महिला दिवस: हम वर्ष में एक दिन क्यों मानतें हैं,हर दिन क्यों नहीं….?

महिला दिवस पर विशेष :-

महिला दिवस, जो हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है, एक ऐसा दिन है जब पूरी दुनिया महिलाओं की महत्ता को समझती है और उनके समर्थन में समर्थन व्यक्त करती है। यह एक ऐसा समय है जब हम महिलाओं के सशक्तिकरण, समाज में उनकी भूमिका, और उनके योगदान की महत्ता को गौर से महसूस करते हैं।

महिलाओं का समर्थन:
महिला दिवस का मुख्य उद्देश्य है महिलाओं को  उन्हें समाज में उच्चतम स्थान दिलाना । इस दिन का आयोजन विभिन्न तरीकों से किया जाता है, जिसमें विभिन्न कार्यक्रम, सेमिनार, और सामाजिक पहलुओं को बढ़ावा देने वाले आयोजन शामिल होते हैं। इस दिन को और भी महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए, लोग महिलाओं के योगदान के महत्व को  समझते हैं और उन्हें  सामाजिक और आर्थिक समर्थन रूप से मजबूत बनाने के लिए प्रयास करते हैं।

महिलाओं का समाज में योगदान:
महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में अपने मेहनत से  पहचान बना रही हैं। वे न केवल घरेलू कामों में अपनी महत्ता सिद्ध कर रही हैं, बल्कि उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना दम-ख़म  दिखाया है। महिलाएं विज्ञान, तकनीक, चिकित्सा, शिक्षा, खेल, और विभिन्न अन्य क्षेत्रों में अपनी पहचान बना रही हैं। ऐसे वक्त में समर्थन करना हमारी जिम्मेदारी है, ताकि समाज में समानता और न्याय बना रह सके।

महिला शिक्षा:
महिला दिवस के मौके पर हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारी समाज में सभी महिलाएं शिक्षित हों और उन्हें उच्च शिक्षा का अधिकार हो। शिक्षा के माध्यम से ही हम महिलाओं को समाज में आर्थिक रूप से मजबूत बना सकते हैं, शिक्षा से उन्हें अपनी अधिकारों की जानकारी मिल सकती है और वे समाज में अधिक सकारात्मक रूप से योगदान कर सकती हैं। इसलिए, हमें शिक्षा के क्षेत्र में और भी बड़ी प्रयासरत होनी चाहिए ताकि हमारी महिलाएं समृद्धि और सम्मान के साथ जी सकें।

समाज में समानता:
महिला दिवस के मौके पर, हमें समाज में समानता की दिशा में प्रयास करना चाहिए। महिलाओं को समाज में समान अधिकार, अवसर, और स्थिति प्रदान करना आवश्यक है। इसके लिए हमें महिलाओं के साथ विभिन्न क्षेत्रों में उन्हें सक्षम  करना  होगा और उन्हें समाज में उच्चतम स्थान पर पहुंचाने के लिए हर संभव परिस्थितियों का सामना करना होगा।

महिला सुरक्षा:
महिला सुरक्षा एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा है जिसपर हमें महिला दिवस के दिन विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आजकल, महिलाओं को आत्मसमर्पण और सुरक्षित महसूस करने का अधिकार होना चाहिए। समाज में उन्हें बुराई के खिलाफ सुरक्षित महसूस करने के लिए सुरक्षा उपायों को मजबूती से लागू किया जाना चाहिए ताकि हर महिला अपने जीवन को स्वतंत्रता और खुशी से जी सके।

महिला दिवस हमें यह याद दिलाता है कि महिलाएं समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और उन्हें समर्थित करना हम सभी की जिम्मेदारी है। यह एक दिन नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें हर दिन महिलाओं की समर्थन में सहयोग करना चाहिए। इससे ही समाज में सच्ची समानता और समृद्धि हो सकती है।

महिला दिवस हमें समाज में समानता और समृद्धि की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करता है और हमें यह याद दिलाता है कि महिलाएं समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं जो हमारे समृद्धि और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं।

प्रस्तुति : दिव्या राजन 

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राष्ट्र के पुनर्निर्माण का आधार बनेगा राम मंदिर

*प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली*

आज पूरी दुनिया उत्सुकता के साथ 22 जनवरी के ऐतिहासिक क्षण का इंतजार कर रही है। दुनिया में कोई भी देश हो, अगर उसे विकास की नई ऊंचाई पर पहुंचना है, तो उसे अपनी विरासत को संभालना ही होगा। हमारी विरासत, हमें प्रेरणा देती है, हमें सही मार्ग दिखाती है। इसलिए आज का भारत, पुरातन और नूतन दोनों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ रहा है। एक समय था जब अयोध्या में राम लला टेंट में विराजमान थे, लेकिन आज राम मंदिर का भव्य निर्माण हो रहा है। राम मंदिर का निर्माण एक अनथक संघर्ष का प्रतीक है। अयोध्या यानि वह भूमि जहां कभी युद्ध न हुआ हो। ऐसी भूमि पर कलयुग में एक लंबी लड़ाई चली और त्रेतायुग में पैदा हुए रघुकुल गौरव भगवान श्रीराम को आखिरकार छत नसीब होने वाली है। राजनीति कैसे साधारण विषयों को भी उलझाकर मुद्दे में तब्दील कर देती है, रामजन्मभूमि का विवाद इसका उदाहरण है। आजादी मिलने के समय सोमनाथ मंदिर के साथ ही यह विषय हल हो जाता तो कितना अच्छा होता। आक्रमणकारियों द्वारा भारत के मंदिरों के साथ क्या किया गया, यह छिपा हुआ तथ्य नहीं है। किंतु उन हजारों मंदिरों की जगह, अयोध्या की जन्मभूमि को नहीं रखा जा सकता। एक ऐतिहासिक अन्याय की परिणति आखिरकार ऐतिहासिक न्याय ही होता है। यह बहुत संतोष की बात है कि भारत की न्याय प्रक्रिया के तहत आए फैसले से मंदिर का निर्माण संपन्न हुआ है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अर्थ में गौरवशाली हैं कि उनके कार्यकाल में इस विवाद का सौजन्यतापूर्ण हल निकल सका और मंदिर निर्माण हो सका।

इस आंदोलन से जुड़े अनेक नायक आज दुनिया में नहीं हैं। उनकी स्मृति आती है। मुझे ध्यान है उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के नेता और मंत्री रहे श्री दाऊदयाल खन्ना ने मंदिर के मुद्दे को आठवें दशक में जोरशोर से उठाया था। उसके साथ ही श्री अशोक सिंहल जैसे नायक का आगमन हुआ और उन्होंने अपनी संगठन क्षमता से इस आंदोलन को जनांदोलन में बदल दिया। संत रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ जैसे संत इस आंदोलन से जुड़े और समूचे देश में इसे लेकर एक भावभूमि बनी। तब से लेकर आज तक सरयू नदी ने अनेक जमावड़े और कारसेवा के प्रसंग देखे हैं। सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम फैसले के बाद जिस तरह का संयम हिंदू समाज ने दिखाया वह भी बहुत महत्त्व का विषय है। क्या ही अच्छा होता कि इस कार्य को साझी समझ से हल कर लिया जाता। किंतु राजनीतिक आग्रहों ने ऐसा होने नहीं दिया। कई बार जिदें कुछ देकर नहीं जातीं, भरोसा, सद्भाव और भाईचारे पर ग्रहण जरुर लगा देती हैं।

दुनिया के किसी देश में यह संभव नहीं है उसके आराध्य इतने लंबे समय तक मुकदमों का सामना करें। किंतु यह हुआ और सारी दुनिया ने इसे देखा। यह भारत के लोकतंत्र, उसके न्यायिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना का समय भी है। यह सिर्फ मंदिर नहीं है जन्मभूमि है, हमें इसे कभी नहीं भूलना चाहिए। विदेशी आक्रांताओं का मानस क्या रहा होगा, कहने की जरुरत नहीं है। किंतु हर भारतवासी का राम से रिश्ता है, इसमें भी कोई दो राय नहीं है। वे हमारे प्रेरणापुरुष हैं, इतिहास पुरुष हैं और उनकी लोकव्याप्ति विस्मयकारी है। ऐसा लोकनायक न सदियों में हुआ है और न होगा। लोकजीवन में, साहित्य में, इतिहास में, भूगोल में, हमारी प्रदर्शनकलाओं में उनकी उपस्थिति बताती है राम किस तरह इस देश का जीवन हैं।

राम शब्द संस्कृत की ‘रम’ क्रीड़ायाम धातु से बना है अर्थात हरेक मनुष्य के अंदर रमण करने वाला जो चैतन्य-स्वरूप आत्मा का प्रकाश विद्यमान है, वही राम है। राम को शील-सदाचार, मंगल-मैत्री, करुणा, क्षमा, सौंदर्य और शक्ति का पर्याय माना गया है। कोई व्यक्ति सतत साधना के द्वारा अपने संस्कारों का परिशोधन कर राम के इन तमाम सद्गुणों को अंगीकार कर लेता है, तो उसका चित्त इतना निर्मल और पारदर्शी हो जाता है कि उसे अपने अंत:करण में राम के अस्तित्व का अहसास होने लगता है। कदाचित यही वह अवस्था है जब संत कबीर के मुख से निकला होगा,

*‘मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में*

*ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।’*

राम, दशरथ और कौशल्या के पुत्र थे। संस्कृत में दशरथ का अर्थ है- दस रथों का मालिक। अर्थात पांच कर्मेंद्रियों और पांच ज्ञानेंद्रियों का स्वामी। कौशल्या का अर्थ है- ‘कुशलता’। जब कोई अपनी कर्मेंद्रियों पर संयम रखते हुए अपनी ज्ञानेंद्रियों को मर्यादापूर्वक सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है, तो उसका चित्त स्वाभाविक रूप से राम में रमने लगता है। पूजा-अर्चना की तमाम सामग्रियां उसके लिए गौण हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना सहज और सरल हो जाता है कि वह जीवन में आने वाली तमाम मुश्किलों का स्थितप्रज्ञ होकर मुस्कुराते हुए सामना कर लेता है। भारतीय जनमानस में राम का महत्व इसलिए नहीं है कि उन्होंने जीवन में इतनी मुश्किलें झेलीं, बल्कि उनका महत्व इसलिए है, क्योंकि उन्होंने उन तमाम कठिनाइयों का सामना बहुत ही सहजता से किया। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी इसलिए कहते हैं, क्योंकि अपने सबसे मुश्किल क्षणों में भी उन्होंने स्वयं को बेहद गरिमापूर्ण रखा।

राम का होना मर्यादाओं का होना है, रिश्तों का होना है, संवेदना का होना है, सामाजिक न्याय का होना है, करुणा का होना है। वे सही मायनों में भारतीयता के उच्चादर्शों को स्थापित करने वाले नायक हैं। उन्हें ईश्वर कहकर हम अपने से दूर करते हैं। जबकि एक मनुष्य के नाते उनकी उपस्थिति हमें अधिक प्रेरित करती है। एक आदर्श पुत्र, भाई, सखा, न्यायप्रिय नायक हर रुप में वे संपूर्ण हैं। उनके राजत्व में भी लोकतत्व और लोकतंत्र के मूल्य समाहित हैं। वे जीतते हैं किंतु हड़पते नहीं। सुग्रीव और विभीषण का राजतिलक करके वे उन मूल्यों की स्थापना करते हैं जो विश्वशांति के लिए जरुरी हैं। वे आक्रामणकारी और विध्वंशक नहीं है। वे देशों का भूगोल बदलने की आसुरी इच्छा से मुक्त हैं। वे मुक्त करते हैं बांधते नहीं। अयोध्या उनके मन में बसती है। इसलिए वे कह पाते हैं,

*जननी जन्मभूमिश्य्च स्वर्गादपि गरीयसी।*

यानि जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। अपनी माटी के प्रति यह भाव प्रत्येक राष्ट्रप्रेमी नागरिक का भाव होना चाहिए। वे नियमों पर चलते हैं। अति होने पर ही शक्ति का आश्रय लेते हैं। उनमें अपार धीरज है। वे समुद्र की तीन दिनों तक प्रार्थना करते हैं।

*विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति*

*बोले राम सकोप तब भय बिनु होहिं न प्रीति।*

यह उनके धैर्य का उच्चादर्श है। वे वाणी से, कृति से किसी को दुख नहीं देना चाहते हैं। वे चेहरे पर हमेशा मधुर मुस्कान रखते हैं। उनके घीरोदात्त नायक की छवि उन्हें बहुत अलग बनाती है। वे जनता के प्रति समर्पित हैं। इसलिए तुलसीदास जी रामराज की अप्रतिम छवि का वर्णन करते हैं-

*दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहुंहिं नहीं व्यापा।*

राम ने जो आदर्श स्थापित किए उस पर चलना कठिन है। किंतु लोकमन में व्याप्त इस नायक को सबने अपना आदर्श माना। राम सबके हैं। वे कबीर के भी हैं, रहीम के भी हैं, वे गांधी के भी हैं, लोहिया के भी हैं। राम का चरित्र सबको बांधता है। अनेक रामायण और रामचरित पर लिखे गए महाकाव्य इसके उदाहरण हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त स्वयं लिखते हैं-

*राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है*

*कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।*

भगवान श्रीराम भारतीय संस्कृति के ऐसे वटवृक्ष हैं, जिनकी पावन छाया में मानव युग-युग तक जीवन की प्रेरणा और उपदेश लेता रहेगा। जब तक श्रीराम जन-जन के हृदय में जीवित हैं, तब तक भारतीय संस्कृति के मूल तत्व अजर-अमर रहेंगे। श्रीराम भारतीय जन-जीवन में धर्म भावना के प्रतीक हैं, उनमें मानवोचित और देवोचित गुण थे, इसीलिए वे “मर्यादा पुरुषोत्तम” कहलाए। भगवान श्रीराम का जीवन चरित्र भारत की सीमाओं को लांघकर विदेशियों के लिए भी शांति, प्रेरणा और नवजीवनदायक बनता जा रहा है। श्रीराम धर्म के साक्षात् स्वरूप हैं, धर्म के किसी अंग को देखना है, तो राम का जीवन देखिये, आपको धर्म की असली पहचान हो जायेगी। धर्म की पूर्णता उनके जीवन में आद्यन्त घटित हुई है।

श्रीराम ने लौकिक धरातल पर स्थिर रहकर धर्म एवं मर्यादा का पालन करते हुए मानव को असत्य से सत्य की ओर, अधर्म से धर्म की ओर तथा अन्याय से न्याय की ओर चलने की प्रेरणा दी है। कर्त्तव्य की वेदी पर अपने व्यक्तिगत सुख-प्रलोभनों की आहुति श्रीराम की जीवन कहानी का सार है। संसार में महापुरुष अपने जीवन, गुण, कर्म, स्वभाव, कर्त्तव्य, बुद्धि, तप-त्याग और तपस्या से जो अमर जीवन-संदेश देते हैं, वही मानवता की स्थायी धरोहर होती है। हमारा सौभाग्य है कि हम ऐसे दैवीय गुणों के धनी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की संताने हैं। श्रीराम का प्रेरक चरित्र भूली-भटकी मानव जाति में नवजीवन चेतना का संचार कर सकता है। उनके जीवन की घटनाएं आज के भोगी विलासी और मानवता का गला घोंटने वाले नामधारी मनुष्य को बहुत कुछ सोचने, करने और जीने की प्रेरणा दे सकती है। उनके जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप से अमर संदेश मिलता है। श्रीराम के द्वारा दर्शित आदर्शों एवं जीवन मूल्यों का भारतीय समाज में बहुत ऊंचा स्थान है। यदि हम सबक लेना चाहें, तो रामायण की प्रत्येक घटना से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

लक्ष्मण जी का श्रीराम जी के साथ वन-गमन करना, भरत जी का राज्य को ठुकराना, पादुका रखकर शासन-व्यवस्था चलाना, परस्पर भाइयों की प्रीति का श्रेष्ठ उदाहरण है। आज भाई-भाई एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो रहे हैं, परिवार परस्पर की कलह के कारण टूट रहे हैं। सर्वत्र स्वार्थ, अहंकार और अकेले भोगने की भावना उद्दाम हो रही है। ऐसे में रामायण हमें शिक्षा देती है कि नश्वर सुख-भोग और धन-धाम-धरा के लिए परस्पर लड़ना नहीं चाहिए। चित्रकूट प्रवास-काल में शूर्पणखा द्वारा श्रीराम को अपनी ओर आकर्षित करके विवाह का प्रस्ताव रखने पर राम द्वारा दृढ़ता से मना कर देना प्रेरणा देता है कि यदि जीवन को सुखी और शान्तिमय बनाना है, तो एक पत्नीव्रत का आचरण करना चाहिए। स्वर्णमृग को देखकर सीताजी का उसे पाने की इच्छा करना तथा भगवान राम द्वारा मायावी मृग को पाने के लिए पीछे दौड़ना और सीता जी का हरण हो जाने की घटना आज के जीवन प्रसंगों को बहुत कुछ प्रेरणा दे सकती है। आज का मनुष्य धन की मृगतृष्णा के पीछे पागलों की तरह दौड़ा जा रहा है, जो प्राप्त है उससे संतुष्ट नहीं हो पा रहा है। विज्ञान की चमकीली, भड़कीली, दिखावटी, बनावटी चीजों के पीछे दिन-रात अधर्म-असत्य, छल-प्रपंच का सहारा लेकर दौड़ा जा रहा है। इससे हानि यह हुई है कि आत्मारूपी सीता छिन गई है, भौतिकवादी व्यक्ति सिर्फ शरीर के लिए जीने लगा है तथा इसी मृगतृष्णा में वह जीवन का अंत कर लेता है। रामायण कहती है दुनिया में आंखें खोलकर चलो, सभी चमकने वाली चीजें सोना नहीं होती हैं। चमक-दमक में व्यक्ति हमेशा धोखा खाता है, इसी धोखे में आत्मरूपी सीता का रावण द्वारा हरण होता है तथा बाद में राम-रावण का निर्णायक युद्ध होता है। यदि रामायण से कुछ सीखना है, तो चरित्र निर्माण, विचारों की उच्चता, भावों की शुद्धता, पवित्रता तथा जीवन को धर्म-मर्यादा एवं उच्चादर्श की ओर ले चलना सीखें। सीता जी का राम जी के साथ वन जाना संसार के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ देता है। वनवास राम जी को मिला था, सीता जी को नहीं, रामायण में वनवास का प्रसंग यह शिक्षा देता हैं की नारी की परीक्षा संपत्ति में नहीं विपत्ति में होती है।

राम अपने जीवन की सरलता, संघर्ष और लोकजीवन से सहज रिश्तों के नाते कवियों और लेखकों के सहज आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनकी छवि अति मनभावन है। वे सबसे जुड़ते हैं, सबसे सहज हैं। उनका हर रूप, उनकी हर भूमिका इतनी मोहनी है कि कविता अपने आप फूटती है। किंतु सच तो यह है कि आज के कठिन समय में राम के आदर्शों पर चलता साधारण नहीं है। उनसी सहजता लेकर जीवन जीना कठिन है। वे सही मायनों में इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहे गए। उनका समूचा व्यक्तित्व राजपुत्र होने के बाद भी संघर्षों की अविरलता से बना है। वे कभी सुख और चैन के दिन कहां देख पाते हैं। वे लगातार युद्ध में हैं। घर में, परिवार में, ऋषियों के यज्ञों की रक्षा करते हुए, आसुरी शक्तियों से जूझते हुए, निजी जीवन में दुखों का सामना करते हुए, बालि और रावण जैसी सत्ताओं से टकराते हुए। वे अविचल हैं। योद्धा हैं। उनकी मुस्कान मलिन नहीं पड़ती। अयोध्या लौटकर वे सबसे पहले मां कैकेयी का आशीर्वाद लेते हैं। यह विराटता सरल नहीं है। पर राम ऐसे ही हैं। सहज-सरल और इस दुनिया के एक अबूझ से मनुष्य।

राम भक्त वत्सल हैं, मित्र वत्सल हैं, प्रजा वत्सल हैं। उनकी एक जिंदगी में अनेक छवियां हैं। जिनसे सीखा जा सकता है। अयोध्या का मंदिर इन सद् विचारों, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का प्रेरक बने। राम सबके हैं। सब राम के हैं। यह भाव प्रसारित हो तो देश जुड़ेगा। यह देश राम का है। इस देश के सभी नागरिक राम के ही वंशज हैं। हम सब उनके ही वैचारिक और वंशानुगत उत्तराधिकारी हैं, यह मानने से दायित्वबोध भी जागेगा, राम अपने से लगेगें। जब वे अपने से लगेगें तो उनके मूल्यों और उनकी विरासतों से मुंह मोड़ना कठिन होगा। सही मायनों में ‘रामराज्य’ आएगा। कवि बाल्मीकि के राम, तुलसी के राम, गांधी के राम, कबीर के राम, लोहिया के राम, हम सबके राम हमारे मनों में होंगे। वे तब एक प्रतीकात्मक उपस्थिति भर नहीं होंगे, बल्कि तात्विक उपस्थिति भी होंगे। वे सामाजिक समरसता और ममता के प्रेरक भी बनेंगे और कर्ता भी। इसी में हमारी और इस देश की मुक्ति है।

आज के भारत का मिजाज़, अयोध्या में स्पष्ट दिखता है। आज यहां प्रगति का उत्सव है, तो कुछ दिन बाद यहां परंपरा का उत्सव भी होगा। आज यहां विकास की भव्यता दिख रही है, तो कुछ दिनों बाद यहां विरासत की भव्यता और दिव्यता दिखने वाली है। यही तो भारत है। विकास और विरासत की यही साझा ताकत, भारत को 21वीं सदी में सबसे आगे ले जाएगी।

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ऐसा वक्त पृथ्वी के जीवन में पहले नहीं?

