लैपटॉप को ठीक से स्टोर न करने और बार-बार स्क्रीन को छूने से कई बार इस पर स्क्रैच लग जाते हैं और लैपटॉप काफी गंदा दिखने लगता है। इसके अलाव यह डर भी सताने लगता है कि कहीं लैपटॉप की स्क्रीन काम करना न बंद कर दे। आइए आज हम आपको कुछ ट्रिक्स बताते हैं जिन्हें अपनाकर आप आसानी से अपने लैपटॉप की स्क्रीन से स्क्रैच को दूर कर सकते हैं।
पेट्रोलियम जेली का करें इस्तेमाल
अगर आपके लैपटॉप की स्क्रीन पर स्क्रैच लग गए हैं तो उन्हें हटाने के लिए आप पेट्रोलियम जेली का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले लैपटॉप की स्क्रीन को किसी साफ कपड़े से अच्छी तरह पोंछ लें। अब माइक्रोफाइबर कपड़े पर पेट्रोलियम जेली लगाकर इससे लैपटॉप की स्क्रीन को हल्के हाथों से साफ करें। अंत में एक अन्य माइक्रोफाइबर कपड़े से दोबारा लैपटॉप की स्क्रीन को पोंछे।
रबड़ आएगा काम
यहां बात पेंसिल के लिखे हुए को मिटाने वाली रबड़ की हो रही है। इसका इस्तेमाल करके लैपटॉप की स्क्रीन से स्क्रैच को दूर किया जा सकता है। इसके लिए आपको बस इतना करना है कि स्क्रैच लगे हिस्से पर धीरे-धीरे कुछ देर के लिए रबड़ को हल्के हाथ से रगड़ें। लगभग चार से पांच मिनट रगडऩे के बाद आप देखेंगे कि स्क्रैच काफी हद तक हट चुके हैं। ध्यान रखे कि रबड़ पर अधिक दबाव नहीं डालना है।
रबिंग अल्कोहल भी है कारगर
आप चाहें तो लैपटॉप की स्क्रीन से स्क्रैच हटाने के लिए रबिंग अल्कोहल का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले लैपटॉप की स्क्रीन को एक बार अच्छे से किसी साफ कपड़े से पोंछ लें। अब एक माइक्रोफाइबर कपड़े को रबिंग अल्कोहल से भिगोकर स्क्रीन पर हल्के हाथों से फेरें। अगर आपके टीवी या मोबाइल पर अधिक स्क्रैच दिखाई दे रहे हैं तो उन्हें हटाने के लिए भी आप रबिंग अल्कोहल का इस्तेमाल कर सकते हैं।
स्क्रैच रिमूवर रहेगा बहुत ही प्रभावी
आजकल मार्केट में एक से एक बेहतरीन स्क्रैच रिमूवर मौजूद हैं, जिनका इस्तेमाल करके भी आप अपने लैपटॉप की स्क्रीन से स्क्रैच दूर कर सकते हैं। हालांकि ध्यान रखें कि लैपटॉप की स्क्रीन पर स्क्रैच रिमूवर का इस्तेमाल करते समय हल्के हाथों से काम करें क्योंकि अधिक दबाव डालने से स्क्रैच कम होने की बजाय बढ़ सकते हैं। इसके अलावा लैपटॉप से स्क्रैच हटाने के लिए आप टूथपेस्ट का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।(एजेंसी)
वैचारिक विश्वसनीयता से ही बढ़ेगी साख
राजकुमार सिंह –
उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने के प्रियंका गांधी वाड्रा के ऐलान को गेम चेंजर मानने वाले कांग्रेसियों की कमी नहीं। जब देश में जुमलों-शिगूफों के जरिये चुनाव जीते भी जाते रहे हों, तब ऐसा उत्साह अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोगों को प्रियंका के ऐलान को शिगूफा या जुमला कहने पर एतराज हो सकता है, लेकिन यह उसके अलावा कुछ और नहीं, यह उनकी अपनी ही इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में ऐसा करने का कांग्रेस का कोई इरादा नहीं है। अगर कांग्रेस वाकई चुनावी टिकटों के जरिये महिला सशक्तीकरण के प्रति प्रतिबद्ध है तो फिर अन्य राज्यों में ऐसा करने पर मौन क्यों? प्रियंका का तर्क है कि वह तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही प्रभारी हैं, इसलिए वहीं के बारे में कह सकती हैं, पर यह तर्क कम, जिम्मेदारी-जवाबदेही से पलायन ज्यादा है। आखिर उत्तर प्रदेश की प्रभारी होते हुए ही प्रियंका राजस्थान से लेकर पंजाब तक कांग्रेस का आंतरिक संकट सुलझाने में पूरी तरह सक्रिय नजर आती रही हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू की पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी, जिसकी परिणति मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरेंद्र सिंह की बेआबरू विदाई में भी हुई, में तो प्रियंका की ही भूमिका सबसे अहम मानी जाती है। वैसे राहुल गांधी तो किसी प्रदेश के प्रभारी भी नहीं, लोकसभा सदस्य मात्र हैं, फिर भी देश भर में कांग्रेस से जुड़े तमाम फैसलों में उन्हीं की भूमिका निर्णायक नजर आती है।
इसके अलावा भी प्रियंका का ट्रंप कार्ड बताये जा रहे इस ऐलान के संदर्भ में दो बेहद स्वाभाविक प्रश्न अनुत्तरित हैं: एक, क्या इस जुमले को जन-जन तक पहुंचा कर माहौल बना सकने की विश्वसनीयता वाला चेहरा और सामर्थ्य वाला संगठन कांग्रेस के पास है? दूसरा, क्या सिर्फ टिकटों में हिस्सेदारी से वास्तव में महिला सशक्तीकरण हो जायेगा? पहले प्रश्न की चर्चा पहले करते हैं। ज्यादा अतीत में न भी जायें तो 1989 में बोफोर्स तोप दलाली के आरोपों के शोर में हुए लोकसभा चुनावों में विश्वनाथ प्रताप सिंह की ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर हैÓ जैसे नारों के साथ गढ़ी गयी छवि और कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर, सरकार बनते ही दलालों के नाम सार्वजनिक करने के वायदे ने कांग्रेस के विरोध और जनता दल की अगुवाई वाले राष्ट्रीय मोर्चा के समर्थन में माहौल बनाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। उसके बाद दूसरा अहम उदाहरण वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव का है, जिसमें गुजरात मॉडल के इर्दगिर्द गढ़ी गयी नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष की छवि और अच्छे दिन आने के वायदे से उठे बवंडर में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जमीन से ऐसी उखड़ी कि बमुश्किल 44 सांसद जीत पाये। क्या अभी तक भाई राहुल के सहयोगी की भूमिका में सक्रिय प्रियंका की छवि ऐसी है कि उनके किसी वायदे को बदहाल कांग्रेस संगठन चुनावी हवा में बदल पाये?
इस सवाल का जवाब प्रियंका जानती हैं और उनके समर्थक भी। कुछेक राज्यों को अपवाद मान लें तो कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा लगभग चरमरा चुका है। बेशक इसमें राज्य और स्थानीय स्तर पर व्याप्त गुटबाजी की भूमिका रही है, लेकिन जिम्मेदार आलाकमान भी कम नहीं है, जिसने पार्टी को पिछले ढाई साल से असमंजस में डाल रखा है। जहां थोड़ा-बहुत संगठन सक्रिय है, वहां कांग्रेसियों को आपस में लडऩे से फुर्सत नहीं, और उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति प्रतीकात्मक ज्यादा रह गयी है। ऐसे में गेम चेंजर बताये जाने वाले जुमलों-शिगूफों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता। हां, अगर कांग्रेस ऐसी ही घोषणा पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों के लिए करती, जहां वह सत्ता की दावेदार तो है, तब उसे कम से कम वैचारिक ईमानदारी अवश्य माना जाता। उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चौथे नंबर पर चल रही कांग्रेस की दावेदारी दर्जन-दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर नजर नहीं आती। ऐसे में 403 सदस्यीय विधानसभा में हार की संभावना वाली सीटों पर 40 क्या, 50 प्रतिशत टिकट भी कांग्रेस महिलाओं को दे दे तो उससे राजनीति का चरित्र नहीं बदलने वाला। बेशक लोकसभा-विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा पुराना है। राज्यसभा में इस बाबत विधेयक भी पारित हो चुका है। सामाजिक न्याय के स्वयंभू पैरोकार दल-नेता तो अपने-अपने तर्कों के सहारे इसका विरोध करते रहे हैं, लेकिन दोनों बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा ऐसे आरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता जताते रहे हैं। फिर भी विधेयक को लोकसभा में आज तक पारित नहीं करवाया जा सका, तो कहीं न कहीं प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान लगेंगे ही।
वैसे अगर नीयत साफ हो तो लोकसभा-विधानसभा चुनाव में महिलाओं को टिकट देने के लिए किसी कानून की बाध्यता की जरूरत नहीं है। जिन दलों-नेताओं की ऐसी ईमानदार प्रतिबद्धता है, वे ऐसा कर भी रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि इस मामले में क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दलों के मुकाबले ज्यादा ईमानदार और प्रतिबद्धता की कसौटी पर खरा उतरने वाले साबित हुए हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बिना जुमलों-शिगूफों के ही महिलाओं को एक-तिहाई से भी ज्यादा टिकट चुनाव में दिये, और वे जीती भीं। ज्यादा अच्छी बात यह है कि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में महिलाओं को टिकट छलावा भर नहीं है और राजनेताओं के परिवारों से बाहर आम महिलाओं को भी अवसर मिला है। यह तथ्य इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि आरक्षण की आड़ में अक्सर राजनेता अपने परिवार की महिलाओं को ही आगे बढ़ाते हैं और उनकी आड़ में सत्ता के सूत्र अपने ही हाथों में केंद्रित रखते हैं। जाहिर है, ऐसे छद्म प्रतिनिधित्व से महिला सशक्तीकरण तो नहीं होता, उलटे लोकतंत्र कमजोर अवश्य होता है। तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को अपवाद मान लें तो अन्य राजनीतिक दलों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व परिवारवाद को प्रश्रय ही ज्यादा साबित हुआ है। बिहार में राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना ही इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपने ही लाल-लालियों को राजनीति में आगे बढ़ाने के शर्मसार करने वाले ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है।
वैसे अहम स्वाभाविक सवाल यह भी है कि क्या प्रतीकात्मक राजनीतिक प्रतिनिधित्व से जमीनी हकीकत बदलती है? इंदिरा गांधी लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं। तब तो भारत में महिलाओं का सशक्तीकरण दशकों पहले ही हो जाना चाहिए था। मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की एक से अधिक बार मुख्यमंत्री रहीं, तब तो उन्हें महिला सशक्तीकरण की मिसाल बन जाना चाहिए था। अगर राजनीति या कहें कि सत्ता राजनीति में प्रतिनिधित्व ही हर मर्ज का इलाज है, तब तो कमोबेश हर वर्ग के प्रतिनिधि को उसकी उसी पहचान के आधार पर सभी प्रमुख पद अक्सर मिल जाने से आजादी के सात दशकों में देश के सभी वर्गों का सशक्तीकरण हो जाना चाहिए था, पर ऐसा हुआ है? अगर, हां, तब फिर आरक्षण और प्रतिनिधित्व की चुनावी लॉलीपॉप हर चुनाव में नयी पैकिंग में क्यों दिखायी जाती है? दरअसल यह सब चुनावी तिकड़में हैं मतदाताओं को भरमाने की। किसी भी वर्ग का सशक्तीकरण होता है, उसे बिना भेदभाव शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सम्मान, सुरक्षा और जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढऩे के अवसर सुनिश्चित करने से, जो किसी भी निर्वाचित सरकार का संवैधानिक दायित्व भी होता है, पर वे अक्सर प्रतीकात्मक पहल और घोषणाएं कर अपनी वास्तविक जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुंह चुराती रही हैं।
ऐतिहासिक चुनावी पराभव के बाद अब आंतरिक असंतोष का दबाव झेल रही कांग्रेस के शिगूफे महिलाओं को टिकट के लॉलीपॉप पर ही समाप्त नहीं होते। एक नवंबर से शुरू हो रहे सदस्यता अभियान में कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए जो शर्तें रखी गयी हैं, वे भी व्यावहारिकता से कोसों दूर दिखावटी आदर्शवाद हैं। मसलन, शराब समेत किसी भी नशीले पदार्थ का सेवन न करना, प्रामाणिक खादी पहनना, लैंड सीलिंग एक्ट से ज्यादा भूमि का मालिक न होना, जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव न करना आदि। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मद्य निषेध के पैरोकार थे। इसीलिए भारत के संविधान में भी मद्य निषेध को शामिल किया गया, लेकिन आजाद भारत की सरकारों ने वास्तव में तो अधिक राजस्व के लालच में शराब निर्माण-बिक्री, नतीजतन उसके सेवन को ही बढ़ावा दिया। यह भी गोपनीय तथ्य नहीं है कि कमोबेश सभी दलों के अनेक नेता-कार्यकर्ता निस्संकोच शराब का सेवन ही नहीं करते, कारोबार से भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसीलिए कांग्रेस की सदस्यता की ऐसी शर्तें व्यावहारिक आदर्श के बजाय अपना दामन दूसरों से साफ दिखाने का शिगूफा नजर आती हैं, और शिगूफों की राजनीति का अंजाम किसी से छिपा नहीं है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अभी भी समझने को तैयार नहीं दिखती कि स्पष्ट वैचारिक प्रतिबद्धता ही उसे प्रासंगिक बनायेगी, जुमले-शिगूफे नहीं।
टीकाकरण की उपलब्धि के बावजूद सतर्कता जरूरी
जगत राम, राकेश कोछड़ –
गत 21 अक्तूबर के दिन भारत ने कोविड-19 के खिलाफ युद्ध में वैक्सीन का 100 करोड़वां टीका लगाकर मील का पत्थर प्राप्त कर लिया। यह असाधारण प्राप्ति है जिसे महज 9 महीनों में कर दिखाया है, वह भी भारत निर्मित वैक्सीन से। हमारी कम-से-कम 75 फीसदी बालिग आबादी को पहला टीका लग चुका है, वहीं दोनों खुराक पाने वालों की गिनती लगभग 31 प्रतिशत है। महत्वपूर्ण यह है कि अकेले सितम्बर माह में अभूतपूर्व 23.6 करोड़ टीके लगाए गए। इस तरह दोनों टीके लगों की संख्या अमेरिका की कुल जनसंख्या के करीब है। आशंकाओं के विपरीत कुल वैक्सीन का 65 फीसदी इस्तेमाल ग्रामीण भारत में हुआ है।
मील के इस पत्थर से आगे की राह क्या है? हमारी वयस्क आबादी को दोनों खुराकों से सुरक्षित करने के बाद अगली चिंता वायरस के नए रूपांतरों की आशंका के मद्देनजर बूस्टर शॉट लगाने के अलावा अवयस्क वर्ग को वैक्सीनयुक्त करना है। वैसे समूची आबादी को पूरी तरह वैक्सीन लगाने का काम मार्च, 2022 तक ही हो पाएगा।
वहीं दूसरी ओर जहां हिमाचल प्रदेश, गुजरात और केरल में, जहां कुल आबादी में लगभग आधी को दोनों टीके लगाने का काम पूरा हो चुका है, तो यूपी में यह शोचनीय आंकड़ा मात्र 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 32 फीसदी है। लगातार रोजाना घटते कोविड मामलों के मद्देनजर चिंताजनक यह है कि कहीं आने वाले महीनों में जोश में बहक कर इसकी अनिवार्यता और वैक्सीन लगवाने की ललक मद्धम न पड़े जाए। यही वह कारक हैं, जिसकी वजह से अमेरिका में पिछली लहर बनी थी, क्योंकि हजारों लोग दूसरा टीका लगवाने नहीं आए थे। भारत में 10 करोड़ नागरिकों को दूसरी खुराक नहीं लगी है। इसलिए जनसंख्या के बड़ा भाग पर संक्रमित होने और इसको अन्यों तक फैलाने का जोखिम मंडरा रहा है।
