है तथा स्वस्थ भारत की दिशा में आयुष्मान भारत योजना से गरीब लोगों का पांच लाख तक मुफ्त इलाज हो रहा है। दूसरी बात कि देश के जनमानस को स्वावलंबी बनाने और उसका आत्मविश्वास बढ़ाने की दिशा में ‘मुद्रा योजना’, ‘स्किल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्टार्टअप’ और ‘ग्राम उदय से भारत उदय’ जैसे अभियानों की शुरुआत हुई। हुनर हॉट जैसी गतिविधियों के जरिए देश की स्थानीय कारीगरी, कला और कौशल को उचित सम्मान मिला तथा उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा है।

तीसरी बात यह है कि केंद्र सरकार ने ‘बेटी बचाओ -बेटी पढ़ाओ अभियान’, मुस्लिम महिलाओं को ‘तीन तलाक’ से मुक्ति और हर क्षेत्र में महिला भागीदारी सुनिश्चित करने की सकारात्मक पहल की। चौथी बात, देश में नए आर्थिक सुधार हुए जैसे- डिजिटाइजेशन और एक राष्ट्र-एक टेक्स जीएसटी देश के इतिहास में ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की दिशा में एक नया अध्याय था।
देश के किसान को समृद्ध करने की दिशा में भी अनेक कदम उठाए गए, केमिकल फ्री नेचुरल फार्मिंग अर्थात आर्गेनिक खेती के बल पर भारत वैश्विक बाजार में विश्व नेता बन सकता है। इसलिए ड्रोन सिस्टम, कृषि सिंचाई योजना, सॉलोर पंप, फसल बीमा, किसान सम्मान निधि, इको सिस्टम, सॉलोर पेनेल आदि सुविधा देने की नीति सामने आई है।

इसी प्रकार सैन्य शक्ति को मजबूत करते हुए ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड का पुनर्गठन किया, भारत ने लड़ाकू राफेल विमान और 48,000 करोड़ रुपये से 83 स्वदेशी तेजस विमान खरीदे। हमने दुनिया को अपनी ताकत का एहसास भी कराया, जब हमारे जवानों ने दुश्मन के घर में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक की तथा सुरक्षित अपने वतन लोटे।
इन आठ वर्षों में भारत की विदेश नीति भी अभूतपूर्व रही है। अफगानिस्तान प्रकरण और यूक्रेन व रूस के बीच हो रहे युद्ध से पता चलता है कि अब भारत के रुख को न केवल विशेष महत्व दिया जा रहा है बल्कि उससे मध्यस्थता की मांग की जा रही है।

इस आठ वर्ष की यात्रा में पिछले दौ वर्षों का कालखंड ना सिर्फ भारत के लिए बल्कि दुनिया के लिए महामारी का संकट था, बड़े-बड़े विकसित देश इसकी चपेट में आने से खुद को बचा ना सके। भारत जो हजारों वर्षों के इतिहास से सीखता आया है फिर एक बार हमने इस चुनौती भरी महामारी को अवसर में बदला और आत्मनिर्भर भारत का संकल्प किया। वर्तमान में ‘स्टार्टअप’ और ‘वॉकल फॉर लोकल ‘ जैसे अभियानों से राष्ट्र आत्मनिर्भरता की ओर आगे बढ़ रहा है तथा पूरी दुनिया में राष्ट्र गौरव बढ़ रहा है।

भारत ने दुनिया के सेंकड़ों देशों को सर्वे भवन्तु सुखिन: की भावना से वैक्सीन दी और अपने देश में महामारी के खिलाफ सबसे कम समय में 190 करोड़ टीकाकरण का इतिहास बनाया। इससे आगे अगर कहना है तो इन आठ वर्षों में यह केंद्र सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति और जनता का उसके प्रति अटूट विश्वास का ही प्रणाम है कि 70 वर्षों से लंबित धारा 370 हटा कर एक राष्ट्र -एक संविधान-एक ध्वज के सपने को पूरा किया व राम मंदिर के निर्माण जैसे सर्वाधिक विवादित माने जाने वाले विषय भी बड़ी सरलता व सौहार्दपूर्ण ढंग से निपट गए।

15 अगस्त 2021 से भारत अपनी आजादी के 75 वर्ष में ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है। आजादी के आंदोलन में जिस खादी को पहन स्वदेशी का नारा बुलंद हुआ,वह वास्तव में अब जाकर पूरा हकीकत में बदला। खादी ने पहली बार (2021-2022) एक वित्तीय वर्ष में एक लाख पन्द्रह हजार करोड़ रुपये का कारोबार किया है, जो देश में एक नया रिकॉर्ड है। आत्मनिर्भरता की दिशा में भारत ने अपने 100वें यूनिकॉर्न का जन्म देखा। किसी भी स्टार्टअप के लिए यूनिकॉर्न बनना मील का पत्थर जैसी बड़ी उपलब्धि है। आज वैश्विक स्तर पर हर 10 में से 1 यूनिकॉर्न का उदय भारत में हो रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत का भारत के प्रति स्वाभिमान जागृत हुआ।

240 वर्षों के बाद काशी विश्वनाथ धाम कोरीडोर, चारधाम यात्रा, रामायण सर्किट, श्रीकृष्ण सर्किट और बुद्ध सर्किट जैसी योजना भारत की आस्था के लिए सुखद अनुभूति है। दुनिया के लोग बड़ी संख्या में भारत की विरासत का दर्शन करने आ रहे हैं क्योंकि भारत के अध्यात्म के पास विश्व के लिए सुख, शांति और कल्याण का मार्ग है। भारत के प्रधानमंत्री दुनिया के देशों में जाकर वहाँ के राष्ट्रीय अध्यक्षों को कर्म का संदेश देने वाली गीता भेंट स्वरूप देते हैं, इसी प्रकार योग भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत है, जिसे नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों के बाद वैश्विक पटल पर एक अलग पहचान मिली है निश्चित रूप से योग दुनिया को भारत की अमूल्य भेंट है। आज़ादी के अमृत महोत्सव में हमने आने वाले 25 वर्षों के लिए नए भारत की संकल्पना करते हुए नए लक्ष्य तय किए हैं।

जो भारत का अमृत काल होगा और वर्तमान युवा पीढ़ी उस समय देश का नेतृत्व कर रही होगी। साढ़े तीन दशक के बाद लागू हुई ‘नई शिक्षा नीति’ और ‘सेंट्रल विस्टा’ बनाने जैस साहसी निर्णय भी मोदी सरकार की दूरदृष्टी का उदाहरण हैं।

आज जब ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ में केंद्र सरकार अपने आठ वर्ष पूरे कर रही है तो यही ध्यान में आता है कि राष्ट्रभक्ति ले हृदय में हो खड़ा यदि राष्ट्र सारा तो संकटों को मात देकर राष्ट्र विजयी हो हमारा।

(लेखक भारत सरकार के संस्कृति, पर्यटन एवं पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री हैं)

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उत्तर प्रदेश के सम्यक विकास और आत्मनिर्भरता का बजट

सियाराम पांडेयशांत – उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश कर दिया। गत वर्ष यह बजट 5.5 लाख करोड़ का था।इस बार यह बढ़कर 6.15 लाख करोड़ से भी अधिक हो गया है।इसमें शक नहीं है कि बजटीय आकार निर्धारण में योगी सरकार का कोई सानी नहीं है। हर साल वह अपना रिकार्ड तोड़ देती है। इस साल भी उसने कुछ ऐसा ही किया है ।

विपक्ष इसे आंकड़ों की बाजीगरी कह रहा है। घिसा-पिटा बता रहा है। निराश करने वाला बता रहा है।बजट को लेकर जितने मुंह-उतनी बातें हो रही हैं। केंद्र का बजट हो या राज्य का,उस पर प्रतिक्रियाएं कुछ ऐसी ही आती हैं।सत्ता से जुड़े लोग उसकी सराहना करते हैं और विपक्ष उसे नकार देता है।इससे इतनी बात तो साफ है कि बड़े से बड़ा बजट भी सबकी संतुष्टि की गारंटी नहीं है। यह तो वही बात हुई कि किसी ने लिखी आंसुओं की कहानी,किसी ने पढ़ा सिर्फ दो बूंद पानी।
बजट दरअसल विकास योजनाओं को गति देने,उसे निर्बाध संचालित करने की आर्थिक संरचना भर है।अगर केवल धन से ही विकास होता तो उत्तरप्रदेश में जाने कितने बजट अलग-अलग सरकारों के स्तर पर पेश हुए हैं और सबका आर्थिक आकार पहले से बड़ा रहा है । इस लिहाज से विकास हुआ होता तो आज उत्तर प्रदेश की तस्वीर कुछ और होती।वहीँ प्रति व्यक्ति आय देश में सर्वाधिक होती। हर शहर अपने में बेहद स्मार्ट होता। हर गांव विकास के मायने में आदर्श होता।

गांवों को गोद लेने की अपील नहीं करनी पड़ती। पूर्व की सरकारों में हर विभाग के लिए बजट तो जारी हो जाता था लेकिन वह खर्च ही नहीं हो पाता था। मार्चमें उसे खर्च करने की आपाधापी मचती थी।संतोष किया जा सकता है कि इस सरकार में बजट लैप्स होने के मामले घटे हैं लेकिन भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस शत-प्रतिशत पूरा नही हो सका है।

