अहोम राजवंश : पूर्वोत्तर का शिवाजी

डॉ. अंकिता दत्ता – 

*यह कहानी है वर्ष 1671 के मार्च के महीने की जब लगभग पूरे देश पर बाहरी आक्रांताओं के आक्रमण चरम पर थे।*

अहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंघा बर्बर आक्रमणकारियों के हाथों अपने पूर्ववर्ती राजा जयध्वज सिंघ की अपमानजनक हार के बाद अहोम शिविर में नवीनतम घटनाओं की जानकारी के लिए उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। बाहरी खतरों और आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक दूर रखकर अहोम वंश ने लगभग चार शताब्दियों तक ब्रह्मपुत्र घाटी पर निर्विवाद शासन किया। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अहोम राजवंश सम्राट शाहजहां के साथ सीधे संघर्ष में शुरू कर रहा था। कोच और कमता राज्य पश्चिम में मुगल और पूर्व में अहोम के बीच मध्यस्थ शक्ति की तरह थे। मुगलों ने कोच साम्राज्य पर हमले करके क्षेत्र का तत्काल विलय करना शुरू कर दिया।

एक तरफ अहोम और दूसरी तरफ मुगलों के बीच अब अंतहीन सैन्य संघर्ष शुरू हो गया था। अहोम साम्राज्य पर मुगलों द्वारा सत्रह बार हमले किये गए। लेकिन मुगल यहां तलवार के बल पर अपना शासन स्थापित करने में कभी सफल नहीं हो सके। अहोम साम्राज्य के खोए हुए क्षेत्रों को लड़कर पुन: प्राप्त करने के लिए अपनी सेना को पुनर्गठित कर पाते, इससे पहले आक्रमणकारियों के हाथों हार के दु:ख और अपमान ने जयध्वज सिंघा का जीवन छीन लिया। इसलिए अहोम साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा बहाल करने के लिए चक्रध्वज पूरी कोशिश कर रहे थे। भूमि पर लडऩे में मुगल सैनिक पारंगत थे, दूसरी ओर अहोम सैनिकों ने इस क्षेत्र के जल-निकायों के माध्यम से दुश्मन को भगाने में अपने पारंपरिक ज्ञान का सबसे अच्छा उपयोग किया। चक्रध्वज सिंघ शुरू में उलझन में थे कि मुगलों के खिलाफ अहोम सेना का नेतृत्व करने के लिए किसे प्रभारी बनाया जाए। अंतत: वे अहोम सेना के एक युवा सैनिक पर केंद्रित हो गए। युवा सैनिक के पास न केवल दुश्मन से लडऩे के लिए अच्छी काया थी बल्कि वह युद्ध की रणनीति में भी अच्छी तरह अनुभवी था। वह थे लाचित बरफुकन। लाचित गुरिल्ला युद्ध में अच्छी तरह प्रशिक्षित थे और अतीत में सफल लड़ाइयों का नेतृत्व कर चुके थे। दुश्मन को शिकस्त देने के उनके जुनून ने उन्हें राजा चक्रध्वज सिंघ के लिए एकदम सही विकल्प बना दिया था।

मुगलों के साथ आगे की लड़ाई की तैयारियों के संबंध में लाचित के पास पहले से ही तैयार योजना थी। मुगलों को पहले जमीन पर करारी हार चखा कर विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के पानी की ओर मोडऩा था, जहां से वे कभी अहोम साम्राज्य में कदम रखने की हिम्मत नहीं कर सकें। मुगल पहले ही गुवाहाटी में भूमि के एक बड़े हिस्से पर अपने स्वामित्व का दावा कर चुके थे। लाचित के तहत अहोम सेना के लिए यह जीवन-मृत्यु की स्थिति बन गई थी। लड़ाई से कुछ दिन पहले तेज बुखार और शारीरिक कमजोरी से लाचित पीडि़त हो गए थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने सैनिकों को निर्देश जारी किए कि जब तक युद्ध की तैयारियां पूरी नहीं हो जातीं तब तक बिल्कुल न सोएं। लचित ने पहले ही उन्हें युद्ध की विभिन्न रणनीतियों के बारे में समझा दिया था ताकि मुगलों को जमीन पर सफलतापूर्वक हराने के बाद ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे की ओर धकेला जा सके।

सेना को तद्नुसार मुगलों को ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर स्थित सराईघाट नामक स्थान की ओर ले जाने के लिए निर्देशित किया गया। सराईघाट की अनूठी भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए लाचित ने यह निर्णय लिया। ब्रह्मपुत्र अत्यंत चौड़ी नदी है जो सराईघाट में संकीर्ण हो जाती है। इसलिए अहोम की नौसेना की रक्षा के लिए स्वाभाविक रूप से सराईघाट आदर्श और उपयुक्त स्थान था। मतलब यह कि ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई ने अहोम सेना को दुश्मन के जहाजों पर नजर रखने और गुरिल्ला हमलों के साथ उन्हें आश्चर्यचकित करने के लिए सबसे लाभप्रद स्थान प्रदान किया था।

सराईघाट की प्रसिद्ध लड़ाई (1671) भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय है क्योंकि यह एकमात्र नौसैनिक युद्ध था जो नदी के तट पर लड़ा गया था। अत्यंत साहसी और दृढ़ अहोम सेना अंतत: मुगलों को सराईघाट के पानी में वापस धकेलने में सक्षम हो गई थी, जहां उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने जल्द ही आत्मसमर्पण कर दिया और असम व दक्षिण-पूर्व एशिया सहित पूरा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र हमेशा के लिए मुगल खतरे से मुक्त हो गया था। असम के लोगों की लोकप्रिय सामाजिक और सांस्कृतिक कल्पना में लाचित बरफुकन का नाम अंकित हो गया।

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