हालांकि, विश्व में टीकाकरण बढऩे के बावजूद कोविड प्रतिरोधकता शक्ति की घटती क्षमता से चिंता भी बनी है। साइंसदानों को अब तक पूरी तरह पक्का नहीं है कि कोविड 19 के खिलाफ बनी प्रतिरोधक क्षमता का कितना स्तर में वास्तव में शरीर में बने रहना जरूरी है। कुछ कोविड वैक्सीनों में बूस्टर टीका लगवाने की जरूरत है। हालांकि हेपेटाइटिस-बी में भी 6 महीनों बाद बूस्टर डोज़ लगवाने की जरूरत होती है। इसी तरह टिटनेस टीका हर 10 साल बाद लगवाना होता है। हेपेटाइटिस-ए और टाइफाइड वैक्सीन को भी समय-समय पर पुन: लगाना जरूरी है और यही बात फ्लू के टीके पर लागू है।
इस्राइल में 60 साल से ऊपर लोगों में, जिनको दोनों डोज़ लगवाए 5 माह बीत चुके हैं, उनमें पाया गया है कि हाल में टीका लगवाने वालों की बनिस्बत कोविड से संक्रमित होने का खतरा तीन गुणा ज्यादा है। यूके के एक अध्ययन में सामने आया है कि कोविड के लिए एस्ट्रा-जेनेका वैक्सीन की दूसरी खुराक लेने के 20 हफ्तों बाद इसकी प्रभावशीलता 67 प्रतिशत से घटकर 47 फीसदी रह जाती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि फाइजऱ-बायोटेक के बूस्टर टीके का प्रभाव लक्षणयुक्त कोविड संक्रमण मामलों में 95.6 पाई गई है। यह डाटा उस वक्त का है, जब डेल्टा वेरियंट ने कोहराम मचा रखा था।
अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने हाल ही में दो वैक्सीनों को बतौर बूस्टर शॉट इस्तेमाल करने की आपातकालीन मंजूरी दी है। मोडर्ना अथवा जॉनसन एंड जॉनसन का बूस्टर टीका उनके लिए है, जिन्हें कोविड वैक्सीन का पूरा कोर्स लिए कम-से-कम 6 महीने हो चुके हों, जो 18-64 आयु वर्ग वाले हैं क्योंकि तीव्र संक्रमण होने का खतरा सबसे ज्यादा इस वर्ग को है या उन्हें जो किसी अन्य बीमारी की वजह से बार-बार अस्पतालों में भरती हों या व्यवसाय संबंधित संक्रमण से पीडि़त होते रहते हैं। एफडीए ने मिक्स एंड मैच वैक्सीन लगाने को भी अनुमति दे दी है, क्योंकि देखने में आया है कि दो अलग किस्म की वैक्सीन लगवाने से शरीर की कोविड प्रतिरोधकता क्षमता बढ़ती है।
यूके के राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र ने भी 6 महीने पहले दूसरा टीका लगवा चुके चुनींदा लोगों को – जो 50 साल से ऊपर हैं या अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मी और कुछ अन्य वर्ग को बूस्टर वैक्सीन लगवाने का विकल्प दिया है। भारत को भी दोनों टीके लगवा चुके लोगों को बूस्टर शॉट लगाने की जरूरत पर विचार करना चाहिए। देश के विभिन्न हिस्सों से एकत्र किया गया डाटा बताता है कि दोनों खुराकें ले चुके लोगों में 8-10 प्रतिशत को फिर से संक्रमण हुआ है। राज्यों के पास 10 करोड़ टीकों की उपलब्धतता होने के मद्देनजर ज्यादा नाजुक वर्ग, जैसे बुजुर्ग और स्वास्थ्यकर्मियों को बूस्टर डोज़ लगाने पर विमर्श किया जाना चाहिए।
टीकाकरण का अगला प्राप्तकर्ता वर्ग 18 साल से कम अवयस्क हैं। सरकार ने पहले ही दो वैक्सीन – ज़ायडस कैडिला की ज़ाइकोव-डी और भारत बायोटैक की कोवैक्सीन को 2-17 आयु वर्ग के बच्चों को बतौर आपातकालीन इस्तेमाल की इज़ाजत दे रखी है। लेकिन डॉ. वीके पॉल जो कोविड टास्क फोर्स के मुखिया हैं, उन्होंने हाल ही में कहा है कि सरकार को बच्चों और शिशुओं को टीके लगाने की अंतिम मंजूरी पर जल्द फैसला लेना चाहिए। जैसा कि स्कूल-कॉलेज पुन: खुलने शुरू हो चुके हैं, ऐसे में बिना वैक्सीन वाले बच्चे खतरा बन सकते हैं, हालांकि उनमें अधिकांश में कोविड का असर कम रहता है।
चिंता की बात है कि जहां अमेरिका, चीन और यूरोप ने अपनी आबादी के लगभग आधे हिस्से को दोनों टीके लगा दिए हैं वहीं अफ्रीका में यह आंकड़ा फिलहाल शोचनीय है। विशेषज्ञ बार-बार चेता रहे हैं कि मुल्कों के बीच आवाजाही और व्यापार पुन: शुरू होने के बाद कोविड-19 से पूरी तरह मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि विश्व के सभी भागों में काबू में नहीं आ जाता। हालांकि डब्ल्यूएचओ ने पिछले साल सबको समान रूप से वैक्सीन मुहैया करवाने हेतु – कोवैक्स – नामक समूह बनाया था, लेकिन समृद्ध राष्ट्रों ने अपनी आबादी की एवज में गरीब देशों के लिए पर्याप्त वैक्सीन नहीं छोड़ी। इससे एक तरह की जमाखोरी हुई, जिससे एक्सपायरी की अंतिम तारीख निकलने की वजह से वैक्सीन के करोड़ों टीके बर्बाद हो गए।
फिर लोगों में आक्रामता की हद तक वैक्सीन लगवाने वाली हिचकिचाहट भी कम टीकाकरण दर का कारण है, पूरबी यूरोप के लातविया, रोमानिया और बुलगारिया इसका उदाहरण है। यहां तक कि रूस में भी, स्वदेशी वैक्सीन के बावजूद, इसी तरह का संकट है, बल्कि तथ्य तो यह कि कोविड महामारी से सबसे ज्यादा मृत्यु दर वहीं है।
मौजूदा साल के शुरू में भारत में डेल्टा के अति-संक्रामक और मारक रूपांतर ने ही कोहराम मचाया था। विश्वभर में सबसे ज्यादा संक्रमण और मौतों के पीछे भी यही डेल्टा है। अब इसकी एक नई किस्म, एवाई.4.2 वेरियंट की शिनाख्त सितम्बर माह में इंग्लैंड में हुई है। यह रूपांतर सिलसिलेवाराना संक्रमण के कुल मामलों में 6 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। चिंता है कि कुछ नये रूपांतर बहुत ज्यादा मारक हो सकते हैं।
हमें आने वाले महीनों में सावधान रहना होगा, पर्यटन और सामाजिक आयोजन शुरू होने के साथ, लोगों ने अपने सुरक्षा स्तर में कमी कर दी है, मास्क लगाना और शारीरिक दूरी कायम का ध्यान रखना छोड़ दिया है। त्योहारों का मौसम और चुनाव भी नए मामलों के जनक होते हैं, खासतौर पर ऐसे वक्त पर जब वैक्सीन से प्राप्त प्रतिरोधक क्षमता समय के साथ घटनी शुरू हो चुकी है। इंग्लैंड में रोजाना कोविड मामले फिर से उछाल लेकर 5०० तक पहुंच गए हैं – जो मध्य-जुलाई से बाद सबसे ज्यादा हैं – इसके पीछे प्रतिबंध उठाना और मास्क एवं शारीरिक दूरी का पालन न करना है। 100 करोड़ टीकाकरण के बनी प्राप्ति को सुदृढ़ रखने को हमें कोविड संबंधी संहिता का पालन, मास्क लगाकर रखना और भीड़-भाड़ वाली जगहों से दूर रहने और गैर-जरूरी एकत्रता बनाने से गुरेज करना चाहिए।
अन्याय के प्रतिकार में पारंगत हों भारतीय
लक्ष्मीकांता चावला –
दुर्गा पूजा के दिनों में बांग्लादेश में मंदिरों और दुर्गा पूजा के पंडालों पर मुस्लिम कट्टरवादियों ने हमले किए। इस्कॉन मंदिर नौआखली में भी भयानक तांडव किया। साथ ही अल्पसंख्यकों की दुकानों और घरों पर हमले किए गए। भारत ने बांग्लादेश की पाकिस्तान से मुक्ति के बाद उसे आजाद कर दिया। अगर चाहते तो बांग्लादेश को अपनी ही एक कॉलोनी बना सकते थे। हिंदुस्तान की यही संस्कृति है कि हम कभी किसी के देश में न आक्रमण करते हैं और न ही किसी की भूमि पर कब्जा करते हैं। ऐसा लगता है बांग्लादेशी कट्टरपंथी भूल गए कि भारत और भारतीयों के कारण ही वे पाकिस्तानी यातना से मुक्त हुए। इसी प्रकार पाकिस्तान में भी हिंदू मंदिरों, हमारे गुरुद्वारों, हमारे परिवारों पर शर्मनाक हमले किए गए। हमारी बेटियों को बेइज्जत किया, अपहरण किया, उनसे जबरी निकाह किया। वहां की सरकार सोई रही।
दरअसल, शिकायत अपने देशवासियों से भी है कि जैसा क्रोध-विरोध का ज्वारभाटा इस निंदनीय दुर्घटना के बाद देश में उठना चाहिए था, वह कहीं दिखाई नहीं दिया। रावण भी जलाकर यूं कहिए लकीर की फकीरी पूरी कर ली, पर रावण से भी ज्यादा बुरे काम जिस बांग्लादेश और पाकिस्तान में हो रहे हैं, अफगानिस्तान में हो चुके हैं, हो रहे हैं, उसके विरुद्ध कोई गुस्सा न सरकारी स्तर पर प्रकट हुआ और न जनता के।
जब मुहम्मद गौरी ने हमारे सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था तब भी वह तो कुछ हजार सैनिकों के साथ ही आया था, जबकि पूरे भारत में हमारे मंदिरों में असंख्य पुजारी थे। जिन शहरों से मुहम्मद गौरी हमारे मंदिरों से लूटा हुआ सोना-चांदी, संपदा, हाथी-घोड़ों पर लादकर ले गया, अगर रास्ते में भी उसके दस-बीस सैनिक हर गांव-शहर में मार दिए जाते तो देश की संपदा देश में बच जाती। इतिहास साक्षी है कि एक आवाज में एक होकर देश ने तब भी गौरी के अत्याचारों का मुकाबला नहीं किया। अंग्रेजों के समय भी हमारी अलग-अलग रियासतों के राजा आपस में लड़ते रहे, पर अंग्रेजों की गुलामी अधिकांश राजाओं ने स्वीकार कर ली। अब यहां प्रश्न बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान में हिंदू समाज और उनके सम्मान का है। हमारे मंदिरों, गुरुद्वारों का है। हमारी बेटियों का है। क्या आज की आवश्यकता यही है कि हम केवल अपना परलोक सुधारने के लिए माला हाथ में लेकर निष्क्रिय बैठे-बैठे नाम सिमरन करते रहें और यह प्रतीक्षा करते रहें कि भगवान श्रीकृष्ण जी के अपने वचन के अनुसार जब-जब धर्म की हानि होगी वे धर्म की रक्षा के लिए यहां आएंगे। आवश्यकता तो यह है कि एक हाथ में माला और दूसरे में भाला होना चाहिए। हमारे ग्रंथों में भी शस्त्र और शास्त्र, शर और शाप दोनों में योग्यता की बात कही है।
हमारा दुर्भाग्य यह भी है कि हमारे पूजा स्थानों विशेषकर मंदिरों में जिनको ठाकुर पूजा का काम सौंपा जाता है, वे बहुत बेचारे हैं। उन्हें पूरा वेतन भी नहीं मिलता। जिनसे हम आशीर्वाद लेते हैं उन्हें मंदिर समितियों के सदस्य या अधिकारी कभी भी डांट पिला सकते हैं, नौकरी से निकाल सकते हैं या अन्य किसी भी प्रकार से नीचा दिखा सकते हैं। देश के बड़े-बड़े मंदिरों में यह बुराई शायद कम होगी, पर अधिकतर मंदिरों में और पूजा स्थानों में ऐसा ही है। हो सकता है समाज के वरिष्ठ सदस्यों को यह याद होगा कि पहले हर मंदिर में कुछ युवा विद्यार्थी रहते थे। वे शिक्षा भी ग्रहण करते और मंदिरों तथा आसपास के क्षेत्रों की सामाजिक सुरक्षा का दायित्व भी निभाते थे। देश और समाज की आज यह आवश्यकता है कि हमारे मंदिरों के पुजारी शास्त्रों के साथ शस्त्रों में भी पारंगत हों और उन्हें पूरा वेतन दिया जाए।
हमारे कोई भी देवी-देवता बिना शस्त्र के नहीं। दुर्गा पूजा के दिनों में हम सिंहवाहिनी, दशभुजाधारिणी और महिषासुर संहारिनी देवी की पूजा करते हैं और फिर हमारी हिंदुस्तान की बेटियां बिना शस्त्र शिक्षा और बिना शस्त्र के क्यों? रक्तबीज का अंत करने वाली देवी की पूजा सर्वत्र होती है। चण्ड, मुण्ड संहारिनी देवी की पूजा होती है और राक्षसों का नाश करने के लिए स्वयं भगवान बार-बार अवतार लेकर हमें रास्ता दिखाते रहे हैं।
यह एकदम सत्य है कि अगर हम श्रीराम और श्रीकृष्ण जी के रास्ते पर नहीं चलेंगे, श्री गुुरु हरगोबिंद और गुरु गोबिंद सिंह जी का मार्ग नहीं अपनाएंगे, बंदा बहादुर की तरह अत्याचारियों के अत्याचार का समूल नाश करने की योग्यता देश के बच्चों, युवाओं में पैदा नहीं करेंगे तो कभी बांग्लादेश के कट्टरपंथी और कभी पाकिस्तानी हिंदू-सिख समाज पर अत्याचार करते रहेंगे। हम सरकार से यह सशक्त मांग कर सकते हैं कि आज भारत दुनिया का शक्तिशाली देश है, अपनी शक्ति का प्रयोग करके अपने प्रभाव से दुनिया का समर्थन लेकर उन कट्टरपंथियों के हाथों पर नियंत्रण करने के लिए बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान सरकार को मजबूर कर दे।
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गांधी दर्शन को मूर्त रूप देने वाले सुधारक गांधीवादी कार्यकर्ता एसएन सुब्बाराव
विवेक शुक्ला
राजधानी के गांधी शांति प्रतिष्ठान (जीपीएफ) की पहली मंजिल का कमरा नंबर ग्यारह। इसी कमरे में देश के चोटी के गांधीवादी कार्यकर्ता एसएन सुब्बाराव पिछले 51 सालों से रहते थे। वे यहां पर 1970 के मध्य में रहने लगे थे। इस आधी सदी के दौरान उन्होंने अपना कभी कमरा नहीं बदला। वे यायावर थे। देश भर में घूमते थे। पर उनका घर गांधी शांति प्रतिष्ठान का कमरा नंबर 11 ही थी। इधर ही उनसे दुनियाभर के गांधीवादी विचारक, लेखक, कार्यकर्ता मिलने के लिए आते थे। उनका 92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इस उम्र में भी वे सीधे खड़े होकर बोलते थे और चलते थे।
हाफ पैंट और और खादी की शर्ट उनकी विशिष्ट पहचान थी। नेशनल यूथ प्रोजेक्ट के माध्यम से सुब्बाराव जी ने देश के हर प्रांत में एकता- शिविर लगाये और युवाओं को एक-दूसरे के निकट लाये। गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली का कमरा नंबर 11 सुब्बाराव जी से मिलने की जगह रही। जीवन भर में उन्हें सम्मान स्वरूप जो स्मृति-चिह्न मिले उनसे वह कमरा अटा रहता था। अब वे सब मुरैना जिले के जौरा स्थित महात्मा गांधी सेवा आश्रम से आ गये हैं और एक सुन्दर संग्रहालय के स्वरूप में मौजूद हैं। वे पिछले दो साल से यहां पर नहीं आए थे। इसकी एक वजह कोविड भी थी।
सुब्बाराव जी कम बोलते और ज्यादा सुनने वाले मनुष्यों में से थे। उनकी विनम्रता अनुकरणीय थी। वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में अपने कमरे से कैंटीन में भोजन करने खुद आते थे। उन्हें खिचड़ी ही पसंद थी। वे कभी यह स्वीकार नहीं करते थे कि कोई उनके कमरे में उन्हें भोजन देने के लिए आए। उन्हें देश ने तब पहली बार जाना था जब चंबल के बहुत से दस्युओं ने आत्मसमर्पण किया था। जो लोग पचास साल पहले किशोर हुआ करते थे उनके मन पर सुब्बाराव जी ने गहरा असर डाला और बागी समस्या से पीडि़त इस इलाके के लोगों के व्यवहार-परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई। सबको पता है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चंबल में बागियों का सामूहिक समर्पण हुआ तब धरातल पर संयोजन का काम सुब्बाराव जी ने ही किया। सुब्बाराव जी बागी- समर्पण के दिनों में पुनर्वास का महत्वपूर्ण काम देख रहे थे। पर वे दस्यु समर्पण से जुड़ी बातों को करने से बचते थे।
गांधीवादी विचारधारा के प्रणेता रहे सुब्बाराव को कई दिग्गज अपना आदर्श मानते थे। सुब्बाराव जी का जाना शांति की दिशा में अपने ढंग से प्रयासरत व्यक्तित्व का हमारे बीच से विदा होना है। सुब्बाराव जी से जुड़ी अनेक स्मृतियां देशवासियों के मन को आलोकित करती रहेंगी। उनकी सद्भावना रेल यात्रा और असंख्य एकता शिविर सबको याद आते रहेंगे। आज देश के विश्वविद्यालयों में नेशनल केडिट कोर की तरह जो राष्ट्रीय सेवा योजना है वह भी सुब्बाराव जी की पहल का परिणाम है। ‘करें राष्ट्र निर्माण बनायें मिट्टी से अब सोनाÓ युवाओं के कंठ में और मन में उन्हीं के कारण बैठा।
देशभर के गांवों में सरकार से बहुत पहले श्रमदान से अनेक सड़कें और पुल सुब्बाराव जी की पहल से बने। वह एक अलग ही दौर था। वातावरण बदलने में सुब्बाराव जी और उनके सहयोगियों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है वह अब पता नहीं कितने लोग महसूस कर पाते हैं।