विकास के लिए विजन जरूरी होता है। ईमानदारी जरूरी होती है। भ्रष्टाचार की एक मछली व्यवस्था के समूचे तालाब को गंदा कर देती है।इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है।इस बजट के जरिए सरकार ने जहां हर क्षेत्र में विकास के अवसर तलाशने का काम किया है,वहीं अपने एजेंडों को आगे बढऩे का सम्यक प्रयास भी वह इस बजट में शिद्दत के साथ करती नजर आती है।धार्मिक स्थलों के विकास और वहां अवस्थापना सुविधाओं के विकास में धन की कमी आड़े न आने देने का उसका संकल्प इस बजट में बखूबी प्रतिध्वनित होता है।

बजट में सत्तारूढ़ दल की कोशिश सबका साथ और सबका विकास की होती है और विपक्ष की कोशिश उसे सिरे से खारिज करने की होती है। सारा खेल दरअसल श्रेय और प्रेय का है।और इस खेल में अब न चूक चौहान की मुद्रा में सभी होते हैं। उत्तरप्रदेश विधानसभा में एक दिन पहले अखिलेश यादव और केशव मौर्य को नसीहतों की घुट्टी पिलाने वाले योगी आदित्यनाथ का दोस्ताना अंदाज यह बताने के लिए काफी था कि राजनीति में कोई भी भाव स्थायी नही होता।

वहां जब जैसा तब तैसा का सिद्धांत ही काम करता है। वैसे यह तो माना ही जाएगा कि योगी सरकार ने भारी-भरकम बजट के जरिए आर्थिक विकास का मास्टर स्ट्रोक जड़ दिया है।साथ ही यह भी बताने-जताने की कोशिश की है कि वर्ष 2016-17 में पेश तत्कालीन अखिलेश सरकार के 3.46 लाख करोड़ के बजट से यह 2 गुना बड़ाहै।
इस बजट मे युवाओं की शिक्षा, रोजगार, महिलाओं और किसानों के सशक्तिकरण, कानून-व्यवस्था के साथ-साथ राज्य के चहुंमुखी विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया है। योगी सरकार का पिछला बजट 5,50,270.78 करोड़ रुपये का था। मौजूदा बजट में 27,598.40 करोड़ रुपये की नई योजनाएं भी शामिल की गई हैं। योगी सरकार प्रदेश को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना चाहती है और इसके लिए वह निरंतर प्रयासरत भी है।

विगत दो साल कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं। इसके बाद भी इतना बड़ा बजट लाना साहस का काम है।इस बजट में गाँव-गरीब और किसान और मजदूर की चिंता तो है ही,शिक्षा और स्वास्थ्य पर भी सरकार का विशेष फोकस है।इस बजट में युवाओं और महिलाओं के लिए भी बहुत कुछ खास है।आयुर्वेदिक और प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति को आगे बढऩे का सरकार का संकल्प भी इस बजट में प्रमुखता से नजर आता है।

किसानों के भुगतान पर घेरने वालों को भी सरकार ने मुहतोड़ जवाब दिया है।यह तो बताया ही है कि 2022 में उसने गन्ना किसानों का सर्वाधिक भुगतान किया है,साथ ही उत्तर प्रदेश के शेष गन्ना किसानों को भुगतान के लिए 1000 करोड़ का प्रस्ताव किया है। मुख्यमंत्री लघु सिंचाई योजना के तहत 34,307 सरकारी नलकूपों और 252 छोटी शाखा नहरों के साथ-साथ 1000 करोड़ रुपये के माध्यम से किसानों को मुफ्त सिंचाई सुविधा का भी बजटीय प्रस्ताव दियाहै। मुख्यमंत्री कृषक दुर्घटना कल्याण योजना के तहत किसानों के लिए 650 करोड़ रुपये के दुर्घटना बीमा का प्रस्ताव किया है।

योगी सरकार ने भी पीएम गति शक्ति योजना के तहत मल्टी-मोडल कनेक्टिविटी परियोजनाओं के लिए 897 करोड़ रुपये और मेरठ से प्रयागराज तक 594 किलोमीटर लंबे 6-लेन गंगा एक्सप्रेसवे के लिए 34 करोड़ रुपये प्रस्तावित किया है।
आधी आबादी की सुरक्षा किसी भी प्रदेश के लिए बड़ी चुनौती होती है। उत्तरप्रदेश के सभी 75 जिलों के समस्त 1535 थानों पर महिला हेल्प डेस्क बनाना ,2,740 महिला पुलिस कार्मिकों को 10,370 महिला बीटों का आवंटन ,3 महिला पीएसी बटालियन लखनऊ, गोरखपुर तथा बदायूँ निश्चित रूप से बड़ी पहल है।इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

सभी जनपदों में जनपद स्तर पर साइबर हेल्प डेस्क स्थापना और महिला सामर्थ्य योजना हेतु 72 करोड़ 50 लाख रुपये की व्यवस्था,महिलाओं की सुरक्षा एवं सशक्तिकरण तथा कौशल विकास हेतु 20 करोड़ की व्यवस्था का स्वागत किया जाना चाहिए। 2025 में प्रयागराज में होने वाले महाकुंभ की तैयारी के लिए 100 करोड़ रुपए के बजट की व्यवस्था की है।
सरकार ने केन्द्र स्मार्ट सिटी के तहत चयनित 10 शहरों के लिए 2000 करोड़ और राज्य स्मार्ट सिटी में चयनित 7 शहरों के लिए 210 करोड़ रुपए की व्यवस्था कर जहां प्रदेश के समग्र विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है,,वहीं- स्वच्छ भारत मिशन योजना के लिए 1353 करोड़ 93 लाख रुपए का बजट प्रस्तावित कर स्वच्छता अभियान को भी गति देने का प्रयास किया है।

प्रधानमंत्री आवास योजना-सबके लिये आवास (शहरी) योजना के लिए 10,127 करोड़ 61 लाख रुपए का बजट देकर उसने डबल इंजन की सरकार की शक्ति का बोध कराया है। नगर पंचायतों के विकास के लिए सरकार ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदर्श नगर पंचायत योजना के तहत 200 करोड़ रुपए और मुख्यमंत्री नगरीय अल्प विकसित व मलिन बस्ती योजना के लिए बजट में 215 करोड़ रूपये की व्यवस्था की है। नलजल योजना की चिंता की है तो गौ संरक्षण का भी ध्यान रखा है।

एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यस्था के लिए हमें दहाई के आंकड़े में विकास दर हासिल करनी होगी। इसमें संदेह नहीं कि सरकार इस दिशा में सोच भी रही है और बेहतर कर भी रही है लेकिन यह लक्ष्य तब तक पूरा नहीं होगा जब तक उसे जन-जन का साथ न मिले। भ्रष्टाचार और अपराध को रोककर ही इस दिशा में आशातीत सफलता प्राप्त की जा सकती है।बजट से सरकार की इच्छाशक्ति का पता चलता है। आगाज अच्छा है तो अंजाम भी बेहतर होगा। इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

– लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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पंडित नेहरू का भारत निर्माण में अभूतपूर्व योगदान है!

नेहरू जी के पुण्यतिथि पर विशेष

– डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट – भारत निर्माण में अभूतपूर्व योगदान है पंडित नेहरू का!. महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी सुख सुविधाओं को त्याग कर आजादी के आंदोलन में भाग लिया था। वे अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े थे।

चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन हो ,उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित होते थे और इसीलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे।महात्मा गांधी के ही प्रयास से वे देश के प्रथम प्रधानमंत्री बन पाए।

सन् 1920 में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जि़ले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया था। सन 1923 में पंडित नेहरु अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए।सन 1952 में देश मे पहले आमचुनाव हुए ,जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री चुने गए। इससे पहले वह सन1947 में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे।

संसद की 497 सीटों के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए थे। लेकिन जहाँ संसद में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ ,वहीं कुछ राज्यों में कांग्रेस को दूसरे दलों से ज़बर्दस्त टक्कर मिली थी। कांग्रेस पार्टी बहुमत हासिल करने में चेन्नई, हैदराबाद और त्रावणकोर जैसे शहरों में विफल रही थी, उसे कम्युनिस्ट पार्टी ने कड़ी टक्कर दी थी।

हालाँकि इन चुनावों में हिन्दू महासभा और अलगाववादी सिक्ख अकाली पार्टी को मुँह की खानी पड़ी थी। पहले चुनाव के बाद से ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने दक्षिणी राज्यों में जनसमर्थन बढ़ाना शुरू कर दिया था, जिसके नतीजे सन 1957 में हुए चुनाव में उसे मिले। त्रावणकोर-कोचिन और मालाबार को मिला कर बने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई।

सन1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से 35 वर्षों तक यानि सन 1964 तक प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए पंडित नेहरू ने देश में विकास पटरी बिछाई थी , सन1962 में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था।

गांधी जी वस्तुत: सामाजिक उदारवादी थे, जो देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे।देश के इतिहास में एक ऐसा अवसर भी आया था, जब महात्मा गांधी को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू में से किसी एक का चयन करना था।