*श्रुति व्यास*

हम सभी एक नाव पर सवार हैं। यूरोप, अमरीका, भारत और चीन – सभी एक साथ बेइंतहा पसीना बहा रहे हैं। विडंबना है कि धरती के इतना ज्यादा गर्म होने के लिए बहुत हद तक हम खुद ही जिम्मेदार भी हैं।दुनिया को इस साल वसंत का अहसास ही नहीं हुआ! अप्रैल में हमें लू के थपेड़े झेलने पड़े। अल्जीरिया, मोरक्को, पुर्तगाल और स्पेन में तापमान सामान्य से कहीं ज्यादा है। इस बीच, समय से पहले आई बरसात ने भारत में आम के मौसम में खलल डाली। जहां दूसरी जगहों जुलाई गर्म है वही हमारे यहाँ गर्मी और उमस दोनों हैं जो कि एक जानलेवा जुगलबंदी है।इतना ही नहीं भविष्यवाणी है कि हर दिन, पिछले दिन से ज्यादा गर्म होगा।

टेक्सास से लेकर ग्रीस तक रेड अलर्ट है; क्रोएशिया, एड्रियाटिक तट और स्पेन के नवारा के जंगलों में आग लगी हुई है। पर्यटन स्थल बंद कर दिए गए हैं क्योंकि तापमान 40 डिग्री के ऊपर चला गया है। बहुत अधिक तापमान के कारण सड़कें पिघल रही हैं, रेल पटरियां ऐंठ रही हैं और खुले में काम करना खतरे से खाली नहीं है। वियतनाम में किसान खेतों में काम करने के लिए सुबह तीन बजे सोकर उठ रहे हैं।कोई संदेह नहीं कि हमने अपने जीवन में कभी इतनी झुलसाने वाली गर्मी नहीं देखी। विश्व जलवायु संगठन (डब्लूएमओ) ने पिछले हफ्ते बताया कि 1850 के दशक में टेम्परेचर नापने के उपकरणों का उपयोग प्रारंभ होने के बाद से धरती पर भी कभी ऐसा नहीं देखा गया।

डब्लूएमओ के जलवायु सेवाओं के निदेशक प्रोफेसर क्रिस्टोफर हेविट ने कहा, हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिससे हम पहले कभी नहीं गुजऱे और यह हमारी पृथ्वी के लिए एक चिंता पैदा करने वाली खबर है।”वैज्ञानिक अब बिना झिझके कह रहे हैं कि अब से लेकर हर आने वाला साल और घातक रूप से गर्म होगा। यह चेतावनी भी दी जा रही है कि इस साल या अगले साल दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की उस सीमा को पार कर लेगा जो आईपीसीसी द्वारा ग्लोबल वार्मिंग की अपर लिमिट बतौर तय किया गया था।इसलिए सरकारों और वैज्ञानिकों के सामने न सिर्फ धरती के और गर्म होने को रोकने की चुनौती है बल्कि लोगों को ठंडा रखने की चुनौती भी है।

दुनिया के कई इलाकों में गर्मी का मुकाबला करने के साधन हैं ही नहीं क्योंकि वहां के लोगों ने आज तक कभी इसका सामना किया ही नहीं। अध्ययनों के अनुसार जिन जगहों पर झुलसाने वाली गर्मी होने का ज्यादा खतरा है उनमें अफगानिस्तान, पापुआ न्यू गिनी और मध्य अमेरिका शामिल हैं। इन इलाकों में तापमान का रिकार्ड टूटने की स्थिति बन सकती है और संभव है कि स्थानीय समुदाय इस हालात का मुकाबला करने में सक्षम ही न हों। इसी तरह, यूरोप एक ऐसा महाद्वीप है जहां मकान की डिजाईन में सदियों से कोई बदलाव नहीं आया है जबकि वहां के लोगों को अब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में गर्मी के भीषण प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है।

यह महाद्वीप हर साल दुनिया के औसत से कहीं अधिक तेजी से गर्म हो रहा है। हर साल इसका मुकाबला करने में और अक्षम होता जा रहा है। मुझे याद है कि जब मैं स्काटलैंड में रहती थी तब भी गर्मी का मौसम गर्म होता था (हालाँकि आज की तुलना में बहुत कम) और घरों में इसका मुकाबला करने का एकमात्र साधन टेबिल फैन हुआ करता था।विशेषज्ञों का कहना है यूरोपीय देशों की सरकारें करीब 20 साल पहले बजी खतरे की घंटी पर ध्यान में असफल रहीं जब सन् 2003 (जो महाद्वीप का सबसे गर्म साल था) की ग्रीष्म लहर में कुछ अनुमानों के अनुसार करीब 70,000 लोगों की मौत हुई थी।

इसी सप्ताह प्रकाशित एक रपट के अनुसार पिछले साल गर्मियों में यूरोप में हुई 61,000 मौतों के लिए झुलसाने वाली गर्मी को जिम्मेदार माना जा सकता है। इस साल भी दुबारा यही विपदा आएगी। दक्षिण यूरोप के कुछ हिस्सों में मई से ही हीट वेव शुरू हो गई। सबसे ताजी ग्रीष्म लहर – जिसे अंडरवर्ल्ड के दरवाजों पर पहरा देने वाले कई सिरों वाले कुत्ते के नाम पर केरबेरस नाम दिया गया था – के दौरान फ्लोरेंस, रोम और सर्डेनिया और सिसली के कुछ हिस्सों में इस हफ्ते तापमान 37 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो गया था। आने वाले हफ़्तों में यह 48 डिग्री तक पहुंच सकता है।

हम भारतीय हमेशा से गर्मी का सामना करते रहे हैं और उसका मुकाबला करना जानते हैं। लेकिन अब समय बदल गया है। कूलर, एसी, आईस्क्रीम, आम का पना, घर से न निकलना, शार्ट्स और सूती कपड़े सिर्फ अस्थायी राहत देने वाली चीजें हैं। ज्यादा बड़ी चुनौती है कार्बन उर्त्सजन के लक्ष्य को हासिल करना।यूरोप को प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है। सन् 2003 की झुलसा देने वाली गर्मी के बाद से यूरोप के देशों की सरकारों ने राष्ट्रीय अनुकूलन (एडाप्टेशन) स्ट्रेटेजी लागू कीं। गर्मी की चेतावनी और उसके लिए नागरिकों को दिशानिर्देश जारी करने शुरू किये।

लेकिन वे भी कार्बन एमिशन के लक्ष्यों को हासिल करने में लगातार असफल रहे जिसका उद्देश्य क्लाइमेट चेंज की गति को धीमा करना था। ना ही उन्होंने इसके लिए उठाए जाने वाले ठोस कदमों में निवेश किया। लक्ष्य को प्राप्त न कर पाने के साथ-साथ वे अपने शहरों में बदलाव लाने में भी असफल रहे। विशेषज्ञों का मानना है कि सभी क्षेत्रों में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है।

इनमें परिवहन से लेकर स्वास्थ्य और कृषि से लेकर उत्पादकता तक सब शामिल है। इसके लिए बहुत बड़ी रकम का निवेश करना ही होगा। पर दुविधा भी है। कार्बन एमिशन घटाने के लिए वैकल्पिक साधनों में निवेश की जरूरत है लेकिन पंरपरागत रेनासां शैली के भवनों और शहरों में बदलाव के लिए भी रकम की जरूरत होगी।

और ऐसा भी नहीं है कि अकेला यूरोप ही समस्या से जूझ रहा है। भूमध्य सागर के आसपास के देश, मध्य पूर्व और एशिया गर्मी के आदी हैं लेकिन उनके लिए भी गर्मी असहनीय होती जा रही है।तभी आने वाले सालों में मुश्किलें और बढऩे वाली हैं।

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लॉजिस्टिक्स क्षेत्र में दक्षता: नए भारत की विकास गाथा

*सुमिता डावरा*

भारत आज विकास की ऊंची उड़ान भरने को तैयार है। वैश्विक स्तर पर सभी प्रतिस्पर्धियों की तुलना में भारत की लॉजिस्टिक्स संबंधी रेटिंग बेहतर होते जाने के साथ-साथ लॉजिस्टिक्स से जुड़ी इसकी बाधाएं दूर होती जा रही हैं। मैन्यूफैक्चरिंग और व्यापार के क्षेत्र में भारत की वैश्विक स्थिति बुनियादी ढांचे और निर्यात-आयात (एक्जिम) संबंधी लॉजिस्टिक्स को बेहतर बनाने से संबंधित सुधारों के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। बुनियादी ढांचे को अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण विकास इंजन के रूप में पहचानते हुए, प्रधानमंत्री की गतिशक्ति राष्ट्रीय मास्टर प्लान (एनएमपी) और राष्ट्रीय लॉजिस्टिक्स नीति जैसे सुधारों ने सामानों एवं यात्रियों की आवाजाही के लिए लॉजिस्टिक्स से जुड़े बुनियादी ढांचे और लॉजिस्टिक्स संबंधी सेवाओं में सुधार पर ध्यान केन्द्रित किया है। और बहुत ही कम समय में, इन सुधारों के परिणाम दिखाई देने लगे हैं।

विश्व बैंक ने लॉजिस्टिक्स परफॉर्मेंस इंडेक्स (एलपीआई) से संबंधित 2023 की अपनी रिपोर्ट में लॉजिस्टिक्स से जुड़ी उन्नत दक्षता की दिशा में भारत द्वारा की गई प्रगति को स्वीकार किया है। विश्व बैंक की यह रिपोर्ट 139 देशों के एलपीआई के बारे में जानकारी साझा करती है और भारत को इस सूचकांक में 38वें स्थान पर रखती है, जोकि 2018 में हमारी रैंक की तुलना में छह स्थान ऊपर है।एलपीआई छह व्यापक मापदंडों पर आधारित गुणात्मक धारणाओं का एक सर्वेक्षण-आधारित परिमाणीकरणÓ है, जो सीमा शुल्क, बुनियादी ढांचे, अंतरराष्ट्रीय लदान (शिपमेंट), लॉजिस्टिक्स संबंधी क्षमता एवं लॉजिस्टिक्स से जुड़ी सेवाओं की गुणवत्ता, समयबद्धता, निगरानी एवं जानकारी जैसे पहलुओं पर विचार करता है।

विश्व बैंक एक ऐसी उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत का उदाहरण देता है, जिसने 2015 से देश के पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों तटों पर स्थित बंदरगाहों को सुदूर इलाकों में स्थित आर्थिक केन्द्रों से जोड़ते हुए बुनियादी ढांचे एवं विभिन्न प्रौद्योगिकियों में निवेश किया है। अन्य कारकों के अलावा, इस तरह के निवेश के कारण ही बंदरगाहों पर कंटेनरों के ठहराव के समय के मामले में भारत का प्रदर्शन कई विकसित देशों की तुलना में कहीं बेहतर है। मई से लेकर अक्टूबर 2022 के बीच, भारत में कंटेनरों के ठहराव का समय न्यूनतम 3 दिन था, जबकि संयुक्त अरब अमीरात एवं दक्षिण अफ्रीका के मामले में यह समय 4 दिन, अमेरिका के मामले में 7 दिन और जर्मनी के मामले में 10 दिन था।

विश्व बैंक की यह रिपोर्ट भारत को एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत करती है, जिसने नेशनल लॉजिस्टिक्स डेटा बैंक सर्विसेज लिमिटेड (एनएलडीबीएसएल) जैसे डिजिटलीकृत प्लेटफॉर्म के उपयोग के जरिए आपूर्ति श्रृंखला में दृश्यता ला दी है। यह रिपोर्ट बताती है कि लॉजिस्टिक्स डेटा बैंक (एलडीबी) कैसे आरएफआईडी (रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन) टैग के उपयोग के जरिए भारत में एक्जिम कंटेनरों की आवाजाही की निगरानी करता है और उसके बारे में सटीक जानकारी रखता है, जिससे माल पाने वाले (कान्साइनी) के लिए अपनी आपूर्ति श्रृंखला की एक छोर से दूसरे छोर तक निगरानीÓ (एंड-टू-एंड ट्रैकिंग) करना संभव हो जाता है।

शुरु में, माल की स्थिति का पता लगाने वाले (कार्गो ट्रेसिंग) इस प्रकार के तंत्र का शुभारंभ 2016 में देश के पश्चिमी तट पर किया गया था और आज इस तंत्र के दायरे में सभी प्रमुख बंदरगाह और निजी बंदरगाह आते हैं। भारतीय बंदरगाहों पर कंटेनरों के बेहतर ठहराव समय के लिए इसे श्रेय दिया जाता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए अगर कहें तो माल की निगरानी (कार्गो ट्रैकिंग) व्यवस्था की शुरुआत के साथ, देश के पूर्वी तट पर स्थित विशाखापत्तनम बंदरगाह पर कंटेनरों के ठहराव का समय 2015 में 32.4 दिन से घटकर 2019 में 5.3 दिन रह गया। देश के उज्जवल भविष्य के निर्माण में लॉजिस्टिक्स क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानते हुए, भारत सरकार ने आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निगरानी रखने हेतु एक डिजिटल प्रणाली के रूप में लॉजिस्टिक्स डेटाबैंक प्रोजेक्ट (एलडीबी) का शुभारंभ किया था।

एनएलडीबीएसएल को राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास निगम (एनआईसीडीसी) और निप्पॉन इलेक्ट्रिक कंपनी (एनईसी) लिमिटेड नाम की जापानी कंपनी के बीच एक एसपीवी (विशेष प्रयोजन वाहन) के रूप में संचालित किया जाता है। एलडीबी, एक्जिम कंटेनर की आवाजाही के बारे में वास्तविक समय में विस्तृत जानकारी प्रदान करने हेतु आपूर्ति श्रृंखला में कार्यरत विभिन्न एजेंसियों के पास उपलब्ध डिजिटल जानकारी को एकत्रित व व्यवस्थित करता है। यह प्लेटफॉर्म भारत के एक्जिम कंटेनर की शत-प्रतिशत मात्रा को संभालता है। इस पर एक मोबाइल ऐप के साथ-साथ एक पोर्टल के जरिए माल पाने वालों (कान्साइनी) के लिए जानकारी पाने की सुविधा उपलब्ध है।

इस तरह, एलडीबी दृश्यता प्रदान करता है और भारत के कंटेनरीकृत एक्जिम लॉजिस्टिक्स से संबंधित बिग डेटा एनालिटिक्स को सक्षम बनाता है।जुलाई 2016 में अपना कामकाज शुरू करने बाद से, एलडीबी ने 60 मिलियन एक्जिम कंटेनरों की निगरानी की है। भारत के शत-प्रतिशत कंटेनरीकृत एक्जिम कार्गो की निगरानी करने और उनका पता लगाने हेतु आरएफआईडी, आईओटी (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) और बिग डेटा एनालिटिक्स से संबंधित प्रौद्योगिकियों के संयोजन के साथ, एलडीबी ने प्रमुख भारतीय बंदरगाहों, सबसे व्यस्त टोल प्लाजा, लगभग 400 कंटेनर फ्रेट स्टेशनों (सीएफएस)/अंतर्देशीय कंटेनर डिपो (आईसीडी) और बंदरगाहों पर खाली यार्ड, विशेष आर्थिक क्षेत्रों और यहां तक कि नेपाल एवं बांग्लादेश की सीमाओं पर स्थित एकीकृत चेक पोस्ट के साथ भी तालमेल बिठाया है। आरएफआईडी से संबंधित आंकड़ों को हासिल करने के उद्देश्य से एसपीवी द्वारा माल ढुलाई के लिए सर्पित गलियारों (डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर) सहित सभी प्रमुख सड़क एवं रेल मार्गों पर लगभग 3000 आरएफआईडी रीडर स्थापित किए गए हैं। एलडीबी द्वारा हासिल एवं व्यवस्थित किए गए आंकड़ों का विभिन्न प्रकार से विश्लेषण किया जाता है। इन विश्लेषणों में बंदरगाह पर कंटेनरों के ठहराव के समय की गणना, माल की आवाजाही के क्रम में होने वाले भीड़भाड़ का विश्लेषण, कंटेनर की आवाजाही की गति का विश्लेषण, प्रदर्शन संबंधी मानदंड, आवागमन में लगने वाले समय का विश्लेषण (बंदरगाह से सीएफएस या इसके उलट) आदि शामिल है।

ये विश्लेषण मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक आधार पर किए जाते हैं और सभी संबंधित मंत्रालयों, बंदरगाह के प्राधिकारियों, टर्मिनल के संचालकों, सीमा – शुल्क से जुड़ी एजेंसियों और अन्य हितधारकों के साथ साझा किए जाते हैं।दूसरी ओर, संबंधित एजेंसियों द्वारा कठिनाई पैदा करने वाले बिंदुओं और सुधार की जरूरत वाले क्षेत्रों की पहचान करने हेतु नियमित विश्लेषणों का उपयोग किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों के एलडीबी के आंकड़ों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि कंटेनरों की निकासी मामले में आईसीडी और सीएफएस के प्रदर्शन में सुधार के अलावा कंटेनर को संभालने से जुड़े प्रदर्शन, सड़क मार्ग से गुजरने वाले कंटेनरों की निकासी, प्रमुख राजमार्गों पर कंटेनर की गति के मामले में भी सुधार हुआ है। दिल्ली-मुंबई मार्ग और मुंद्रा बंदरगाह को जोडऩे वाले मार्ग जैसे प्रमुख राजमार्गों पर कंटेनर की गति भी 2018 की तुलना में बेहतर हुई है।

आज, एलडीबी ने दक्षता के साथ सीमा पार व्यापार को सुनिश्चित करने हेतु न केवल नेपाल एवं बांग्लादेश की सीमाओं तक अपनी सेवाओं का विस्तार किया है, बल्कि वह भारत के एक्जिम कंटेनरों की आवागमन के दौरान ठहराव वाले पहले अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह तक निगरानी रखने के लिए समुद्री ट्रैकिंग प्रणाली का भी उपयोग करता है। इसके अलावा, हमारे एफटीए को समान अंतरराष्ट्रीय प्रणालियों के साथ एकीकृत करके लाभ उठाने की संभावना तलाशना हमारे आगे के कदमों का हिस्सा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्यात कंटेनर पूरी दक्षता के साथ अंतिम गंतव्य तक पहुंचें और इससे हमारे व्यापार को बढ़ावा मिले।

यह तेज गति से चलने वाले लेन में एक लंबी यात्रा की शुरुआत मात्र है। लॉजिस्टिक्स इकोसिस्टम में सुधार हेतु भारत द्वारा नवीन डिजिटल प्रौद्योगिकियों का उपयोग हमारी गति में और तेजी लाएगा तथा सोने पर सुहागा की स्थिति बनाते हुए अगले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर हमारी लॉजिस्टिक्स रैंकिंग को भी बेहतर करेगा। यह गति निश्चित रूप से 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने के हमारे महत्वाकांक्षी लक्ष्य को साकार करने में मदद करेगी।

(लेखिका आईएएस, विशेष सचिव (लॉजिस्टिक्स, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय) भारत सरकार; तथा एनआईसीडीसी की सीईओ एवं एमडी हैं)

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डब्ल्यूपीएल-2023 : दनादन रन झमाझम धन

संदीप भूषण  –

वर्ष 1976 में पहला टेस्ट मैच खेलने वाली भारतीय महिला क्रिकेट टीम को भारतीय क्रिकेट बोर्ड का हिस्सा बनने में तीन दशक का समय लगा और 2006 के करीब भारतीय महिला क्रिकेट संघ का बीसीसीआई में विलय हुआ।हालांकि, खेल में महिलाओं की दावेदारी 2016 के रियो ओलंपिक और 2018 के क्रिकेट विश्व कप प्रदशर्न ने और मजबूत कर दी।