सुब्बाराव की मृत्यु का समाचार गांधी शांति प्रतिष्ठान में पहुंचा तो यहां पर काम करने वालों को लगा मानो उन्होंने अपने किसी आत्मीय परिजन को ही खो दिया। यहां से बहुत सारे लोग जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम में पहुंच रहे हैं। वहीं गुरुवार को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
देश भर में डॉ. सुब्बाराव को उनके साथी भाईजी ही कहते थे। डॉ. सुब्बाराव ने जौरा में गांधी सेवा आश्रम की नींव रखी थी, जो अब गरीब व जरूरतमंदों से लेकर कुपोषित बच्चों के लिए काम कर रहा है। आदिवासियों को मूल विकास की धारा में लाने के लिए वह अपनी टीम के साथ लगातार काम करते रहे हैं। सुब्बाराव दिल्ली प्रवास के दौरान राजघाट जरूर जाते थे। उन्हें पर जाकर टहलना और बैठना पसंद था। वे राजघाट में आए बच्चों और युवाओं से भी बात करने लगते थे। उनके गांधी जी से जुड़े सवालों के जवाब देते।
रिम्स की बेहतरी के लिए जल्द बनेगा रोडमैप
*रिम्स के अपर निदेशक शशि प्रकाश सिंह ने रिम्स के विभिन्न विभागों का किया निरीक्षण
रांची, रिम्स के अपर निदेशक श्री शशि प्रकाश सिंह ने कहा है कि जल्द ही रिम्स के निदेशक के साथ वार्ता कर अस्पताल की बाकी बची समस्याओं का समाधान किया जाएगा। साथ ही रिम्स के बेहतर संचालन के लिए एक रोडमैप भी बनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि प्रयास होगा कि राज्य के सबसे बड़े स्वास्थ्य संस्थान को उसकी गरिमा के अनुसार रूप दिया जा सके। रोडमैप में मरीजों से लेकर चिकित्सकों, मेडिकल छात्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को बेहतर माहौल देना भी शामिल होगा। वह गुरुवार को रिम्स के डीन श्री सतीश चंद्रा के साथ रिम्स के विभिन्न विभागों का निरीक्षण कर रहे थे।
विभिन्न विभागों का किया निरीक्षण
श्री शशि प्रकाश सिंह ने माइक्रोबायोलॉजी, एनाटोमी, पैथोलॉजी, फॉरेंसिक इत्यादि विभागों का निरीक्षण किया। उन्होंने पैथोलॉजी विभाग में रोज कितनी जांच होती है तथा मरीजों को कितनी देर में रिपोर्ट मिलती है आदि की जानकारी ली और उनके रजिस्टर की जांच की। वहीं उन्होंने रिम्स में पढ़ रहे फाइनल ईयर के मेडिकल छात्रों से भी बातचीत की।
रिसर्च के लिए करें प्रेरित
रिम्स के अपर निदेशक ने अस्पताल के विभिन्न विभागों के प्रमुखों से मैनपावर, उपकरणों आदि की भी जानकारी ली। उन्होंने विभाग प्रमुखों से रिसर्च के लिए प्रेरित करने तथा रिसर्च के प्रकाशन पर जोर दिया।
“अपराध और नक्सल परिदृश्य“ पर एक समीक्षा बैठक आयोजित की गयी
राँची, आज पुलिस मुख्यालय, राँची स्थित सभागार में महानिदेशक सह पुलिस महानिरीक्षक, झारखण्ड की अध्यक्षता में वीडियो काॅन्फ्रेसिंग के माध्यम से “अपराध और नक्सल परिदृश्य“ पर एक समीक्षा बैठक आयोजित की गयी। इस बैठक में पुलिस महानिदेशक, झारखण्ड के द्वारा सभी क्षेत्रीय पुलिस उप-महानिरीक्षकों एवं जिलों के पुलिस अधीक्षकों से उनके क्षेत्र एवं जिलों में आपराधिक, वतर्मान नक्सल परिदृश्य तथा विधि-व्यवस्था में आ रही कठिनाईयों एवं उसके निराकरण हेतु बनायी गई ठोस नीति पर कार्य करने तथा नक्सल अभियानों की जानकारी सहित पूर्व से दिये गये एजेंडा बिन्दुओं पर विस्तृत चचार्यें कीं। उन्होंने नक्सलियों के विरूद्ध चलाये जा रहे नक्सल विरोधी अभियानों में आ रही कठिनाईयों के संबंध में जानकारी लेते हुये उसके तत्काल निवारण हेतु आवष्यक दिशा-निर्देश दिये।
1. वामपंथी उग्रवाद और उनके विरूद्ध किये जाने वाली कारर्वाई हेतु विशेष शाखा एवं अभियान शाखा द्वारा विस्तृत प्रस्तुति दी गई, तथा राज्य में घट रही नक्सली घटनाओं को रोकने के लिये बनाये गये रोडमैप के क्रियान्वयन हेतु विशेष दिशा-निर्देश दिये गये।
2. पुलिस अधीक्षक, अपराध अनुसंधान विभाग एवं ए0टी0एस0 के द्वारा संगठित अपराध को रोकने, उनके विरूद्ध कड़ी कारर्वाई करने का निर्देश दिया गया तथा की गई कारर्वाई की जानकारी भी ली गई तथा भविष्य के लिए रोडमैप की जानकारी दी गई।
3. पुलिस अधीक्षक, अपराध अनुसंधान विभाग, द्वारा अपराध परिदृश्य पर एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया।
4. पुलिस अधीक्षक,अपराध अनुसंधान विभाग, द्वारा प्रस्तुतिकरण के द्वारा अनुसंधानित काण्डों की जाँच, लंबित वारँट/कुर्की के निष्पादन में हो रहे विलंब तथा कठिनाईयों पर राज्य के सभी जिलों को दिशा-निर्देश दिये गये।
5. राज्य में विधि-व्यवस्था से संबंधित मुद्दे और उनकेे निराकरण हेतु की जाने वाली कारर्वाई के संदभर् में विस्तृत चचार्यें की गई।
6. पुलिस मुख्यालय से आवश्यक सहायता के संबंध में प्रस्तुत किए गए ठोस प्रस्तावों की समीक्षा भी की गई।
इस बैठक में क्षेत्रवार सभी क्षेत्रीय पुलिस उप महानिरीक्षकों यथा-पलामू क्षेत्र, राँची क्षेत्र, कोल्हान क्षेत्र, हजारीबाग क्षेत्र , बोकारो क्षेत्र तथा दुमका क्षेत्र के स्तर से झारखण्ड राज्य में नक्सल एवं आपराधिक गतिविधियों तथा उन पर अंकुश लगाने के लिए की जा रही कारर्वाही तथा नक्सल काण्डों की मॉनिटरिंग की प्रस्तुतियों सहित अन्य जानकारी दी गयीं । इसके अतिरिक्त बैठक में विभिन्न जिलों के पुलिस अधीक्षकों एवं सभी क्षेत्रीय पुलिस उप-महा निरीक्षकों को विशेष दिशा- निर्देश दिये गये।
इस बैठक में अपर पुलिस महानिदेशक, अप0अनु0वि0, झारखण्ड, अपर पुलिस महानिदेशक, मुख्यालय, झारखण्ड, अपर पुलिस महानिदेशक अभियान, झारखण्ड, ,पुलिस महानिरीक्षक, मानवाधिकार, झारखण्ड, पुलिस महानिरीक्षक, अभियान, झारखण्ड, पुलिस महानिरीक्षक, प्रोविजन, झारखण्ड, पुलिस उप-महानिरीक्षक, राँची, पुलिस उप-महानिरीक्षक, विशेष शाखा, झारखण्ड, पुलिस अधीक्षक, अप0अनु0विभाग, पुलिस अधीक्षक, विशेष शाखा, पुलिस अधीक्षक, ए0टी0एस0 तथा वीडियो काॅन्फ्रेसिंग के द्वारा सभी क्षेत्रीय पुलिस उप-महानिरीक्षक, तथा सभी जिला के पुलिस अधीक्षकों ने भाग लिया।
कनाडा की पहली हिंदू मंत्री अनीता आनंद को मिला रक्षा मंत्रालय
टोरंटो, कनाडा की पहली हिंदू कैबिनेट मंत्री अनीता आनंद ने देश की दूसरी महिला रक्षा मंत्री बनकर इतिहास रच दिया।
वह भारतीय मूल के कनाडाई नागरिक हरजीत सज्जन की जगह लेंगी। प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अपने नए मंत्रिमंडल की घोषणा की है, जिसमें पता चला है कि अनीता आनंद देश की रक्षा मंत्री होंगी।
सज्जन को अंतर्राष्ट्रीय मामलों का मंत्री बनाया गया है।
एक अन्य भारतीय-कनाडाई महिला कमल खेड़ा, जो ब्रैम्पटन वेस्ट से 32 वर्षीय सांसद हैं, ने भी वरिष्ठ नागरिकों के लिए मंत्री के रूप में शपथ ली, जिससे ट्रूडो कैबिनेट में भारतीय-कनाडाई महिला मंत्रियों की संख्या तीन हो गई है।
कनाडा की विविधता, समावेशन और युवा मंत्रालय संभालने वाली मौजूदा भारतीय-कनाडाई महिला मंत्री बर्दिश चागर को हटा दिया गया है।
नए मंत्रिमंडल में छह महिला मंत्रियों में दो भारतीय-कनाडाई महिलाएं शामिल हैं।
ट्रूडो ने कनाडाई सेना में यौन दुराचार के आरोपों को दूर करने में विफल रहने के लिए हरजीत सज्जन को पदावनत कर दिया और अनीता आनंद और कमल खेड़ा को महामारी के दौरान उनके काम के लिए पुरस्कृत किया।
महामारी के चरम पर स्वास्थ्य देखभाल प्रदाता के रूप में काम पर वापस जाने के लिए आनंद की ओर से खरीद मंत्री और खेड़ा – एक पंजीकृत नर्स के रूप में उनके काम के लिए प्रशंसा की गई है। 2015 से तीन बार के सांसद, खेरा ने स्वास्थ्य और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मंत्रियों के संसदीय सचिव के रूप में भी काम किया है।
अनीता का जन्म 1967 में नोवा स्कोटिया में भारतीय मूल के माता-पिता के घर हुआ था, जो दोनों चिकित्सा पेशेवर थे। उनकी मां सरोज डी. राम पंजाब से और पिता एस. वी. आनंद तमिलनाडु से संबंध रखते हैं।
अनीता, जो टोरंटो विश्वविद्यालय में कानून की प्रोफेसर के रूप में छुट्टी पर हैं, को टोरंटो के पास ओकविले से सांसद के रूप में चुने जाने के बाद 2019 में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा सार्वजनिक सेवा और खरीद मंत्री की जिम्मेदारी दी गई थी।
अनीता ने व्यापक शोध के साथ एयर इंडिया जांच आयोग की सहायता की। आयोग ने 23 जून 1985 को एयर इंडिया कनिष्क उड़ान 182 की बमबारी की जांच की थी, जिसमें सभी 329 लोग मारे गए थे।
मॉन्ट्रियल-दिल्ली की उड़ान में जो बम फटा था, उसे एक साल पहले 1984 में स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई का बदला लेने के लिए वैंकूवर स्थित खालिस्तानियों द्वारा लगाया गया था।
अनीता आनंद से पहले, कनाडा की एकमात्र महिला रक्षा मंत्री पूर्व प्रधानमंत्री किम कैंपबेल थीं, जिन्होंने 1993 में 4 जनवरी से 25 जून तक छह महीने के लिए पोर्टफोलियो संभाला था।(एजेंसी)
मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने नवनिर्मित वेजिटेबल मार्केट एवं सरदार पटेल पार्क का लोकार्पण किया
रांची, वेजिटेबल मार्केट सभी सुविधाओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। नागा बाबा सब्जी बाजार की पूर्व की स्थिति से हम सभी अवगत हैं।
सरकार का प्रयास रहता है कि हर चीज व्यवस्थित रूप में राज्य की जनता को प्राप्त हो। अब यहां स्वच्छ वातावरण में सब्जियों की खरीद बिक्री होगी। हमें इसे अपना बाजार समझ कर रख रखाव में सहयोग करना है। ये बातें मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने नागा बाबा सब्जी बाजार स्थित नवनिर्मित वेजिटेबल मार्केट के लोकार्पण समारोह में कही। मुख्यमंत्री ने कहा यहां दुकान लगाने वालों के लिए यह मार्केट उनके परिवार के जीवन यापन का साधन बनने जा रहा है। इसे स्वच्छ और सुरक्षित रखना बड़ी जिम्मेवारी है। यह जिम्मेदारी हम सब को उठानी पड़ेगी।
हमें पर्यावरण को चुनौती नहीं देनी चाहिए
मुख्यमंत्री ने हरमू हाउसिंग कॉलोनी स्थित सरदार पटेल पार्क के उद्घाटन समारोह में कहा कि शहरीकरण बढ़ रहा है। वृक्षों को काटकर गगनचुंबी इमारतें बन रहीं है। जबकि हमें पर्यावरण को कभी चुनौती नहीं देनी चाहिए। यहां के निवासियों के लिए यह पार्क भौतिकवादी समय में जीवन के अमूल्य क्षण को व्यतीत करने में सहायक बनेगा। मुख्यमंत्री ने कहा सरकार की इस सम्पति का मालिक हरमुवासियों को बनाया जा रहा है। यहां के निवासी इसकी सुरक्षा करें। ताकि खूबसूरत पार्क की खूबसूरती हमेशा बनी रहे।
सब्जी विक्रेताओं को मिलेगी दुकान
नवनिर्मित वेजिटेबल मार्केट में 300 से अधिक सब्जी विक्रेताओं को दुकानें मिलेंगी। इसके लिए नगर निगम ने 191 प्लेटफार्म का निर्माण मार्केट में कराया है। बड़े प्लेटफार्म में दो-दो दुकानदारों को बसाया जाएगा। इसके अलावा मार्केट के दोनों तरफ बनाए गए सेड में ठेला पर फल बेचने वालों को जगह दी जाएगी।
मार्केट की छत पर बना है फूड कोर्ट, जाम से मिलेगी मुक्ति
वेजिटेबल मार्केट की छत पर फूड कोर्ट बनाया गया है। यहां सात अलग-अलग किचन की व्यवस्था निगम ने की है। मार्केट के आसपास पार्किंग की व्यवस्था की गई है। नागा बाबा सब्जी मार्केट में सड़क पर दुकान लगने के कारण दिन भर जाम की स्थिति बनी रहती है। अब इससे लोगों को राहत मिलेगी।
इस अवसर पर सांसद श्री संजय सेठ, राज्यसभा सांसद श्री दीपक प्रकाश, विधायक श्री सीपी सिंह, मुख्यमंत्री के सचिव श्री विनय कुमार चौबे, नगर आयुक्त नगर निगम श्री मुकेश कुमार, महापौर श्रीमती आशा लकड़ा, उपमहापौर श्री संजीव विजयवर्गीय एवं अन्य उपस्थित थे
शिमला मिर्च खाने से क्या होते हैं फायदे जानिए इसके बारे में
शिमला मिर्च का सेवन करना हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक होता है यह बहुत सारे विटामिंस और मिनरल्स से भरपूर होती है जो हमे कई प्रकार के रोगो से छुटकारा दिलाने मे मदद करती है। यह विटामिन ए, बी कॉम्प्लेक्स, विटामिन सी, विटामिन के, फाइबर, आयरन, एंटीऑक्सिडेंट और कैरोटीनॉयड से भरपूर होती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही आवश्यक और फायदेमंद तत्त्व होते है।
शिमला मिर्च में बहुत कम मात्रा में कैलोरी पाई जाती है। जो वजन घटाने मे मदद करती है रोजाना इसका सेवन करने से शरीर की फालतू चर्बी को कम करने मे मदद मिलती है जिससे आसानी से वजन घटाया जा सकता है। अगर आप डायबिटीज की समस्या से परेशान है तो आपको शिमला मिर्च का सेवन जरूर करना चाहिए क्योंकि इसके सेवन से रक्त में शर्करा की मात्रा कम होती है जिससे मधुमेह नियंत्रण में रहता है।
शिमला मिर्च विटामिन सी और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती है इसलिए इसका नियमित सेवन करने से आंखों की रोशनी बढ़ती है यह आँखो की कमजोरी को दूर करने मे भी सहायक होती है इसमे विटामिन ए होता है जो आँखो को मोतियाबिंद होने के खतरे से बचाता है।
शिमला मिर्च विटामिन बी कॉम्प्लेक्स और आयरन से समृद्ध होती है अगर आप रोजाना नियमित रूप से इसका सेवन करते है तो इससे शरीर मे खून की कमी नही होती जिससे एनीमिया रोग का खतरा कम हो जाता है इसके साथ ही यह रक्त संचालन को भी बेहतर बनाती है जिससे पूरे शरीर मे ऑक्सीजन का बैलेंस सही बना रहता है।
यह एन्टिऑक्सिडेंट से भरपूर होती है जिससे हमारा इम्यूनिटी सिस्टम मजबूत होता है अगर आपको सर्दी-जुकाम, तनाव, और कमजोरी को दूर करने मे मदद मिलती है।(एजेंसी)
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव’ बैगा और माडिय़ा जनजाति के प्रमुख लोक नृत्य
ललित चतुर्वेदी
राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव में छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक गीत, नृत्य और संपूर्ण कलाओं से परिचित होगा देश और विदेश। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में यह आयोजन 28 से 30 अक्टूबर तक किया जा रहा है। राजधानी का साईंस कॉलेज मैदान आयोजन के लिए सज-धज कर तैयार हो चुका है। इस महोत्सव में विभिन्न राज्यों के आदिवासी लोक नर्तक दल के अलावा देश-विदेश के नर्तक दल भी अपनी प्रस्तुति देंगे।