लौह पुरुष के सख्त तेवर के सामने नेहरू का विनम्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण भारी पड़ा और वह न सिफऱ् इस पद पर चुने गए, बल्कि उन्हें सबसे लंबे समय तक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की बागडोर संभालने का गौरव हासिल भी हुआ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू एक महान् राजनीतिज्ञ , प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, प्रसिद्ध लेखक भी रहे। उनकी आत्मकथा सन 1936 ई. में प्रकाशित हुई थी।

उनकी अन्य पुस्तकों में भारत एक खोज, भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद उल्लेखनीय हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश में औद्योगीकरण को महत्व बहुत महत्व दिया। भारी उद्योगों की स्थापना को उन्होंने प्रोत्साहन दिया। विज्ञान के विकास के लिए सन1947 ई. में नेहरू ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना की।

भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के स्पष्ट प्रतीक हैं। खेलों में नेहरू की खास रुचि थी। उन्होंने खेलों को मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए आवश्यक बताया था। एक देश का दूसरे देश से मधुर सम्बन्ध क़ायम करने के लिए सन 1951 ई. में उन्होंने दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन कराया था।

नेहरू ने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा था। उन्होंने आर्थिक योजना की आवश्यकता पर भी बल दिया। वे सन 1938 ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित राष्ट्रीय योजना समिति के अध्यक्ष भी बने। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वे राष्ट्रीय योजना आयोग के प्रधान बने।

नेहरू के व्यक्तिगत प्रयास से ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था।जवाहरलाल नेहरू ने निर्गुटता एवं पंचशील जैसे सिद्धान्तों का पालन कर विश्व बन्धुत्व एवं विश्वशांति को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जीवनपर्यन्त संघर्ष किया।

अपने क़ैदी जीवन में जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया, ग्लिम्पसेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री एवं मेरी कहानी नामक पुस्तकों की रचना कर स्वयं को एक लेखक के रूप में भी सिद्ध किया।उनको बच्चे बहुत प्रिय रहे,बच्चे भी उन्हें चाचा नेहरू के रूप में सम्मान देते थे।तभी तो उनका जन्मदिन बालदिवस के रूप में मनाया जाता है।

चाचा नेहरू अब आ भी आओ
हमको अच्छे खिलौने दिलाओ
समय अब बहुत बदल गया है
बच्चों का भी खेल बदल गया है
गिल्ली डंडा ,कबड्डी नही रहे अब
कुश्ती,खो खो इतिहास हो गए अब
सब पर क्रिकेट का जुनून सवार है
मोबाईल खेल का बड़ा हथियार है
सांप सीडी लूडो से नही प्यार है
कार्टून फिल्मे ही हमे भाती है
कम्प्यूटर गेम खूब लुभाती है
गुलाब का फूल अब नही लेंगे
मिठाई भी पसन्द हम नही करेंगे
चावमीन, पिज्जा अच्छा लगता है
चॉकलेट, बर्गर हमे बहुत भाता है
बाल कल्याण की कोई नीति नही है
हमे लुभाने की कोई रीति नही है
चाचा नेहरू सिर्फ तुम्ही थे अपने
तुम्हारे बिन हमारे ध्वस्त है सपने
आज के नेताओं को सद्बुद्धि दे दो
बालदिवस पर एक छुट्टी दिला दो।

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भाजपा राहुल को धन्यवाद दे

वेद प्रताप वैदिक – भाजपा राहुल को धन्यवाद दे. राहुल गांधी ने लंदन जाकर भारत की राजनीति, सरकार, संघवाद, विदेश मंत्रालय आदि के बारे में जो बातें कहीं, वे नई नहीं हैं लेकिन सवाल यह है कि उन्हें विदेशों में जाकर क्या यह सब बोलना चाहिए? भारत में रहते हुए वे सरकार की निंदा करें, यह बात तो समझ में आती है, क्योंकि वे ऐसा न करें तो विपक्ष का धंधा ही बंद हो जाएगा। भारत का विपक्ष इतना टटपूंजिया हो गया है कि उसके पास निंदा के अलावा कोई धंधा ही नहीं बचा है। उसके पास न कोई विचारधारा है, न सिद्धांत है, न नीति है, न कार्यक्रम है, न जन-आंदोलन के कोई मुद्दे हैं। उसके पास कोई दिखावटी नेता भी नहीं हैं।

जो नेता हैं, वे कालिदास और भवभूति के विदूषकों को भी मात करते हैं। उनकी बातें सुनकर लोग हंसने के अलावा क्या कर सकते हैं? जैसे राहुल गांधी का यह कहना कि भारत-चीन सीमा का विवाद रूस-यूक्रेन युद्ध का रूप भी ले सकता है। ऐसा मजाकिया बयान जो दे दे, उसे कुछ खुशामदी लोग फिर से कांग्रेस-जैसी महान पार्टी का अध्यक्ष बनवा देना चाहते हैं। जो व्यक्ति भारत की तुलना यूक्रेन से कर सकता है, आप अंदाज लगा सकते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी पढ़ाई-लिखाई पर कितना ध्यान दिया होगा?

कोई जरुरी नहीं है कि हर नेता अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विशेषज्ञ हो लेकिन वह यदि अखबार भी ध्यान से पढ़ ले और उन्हें न पढ़ सके तो कम से कम टीवी देख लिया करे तो वह ऐसी बेसिर-पैर की बात कहने से बच सकता है। भारतीय राजनीति परिवारवाद और सत्ता के केंद्रीयकरण से ग्रस्त है, इसमें शक नहीं है लेकिन उसका विरोध करने की बजाय राहुल ने भारत को विभिन्न राज्यों का संघ बता दिया। इसका अर्थ क्या हुआ? याने भारत एकात्म राष्ट्र नहीं है। ऐसा कहकर क्या अलगाववाद को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है?

इसी तरह पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति की तुलना भारत से करने की तुक क्या है? भारत में कोई सरकार कभी अपनी फौज के इशारों पर नाची है? यह कहना बिल्कुल गलत है कि भारत के अखबारों और टीवी चैनलों पर भारत सरकार का 100 प्रतिशत कब्जा है। क्या आज भारत में आपात्काल (1975-77) जैसी स्थिति है? जो पत्रकार और अखबार मालिक खुशामदी हैं, वे अपने स्वार्थों की वजह से हैं। जो निष्पक्ष और निर्भीक हैं, उन्हें छूने की हिम्मत किसी की भी नहीं है।
भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री पर घमंडी होने का आरोप भी लगाया जाता रहा है लेकिन यही आरोप तो आज कांग्रेस के नेतृत्व को तबाही की तरफ ले जा रहा है। हमारे विदेश मंत्रालय के अफसरों पर आक्षेप करना भी उचित नहीं है। वे अत्यंत शिष्ट और उचित व्यवहार के लिए सारी दुनिया में जाने जाते हैं। कुछ भाजपा नेताओं ने राहुल के आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देने की कोशिश भी की है।

वह तो जरुरी था लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि भाजपा अपने भाग्य को सराहे कि उसे राहुल-जैसा विरोधी नेता मिल गया है, जिससे उसको कभी कोई खतरा हो ही नहीं सकता। भाजपा को अगर कभी कोई खतरा हुआ तो वह खुद से ही होगा। भाजपा को चाहिए कि वह राहुल को धन्यवाद दे और उसकी पीठ थपथपाए।

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राजीव गांधी के हत्यारे को सर्वोच्च न्यायालय ने रिहा कर दिया

वेद प्रताप वैदिक – राजीव गांधी के हत्यारे ए.जी. पेरारिवालन को सर्वोच्च न्यायालय ने रिहा कर दिया। इस पर तमिलनाडु में खुशियां मनाई जा रही हैं। उस हत्यारे और उसकी मां के साथ मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन गले मिल रहे हैं। हत्यारे की कलम से लिखा गया एक लेख दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने छापा है, जिसमें उसने उन लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया है, जिन्होंने उसकी कैद के दौरान उसके साथ सहानुभूतियां दिखाई थीं। तमिलनाडु के अन्य प्रमुख दल भी उसकी रिहाई का स्वागत कर रहे हैं। तमिलनाडु की कांग्रेस ने बड़ी दबी जुबान से इस रिहाई का विरोध किया है।

कहने का तात्पर्य यह कि इस मामले में तमिलनाडु की सरकार और जनता प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी की हत्या पर जरा भी दुखी मालूम नहीं पड़ रही है। यह अपने आप में कितने दुख की बात है? यदि श्रीलंका के तमिलों के साथ हमारे तमिल लोगों की प्रगाढ़ता है तो इसमें कुछ बुराई नहीं है लेकिन इसके कारण उनके द्वारा किए गए इस हत्याकांड की उपेक्षा की जाए, यह बात समझ के बाहर है।

तमिलनाडु सरकार इस बात पर तो खुशी प्रकट कर सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में राज्यपाल को नीचे खिसका दिया और तमिलनाडु सरकार को ऊपर चढ़ा दिया। राज्यपाल ने प्रादेशिक सरकार के इस प्रस्ताव पर अमल नहीं किया कि राजीव गांधी के सातों हत्यारों को, जो 31 साल से जेल में बंद हैं, रिहा कर दिया जाए। राज्यपाल ने सरकार का यह सुझाव राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने पेरारिवालन की याचिका पर फैसला देते हुए संविधान की धाराओं का उल्लेख करते हुए कहा कि राज्यपाल के लिए अनिवार्य है कि वह अपने मंत्रिमंडल की सलाह को माने।

इसीलिए दो-ढाई साल से राष्ट्रपति के यहां झूलते हुए इस मामले को अदालत ने तमिलनाडु सरकार के पक्ष में निपटा दिया। इस फैसले ने तो यह स्पष्ट कर दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए अपने मंत्रिमंडलों की सलाह को मानना अनिवार्य है लेकिन प्रांतीय सरकार की इस विजय का यह डमरू जिस तरह से बज रहा है, उसकी आवाज का यही अर्थ निकाला जा रहा है कि राजीव गांधी के हत्यारे की रिहाई बधाई के लायक है। अब जो छह अन्य लोग, जो राजीव की हत्या के दोषी जेल में बंद हैं, वे भी शीघ्र रिहा हो जाएंगे।

उनकी रिहाई का फैसला भी तमिलनाडु सरकार कर चुकी है। लगभग 31 साल तक जेल काटनेवाले इन दोषियों को फांसी पर नहीं लटकाया गया, यह अपने आप में काफी उदारता है और अब उन्हें रिहा कर दिया जाएगा, यह भी इंसानियत ही है लेकिन हत्यारों की रिहाई को अभिनंदनीय घटना का रूप देना किसी भी समाज के लिए अशोभनीय और निंदनीय है।

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नाक में दम करती मंहगाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो..