बदलाव की यही जो नींव पड़ी आज महिला प्रीमियर लीग के रूप में बेहतर मुकाम पाने की तरफ बढ़ रही है। छब्बीस मार्च को जिस भी टीम की जीत हो, महिला क्रिकेट इतिहास के लिए यह स्वर्णिम दिन होगा। इस प्रीमियर लीग ने जहां एक तरफ पुरु ष का खेल माने जाने वाले क्रिकेट में महिलाओं की जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई है, वहीं आर्थिक मोर्चे पर भी कई सफलताएं हासिल कर ली हैं।

लीग के पहले सत्र में ही मीडिया अधिकार पाने की होड़ लगी हुई थी। अंत में रिलायंस के अधिकार वाले बायोकॉम ने 951 करोड़ की बोली लगाकर पांच वर्ष के लिए इसे हासिल किया और प्रति मैच 7.09 करोड़ रुपये की प्रतिबद्धता जताई। यह पहली कामयाबी थी, जिससे समझना आसान हो गया कि क्रिकेट में महिलाएं भी पुरु षों के बराबर पर खड़ी हो सकती हैं।

पुरु ष आईपीएल की शुरु आत में 2008 में सोनी ने मीडिया अधिकार हासिल करने के लिए (2008-17) 8,200 करोड़ रु पये का भुगतान किया था। बाद में जब डिज्नी-स्टार ने मीडिया अधिकार हासिल किए तो 2018 से 2022 के बीच उसका मूल्य दोगुना बढ़कर 16,347.5 करोड़ रु पये यानी प्रति मैच 55 करोड़ रु पये हो गया। यह महिला प्रीमियर लीग के मुकाबले भले ही कम हो, लेकिन शुरु आत बेहतर होने से आगामी सत्रों के लिए उम्मीद तो बढ़ी ही है।

प्रायोजकों ने भी महिला प्रीमियर लीग को हाथों-हाथ लिया है। साफ है कि बीते 15 वर्षो में ब्रांडों के लिए आईपीएल के साथ जुडऩा प्राथमिकता रही है। सभी बड़े ब्रांड अपने टारगेट ऑडियंस तक पहुंचने के लिए इसे सबसे सटीक माध्यम मानते हैं। चूंकि क्रिकेट में पुरुषों का बोलबाला था, पुरुष को ध्यान में रखकर प्रोडक्ट का प्रचार उनकी मजबूरी बन गई थी। अब महिला प्रीमियर लीग ने उनके लिए नया मंच मुहैया कराया है, जहां वे महिलाओं से जुड़े प्रोडक्ट का भी प्रचार-प्रसार कर पाएंगे।

महिलाओं की जरूरतों को पूरा करने वाले कई ब्रांड या तो महिला टीमों के माध्यम से या फिर ब्रॉडकास्टर के माध्यम से टूर्नामेंट से जुड़े हुए हैं। आज हम सौंदर्य प्रसाधन से लेकर आभूषण और यहां तक कि साड़ी के ब्रांड तक क्रिकेटरों को ब्रांड एम्बेसडर बना रहे हैं। तनिष्क, वेगा ब्यूटी, हिमालय फेस केयर आदि रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के प्रमुख प्रायोजकों शामिल हैं, और नवासा व जॉय पर्सनल केयर दिल्ली कैपिटल्स के प्रमुख प्रायोजक हैं। लोटस हर्बल्स मुंबई इंडियंस का प्रमुख भागीदार है।

इससे साफ हो जाता है कि महिला प्रीमियर लीग ने आगामी क्रिकेटरों के लिए भविष्य के राह खोल दिए हैं। महिला खिलाडिय़ों की खेलों में भागीदारी बढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें भी खूब मेहनत कर रही हैं। जमीनी स्तर की प्रतिभा को निखारने के लिए खेलों इंडिया जैसे आयोजन हो रहे हैं, तो इंफ्रास्ट्रक्टर के मोर्चे पर भी खूब खर्च किया जा रहा है।

हॉकी और एथलेटिक्स में कॅरियर बनाने की चाह रखने वाली महिला खिलाडिय़ों के लिए ओडि़शा सबसे माकूल जगह बनकर उभरा है। हरियाणा कुश्ती का हॉटस्पॉट बन गया है तो यूपी उत्तर भारत में बैडमिंटन और एथलेटिक्स के साथ क्रिकेट खिलाडिय़ों की फौज तैयार कर रहा है, तो झारखंड तीरंदाजी, बिहार और हिमाचल रग्बी आदि के खिलाड़ी तैयार कर रहे हैं।

हैदराबाद बैडमिंटन में सिरमौर है तो नॉर्थ-ईस्ट मुक्केबाज तैयार कर रहा है।

उत्तर प्रदेश में महिला खिलाडिय़ों के प्रोत्साहन के लिए राज्य सरकार पूरे प्रदेश में खेल प्रतिभाओं को तलाशने की योजना पर काम कर रही है। सरकार इसके तहत शॉर्टलिस्ट की गई महिला एथलीटों को 5 लाख रु पये तक की वित्तीय सहायता प्रदान करेगी।गौरतलब है कि क्रिकेट में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए आईसीसी ने जब पहली बार अंडर-19 विश्व कप का आयोजन किया तो पूरे टूर्नामेंट में लड़कियों का दमखम देखते ही बन रहा था।

भारत ने खिताब जीता और टीम में वो लड़कियां शामिल थीं, जिन्होंने अभाव में अपने हुनर को निखारा। ग्यारह में से सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश की चार महिला क्रिकेटरों ने अपने प्रदशर्न से मोहित कर दिया।

एक तरफ बुलंदशहर जैसे छोटे कस्बे से आई हरफनमौला पार्श्वी चोपड़ा थीं तो प्रयागराज की फलक नाज और फिरोजाबाद की सोनम यादव ने अपनी मेहनत का लोहा मनवाया। हरियाणा, पश्चिम बंगाल, पंजाब जैसे राज्यों के छोटे से गांव की लड़कियों ने समाज की रूढि़वादी परंपराओं को तोड़कर लैंगिक समानता हासिल करने की लड़ाई लड़ी।

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टेक्सटाइल मेगा पार्क- मेक इन इंडिया के तहत पूरी दुनिया के लिए भारतीय उत्पाद निर्माण की ओर एक बड़ा कदम

पीयूष गोयल –
23.03.2023 – प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय वस्त्रों की समृद्ध परंपरा, एक लंबी छलांग लगाने के लिए तैयार है, जो देश को एक वैश्विक निवेश, विनिर्माण और निर्यात केंद्र बना देगी।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में सात पीएम मित्र मेगा टेक्सटाइल पार्क के निर्माण की घोषणा की है।

ये मेगा टेक्सटाइल पार्क 4,445 करोड़ रुपये के परिव्यय से निर्मित किए जाएंगे। इस क्षेत्र की अवसंरचना के लिए, यह अब तक की सबसे बड़ी पहल होगी। प्रधानमंत्री के 5एफ विजन (खेत से फाइबर से फैक्टरी से फैशन से विदेश तक) से प्रेरित होकर, पीएम मित्र पार्क योजना; आत्मनिर्भर भारत और वोकल फॉर लोकल पहल को हासिल करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

ये मेगा पार्क इस क्षेत्र को 2030 तक 250 बिलियन डॉलर के कारोबार और 100 बिलियन डॉलर के निर्यात के लक्ष्य को हासिल करने में मदद करेंगे। मेगा टेक्सटाइल पार्क वस्त्र क्षेत्र में व्यापक बदलाव करेंगे और प्रत्येक स्थल पर विश्व स्तरीय सुविधाओं, अत्याधुनिक अवसंरचना और एकीकृत मूल्य श्रृंखला की मदद से वैश्विक चैंपियन तैयार करेंगे। निर्माण और विकास करने वाली एक प्रमुख कंपनी का चयन किया जाएगा, जो पीएम मित्र पार्क की डिजाइन, योजना, निर्माण, वित्तपोषण, संचालन और रख-रखाव के लिए जिम्मेदार होगी।

यह उद्योग के लिए एक बड़ी छलांग है, क्योंकि मूल्य श्रृंखला वर्तमान में पूरे देश में बिखरी हुई है, जो श्रृंखला के प्रत्येक संपर्क-बिंदु पर लागत और विलंब में वृद्धि करती है।भारतीय उद्योग विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन जायेंगे, क्योंकि पार्क उत्पादन बढ़ाने, लागत में कटौती करने, दक्षता में सुधार करने और उच्च गुणवत्ता वाले वस्त्रों व परिधानों की आपूर्ति में मदद करेंगे।

ये मेगा पार्क रोजगार के लगभग 20 लाख प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष अवसरों का सृजन करेंगे और अनुमानित 70,000 करोड़ रुपये के घरेलू और विदेशी निवेश को आकर्षित करेंगे। ये मेगा पार्क शून्य द्रव रिसाव, साझा अपशिष्ट शोधन संयंत्र, उत्सर्जन मुक्त नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग और वैश्विक सर्वोत्तम तौर-तरीकों को अपनाने के साथ, सतत विकास के शानदार उदाहरण होंगे। ये मेगा पार्क ऐसे उत्पादों के निर्माण करने के प्रधानमंत्री के आह्वान के अनुरूप हैं जिनमें कोई खामी न हो और पर्यावरण पर जिनका कोई दुष्प्रभाव न हो।यह रेखांकित करना प्रासंगिक है कि सदियों से, भारतीय वस्त्रों ने वैश्विक पहचान बनाई है, लेकिन दुर्भाग्य से, पिछली सरकारों द्वारा इस क्षेत्र को काफी अनदेखा किया गया। यह प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता थी, जिसके तहत वस्त्र क्षेत्र के लिए पीएम मित्र योजना शुरू की गयी है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के मुख्य आधारों में से एक- वस्त्र क्षेत्र, भारतीय निर्यात का एक अहम हिस्सा है और इस क्षेत्र में साधारण किसानों से लेकर शहर के संपन्न निवासियों व व्यापार जगत के अग्रणी लोग तक शामिल हैं। वस्त्र क्षेत्र लाखों लोगों के लिए आजीविका का स्रोत है।पीएम मित्र पार्क स्थापित करने के लिए 13 राज्यों से 18 प्रस्ताव प्राप्त हुए थे। एक पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से सात मेगा पार्कों का चयन किया गया, जिन्हें पीएम गतिशक्ति राष्ट्रीय अवसंरचना मास्टरप्लान द्वारा मान्यता दी गयी थी।

यह सहयोगी संघवाद का एक और उदाहरण है, क्योंकि केंद्र और संबंधित राज्य, दोनों ही विशेष प्रयोजन कंपनी (एसपीवी) के भागीदार होंगे, जो इन मेगा पार्कों की स्थापना और प्रबंधन करेगी। इन पार्कों की स्थापना हेतु राज्य सरकारें कम से कम 1,000 एकड़ भूमि उपलब्ध करायेंगी। राज्य सरकारें उत्पादन प्रक्रिया के सुचारु संचालन एवं व्यापार करने में आसानी को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक अनुकूल व स्थिर नीतिगत व्यवस्था के साथ-साथ बिजली एवं पानी की आपूर्ति तथा कचरे के निपटारे की एक भरोसेमंद व्यवस्था तथा एकल खिड़की मंजूरी की एक कारगर सुविधा भी प्रदान करेंगी।इन मेगा पार्कों में उत्कृष्ट बुनियादी ढांचे एवं प्लग-एंड-प्ले सुविधाओं के साथ-साथ वस्त्र उद्योग के लिए आवश्यक प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संबंधी सहायता भी उपलब्ध होंगी।

ये पार्क एक ऐसा अनूठा मॉडल पेश करेंगे जहां केन्द्र और राज्य सरकारें निवेश बढ़ाने, नवाचार को प्रोत्साहित करने, रोजगार सृजित करने और वस्त्र के क्षेत्र में भारत को दुनिया में अग्रणी बनाने हेतु मिलकर काम करेंगी।वस्त्र उद्योग ने सरकार की इस महत्वपूर्ण पहल के प्रति उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया दी है। सरकार द्वारा यह पहल सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के बाद शुरू की गई है। सीआईआई और फिक्की जैसे शीर्ष उद्योग संगठनों के साथ-साथ वस्त्र क्षेत्र से जुड़े प्रमुख उद्योग संघों ने पीएम मित्र मेगा पार्कों की स्थापना की घोषणा की सराहना की है।

उद्योग संगठनों ने यह उम्मीद व्यक्त की है कि अपेक्षाकृत कम लॉजिस्टिक्स लागत, आधुनिक बुनियादी ढांचा, वैश्विक स्तर पर व्यापार की संभावनाएं और केन्द्र एवं राज्य सरकारों की सहायक नीतियां भारतीय वस्त्र उद्योग को नई ऊंचाइयों पर ले जायेंगी और भारतीय व विदेशी उपभोक्ताओं को प्रतिस्पर्धी कीमतों पर उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद उपलब्ध करायेंगी।

वस्त्र मंत्रालय इन परियोजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करेगा। मंत्रालय प्रत्येक पार्क के एसपीवी को विकास हेतु पूंजीगत सहायता के रूप में ग्रीनफील्ड पार्कों के लिए 500 करोड़ रुपये और ब्राउनफील्ड पार्कों के लिए 200 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान करेगा। इसके अलावा, वह कार्यान्वयन को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से प्रत्येक पार्क में स्थित इकाइयों को 300 करोड़ रुपये तक की राशि प्रदान करेगा।

यह कदम अतिरिक्त प्रोत्साहन देने हेतु अन्य सरकारी योजनाओं के साथ समन्वय की सुविधा भी प्रदान करेगा।पीएम मित्र के प्रावधान वैसे मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए सरकार की विभिन्न पहल के साथ सामंजस्य बिठाते हैं, जो विकसित बाजारों में हमारे भारतीय वस्त्रों, परिधानों तथा कई अन्य क्षेत्रों के लिए व्यापार की संभावनाओं को बेहतर बनाते हैं।

भारत पहले ही संयुक्त अरब अमीरात एवं ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर चुका है और कनाडा, ब्रिटेन एवं यूरोपीय संघ के साथ इस संबंध में बातचीत कर रहा है। इन प्रयासों से भारतीय वस्त्रों को लाभकारी विकसित बाजारों में अपनी पैठ मजबूत करने में मदद मिलेगी और वस्त्र एवं परिधान के वैश्विक व्यापार में देश की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि होगी।भारत की गिनती पहले ही दुनिया के सबसे बड़े वस्त्र एवं परिधान निर्यातक देशों में से एक के रूप में होती है।

लेकिन अब जबकि देश 2047 तक प्रधानमंत्री मोदी के निर्णायक एवं दूरदर्शी नेतृत्व में एक विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है, अमृत काल में हमारी आकांक्षा दुनिया का सबसे बड़ा वस्त्र निर्यातक देश बनने की है। पीएम मित्र के जरिए हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

(लेखक, केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग, उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरणतथा वस्त्र मंत्री और राज्यसभा में सदन के नेता हैं)

ग्लोबल वार्मिंग के परिणाम

अजय दीक्षित –

ग्लोबल वार्मिंग संकट को लेकर मीडिया व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठन लगातार चेताते रहे हैं वह अब हकीकत बनता जा रहा है । विडम्बना यह है कि इस संकट की गम्भीरता के प्रति न तो नीति-नियंता गंभीर नजर आये और न ही जनता के स्तर पर जागरूकता दिखाई दे रही है । यह संकट कितना बड़ा है, वैश्विक संस्था क्रॉस डिपेन्डेन्सी इनिशिएटिव यानि एक्सडीआई की रिपोर्ट उजागर कर देती है । संस्था ने दुनिया के तमाम राज्यों, प्रांतों और क्षेत्रों में निर्मित पर्यावरण केन्द्रित भौतिक जलवायु के जोखिम का तार्किक विश्लेषण किया है ।

दरअसल, जलवायु परिवर्तन के चलते हमारी फसलों, आबोहवा तथा जल स्त्रोतों पर पडऩे वाले प्रभावों के आकलन के बाद पचास संवेदनशील क्षेत्रों का चयन किया गया है । चिंता की बात यह है कि अमेरिका व चीन के बाद भारत के तमाम राज्य इस संकट वाली सूची में शामिल हैं । उसमें पंजाब भी शामिल है । यूं तो इस सूची में बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात व केरल भी शामिल हैं, लेकिन पंजाब को लेकर हमारी चिंता बड़ी होनी चाहिये । इसकी एक वजह पंजाब का राष्ट्रीय खाद्यान्न पूल में बड़ा योगदान होना है ।

यदि ग्लोबल वार्मिंग संकट का राज्य में विकट प्रभाव नजर आता है तो देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिये भी चुनौती पैदा हो सकती है । वहीं दूसरी ओर पंजाब संवेदनशील सीमावर्ती राज्य है, जिसकी किसी तरह की समस्या जटिलता को जन्म दे सकती है । यद्यपि देश के अन्य राज्यों में जलवायु परिवर्तन के जोखिम को भी हल्के में लेने की जरूरत नहीं है । इस समस्या की गम्भीरता को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर इस चुनौती के मुकाबले के लिये रणनीति बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वह भी ऐसे वक्त में जब देश में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.

हमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले संकट के प्रति सचेत होना पड़ेगा । दरअसल, इस संकट की बड़ी मार समाज के कमजोर वर्गों व खेतिहर श्रमिक जैसे पेशों पर पड़ती है। दरअसल, इस गंभीर समस्या के प्रति जहां केंद्र व राज्यों को मिलकर मुहिम चलाने की जरूरत है, वहीं किसानों व आम लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि बढ़ते तापमान से हमारी फसलों की उत्पादकता घट जाती है। किसानों ने पिछले साल भी खेतों में लहलहाती फसलों को लेकर जो उम्मीदें जगायी थीं, वो अधिक तापमान होने से अनाज के उत्पादन व गुणवत्ता में आई गिरावट के चलते टूट गई।

कमोबेश ऐसी ही स्थिति इस बार भी नजर आ रही है, जिसने किसानों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। ऐसे में हमारे कृषि वैज्ञानिकों को आगे आने की जरूरत है। साथ ही इस दिशा में अब तक प्रयोगशालाओं में जो शोध हुए है. उसे खेत-खलिहानों तक पहुंचाने की जरूरत है। यह तय है कि दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले विकसित देश इस दिशा में कई दशकों से जिस तरह लापरवाह बने हुए हैं, उसमें जल्दी कोई बदलाव होता नजर नहीं आता।

ऐसे में हमें हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने, जीवाश्म ऊर्जा से परहेज तथा प्रकृति अनुकूल नीतियों को प्रश्रय देना होगा। इतना तय है कि हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति और प्रकृति के चक्र में मानवीय हस्तक्षेप ने समस्या को जटिल बनाया है। ऐसे में हमें वृक्ष लगाने तथा हरित इलाके के विस्तार को प्राथमिकता देनी होगी। मौसम में असामान्य बदलाव से हमारे परंपरागत जल स्रोतों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।

आने वाली पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित करने के लिये हमें जल स्रोतों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देना होगा यह तय हैं कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है जल स्रोत सिमटने लगते हैं। ऐसा ही संकट देश के कई महानगरों में मंडरा रहा है। वहीं हाल के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि से गेहूं, दलहन और तिलहन पर असर पडऩे की आशंका है। इतना ही नहीं, हमारे मौसमी फल भी इसकी जद में आ सकते हैं ।

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क्यों हिंसक हो रहे हैं बच्चे

रोहित कौशिक  –  हाल ही में इंदौर में एक छात्र द्वारा पेट्रोल डालकर जलाई गई कॉलेज की प्रिंसिपल की मौत हो गई। आरोपी छात्र के खिलाफ रासुका लगा दी गई है।कुछ दिनों पहले ही मार्कशीट न मिलने से गुस्साए एक पूर्व छात्र आशुतोष श्रीवास्तव ने इंदौर के बीएम फॉर्मेसी कॉलेज की प्रिंसिपल विमुक्ता शर्मा पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी। चार-पांच दिनों तक अस्पताल में मौत से जूझने के बाद उनकी मौत हो गई।

इसी तरह अमेरिका के फ्लोरिडा से भी छात्र द्वारा की गई हिंसा की खबर प्रकाश में आई है। फलोरिडा के मतांजस हाई स्कूल में एक छात्र ने अपने शिक्षक के सहयोगी को बुरी तरह पीटा क्योंकि उसने छात्र का वीडियो गेम छीन लिया था। कुछ समय पहले लखनऊ में पबजी खेलने से मना करने पर 16 साल के एक बेटे ने अपनी मां को मौत के घाट उतार दिया था। ये घटनाएं तो उदाहरण मात्र हैं।

भारत समेत पूरे विश्व में इस तरह की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। दरअसल, बच्चों और युवाओं पर किसी न किसी रूप में बदलते समय का प्रभाव पड़ता ही है। इस दौर में पूरे विश्व में हिंसा का तत्व प्रभावी हो गया है। हिंसा का यह तत्व प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे मानस को प्रभावित कर रहा है। हिंसा की भावना मात्र हिंसक दृश्यों को देखकर ही नहीं पनपती, बल्कि अगर किसी भी कारण से हमारे व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है और हमारा दिमाग आसानी से उस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहा है, तो भी हमारे अंदर हिंसा की भावना पैदा होती है।

दरअसल, नये दौर में दुनिया तेजी से बदल रही है। इसलिए इस माहौल में बच्चों का व्यवहार भी तेजी से बदल रहा है। इस बदलाव के कारण बच्चे अनेक दबाव झेल रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्कूल-कॉलेजों के बच्चों और युवाओं द्वारा की जाने वाली हिंसा कुंठा और दबाव के कारण होती है। यह स्थिति बच्चों और युवाओं के संदर्भ में गंभीर समस्याओं को जन्म देती है।

इसी कारण बच्चे अपने अंदर सहयोग और सदभाव की भावना विकसित नहीं कर पाते। स्कूल और कॉलेजों की शिक्षा प्रणाली भी बच्चों और युवाओं में मानिसक दबाव और तनाव पैदा कर रही है।विडंबना यह है कि बदलते माहौल में बच्चों के मनोभाव और समस्याओं को समझने की कोशिश भी नहीं की जाती। यही वजह है कि बच्चे आत्मकेंद्रित होने लगते हैं।

हमें गंभीरता से इस बात पर विचार करना होगा कि कहीं बच्चों को हिंसक बनाने में हमारा ही हाथ तो नहीं है ? अक्सर देखा गया है कि माताएं तो अपने बच्चों को समय दे देती हैं, लेकिन ज्यादातर पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते। दूसरी तरफ, सोशल मीडिया ने भी बच्चों और युवाओं के व्यवहार को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दरअसल, कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा की मजबूरी के चलते भी बच्चों को मोबाइल की ज्यादा लत लगी। इस लत ने धीरे-धीरे इस तरह अपनी जड़ें जमा लीं कि इसके दुष्परिणाम बच्चों को अपनी चपेट में लेने लगे।

परिवार भी बच्चों को मोबाइल और सोशल मीडिया से दूर रखने का कोई व्यावहारिक हल नहीं ढूंढ़ पाए। यही कारण है कि आज के बच्चे अनेक मनोवैज्ञानिक व्याधियों से ग्रस्त हैं। दरअसल, हम बच्चों और युवाओं के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश ही नहीं करते और सतही तौर पर उनकी समस्याओं पर बात करने लगते हैं। एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल गेम खेलने वाले लगभग 95 फीसदी बच्चे तनाव की चपेट में आसानी से आ जाते हैं।

करीब 80 फीसदी बच्चे गेम के बारे में हर समय सोचते रहते हैं। गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जून, 2018 में ऑनलाइन गेमिंग को एक मानसिक स्वास्थ्य विकार घोषित किया था। ऑनलाइन गेम उद्योग में भारत दुनिया में चौथे नंबर पर है। हमारे देश में 60 फीसदी से ज्यादा ऑनलाइन गेम खेलने वाले 24 साल से कम उम्र के हैं। सवाल है कि क्या इस दौर में गंभीरता के साथ इस बात को लेकर चिंतन हो रहा है कि बच्चों और युवाओं में प्रतिशोध की भावना क्यों पैदा हो रही है?