छत्तीसगढ़ राज्य की 5 विशेष पिछड़ी जनजातियों में से एक बैगा जनजाति है। राज्य के कबीरधाम, मुंगेली, राजनांदगांव, बिलासपुर और कोरिया जिले में निवासरत है। बैगा जनजाति अपने ईष्ट देव की स्तुति, तीज-त्यौहार, उत्सव एवं मनोरंजन की दृष्टि से विभिन्न लोकगीत एवं नृत्य का गायन समूह में करते हैं। इनके लोकगीत और नृत्य में करमा, रीना-सैला, ददरिया, बिहाव, फाग आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार दण्डामी माडिय़ा जनजाति गोंड जनजाति की उपजाति है। सर डब्ल्यू. वी. ग्रिगसन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘द माडिय़ा जनजाति के सदस्यों द्वारा नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट के आधार पर ‘बायसन हार्न माडिय़ा’ जनजाति नाम दिया। प्रसिद्ध मानव वैज्ञानिक वेरियर एल्विन का ग्रंथ ‘द माडिय़ा-मर्डर एंड सुसाइड’ (1941) दण्डामी माडिय़ा जनजाति पर आधारित है। बैगा और माडिय़ा जनजाति के रस्मों-रिवाजों पर आधारित प्रमुख लोक नृत्य इस प्रकार हैं।
‘रीना सैला नृत्य’
बैगा जनजाति का प्रकृति एवं वनों से निकट संबंध है। जिसका बखान इनके लोक संस्कृति में व्यापक रूप से देखने को मिलता है। बैगा जनजाति की माताएं, महिलाएं अपने प्रेम एवं वात्सल्य से देवी-देवताओं और अपनी संस्कृति का गुणगान गायन के माध्यम से उनमें गीत एवं नृत्य से बच्चों को परिचित करने का प्रयास करती है। साथ ही बैगा माताएं अपने छोटे शिशु को सिखाने एवं वात्सल्य के रूप में रीना का गायन करती हैं। वेशभूषा महिलाएं सफेद रंग की साड़ी धारण करती हैं। गले में सुता-माला, कान में ढार, बांह में नागमोरी, हाथ में चूड़ी, पैर में कांसे का चूड़ा एवं ककनी, बनुरिया से श्रृंगार करती हैं। वाद्य यंत्रों में ढोल, टीमकी, बांसुरी, ठीसकी, पैजना आदि का प्रयोग किया जाता है।
सैला बैगा जनजाति के पुरूषों के द्वारा सैला नृत्य शैला ईष्ट देव एवं पूर्वज देव जैसे-करमदेव, ग्राम देव, ठाकुर देव, धरती माता तथा कुल देव नांगा बैगा, बैगीन को सुमिरन कर अपने फसलों के पक जाने पर धन्यवाद स्वरूप अपने परिवार के सुख-समृद्धि की स्थिति का एक दूसरे को शैला गीत एवं नृत्य के माध्यम से बताने का प्रयास किया जाता है। इनकी वेशभूषा पुरूष धोती, कुरता, जॉकेट, पगड़ी, पैर में पैजना, गले में रंगबिरंगी सूता माला धारण करते है। वाद्य यंत्रों में मांदर,ढोल, टीमकी, बांसुरी, पैजना आदि का प्रमुख रूप से उपयोग करते हैं। बोली बैगा जनजाति द्वारा रीना एवं शैला का गायन स्वयं की बैगानी बोली में किया जाता है। यह नृत्य प्राय: क्वार से कार्तिक माह के बीच मनाए जाने वाले उत्सवों, त्यौहारों में किया जाता है।
‘दशहेरा करमा नृत्य’
बैगा जनजाति समुदाय द्वारा करमा नृत्य भादो पुन्नी से माधी पुन्नी के समय किया जाता है। इस समुदाय के पुरूष सदस्य अन्य ग्रामों में जाकर करमा नृत्य के लिए ग्राम के सदस्यों को आवाहन करते हैं। जिसके प्रतिउत्तर में उस ग्राम की महिलाएं श्रृंगार कर आती है। इसके बाद प्रश्नोत्तरी के रूप में करमा गायन एवं नृत्य किया जाता है। इसी प्रकार अन्य ग्राम से आमंत्रण आने पर भी बैगा स्त्री-पुरूष के दल द्वारा करमा किया जाता है। करमा रात्रि के समय ग्राम में एक निर्धारित खुला स्थान जिस खरना कहा जाता है में अलाव जलाकर सभी आयु के स्त्री, पुरूष एवं बच्चे नृत्य करते हुए करते है। अपने सुख-दु:ख को एक-दूसरे को प्रश्न एवं उत्तर के रूप में गीत एवं नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।
करमा नृत्य के माध्यम से बैगा जनजाति में परस्पर सामन्जस्य, सुख-दु:ख के लेन देन के साथ ही नव युवक-युवतियां भी आपस में परिचय प्राप्त करते है। इस नृत्य में महिला सदस्यों द्वारा विशेष श्रृंगार किया जाता है। जिसमें यह चरखाना (खादी) का प्राय: लाल एवं सफेद रंग का लुगड़ा, लाल रंग की ब्लाउज, सिर पर मोर पंख की कलगी, कानों में ढार, गले में सुता-माला, बांह में नागमोरी, कलाई में रंगीन चूडिय़ा एवं पैरों में पाजनी और विशेष रूप से सिर के बाल से कमर के नीचे तक बीरन घास की बनी लडिय़ां धारण करती हैं, जिससे इनका सौंदर्य एवं श्रृंगार देखते ही बनता है। पुरूष वर्ग भी श्रृंगार के रूप में सफेद रंग की धोती, कुरता, काले रंग की कोट, जाकेट, सिर पर मोर पंख लगी पगड़ी और गले में आवश्यकतानुसार माला धारण करते हैं। वाद्य यंत्रों में मांदर, टिमकी, ढोल, बांसुरी, ठिचकी, पैजना आदि का उपयोग किया जाता है।
‘करसाड़ नृत्य’
दण्डामी माडिय़ा जनजाति नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट, बस्तर, दशहरा के अंतिम दिनों में चलने वाले विशालकाय काष्ठ रथ को खींचने का विशेषाधिकार और स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। इस नृत्य में दण्डामी माडिय़ा पुरूष सिर पर कपड़े की पगड़ी या साफा, मोती, माला, कुर्ता या शर्ट, धोती एवं काले रंग का हाफ कोट धारण करते हैं। वहीं महिलाएं साड़ी, ब्लाउज, माथे पर कौडिय़ा से युक्त पट्टा, गले में विभिन्न प्रकार की माला और गले, कलाई, पैरों पर बाजार में मिलने वाले सामान्य आभूषण पहनती हैं।
करसाड़ नृत्य के लिए पुरूष सदस्य अपने गले में लटका कर ढोल एवं मांदर का प्रयोग करता है। महिलाएं लोहे के रॉड के उपरी सिरे में लोहे की विशिष्ट घंटियों से युक्त ‘गुजिड़’ नामक का प्रयोग करती है। एक पुरूष सदस्य सीटी का प्रयोग करत है, नृत्य के दौरान सीटी की आवाज से ही नर्तक स्टेप बदलते हैं। नृत्य के प्रदर्शन का अवसर दण्डामी माडिय़ा जनजाति में करसाड़ नृत्य वार्षिक करसाड़ जात्रा के दौरान धार्मिक उत्सव में करते हैं। करसाड़ दण्डामी माडिय़ा जनजाति का प्रमुख त्यौहार है। करसाड़ के दिन सभी आमंत्रित देवी-देवाताओं की पूजा की जाती हैं और पुजारी, सिरहा देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों जैसे-डोला, छत्रा, लाट बैरम आदि के साथ जुलूस निकालते हैं। जुलूस की समाप्ति के पश्चात् शाम को युवक-युवतियां अपने विशिष्ट नृत्य पोषाक में सज-सवरकर एकत्र होकर सारी रात नृत्य करते हैं।
‘मांदरी नृत्य’
दंडामी माडिय़ा जनजाति नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट, बस्तर दशहरा के अंतिम दिनों में चलने वाले विशालकाय काष्ठ रथ को खींचने का विशेषाधिकार और स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। दंडामी माडिय़ा जनजाति के सदस्य नृत्य के दौरान पहने जाने वाले गौर सिंग मुकुट को माडिय़ा समुदाय के वीरता तथा साहस का प्रतीक मानते हैं।
इस नृत्य की वेशभूषा में दंडामी माडिय़ा पुरूष सिर पर कपड़े की पगड़ी या साफा, मोती माला, कुर्ता या शर्ट, धोती एवं काले रंग का हाफ कोट धारण करते हैं। वहीं महिलाएं साड़ी, ब्लाउज, माथे पर कौडिय़ों से युक्त पट्टा, गले में विभिन्न प्रकार की माला और गले, कलाई, पैरों पर बाजार में मिलने वाले सामान्य आभूषण पहनी हैं। वाद्य यंत्र मांदरी नृत्य के लिए पुरूष सदस्य अपने गले में लटकाकर ढोल एवं मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं। महिलाएं लोहे के रॉड के उपरी सिरे में लोहे की विशिष्ट घंटियों से युक्त ‘गुजिड़’ का प्रयोग करती हैं। एक पुरूष सदस्य सीटी का प्रयोग करता है, नृत्य के दौरान सीटी की आवाज से ही नर्तक स्टेप बदलते हैं।
यह नृत्य दंडामी विवाह, मेला-मंड़ई, धार्मिक उत्सव और मनोरंजन के अवसर पर किया जाता है। विवाह के दौरान अलग-अलग गांवों के अनेक नर्तक दल विवाह स्थल पर आकर नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। जिसके बदले में उन्हें ‘लांदा’ (चावल की शराब) और ‘दाडग़ो’ (महुए की शराब) दी जाती हैं। दंडामी माडिय़ा जनजाति के सदस्यों का मानना है कि गौर सिंग नृत्य उनके सामाजिक एकता, सहयोग और उत्साह में वृद्धि करता है। वर्तमान में दंडामी माडिय़ा जनजाति का गौर सिंग नृत्य अनेक सामाजिक तथा सांस्कृतिक आयोजनों में भी प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है।
(लेखक उप संचालक जनसंपर्क हैं)
मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने जैप – 9 में पारण परेड (पासिंग आउट) का निरीक्षण किया और सलामी ली
*मुख्यमंत्री ने प्रशिक्षण के उपरांत आयोजित परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन करने वाले 15 आरक्षियों को सम्मानित किया
*गलवान घाटी में चीनी सेना के साथ मुठभेड़ में
शहीद साहिबगंज के शहीद सैनिक
कुंदन कुमार ओझा की आश्रिता को
मुख्यमंत्री ने नियुक्ति पत्र प्रदान किया
*श्रीनगर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में
शहीद सीआरपीएफ जवान कुलदीप
उरांव की आश्रिता और छत्तीसगढ़ में उग्रवादी हमले में
शहीद मुन्ना यादव( सीआरपीएफ) की आश्रिता
को 10 -10 लाख रुपए की अनुग्रह
अनुदान राशि मुख्यमंत्री ने प्रदान की
*आपने प्रशिक्षण में जो सीखा है , उसका इस्तेमाल
अपने दायित्व निर्वहन में करेंगे – श्री हेमन्त सोरेन मुख्यमंत्री झारखंड
साहिबगंज, मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन आज जैप -9, साहिबगंज में प्रशिक्षु आरक्षियों के पारण परेड (पासिंग आउट) का निरीक्षण किया और आकर्षक परेड की सलामी ली । मुख्यमंत्री ने बुनियादी प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए आरक्षियों को शुभकामनाएं देते हुए उज्जवल भविष्य की कामना की । मुख्यमंत्री ने प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि आपके कंधों पर आज से एक नई जिम्मेदारी आ रही है । मुझे पूरा विश्वास है कि आप अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का भलीभांति निर्वहन करेंगे । मुख्यमंत्री ने इस मौके पर प्रशिक्षण के उपरांत आयोजित परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले 15 सर्वश्रेष्ठ आरक्षियों को मेडल और ट्रॉफी देकर सम्मानित किया ।
ट्रेनिंग में जो सीखा है उसका इस्तेमाल अपने कार्यों में करेंगे
मुख्यमंत्री ने प्रशिक्षु आरक्षियों से कहा कि आपने बुनियादी प्रशिक्षण कार्यक्रम में जो कुछ सीखा है , उसका बखूबी इस्तेमाल अपने कार्यों एवं दायित्व निर्वहन में करेंगे । मुझे पूरा विश्वास है कि आप परिवार और समाज के साथ तालमेल बनाकर अपने उत्तरदायित्व और जनता के प्रति संवेदना दिखाएंगे ।
महिला सशक्तिकरण का परिचायक
मुख्यमंत्री ने गर्व जताते हुए कहा कि बुनियादी प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले 502 आरक्षियों में 94 महिलाएं हैं । यह दर्शाता है कि पुलिस महकमे में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिल रहा है । आज महिलाएं हर मोर्चे पर अपने दायित्वों को सफलतापूर्वक निभा रही हैं ।मुख्यमंत्री ने महिला प्रशिक्षु आरक्षण का हौसला बढ़ाते हुए कहा कि आपने जो जिम्मेदारी मिल रही है उसमें वे बेहतर समाज बनाने में अपना अमूल्य योगदान देंगी ।
शहीदों के आश्रिता को नियुक्ति पत्र और अनुग्रह अनुदान की राशि मिली
मुख्यमंत्री ने इस मौके पर गलवान घाटी में 16 जून 2020 को चीनी सेना के साथ मुठभेड़ में शहीद साहिबगंज के जांबाज़ सैनिक कुंदन कुमार ओझा की आश्रिता नम्रता कुमारी को नियुक्ति पत्र प्रदान किया । उन्हें पहले 10 लाख रुपए शहीद सहायता राशि दी जा चुकी है । मुख्यमंत्री ने 2 जुलाई 2020 को श्रीनगर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद सीआरपीएफ के जवान कुलदीप उरांव की आश्रिता श्रीमती वंदना उरांव को 10 लाख रुपये अनुग्रह अनुदान की राशि प्रदान की । वे बंगाल पुलिस में पहले से ही कार्यरत हैं । मुख्यमंत्री ने 11 मई 2020 को छत्तीसगढ़ में उग्रवादी हमले में शहीद साहिबगंज के रहनेवाले मुन्ना यादव (सीआरपीएफ) की आश्रिता श्रीमती निताई कुमारी को 10 लाख की अनुग्रह अनुदान की राशि प्रदान की । उन्हें नियुक्ति पत्र पहले ही मिल चुका है ।
इस मौके पर सांसद श्री विजय हांसदा, विधायक श्री अनंत कुमार ओझा, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव श्री राजीव अरुण एक्का, पुलिस महानिदेशक श्री नीरज सिन्हा, एडीजी श्री संजय लाटकर, पुलिस महानिरीक्षक श्रीमती प्रिया दुबे, साहिबगंज के उपायुक्त श्री रामनिवास यादव, पुलिस अधीक्षक श्री अनुरंजन किस्पोट्टा और पदमा हजारीबाग पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के पुलिस अधीक्षक श्री कौशल किशोर समेत कई पुलिस पदाधिकारी उपस्थित थे।
विधवा पेंशन के लिए जरूरी नहीं होगा राशनकार्ड – मुख्यमंत्री
*मुख्यमंत्री ने किया गोड्डा जिले में विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास एवं उद्घाटन
*सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत 650 लाख रुपये की राशि लाभुकों के बीच किया वितरित
गोड्डा। मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने कहा कि वैश्विक महामारी के दौरान भी जीवन को सामान्य बनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। सुदूर प्रखंड में आज हम एकत्रित हुए हैं। सरकार की कई योजनाओं से लोगों को जोड़ा गया है। करोड़ों रुपये की जनहित योजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन हुआ है, जिससे जनसामान्य की समस्यायों के निराकरण में सहयोग प्राप्त होगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि विधवा पेंशन के लिए राशन कार्ड आदि की आवश्यकता नहीं रहेगी। जो विधवा असहाय हैं, उनको सरकार द्वारा पेंशन उपलब्ध करायी जाएगी। वे आज गोड्डा जिले के राजाभिट्टा स्टेडियम में राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास एवं उद्धघाटन के साथ लाभुकों के बीच परिसंपत्ति वितरण कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
इस अवसर पर मुख्यमंत्री द्वारा जिले में 3458.17 लाख रुपये से संचालित विभिन्न योजनाओं का उद्धघाटन एवं 2618.49 लाख रुपये की लागत से संचालित होनेवाली विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास किया गया। मुख्यमंत्री ने अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति पत्र का वितरण, प्रधानी पट्टा का वितरण, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लाभुकों को घर की चाबी एवं स्वीकृति पत्र का वितरण भी किया। कार्यक्रम में लाभुकों को फूलो झानों योजना के लाभुकों के बीच चेक का वितरण किया गया। कार्यक्रम में सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत लाभुकों के बीच 650 लाख रुपये की परिसंपत्ति वितरित की गई।
मुख्यमंत्री ने कहा कि बहुत ही दुर्गम क्षेत्र होने के कारण यहां बिजली की समस्या रहती थी। बिजली व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए यहां पावर सब स्टेशन का भी उद्घाटन किया गया है। उन्होंने कहा कि सुंदर डैम को लेकर हमेशा चर्चा की जाती है कि इसके आसपास के गांवों में कैसे खुशहाली आए, इसके लिए सरकार प्रयासरत है। विस्थापित गांव में लिफ्ट इरिगेशन के तहत सिंचाई योजना का भी शिलान्यास किया गया है । 10 स्कूल भवनों का निर्माण किया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवा के लिए आठ एंबुलेंस जिला स्तर पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। सरकार मुख्यमंत्री रोजगार सृजन योजना, फूलों झानों योजना आदि से लोगों के सर्वांगीण विकास के लिए कृतसंकल्पित है।