वेद प्रताप वैदिक -नाक में दम करती मंहगाई.  मंहगाई यदि इसी तरह बढ़ती रही तो देश में अराजकता भी फैल सकती है। ताजा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय थोक चीजों के दाम में 15.08 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई है। इतनी मंहगाई 31 साल बाद बढ़ी है। इन तीन दशकों में मंहगाई जब थोड़ी-सी भी बढ़ती दिखाई देती थी तो देश में शोर मचना शुरु हो जाता था। संसद में शोर मचने लगता था, सड़कों पर प्रदर्शन होने लगते थे और सरकारों की खाट खड़ी होने लगती थी लेकिन इस वर्ष बढ़ी मंहगाई को लोग दो कारणों से अभी तक बर्दाश्त किए हुए हैं। एक तो कोरोना महामारी की वजह से और दूसरे यूक्रेन-युद्ध के कारण!

कोरोना महामारी ने देश के करोड़ों लोगों को लंबे समय तक बेरोजगार कर दिया और यूक्रेन-युद्ध ने तेल की कीमतों में वृद्धि करवा दी। तेल की कीमतें बढ़ीं तो उसके कारण देश में एक जगह से दूसरी जगह जानेवाली हर चीज की कीमत बढ़ गई। भयंकर गर्मी के कारण साग-सब्जी, फलों और दूध की कीमतों ने भी उछाल ले लिया। पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतें इतनी उचका दी गईं कि मध्यम-वर्ग के लोग भी हैरान और परेशान हैं।

गांव के लोग तो फिर भी चूल्हे-अंगीठी से गुजारा कर सकते हैं और कार व फटफटी की बजाय साइकिल से अपने काम निकाल सकते हैं लेकिन शहरी लोग क्या करें? बसों और मेट्रो के किराए लगभग दुगुने हो गए हैं। आम आदमी की मुसीबतें ज्यादा बढ़ गई हैं। अनाज, दाल, मसालों जैसी रोजमर्रा की चीजें खरीदते वक्त उसके पसीने छूटने लगते हैं। मध्यम वर्ग, कर्मचारी वर्ग और मेहनतकश लोगों की आमदनी तो जस की तस है लेकिन उनका खर्च सवाया-डेढ़ा बढ़ गया है।

कुछ लोगों को तो अपना रोजमर्रा का जीवन चलाने के लिए बैंकों से अपनी स्थायी जमा राशियों को तुड़ाना पड़ गया है। लेकिन हमारी तेल बेचनेवाली कंपनियों ने इस दौर में अरबों रु. का मुनाफा कमाया है। जीएसटी की जरिए सरकारों को भी अभूतपूर्व आमदनी हो रही है लेकिन सरकार ने आम जनता को इधर कौनसी विशेष राहत दी है? सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांट रही है, यह तो बहुत अच्छा है लेकिन उसने अपने खर्चें में कौनसी कटौती की है? मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्षदों के वेतन, भत्ते, और तरह-तरह के खर्चों में बचत की क्या जरुरत नहीं है?

इसके अलावा यदि थोक चीजों के दाम 15 प्रतिशत बढ़े हैं तो जऱा बाजारों में जाकर मालूम कीजिए की उनके खुदरा दाम कितने बढ़े हैं? कई चीजों के दाम दुगुने-तिगुने हो गए हैं। उन्हें रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है? इस मंहगाई ने मालदार लोगों को पहले से कहीं ज्यादा मालदार बना दिया है। वे बेलगाम खर्चीली जिंदगी बिता रहे हैं।
अच्छा होता कि हमारे नेता लोग अपने खर्चे भी घटाते और मालदार लोगों को कम खर्च में जिंदगी चलाने की प्रेरणा भी देते। मुनाफाखोरों और मिलावटखोरों के विरुद्ध आवश्यक सख्ती भी कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है।

मंहगाई यदि बर्दाश्त के बाहर हो गई तो प्रचंड बहुमतवाली इस लोकप्रिय सरकार की नाक में दम हो सकता है।

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क्षेत्रीय पार्टियों से ही भाजपा को चुनौती