क्या कारण है कि आज हिंसक चरित्र बच्चों के आदर्श बन रहे हैं? क्यों बच्चों में धैर्य और संयम खत्म होता जा रहा है? इन सवालों के उत्तर ढूंढऩे की कोशिश की जाएगी तो उनके मूल में संवादहीनता की बात ही सामने आएगी। यह संवादहीनता द्विपक्षीय है यानी एक तरफ बच्चों का परिवार से संवाद नहीं है तो दूसरी तरफ परिवार का भी बच्चों से संवाद नहीं है।

अगर कहीं परिवार का बच्चों से संवाद है, तो उसमें भी नकारात्मकता का भाव ज्यादा है। यही कारण है कि बच्चों और युवाओं में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। जब तक बच्चों और युवाओं से परिवार और शिक्षण संस्थानों का सकारात्मक संवाद स्थापित नहीं होगा तब तक बच्चों में धैर्य और संयम जैसे गुण विकसित नहीं हो पाएंगे।

इस दौर में जिस तरह से भारत समेत पूरे विश्व के बच्चों और युवाओं में हिंसा की भावना बढ़ रही है, उसे देखते हुए परिवार और शिक्षण संस्थानों को कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे। इन प्रयासों के व्यावहारिक पहलुओं पर भी ध्यान देने की कोशिश करनी होगी।

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सोना इसलिए सोणा है

सतीश सिंह  –  आजादी के 75 सालों में सोने की कीमत आसमान पर पहुंच गई है। भारत जब आजाद हुआ था, तब 10 ग्राम सोने की कीमत 88.62 रु पये थी और 1964 में इसकी कीमत कम होकर 63.25 रुपये के स्तर पर पहुंच गई थी।इस तरह, सोने की कीमत 75 सालों में चंद रुपयों से आगे बढ़ते हुए 50 हजार रुपये से भी अधिक के स्तर पर पहुंच गई है। आज 10 ग्राम सोने की कीमत 58 हजार रुपये है।

आजादी के समय दिल्ली से मुंबई के हवाई मार्ग के किफायती वर्ग का किराया 140 रुपये था, जो उस समय के 10 ग्राम सोने की कीमत से लगभग दोगुना था। आज इस स्थिति में आमूलचूल बदलाव आ गया है, और हवाई जहाज का किराया 10 ग्राम सोने की कीमत से कई गुणा कम हो गया है। भारत में सोना इतना ज्यादा सोणा इसलिए है क्योंकि भारतीय महिलाएं सोने के प्रति दीवानी हैं। यह दीवानगी अनादिकाल से है।

प्राचीनकाल में तो पुरु ष भी सोने के गहने पहना करते थे। इसके प्रमाण हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो काल के अवशेषों में मिले हैं। मई, 2022 में हड़प्पाकालीन राखीगढ़ी में खुदाई में सोने के कड़े, बाली आदि आभूषण मिले थे, जिन्हें पुरुष पहना करते थे। खुदाई में स्त्रियों द्वारा पहनी जाने वाली चूडिय़ां, हार, अंगूठी, झुमके आदि भी मिले हैं। स्त्री और पुरु ष द्वारा पहने जाने वाले गहनों के खुदाई में मिलने से साबित होता है कि सोने के गहनों को लेकर भारतीय सदियों से आसक्त रहे हैं।

भारतीयों के रहन-सहन, सभ्यता-संस्कृति आदि में सोना इस तरह रचा-बसा है कि इसके बिना उनका जीवन अधूरा है। भारतीय स्त्रियों के लिए सोना उनके लिए सिर्फ गहना नहीं है, बल्कि सुहाग, स्वाभिमान और गौरव का प्रतीक है। हिंदू धर्म के 16 संस्कारों अर्थात जन्म से मृत्यु तक में सोने का लेन देन किया जाता है। बच्चे के जन्म के समय उसे कमर में काले धागे के साथ सोने की लटकन पहनाई जाती है।

यज्ञोपवीत संस्कार के समय भी सोने का गहना बच्चे को पहनाया जाता है, घर में पहली बार प्रवेश करने पर सास बहू को सोने के जेवर सौगात में देती है। मृत्यु के समय भी ब्राहमण को दान में सोना दिया जाता है। इस तरह, किसी भी शुभ मुहूर्त में, शादी, त्योहार या मृत्यु के समय सोने की खरीददारी की जाती है, जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं होता। वहां लोग शादी में बहुत सारे गहने नहीं पहनते। न ही गिफ्ट में सोने के जेवर या सोना देने का चलन है।

अमेरिका और यूरोप में शादी में सिर्फ सोने की रिंग दी जाती है, जो 9 या 12 कैरेट की होती है, जबकि भारत में शादी में 22 या 24 कैरेट का सोना जेवर के रूप में लड़की और लड़के को दिया जाता है। आजकल शादी में सोने का बिस्किट भी सौगात में दिया जाता है। र्वल्ड गोल्ड काउंसिल (डब्ल्यूजीसी) की मई, 2020 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिलाओं के पास लगभग 24 हजार टन सोना है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा सोने का खजाना माना जा सकता है।

डब्ल्यूजीसी के मुताबिक भारतीय महिलाएं दुनिया के कुल स्वर्ण भंडार का 11 प्रतिशत हिस्सा आभूषणों के रूप में पहनती हैं, जो वि के शीर्ष 5 देशों के सोने के कुल भंडार से अधिक है। आज अमेरिका के पास 8,000 टन, जर्मनी के पास 3,300 टन, इटली के पास 2,450 टन, फ्रांस के पास 2,400 टन और रूस के पास 1,900 टन सोना है। दक्षिण भारत के राज्यों की देश के कुल गहने की खरीदारी में 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी है, जिसमें से अकेले तमिलनाडु की हिस्सेदारी 28 प्रतिशत है। भारत में फिल्म नायिकाएं, बड़े कारोबारिया कॉरपोरेट घराने या राजे-रजवाड़ों के वारिसों की बहु-बेटियां शादी या किसी भी त्योहार या किसी पार्टी या कार्यक्रम में सोने के जेवरात पहनना पसंद करती हैं।

इस वजह से आज शादी-विवाह में अरबों-खरबों रुपये सोने के जेवर खरीदने में खर्च किए जा रहे हैं। शादी के मौसम या दीवाली या अक्षय तृतीया में सोने या सोने के गहनों की जमकर खरीदारी की जाती है क्योंकि आजकल सौगात में सोना या सोने के जेवर देने का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। भारत के मंदिरों में भी अकूत सोना जमा है।इस संबंध में डब्ल्यूजीसी ने 2020 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार लगभग 4 हजार टन से अधिक सोना भारत के मंदिरों में जमा है। केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में 1,300 टन सोना जमा है, जबकि आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में 300 टन सोना जमा है।

चूंकि भारत सोने की मांग की घरेलू आपूर्ति खुद से करने में असमर्थ है, इसलिए उसे घरेलू जरूरत पूरा करने के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत स्विट्जरलैंड से 45.8 प्रतिशत, यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) से 12.7 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका और गिनी से 7.3 प्रतिशत और पेरू से 5 प्रतिशत सोना आयात करता है।सोना खरीदने के मामले में दुनिया में चीन के बाद भारत दूसरे स्थान पर है, लेकिन भारत में सोने की मांग जिस तरह से लगातार बढ़ रही है, उससे प्रतीत हो रहा है कि जल्द ही भारत चीन को पछाड़ करके दुनिया में सबसे अधिक सोना खरीदने वाला देश बन जाएगा। भारत में सोने के उपयोग में निरंतर इजाफा हो रहा है।

सोने की आयात में तेजी की वजह से देश के व्यापार घाटे में भी इजाफा हो रहा है। साथ ही रुपया भी अमेरिकी डॉलर की तुलना में कमजोर होता है। दुनिया में सबसे मजबूत करंसी अमेरिकी डॉलर है। इसलिए लगभग सभी देश आयात के लिए दूसरे देश के कारोबारियों को डॉलर में भुगतान करते हैं। फिलवक्त, रूस-यूक्रेन के बीच में युद्ध और मंहगाई की वजह से रुपया लगातार कमजोर हो रहा है, और रुपये को कमजोर करने में सोने के बढ़ते आयात की भी बड़ी भूमिका है।

इस वजह से जुलाई, 2022 में रुपये में कमजोरी को रोकने और सोने का आयात कम करने के लिए सोने पर आयात शुल्क 7.5 से बढ़ाकर 12.5 प्रतिशत कर दिया गया था। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि वित्त वर्ष 2021-22 में देश में सोने के आयात में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी और सोने के कुल आयात की कीमत लगभग 37,44 अरब रुपये हो गई थी।

पड़ताल से साफ है कि भारत में आने वाले दिनों में सोने की मांग में इजाफा होगा और इसकी मांग में बढ़ोतरी होने से कीमत में भी वृद्धि होगी। मौजूदा हालात में आयात शुल्क में बढ़ोतरी भी सोने का आयात को रोकने में समर्थ नहीं है क्योंकि भारत में सोने को लेकर आम जन पागल हैं। इसे भारत के लोग निवेश नहीं मानते। यह भारतीय स्त्रियों की धमनियों में बहने वाले खून के समान है, जिसे शिराओं से बाहर कभी भी नहीं निकाला जा सकता।

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राजनीति : नीतीश के मन में क्या है

*अवधेश कुमार*

पिछले कुछ महीनों में शायद ही ऐसा कोई सप्ताह होगा जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को आगामी लोक सभा चुनाव में पराजित करने संबंधी वक्तव्य न दिया हो।बिहार ही नहीं देश भर में रहने वाले बिहार के निवासियों से आप बात करिए तो वे यही कहेंगे कि नीतीश को राजनीति करनी है करें लेकिन बिहार की जनता ने उनको भाजपा के साथ मुख्यमंत्री बनाया उसकी जिम्मेवारी का पालन जरूर करें।

तो क्या लोगों की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि नीतीश की प्राथमिकता में शासन-प्रशासन से ज्यादा भाजपा विरोधी राजनीति है? ऐसा है तो इसके परिणाम क्या आ रहे हैं? बिहार काफी समय से कानून व्यवस्था के मोर्चे पर कमजोर होते जाने के साथ शिक्षा व्यवस्था के पतन, विकास के कार्यों की मंद गति आदि से बुरी तरह ग्रस्त है। किसी सरकार का मुख्य फोकस होना चाहिए कि कैसे बिहार में कानून व्यवस्था पटरी पर आए, अर्थव्यवस्था संभले, शिक्षा तंत्र अपनी स्वाभाविक भूमिका में लौटे।

आप प्रदेश का कोई भी समाचारपत्र उठा लीजिए, वेबसाइट देख लीजिए सरेआम गोली चलने, मारपीट, हत्या आदि की खबरें आपको विचलित करेंगी। स्वयं शिक्षक और शिक्षा तंत्र में शीर्ष पर बैठे लोग आप को अपनी ही व्यवस्था से शिकायत करते मिल जाएंगे। परीक्षाएं नकल और कदाचार की पर्याय हैं। विविद्यालयों की दशा कोई भी जाकर देख सकता है। विज्ञान के किसी शिक्षक से बात करिए और वो ईमानदार हैं तो बताएंगे कि पहले कम से कम प्रैक्टिकल में उनके पास कुछ लोग पैरवी करने आ जाते थे ताकि परीक्षार्थी को अच्छे अंक मिल सकें। अब उसके लिए भी नहीं आते क्योंकि हमें सबको पास कर देना है।

लोग अपने बच्चों को निजी संस्थानों या कोचिंग में पढ़ाने के लिए विवश हैं। यही स्थिति कानून-व्यवस्था के मामले में भी है। भय पूरे माहौल में है कि कहीं 90 के दशक वाली स्थिति पैदा न हो जाए। आप वहां निर्माण का काम करने वाले या छोटे-मोटे व्यापार करने वालों के बीच सर्वे कर लीजिए। आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो बताएंगे कि उन्हें काम करने के लिए दादागिरी टैक्स देना पड़ रहा है। धमकी-मारपीट से लेकर कई तरह से परेशानियां सामने आती हैं। ज्यादातर लोग पुलिस में शिकायत करने से बचते हैं।

प्रशासनिक भ्रष्टाचार, अनदेखी और स्थानीय-प्रादेशिक राजनीतिक संरक्षण के कारण शराब और मादक द्रव्यों का भयानक तंत्र पूरे प्रदेश में विकसित है। इन अस्वीकार्य परिस्थितियों के रहते कोई कैसे मान ले कि वर्तमान सरकार की प्राथमिकता में राज्य का विकास और सुशासन है? क्या कोई बता सकता है कि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने इस उद्देश्य के लिए कोई बड़ी नियोजित बैठक की है कि बिहार को हमें सामाजिक-आर्थिक विकास में अन्य राज्यों से आगे ले जाना है? नीतीश और तेजस्वी पड़ोस के उत्तर प्रदेश को देखें।

योगी आदित्यनाथ के भगवा को लेकर राजनीतिक टिप्पणी आप करिए, लेकिन देखें कि आर्थिक-सामाजिक-विकास, सांस्कृतिक संरक्षण तथा कानून-व्यवस्था के मोच्रे पर उत्तर प्रदेश किस तरह देश के शीर्ष राज्यों की कतार में खड़ा हो गया है? अभी लखनऊ में 2 दिनों के निवेशक सम्मेलन का वह दृश्य उत्तर प्रदेश में पहले दुर्लभ था। हम नहीं कहते कि जितने एमओयू हस्ताक्षरित हुए हैं, सारे धरती पर उतर ही जाएंगे लेकिन देश और बाहर के पूंजी निवेशक, कारोबारी, उद्योगपति उप्र में पूंजी लगाने तथा काम करने की घोषणा करते हैं, तो यह 2017 के पहले की स्थिति को देखते हुए सामान्य तस्वीर नहीं है।

यही नहीं, योगी आदित्यनाथ के मुंबई दौरे में फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग भी उनकी बैठकों में शामिल होकर उम्मीद करते हैं कि भविष्य में उप्र फिल्म निर्माण का बड़ा केंद्र होगा। कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर तो बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। हालांकि कानपुर और बांदा जैसी घटनाएं निश्चित रूप से परेशान करती हैं किंतु कोई भी कह सकता है कि यह उप्र के लिए सामान्य स्थिति नहीं, बल्कि अपवाद है। उत्तर प्रदेश में तीर्थयात्रियों व पर्यटकों की संख्या में पिछले कुछ वर्षो में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है।

क्या बिहार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री इससे सीख नहीं ले सकते? योगी आदित्यनाथ और उनकी टीम भी राजनीति करती है, लेकिन राजनीतिक ताकत के लिए मोदी की थीम बहुत सीधी है-विकास और कानून व्यवस्था के मोर्चे पर उच्चतम स्तर पर जाने का लक्ष्य रखिए, समाज के निचले तबके तक विकास और कल्याण कार्यक्रमों को पहुंचाने, नई पीढ़ी के लिए बेहतर शिक्षा और हरसंभव रोजगार पर काम करिए, धार्मिंक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक महत्त्व के स्थानों का विकास करते हुए उन्हें संरक्षण दीजिए।

आपको राजनीतिक सफलता का ठोस आधार मिल जाएगा। नीतीश और तेजस्वी को भाजपा से मुकाबला करना है तो उनकी जो अच्छाइयां हैं, उन्हें अपनाने की कोशिश करें। आखिर, मोदी राष्ट्रीय क्षितिज पर आए तो उन्होंने लोगों के सामने गुजरात में अपने कार्यों को रखा जिसे मीडिया ने गुजरात मॉडल का नाम दिया।

लोग यह तो सोचेंगे कि मोदी के मुकाबले नीतीश अगर विपक्षी दलों का गठबंधन कर सरकार का स्थानापन्न करना चाहते हैं, तो विकास, कानून और व्यवस्था आदि के मुद्दे पर उनके तरकश में क्या है? अगर आपके पास लोगों को दिखाने और विश्वास दिलाने के लिए इन मामलों में सफलताएं हैं, तभी आपकी राजनीति को ताकत मिल सकती है। केवल मोदी हटाओ और विपक्षी दलों को एक करो का नारा पहले भी असफल रहा है।

कारण, इनके पास मोदी और भाजपा के समानांतर जनता को विश्वास दिलाने के लिए उपलब्धियों का ठोस आधार नहीं रहा। इसे बिहार का दुर्भाग्य कहेंगे कि जब-जब लोगों को उम्मीद बनती है तभी नेता का माथा घूम जाता है। नीतीश ने 2005 से 2010 के बीच जिस तरह काम किया उससे बिहार के साथ पूरे देश में उम्मीद बढ़ी।

भाजपा का उन्हें पूरा साथ मिला। जब से उनके अंदर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं कुलांचे मारने लगीं, सुशासन हाशिए पर चला गया। लगता नहीं कि नीतीश शांत मन से बैठकर इस दिशा में विचार करने के लिए किंचित भी तैयार हैं।

उनके साथ के लोगों को तो लगता ही नहीं कि शासन-प्रशासन से कोई सरोकार हो। स्वाभाविक ही समय आने पर बिहार के लोग अपनी प्रतिक्रिया देंगे।

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जम्मू-कश्मीर : संविधान और लोकतंत्र, दोनों की रक्षा

*प्रमोद भार्गव*

सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू कश्मीर में विधानसभा और संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। इसी के साथ इस केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव कराने के रास्ते की बड़ी बाधा दूर हो गई।अब चाहे तो केंद्र सरकार वहां चुनाव कराने का फैसला ले सकती है। न्यायालय ने यह भी साफ कर दिया है कि परिसीमन पर प्रतिबंध से इंकार वाले इस निर्णय का जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून-2019 की वैधानिकता को चुनौती देने वाले प्रकरण की सुनवाई पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में धारा -370 को शून्य किए जाने के केंद्र के फैसले के विरु द्ध शीर्ष अदालत की संविधान पीठ में अलग सुनवाई चल रही है। यह फैसला न्यायमूर्ति एसके कौल एवं एएस ओका की पीठ ने हाजी अब्दुल गनी खान और मोहम्मद अयूब मट्टू की याचिका पर दिया है।

