संघ ने चिंता जताई, दबाव क्यों नहीं बनाया?

अजीत द्विवेदी – देर से ही सही लेकिन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने देश के सामने मौजूद तीन सबसे बड़ी समस्याओं- गरीबी, बेरोजगारी और असमानता को लेकर चिंता जताई है।

संघ के नंबर दो पदाधिकारी सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने स्वदेशी जागरण मंच के एक कार्यक्रम में गरीबी को लेकर कहा कि ‘देश में गरीबी एक राक्षस की तरह हमारे सामने खड़ी है और यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम इस राक्षस को समाप्त करें’।

असमानता को लेकर उन्होंने कहा कि ‘देश की राष्ट्रीय आय का 20 फीसदी हिस्सा एक फीसदी लोगों के पास हैं, जबकि देश की आधी आबादी यानी 50 फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का सिर्फ 13 फीसदी हिस्सा है।’ उन्होंने कहा कि यह शर्म की बात है कि देश में 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और 23 करोड़ लोग हर दिन 375 रुपए से भी कम कमा रहे हैं।

बेरोजगारी को लेकर होसबाले ने कहा, ‘भारत में चार करोड़ बेरोजगार लोग हैं, जिनमें से 2.2 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में और 1.8 करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में हैं’।

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अनुषंगी संगठनों की ओर से सरकार की कुछ नीतियों को लेकर समय समय पर चिंता जताई जाती रही है। स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ या भारतीय मजदूर संघ की ओर से नीतिगत मसलों पर सवाल उठाए जाते हैं।

लेकिन हाल के समय में यह पहली बार है, जब सीधे संघ के नंबर दो पदाधिकारी ने केंद्र सरकार की नीतियों की परिणति के तौर पर पैदा हुई गरीबी, बेरोजगारी और असमानता का व्यापक मुद्दा उठाया है।

यह इस लिहाज से बहुत अहम है क्योंकि यह किसी एक नीति की आलोचना या एक नीति के मामले में सुझाव नहीं है, बल्कि एक व्यापक चिंता का मुद्दा है, जो आज देश के सामने मौजूद है।

भारत पहले भी गरीबी, बेरोजगारी और असमानता से मुक्त नहीं था लेकिन पिछले आठ साल में आर्थिक नीतियों के साथ जिस तरह के प्रयोग किए गए हैं उनकी वजह से देश ऐसी स्थिति में पहुंचा है।

भारत में करीब एक दशक तक गरीबी घटने का ट्रेंड था, जो अब पलट गया है और गरीबी बढऩे लगी है। यह सरकारी नीतियों की गड़बडिय़ों के कारण हुआ।

हैरानी की बात है कि जब सरकार आर्थिक नीतियों के साथ बेसिरपैर के प्रयोग कर रही थी, तब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने चुप्पी साधे रखी या लगभग मौन सहमति दी। सबसे पहले नोटबंदी, फिर जल्दबाजी में लागू किए गए जीएसटी और उसके बाद कोरोना महामारी के दौरान लागू किए गए आर्थिक पैकेज के समय संघ की ओर से कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली।

ये तीन बुनियादी मुद्दे हैं, जिनकी वजह से देश की पूरी व्यवस्था बिगड़ गई। नोटबंदी और जीएसटी की व्यवस्था से छोटी व मझोली कंपनियों और स्वरोजगार करने वालों पर सबसे बड़ी मार पड़ी।

उनके कामधंधे बंद हो गए। सरकार की नीतिगत गड़बडिय़ों की वजह से उनका संघर्ष चल ही रहा था कि कोरोना की महामारी शुरू हो गई।

कोरोना महामारी में सरकार ने बिना सोचे समझे पहले लॉकडाउन लगाया और उसके बाद जो आर्थिक पैकेज जारी किया उसमें किसी भी समूह की नकद मदद नहीं की गई। सरकार का पूरा आर्थिक पैकेज कर्ज के प्रावधान करने वाला था।

इसका नतीजा यह हुआ है कि नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रहा एमएसएमई सेक्टर कोरोना की मार नहीं झेल सका और देश में सर्वाधिक लोगों को रोजगार देने वाला यह सेक्टर दम तोड़ रहा है।

इस बीच आर्थिक असमानता बढ़ाने वाली सरकारी नीतियां जारी रहीं। छोटी और मझोली कंपनियों को बढ़ावा देने की बजाय बड़े कॉरपोरेट बनाने के घोषित लक्ष्य के साथ सरकार काम करती रही। सारे बड़े ठेके चुनिंदा कंपनियों को दिए जा रहे हैं।

केंद्र सरकार के उपक्रमों को औने-पौने दाम पर चुनिंदा कंपनियों को बेचा जा रहा है। नई बनी दिवालिया संहिता के जरिए कंपनियों को दिवालिया होने और बैंकों के कर्ज नहीं चुकाने की छूट दी जा रही है।