अजीत द्विवेदी- क्षेत्रीय पार्टियों से ही भाजपा को चुनौती. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के उदयपुर के नव संकल्प शिविर के समापन भाषण में करीब 99 फीसदी बातें वहीं कहीं, जो वे पिछले आठ साल से कह रहे हैं। भाजपा समाज को बांटती है, जबकि कांग्रेस जोड़ती है और भाजपा चंद उद्योगपतियों के लिए काम करती है, जबकि कांग्रेस सबके लिए काम करती है, यह उनके भाषण की थीम थी। ये बातें वे सालों से कर रहे हैं। ‘मैं किसी से नहीं डरता हूं और मैंने किसी से एक रुपया नहीं लिया है’, यह बात वे कई बार कह चुके हैं। उन्होंने यह कबूल किया कि कांग्रेस का जनता से कनेक्शन टूट गया है, यह भी कोई नई बात नहीं है। वे हर चुनाव में कांग्रेस के हारने के बाद मीडिया के सामने आकर या ट्विट करके हार की जिम्मेदारी कबूल करते हैं तो वह असल में इसी बात का स्वीकार होता है कि कांग्रेस का कनेक्शन जनता से टूट गया है।
उनके करीब 35 मिनट के भाषण में कुल मिला कर एक लाइन नई थी कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को नहीं हरा सकती हैं क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा नहीं है। वे पहले भी कहते रहे हैं कि सिर्फ कांग्रेस ही भाजपा से लड़ सकती है। लेकिन इस बार उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों और उनकी विचारधारा का मुद्दा उठा दिया।
राहुल गांधी का यह बयान न सिर्फ राजनीतिक रूप से गलत है, बल्कि तथ्यात्मक रूप से भी गलत और भ्रामक है। मौजूदा समय की हकीकत है कि एकाध अपवाद को छोड़ कर कांग्रेस कहीं भी अकेले भाजपा से नहीं लड़ रही है। वह खुद ही कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों पर आश्रित है और उन्हीं की ताकत के सहारे लड़ रही है। दूसरी ओर क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर भाजपा से लड़ सकती हैं और लड़ रही हैं कांग्रेस पार्टी इसलिए भाजपा से नहीं लड़ पा रही है क्योंकि उसके पास न संगठन की ताकत बची है और न विचारधारात्मक ताकत है। तीन दिन के नव संकल्प शिविर में भी कांग्रेस की विचारधारात्मक स्पष्टता नहीं दिखी।
पार्टी ने भाजपा की राजनीति को विभाजनकारी बताया लेकिन इस पर हमला दो टूक नहीं था। भाजपा हिंदुत्व की राजनीति का इस्तेमाल कर रही है यह कांग्रेस ने नहीं कहा। पार्टी ने यह भी नहीं कहा कि वह हिंदुत्व की इस राजनीति के बरक्स कौन सी राजनीति करेगी? उसके पास क्या वैकल्पिक विचार है, यह स्पष्ट नहीं किया गया। भाजपा की तरह कांग्रेस भी हिंदुत्व या नरम हिंदुत्व के रास्ते पर चल रही है। उसका रास्ता क्या यही रहेगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया? सो, वैचारिक अस्पष्टता किसी भी क्षेत्रीय पार्टी से ज्यादा कांग्रेस में है। यहीं कारण है कि क्षेत्रीय पार्टियों में टूट-फूट नहीं हो रही है, जबकि कांग्रेस पार्टी के नेता पलक झपकने में जितना समय लगता है उतने समय में पार्टी बदल देते हैं। यह कांग्रेस के वैचारिक पतन की पराकाष्ठा है, जो इतनी बड़ी संख्या में उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं।
अब रही बात जीतने-हारने की तो उसकी हकीकत समझने के लिए किसी बड़ी बौद्धिक कवायद की जरूरत नहीं है। पिछले आठ साल में क्षेत्रीय पार्टियों ने ही जगह जगह भाजपा का विजय रथ रोका है। क्षेत्रीय या गैर कांग्रेसी पार्टियों से ही लडऩे में भाजपा को मुश्किल हो रही है। राहुल गांधी हर जगह बिना मतलब यह बताते रहते हैं कि वे साहसी हैं और भाजपा से नहीं डरते हैं। यह कहे बगैर ही अनेक राज्यों के प्रादेशिक क्षत्रप भाजपा से लड़ रहे हैं। वे अपने साहस का डंका नहीं बजा रहे हैं। वे केंद्रीय एजेंसियों की मार भी झेल रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा से लड़ रहे हैं और उसे हरा भी रहे हैं। उनकी और कांग्रेस की हार-जीत का अनुपात निकालें तो तस्वीर अपने आप साफ हो जाएगी। भाजपा के नेता भी मानते हैं कि उनके लिए कांग्रेस से लडऩा और उसे हराना बहुत आसान है। भाजपा बार बार कांग्रेस को हरा रही है और उसके नेता सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि उनके असली प्रचारक राहुल गांधी हैं। यह बात वे प्रादेशिक नेताओं के बारे में नहीं कहते हैं। संभव है कि कांग्रेस की अखिल भारतीय मौजूदगी और पुराने इतिहास को देखते हुए भाजपा उसकी वापसी की संभावना से डरती हो और इसलिए राहुल को ज्यादा निशानी बनाती हो लेकिन हकीकत यह है कि अभी तक पिछले आठ साल में राहुल और उनकी कमान वाली कांग्रेस ने भाजपा को वास्तविक चुनौती नहीं दी है।
भाजपा के लिए वास्तविक चुनौती प्रादेशिक पार्टियां हैं। बिहार में 2015 में राजद और जदयू मिल गए तो दोनों ने भाजपा को बुरी तरह से हराया। ममता बनर्जी ने तो पश्चिम बंगाल में 2016 और 2021 में लगातार दो बार हराया। इसी तरह अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में लगातार दो चुनावों में भाजपा को बुरी तरह से हराया। झारखंड में हेमंत सोरेन ने भाजपा को निर्णायक रूप से हराया। बिहार और झारखंड में कांग्रेस भी गठबंधन सहयोगी थी, जिसका फायदा उसे मिला। तमिलनाडु में डीएमके ने अन्ना डीएमके से गठबंधन करके भाजपा के लडऩे की रणनीति को बुरी तरह से विफल किया। केरल में वाम मोर्चे ने भाजपा को रोका है तो ओडिसा और आंध्र प्रदेश में भी दो क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा के विजय रथ को रोक रखा है। तेलंगाना में भी भाजपा को रोकना है तो यह काम कांग्रेस नहीं करेगी, बल्कि टीआरएस करेगी। महाराष्ट्र में भाजपा की पुरानी सहयोगी शिव सेना ने पहल करके भाजपा को सरकार बनाने से रोका।
प्रादेशिक पार्टियों के इस प्रदर्शन के बरक्स कांग्रेस का प्रदर्शन देखें तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है। जहां भी कांग्रेस का सीधा मुकाबला था या भाजपा को रोकने की जिम्मेदारी कांग्रेस की थी वहां वह लगभग पूरी तरह से असफल रही। समूचा पूर्वोत्तर किसी क्षेत्रीय पार्टी की वजह से भाजपा के नियंत्रण में नहीं गया है, बल्कि वह कांग्रेस की विफलता थी कि वहां आधा दर्जन राज्यों में भाजपा की या उसके समर्थन वाली सरकार बनी है। कर्नाटक में जेडीएस टूटने के कारण कांग्रेस और जेडीएस की साझा सरकार नहीं गिरी थी, बल्कि कांग्रेस की कमजोरी और उसके टूटने की वजह से सरकार गिरी थी। मध्य प्रदेश में लोगों ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी लेकिन कांग्रेस की कमजोरी से वहां भी सरकार गिर गई। सिर्फ दो राज्यों में इस समय कांग्रेस की सरकार है और वह भी पार्टी की किसी विचारधारा या केंद्रीय नेतृत्व की वजह से नहीं है, बल्कि पार्टी के दो कद्दावर प्रादेशिक क्षत्रपों की वजह से है। लोकसभा चुनाव में भी भाजपा का जहां कांग्रेस से मुकाबला है वहां उसका रिजल्ट सौ फीसदी के करीब है। दो-तीन राज्यों को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्यों में लोकसभा चुनाव में भी प्रादेशिक क्षत्रपों ने ही भाजपा को चुनौती दी है और उसे रोका है।
कांग्रेस इस हकीकत को नजरअंदाज कर रही है कि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों के पास लंबा राजनीतिक इतिहास है और वे किसी न किसी आंदोलन से निकली हैं। अलग झारखंड राज्य के आंदोलन से झारखंड मुक्ति मोर्चा का जन्म हुआ तो मंडल की राजनीति से राजद, सपा आदि पार्टियों का उदय हुआ। लंबे द्रविड आंदोलन की पैदाइश डीएमके है तो अलग राज्य के आंदोलन से तेलंगाना राष्ट्र समिति का उदय हुआ। साढ़े तीन दशक के लेफ्ट शासन के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस बनी है। इन पार्टियों के पास अपना इतिहास है, अपनी विचारधारा है, अपने लोगों के लिए काम करने का एजेंडा है और सबसे ऊपर इनके पास संगठन और कैडर की ताकत है। इनके बरक्स कांग्रेस के पास इतिहास छोड़ कर और कुछ नहीं बचा दिख रहा है।

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गेहूं बना सिरदर्द,कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है

वेद प्रताप वैदिक – गेहूं बना सिरदर्द,कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है. अभी महिना भर पहले तक सरकार दावे कर रही थी कि इस बार देश में गेहूं का उत्पादन गज़ब का होगा। उम्मीद थी कि वह 11 करोड़ टन से ज्यादा ही होगा और भारत इस साल सबसे ज्यादा गेहूं निर्यात करेगा और जमकर पैसे कमाएगा।

इसकी संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं की कमी पडऩे लगी है लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने रातों-रात फैसला कर लिया कि भारत अब गेहूं निर्यात नहीं करेगा?

इसका पहला कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है। इसका मुख्य कारण मार्च, अप्रैल और मई में पडऩे वाली भयंकर गर्मी है। सरकार ने पिछले साल अपने गोदामों में सवा चार करोड़ टन गेहूं खरीदकर भर लिया था लेकिन इस बार वह सिर्फ दो करोड़ टन गेहूं ही खरीद पाई है। पिछले 15 साल में इतना कम सरकारी भंडारण पहली बार हुआ है। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार 11 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पैदा होगा और वह लगभग एक-डेढ़ करोड़ टन निर्यात करेगी।
सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम होगा। लगभग 4-5 करोड़ टन के निर्यात के समझौते हो चुके हैं और लगभग डेढ़ करोड़ टन निर्यात भी हो चुका है। हजारों टन गेहूं हम अफगानिस्तान और श्रीलंका भी भेज चुके हैं। अब इस निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उसके पीछे तर्क यही है कि एक तो लगभग 80 करोड़ लोगों को निशुल्क अनाज बांटना है और दूसरा यह कि अनाज के दाम अचानक बहुत बढ़ गए हैं।

20-22 रू. किलो का गेहूं आजकल बाजार में 30 रु. किलो तक बिक रहा है। यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस समय गेहूं के दामों में काफी उछाल आ गया है और भारत उससे काफी पैसा कमा सकता है लेकिन सरकार का यह डर बहुत स्वाभाविक है कि यदि निर्यात बढ़ गया तो गेहूं इतना कम न पड़ जाए कि भारत में संकट खड़ा हो जाए। सरकार का यह सोच तो व्यावहारिक है लेकिन यदि गेहूं का निर्यात रूक गया तो हमारे किसानों की आमदनी काफी घट जाएगी। उन्हें मजबूर होकर अपने गेहूं को सस्ते से सस्ते दाम पर बेचना होगा।

इस समय सबसे बड़ी चांदी उन व्यापारियों की है, जिन्होंने ज्यादा कीमतों पर गेहूं खरीदकर अपने गोदामों में दबा लिया है लेकिन गेहूं का निर्यात रूक जाने से उसके दाम गिरेंगे और इससे किसानों से भी ज्यादा व्यापारी घाटे में उतर जाएंगे। सरकार चाहती तो निर्यात किए जानेवाले गेहूं के दाम बढ़ा सकती थी। उससे निर्यात की मात्रा घटती लेकिन सरकार की आमदनी बढ़ जाती। वह किसानों से भी थोड़ी ज्यादा कीमत पर गेहूं खरीदती तो उसका भंडारण दुगुना हो सकता था।

गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने के पीछे श्रीलंका से टपक रहा सबक भी है। इस समय देश में खाद्य-पदार्थों की मंहगाई से लोगों का पारा चढऩा स्वाभाविक हो गया है।

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तपती धरती का जिम्मेदार कौन?