जम्मू-कश्मीर के बंटवारे और विधानसभा सीटों के विभाजन संबंधी पुनर्गठन विधेयक-2019, 31 अक्टूबर, 2019 को लागू कर दिया गया था। विधि एवं न्याय मंत्रालय ने 6 मार्च, 2020 को परिसीमन अधिनियम, 2002 की धारा-3 के तहत इसके पुनर्गठन की अधिसूचना जारी की थी। इसी में शीर्ष अदालत की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग के गठन की बात कही गई थी। इसे भंग करने वाली याचिका में दावा किया गया था कि परिसीमन की कवायद संविधान की भावनाओं के विपरीत है।

खैर, इसके लागू होने के बाद राज्य की भूमि ही नहीं, राजनीति का भी भूगोल बदल गया। सही मायनों में परिसीमन से भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं तो दूर हुई ही, अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिए सीटें भी आरक्षित कर दी गई हैं। जब भी राज्य में चुनाव होगा, इसी रिपोर्ट के मुताबिक होगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के गठन की वैधता को सही ठहराया है। जम्मू-कश्मीर का करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र लद्दाख में है। इसी क्षेत्र में लेह आता है, जो अब लद्दाख की राजधानी है।

यह क्षेत्र पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता है। लगातार 70 साल लद्दाख, कश्मीर के शासकों की बदनीयति का शिकार रहा है। अब तक यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थीं, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा, आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोगों में केंद्र शासित प्रदेश बनाने की चिंगारी सुलग रही थी। अप इस मांग की पूर्ति हो गई है।

इस मांग के लिए 1989 में लद्दाख बुद्धिस्ट एसोशिएशन का गठन हुआ और तभी से यह संस्था कश्मीर से अलग होने का आंदोलन छेड़े हुए थी। 2002 में लद्दाख यूनियन टेरिटरी फ्रंट के अस्तित्व में आने के बाद इस मांग ने राजनीतिक रूप ले लिया था। 2005 में इस फ्रंट ने लेह हिल डवलपमेंट काउंसिल की 26 में से 24 सीटें जीत ली थीं। इस सफलता के बाद इसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

इसी मुद्दे के आधार पर 2004 में थुप्स्तन छिवांग सांसद बने। 2014 में छिवांग भाजपा उम्मीदवार के रूप में लद्दाख से फिर सांसद बने। 2019 में भाजपा ने लद्दाख से जमयांग सेरिंग नामग्याल को उम्मीदवार बनाया और वे जीत गए। लेह-लद्दाख क्षेत्र विषम हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण साल में छह माह लगभग बंद रहता है।

सड़क मागरे और पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमट कर रह जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का विलोपित संविधान कहता था कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्सा के घनत्व के आधार पर विधानसभा और लोक सभा क्षेत्रों का निर्धारण होना चाहिए।

इसी आधार पर राज्य में 2005 में परिसीमन होना था लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। बहाना बनाया कि 2026 के बाद होने वाली जनगणना के प्रासंगिक आंकड़े आने तक परिसीमन नहीं होगा। परिसीमन से पहले जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें थीं।

इनमें से 24 सीटें पीओके में आती हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कब्जे में आ जाएगा। बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता है। अब तक कश्मीर यानी घाटी में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 विधानसभा सीटें हैं। 2011 की जनगणना के आधार पर राज्य में जम्मू संभाग की जनसंख्या 53 लाख 78 हजार 538 है।

यह प्रांत की 42.89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25.93 फीसदी क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68 लाख 88 हजार 475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54.93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15.73 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते थे।

इसके अलावा राज्य के 58.33 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख संभाग में महज 4 विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित कर दी गई हैं। साफ है, जनसंख्यात्मक घनत्व और संभागवार भौगोलिक अनुपात में बड़ी असमानता थी, जनहित में इसे दूर किया जाना, जिम्मेवार सरकार की जिम्मेवारी बनती थी। केंद्र सरकार द्वारा गठित आयोग ने यह असमानता दूर करके संविधान और लोकतंत्र, दोनों की रक्षा की है।

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बिहार : आतंकवाद का खतरा

*अवधेश कुमार –

हिंडनबर्ग हंगामे के बीच बिहार से पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के संदिग्धों की गिरफ्तारी सुर्खियां नहीं बन पाई।
हालांकि भारत की आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण घटना है। जैसी कि जानकारी है, बिहार के पूर्वी चंपारण यानी मोतिहारी जिले के कई स्थानों से छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया। मामला कितना गंभीर होगा इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बिहार पुलिस की कार्रवाई के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) तो लगी थी ही, उत्तर प्रदेश पुलिस का आतंकवादी निरोधी दस्ता या एटीएस तथा इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी भी वहां पहुंचे।

पकड़ा गया एक संदिग्ध रियाज मारूफ पहले से ही सुरक्षा एजेंसियों के रडार पर था क्योंकि पिछले वर्ष पीएफआई के बिहार में सबसे खतरनाक मॉड्यूल, जिसे फुलवारी शरीफ-पटना मॉड्यूल कहा जाता है, में भी इसका नाम आया था। बिहार और देश की राजनीति में इस समय एक पक्ष सुरक्षा एजेंसियों की हर कार्रवाई पर संदेह की उंगली उठाता है, और इस मामले में भी ऐसा ही है। किंतु इस आधार पर हम पीएफआई जैसे कट्टरपंथी संगठनों के खतरे का मूल्यांकन नहीं कर सकते। यूपीए सरकार के समय एनआईए के आतंकवाद संबंधी दस्तावेज देखें तो आपको बिहार मॉड्यूल नामक शब्द मिलेगा। चाहे 2006 का मुंबई के उपनगरीय रेलवे का विस्फोट हो या वाराणसी के संकट मोचन मंदिर पर आतंकी हमला या उसके बाद दिल्ली में विस्फोट। ऐसी अनेक घटनाएं थीं जिनमें बिहार से जुड़े आतंकी सीधे तौर पर शामिल थे। दरभंगा से लेकर किशनगंज एवं पटना से जुड़े फुलवारी शरीफ के निवासियों की दूसरे राज्यों से गिरफ्तारियां हुई। यहां तक कि खूंखार आतंकी यासीन भटकल की शरणस्थली भी बिहार और उससे लगा नेपाल ही साबित हुआ। दुर्भाग्य से देश की स्मृति बहुत कमजोर है।

कोई घटना होती है तो हम छाती पीटते हैं, मीडिया, सोशल मीडिया पर कुछ समय अभियान चलता है, राजनीतिक नेताओं के वक्तव्य आते हैं, और फिर धीरे-धीरे सब शांत। जिन लोगों को पिछले वर्ष पीएफआई के पटना- फुलवारी शरीफ मॉड्यूल के सामने आने से हैरत हुई, उनको आतंकवाद के संदर्भ में बिहार की पृष्ठभूमि का ध्यान नहीं था। ऐसा होता तो कतई हैरत व्यक्त नहीं करते। हालांकि इससे बड़ी त्रासदी कुछ नहीं हो सकती कि पीएफआई मॉड्यूल के सामने आने के बावजूद देश ने बिहार को आतंकवाद के प्रमुख रडार पर मानने का व्यवहार नहीं दिखाया। आज भी बिहार की राजनीति में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो मानते हैं कि पुलिस और एनआईए ने तिल का ताड़ बनाया। साफ हो गया है कि पीएफआई मॉड्यूल में अपना एक लक्ष्य बनाया था। उसमें आजादी के 100 वर्ष पूरा होने पर भारत को इस्लामिक राज में परिणत करना सर्वप्रमुख था। गजवा ए हिंद शब्द के उसके दस्तावेज में इसका सीधा उल्लेख था। इसके लिए वे जगह-जगह ट्रेनिंग भी दे रहे थे। उनकी योजना में दलितों और पिछड़ों को अंबेडकर के नाम पर भ्रमित करना भी शामिल था।

बावजूद सच देखते हुए बिहार के राजनेता और बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका इसे खतरा मानने को तैयार नहीं तो उस पर किस प्रकार की टिप्पणी की जा सकती है। यह आत्मघाती व्यवहार है। बिहार की मौजूदा सरकार एवं संपूर्ण राजनीतिक प्रतिष्ठान को स्वीकार करना चाहिए कि उनका प्रदेश आतंकियों का केंद्र बन चुका है। राजनीतिक नेतृत्व की सोच के अनुसार ही पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां कार्रवाइयों की दिशा निर्धारित करती हैं। उनके जिम्मे सुरक्षा है, इसलिए राजनीतिक नेतृत्व की विचारधारा से परे भी कई बार कार्रवाइयां होती हैं। पर इनमें उस प्रकार की प्रखरता और तत्परता नहीं होती जैसी होनी चाहिए। वर्तमान बिहार ऐसी परिस्थिति से गुजर रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा भाजपा का साथ छोड़ राजद से हाथ मिलाने के बाद की तस्वीर किसी तरह सामान्य नहीं मानी जा सकती। स्वयं जनता दल के अंदर ही अंतर्कलह का विस्फोट हो चुका है।

बिहार की बहुसंख्या मानती है कि नीतीश के इस कदम के पीछे किसी तरह की नैतिक, व्यावहारिक या तार्किक सोच नहीं है। नीतीश अभी तक अपने ही साथियों को समझाने में सफल नहीं हैं कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया। इस कारण जनता दल के अंदर प्रकट-अप्रकट तीव्र हलचल है। अनेक नेता, जो बोलते नहीं, मानते हैं कि नीतीश के इस कदम से उनकी पार्टी की मृत्युगाथा लिख दी गई है। इस कारण उनका ध्यान बिहार की ज्वलंत समस्याओं से ज्यादा अपने राजनीतिक हितों की सुरक्षा और भविष्य की राजनीति पर ज्यादा है। उपेंद्र कुशवाहा का वर्तमान व्यवहार इसका उदाहरण मात्र है। दूसरी ओर राजद के अंदर भी यही भाव है कि नीतीश आज जरूर आए हैं, लेकिन इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। संभव है ये भाजपा का विरोध करते-करते फिर उस ओर जाने की कोशिश करें। एक दूसरे के प्रति सत्तारूढ़ खेमे में अविश्वास और आशंकाओं के बीच सरकार और प्रशासन सुचारू रूप से नहीं चल सकता। यह स्थिति निश्चय ही चिंता का विषय है।

कायदे से अभी तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार में जिहादी आतंकवाद को लेकर बैठकर आयोजित करनी चाहिए थी। आखिर, पिछले वर्ष अग्निवीर योजना के विरुद्ध सबसे ज्यादा हिंसा बिहार में हुई थी। लग रहा था कि कुछ प्रशिक्षित, प्रोफेशनल विरोध के नाम पर उपद्रव और अग्निकांड में शामिल थे। बिहार के मुख्यमंत्री की ओर से एक बयान नहीं आया जिसमें कहा जाए कि वे सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध हैं, और इससे खिलवाड़ करने वालों और लोगों की जान जोखिम में डालने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। 2005-10 के बीच नीतीश को सुशासन बाबू का विशेषण प्राप्त हुआ था। उस दौर की विशेषता थी कि बिहार अपराध और कुशासन के दौर से निकल कर सुरक्षित और कानून के शासन के दौर में वापिस लौट रहा था। नीतीश कुमार के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध कर सेक्युलर खेमे का हीरो बनने की भावना पैदा हुई। उनकी भाषा बदली और सुशासन का लक्ष्य प्राथमिकता में नहीं रहा।

भारत में सेक्युलरिज्म के साथ समस्या यह है कि जानते हुए भी भयावह यथार्थ को स्वीकार नहीं किया जाता जिहादी आतंकवाद वैश्विक समस्या है, और उससे प्रभावित मुस्लिम युवा यहां भी खतरनाक दिशा में बढ़ चुके हैं। बिहार इस विचारधारा का सबसे बड़ा शिकार है। बिहार की सुरक्षा और शांति के लिए आवश्यक है कि राजनेता इस मानसिकता से बाहर आएं।

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डोपिंग का डंक : सवालों के घेरे में सिस्टम

*संदीप भूषण –

नब्बे के दशक में सुपर स्टार बेन जॉनसन का जलवा हुआ करता था। सियोल ओलंपिक में 100 मीटर दौड़ 9.79 सेकेंड में पूरी कर उन्होंने सबको चौंका दिया था।

हालांकि, उनके साथी धावक कार्ल लुईस को उनके इस प्रदर्शन पर शक था। उन्होंने तब सार्वजनिक तौर पर कहा भी था कि जॉनसन की इस तेजी में कुछ गड़बड़ी है। बाद में खेलों के महाकुंभ में डोपिंग का बम फूटा और लुईस की आशंका सच साबित हुई। जॉनसन के नमूने पॉजिटिव पाए गए और उनसे पदक छीन लिया गया। इस घटना ने अंतरराष्ट्रीय जगत को सकते में ला दिया। खेलों में नशीले पदार्थ का सेवन रोकने की जिम्मेदारी उठाने वाली विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी ने सख्ती बरतनी शुरू की। बावजूद इसके अब तक रूस और अमेरिका सहित कई देश के खिलाडिय़ों को डोपिंग का दोषी पाया जा चुका है।

भारत भी इस कलंक से अछूता नहीं है। 1968 में दिल्ली में आयोजित मैक्सिको ओलंपिक ट्रायल के दौरान कृपाल सिंह से लेकर पहलवान नरसिंह तक इसके जाल में फंस चुके हैं। ताजा मामला जिमनास्ट दीपा कर्माकर का है। अरबों रु पये खर्च करने के बाद भी खिलाडिय़ों का डोपिंग में फंसना हमारे समूचे खेल सिस्टम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहा है। साथ ही खेल में महाशक्ति बनने के हमारे सपने में भी बाधा बन रहा है।

दरअसल, प्रतियोगिता से इतर लिये गए दीपा के नमूने पॉजिटिव पाए गए हैं। रियो ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन से चौथे स्थान पर रही दीपा पर 21 महीने का प्रतिबंध लगा। उन्होंने सजा स्वीकार कर ली, लेकिन कहा कि उन्होंने अनजाने में इसका सेवन किया था। गौरतलब है कि भारतीय खेल जगत में अब तक जितने भी खिलाड़ी डोपिंग में फंसे हैं, उनमें से ज्यादातर ने स्वीकार किया कि कम जानकारी या अनजाने में ही उन्होंने प्रतिबंधित दवाओं का सेवन किया।

सवाल उठता है कि आखिर महासंघ, कोच, डॉक्टर और डाइटिशियन खिलाडिय़ों को डोपिंग संबंधी जानकारी मुहैया कराने में असफल क्यों हो रहे हैं कब तक खिलाडिय़ों की मेहनत पर अनजाने में की गई एक छोटी सी गलती भारी पड़ती रहेगी अगर खिलाड़ी दोषी है तो उसके कोच और डाइटिशियन को भी इसका दोषी क्यों नहीं माना जाना चाहिए विशेषज्ञों की मानें तो डोपिंग में किसी खिलाड़ी के फंसने के मुख्य कारण महासंघ, कोच और डाइटिशियन की लापरवाही के साथ खिलाडिय़ों में जागरूकता की कमी है। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय एथलेटिक्स में ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि के आते हैं। जाहिर है कि खेल को डोपिंग मुक्त बनाने के लिए केंद्र के साथ राज्य सरकारों को भी मिलकर काम करने की जरूरत है।

हरियाणा, पंजाब, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्य इसमें अग्रणी की भूमिका निभा सकते हैं, जहां से सबसे ज्यादा एथलीट आते हैं। निस्संदेह इन सबके साथ राज्यों को खेल ढांचा मजबूत करने के साथ डोपिंग के मुद्दे पर भी जागरूकता अभियान भी चलाना होगा। यह पहल कई जगह शुरू भी हुई है। आगे इसको और संगठित और प्रभावी तरीके से चलाने की जरूरत है। गौरतलब है कि अब तक की स्थिति में भारतीय खेल को खासा नुकसान उठाना पड़ा है कि शुरुआती दौर में खिलाडिय़ों को अपने निजी कोच से उन्हें सिर्फ खेल निखारने की ही जानकारी मिल पाती है। उन्हें नहीं पता होता कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी की प्रतिबंधित लिस्ट में किन-किन दवाइयों को शामिल किया गया है। भारत में तो कई मामले ऐसे भी आए जब जूनियार और सीनियर खिलाड़ी खांसी या मामूली बुखार में दवा का सेवन करते हैं और उनके नमूने डोपिंग में पॉजिटिव पाए जाते हैं।

दूसरी तरफ, जिस महासंघ या कोच पर खिलाडिय़ों को जागरूक करने की जिम्मेदारी होती है, वे इससे पल्ला झाड़ लेते हैं। बीते कुछ दिनों में अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों के साथ-साथ जूनियर खिलाडिय़ों में भी डोपिंग के मामले देखे जा रहे हैं। इस मामले में आए कई विश्लेषण रिपोर्ट्स में बताया गया है कि इसके पीछे खिलाडिय़ों पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव है। खिलाडिय़ों को पता होता है कि चाहे सरकारी नौकरी हो, सर्वश्रेष्ठ स्कूलों और कॉलेजों में प्रवेश पाना हो या विज्ञापन व अन्य आर्थिक लाभ के लिए अलग-अलग लीग और कंपनियों से अनुबंध पाने की, एक बेहतर प्रदर्शन उनकी सफलता का मार्ग सुनिश्चित करेगा। बेहतर प्रदर्शन के लिए माता-पिता, शिक्षकों, प्रशिक्षकों और साथी प्रतिस्पर्धियों का दबाव होता है।

भारत सरकार खेल बजट को हर साल बढ़ा रही है। खिलाडिय़ों को देश में विदेशी कोच मुहैया कराना हो या विदेश कोचिंग के लिए भेजना, उन्हें हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं। हालांकि, आज भी डोपिंग रोधी नियमों को लेकर जागरूता फैलाने के मामले में सीनियर और जूनियर एथलीटों के बीच अंतर नजर आता है। साथ ही जूनियर स्तर के खिलाडिय़ों के बीच नमूनों की जांच की संख्या भी बेहद कम है। इसका बड़ा कारण डोपिंग टेस्ट पर आने वाला खर्च है। महासंघ और नाडा उन खिलाडिय़ों के नमूने लेने से बचती है, जो तुरंत किसी प्रतियोगिता में नहीं भाग ले रहे हैं। इसका भी खिलाडिय़ों पर असर पड़ता है।

बहरहाल, भारतीय खेल प्रधिकरण का दावा है कि वह एक ऐसा ऐप विकसित कर रहा है, जिससे कोई भी खिलाड़ी आसानी से प्रतिबंधित दवाओं की जानकारी ले सकेगा।

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राजिम माघी पुन्नी मेला: आस्था, आध्यात्म और संस्कृति का त्रिवेणी संगम

05.02.2023 (एजेंसी) – छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित पवित्र धार्मिक नगरी राजिम में प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक पंद्रह दिनों का मेला लगता है। राजिम में तीन नदियों का संगम है इसलिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है, यहाँ मुख्य रूप से तीन नदियां बहती हैं, जिनके नाम क्रमश: महानदी, पैरी नदी तथा सोंढूर है। संगम स्थल पर कुलेश्वर महादेव जी विराजमान है।

राज्य शासन द्वारा वर्ष 2001 से राजिम मेले को राजीव लोचन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था, वर्ष 2005 से इसे कुम्भ के रूप में मनाया जाता रहा था, और अब 2019 से राजिम माघी पुन्नी मेला के रूप में मनाया जा रहा है। यह आयोजन छत्तीसगढ़ शासन धर्मस्व एवं पर्यटन विभाग एवं स्थानीय आयोजन समिति के तत्वाधान में होता है।

मेला की शुरुआत कल्पवास से होती है। पखवाड़े भर पहले से श्रद्धालु पंचकोशी यात्रा प्रारंभ कर देते हैं पंचकोशी यात्रा में श्रद्धालु पटेश्वर, फिंगेश्वर, ब्रम्हनेश्वर, कोपेश्वर तथा चम्पेश्वर नाथ के पैदल भ्रमण कर दर्शन करते हैं तथा धुनी रमाते हैं। 101 कि?मी? की यात्रा का समापन होता है और माघ पूर्णिमा से मेला का आगाज होता है। इस वर्ष 5 फरवरी माद्य पूर्णिमा से 18 फरवरी 2023 महाशिवरात्रि तक राजिम माद्यी पुन्नी मेला आयोजित किया गया है।

राजिम माघी पुन्नी मेला में विभिन्न जगहों से हजारों साधू संतों का आगमन होता है, प्रतिवर्ष हजारो की संख्या में नागा साधू, संत आदि आते हैं, तथा विशेष पर्व स्नान तथा संत समागम में भाग लेते हैं, प्रतिवर्ष होने वाले इस माघी पुन्नी मेला में विभिन्न राज्यों से लाखों की संख्या में लोग आते हैं और भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ महादेव जी के दर्शन करते हैं और अपना जीवन धन्य मानते हैं।