एक तरफ कंपनियां बैंकों के कर्ज नहीं चुका रही हैं और डिफॉल्ट करने के बाद वापस उन्हीं कंपनियों को औने-पौने दाम में हासिल कर ले रही हैं।

इस तरह बैंकों को दोहरा नुकसान हो रहा है तो चुनिंदा कंपनियों की संपत्ति में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। कृत्रिम तरीके से रुपए को मजबूत रखने के लिए रिजर्व बैंक सुरक्षित मुद्रा भंडार से डॉलर निकाल कर मार्केट में फेंक रहा है तो दूसरी ओर सरकारी उपक्रमों से खरीद करवा कर शेयर बाजार को ऊंचा बनाए रखा गया है।

इसी वजह से चुनिंदा कंपनियों के शेयरों में बेहिसाब तेजी आई है और आय की असमानता बढ़ती गई है।

संघ के नंबर दो पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि सरकार ने इन चुनौतियों से निपटने के लिए पिछले कुछ बरसों में कई कदम उठाए हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है।

सरकार तेल की कीमतों में कमी करके महंगाई काबू में कर सकती है लेकिन उसने नहीं किया है।

सरकार का खजाना अगर भरा हुआ है तो वह बड़ी संख्या में भर्ती करके बेरोजगारी दर को नियंत्रित कर सकती है लेकिन भर्ती के नाम पर वह चार साल के अग्निवीर बहाल कर रही है।

सरकार अनाज खरीद बढ़ा कर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है लेकिन अनाज की सरकारी खरीद लगातार कम हो रही है।

सरकार 80 करोड़ लोगों को पांच किलो अनाज दे रही है। लेकिन यह कोई उपाय नहीं है, बल्कि यह गरीबी, बेरोजगारी और असमानता की असली तस्वीर दिखाने वाला आईना है।

इससे देश की वास्तविक स्थिति का पता चलता है।

सरकार असल में गरीबी घटाने, बेरोजगारी रोकने और असमानता दूर करने का कोई सांस्थायिक या नीतिगत प्रयास नहीं कर रही है। उलटे सरकार ने गरीबी और बेरोजगारी का आकलन करने की प्रक्रिया ही रोक दी है।

भारत में उपभोक्ता खर्च के आधार पर गरीबी का आकलन होता है। सुरेश तेंदुलकर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर शहरों में हर दिन 29 रुपए और गांवों में 22 रुपए से कम खर्च करने वालों को गरीब माना जाता है।

कंज्मप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे यानी सीईएस के आधार पर इसका आकलन किया जाता है, लेकिन 2011 के बाद से इसका कोई अपडेट सरकार के पास नहीं है। सरकार ने 2017-18 के सीईएस के आंकड़े ठंडे बस्ते में डाल दिए।

पीरियड लेबर फोर्स सर्वे यानी पीएलएफएस 2017-18 के आंकड़ों से पता चलता है कि चार दशक में पहली बार उपभोक्ता खर्च में कमी आई है। यह गरीबी बढऩे का सीधा संकेत है।

लेकिन सरकार ने इस आंकड़े को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया। भारत में 2011 तक गरीबों की संख्या घट कर 13 करोड़ रह गई थी, जिसमें 2019 तक साढ़े सात करोड़ से ज्यादा की बढ़ोतरी हो गई।

यानी आंकड़ा 21 करोड़ के करीब पहुंच गया। कोरोना के बाद इसमें और बढ़ोतरी हुई होगी।

देश की कुल राष्ट्रीय आय में शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास 57 फीसदी से ज्यादा आय है, जबकि बाकी 90 फीसदी लोग 43 फीसदी राष्ट्रीय आय में शामिल हैं।

असलियत यह है कि सरकार देश में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता दिखाने वाला कोई आंकड़ा इक_ा नहीं कर रही है और इधर उधर से जो आंकड़े आ रहे हैं उन पर ध्यान भी नहीं दे रही है।

सोचें, पिछले डेढ़ सौ साल में पहली बार ऐसा हो रहा है कि समय पर जनगणना नहीं हो रही है।

सवाल है कि जब सरकार के पास आबादी और उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकड़ा ही नहीं होगा तो वह कैसे नीतियां बनाएगी और कैसे गरीबी, बेरोजगारी या असमानता दूर करने का प्रयास करेगी? ऐसा लग रहा है कि इन तीन बुनियादी समस्याओं को लेकर देश के लोगों में जो सोच बन रही है.

नाराजगी पैदा हो रही है और सवाल उठ रहे हैं उसकी चिंता में ही संघ ने एक बयान देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी की है।

अगर सचमुच उसको चिंता है तो उसे एक एक करके इनके समाधान के लिए सरकार पर दबाव डालना चाहिए अन्यथा सरकार इस तरह के बयानों पर कोई ध्यान नहीं देगी।

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