07.05.2022 – अजीत द्विवेदी – तपती धरती का जिम्मेदार कौन?. भारत में इस साल गर्मियां मार्च में ही शुरू हो गईं। फाल्गुन और चैत्र का महीना हल्की ठंड और मौसम के बदलाव वाला होता है। लेकिन इस साल होली से पहले ही गर्मी पडऩे लगी। सर्दियों के बाद बसंत का खुशनुमा मौसम नहीं आया। सीधे गर्मी आई। राजधानी दिल्ली सहित देश के 18 राज्यों के कम से कम 20 शहरों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के मैदानी इलाकों के अलावा पहाड़ों में भी इस साल अप्रैल में भीषण गर्मी पड़ी और तापमान सामान्य से चार-पांच डिग्री ऊपर रहा। हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में इस साल अभी तक 21 दिन हीटवेव रही है और उत्तराखंड में चार दिन हीटवेव रही।

भारतीय मौसम विभाग ने हीटवेव घोषित करने के लिए मैदानी इलाकों में 45 डिग्री, तटीय इलाकों में 37 डिग्री और पर्वतीय इलाकों में 30 डिग्री की सीमा तय की है। इसका मतलब है कि हिमाचल प्रदेश में 21 दिन और उत्तराखंड में चार दिन तापमान कम से कम 30 डिग्री से ऊपर रहा। जम्मू कश्मीर में भी 16 दिन हीटवेव रही।एक तरफ यह स्थिति है कि पूरे देश में निर्धारित समय से एक-डेढ़ महीने पहले गर्मी शुरू हो गई और दूसरी ओर यह अध्ययन है कि भारत में ग्लेशियर नहीं पिघल रहे हैं और नदियों के सूखने का खतरा नहीं है।

कैटो इंस्टीच्यूट के एक ताजा अध्ययन में आईपीसीसी के उस निष्कर्ष को खारिज किया गया है, जिसमें कहा गया था कि 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में 2035 हिमालय के सारे ग्लेशियर गायब हो जाने का अंदेशा जताया था। लेकिन अब कैटो इंस्टीच्यूट के रिसर्च फेलो स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर और विजय के रैना ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि हिमयुग की समाप्ति के बाद से यानी कोई साढ़े 11 हजार साल से ग्लेशियर पिघल रहे हैं पर निकट भविष्य में उनके खत्म होने की कोई संभावना नहीं है। इसके कम से कम तीन हजार साल तक बने रहने की संभावना है।

आईपीसीसी और कैटो इंस्टीच्यूट के नतीजों में इतना बड़ा अंतर होना इस बात का सबूत है कि जलवायु परिवर्तन का अध्ययन बहुत अधूरा व सतही है और किसी को वास्तविकता का अंदाजा नहीं है।वास्तविकता वह है, जो दिख रही है। मौसम के मिजाज का बदलाव दिख रहा है और आम लोग इसे महसूस कर रहे हैं। सर्दियों में भयानक ठंड, बारिश के मौसम में बेहिसाब बरसात और गर्मियों में आसमान से आग बरसने की गवाह पूरी दुनिया है। तभी इससे फर्क नहीं पड़ता है ग्लेशियर पिघलने को लेकर किसी इंस्टीच्यूट का अध्ययन क्या बताता है। हकीकत यह है कि अप्रैल के महीने में भारत के कई पर्वतीय इलाकों में, जंगलों में आग लगी है। पर्वतीय इलाकों में हीटवेव चल रही है और देश के उत्तर, पश्चिमी व मध्य भारत में गर्मी ने अप्रैल के महीने में 122 साल का रिकार्ड तोड़ा है।

देश के बड़े हिस्से में अप्रैल में ऐसी गर्मी पड़ी है, जैसी 122 साल में नहीं पड़ी थी। अप्रैल के महीने में लू चलने का अनुभव कई इलाकों में पहली बार हुआ। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या मौसम का ऐसा मिजाज अचानक हुआ है या यह लंबे समय से हो रहे बदलाव का नतीजा है?मौसम वैज्ञानिक देश में मार्च-अप्रैल में बढ़ी गर्मी के दो-तीन तात्कालिक कारण बता रहे हैं। एक कारण यह बताया जा रहा है कि पश्चिमी विक्षोभ की अनुपस्थिति की वजह से फाल्गुन-चैत्र के महीने में होने वाली बारिश नहीं हुई और उसी वजह से हीटवेव की स्थिति बनी।

यह बात काफी हद तक तार्किक है क्योंकि भारत में बारिश आमतौर पर वेस्टर्न डिस्टरबेंस यानी पश्चिमी विक्षोभ की वजह से ही होती है। पर सवाल है कि इस साल पश्चिमी विक्षोभ की स्थिति क्यों नहीं बनी? एक दूसरे अध्ययन के मुताबिक पूर्वी व मध्य प्रशांत महासागर में ला नीना से जुड़ा एक उत्तर दक्षिण दबाव का पैटर्न होता है, जो सर्दियां खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाता है। लेकिन इस बार यह ज्यादा समय तक बना रहा और इसने आर्कटिक क्षेत्र से आने वाली गर्म लहरों से हीटवेव का निर्माण किया।

ध्यान रहे प्रशांत महासागर में ही समुद्र की सतह जब औसत से ज्यादा ठंड़ी हो जाती है तो भारत सहित कई देशों में शीतलहर चलती है।इसका मतलब है कि भारत में कोल्डवेव या हीटवेव के लिए जितना जिम्मेदार घरेलू हालात हैं उतना ही या उससे ज्यादा हजारों किलोमीटर दूर की जलवायु के हालात भी जिम्मेदार हैं। प्रशांत महासागर और आर्कटिक में होने वाला जलवायु परिवर्तन भी सीधे भारत को प्रभावित करता है। उसकी वजह से अत्यधिक ठंड या गर्मी पड़ती है और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पिछले 70 साल में इंसानी गतिविधियों के कारण जलवायु में बहुत तेजी से परिवर्तन हुआ है। धरती लगातार गर्म होती जा रही है।

20वीं सदी और 21वीं सदी के पहले 22 साल में धरती 1.09 डिग्री ज्यादा गर्म हो गई है। इसका मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है। पिछले दो-तीन दशक में इसे लेकर अनेक अध्ययन हुए हैं, जिनका साझा निष्कर्ष यह है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढऩे से पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु गर्म हो रही है। आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जैसे जैसे पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ेगा वैसे वैसे अत्यधिक बारिश, अत्यधिक ठंड और अत्यधिक गर्मी बढ़ती जाएगी। यानी मौसम सामान्य नहीं रह जाएगा। हर मौसम में अति होगी।

सोच सकते हैं कि इंसान के जीवन पर इसका क्या असर होगा?अभी देश में अत्यधिक गर्मी पड़ रही है तो हर हिस्से में त्राहिमाम की स्थिति है। बिजली की मांग इतनी बढ़ गई है कि उसे पूरा करने में देश के बिजली संयंत्र विफल हो रहे हैं। ज्यादातर ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले की कमी हो गई है। भारी गर्मी का असर यह हुआ है कि कई राज्यों में रबी की फसल को 50 फीसदी तक नुकसान हुआ है। इसी तरह जब बारिश की अधिकता होगी तो बाढ़ आएगी, फसल तबाह होगी, पहाड़ टूटेंगे और लाखों लोगों का जीवन प्रभावित होगा। सर्दियों की अधिकता का भी ऐसा ही असर होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान कहा है कि जलवायु परिवर्तन में भारत का योगदान बहुत कम है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत औद्योगिक सघनता वाला देश नहीं है और न बहुत अमीर देश है, जहां ग्रीन हाउस गैस का बहुत ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन में भारत का योगदान बहुत कम है। परंतु जलवायु परिवर्तन का शिकार तो भारत भी उतना ही हो रहा है, जितना दूसरे विकसित या अमीर देश हो रहे हैं! सो, भारत और दूसरे विकासशील देशों को इस मसले पर ज्यादा गंभीरता से सोचने की जरूरत है क्योंकि जिनकी वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है वे तो सक्षम हैं, अपने बचाव का रास्ता निकालने में पर उनके किए धरे की कीमत भारत और अन्य विकासशील या गरीब देशों को चुकानी पड़ेगी।

तभी भारत को इस मामले में पहल करनी चाहिए और दूसरे देशों को साथ लेकर ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों को सुधार के लिए बाध्य करना चाहिए।

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खालिस्तानी सबक लें पाकिस्तान से

वेद प्रताप वैदिक – खालिस्तानी सबक लें पाकिस्तान से. एक तरफ तो प्रधानमंत्री अपने निवास पर सिख-प्रतिनिधि मंडल का स्वागत कर रहे हैं और दूसरी तरफ पटियाला में सिखों और हिंदुओं के बीच धुआंधार मारपीट हो रही है। प्रधानमंत्री ने हाल ही में गुरु तेग बहादुर के 400 वें जन्म-समारोह के अवसर पर भारत की आजादी और समृद्धि में सिख समुदाय के अपूर्व योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और कल पटियाला में खालिस्तान की मांग को लेकर दंगल मचा हुआ था।

हिंदू और सिख संगठन आपस में भिड़ गए, उनमें लाठियाँ, गोलियाँ चलीं और पटियाला में कर्फ्यू भी लगाना पड़ गया।पटियाला में जो कुछ हुआ, उसकी जड़ में उग्रवाद, मंदबुद्धि और संकीर्णता के अलावा कुछ नहीं है। उसका गुरु नानक के सिख धर्म और हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अल्पमति लोगों का आपसी दंगल भर है।