लोगो में मान्यता है कि भगवान जगन्नाथपुरी जी की यात्रा तब तक पूरी नही मानी जाती, जब तक भगवान श्री राजीव लोचन तथा श्री कुलेश्वर नाथ के दर्शन नहीं कर लिए जाते, राजिम माघी पुन्नी मेला का अंचल में अपना एक विशेष महत्व है।

राजिम अपने आप में एक विशेष महत्व रखने वाला एक छोटा सा शहर है। राजिम गरियाबंद जिले का एक तहसील है। प्राचीन समय से राजिम अपने पुरातत्वों और प्राचीन सभ्यताओं के लिए प्रसिद्ध है।

राजिम मुख्य रूप से भगवान राजीव लोचन के मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। राजिम का यह मंदिर आठवीं शताब्दी का है। यहाँ कुलेश्वर महादेव जी का भी मंदिर है। जो संगम स्थल पर विराजमान है।

राजिम माघी पुन्नी मेला प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक चलता है। इस दौरान प्रशासन द्वारा विविध सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजन होते हैं।

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अहोम राजवंश : पूर्वोत्तर का शिवाजी

डॉ. अंकिता दत्ता – 

*यह कहानी है वर्ष 1671 के मार्च के महीने की जब लगभग पूरे देश पर बाहरी आक्रांताओं के आक्रमण चरम पर थे।*

अहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंघा बर्बर आक्रमणकारियों के हाथों अपने पूर्ववर्ती राजा जयध्वज सिंघ की अपमानजनक हार के बाद अहोम शिविर में नवीनतम घटनाओं की जानकारी के लिए उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। बाहरी खतरों और आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक दूर रखकर अहोम वंश ने लगभग चार शताब्दियों तक ब्रह्मपुत्र घाटी पर निर्विवाद शासन किया। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अहोम राजवंश सम्राट शाहजहां के साथ सीधे संघर्ष में शुरू कर रहा था। कोच और कमता राज्य पश्चिम में मुगल और पूर्व में अहोम के बीच मध्यस्थ शक्ति की तरह थे। मुगलों ने कोच साम्राज्य पर हमले करके क्षेत्र का तत्काल विलय करना शुरू कर दिया।

एक तरफ अहोम और दूसरी तरफ मुगलों के बीच अब अंतहीन सैन्य संघर्ष शुरू हो गया था। अहोम साम्राज्य पर मुगलों द्वारा सत्रह बार हमले किये गए। लेकिन मुगल यहां तलवार के बल पर अपना शासन स्थापित करने में कभी सफल नहीं हो सके। अहोम साम्राज्य के खोए हुए क्षेत्रों को लड़कर पुन: प्राप्त करने के लिए अपनी सेना को पुनर्गठित कर पाते, इससे पहले आक्रमणकारियों के हाथों हार के दु:ख और अपमान ने जयध्वज सिंघा का जीवन छीन लिया। इसलिए अहोम साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा बहाल करने के लिए चक्रध्वज पूरी कोशिश कर रहे थे। भूमि पर लडऩे में मुगल सैनिक पारंगत थे, दूसरी ओर अहोम सैनिकों ने इस क्षेत्र के जल-निकायों के माध्यम से दुश्मन को भगाने में अपने पारंपरिक ज्ञान का सबसे अच्छा उपयोग किया। चक्रध्वज सिंघ शुरू में उलझन में थे कि मुगलों के खिलाफ अहोम सेना का नेतृत्व करने के लिए किसे प्रभारी बनाया जाए। अंतत: वे अहोम सेना के एक युवा सैनिक पर केंद्रित हो गए। युवा सैनिक के पास न केवल दुश्मन से लडऩे के लिए अच्छी काया थी बल्कि वह युद्ध की रणनीति में भी अच्छी तरह अनुभवी था। वह थे लाचित बरफुकन। लाचित गुरिल्ला युद्ध में अच्छी तरह प्रशिक्षित थे और अतीत में सफल लड़ाइयों का नेतृत्व कर चुके थे। दुश्मन को शिकस्त देने के उनके जुनून ने उन्हें राजा चक्रध्वज सिंघ के लिए एकदम सही विकल्प बना दिया था।

मुगलों के साथ आगे की लड़ाई की तैयारियों के संबंध में लाचित के पास पहले से ही तैयार योजना थी। मुगलों को पहले जमीन पर करारी हार चखा कर विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के पानी की ओर मोडऩा था, जहां से वे कभी अहोम साम्राज्य में कदम रखने की हिम्मत नहीं कर सकें। मुगल पहले ही गुवाहाटी में भूमि के एक बड़े हिस्से पर अपने स्वामित्व का दावा कर चुके थे। लाचित के तहत अहोम सेना के लिए यह जीवन-मृत्यु की स्थिति बन गई थी। लड़ाई से कुछ दिन पहले तेज बुखार और शारीरिक कमजोरी से लाचित पीडि़त हो गए थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने सैनिकों को निर्देश जारी किए कि जब तक युद्ध की तैयारियां पूरी नहीं हो जातीं तब तक बिल्कुल न सोएं। लचित ने पहले ही उन्हें युद्ध की विभिन्न रणनीतियों के बारे में समझा दिया था ताकि मुगलों को जमीन पर सफलतापूर्वक हराने के बाद ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे की ओर धकेला जा सके।

सेना को तद्नुसार मुगलों को ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित सराईघाट नामक स्थान की ओर ले जाने के लिए निर्देशित किया गया। सराईघाट की अनूठी भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लाचित ने यह निर्णय लिया। ब्रह्मपुत्र अत्यंत चौड़ी नदी है जो सराईघाट में संकीर्ण हो जाती है। इसलिए अहोम की नौसेना की रक्षा के लिए स्वाभाविक रूप से सराईघाट आदर्श और उपयुक्त स्थान था। मतलब यह कि ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई ने अहोम सेना को दुश्मन के जहाजों पर नजर रखने और गुरिल्ला हमलों के साथ उन्हें आश्चर्यचकित करने के लिए सबसे लाभप्रद स्थान प्रदान किया था।

सराईघाट की प्रसिद्ध लड़ाई (1671) भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय है क्योंकि यह एकमात्र नौसैनिक युद्ध था जो नदी के तट पर लड़ा गया था। अत्यंत साहसी और दृढ़ अहोम सेना अंतत: मुगलों को सराईघाट के पानी में वापस धकेलने में सक्षम हो गई थी, जहां उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने जल्द ही आत्मसमर्पण कर दिया और असम व दक्षिण-पूर्व एशिया सहित पूरा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र हमेशा के लिए मुगल खतरे से मुक्त हो गया था। असम के लोगों की लोकप्रिय सामाजिक और सांस्कृतिक कल्पना में लाचित बरफुकन का नाम अंकित हो गया।

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जनजातीय गौरव दिवस-15 नवंबर पर विशेष

*जनजातीय जीवन शैली का अभिन्न अंग है नृत्य-संगीत*

लक्ष्मीनारायण पयोधि – मध्यप्रदेश के इन्द्रधनुषी जनजातीय संसार में जीवन अपनी सहज निश्छलता के साथ आदिम मुस्कान बिखेरता हुआ पहाड़ी झरने की तरह गतिमान है। मध्यप्रदेश सघन वनों से आच्छादित एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ विन्ध्याचल, सतपुड़ा और अन्य पर्वत-श्रेणियों के उन्नत मस्तकों का गौरव-गान करती हवाएँ और उनकी उपत्यकाओं में अपने कल-कल निनाद से आनंदित करती नर्मदा, ताप्ती, तवा, पुनासा, बेतवा, चंबल, दूधी आदि नदियों की वेगवाही रजत-धवल धाराएँ मानो,वसुंधरा के हरे पृष्ठों पर अंकित पारंपरिक गीतों की मधुर पंक्तियाँ। ढोल, माँदर, गुदुम, टिमकी, डहकी, माटी माँदर, थाली, घंटी, कुंडी, ठिसकी, चुटकुलों की ताल पर जब बाँसुरी, फेफरिया और शहनाई की स्वर-लहरियों के साथ भील, गोण्ड, कोल, कोरकू, बैगा, सहरिया, भारिया आदि जनजातीय युवक-युवतियों की तरह विन्ध्य-शिखर थिरक उठते हैं तो पचमढ़ी की कमर में करधौनी की भाँति लिपट कर सतपुड़ा झूमने लगता है और भेड़ाघाट में अपने धुआँधार हर्ष राग से दिशाओं को आनंदित करता नर्मदा का जल-प्रपात।

जनजातियों का नृत्य-संगीत प्रकृति की इन्हीं लीला-मुद्राओं का तो अनुकरण है।जनजातीय समुदाय प्राय: प्रकृति सान्निध्य में रहते हैं। इसलिये निसर्ग की लय, ताल और राग-विराग उनके शरीर में रक्त के साथ संचरित होते हैं। वृक्षों का झूमना और कीट-पतंगों का स्वाभाविक नर्तन जनजातियों को नृत्य के लिये प्रेरित करते हैं। हवा की सरसराहट, मेघों का गर्जन, बिजली की कौंध, वर्षा की साँगीतिक टिप-टिप,पक्षियों की लयबद्ध उड़ान ये सब नृत्य-संगीत के उत्प्रेरक तत्व हैं।

नृत्य मन के उल्लास की अभिव्यक्ति का सहज और प्रभावी माध्यम है। संगीत सुख-दुख यानी राग-विराग को लय और ताल के साथ प्रकट करता है। कहा जा सकता है कि नृत्य और संगीत मनुष्य की सबसे कोमल अनुभूतियों की कलात्मक प्रस्तुति हैं। जनजातियों के देवार्चन के रूप में आस्था की परम अभिव्यक्ति के प्रतीक भी। नृत्य-संगीत जनजातीय जीवन-शैली का अभिन्न अंग है। यह दिन भर के श्रम की थकान को आनंद में संतरित करने का उनका एक नियमित विधान भी है।

जबलपुर, कटनी, मंडला, डिण्डौरी, पुष्पराजगढ़, उमरिया, शहडोल, सीधी, सिवनी, बालाघाट, छिन्दवाड़ा, बैतूल, रायसेन आदि जि़लों में गोण्ड जनजाति समूह में करमा, सैला, भड़ौनी, बिरहा, कहरवा, ददरिया, सुआ आदि नृत्य-शैलियाँ प्रचलित हैं। गोण्ड समुदाय के सजनी गीत-नृत्य की भाव-मुद्राएँ चमत्कृत करती हैं। इनका दीवाली नृत्य भी अनूठा होता है। माँदर, टिमकी, गुदुम, नगाड़ा, ठिसकी, चुटकी, झांझ, मंजीरा, खड़ताल, सींगबाजा, बाँसुरी, अलगोझा, शहनाई, तमूरा, बाना, चिकारा, किंदरी आदि इस समुदाय के प्रिय वाद्य हैं।बैगा माटी माँदर और नगाड़े के साथ करमा, झरपट और ढोल के साथ दशेहरा नृत्य करते हैं। विवाह के अवसर पर ये बिलमा नृत्य कराते हैं। बारात के स्वागत में किया जाने वाला परघौनी नृत्य आकर्षक होता है।

छेरता नृत्य नाटिका में मुखौटों का अनूठा प्रयोग होता है। इनकी नृत्यभूषा और आभूषण भी विशेष होते हैं।भील जनजाति समूह के लोग नृत्य को सोलो या नास कहते हैं। लाहरी, पाली, गसोलो, आमोसामो, सलावणी, दौड़ावणी, घोड़ी, भगोरिया आदि इस जनजाति समूह की बहु प्रचलित नृत्य-शैलियाँ हैं। भील नृत्य के साथ प्राय: बड़ा ढोल, ताशा, थाली, घंटी, ढाक, फेफरिया, पावली (बाँसुरी) आदि वाद्यों का प्रयोग करते हैं।कोरकू जनजाति के नृत्य प्राय: मिथकों पर आधारित और पर्व-प्रसंगों से जुड़े होते हैं।

चैत्र में देव दशेहरा, चाचरी और गोगोल्या, वैशाख में थापटी, ज्येष्ठ में ढाँढल और डोडबली, श्रावण में डंडा नाच, क्वांर में होरोरया और चिल्लुड़ी, कार्तिक की पड़वा पर ठाट्या तथा वैवाहिक अवसरों पर स्त्रियों का गादली नृत्य प्रचलित है।यह जनजाति नृत्य के साथ ढोल, ढोलक, मृदंग, टिमकी, डफ, अलगोझा, बाँसुरी, पवई, भूगडू, चिटकोरा, झांझ आदि वाद्य बजाते हैं।भारिया जनजाति के लोगों को भड़म, सैतम और करम सैला आदि नृत्य प्रिय हैं। ये नृत्य के साथ ढोल, ढोलक, टिमकी, झांझ और बाँसुरी बजाते हैं। युवतियाँ भी मंजीरा और चिटकुला बजाती हैं।

सहरिया जनजाति में स्वांग अधिक लोकप्रिय है। इसमें पुरुष ही स्त्रीवेश धारण करते हैं। ये मस्त होकर फाग नृत्य का आनंद लेते हैं तेजाजी और रामदेवरा प्रसंगों पर आधारित नृत्य विशेष रूप से करते हैं। ये चंग और ताशा वाद्यों का प्रयोग अधिक करते हैं।कोल, कोंदर और अन्य जनजातीय लोग भी विभिन्न अवसरों पर नृत्य-संगीत को विशेष महत्व देते हैं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और जनजातीय संस्कृति के अध्येता हैं।

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औरत-मर्द: बाहरी एकरूपता

वेद प्रताप वैदिक  –  न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने मुखपृष्ठ पर एक खबर छापी है कि अमेरिका में कई आदमी अब औरतों का वेश धारण करने लगे हैं और औरतें तो पहले से ही वहां आदमियों की वेशभूषा पहनते रही हैं। उनका कहना है कि कपड़ों में भी औरत-मर्द का भेद क्या करना? वह जमाना लद गया जब औरतों के लिए खास तरह की वेशभूषा, जेवर और जूते-चप्पल पहनना अनिवार्य हुआ करता था। उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। घूंघट और बुर्का लादना आवश्यक माना जाता था।

हमारे संस्कृत नाटकों को देखें तो कालिदास और भवभूति जैसे महान लेखकों की रचनाओं में उनकी महिला पात्राएं संस्कृत में नहीं, प्राकृत में संवाद करती थीं। महिलाओं को पुरुषों के समान न हवन करने का अधिकार था और न ही जनेऊ धारण करने का! वेदपाठ करना तो उनके लिए असंभव ही था। आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती की कृपा से भारतीय स्त्रियों को इन बंधनों से मुक्ति मिली लेकिन यूरोपीय इतिहास की लगभग एक हजार साल की अवधि को वहाँ अंधकार-युग कहा जाता है।

उस युग में पोप लीला के कारण औरतों पर अत्याचार की हद हो रखी थी लेकिन अब इसी ईसाई यूरोप और अमेरिका में आधुनिकता की ऐसी लहर चली है कि आदमी लोग औरतों की तरह लंबे-लंबे बाल रखने लगे हैं, स्कर्ट ब्लाउज पहनने लगे हैं और उनके पारंपरिक जेवर भी अपने शरीर पर सजाने लगे हैं। इसे वे लिंग-भेद का निराकरण कहते हैं लेकिन वास्तव में औरत-औरत होती है और आदमी-आदमी।

हमारे यहां तो भाषा और व्याकरण में भी वह भेद प्रतिबिंबित होता है। उसे सिर्फ वेशभूषा बदलने से नहीं मिटाया जा सकता है। कई देशों में उनके पुरुष भी अपना अधोवस्त्र स्त्रियों-जैसा ही सदियों से पहनते आ रहे हैं। जब पहली बार अपने राष्ट्रपति भवन में भूटान नरेश से लगभग 30 साल पहले मेरी भेंट हुई तो मैं उन्हें स्कर्ट-जैसा अधोवस्त्र पहने देखकर दंग रह गया।पचास साल पहले जब मैं लंदन में पढ़ता था तो मुझे स्काटलैंड के छात्रों को देखकर भ्रम हो जाया करता था, क्योंकि उनमें से कुछ स्कर्ट पहने रहते थे।

दुनिया के दर्जनों देश हैं, जिनमें लोगों की वेशभूषा अपने तरह की अनूठी होती है। इसीलिए यदि अब अमेरिका की कुछ नामी-गिरामी कंपनियां ऐसी वेशभूषा बनाने लगी हैं, जो अब तक स्त्रियों की मानी जाती थीं, लेकिन अब उन्हें पुरुष भी पहनने लगे हैं तो इसमें बुराई क्या है?

यह नर-नारी समता का नया युग शुरु हो रहा है। इसे हम ऊपरी या बाहरी एकरुपता कहें तो बेहतर होगा।

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राहुल को भगवान न बनाएं!

अजीत द्विवेदी   –  राहुल गांधी जब से भारत जोड़ो यात्रा पर निकले हैं तब से कांग्रेस के नेता उनको भगवान बनाने में लगे हैं। कांग्रेस की यात्रा को दक्षिण भारत के सभी राज्यों में अच्छा रिस्पांस मिला है। लोग यात्रा से जुड़ रहे हैं और सोशल मीडिया के जरिए देश भर में भी इससे अच्छा मैसेज जा रहा है। एक नेता के तौर पर राहुल गांधी की छवि भी बेहतर हो रही है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि उनको भगवान बनाया जाने लगे। उनकी तुलना देश के महापुरुषों से भी हो रही है। महात्मा गांधी के दांडी मार्च से लेकर विनोबा भावे की भूदान यात्रा और चंद्रशेखर की भारत यात्रा तक से इसकी तुलना हो रही है। यह कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी दोनों के लिए अच्छी बात है।

लेकिन कांग्रेस के नेता उनको भगवान बना कर या भगवानों से उनकी तुलना करके उनका और कांग्रेस दोनों का नुकसान कर रहे हैं। वे कांग्रेस को उस राजनीति की ओर ले जा रहे हैं, जिसमें कांग्रेस बहुत अच्छी खिलाड़ी नहीं है।पिछले दिनों कांग्रेस के कई नेताओं ने राहुल की तुलना अलग अलग भगवानों से की। मध्य प्रदेश के कांग्रेस विधायक कुणाल चौधरी ने उनकी तुलना भगवान राम से की। इसके बाद महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने कहा कि र से राम और र से राहुल बनता है’। उन्होंने राहुल को सीधे भगवान राम बना दिया।

इस बीच राजस्थान सरकार के मंत्री परसादी लाल मीणा ने राहुल की यात्रा की तुलना भगवान राम की लंका से अयोध्या तक की यात्रा से की। उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कर कहा कि राहुल तो भगवान राम से भी लंबी यात्रा कर रहे हैं। राहुल गांधी के बहनोई रॉबर्ट वाड्रा ने पिछले दिनों कहा कि राहुल शिरडी के साई बाबा की तरह हैं। कुछ दिन पहले तक राहुल को भगवानों का भक्त बताया जाता था। वे खुद को शिवभक्त कहते थे और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी उनको शिवभक्त बताया है।

लेकिन अब भक्त की बजाय उनको सीधे भगवान बनाया जाना लगा है।असल में पिछले सात आठ साल में प्रचार के जरिए यह स्थापित किया गया है कि सेकुलर और लिबरल होना अच्छी बात नहीं है। सेकुलर और लिबरल होने का मतलब मुस्लिमपरस्त होना और देशविरोधी होना है। कांग्रेस इस नैरेटिव का शिकार हो गई है। तभी उसने कांग्रेस और राहुल गांधी की छवि बदलने के अनेक प्रयास किए। इसी प्रयास के तहत राहुल ने मानसरोवर से लेकर काशी विश्वनाथ तक की यात्रा की। अपने को जनेऊधारी और कौल ब्राह्मण बताया।

कई जगह पूजा पाठ के लिए गए। लेकिन इसमें उनको ज्यादा कामयाबी नहीं मिली क्योंकि भाजपा और आम आदमी पार्टी पहले से इस स्पेस में राजनीति कर रहे थे और चाह कर भी कांग्रेस या राहुल गांधी ऐसी राजनीति नहीं कर सकते हैं। याद करें कैसे पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल ने अपने को सीधे कृष्ण का अवतार बता दिया। पहले वे अपने को हनुमानभक्त कहते थे और अब उन्होंने कहा है कि वे जन्माष्टमी को पैदा हुए थे और उनका जन्म कंसों का नाश करने के लिए हुआ है।

उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कर यह सुझाव दे दिया है कि रुपए पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर लगाई जाए। सोचें, क्या राहुल ऐसी राजनीति कर सकते हैं?प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उनकी पार्टी के नेता विष्णु भगवान का अवतार बताते हैं। सबने देखा कि कैसे अयोध्या में मंदिर के शिलान्यास के समय उनकी तस्वीर भगवान राम से भी बड़ी बनाई गई थी और वे भगवान राम की उंगली पकड़ कर मंदिर में ले जा रहे थे। इसके बाद इस साल उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह गाना खूब बजा कि जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’। पिछले दिनों जब वे दिवाली मनाने अयोध्या पहुंचे तो सारे विज्ञापनों और कटआउट्स से भगवान राम ही गायब हो गए।

हर जगह उनकी और भगवा पहने योगी आदित्यनाथ की फोटो लगी थी। इससे पहले भी भाजपा की बड़ी नेता उमा भारती ने पार्टी के शीर्ष तीन नेताओं- अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश बताया था। ऐसी राजनीति भाजपा पहले से करती रही है और अब आम आदमी पार्टी भी उसी राजनीति में उतर गई है। लेकिन इस तरह की राजनीति कभी भी कांग्रेस की विचारधारा के अनुरूप नहीं रही है।

इसलिए पार्टी को ऐसी राजनीति से बचने की जरूरत है।भाजपा ऐसी राजनीति में रातों रात चैंपियन नहीं बनी है। दशकों से वह ऐसी ही राजनीति कर रही है। धर्म, धार्मिक प्रतीक और देवी-देवताओं के नाम पर भाजपा ने राजनीति की है और सफलता भी हासिल की है। इसलिए आम जनता के बीच वह इस राजनीति के एकमात्र या सर्वोच्च प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित हुई है। आम आदमी पार्टी भी शुरू से ही ऐसी राजनीति कर रही है।

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद उसकी राजनीति का कोर तत्व रहा है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के समय से ही अरविंद केजरीवाल की विचारधारा का यह पक्ष उजागर हो गया था। इसके बरक्स कांग्रेस पार्टी आजादी से पहले आजादी के महान मूल्यों और महात्मा गांधी की विचारधारा पर चलती थी और आजादी के बाद संविधान के मूल्यों को अपनाया। यानी स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, उदारता और मिश्रित समाजवाद की आर्थिक नीतियों को कांग्रेस ने अपनाया। कांग्रेस के हर नेता की छवि इन्हीं विचारों के ईर्द-गिर्द राजनीति करने से निखरी है।

राहुल भी इन्हीं विचारों के प्रतिनिधि हैं और ध्यान रखें ये ही विचार हैं, जो लोकतंत्र की बुनियाद हैं। कांग्रेस कैसे इस बुनियाद को छोड़ सकती है?कांग्रेस हो या राहुल गांधी दोनों देश के महापुरुषों के साथ साथ महान धार्मिक चरित्रों से प्रेरणा ले सकते हैं। उनके आदर्शों को अपनाने की बात कर सकते हैं। लेकिन भगवानों से राहुल की तुलना करना या उनको भगवानों की तरह बताना कांग्रेस और राहुल दोनों के लिए नुकसानदेह हो सकता है।

अभी उनकी एक उदार, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नेता की छवि है लेकिन कांग्रेस नेताओं की बयानबाजी उनकी इस छवि को नुकसान कर सकती है। कांग्रेस लाख कोशिश कर ले तब भी वह राहुल की एक धार्मिक नेता वाली छवि नहीं बना सकती है और न कांग्रेस को धर्म की राजनीति करने वाली पार्टी बनाया जा सकता है।

उलटे इस प्रयास में कांग्रेस अपनी राजनीतिक जमापूंजी भी गंवा सकती है। सो, कांग्रेस में बिल्कुल शीर्ष स्तर से यह संदेश सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को दिया जाना चाहिए कि वे राहुल को भगवान न बनाएं और न कांग्रेस को देवी-देवताओं के नाम पर होने वाली राजनीति में घसीटें।

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विदेश नीति की दो उपलब्धियाँ

वेद प्रताप वैदिक – भारतीय विदेश नीति की कल दो उपलब्धियों ने मेरा ध्यान बरबस खींचा। एक तो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन द्वारा भारत की सराहना और दूसरी भारत और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर हुई बातचीत! इन मुद्दों पर यह शक बना हुआ था कि भारत की नीति से इन दोनों राष्ट्रों को कुछ न कुछ एतराज जरुर है लेकिन वे संकोचवश खुलकर बोल नहीं रहे थे। अब यह स्पष्ट हो गया है कि रूस और ब्रिटेन, दोनों ही भारत की नीति से संतुष्ट हैं और उनके संबंध भारत से दिनोंदिन घनिष्ट होते चले जाएंगे।

पहले हम रूस को लें। भारत ने यूक्रेन पर रूसी हमले का कभी दबी ज़ुबान से समर्थन नहीं किया लेकिन उसे अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों की तरह रूस के विरुद्ध आग भी नहीं बरसाई। उसने यूक्रेन से अपने हजारों नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकाला, उसे टनों अनाज भेंट किया और कुछ प्रस्तावों पर संयुक्तराष्ट्र संघ में उसका साथ भी दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में साफ़-साफ़ कह दिया कि यह वक़्त युद्ध का नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध तुरंत बंद होना चाहिए।

शायद इसी का असर था कि पूतिन ने परमाणु-युद्ध की आशंका से त्रस्त सारे विश्व को आश्वस्त किया कि उनका इरादा परमाणु बम चलाने का बिल्कुल नहीं है। अब उन्होंने मास्को के एक ‘थिंक टैंक’ में भाषण देते हुए न केवल मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की बल्कि कहा कि इस संकट के दौरान भारत के साथ रूस का कृषि व्यापार दुगुना हो गया, उर्वरक निर्यात 7-8 गुना बढ़ गया और आपसी व्यापार 13 अरब से कूदकर 18 अरब डॉलर का हो गया। रूसी तैल ने भारत की जरूरत पूरी कर दी। पूतिन ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की जमकर तारीफ की है। यह तब है जबकि भारत अमेरिका के साथ कई मोर्चों पर पूरी तरह सहयोग कर रहा है।

चीन को इससे काफी जलन हो रही है लेकिन भारत के बारे में रूस का मूल्यांकन सही है। इसी तरह ब्रिटेन-भारत मुक्त व्यापार समझौते के संपन्न होने के पूरे आसार दिखाई पडऩे लगे हैं। ऋषि सुनाक ने प्रधानमंत्री बनते ही अपने विदेश मंत्री को सबसे पहले भारत भेजा है। मोदी और सुनाक की बातचीत से मुक्त व्यापार का रास्ता काफी साफ हुआ है। लंदन में यह डर बताया जा रहा था कि उक्त समझौता यदि हो गया तो ब्रिटेन में भारतीयों की भरमार हो जाएगी और वे ब्रिटिश बाजारों पर कब्जा कर लेंगे।

इसके अलावा ब्रिटेन चाहता है कि उसकी मोटर साइकिलों, शराब, केमिकल्स और अन्य कई चीज़ों पर भारत ज़्यादा टैक्स-ड्यूटी न लगाए। ऐसे ही भारत भी अपने कृषि-पदार्थों, कपड़ों और चमड़े आदि के समान पर ड्यूटी घटवाना चाहता है। उम्मीद है कि कुछ दिनों में यदि उक्त समझौता हो गया तो अन्य कई यूरोपीय देशों के दरवाज़े भी भारतीय माल के लिए खुल जाएंगे।

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हिंदी के मार्ग में सौ-सौ रोड़े

वेद प्रताप वैदिक – इधर भोपाल में गृहमंत्री अमित शाह ने मेडिकल की तीन हिंदी किताबों का विमोचन किया, जो कि मेरी राय में बहुत ही महत्वपूर्ण एतिहासिक शुभारंभ है लेकिन उसके साथ ही दो विपरीत प्रवृत्तियां भी सामने आई हैं। पहली तो यह कि कुछ लोगों ने हिदी में प्रकाशित उन पुस्तकों का मजाक उड़ाया है।

उन्होंने एकाध पुस्तक के कुछ पृष्ठों को प्रसारित करके बताया कि अनुवादकों ने कैसे हिंदी पर अंग्रेजी शब्दों को थोप रखा है और जो नमूना वे फेसबुक और इंटरनेट पर प्रचारित कर रहे हैं, उसका मूल सार यह है कि वह हिंदी की किताब नहीं है बल्कि हिंदी लिपि में छपी अंग्रेजी की ही किताब है।

वे जिस पृष्ठ को दिखा-दिखाकर यह बात कह रहे हैं, उसे देखकर उनकी बात ठीक भी लगती है। यह जो अनुवाद हुआ है, उसे मप्र के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य-शिक्षा मंत्री यदि हिंदी के कुछ विद्वानो को पहले दिखवा लेते तो ठीक रहता लेकिन यह भी सराहनीय है कि अंग्रेजी की पढ़ाई में डूबे हुए डाक्टरों ने कुछ न कुछ पहल इतने कम समय में कर ही डाली है।

यदि मप्र सरकार के नेता और अफसर थोड़ी सावधानी बरतते तो उनसे यह चूक नहीं होती। यही हाल भोपाल के अटलबिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का हुआ है। अब से लगभग एक दशक पहले मेरे और सुदर्शनजी के आग्रह पर भोपाल में यह विश्वविद्यालय खोला गया था।

उसके प्रथम स्थापना दिवस भाषण में मैंने बताया था कि यह वि.वि. देश का सर्वश्रेष्ठ वि.वि. बनकर कैसे दिखा सकता है। यह आक्सफोर्ड, केम्ब्रिज, कोलंबिया और हार्वर्ड से भी आगे कैसे निकल सकता है। लेकिन इस दिशा में वह आज तक एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सका है। किसी को कोई अफसोस नहीं है।

जरुरी है कि हिंदी में हम जो भी काम करें, वह अंग्रेजी से बेहतर हो। यदि बेहतर न हो सके तो आप उसे करते ही क्यों हैं? मप्र सरकार ने मेडिकल किताबें हिंदी में बनाने की जो पहल की है, उस पर दूसरी आपत्तियां जोरदार शब्दों में बंगाल और दक्षिण भारत से उठ रही हैं। इन प्रांतों के कई डाक्टरी और शैक्षणिक संगठनों ने बयान जारी करके कहा है कि अंग्रेजी की किताबों के हिंदी अनुवाद में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। डाक्टरी के धंधे में यह अनर्थ रोगी के लिए जानलेवा सिद्ध हो सकता है।

यह तर्क कुछ हद तक ठीक है। इसका हल यह है कि हिंदी के मूलपाठ में या तो अंग्रेजी नामों को ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर लिया जाए या कोष्ठकों में रख दिया जाए। जहां तक हिंदी माध्यम से पढ़े डाक्टरों के विदेश जाने का सवाल हे, वे अंग्रेजी पर अपनी लार क्यों टपकाएँ? भारत में ही सेवा क्यों न करें?

अंग्रेजी माध्यम से पढ़े डाक्टरों पर सारा पैसा और परिश्रम भारत का खर्च होता है और विदेशों में जाकर वे पैसा कमाने में जुट जाते हैं। यदि हमारे डाक्टर भारतीय भाषाओं के माध्यम से तैयार होंगे तो उनकी मौलिक बुद्धि भी विकसित होगी और वे देश के लोगों की सेवा भी ठीक से करेंगे। भारत में डाक्टरों की जो भयंकर कमी है, वह भी पूरी हो जाएगी।

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कांग्रेस में नए युग की शुरुआत

अजीत द्विवेदी – कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में सिर्फ छह मौके ऐसे आए हैं, जब अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ। इन छह मौकों में से तीन मौके पिछले ढाई दशक में आए हैं। पहले 1997 में सीताराम केसरी चुनाव के जरिए अध्यक्ष बने फिर सन 2000 में सोनिया गांधी चुनाव लड़ कर कांग्रेस अध्यक्ष बनीं और अब मल्लिकार्जुन खडग़े एक हाई वोल्टेज प्रचार अभियान वाले चुनाव के बाद भारी बहुमत से जीत कर कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं।

सोचें, जिस पार्टी को लेकर वंशवाद के सबसे गंभीर और बड़े आरोप लगते रहे हैं उस पार्टी में पिछले ढाई दशक में तीन बार अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ। दूसरी ओर जो पार्टियां आरोप लगाती हैं उनकी स्थापना के बाद से ही कोई चुनाव नहीं हुआ है।

हर बार आम सहमति, जिसका मतलब पार्टी के सर्वोच्च नेता की मंजूरी होती है, उससे अध्यक्ष चुने जाते हैं। पार्टियों के सर्वोच्च नेता या तो खुद अध्यक्ष होते हैं या उनकी बैठाई माटी की मूरतें होती हैं।

देश और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी में भी अभी तक कभी चुनाव की स्थिति नहीं आई। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि एक से ज्यादा व्यक्ति ने नामांकन दाखिल किया हो।

बहरहाल, भारतीय राजनीति की इस बुनियादी कमी पर अलग से विचार की जरूरत है। फिलहाल कांग्रेस पार्टी की चर्चा है, जिसको 24 साल के बाद एक गैर गांधी अध्यक्ष मिला है। कोई ढाई दशक के बाद ऐसा हुआ है, जब कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के हाथ में गई है। इतने ही अरसे के बाद दक्षिण भारत का कोई नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बना है।

नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के और दक्षिण भारत के व्यक्ति का अध्यक्ष बनना कांग्रेस में नए युग की शुरुआत है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सोनिया और राहुल गांधी का असर नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े पर होगा। खुद खडग़े ने भी कई बार कहा कि वे गांधी परिवार से सलाह लेने में नहीं हिचकेंगे। यह बहुत स्वाभाविक है क्योंकि सोनिया और राहुल गांधी दोनों कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं।

सो, पूर्व अध्यक्ष के नाते उनकी हैसियत भी है और उनके पास लंबा अनुभव भी है। इसलिए अगर खडग़े उनकी सलाह से लेकर कांग्रेस चलाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। भाजपा कांग्रेस के नए अध्यक्ष को रिमोट कंट्रोल से चलने वाला बता रही है। यह सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना है क्योंकि भाजपा की स्थापना के बाद पिछले 42 साल में जितने भी अध्यक्ष हुए हैं उनमें तीन-चार को छोड़ दें तो बाकी हर नेता से ज्यादा अनुभव और ज्यादा बड़ा कद मल्लिकार्जुन खडग़े का है।

यह संयोग है या प्रयोग यह नहीं कहा जा सकता है लेकिन कांग्रेस की राजनीति में दो घटनाएं एक साथ हुई हैं। पहली राहुल गांधी का भारत जोड़ो यात्रा पर निकलना और दूसरी नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के एक दिग्गज नेता का कांग्रेस अध्यक्ष बनना। ये दोनों घटनाएं बहुत बड़े मायने वाली हैं।

पिछले आठ साल से कांग्रेस की सर्वाधिक आलोचना इस बात को लेकर होती थी कि उसमें पार्टी अध्यक्ष का पद गांधी परिवार के लिए आरक्षित है। भाजपा से तुलना करते हुए पार्टी के नेता अक्सर कहा करते थे कि भाजपा में कोई भी अध्यक्ष बन सकता है, जबकि कांग्रेस में गांधी परिवार का ही कोई व्यक्ति अध्यक्ष बनेगा। इसे लेकर कई तरह के मजाक सुनाए जाते थे। खडग़े के अध्यक्ष बनने से इस आलोचना की धार कुंद पड़ जाएगी।

चाहे उन्हें रिमोट कंट्रोल्ड अध्यक्ष कहा जाए लेकिन हकीकत यह है कि अध्यक्ष के पद पर गैर गांधी बैठा होगा। खडग़े की खासियत यह भी है कि वे किसी राजनीतिक वंश के नहीं हैं। वे दलित समाज से आते हैं और कोई 55 साल पहले उन्होंने एक सामान्य कार्यकर्ता के तौर पर कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी।

कांग्रेस की दूसरी आलोचना राहुल गांधी को लेकर होती थी। अक्सर कहा जाता था कि राजनीति में उनकी रूचि नहीं है, वे अक्सर विदेश चले जाते हैं, वे जमीन पर उतर कर राजनीति नहीं करते आदि आदि। भारत जोड़ो यात्रा से राहुल ने इन तमाम आलोचनाओं का जवाब दिया है। ये दोनों घटनाक्रम एक साथ हुए हैं इसलिए इनका असर ज्यादा गहरा और दूरगामी होगा।

अब सवाल है कि खडग़े के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस में क्या बदलेगा? सबसे पहले तो काम करने का तरीका और कार्य संस्कृति बदलेगी। अब सोनिया और राहुल गांधी आमतौर पर 10, जनपथ या नौ, तुगलक लेन से ही राजनीति करते थे। इसके उलट खडग़े कांग्रेस मुख्यालय में बैठेंगे। इसका सबसे बड़ा असर यह होगा कि नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी मुख्यालय में आना जाना बढ़ेगा। खडग़े एसपीजी या जेड प्लस सुरक्षा घेरे में रहने वाले नहीं हैं इसलिए पार्टी नेता उनसे सहज तरीके से मिल पाएंगे और अपनी बात कह पाएंगे।

उनकी जो नई टीम बनेगी उसके नेता भी उनके साथ सहज होंगे। खडग़े के पास संगठन का बहुत व्यापक अनुभव है। वे गुलबर्गा में नगर अध्यक्ष रहे हैं, कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं। इसलिए उनको पता है कि आम कार्यकर्ताओं से कनेक्ट कैसे बनता है और संगठन को कैसे मजबूत किया जाता है। यह उनको किसी से सीखने की जरूरत नहीं है।

मल्लिकार्जुन खडग़े के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस को चुनावी फायदा भी होगा। वे कर्नाटक के जमीनी नेता हैं। उनका अध्यक्ष बनना कन्नाडिगा के सम्मान की बात है। वहां अगले साल मई में चुनाव होना है और कांग्रेस को खडग़े के अध्यक्ष बनने से लाभ मिलेगा। खडग़े नया वोट समूह पार्टी के साथ जोड़ सकते हैं, पार्टी की आंतरिक खींचतान को खत्म करा सकते हैं और जरूरत पडऩे पर देवगौड़ा परिवार के साथ तालमेल भी करा सकते हैं।

ध्यान रहे कर्नाटक से कांग्रेस को बड़ी उम्मीद है। विधानसभा चुनाव में जीत के साथ साथ कांग्रेस को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में पिछली बार भाजपा को जो छप्पर फाड़ जीत मिली थी उसे इस बार बदला जा सकता है। यह काम खडग़े के नाम, चेहरे और उनकी सक्रियता से संभव है।

कर्नाटक के साथ साथ पूरे दक्षिण भारत में खडग़े कांग्रेस के बहुत काम आएंगे। ध्यान रहे कांग्रेस की कुल 52 लोकसभा सीटों में से आधी यानी 26 सीटें सिर्फ तीन राज्यों- तमिलनाडु, केरल और तेलंगाना से मिली हैं। इसे बचाते हुए कांग्रेस को इनमें कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से बढ़ोतरी करनी है, जिसमें खडग़े का चेहरा काम आएगा। खडग़े का दलित होना कांग्रेस के पुराने और समर्पित दलित वोट को फिर से पार्टी के साथ जोडऩे में भी काम आएगा।

अब खडग़े का बायोडाटा नोट करें और देश के किसी भी बड़े नेता से तुलना करें- वे नौ बार विधायक रहे। दो बार लोकसभा सांसद और फिलहाल राज्यसभा सांसद हैं। वे राज्य सरकार में मंत्री रहे और तीन बार मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए। वे केंद्र सरकार में मंत्री रहे। कांग्रेस विपक्ष में आई तो लोकसभा में पार्टी के नेता बने और अभी राज्यसभा में कांग्रेस के नेता हैं।

वे कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष रहे और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हैं। तमाम उतार-चढ़ाई और अच्छे-बुरे दिनों के बावजूद वे कांग्रेस में बने रहे और अपनी शिकायतों के बावजूद पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह काम किया।

जो भी जिम्मेदारी मिली उसे दिल से निभाया। कांग्रेस के एक सामान्य कार्यकर्ता से कांग्रेस अध्यक्ष बनने का खडग़े का सफर कांग्रेस और दूसरी सभी पार्टियों के नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगा।

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होसबोले के बोल होश उड़ाएँ

वेद प्रताप वैदिक – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रय होसबोले ने भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में जो बयान दिया है, उससे विरोधी दलों के नेता चाहे कितने ही खुश होते रहें लेकिन उसे सरकार-विरोधी नहीं कहा जा सकता है।

वह वास्तव में सरकार को जगाए रखने की घंटी की तरह है। वास्तव में सरकारें अपनी पीठ खुद ही ठोकती रहती हैं और ज्यादातर अखबार और टीवी चैनल खरी-खरी बात लिखने और बोलने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।

ऐसे में अगर संघ का उच्चाधिकारी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता है तो वह कड़वी जरुर होती है लेकिन वह सच्ची दवा भी होती है। होसबोले ने यही तो कहा है कि देश में गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ती जा रही है।

हमारी खबरपालिका यह तो प्रचारित करती रहती है कि देश के फलां सेठ दुनिया के अमीरों के कितने ऊँचे पायदान पर पहुँच गए हैं लेकिन वह यह नहीं बताती कि देश में अभी भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट रोटी भी नहीं मिलती। वे बिना इलाज के ही दम तोड़ देते हैं।

लगभग डेढ़ सौ करोड़ के इस देश में कहा जाता है कि सिर्फ 20 करोड़ लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। सच्चाई क्या है? मुश्किल से 40 करोड़ लोग ही गरीबी के रेखा के ऊपर है।

लगभग 100 करोड़ लोगों को क्या भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं? क्या वे हमारे विधायकों और सांसदों की तरह जीवन जीते हैं? जो हमारे प्रतिनिधि कहलाते हैं, वे किस बात में हमारे समान हैं?