सरकार मुख्यमंत्री पशुधन योजना का लाभ दे रही है, जिससे ग्रामीण बकरी पालन, गाय पालन, सूअर पालन आदि कर खुद को स्वावलंबी बना सकते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार स्कूली बच्चों को हफ्ते में 6 दिन अंडा देने का काम कर रही है। इसके लिए निकटवर्ती राज्य से अंडा खरीदना होता है। यदि ग्रामीण मुर्गी पालन करें, तो उनसे सरकार अंडा खरीद लेगी। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार महुआ हड़िया बेचने वाली महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए फूलों झानों योजना के तहत लोन उपलब्ध करा रही है, जिससे वे एक सम्मानजनक व्यवसाय कर इस दलदल से बाहर निकलने का काम कर सकती हैं ।
मुख्यमंत्री ने कहा कि इस वर्ष को सरकार नियुक्ति वर्ष के रूप में मना रही है। विभिन्न विभागों द्वारा नियमावली तैयार की जा रही है, जिससे जल्द से जल्द सभी विभागों में रिक्त पद भरे जा सकेंगे। साथ ही रोजगार के नए अवसर से लोगों को जोड़ा जा सकेगा। उन्होंने कहा कि आप सब को भी जागरूक रहना होगा। सरकार आपके हित के लिए कई तरह के नियम बना रही है, जिसका फायदा आप सजग रह कर उठा सकते हैं।
इस अवसर पर राजमहल के सांसद श्री विजय कुमार हांसदा, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव श्री राजीव अरुण एक्का, मुख्यमंत्री के प्रेस सलाहकार श्री अभिषेक प्रसाद, उपायुक्त गोड्डा श्री भोर सिंह यादव, पुलिस अधीक्षक श्री वाईएस रमेश सहित गोड्डा जिले के अन्य जिलास्तरीय पदाधिकारी उपस्थित थे।
झारखण्ड प्रदेश के क्षत्रिय महासम्मेलन का आयोजन संपन्न
रांची,अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के तत्वाधान में झारखण्ड प्रदेश के क्षत्रिय महासम्मेलन का आयोजन फोकस क्लब एंड रिसोर्ट, रिंग रोड, दलादिली में किया गया |इस कार्यक्रम में प्रदेश कार्य समिति एवं जिला कमिटी का विस्तार किया गया | साथ ही कार्यक्रम में पूरे झारखण्ड से अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के कोडरमा, गिरिडीह, सिमडेगा, हजारीबाग, चतरा, खूंटी, खलारी आदि जिला का विस्तार किया गया | साथ ही साथ सर्वसम्मति से लिया गया की संगठन को और व्यापक स्तर पर विस्तार करने हेतु व्यापक सदस्यता अभियान चलाया जायेगा | शिक्षा, चिकित्सा एवं व्यावसायिक रूप से समाज को मजबूती प्रदान करने के लिए शिक्षा, चिकित्सा एवं व्यावसाय प्रकोष्ठ का गठन किया गया | इस दौरान विगत कुछ दिनों पहले माननीय मुख्यमंत्री द्वारा हिन्दी, भोजपुरी, मगही भाषा पर गलत टिप्पणी का विरोध किया गया एवं भोजपुरी, मगही, अंगिका भाषा को झारखंड की सूची मे शामिल करने की मांग की गयी। साथ ही महासभा द्वारा यह चेतावनी भी दी गयी की अगर इन भाषाओं को जल्द ही सूची में शामिल नहीं किया तो महासभा द्वारा प्रदेश स्तरीय आंदोलन किया जाएगा।
इस कार्यक्रम में प्रदेश कार्य समिति एवं जिला कमिटी का विस्तार किया गया |
इस कार्यक्रम के दौरान झारखण्ड प्रदेश संरक्षक श्री अजय कुमार सिंह जी ने रांची जिला में क्षत्रिय भवन बनाने हेतु 51लाख रूपए की राशि अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा को देने की घोषणा की | इस कार्यक्रम के दौरान अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के प्रदेश अध्यक्ष श्री विनय कुमार सिंह उर्फ बीनू सिंह एवं कार्यकारी अध्यक्ष श्री मनोज कुमार पंकज उर्फ ललन सिंह के नेतृत्व में प्रदेश कार्यकारिणी एवं जिला कमिटी का विस्तारीकरण किया गया | इस कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि के रूप में हुसैनाबाद के विधायक सह झारखण्ड सरकार के पूर्व मंत्री श्री कमलेश सिंह, डा० सूर्यमणि सिंह, डा० सुरेश प्रसाद सिंह (पूर्व कुलपति), शिवपूजन सिंह, रेणु सिंह, अजय सिंह, नवीन नाथ शाहदेव, विजय सिंह (पूर्व आइ०ए०एस०), प्रतुल शाहदेव, पूनम सिंह, अर्चना सिंह आदि उपस्थित हुए | कार्यक्रम का संचालन मुख्य रूप से श्री आदर्श सिंह एवं श्री विजय सिंह ने संयुक्त रूप से किया |
इस कार्यक्रम के दौरान मुख्य रूप से संतोष सिंह, कामख्या सिंह, धीरेन्द्र सिंह, देव कुमार सिंह, सुधीर सिंह, विजय सिंह, सुनील सिंह बादल, चेतन सिंह, प्रभाकर सिंह, अलका सिंह, प्रीती सिंह, पूनम सिंह, यश सिंह परमार आदि प्रदेश पदाधिकारी उपस्थित हुए |
उक्त जानकारी मनोज कुमार सिंह उर्फ ललन सिंह कार्यकारी अध्यक्ष ने दी है
बहुत कठिन है कांग्रेस की डगर
*कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष
के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी
*पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है
*जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ
*सोनिया की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी
*कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी
*एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था
राजकुमार सिंह
राष्ट्रद्रोह के आरोपों से चर्चा में आये जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार भाकपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हारने के बाद भले ही देश बचाने के नारे के साथ कांग्रेसी हो गये, पर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को अपना घर दुरुस्त करने की कोई जल्दी नहीं लगती। पिछले साल मार्च में आयी जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना के खौफ से देश में बहुत कुछ बंद होकर खुल गया, पर कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी। ध्यान रहे कि पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है, जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया था। तब से देश और कांग्रेस में बहुत कुछ घट चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार की जगह भाजपा फिर सत्ता में आ चुकी है। पंजाब में विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री, दोनों बदले जा चुके हैं। जिस तरह यह बदलाव किया गया, उसने कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर ही ग्रहण लगा दिया लगता है। इस बदलाव से मिली शह के चलते राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध असंतोष मुखर है तो हरियाणा में गुटबाजी यथावत बरकरार है।
कांग्रेसी संस्कृति के नजरिये से देखें तो एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ, जिसे अचानक आंतरिक लोकतंत्र और पार्टी के भविष्य की चिंता सताने लगी। स्वयं आलाकमान के आशीर्वाद से मनोनयन के जरिये संगठन और सत्ता की सीढिय़ां चढऩे वालों को महसूस हुआ कि संगठनात्मक चुनाव प्रक्रिया के बिना कांग्रेस का कल्याण संभव नहीं। दशकों से दरबारी और चाटुकार संस्कृति से संचालित कांग्रेस के इन स्वयंभू सुधारकों की चिंताओं की असली वजह समझना मुश्किल नहीं है। इसीलिए लंबे अरसे बाद 16 अक्तूबर को हुई रूबरू कार्यसमिति की बैठक में सोनिया की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी। वजहें निहित स्वार्थ प्रेरित हो सकती हैं, लेकिन चिंताएं तो वास्तविक हैं। लगातार दो लोकसभा चुनावों में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस अब गिने-चुने राज्यों में ही सत्ता या उसकी दावेदारी तक सिमट गयी है। इन राज्यों में भी गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि कांग्रेसियों को आपस में ही लडऩे से फुर्सत नहीं मिलती। फिर विरोधियों से कौन लड़े? कह सकते हैं कि गुटबाजी कांग्रेसी संस्कृति का हिस्सा रही है। यह भी कि क्षत्रपों को नियंत्रण में रखने और संतुलन बनाये रखने के लिए आलाकमान भी गुटबाजी को शह देता रहा है। निश्चय ही अंतर्कलह किसी दल को मजबूत नहीं बनाता, पर सत्ता की चमक-दमक और दबदबे में बहुत सारी कमजोरियां छिपी रहती हैं, जो सत्ता से बाहर हो जाने पर प्रबल चुनौतियां बन जाती हैं।
कांग्रेस के साथ यही हो रहा है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004 से 14 तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस को तब भी लगभग वे ही लोग चला रहे थे, जो अब चला रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब सुधारक की भूमिका में नजर आ रहे ज्यादातर नेता तब सत्तासीन थे। इसलिए न उन्हें आंतरिक लोकतंत्र की चिंता थी और न ही कांग्रेस के भविष्य की। दरअसल तेजी से जनाधार खोकर अप्रासंगिकता की ओर अग्रसर कांग्रेस की चुनौतियों के बीज दशकों से जारी रीति-नीति में निहित हैं, जिनके चलते नीति-सिद्धांत-संगठन विमुख राजनीति सिर्फ सत्ता केंद्रित होकर रह गयी थी। मसलन केंद्रीय सत्ता बरकरार रखने के लिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में उन्हीं क्षेत्रीय दलों से जूनियर पार्टनर बनकर भी गठबंधन किया, जिन्होंने उसे सत्ता से बेदखल किया था। कुछ समय तक ऐसे राज्यों के चिंतित कांग्रेसी नेता आलाकमान के दरवाजे पर दस्तक भी देते रहे, लेकिन जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने भी इन क्षेत्रीय दलों के साथ अपनी व्यावहारिक जुगाड़ बिठा ली। परिणामस्वरूप दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी। कांग्रेस के इस पराभव में मंडल-कमंडल के बाद उभरे राजनीतिक परिदृश्य में सामाजिक समीकरण को समझने में भी आत्ममुग्ध आलाकमान की चूक ने निर्णायक भूमिका निभायी, जिसे सुधारने की सोच भी अभी कांग्रेस में किसी स्तर पर नजर नहीं आती।
जब कोई राजनीतिक दल जमीनी राजनीतिक –सामाजिक वास्तविकताओं और परिणामस्वरूप जनाधार से भी पूरी तरह कट चुका हो, तब नेतृत्व संकट उसे ऐसे चौराहे पर पहुंचा देता है, जहां से आगे की राह चुनना बेहद दुष्कर होता है। राहुल गांधी ने यही गलती की। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी तो 2019 के चुनाव में 53 सीटें मिलने पर ही नेतृत्व की नैतिकता क्यों जागी? क्या कांग्रेस नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी बड़े उलटफेर की उम्मीद कर रहा था? अगर हां, तब तो नेतृत्व की राजनीतिक समझ पर ही सवालिया निशान लग जाता है? बेशक मोदी सरकार के विरुद्ध अच्छे दिन के बजाय नोटबंदी आने जैसे कुछ मुद्दे थे, लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका में या अपने सत्तारूढ़ राज्यों में ऐसा क्या कर दिया था कि पांच साल पहले उसे नकार नहीं, बल्कि दुत्कार चुके मतदाता फिर से जनादेश दे देते? राजनीतिक प्रेक्षक इसे अच्छा कहें या बुरा, कांग्रेस के पास एक ही स्पष्टता बची थी, और वह थी नेतृत्व को लेकर। पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं, देशवासी भी जानते थे कि कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू परिवार के लिए आरक्षित है। हां, इस बीच इतना बदलाव अवश्य आया कि कभी जिस परिवार का चेहरा कांग्रेस की चुनावी जीत की गारंटी हुआ करता था, हाल के दशकों में पार्टी को एकजुट बनाये रखने के लिए मजबूरी में तबदील हो गया। बेशक सोनिया गांधी के नेतृत्व के मुद्दे पर भी कांग्रेस विभाजित हुई, शरद पवार, पी. ए. संगमा और तारिक अनवर ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनायी तो ममता बनर्जी ने भी अपनी अलग तृणमूल कांग्रेस बना ली, लेकिन अलग अस्तित्व के बावजूद विपक्षी एकता के लिए ये दल-नेता सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार करते रहे। यह भी कि इन विभाजनों के अलावा कांग्रेस मौटे तौर पर न सिर्फ एकजुट रही, बल्कि क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे राजनेता की सरकार को परास्त कर केंद्रीय सत्ता पर 10 साल तक काबिज भी रही।
निश्चय ही नेतृत्व के लिए किसी परिवार विशेष पर निर्भरता स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है, पर सत्ता केंद्रित राजनीति ने कांग्रेस को संगठनात्मक ही नहीं, वैचारिक रूप से भी इतना खोखला कर दिया है कि उसकी एकता के लिए नेहरू परिवार रूपी सीमेंट अपरिहार्य हो गया है। इसलिए भले ही राहुल गांधी ने इस्तीफा देते समय परिवार से बाहर से अध्यक्ष चुनने की सलाह दी हो अथवा उससे उत्साहित कुछ नेताओं ने अगला अध्यक्ष बनने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हों, पर कटु सत्य यही है कि भविष्य तो पता नहीं, पर कांग्रेस के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है कि इस संकटकाल में तो नेहरू परिवार ही उसका नेतृत्व करता रहे, वरना कांग्रेस को खंड-खंड होने में समय नहीं लगेगा। यह अनायास नहीं था कि राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया ही अंतरिम अध्यक्ष बनीं। गत 16 अक्तूबर को हुई कार्यसमिति की बैठक में स्वयं को पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित कर सोनिया पता नहीं क्या संदेश देना चाहती हैं, लेकिन अगर राहुल को ही वापस नेतृत्व संभालना है तो फिर इस नाटकीय प्रकरण की जरूरत ही क्या थी? यह भी कि अब इसके लिए अगले साल सिंतबर तक इंतजार का औचित्य क्या है? जैसा कि बीच में कांग्रेस सूत्रों ने दावा किया था कि संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया ऑनलाइन संपन्न हो जानी चाहिए थी। जब कोरोना काल में सब कुछ ऑनलाइन चल रहा है और इसे भविष्य की व्यवस्था बताया जा रहा है, तब किसी राजनीतिक दल का संगठनात्मक चुनाव क्यों ऑनलाइन नहीं हो सकता?
दरअसल राहुल गांधी अगले साल पुन: कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालें या फिर उससे पहले, नेतृत्व के बाद कांग्रेस की असली चुनौती खुद की प्रासंगिकता साबित कर खोया हुआ जनाधार वापस पाने की होगी। एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था, लेकिन अब समय का तकाजा है कि जनाधार वाले क्षत्रपों को पार्टी से जोड़े रखा जाये। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि कांग्रेस अलग हुए नेताओं की घर वापसी का कोई रास्ता खोजे, पर वह तभी संभव होगा, जब पार्टी में मौजूद दिग्गजों को यथोचित सम्मान मिल पाये। पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह के साथ जैसा अपमानजनक व्यवहार किया गया, उससे इसके उलट ही संदेश गया है।
टीम इंडिया- सफलतापूर्वक चुनौतियों का सामना – नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?