बिल्कुल ऐसा ही दृश्य अभी-अभी दिल्ली के द्वारका क्षेत्र में देखने को मिला। राजाराम नामक गोदुग्ध का धंधा करनेवाले एक गरीब आदमी की हत्या कुछ गोरक्षकों ने इसलिए कर दी कि उन्हें शक था कि उसने किसी गाय की हत्या कर दी थी। उसके घर से किसी गाय के अस्थि-पंजर देखकर उन्होंने यह क्रूरतापूर्ण कुकर्म कर दिया। क्या ऐसे लोगों को आप हिंदुत्व या गोमाता के रक्षक कह सकते हैं? ऐसे लोग आदमी को पशु से भी बदतर समझकर उसे मार डालते हैं।

पंजाब में जो उग्रवादी खालिस्तान की मांग कर रहे हैं, वे बताएं कि वे कितने खालिस हैं? क्या वे गुरु नानक के सच्चे भक्त हैं? क्या उन्होंने गुरुवाणी के सच्चे अर्थों को समझने की कोशिश की है? वे धार्मिक उतने नहीं हैं, जितने राजनीतिक हैं। सत्ता की भूख उन्हें दौड़ाती रहती है। वे सत्ता हथियाने के लिए देश के दुश्मनों से भी हाथ मिला लेते हैं। सिखों के साथ क्या भारत में कोई भेदभाव या अन्याय होता है? भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिख समुदाय के रहे हैं। वे लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि सभी पदों पर रहते आए हैं।

किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को इतनी महत्ता भारत में नहीं मिली है, जितने सिखों को मिली है। क्या भारत में कोई ऐसा समुदाय भी है, जिसके सिरफिरे सदस्यों ने किसी प्रधानमंत्री की हत्या की हो? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख लोगों पर जो अत्याचार हुआ है, उसकी निंदा किसने नहीं की है? सिख समुदाय अपनी भारत भक्ति और कठोर परिश्रम का पर्याय है।

भारतीयों को उस पर गर्व है। जो बंधु खालिस्तान का नारा लगाते हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि 1947 में पाकिस्तान का नारा लगानेवालों ने बेचारे करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी कैसे मुहाल कर रखी है। जो भारत में रह गए, उन करोड़ों मुसलमानों की जिंदगी भी उन खुदगर्ज नेताओं ने परेशानी में डलवा दी है। खालिस्तानियों को पाकिस्तान से मदद नहीं, सबक लेना चाहिए।

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महिलाओं के लिए सकारात्मक कदम उठाने की जरुरत

कंचना यादव – महिलाओं के लिए सकारात्मक कदम उठाने की जरुरत. दुनिया जब, सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में महिलाओं के उज्ज्वल राजनीतिक भविष्य के बारे में बात कर रही हो तो उसे सच्चाई से रूबरू कराना भी हमारी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है और ऐसे समय में जब भारत के पास महिला रूपी वृहत राजनीतिक भंडार हो तब भारत को चाहिए कि इस वृहत राजनीतिक भण्डार से शक्ति और सामर्थ्य ले। केंद्र और राज्य में चाहे सत्ता में बैठी हुई मजबूत राजनीतिक पार्टियाँ हों या फिर निगाहों से ओझल विकेन्द्रित राजनीतिक पार्टियाँ हों, समय की जरुरत है कि ये सब मिलकर महिला राजनीति को एक नया रूप और एक नया आयाम दें।

महिलाओं में नव-नेतृत्व की परंपरागत समृद्धि हमेशा से रही है बस जरुरत है तो उसे समझने की और राजनीतिक गलियारों में स्थान देने की। भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक चिंतन के अनुरूप महिलाओं के नव-नेतृत्व करने की उत्कर्ष अपने आने वाले कल के राजनीतिक सपनों को नव-आकार दे रही है। वास्तव में देखें तो महिलाओं की राजनीतिक स्थिति का निर्माण किसी भी देश की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के आधार पर तय होती है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ जाति का वर्चस्व हमेशा से रहा है वहाँ पर आर्थिक और सामाजिक स्थिति महिलाओं की राजनीति को और भी ज्यादा प्रभावित करती है।

विश्व राजनीति के संदर्भ में भारतीय महिलाओं की राजनीतिक धरातल प्राचीन होते हुए भी आज संसद और विधान सभाओं में महिलाओं की उपस्थिति दयनीय है खासकर ओबीसी, एससी एसटी समाज यानी कि बहुजन समाज से आने वाली महिलाओं की जबकि आजादी के समय से ही महिलाओं की राजनीतिक जागृत और बौद्धिक विकास से राष्ट्रीय आंदोलनों को अपार शक्ति मिली है। इसका एक ताजा उदाहरण अभी देश भर में चल रहे किसान आंदोलन में देखा गया है जिसमें महिलाओं ने आगे बढ़कर अपना अमूल्य योगदान दिया था। आज महिलाएँ केवल राष्ट्रहित के कार्यों तक ही नहीं हैं बल्कि वे अपने राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने के प्रति भी सचेष्ट हैं। अगर वह अपने मताधिकार का प्रयोग बखूबी कर सकती हैं तो राजनीतिक नेतृत्व भी संभाल सकती हैं।

देश की आधी आबादी के अंदर एक नए समानता की लहर लाने की जरुरत है, नए राजनीतिक कार्यों के लिए महिला नेत्रियों की जरुरत समय की मांग है। वर्तमान समय में समाज की कुछ शिक्षित महिलाएँ किसी न किसी राजनीतिक पार्टी में या नेतृत्व करने के क्षेत्र में शामिल होना चाहती हैं। वह चाहती हैं कि वह अपनी व्यक्तिगत एवं स्वतंत्र प्रतिष्ठा की प्राप्ति स्वयं करें। अपनी शैक्षणिक योग्यता के अनुरूप अधिकांश महिलाएँ राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न हो तो रही हैं लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह संलग्न मात्र ही रह जा रही हैं।

सदियों से राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं की राजनीतिक हिस्सेदारी समाज में विद्यमान कुछ कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि उसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात। इसलिए समय की मांग यह भी है कि महिलाओं के सन्दर्भ में नई राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण किया जाये ताकि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ी महिला भी राजनीतिक भागीदारी कर सके और अपने लिए कानून बना सके। जैसे कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ी महिला मतदान करती है जिसकी वोट की कीमत उतनी ही होती है जितनी की प्रधानमंत्री के वोट की कीमत।

राजनीति में हमेशा से उच्च जाति और धनवान लोगों का वर्चस्व कायम रहा है। राजनीति एवं नेतृत्व के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को शिक्षा का स्तर भी प्रभावित करता है। ओबीसी, एससी, एसटी समाज से आने वाली महिलाओं में शिक्षा का निम्न स्तर इनकी राजनीतिक भागीदारी में एक बड़े अवरोधक के रूप में आ जाती है। पिछड़ें समाज की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए आज समय की मांग है कि आरक्षण की राजनीति करें। एक अर्से से संसद में पड़े महिला आरक्षण बिल को कोटे के अंदर कोटा के साथ पास कराया जाये ताकि सिर्फ उच्च जातियों और धनवान लोगों का राजनीति में वर्चस्व न रहे। संसदीय और विधायिका से सम्बधित राजनीति में महिलाओं के योगदान की बात करें तो, कुछ महिला चेहरे हैं जैसे गायत्री देवी, तारकेश्वरी सिन्हा, मोहसिना किदवई, डॉ मारग्रेट अल्वा, इंदिरा गाँधी, राबड़ी देवी, शीला दीक्षित, सुषमा स्वराज, ममता बनर्जी, जयललिता, उमा भारती, वृंदा करात, सोनियाँ गाँधी, विजया राजे सिंधिया, मायावती, कनिमोझी, सुप्रिया सुले और निर्मला सीतारमण। इनमें से कुछ नाम जैसे कि राबड़ी देवी और मायावती को छोड़ दें तो अदिकांश महिलाएँ उच्च जाति और राजघराने जैसे परिवार से आती हैं। इसलिए महिला आरक्षण बिल को लेकर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव का मानना था कि कोटे के अंदर कोटा को लाया जाये ताकि फूलन देवी भी संसद पहुचें और भगवतिया देवी भी संसद पहुचें।

संसद और विधान सभाओं में जब 33 आरक्षण लागू होगा तो राजनीतिक नजरिये से महिला प्रतिनिधियों के लिए एक नए युग की शुरुआत होगी। जिसका सकारात्मक प्रभाव राजनीतिक नीतियों के भी निर्धारण में मिलेगा। चुनाव के घोषणा पत्रों में कई दफा राजनीतिक पार्टियों ने महिला आरक्षण बिल को पास कराने की बात तो कही है लेकिन चुनाव जीतने के बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। फिर पार्टियों को महिला मतदाताओं की याद अगले चुनाव में ही आती है। महिलाओं के मुद्दों के प्रति राजनीतिक पार्टियों की असंवेदनशीलता महिला आरक्षण बिल को कोटे के अंदर कोटे के साथ पास करने में असफलता से ही साफ़ हो जाती है। चुनाव के दौरान कुछ घिसे-पिटे वादे जो किये भी जाते हैं चुनाव जीतने के बाद उसे बहुत ही आसानी से भुला भी दिए जाते हैं। संसद और विधायी निकायों में महिलाओं के लिए सकारात्मक दिशा में काम किया जाना समय की मांग है और इसके लिए महिलाओं की चुनावी प्रक्रिया में बाधक बनने वाली चीजों को दूर करने की जरुरत है क्योंकि जब तक महिलाओं की प्रगति नहीं होगी तब तक किसी समुदाय की और इस देश की प्रगति नहीं हो सकती है।