वे हमारी तरह तो बिल्कुल नहीं रहते। सरकारी आकड़े बताते हैं कि देश में सिर्फ 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। क्या यही असलियत है? रोजगार तो आजकल बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कंपनियां दे रही हैं, क्योंकि वे जमकर मुनाफा सूंत रही है

लेकिन छोटे उद्योगों और खेती की दशा क्या है? सरकार सर्वत्र डंका पीटती रहती है कि उसे इस साल जीएसटी और अन्य टैक्सों में इतने लाख करोड़ रु. की कमाई ज्यादा हो गई है

लेकिन उससे आप पूछें कि टैक्स देने लायक लोग याने मोटी कमाई वाले लोगों की संख्या देश में कितनी है?

10 प्रतिशत भी नहीं है। शेष जनता तो अपना गुजारा किसी तरह करती रहती है।

सरकारी अफसरों, मंत्रियों और नेताओं के एक तरफ ठाठ-बाट देखिए और दूसरी तरफ मंहगाई से अधमरी हुई जनता की बदहाली देखिए तो आपको पता चलेगा कि देश का असली हाल क्या है?

जनता के गुस्से और बेचैनी को काबू करने के लिए सभी सरकारें जो चूसनियां लटकाती रहती हैं, उनका स्वाद तो मीठा होता है लेकिन उनसे पेट कैसे भरेगा?

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संघ ने चिंता जताई, दबाव क्यों नहीं बनाया?

अजीत द्विवेदी – देर से ही सही लेकिन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने देश के सामने मौजूद तीन सबसे बड़ी समस्याओं- गरीबी, बेरोजगारी और असमानता को लेकर चिंता जताई है।

संघ के नंबर दो पदाधिकारी सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने स्वदेशी जागरण मंच के एक कार्यक्रम में गरीबी को लेकर कहा कि ‘देश में गरीबी एक राक्षस की तरह हमारे सामने खड़ी है और यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम इस राक्षस को समाप्त करें’।

असमानता को लेकर उन्होंने कहा कि ‘देश की राष्ट्रीय आय का 20 फीसदी हिस्सा एक फीसदी लोगों के पास हैं, जबकि देश की आधी आबादी यानी 50 फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का सिर्फ 13 फीसदी हिस्सा है।’ उन्होंने कहा कि यह शर्म की बात है कि देश में 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और 23 करोड़ लोग हर दिन 375 रुपए से भी कम कमा रहे हैं।

बेरोजगारी को लेकर होसबाले ने कहा, ‘भारत में चार करोड़ बेरोजगार लोग हैं, जिनमें से 2.2 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में और 1.8 करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में हैं’।

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अनुषंगी संगठनों की ओर से सरकार की कुछ नीतियों को लेकर समय समय पर चिंता जताई जाती रही है। स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ या भारतीय मजदूर संघ की ओर से नीतिगत मसलों पर सवाल उठाए जाते हैं।

लेकिन हाल के समय में यह पहली बार है, जब सीधे संघ के नंबर दो पदाधिकारी ने केंद्र सरकार की नीतियों की परिणति के तौर पर पैदा हुई गरीबी, बेरोजगारी और असमानता का व्यापक मुद्दा उठाया है।

यह इस लिहाज से बहुत अहम है क्योंकि यह किसी एक नीति की आलोचना या एक नीति के मामले में सुझाव नहीं है, बल्कि एक व्यापक चिंता का मुद्दा है, जो आज देश के सामने मौजूद है।

भारत पहले भी गरीबी, बेरोजगारी और असमानता से मुक्त नहीं था लेकिन पिछले आठ साल में आर्थिक नीतियों के साथ जिस तरह के प्रयोग किए गए हैं उनकी वजह से देश ऐसी स्थिति में पहुंचा है।

भारत में करीब एक दशक तक गरीबी घटने का ट्रेंड था, जो अब पलट गया है और गरीबी बढऩे लगी है। यह सरकारी नीतियों की गड़बडिय़ों के कारण हुआ।

हैरानी की बात है कि जब सरकार आर्थिक नीतियों के साथ बेसिरपैर के प्रयोग कर रही थी, तब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने चुप्पी साधे रखी या लगभग मौन सहमति दी। सबसे पहले नोटबंदी, फिर जल्दबाजी में लागू किए गए जीएसटी और उसके बाद कोरोना महामारी के दौरान लागू किए गए आर्थिक पैकेज के समय संघ की ओर से कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली।

ये तीन बुनियादी मुद्दे हैं, जिनकी वजह से देश की पूरी व्यवस्था बिगड़ गई। नोटबंदी और जीएसटी की व्यवस्था से छोटी व मझोली कंपनियों और स्वरोजगार करने वालों पर सबसे बड़ी मार पड़ी।

उनके कामधंधे बंद हो गए। सरकार की नीतिगत गड़बडिय़ों की वजह से उनका संघर्ष चल ही रहा था कि कोरोना की महामारी शुरू हो गई।

कोरोना महामारी में सरकार ने बिना सोचे समझे पहले लॉकडाउन लगाया और उसके बाद जो आर्थिक पैकेज जारी किया उसमें किसी भी समूह की नकद मदद नहीं की गई। सरकार का पूरा आर्थिक पैकेज कर्ज के प्रावधान करने वाला था।

इसका नतीजा यह हुआ है कि नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रहा एमएसएमई सेक्टर कोरोना की मार नहीं झेल सका और देश में सर्वाधिक लोगों को रोजगार देने वाला यह सेक्टर दम तोड़ रहा है।

इस बीच आर्थिक असमानता बढ़ाने वाली सरकारी नीतियां जारी रहीं। छोटी और मझोली कंपनियों को बढ़ावा देने की बजाय बड़े कॉरपोरेट बनाने के घोषित लक्ष्य के साथ सरकार काम करती रही। सारे बड़े ठेके चुनिंदा कंपनियों को दिए जा रहे हैं।

केंद्र सरकार के उपक्रमों को औने-पौने दाम पर चुनिंदा कंपनियों को बेचा जा रहा है। नई बनी दिवालिया संहिता के जरिए कंपनियों को दिवालिया होने और बैंकों के कर्ज नहीं चुकाने की छूट दी जा रही है।

एक तरफ कंपनियां बैंकों के कर्ज नहीं चुका रही हैं और डिफॉल्ट करने के बाद वापस उन्हीं कंपनियों को औने-पौने दाम में हासिल कर ले रही हैं।

इस तरह बैंकों को दोहरा नुकसान हो रहा है तो चुनिंदा कंपनियों की संपत्ति में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। कृत्रिम तरीके से रुपए को मजबूत रखने के लिए रिजर्व बैंक सुरक्षित मुद्रा भंडार से डॉलर निकाल कर मार्केट में फेंक रहा है तो दूसरी ओर सरकारी उपक्रमों से खरीद करवा कर शेयर बाजार को ऊंचा बनाए रखा गया है।

इसी वजह से चुनिंदा कंपनियों के शेयरों में बेहिसाब तेजी आई है और आय की असमानता बढ़ती गई है।

संघ के नंबर दो पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि सरकार ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए पिछले कुछ बरसों में कई कदम उठाए हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है।

सरकार तेल की कीमतों में कमी करके महंगाई काबू में कर सकती है लेकिन उसने नहीं किया है।

सरकार का खजाना अगर भरा हुआ है तो वह बड़ी संख्या में भर्ती करके बेरोजगारी दर को नियंत्रित कर सकती है लेकिन भर्ती के नाम पर वह चार साल के अग्निवीर बहाल कर रही है।

सरकार अनाज खरीद बढ़ा कर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है लेकिन अनाज की सरकारी खरीद लगातार कम हो रही है।

सरकार 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज दे रही है। लेकिन यह कोई उपाय नहीं है, बल्कि यह गरीबी, बेरोजगारी और असमानता की असली तस्वीर दिखाने वाला आईना है।

इससे देश की वास्तविक स्थिति का पता चलता है।

सरकार असल में गरीबी घटाने, बेरोजगारी रोकने और असमानता दूर करने का कोई सांस्थायिक या नीतिगत प्रयास नहीं कर रही है। उलटे सरकार ने गरीबी और बेरोजगारी का आकलन करने की प्रक्रिया ही रोक दी है।

भारत में उपभोक्ता खर्च के आधार पर गरीबी का आकलन होता है। सुरेश तेंदुलकर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर शहरों में हर दिन 29 रुपए और गांवों में 22 रुपए से कम खर्च करने वालों को गरीब माना जाता है।

कंज्मप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे यानी सीईएस के आधार पर इसका आकलन किया जाता है, लेकिन 2011 के बाद से इसका कोई अपडेट सरकार के पास नहीं है। सरकार ने 2017-18 के सीईएस के आंकड़े ठंडे बस्ते में डाल दिए।

पीरियड लेबर फोर्स सर्वे यानी पीएलएफएस 2017-18 के आंकड़ों से पता चलता है कि चार दशक में पहली बार उपभोक्ता खर्च में कमी आई है। यह गरीबी बढऩे का सीधा संकेत है।

लेकिन सरकार ने इस आंकड़े को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया। भारत में 2011 तक गरीबों की संख्या घट कर 13 करोड़ रह गई थी, जिसमें 2019 तक साढ़े सात करोड़ से ज्यादा की बढ़ोतरी हो गई।

यानी आंकड़ा 21 करोड़ के करीब पहुंच गया। कोरोना के बाद इसमें और बढ़ोतरी हुई होगी।

देश की कुल राष्ट्रीय आय में शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास 57 फीसदी से ज्यादा आय है, जबकि बाकी 90 फीसदी लोग 43 फीसदी राष्ट्रीय आय में शामिल हैं।

असलियत यह है कि सरकार देश में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता दिखाने वाला कोई आंकड़ा इक_ा नहीं कर रही है और इधर उधर से जो आंकड़े आ रहे हैं उन पर ध्यान भी नहीं दे रही है।

सोचें, पिछले डेढ़ सौ साल में पहली बार ऐसा हो रहा है कि समय पर जनगणना नहीं हो रही है।

सवाल है कि जब सरकार के पास आबादी और उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकड़ा ही नहीं होगा तो वह कैसे नीतियां बनाएगी और कैसे गरीबी, बेरोजगारी या असमानता दूर करने का प्रयास करेगी? ऐसा लग रहा है कि इन तीन बुनियादी समस्याओं को लेकर देश के लोगों में जो सोच बन रही है.

नाराजगी पैदा हो रही है और सवाल उठ रहे हैं उसकी चिंता में ही संघ ने एक बयान देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी की है।

अगर सचमुच उसको चिंता है तो उसे एक एक करके इनके समाधान के लिए सरकार पर दबाव डालना चाहिए अन्यथा सरकार इस तरह के बयानों पर कोई ध्यान नहीं देगी।

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कांग्रेस को खडग़े जैसा ही अध्यक्ष चाहिए

अजीत द्विवेदी – देश की सबसे पुरानी पार्टी को इस समय जैसा अध्यक्ष चाहिए था वैसा अध्यक्ष मिलने जा रहा है। कांग्रेस को शशि थरूर जैसे अध्यक्ष की जरूरत नहीं है और न दिग्विजय सिंह और अशोक गहलोत जैसे अध्यक्ष की जरूरत है। उसे मल्लिकार्जुन खडग़े की जरूरत है। हालांकि कांग्रेस के काफी लोग इससे अलग सोच रखते हैं। उनका कहना है कि खडग़े 80 साल के हो गए हैं।

उन लोगों ने मजाक भी बनाया है कि 75 साल की सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी 80 साल के खडग़े हैं! उनकी सेहत भी बहुत अच्छी नहीं है। वे दक्षिण भारत से आते हैं। उनके साथ भाषा की भी कुछ न कुछ समस्या है। वे मोदी से मुकाबला नहीं कर पाएंगे। वे बहुत डायनेमिक नहीं हैं और बहुत मेहनत नहीं कर पाएंगे। वे कांग्रेस में नई जान फूंकने लायक नहीं हैं आदि आदि।

लेकिन ऐसी तमाम बातें कहने वाले लोग या तो केंद्रीय बिंदु को पूरी तरह से मिस कर रहे हैं या कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर खडग़े की मौजूदगी को बहुत सीमित या पूर्वाग्रह वाले नजरिए से देख रहे हैं।

खडग़े को बतौर अध्यक्ष सिर्फ इस नजरिए से देखना चाहिए कि कांग्रेस को अभी कैसे अध्यक्ष की जरूरत है? कांग्रेस को एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है, जो कांग्रेस की राजनीति के कोर बिंदुओं को समझता हो, जो कांग्रेस संगठन के बारे में जानता हो, जिस पर आलाकमान को सौ फीसदी भरोसा हो, जो हर समय कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध हो और जो पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की सारी बातों को धीरज के साथ सुने और आलाकमान के हिसाब से काम करे।

कांग्रेस को ऐसा अध्यक्ष चाहिए, जिससे आंतरिक लोकतंत्र का भ्रम रचा जा सके और लोगों को उस पर यकीन भी दिलाया जा सके। भारतीय जनता पार्टी ने जेपी नड्डा के जरिए ऐसा ही भ्रम रचा है और देश के लोग उस पर यकीन भी करते हैं। असल में फिल्मों की तरह राजनीति भी लोगों को यकीन दिलाने की कला का नाम है।

फिल्मों की तरह राजनीति के दांव-पेंच देखते हुए भी लोग स्वेच्छा से सामान्य बुद्धि को किनारे रख देते हैं।

बहरहाल, खडग़े की सबसे बड़ी ताकत उनका अनुभव है। उन्होंने गुलबर्ग शहर के कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था और यह उस साल की बात है, जब सोनिया गांधी को भारत आए हुए महज एक साल हुए थे। खडग़े ने 1969 में राजनीतिक सफर शुरू किया।

इसके तीन साल बाद 1972 में वे पहली बार विधायक बने और 2019 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो बीच में कोई भी चुनाव नहीं हारे। यानी 47 साल तक अपराजेय बने रहे! नौ बार विधायक और दो बार लोकसभा के लिए चुने गए। वे शहर कांग्रेस से शुरू करके प्रदेश अध्यक्ष बने और अब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे हैं।

वे विधायक रहे, राज्य सरकार में मंत्री रहे, प्रदेश अध्यक्ष रहे, लोकसभा सदस्य रहे, केंद्र सरकार में मंत्री रहे, लोकसभा में पार्टी के नेता रहे और फिर राज्यसभा में भी पार्टी के नेता बने। सो, कांग्रेस के बुनियादी मूल्यों को, पार्टी की राजनीति को और संसदीय राजनीति की जरूरतों को उनसे बेहतर भला कौन जानता होगा!

खडग़े दलित समाज से आते हैं और बौद्ध धर्म को मानते हैं। वे बुद्ध के अनुयायी हैं इसलिए संयम, संतोष, अपरिग्रह और मध्य मार्ग पर चलना उनके सहज स्वभाव का हिस्सा है। कोई बताए कि कांग्रेस का कौन ऐसा नेता है, जो स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री पद का दावेदार हो और जिससे एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि तीन तीन बार यह मौका छीन लिया गया हो और, जिसके मुंह से उफ नहीं निकला हो? खडग़े वह नेता हैं, जिन्हें 1999, 2004 और 2013 में तीन बार मुख्यमंत्री बनने से रोका गया।

इसके बावजूद वे उसी निष्ठा और समर्पण के साथ कांग्रेस का काम करते रहे। उनकी शिकायतें रही होंगी और हो सकता है कि अपनी पार्टी हाईकमान के सामने उन्होंने शिकायतें रखी भी हों लेकिन उसे उन्होंने कभी भी सार्वजनिक नहीं होने दिया।

राजस्थान में अभी जो हुआ या राज्यसभा की एक सीट की खींचतान में जैसे मध्य प्रदेश की सरकार गई उससे कांग्रेस अध्यक्ष के दो पूर्व दावेदारों और खडग़े का फर्क दिखता है।

खडग़े की क्षमता पर वे ही लोग सवाल उठा रहे हैं, जिन्होंने उनको काम करते नहीं देखा है या जो दक्षिण भारतीय, दलित और 80 वर्ष की उम्र के पूर्वाग्रहों के आधार पर उनको देख रहे हैं। मल्लिकार्जुन खडग़े उस समय लोकसभा में कांग्रेस के नेता बने थे, जब कांग्रेस ऐतिहासिक हार के बाद 44 सांसदों की पार्टी रह गई थी।

इन 44 सांसदों में से भी आधे हमेशा सदन से नदारद रहते थे। गिने-चुने सांसदों को साथ लेकर लोकसभा में तीन सौ सांसदों के प्रचंड बहुमत वाली भाजपा के साथ जिन लोगों ने भी खडग़े को जूझते देखा है, वे उनकी क्षमताओं से परिचित हैं। संसद की बहसों में विचारों की जैसी स्पष्टता खडग़े में देखने को मिली वह बेमिसाल है।

चाहे संसदीय कार्यवाही हो या लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के नाते कामकाज हो, खडग़े ने हर जगह छाप छोड़ी। जहां जरूरत पड़ी वहां उन्होंने सभी विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बनाया और नीतिगत व वैचारिक स्तर पर भाजपा व केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया।

यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि कांग्रेस अध्यक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं लडऩा है या उनको चुनौती नहीं देनी है। उनको 2024 के चुनाव का नेतृत्व नहीं करना है। सबको पता है कि यह काम राहुल गांधी करेंगे। लेकिन उससे पहले और उस समय भी कांग्रेस को एक ऐसे नेता की जरूरत है, जो पार्टी हाईकमान के लिए आंख और कान का काम कर सके। कांग्रेस को हर समय खुला रहने वाले एक मुंह की जरूरत नहीं है।

इसलिए कांग्रेस को शशि थरूर या दिग्विजय सिंह की नहीं, बल्कि खडग़े की जरूरत है। वे धीरज के साथ पार्टी मुख्यालय में बैठें और नेताओं की सारी बातें सुन कर उन्हें यकीन दिलाएं कि उनकी बात सही जगह पहुंचेगी और उनकी शिकायत या सुझाव पर कार्रवाई होगी, तो यह अपने आप में बहुत बड़ी बात होगी।

अगर कांग्रेस अध्यक्ष देश के हर राज्य के नेताओं व कार्यकर्ताओं के लिए सहज उपलब्ध हों तो इतने से भी बहुत कुछ बदल जाएगा। अभी अध्यक्ष तो छोडि़ए पार्टी के महासचिव भी नेताओं व कार्यकर्ताओं से नहीं मिलते हैं। कांग्रेस को दिए गए अपने प्रजेंटेशन में प्रशांत किशोर ने बताया था कि कांग्रेस के संगठन महासचिव देश के 90 फीसदी जिला अध्यक्षों से नहीं मिले हैं।

कांग्रेस की इस संस्कृति को बदलना एक बड़ी जरूरत थी, जो खडग़े से पूरी होगी। दक्षिण भारत में खास कर कर्नाटक में उनकी वजह से राजनीतिक लाभ होगा और दलित समुदाय में एक सकारात्मक मैसेज जाएगा, वह अपनी जगह है।

यकीन मानिए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खडग़े वैसे ही सफल होंगे, जैसे प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह सफल हुए थे। खडग़े बिल्कुल उसी तरह की पसंद हैं, जैसे मनमोहन सिंह थे। कांग्रेस हाईकमान के प्रति सौ फीसदी समर्पित! वे पार्टी की जरूरतों को और आलाकमान की इच्छा को समझते हुए काम करेंगे।

पार्टी का वास्तविक सत्ता केंद्र सोनिया और राहुल गांधी होंगे लेकिन खडग़े उनके साथ संपूर्ण सामंजस्य बैठा कर काम करेंगे। इस समय कांग्रेस की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि पार्टी के अंदर कोई बड़ा टकराव न हो और पार्टी एकजुट दिखे। खडग़े से यह मैसेज बनेगा।

वे स्ट्रीट फाइटर हैं इसलिए जहां भाजपा को सड़क पर टक्कर देने की जरूरत होगी वहां भी वे पीछे नहीं रहेंगे। वे संगठन के आदमी हैं, संघर्ष के आदमी हैं!

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