संयुक्त राष्ट्र संघ-शक्तियां ,शांति प्रस्ताव एवं दुर्बलताएं
( 24 अक्टूबर, संयुक्त राष्ट्र दिवस पर विशेष)
विकास कुमार
युद्ध दोनों पक्ष के लिए भयानक होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संगठन का संरचनात्मक विचार अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट के मस्तिष्क में आया। उनकी मृत्यु हो जाने के कारण इसका उद्घाटन उनकी पत्नी ने किया था। यह संगठन कई सम्मेलनों और बैठकों के परिणाम स्वरूप स्थापित हुआ क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के समय राष्ट्र संघ का निर्माण किया गया था जिसकी नीतियों का संचालन और क्रियान्वयन नहीं हो पाया और अंतत: वह स्थिर होकर समाप्त हो गया था। 24 अक्टूबर, 1945 को इसकी स्थापना 51 देशों में मिलकर किया ।हालांकि पोलैंड का प्रतिनिधि वहां पर उपस्थित नहीं था, परंतु मूल रूप से 51 देशों के सदस्य प्रतिनिधि एकमत होकर इस पर हस्ताक्षर किए थे ।भारत भी इसका संस्थापक सदस्य था और भारत के लक्ष्मण मुदलियार प्रतिनिधि थे। वर्तमान समय में इस संगठन के कुल 193 देश सदस्य हैं। जिसमें पांच स्थाई सदस्य हैं और 10 अस्थाई सदस्य हैं। पांच स्थाई सदस्य जिनके पास निषेध अधिकार है ,को लेकर कई देशों के मध्य विवाद चलता रहता है, क्योंकि इन देशों ने अपने हितों को देखते हुए उस अधिकार का गलत प्रयोग किया है । शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ और अमेरिका में वैचारिक द्वंद उत्पन्न हुआ जिसके परिणाम स्वरूप इन देशों ने अपनी और देशों को मिलाना चाहा जिससे इनका गुट मजबूत हो सके। यहीं से वीटो पावर का गलत प्रयोग प्रारंभ हुआ क्योंकि जिस देश का मुद्दा होता था। अगर वह किसी गुट के विचारधारा से संबंधित होता था तो उस के पक्ष में वीटो पावर का प्रयोग करते थे ।अगर उसके विपक्ष में होता था तो विपक्ष में वीटो शक्ति का प्रयोग किया जाता था। उस समय विजित राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थाई सदस्यता दे दी गई थी एक आधार इसमें यह भी देखा गया था कि उनकी आर्थिक और सैन्य शक्ति मजबूत हो। आज मुख्यत: भारत, जर्मनी ,ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए प्रयासरत हैं। क्योंकि इन देशों की जनसंख्या आर्थिक शक्ति सैन्य शक्ति और संयुक्त राष्ट्र पर आर्थिक अनुदान पूर्ववत सदस्य देशों के बराबर होता दिख रहा है। आवश्यकता भी इस बात की है की भारत जैसे संपन्न और विशाल देश को आज सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दे देनी चाहिए। इसके पीछे कई कारण और तर्क बताया जा सकते हैं। भारत ने सदैव शांति के पक्ष में ही अपना निर्णय दिया है और जो भी काम इस संगठन ने भारत को सौंपा, उसे बखूबी सफलता के साथ पूरा किया है। आज आतंकवाद , पर्यावरण शरणार्थी समस्या, सतत विकास लक्ष्य की पूर्ति, भुखमरी एवं मानव अधिकार जैसे कई मुद्दे ऐसे हैं जिन का मुकाबला मिलजुल कर ही किया जा सकता है। जिसमें संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों की भूमिका प्रमुख व महत्वपूर्ण बन सकती है। आतंकवाद को लेकर भी आज कई देशों और संगठनों में मतभेद है ।2001 के पहले अमेरिका यह मानने को ही तैयार नहीं होता था कि भारत जैसा देश पाकिस्तान जैसे देशों के आतंकी गतिविधियों से परेशान रहता है । जब उसके ट्रेड सेंटर में अलकायदा का हमला हुआ तब उसने ऑपरेशन ड्यूरिंग फ्रीडम नाम से एक मूवमेंट चलाया । जिसका मिशन था आतंकवाद को खत्म करना। आतंकवाद और मानव अधिकार को लेकर अमेरिका अपने निजी हितों के लिए कई देशों पर बेवजह हस्तक्षेप किया है। यही दृष्टिकोण चीन का भी रहता है ।उसने पाकिस्तान को लेकर सदैव अपने वीटो शक्ति का प्रयोग किया है। म्यांमार में सैन्य शासन एवं अफगानिस्तान में तालिबानी संगठन का सत्ता में आना । इसके बावजूद भी इस संगठन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। आज शरणार्थियों की समस्या व्यापक रूप से बढ़ती जा रही है ।इसमें भी संयुक्त राष्ट्र संघ को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। क्योंकि इससे उन शरणार्थियों के आने वाले भविष्य और भावी पीढ़ी का जीवन अंधकार में हो जाता है। इसकी कई विशिष्टक्रित एजेंसियां हैं जो अपने काम विशेष रूप से करती है जैसे ए किसी की एजेंसी है यूनिसेफ वह बच्चों के विकास के लिए वैश्विक स्तर पर काम करती है। मानवाधिकार परिषद वैश्विक स्तर पर मानव अधिकारों की रक्षा के लिए कार्यरत एवं प्रयासरत रहती है। इस के चार्टर में कुल 111 अनुच्छेद एवं 19 अध्याय हैं जिसमें अनुच्छेद प्रथम में संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों का विवेचन किया गया है इसमें विश्व शांति बनाए रखना एवं युद्ध को रोकना प्रथम सिद्धांत के रूप में दर्शाया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों में यह भी पंडित है कि कोई भी देश किसी भी देश की एकता ,अखंडता और संप्रभुता पर हस्तक्षेप नहीं करेगा। परंतु अनुच्छेद 2(7) में प्रावधान है कि अगर मानव अधिकारों का उल्लंघन कोई देश करता है तो संयुक्त राष्ट्र संघ अपने सिद्धांतों के अनुसार वहां पर हस्तक्षेप कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई मामलों में अपनी भूमिका तटस्थ रूप से निभाई है जिसकी पहल की सराहना बस शुक्र ऊपर हो रही है परंतु वह आज संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष कई बड़ी चुनौतियां हैं जिनसे निपटना उसके लिए अत्यंत आवश्यक है। हाल ही में तालिबान का सत्ता में आना और संयुक्त राष्ट्र संघ का वहां हस्तक्षेप ना करना, यह संयुक्त राष्ट्र संघ पर बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा किया।
यह संगठन सेना , संसाधन और वित्तीय सहायता के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहता है जिस कारण से विकसित देश इसका फायदा उठा लेते हैं क्योंकि आर्थिक रूप से अनुदान उन्हीं का अधिक होता है । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रमुख रूप से वित्तीय अनुदान प्रदान करने वाला देश है। भारत में कभी भी किसी भी देश पर आक्रमण की पहल नहीं की और सदैव शांति का रास्ता अपनाया है। साथ ही उसके समस्त सिद्धांतों और प्रावधानों को मान्यता प्रदान किया है इसलिए भारत की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता होनी चाहिए संयुक्त राष्ट्र संघ को भी चाहिए कि वह तटस्थ रहकर अपनी भूमिका निभाई ,क्योंकि इस संगठन के साथ विश्व के नागरिकों की आस्था जुड़ी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख पदों की नियुक्तियों में भी तटस्थता होनी चाहिए और सदैव हां चार्टर के अनुच्छेदों की आधार पर होना चाहिए
(लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर है एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं।)
रांची एअरपोर्ट के बाहर ख़राब टैक्सी सर्विस का शिकार हुआ एक परिवार
रांची, रांची एयरपोर्ट टर्मिनल से बाहर ट्रेवल एजेंसी में हुआ हंगामा .सूत्रों के अनुसार एयरपोर्ट से बाहर आने वाले एक परिवार ने पहले से टैक्सी बुक कर रखा था लेकिन लगभग डेढ़ घंटे इंतज़ार करने के बाद भी टैक्सी नहीं मिलने पर उक्त परिवार की महिला सदस्य ने संबंधित ट्रेवल एजेंसी के बाहर जमकर हंगामा कर दिया. एयरपोर्ट थाना प्रभारी के आने के बाद मामला शांत हुआ. यह जानकारी वहाँ मौजूद प्रत्यक्षदर्शी के द्वारा फाइनल जस्टिस डिजिटल मीडिया कार्यालय में दी गयी. इस संबध में उक्त महिला यात्री से उनका पक्ष नहीं लिया जा सका है. उक्त ट्रेवल एजेंसी से हमारी बात हुयी उन्होंने बताया की ट्रैफिक के कारण टैक्सी समय पर नहीं पहुँच पाया बाद में हमने उन्हें टैक्सी मुहैया करा दिया था.
प्राइवेट स्कूलों को बर्वाद करने पर तुली है झारखण्ड सरकार – रामप्रकाश तिवारी
रांची, स्वतंत्र राष्ट्रवादी पार्टी के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष श्री राम प्रकाश तिवारी ने आरोप लगाते हुए कहा है कि झारखण्ड सरकार हजारों सरकारी स्कूलों की पढ़ाई लिखाई को सुधारा नहीं अब अच्छी शिक्षा दे रहे प्राइवेट प्ले, प्राइमरी स्कूलों को बर्वाद करने पर तुल गए हैं लगातार बीस महीने से सभी प्राइमरी स्कूलों के कक्षा-नर्सरी से पांच की पढ़ाई लिखाई बंद रखा है। कोरोना लाॅकडाउन में झारखंड सरकार के आदेश लाॅकडाउन बंदी के दौरान किराये के मकान में चल रहे हजारों प्राइमरी, मिडिल हाई स्कूल बंद हो गए हैं लाखों प्राइवेट स्कूल संचालक,
शिक्षक शिक्षिका, कर्मचारी बेरोजगार हो गए हैं, झारखण्ड सरकार के शिक्षा विरोधी नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि कक्षा-नर्सरी से पांच की लगातार बीस महीने से स्कूली पढ़ाई लिखाई बंद रखकर झारखण्ड सरकार लाखों गरीब आदिवासी दलित पिछड़े अगड़े अल्पसंख्यक बच्चों बच्चियो का शैक्षणिक भविष्य बर्वाद कर रहे हैं कक्षा-6 से काॅलेज स्तर के सभी कक्षाओं की पढ़ाई लिखाई शुरू हो गई है बच्चों की कम उपस्थिति चिंता का विषय है पढ़ाई शुरू होने के दौरान किसी भी स्कूल काॅलेज में छात्र-छात्राओं को कोरोनावायरस से संक्रमित होने के मामले नहीं मिले,कोरोना महामारी लगभग नियंत्रित होने के बावजूद मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने अभी तक कक्षा-नर्सरी, एलकेजी,यूकेजी,और कक्षा-1 से पांच की पढ़ाई लिखाई शुरू नहीं करके झारखंड राज्य के प्राइमरी शिक्षा को लगभग चौपट कर दिया है।
श्री राम प्रकाश तिवारी ने कहा है कि झारखण्ड सरकार के कैबिनेट वित्तमंत्री श्री रामेश्वर उरांव सार्वजनिक रूप से बयान देते रहते हैं की कक्षा-नर्सरी से पांच की पढ़ाई दशहरा पूजा के बाद शुरू करेंगी लेकिन आजतक पढ़ाई शुरू नहीं हुआ, हेमंत सरकार के वरिष्ठ वित्तमंत्री श्री रामेश्वर उरांव आजकल शिक्षक सम्मान समारोह कार्यक्रम में अधिक शामिल होकर मात्र अखबारों में बयानबाजी करके प्राइवेट स्कूलों को राजनीतिक मोहरा बना रहे है कैबिनेट की विभिन्न बैठकों में कांग्रेस के चारो कैबिनेट मंत्री श्री रामेश्वर उरांव, कैबिनेट मंत्री श्री बन्ना गुप्ता, कैबिनेट मंत्री श्री बादल पत्रलेख, कैबिनेट मंत्री श्री आलमगीर आलम प्राइमरी कक्षा नर्सरी से पांच की पढ़ाई लिखाई शुरू करने हेतु आवाज नहीं उठाया और न ही मुख्यमंत्री पर दबाव डाला लेकिन पढ़ाई-लिखाई जल्द शुरू करने का बयान देकर खानापूर्ति कर रहे हैं।
प्रदेश अध्यक्ष श्री रामप्रकाश तिवारी ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि प्राइमरी कक्षा नर्सरी से पांच एवं कक्षा-6 से 12 में पढ़ने वाले लाखों बच्चे मोबाइल गेम खेलते हैं झारखण्ड सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर छोटे बच्चों बच्चियो को मोबाइल के गंदे आदत लगा दिया है अब अपने बच्चों के बीस माह से लगातार बंद स्कूली पढ़ाई लिखाई के नुक़सान से बच्चो के भविष्य को लेकर अभिभावक लोग चिंतित है और प्राइमरी प्ले स्कूलो को बंद रखने के मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन के अड़ियल रूख से जन आक्रोश भड़क रहा है।तीन से पांच वर्ष के बच्चे कभी स्कूल नहीं गए,आज अशिक्षित बनके प्राथमिक शिक्षा से वंचित लाखो बच्चे अपने घर के गली मोहल्ले में खेल-कूद रहे है सबसे बुरा हाल ग्रामीण बच्चों का है जो बकरी,भैड़ चढ़ाते दिखाई देते हैं सरकारी स्कूलों के साथ प्राइवेट स्कूलों के बच्चे पढ़ाई लिखाई से पिछड़ गए है,सबसे बुरा हाल प्राइवेट शिक्षकों, कर्मचारियों का है बीस माह तक सभी छोटे मध्यम प्ले प्राइमरी स्कूल बंद रहने से आज हजारो शिक्षक, कर्मचारी दाने दाने के मोहताज हो गए हैं भूखमरी के कगार पर है विडंबना है आज प्राइवेट शिक्षक शिक्षिका अंडा,सब्जी का दुकान लगाकर अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए मजबूर हैं। उन्ह प्राइवेट शिक्षकों को हर जिला में सम्मानित करने का कार्य करने के लिए कैबिनेट मंत्री श्री रामेश्वर उरांव बहुत फुर्सत में दिखाई दे रहे हैं उन्हें राज्य के लाखों गरीब बच्चों बच्चियो के भविष्य की चिंता नहीं है अब राजनीति की हदें पार हो गई है सरकारी शिक्षकों के खिलाफ बयान देने वाले कैबिनेट वित्तमंत्री श्री रामेश्वर उरांव अब पासवा के बैनर तले सरकारी शिक्षकों को सम्मानित करने का भी कार्यक्रम के आयोजन करने वाले हैं आज शिक्षक सम्मान के पवित्र कार्य को मजाक बना दिया गया है।
प्रदेश अध्यक्ष श्री रामप्रकाश तिवारी ने कहा झारखण्ड सरकार को गरीब,मध्यम वर्ग के लाखों गरीब बच्चों की शैक्षणिक भविष्य की चिंता नहीं है आने वाले दिनों में बच्चों के भविष्य चौपट होने का खामियाजा खुद अभिभावकों को झेलना पड़ेगा।
श्री तिवारी ने झारखण्ड सरकार से अपील करते हुए कहा है कि लाखों गरीब बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए कोविंद गाइडलाइन में कक्षा नर्सरी से पांच की स्कूली पढ़ाई लिखाई को जल्द शुरू करें।
प्रदेश अध्यक्ष श्री रामप्रकाश तिवारी ने यह प्रेस बयान जारी किया।
टीम इंडिया- सफलतापूर्वक चुनौतियों का सामना – नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
*भारत ने टीकाकरण की शुरुआत के मात्र 9 महीनों
में टीके की 100 करोड़ खुराक का लक्ष्य हासिल कर लिया
*21 अक्टूबर, 2021 को टीके की 100 करोड़ खुराक का लक्ष्य हासिल कर लिया है
*मानवता 100 साल बाद इस तरह की वैश्विक महामारी का सामना कर रही थी
*चिंता से आश्वासन तक की यात्रा पूरी हो चुकी है
*इसे वास्तव में एक भगीरथ प्रयास मानना चाहिए,
जिसमें समाज के कई वर्ग शामिल हुए हैं
न्यू दिल्ली, भारत ने टीकाकरण की शुरुआत के मात्र 9 महीनों बाद ही 21 अक्टूबर, 2021 को टीके की 100 करोड़ खुराक का लक्ष्य हासिल कर लिया है। कोविड -19 से मुकाबला करने में यह यात्रा अद्भुत रही है, विशेषकर जब हम याद करते हैं कि 2020 की शुरुआत में परिस्थितियां कैसी थीं। मानवता 100 साल बाद इस तरह की वैश्विक महामारी का सामना कर रही थी और किसी को भी इस वायरस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। हमें यह स्मरण होता है कि उस समय स्थिति कितनी अप्रत्याशित थी, क्योंकि हम एक अज्ञात और अदृश्य दुश्मन का मुकाबला कर रहे थे, जो तेजी से अपना रूप भी बदल रहा था।
चिंता से आश्वासन तक की यात्रा पूरी हो चुकी है और दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान के फलस्वरूप हमारा देश और भी मजबूत होकर उभरा है।
इसे वास्तव में एक भगीरथ प्रयास मानना चाहिए, जिसमें समाज के कई वर्ग शामिल हुए हैं। पैमाने का अंदाजा लगाने के लिए, मान लें कि प्रत्येक टीकाकरण में एक स्वास्थ्यकर्मी को केवल 2 मिनट का समय लगता है। इस दर से, इस उपलब्धि को हासिल करने में लगभग 41 लाख मानव दिवस या लगभग 11 हजार मानव वर्ष लगे।
गति और पैमाने को प्राप्त करने तथा इसे बनाए रखने के किसी भी प्रयास के लिए, सभी हितधारकों का विश्वास महत्वपूर्ण है। इस अभियान की सफलता के कारणों में से एक, वैक्सीन तथा बाद की प्रक्रिया के प्रति लोगों का भरोसा था, जो अविश्वास और भय पैदा करने के विभिन्न प्रयासों के बावजूद कायम रहा।
हम लोगों में से कुछ ऐसे हैं, जो दैनिक जरूरतों के लिए भी विदेशी ब्रांडों पर भरोसा करते हैं। हालाँकि, जब कोविड -19 वैक्सीन जैसी महत्वपूर्ण बात सामने आयी, तो देशवासियों ने सर्वसम्मति से ‘मेड इन इंडिया’ वैक्सीन पर भरोसा किया। यह एक महत्वपूर्ण मौलिक बदलाव है।
भारत का यह टीका अभियान इस बात का एक उदाहरण है कि अगर यहां के नागरिक और सरकार जनभागीदारी की भावना से लैस होकर एक साझा लक्ष्य के लिए मिलकर साथ आएं, तो यह देश क्या कुछ हासिल कर सकता है। जब भारत ने अपना टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किया, तो 130 करोड़ भारतीयों की क्षमताओं पर संदेह करने वाले कई लोग थे। कुछ लोगों ने कहा कि भारत को 3-4 साल लगेंगे। कुछ अन्य लोगों ने कहा कि लोग टीकाकरण के लिए आगे नहीं आएंगे। कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने कहा कि टीकाकरण प्रक्रिया घोर कुप्रबंधन और अराजकता की शिकार होगी। कुछ ने तो यहां तक कह दिया कि भारत सप्लाई चेन को व्यवस्थित नहीं कर पाएगा। लेकिन जनता कर्फ्यू और उसके बाद के लॉकडाउन की तरह, भारत के लोगों ने यह दिखा दिया कि अगर उन्हें भरोसेमंद साथी बनाया जाए तो परिणाम कितने शानदार हो सकते हैं।
जब हर कोई जिम्मेदारी उठा ले, तो कुछ भी असंभव नहीं है। हमारे स्वास्थ्य कर्मियों ने लोगों को टीका लगाने के लिए कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में पहाडिय़ों और नदियों को पार किया। हमारे युवाओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वास्थ्य कर्मियों, सामाजिक एवं धार्मिक नेताओं को इस बात का श्रेय जाता है कि टीका लेने के मामले में भारत को विकसित देशों की तुलना में बेहद कम हिचकिचाहट का सामना करना पड़ा है।
अलग-अलग हितों से संबद्ध विभिन्न समूहों की ओर से टीकाकरण की प्रक्रिया में उन्हें प्राथमिकता देने का काफी दबाव था। लेकिन सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि हमारी अन्य योजनाओं की तरह ही टीकाकरण अभियान में भी कोई वीआईपी संस्कृति नहीं होगी।
वर्ष 2020 की शुरुआत में जब दुनिया भर में कोविड -19 फैल रहा था, तो हमारे सामने यह बिल्कुल स्पष्ट था कि इस महामारी से अंतत: टीकों की मदद से ही लडऩा होगा। हमने जल्दी तैयारी शुरू कर दी। हमने विशेषज्ञ समूहों का गठन किया और अप्रैल 2020 से ही एक रोडमैप तैयार करना शुरू कर दिया।