डॉ भीमराव आंबेडकर का कहना था मैं एक समुदाय की प्रगति को उस प्रगति की डिग्री से मापता हूँ जो महिलाओं ने हासिल की है।

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मिलावटखोरों को सजा-ए-मौत ही इसका इसका सही जवाब

जल शक्ति अभियान ने प्रत्येक को जल संरक्षण से जोड़ दिया है

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मिलावटखोरों को सजा-ए-मौत ही इसका इसका सही जवाब

वेद प्रताप वैदिक – मिलावटखोरों को सजा-ए-मौत. अगर दुनिया में मिलावटखोर देशों की खोज-बीन होने लगे तो शायद हमारे भारत का नाम पहली पंक्ति में होगा। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में मिलावट के अपराध नहीं होते लेकिन कई देशों में मिलावटखोरों के लिए उसी सजा का प्रावधान है, जो किसी हत्यारे के लिए होती है। वास्तव में मिलावटखोर किसी भी हत्यारे से बड़ा हत्यारा होता है। मिलावटी खाद्य पदार्थों का सेवन करनेवाले सैकड़ों और हजारों लोग धीरे-धीरे मारे जाते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया है कि न मरनेवाले का पता चलता है और न ही मारनेवाले का! सब काम चुपचाप होता रहता है। हत्यारा तो दो-चार आदमियों को मार देता है लेकिन मिलावटखोर तो दर्जनों हत्यारों का कुकर्म अकेला ही कर देता है।ऐसे ही एक हत्यारे को हरियाणा के पलवल में पुलिस ने रंगे हाथ गिरफ्तार किया है।वह देसी घी के नाम पर तरह-तरह के रासायनिक पदार्थों को मिलाकर नकली घी बेचता था। वह कई बड़ी-बड़ी कंपनियों का खराब हुआ घी खरीदकर उन्हें सुंदर-सी शीशियों में भरकर भी बेचता था। यह घी छोटे-मोटे दुकानदारों को काफी कम कीमत पर दिया जाता था। वे नकली घी को मंहगे दाम पर बेचकर उससे मुनाफा जमकर कमाते थे।यह घी कई बीमारियां पैदा कर सकता है। हृदय रोग, रक्तचाप और मधुमेह तो यह घी पैदा करता ही है, इससे कैंसर का खतरा भी बढ़ जाता है। किडनी और यकृत को निढाल करने में यह घी विशेष सक्रिय रहता है। गर्भवती महिलाओं के लिए भी यह घी खतरे की घंटी है। घी में मिलावट से उतने लोग प्रभावित नहीं होते, जितने आटे और नमक में मिलावट से होते हैं। आटा और नमक तो गरीब से गरीब आदमी को भी रोज चाहिए। अभी सूरत में ऐसे आटे और नमक के कई प्रसिद्ध ब्रांडो के नमूने पकड़े गए हैं, जिन्हें खाने से तरह-तरह की बीमारियां हो सकती हैं।खाने-पीने की ऐसी सैकड़ों चीजें हैं, जिसमें हर दिन मिलावट होती रहती है। मिलावटी चीजें प्रतिदिन खानेवाले ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो अपनी तबियत खराब होने पर ठीक से इलाज भी नहीं करवा सकते। ऐसा नहीं है कि सरकार इन मिलावटखोरों के खिलाफ सक्रिय नहीं है या कोई कार्रवाई नहीं करती। सरकार ने खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम 2006′ में मिलावटखोरों पर 10 लाख रु. जुर्माने और 6 माह से लेकर उम्र कैद तक का प्रावधान कर रखा है लेकिन क्या आज तक किसी को उम्रकैद हुई है?10 लाख जुर्माने की बात अच्छी है लेकिन कितने मिलावटखोरों पर यह जुर्माना अभी तक हुआ है? वास्तव में यह कानून बेहद सख्त होना चाहिए। मिलावट की गंभीरता के आधार पर सजा भी होनी चाहिए। मिलावटखोरों में से दो-चार को भी फांसी की सजा दी जाए और उसका जमकर प्रचार किया जाए तो भावी मिलावटखोरों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ सकती है।मिलावटी चीजों के कारखानों में काम करनेवालों और उन चीजों को बेचनेवाले दुकानदारों के लिए भी छोटी-मोटी सजा का प्रावधान हो तो उसका भी काफी असर पड़ेगा।

वास्तव में मिलावट तो नर-संहार के बराबर अपराध है। सजा-ए-मौत ही इसका इसका सही जवाब है।

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मुट्ठी भर दंगाईयों के भरोसे भारत ?

वेद प्रताप वैदिक – मुट्ठी भर दंगाईयों के भरोसे भारत ?.  रामनवमी और हनुमान जयंति के अवसरों पर देश के कई प्रदेशों में हिंसा और तोड़-फोड़ के दृश्य देखे गए। उत्तर भारत के प्रांतों के अलावा ऐसी घटनाएं दक्षिण और पूर्व के प्रांतों में भी हुईं। हालांकि इनमें सांप्रदायिक दंगों की तरह बहुत खून नहीं बहा लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि आज़ाद भारत में ऐसी हिंसात्मक घटनाएं कभी कई प्रदेशों में एक साथ हुई हों। ऐसा होना काफी चिंता का विषय है।

यह बताता है कि पूरे भारत में सांप्रदायिक विद्वेष की कोई ऐसी अदृश्य धारा बह रही है, जो किसी न किसी बहाने भड़क उठती है। विरोधी दलों ने संयुक्त बयान देकर पूछा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर चुप क्यों हैं? वे कुछ बोलते क्यों नहीं हैं? इस प्रश्न का भावार्थ यह है कि इन हिंसात्मक कार्रवाइयों को भाजपा सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है।

विरोधी दलों के नेता इन कार्रवाइयों के लिए सत्ताधारी भाजपा को जिम्मेदार ठहराना चाहते हैं।यहां यह सवाल भी विचारणीय है कि क्या इस तरह के सांप्रदायिक दंगे और हिंसात्मक घटना-क्रम सिर्फ भाजपा शासन-काल में ही होते हैं? कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों के शासनकाल में ऐसी घटनाएं क्या बिलकुल नहीं हुई हैं? यह हमारे भारतीय समाज का स्थायी चरित्र बन गया है कि हम अपने राष्ट्र से भी कहीं ज्यादा महत्व अपनी जात और अपने मज़हब को देते हैं।

1947 के बाद जिस नए शक्तिशाली और एकात्म राष्ट्र का हमें निर्माण करना था, उस सपने का थोक वोट की राजनीति ने चूरा-चूरा कर दिया।थोक वोट के लालच में सभी राजनीतिक दल जातिवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेने में जऱा भी संकोच नहीं करते। भारत में ऐसे लोग सबसे ज्यादा हैं, जिनका नाम सुनते ही उनमें से उनकी जात और मजहब का नगाड़ा बजने लगता है। जो कोई अपनी जात और मजहब को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें उसकी पूरी आजादी होनी चाहिए लेकिन उनके नाम पर घृणा फैलाना, ऊँच-नीच को बढ़ाना, दंगे और तोड़-फोड़ करना कहां तक उचित है?यही प्रवृत्ति देश में पनपती रही तो भौगोलिक दृष्टि से तो भारत एक ही रहेगा

लेकिन मानसिक दृष्टि से उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। यह खंड-खंड में बंटा भारत क्या कभी महाशक्ति बन सकेगा? क्या वह अपनी गरीबी दूर कर सकेगा? मुझे तो डर यह लगता है कि 22 वीं सदी पूरी होते-होते कहीं ऐसा न हो जाए कि भारत के हर प्रांत और हर जिले को सांप्रदायिक और जातिवादी आधार पर बांटने की मांग पनपने लगे। आज भारत की राजनीति में अनेक सक्रिय दल ऐसे हैं, जिनका आधार शुद्ध संप्रदायवाद या शुद्ध जातिवाद है।यह राष्ट्रीय समस्या है। इसका समाधान अकेले प्रधानमंत्री या उनका अकेला राजनीतिक दल कैसे कर सकता है? इस पर तो सभी दलों की एक राय होनी चाहिए। अकेले प्रधानमंत्री ही नहीं, सभी दलों के नेताओं को मिलकर बोलना चाहिए।

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनकी आवाज़ सबसे बुलंद होनी चाहिए। किसी भी नेता को वोट बैंक की हानि से डरना नहीं चाहिए। वे अपने वोट बैंक के चक्कर में भारत की एकता बैंक का दिवाला न पीट दें, यह सोच जरुरी है।भारत-जैसा विविधतामय देश दुनिया में कोई और नहीं है।

जितने धर्म, जितनी जातियां, जितनी भाषाएं, जितने खान-पान, जितनी वेश-भूषाएं और जितने रंगों के लोग भारत में प्रेम से रहते हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं रहते। क्या ऐसे करोड़ों भारतवासी मुट्ठी भर दंगाईयों के हाथ के खिलौने बनना पसंद करेंगे?

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