आज तक केवल कुछ चुनिंदा देशों ने ही अपने स्वयं के टीके विकसित किए हैं। 180 से भी अधिक देश टीकों के लिए जिन उत्पादकों पर निर्भर हैं वे बेहद सीमित संख्या में हैं। यही नहीं, जहां एक ओर भारत ने 100 करोड़ खुराक का अविश्वसनीय या जादुई आंकड़ा सफलतापूर्वक पार कर लिया है, वहीं दूसरी ओर दर्जनों देश अब भी अपने यहां टीकों की आपूर्ति की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं! जरा कल्पना कीजिए कि यदि भारत के पास अपना टीका नहीं होता तो क्या होता। भारत अपनी इतनी विशाल आबादी के लिए पर्याप्त संख्या में टीके कैसे हासिल करता और इसमें आखिरकार कितने साल लग जाते? इसका श्रेय निश्चित रूप से भारतीय वैज्ञानिकों और उद्यमियों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने इस बेहद कठिन चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करने में अपनी ओर से कोई भी कसर नहीं छोड़ी। उनकी उत्कृष्ट प्रतिभा और कड़ी मेहनत की बदौलत ही भारत टीकों के मामले में वास्तव में ‘आत्मनिर्भरÓ बन गया है। इतनी बड़ी आबादी के लिए टीकों की व्यापक मांग को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए हमारे टीका निर्माताओं ने अपना उत्पादन स्तर वृहद रूप से बढ़ाकर यह साबित कर दिया है कि वे किसी से भी कम नहीं हैं।
एक ऐसे राष्ट्र में जहां सरकारों को देश की प्रगति में बाधक माना जाता था, हमारी सरकार इसके बजाय बड़ी तेजी से देश की प्रगति सुनिश्चित करने में सदैव अत्यंत मददगार रही है। हमारी सरकार ने पहले दिन से ही टीका निर्माताओं के साथ सहभागिता की और उन्हें संस्थागत सहायता, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं आवश्यक धनराशि मुहैया कराने के साथ-साथ नियामकीय प्रक्रियाओं को काफी तेज करने के रूप में भी हरसंभव सहयोग दिया। ‘संपूर्ण सरकारÓ के हमारे दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप सरकार के सभी मंत्रालय वैक्सीन निर्माताओं की सहूलियत और किसी भी तरह की अड़चन को दूर करने के लिए एकजुट हो गए।
भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में सिर्फ उत्पादन करना ही काफी नहीं है। इसके लिए अंतिम व्यक्ति तक को टीका लगाने और निर्बाध लॉजिस्टिक्स पर भी फोकस होना चाहिए। इसमें निहित चुनौतियों को समझने के लिए जरा इसकी कल्पना करें कि टीके की एक शीशी को आखिरकार कैसे मंजिल तक पहुंचाया जाता है। पुणे या हैदराबाद स्थित किसी दवा संयंत्र से निकली शीशी को किसी भी राज्य के हब में भेजा जाता है, जहां से इसे जिला हब तक पहुंचाया जाता है। फिर वहां से इसे टीकाकरण केंद्र पहुंचाया जाता है। इसमें विमानों की उड़ानों और ट्रेनों के जरिए हजारों यात्राएं सुनिश्चित करनी पड़ती हैं। टीकों को सुरक्षित रखने के लिए इस पूरी यात्रा के दौरान तापमान को एक खास रेंज में बनाए रखना होता है, जिसकी निगरानी केंद्रीय रूप से की जाती है। इसके लिए 1 लाख से भी अधिक शीत-श्रृंखला (कोल्ड-चेन) उपकरणों का उपयोग किया गया। राज्यों को टीकों के वितरण कार्यक्रम की अग्रिम सूचना दी गई थी, ताकि वे अपने अभियान की बेहतर योजना बना सकें और टीके पूर्व-निर्धारित तिथि को ही उन तक सफलतापूर्वक पहुंच सकें। अत: स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह निश्चित रूप से एक अभूतपूर्व प्रयास रहा है।
इन सभी प्रयासों को कोविन के एक मजबूत तकनीकी मंच से जबर्दस्त मदद मिली। इसने यह सुनिश्चित किया कि टीकाकरण अभियान न्यायसंगत, मापनीय, ट्रैक करने योग्य और पारदर्शी बना रहे। इसने सुनिश्चित किया कि टीकाकरण के काम में कोई पक्षपात या बिना पंक्ति के टीका लगवाने की कोई गुंजाइश ना हो। इसने यह भी सुनिश्चित किया कि एक गरीब मजदूर अपने गांव में पहली खुराक ले सकता है और उसी टीके की दूसरी खुराक तय समय अंतराल पर उस शहर में ले सकता है जहां वह काम करता है। टीकाकरण के काम में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए रियल-टाइम डैशबोर्ड के अलावा, क्यूआर-कोड वाले प्रमाणपत्रों ने सत्यापन को सुनिश्चित किया। इस तरह के प्रयासों का न केवल भारत में बल्कि दुनिया में भी शायद ही कोई उदाहरण मिले।
2015 में अपने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में मैंने कहा था कि हमारा देश ‘टीम इंडिया’ की वजह से आगे बढ़ रहा है और यह ‘टीम इंडिया’ हमारे 130 करोड़ लोगों की एक बड़ी टीम है। जनभागीदारी लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। यदि हम 130 करोड़ भारतीयों की भागीदारी से देश चलाएंगे तो हमारा देश हर पल 130 करोड़ कदम आगे बढ़ेगा। हमारे टीकाकरण अभियान ने एक बार फिर इस ‘टीम इंडिया’ की ताकत दिखाई है। टीकाकरण अभियान में भारत की सफलता ने पूरी दुनिया को यह भी दिखाया है कि ‘लोकतंत्र हर उपलब्धि हासिल कर सकता है’।
मुझे उम्मीद है कि दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान में मिली सफलता हमारे युवाओं, हमारे शोधकर्ताओं और सरकार के सभी स्तरों को सार्वजनिक सेवा वितरण के नए मानक स्थापित करने के लिए प्रेरित करेगी जो न केवल हमारे देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए भी एक मॉडल होगा
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घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय
*बीते समय में अपने देश में घरेलू उड्डयन की हालत गड़बड़ ही चल रही है
*घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय
*जेट एयरवेज बंद हो गयी है. इंडिगो के प्राफिट में भारी गिरावट आई है
*सरकारी प्रबन्धन के दुराचार के बाद एयर इंडिया वापस टाटा समूह को बेच दी गयी है
*सरकार को अपनी उड्डयन नीति में परिवर्तन करना होगा
– भरत झुनझुनवाला
सत्तर साल तक सरकारी प्रबन्धन के दुराचार के बाद एयर इंडिया वापस टाटा समूह को बेच दी गयी है। लेकिन एयर इंडिया को वापस पटरी पर लाने के लिए टाटा को मशक्कत करनी पड़ेगी। बीते समय में अपने देश में घरेलू उड्डयन की हालत गड़बड़ ही चल रही है। जेट एयरवेज बंद हो गयी है, स्पाइस लगभग बंद हो गयी थी, इंडिगो के प्राफिट में भारी गिरावट आई है और एयर इंडिया के घाटे को पूरा करने के लिए देश के नागरिक से भारी टैक्स वसूल किया गया है। अत: घरेलू उड्डयन की मूल समस्याओं को भी सरकार को दूर करना होगा।
मुख्य समस्या यह है कि अपने देश में यात्रा के रेल और सड़क के विकल्प उपलब्ध हैं, जिसके कारण हवाई यात्रा लम्बी दूरी में ही सफल होती दिख रही है। जैसे दिल्ली से बेंगलुरू की रेल द्वारा एसी2 में यात्रा का किराया 2925 रुपये है जबकि एक माह आगे की हवाई यात्रा का किराया 3170 रुपये है। दोनों लगभग बराबर हैं। अंतर यह है कि रेल से यात्रा करने में 1 दिन और 2 रात का समय लगता है और भोजन आदि का खर्च भी पड़ता है। जिसे जोड़ लें तो रेल यात्रा हवाई यात्रा की तुलना में महंगी पड़ती है। तुलना में हवाई यात्रा में कुल 7 घंटे लगते हैं। इसलिए लम्बी दूरी की यात्रा में हवाई यात्रा सफल है।
हां, यदि आपको तत्काल यात्रा करनी हो तो परिस्थिति बदल जाती है। उस समय हवाई यात्रा महंगी हो जाती है जैसे दिल्ली से बेंगलुरू का किराया 10,000 रुपये भी हो सकता है जबकि एसी2 का किराया वही 2925 रुपये रहता है, यदि टिकट उपलब्ध हो। इसलिए तत्काल यात्रा को छोड़ दें तो लम्बी दूरी की यात्रा में हवाई यात्रा सफल है।
इसकी तुलना में मध्य दूरी की यात्रा की स्थिति भिन्न हो जाती है। दिल्ली से लखनऊ का एसी2 का किराया 1100 रुपये है जबकि एक माह आगे की हवाई यात्रा का किराया 1827 रुपये है। रेल यात्रा में एक लाभ यह भी है कि आप इस यात्रा को रात्रि में कर सकते हैं, जिससे आपका दिन का उत्पादक समय बचा रहता है; जबकि वायु यात्रा आपको दिन में करनी पड़ती है और इसमें आपका लगभग आधा दिन व्यय हो जाता है। इसलिए दिल्ली से लखनऊ की यात्रा किराए और समय दोनों की दृष्टि से रेल द्वारा सफल है।
यदि छोटी दूरी की बात करें तो दिल्ली से देहरादून रेल, सड़क और हवाई यात्रा सभी में लगभग 5 घंटे का समय लगता है। हवाई यात्रा में यात्रा के दोनों छोर पर हवाई अड्डा दूर होता है (1+1 घंटा), चेक-इन करना होता है (1/2 घंटा) और बैगेज लेने में समय लगता है (1/2 घंटा)। समय के इस व्यय के कारण यद्यपि हवाई यात्रा विशेष में केवल 1 घंटे का समय लगता है परन्तु घर से घर तक कुल समय 4 घंटे लगता जो कि सड़क से लगने वाले 5 घंटे के लगभग बराबर है। हवाई यात्रा में आपको लाइन में लगना होगा, लगेज लेने के लिए इन्तजार करना होगा और हवाई अड्डे तक पहुंचने में भी मेहनत करनी होगी। इसलिए मध्य दूरी की यात्रा जैसे दिल्ली से लखनऊ और छोटी दूरी के यात्रा जैसे दिल्ली से देहरादून रेल या सड़क सफल है और लम्बी दूरी की यात्रा जैसे दिल्ली से बेंगलुरू में हवाई यात्रा सफल है। इतना जरूर है कि यदि तत्काल यात्रा करनी हो तो हवाई यात्रा सफल हो सकती है।
यहां एक विषय यह भी है कि अक्सर क्षेत्रीय उड़ानें लम्बी उड़ानों को जोडती हैं। जैसे देहरादून से दिल्ली आप एक उड़ान से आये और फिर दिल्ली से कलकत्ता दूसरी उड़ान से गये। इस प्रकार बड़े हवाई अड्डों को हब बना दिया जाता है जहां किसी एक समय तमाम क्षेत्रीय उड़ाने पहुंचती हैं और उसके कुछ समय बाद तमाम लम्बी उड़ानें निकलती हैं। ऐसा करने से क्षेत्रीय उड़ानों का देहरादून से कलकत्ता या बेंगलुरू की उड़ान भरना आसान हो जाता है। अनुमान है कि क्षेत्रीय उड़ानों में इस लम्बी दूरी की उड़ानों के यात्रियों का हिस्सा कम ही होता है, जिसके कारण लम्बी दूरी की यात्रा से जोडऩे के बावजूद क्षेत्रीय उड़ानें सफल नहीं हो रही हैं।
सरकार की नीति इस कटु सत्य को नजरअंदाज करती दिख रही है। केन्द्र सरकार ने 2012 में एक वर्किंग ग्रुप बनाया था, जिसको घरेलू उड्डयन को बढ़ावा देने के लिए सुझाव देने को कहा गया था। ग्रुप ने कहा था कि क्षेत्रीय उड्डयन को सब्सिडी दी जानी चाहिए। इसके बाद सरकार ने राष्ट्रीय घरेलू उड्डयन नीति बनाई, जिसके अंतर्गत क्षेत्रीय उड़ानों को तीन साल तक सब्सिडी देना शुरू किया गया। हाल में 2018 अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारी कम्पनी डीलायट ने भी छोटे शहरों को उड्डयन के विस्तार की बात कही है। लेकिन इन सब संस्तुतियों को कुछ हद तक लागू करने के बावजूद घरेलू उड्डयन की स्थिति खराब ही रही है। जैसा कि एयर इंडिया, जेट एयरवेज, स्पाइस जेट और इंडिगो की दुरूह स्थिति में दिखाई पड़ती है। इसलिए मूलत: सरकार को अपनी उड्डयन नीति में परिवर्तन करना होगा।
जरूरत इस बात की है कि लम्बी दूरी की उड़ानों को और सरल बनाया जाए। लन्दन में आप हवाई जहाज के उडऩे के मात्र 15 मिनट पहले हवाई अड्डे पहुंच कर हवाई जहाज में प्रवेश कर सकते हैं जबकि अपने यहां सिक्योरिटी इत्यादि में 1-2 घंटा लग जाना मामूली बात है। इसलिए सरकार को चाहिए कि सिक्योरिटी चेक और अपने सामान को वापस पाने की व्यवस्थाओं में सुधार करे। साथ-साथ शहरों के दूरदराज के इलाकों से हवाई अड्डे तक पहुंचने के लिए सड़क, मेट्रो इत्यादि की समुचित व्यवस्था करे, जिससे कि अपने देश में लम्बी दूरी के घरेलू उड्डयन का भरपूर विस्तार हो सके। इस दृष्टि से दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के विस्तार की योजना सही है क्योंकि इससे लम्बी दूरी की यात्राएं सरल हो जायेंगी। इस दृष्टि से एयर इंडिया की स्थिति भी अच्छी है क्योंकि एयर इंडिया के पास तमाम विदेशी हवाई अड्डों में अपने विमानों को उतारने के अधिकार हैं। इसलिए लम्बी दूरी की विदेशी उड़ानों में एयर इंडिया सफल हो सकती है।
एयर इंडिया के प्रकरण से एक विषय यह भी निकलता है कि 70 साल के सरकारी प्रबन्धन में इस कम्पनी की स्थिति खराब हो गयी है। इसी तर्ज पर सरकारी बैंकों, इंश्योरेंस कम्पनियों, कोल इंडिया आदि इकाइयों आदि का समय रहते निजीकरण कर देना चाहिए। जिस प्रकार एयर इंडिया का निजीकरण भारी घाटा खाने के बाद किया गया, वही स्थिति इन इकाइयों के साथ उत्पन्न नहीं होनी चाहिए।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)
श्री हेमन्त सोरेन ने 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 का शुभारंभ किया
समाजवादी लोकतंत्र के अग्रणी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया
महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह
श्री हेमन्त सोरेन ने 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 का शुभारंभ किया
*मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने सिमडेगा में 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021
का शुभारंभ एवं अंतरराष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम का शिलान्यास किया
*27 करोड से अधिक की लागत से 25 योजनाओं का शिलान्यास
32 करोड़ से अधिक की लागत 35 योजनाओं का उद्घाटन हुआ है
*28 करोड़ से अधिक की राशि की कुल 6 योजनाओं के जरिये 990 लाभुकों को लाभान्वित किया गया
एवं स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के स्वावलंबन हेतु बकरी, मुर्गी, सुकर पालन हेतु आर्थिक सहायता दी गई।
क्रेडिट लिंकेज से लाभान्वित हुईं एसएचजी की महिलाएं
*कुल 101.590 करोड़ की विकासशील एवं कल्याणकारी योजनाओं
उद्घाटन और शिलान्यास एवं परिसंपत्तियों का वितरण
*मुख्यमंत्री ने सांकेतिक तौर पर 12 युवक एवं युवतियों को नियुक्ति पत्र सौंपा, कुल 79 युवाओं को मिला नियुक्ति पत्र
सिमडेगा के लिये अविस्मरणीय दिन है। सिमडेगा में पुनः राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। एक ओर 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 का शुभारंभ हो रहा है। वहीं दूसरी ओर, बड़े पैमाने पर सिमडेगा में विभिन्न योजनाओं का शिलान्यास,उद्घाटन एवं युवाओं को नियुक्ति पत्र सौंपा गया। हॉकी को उसकी पराकाष्ठा और खिलाड़ियों को उम्दा संसाधन उपलब्ध कराने के
उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय स्तर के हॉकी स्टेडियम के निर्माण की आधारशिला रखी गई। यह सुखद क्षण है। यहां आयोजित प्रतियोगिता की गूंज दूर तलक जाएगी। ये बातें मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने कही। मुख्यमंत्री सिमडेगा के एस एस बालिका उच्च विद्यालय परिसर में 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 के शुभारंभ एवं अंतरराष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम के शिलान्यास और परिसंपत्तियों के वितरण समारोह में बोल रहे थे।
खिलाड़ियों को मिल रहा है सम्मान
मुख्यमंत्री ने कहा कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को सरकार अपना अंग बनाकर सीधी नियुक्ति दे रही है। झारखण्ड के युवाओं को रोजगार से जोड़ने के संकल्प के साथ निरंतर कार्य किया जा रहा है। आज उसके तहत 79 नवयुवकों व नवयुवतियों को नियुक्ति पत्र सौंपा गया।
जहां भी है संभावना, वहां सरकार बढ़ावा देगी
मुख्यमंत्री ने कहा कि सब जूनियर टूर्नामेंट का आयोजन कुछ माह पूर्व ही सम्पन्न हुआ। पुनः राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता का आयोजन हो रहा है। राज्य के लिए यह सौभाग्य की बात है कि यहां देश भर से हॉकी खिलाड़ी आये हैं। देश की बच्चियां जो देश-विदेश में अपना जौहर दिखाती हैं। आज वे सिमडेगा की भूमि पर आईं हैं। झारखण्ड के खिलाड़ियों को बहुत कुछ सीखने का अवसर मिलेगा। खेल एक ऐसा कार्यक्रम है जहां सौहार्द और प्रेम का सम्प्रेषण होता है। झारखण्ड सिर्फ खनिज के लिए ही नहीं बल्कि खेल के लिए भी जाना जाएगा। सरकार का संकल्प है कि खेल में जहां की संभावना है वहां सरकार खेल को बढ़ावा देगी।
खिलाड़ियों को सीधी नियुक्ति मिली
सिमडेगा विधायक श्री भूषण बाड़ा ने कहा कि आज का काफी अहम है। आज यहां अंतरराष्ट्रीय स्तर के हॉकी स्टेडियम का शिलान्यास हुआ है। राज्य सरकार खेल और खिलाड़ियों को सम्मान देने का कार्य कर रही है। सरकार ने 39 खिलाड़ियों को सीधी नियुक्ति दी है। राज्य भर में खेल के मैदान का निर्माण पंचायत, प्रखंड और जिला स्तर पर किया जा रहा है।
खेल सामुहिक एकता को प्रतिविम्बित करता है
कोलेबिरा विधायक श्री नमन विक्सल कोंगाडी ने कहा कि खेल हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। खेल सामुहिक एकता को प्रतिविम्बित करता है। यह रोजगार पाने का बड़ा साधन है। यही वजह है कि राज्य सरकार खेल के विकास को लेकर कार्य कर रही है। खिलाड़ियों को हर संभव सुविधा प्रदान करने की कोशिश की जा रही है।
खिलाड़ियों से मिले मुख्यमंत्री
मुख्यमंत्री ने 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 में भाग ले रहीं सभी टीमों के खिलाड़ियों से मिलकर उन्हें शुभकामनाएं दीं और प्रतियोगिता के शुभारंभ की घोषणा की। इस प्रतियोगिता में देश भर की 26 टीमें भाग ले रहीं हैं।
इस अवसर पर सिमडेगा विधायक श्री भूषण बाड़ा, कोलेबिरा विधायक श्री नमन विक्सल कोंगाडी, मुख्यमंत्री के सचिव श्री विनय कुमार चौबे, सचिव पर्यटन, कला, संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग श्री अमिताभ कौशल, उपायुक्त सिमडेगा श्री सुशांत गौरव, हॉकी इंडिया के अध्यक्ष श्री ज्यान्द्रों दियोंगम, अध्यक्ष हॉकी झारखण्ड के अध्यक्ष श्री भोलानाथ सिंह, खिलाड़ी एवं अन्य उपस्थित थे।
समाजवादी लोकतंत्र के अग्रणी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?
महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह
समाजवादी लोकतंत्र के अग्रणी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया
डॉ राम मनोहर लोहिया : भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है
*उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए
*प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए
*जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता
*वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो
विकास कुमार
डॉ राम मनोहर लोहिया का नाम लोकतंत्र के अग्रणी चिंतकों में बेशुमार है। जो लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति की भागीदारी और सहभागिता में देखने पर विश्वास करते थे। उनका विचार था की संसाधनों का वितरण समानांतर हो जिसमें अंतिम व्यक्ति को भी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ मिल सके। भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है ।क्योंकि उन्होंने समाजवाद को पाश्चात्य दृष्टिकोण की अवधारणा को ना अपना कर भारतीय और भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए। वह लोकतंत्र सफल नहीं माना जा सकता जिसमें विरोधी विचारों का सम्मान नहीं होता। जनता को इतना जागरूक होना चाहिए की उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए। डॉक्टर लोहिया का विश्वास था कि जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता, क्योंकि इससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है और संप्रदायिकता से लोकतंत्र विखंडित हो जाता है। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र को विविधता और समग्रता में देखने की जरूरत होती है ,क्योंकि लोकतंत्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें प्रत्येक जन समुदाय अपने हित की चेतना के बारे में सोच समझ और बोल सकने का अधिकार रखता है।लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी. उनका विश्वाश था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है. वे कहते थे कि हिन्दी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण से सम्बन्धित विचारों को बढ़ावा मिलेगा। वे जात-पात के घोर विरोधी थे।उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में सुझाव दिया कि “रोटी और बेटी” के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है. वे कहते थे कि सभी जाति के लोग एक साथ मिल-जुलकर खाना खाएं और उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की लड़कियों से अपने बच्चों की शादी करें. इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिया और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया. वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें.24 मई, 1939 को लोहिया को उत्तेजक बयान देने और देशवासियों से सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए लिए पहली बार गिरफ्तार किया गया, पर युवाओं के विद्रोह के डर से उन्हें अगले ही दिन रिहा कर दिया गया. हालांकि जून 1940 में उन्हें “सत्याग्रह नाउ” नामक लेख लिखने के आरोप में पुन: गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों के लिए कारावास भेज दिया गया. बाद में उन्हें दिसम्बर 1941 में आज़ाद कर दिया गया. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल जैसे कई शीर्ष नेताओं के साथ उन्हें भी कैद कर लिया गया था। अंग्रेजी सरकार सदैव उनके ओजस्वी भाषणों और उनके विचारों से डरती थी। डॉक्टर लोहिया कई भाषाओं के जानकार थे वह कई भाषाओं में अपनी बात को श्रोताओं तक पहुंचा सकते थे और लेखन कार्य भी कर सकते थे। डॉक्टर लोहिया का विकेंद्रीकरण प्रणाली और लोकतंत्र में अटूट विश्वास था। वह सदैव यही कहते थे जिंदा कौम में 5 वर्ष इंतजार नहीं करती है। यह तो सच है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपने जनमत का प्रयोग करते समय विवेक का प्रयोग करें। परंतु यदि जनमत से गलत प्रतिनिधि का चुनाव हो गया है तो जनता को चाहिए कि उसको सत्ता से हटाकर दूसरे प्रतिनिधि को सत्तारूढ़ कर सकें। दूसरा उनका मत था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना अत्यन्त आवश्यक है , क्योंकि सत्ता को नीतियां बनाते समय यह ध्यान नहीं रहता क्या उचित है या अनुचित है ।इसलिए वक्त समय-समय पर उनको सुधर सुधारने का मौका देता है ताकि सही नीतियां जनता तक पहुंच सके। डॉक्टर लोहिया ने समाज की संरचना में 4 परतों की अवधारणा दी । पहला था गांव दूसरा था जनपद तीसरा प्रांत और चौथा था राष्ट्र। यदि राज्यों का संगठन इन 4 पदों के अनुरूप हो जाए तो वह समुदाय का सच्चा प्रतिनिधि बन जाएगा परंतु गांव को अधिक सशक्त बनाने की आवश्यकता है। नीतियों का क्रियान्वयन और सत्ता की सोच ग्रामीण को देखकर विकसित स्वरूप में निर्मित होनी चाहिए सभी आम जन समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। इस परिपेक्ष को डॉक्टर लोहिया चौखंभा राज्य की संज्ञा दी। उन्होंने समाजवाद को एशियाई संदर्भ में परिभाषित किया। कहां की पाश्चात्य सभ्यता में समस्याएं समानांतर रूप से दूसरी प्रकार की हैं और एशियाई परिपेक्ष में समस्याएं दूसरी हैं इसलिए समाजवाद को एशियाई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकसित करना चाहिए। उन्होंने बताया एशिया में निरंकुश तंत्र, सामंतवाद, धार्मिक रूढिय़ां जाति प्रथाओं की संकीर्ण मनोवृत्ति, अधिकारी तंत्र और तानाशाही तंत्र आदि का प्रचलन है। एशियाई परिपेक्ष्य में समाजवाद के लिए यह सब समस्याएं हैं जिनके कारण आम जन समुदाय तक संसाधनों का वितरण नहीं हो पा रहा है। सामाजिक न्याय के लोहिया बहुत बड़े समर्थक थे। जिस देश में सामाजिक न्याय नहीं हैं वह देश विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। उनके विचारों में सामाजिक न्याय का तात्पर्य केवल जाति प्रथा वाला सामाजिक न्याय नहीं था बल्कि प्रत्येक समुदाय चाहे स्त्री, हो विकलांग हो या अन्य समुदाय का प्रत्येक को न्याय सुनिश्चित कराना था। वह सदैव लघु एवं कुटीर उद्योगों के समर्थन में थे क्योंकि उनका मानना था कि यदि बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर होगा उसने मालिकाना पूंजीपतियों का होगा जिसमें जनसाधारण को भागीदारी नहीं मिल सकेगी। उनकी स्वतंत्रता भी उसमें छीन ली जाएगी। क्योंकि कई प्रकार के शर्तों पर उन से काम करवाया जाएगा। 1962 में प्रकाशित एक लेख में सात प्रकार की क्रांतियों का विवेचन किया। जिसमें एक स्त्रियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध क्रांति, जाति प्रथा के विरुद्ध क्रांति, अन्याय के विरुद्ध क्रांति, एवं अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा को राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में अपनाने के लिए लोगों के सोचने के ढंग में क्रांति। अत:डॉक्टर लोहिया स्त्री विमर्श के भी बड़े चिंतक हैं। उनका कहना था कि जब तक स्त्रियों के प्रति भेदभाव समाप्त नहीं होगा तब तक राष्ट्रपति नहीं कर सकता है क्योंकि आधी आबादी के योगदान से कोई भी राष्ट्र प्रगति कैसे कर सकता है। जाति प्रथा को वह सबसे बड़ा संक्रमण और कैंसर समाज के लिए मानते थे। उनका मानना था कि यदि जाति व्यवस्था का अंत नहीं हुआ तो यह आगे चलकर बहुत बड़ी समस्या भारतीय समाज के लिए बन सकती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए कई प्रकार के नीतियों का सुझाव उन्होंने सरकारों को दिया। अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के बहुत बड़े समर्थक थे उनका मानना था बेरोजगारी किसी भी देश के लिए अभिशाप होती है इसलिए सरकार को यह चाहिए कि उत्पादन का वितरण समानांतर होना चाहिए। आज डॉक्टर लोहिया के विचार पहले की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक प्रतीत हो रहे हैं। डॉक्टर लोहिया के विचारों को पड़ता और समझता तो सभी है परंतु उन को व्यावहारिक रूप में लागू करने की आवश्यकता है। उनके विचार आज भी प्रेरणा प्रदान करते हैं। ऐसे विचारक और राजनेता शारीरिक रूप से भले ही आम जनमानस के बीच ना रहे परंतु उनके चेतना में ऐसे विचार को का निवास सदैव रहता है।
(लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)
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कितने बहुकोणीय होंगे आगामी चुनाव
*अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में
विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है
*बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है
* उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे
*अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है
*मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ. 85 फीसदी वोट
दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है
– नरेंद्र नाथ –
कितने बहुकोणीय होंगे आगामी चुनाव। अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है। सभी सियासी दल बहुकोणीय चुनाव के नफा-नुकसान की चर्चा करने लगे हैं। अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। अब तक के जो राजनीतिक संकेत हैं उसके अनुसार इन सभी राज्यों में बहुकोणीय चुनाव ही होंगे। हाल के सालों में आम धारणा यही बनी है कि बहुकोणीय चुनाव से बीजेपी को लाभ होता है क्योंकि इससे उनके विरोधी मतों का ही बंटवारा होता है। हालांकि जानकारों के अनुसार हर चुनाव के समीकरण अलग होते हैं, और इसे कोई एक स्थापित ट्रेंड मान लेना मुनासिब नहीं। लेकिन पांच राज्यों के चुनाव में आए नतीजे एक ठोस ट्रेंड बता सकते हैं।
क्यों उठ रहे सवाल
अभी बहुकोणीय चुनाव और इसके असर की बात पर बहस इसलिए शुरू हुई कि एक के बाद एक कई घटनाक्रम हुए हैं। पिछले हफ्ते गुजरात में हुए निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी भले सीट जीतने में सफल नहीं रही, लेकिन कांग्रेस के वोट बैंक में उसने बड़ी सेंध लगाई। इसका असर यह हुआ कि बीजेपी पिछली बार से भी बड़ी जीत पाने में सफल रही। गुजरात में भी अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। अभी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी लखीमपुर कांड के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश में आक्रामक हुईं और वाराणसी में बड़ी रैली कर उन्होंने कांग्रेस के चुनावी प्रचार का शंखनाद किया, उसके बाद वहां भी यह बात उठी कि अगर कांग्रेस अपना वोट बढ़ाती है तो वह किसकी कीमत पर बढ़ाएगी। तर्क दिया गया कि जितना कांग्रेस बेहतर करेगी, बीजेपी के लिए राहत की बात होगी क्योंकि इससे बीजेपी विरोधी वोट ही बंटेगा।
इसी तरह साल की शुरुआत में गोवा और उत्तराखंड में भी यही सवाल उठेगा। गोवा में आम आदमी पार्टी और टीएमसी पूरी ताकत के साथ उतर रही है। वहां दोनों दल बीजेपी सरकार के सामने कांग्रेस के साथ खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। वहीं उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी मैदान में उतर चुकी है। पंजाब में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने आम आदमी पार्टी, अकाली दल और बीजेपी मैदान में हैं। मणिपुर में भी एक साथ कई दल चुनावी मैदान में हैं। हाल के सालों में अधिकतर चुनावों में दो पक्षों के बीच सीधी टक्कर ही देखने को मिली है। लेकिन इस बार जिस तरह इन सभी राज्यों में कई कोण अभी से दिख रहे हैं, यह देश की राजनीति में उस पुराने दौर की वापसी की आहट दे रहा है जब सियासी मैदान में कई खिलाड़ी होते थे। लेकिन क्या कई दलों के मैदान में उतरने से बहुकोणीय चुनाव हो जाएगा या मौजूदा ट्रेंड की तरह अंत में वोटर पक्ष और विपक्ष के लिए सिर्फ एक-एक विकल्प को चुनेगा? इसका जवाब तो चुनाव में ही मिलेगा। इसी से सभी दलों के राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की ख्वाहिश का विस्तार होगा या नहीं, इसका भी पता चलेगा।
वोट बंटने का फायदा
बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है, उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे। लेकिन अब तक का ट्रेंड यही है कि इसका लाभ हाल के सालों में बीजेपी को मिला है। इसके पीछे कारण रहा है कि अधिकतर क्षेत्रीय दल चाहे तेलंगाना में हो या आंध्र प्रदेश में, पश्चिम बंगाल में हो या महाराष्ट्र में, वे सारे कांग्रेस के पतन की कीमत पर ही उभरे हैं। जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती गई वहां-वहां क्षेत्रीय दल उभरते गए। यह ट्रेंड पिछले तीन दशकों से है। सबसे नया उदाहरण दिल्ली में आम आदमी पार्टी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली हो या झारखंड जैसे राज्य, वहां कांग्रेस से जो वोट बैंक निकला, उस पर ही अपनी पकड़ बनाकर क्षेत्रीय दल स्थापित हुए। अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है। ऐसे में चूंकि क्षेत्रीय दल और कांग्रेस एक ही पिच पर खेलते रहे हैं तो ये एक ही वोट वर्ग में साझा करते हैं और बीजेपी का वोट बैंक इससे प्रभावित नहीं होता है। यह चुनाव दर चुनाव दिखा भी है। लेकिन जानकारों के अनुसार पिछले कुछ दिनों में हालात बदले भी हैं। अब इन सभी के लिए बीजेपी से लडऩा प्राथमिक सियासी चुनौती बन गई। लगभग एक दशक से देश की राजनीति के केंद्र में आ चुकी बीजेपी इन क्षेत्रीय दलों के लिए बड़ा खतरा बन गई। इसके अलावा बीजेपी की तरह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल, इनका भी अपना वोट बैंक बन गया।
ऐसे में अब बहुकोणीय चुनाव का असर किसके वोट बैंक पर पड़ेगा, उसका आकलन गलत भी साबित हो सकता है। उत्तर प्रदेश की ही मिसाल लें, तो यहां अगर कांग्रेस उभर कर अपना वोट बैंक बढ़ाती है तो वह बीजेपी में सेंध लगाएगी या विपक्ष में, यह अभी कहना जल्दबाजी होगा। एसपी के नेता ने कहा कि पारंपरिक रूप से बीजेपी का वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है, जो एसपी की ओर कभी नहीं आएगा। यही बात दूसरे राज्यों में भी लागू होती है। जाहिर है, सभी दल बहुकोणीय चुनाव में अपने लिए लाभ का आकलन अधिक करेंगे, लेकिन इसके लिए ठोस आधार नहीं है। इसी तरह ओवैसी की पार्टी के बारे में कहा गया है कि उनकी पार्टी मुस्लिम वोट बांटती है। लेकिन अब तक इसके कोई स्पष्ट सियासी प्रमाण नहीं मिले हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के सामने कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन था, जो वहां की स्थापित पार्टियां है। उनके साथ इंडियन सेक्युलर फ्रंट की पार्टी भी थी। लेकिन जब चुनाव परिणाम सामने आए तो यही बात देखी गई कि मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ। वहीं पिछले 15 विधानसभा चुनाव के नतीजे यही बता रहे हैं कि 85 फीसदी वोट दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है। ऐसे में क्या बहुकोणीय चुनाव सही में बहुकोणीय बन पाएगा या नहीं, इसे तमाम दलों की भागीदारी भर से तो नहीं मान सकते हैं।