अजय दीक्षित –
ग्लोबल वार्मिंग संकट को लेकर मीडिया व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठन लगातार चेताते रहे हैं वह अब हकीकत बनता जा रहा है । विडम्बना यह है कि इस संकट की गम्भीरता के प्रति न तो नीति-नियंता गंभीर नजर आये और न ही जनता के स्तर पर जागरूकता दिखाई दे रही है । यह संकट कितना बड़ा है, वैश्विक संस्था क्रॉस डिपेन्डेन्सी इनिशिएटिव यानि एक्सडीआई की रिपोर्ट उजागर कर देती है । संस्था ने दुनिया के तमाम राज्यों, प्रांतों और क्षेत्रों में निर्मित पर्यावरण केन्द्रित भौतिक जलवायु के जोखिम का तार्किक विश्लेषण किया है ।
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के चलते हमारी फसलों, आबोहवा तथा जल स्त्रोतों पर पडऩे वाले प्रभावों के आकलन के बाद पचास संवेदनशील क्षेत्रों का चयन किया गया है । चिंता की बात यह है कि अमेरिका व चीन के बाद भारत के तमाम राज्य इस संकट वाली सूची में शामिल हैं । उसमें पंजाब भी शामिल है । यूं तो इस सूची में बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात व केरल भी शामिल हैं, लेकिन पंजाब को लेकर हमारी चिंता बड़ी होनी चाहिये । इसकी एक वजह पंजाब का राष्ट्रीय खाद्यान्न पूल में बड़ा योगदान होना है ।
यदि ग्लोबल वार्मिंग संकट का राज्य में विकट प्रभाव नजर आता है तो देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिये भी चुनौती पैदा हो सकती है । वहीं दूसरी ओर पंजाब संवेदनशील सीमावर्ती राज्य है, जिसकी किसी तरह की समस्या जटिलता को जन्म दे सकती है । यद्यपि देश के अन्य राज्यों में जलवायु परिवर्तन के जोखिम को भी हल्के में लेने की जरूरत नहीं है । इस समस्या की गम्भीरता को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर इस चुनौती के मुकाबले के लिये रणनीति बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वह भी ऐसे वक्त में जब देश में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.
हमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले संकट के प्रति सचेत होना पड़ेगा । दरअसल, इस संकट की बड़ी मार समाज के कमजोर वर्गों व खेतिहर श्रमिक जैसे पेशों पर पड़ती है। दरअसल, इस गंभीर समस्या के प्रति जहां केंद्र व राज्यों को मिलकर मुहिम चलाने की जरूरत है, वहीं किसानों व आम लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि बढ़ते तापमान से हमारी फसलों की उत्पादकता घट जाती है। किसानों ने पिछले साल भी खेतों में लहलहाती फसलों को लेकर जो उम्मीदें जगायी थीं, वो अधिक तापमान होने से अनाज के उत्पादन व गुणवत्ता में आई गिरावट के चलते टूट गई।
कमोबेश ऐसी ही स्थिति इस बार भी नजर आ रही है, जिसने किसानों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। ऐसे में हमारे कृषि वैज्ञानिकों को आगे आने की जरूरत है। साथ ही इस दिशा में अब तक प्रयोगशालाओं में जो शोध हुए है. उसे खेत-खलिहानों तक पहुंचाने की जरूरत है। यह तय है कि दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले विकसित देश इस दिशा में कई दशकों से जिस तरह लापरवाह बने हुए हैं, उसमें जल्दी कोई बदलाव होता नजर नहीं आता।
ऐसे में हमें हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने, जीवाश्म ऊर्जा से परहेज तथा प्रकृति अनुकूल नीतियों को प्रश्रय देना होगा। इतना तय है कि हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति और प्रकृति के चक्र में मानवीय हस्तक्षेप ने समस्या को जटिल बनाया है। ऐसे में हमें वृक्ष लगाने तथा हरित इलाके के विस्तार को प्राथमिकता देनी होगी। मौसम में असामान्य बदलाव से हमारे परंपरागत जल स्रोतों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
आने वाली पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित करने के लिये हमें जल स्रोतों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देना होगा यह तय हैं कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है जल स्रोत सिमटने लगते हैं। ऐसा ही संकट देश के कई महानगरों में मंडरा रहा है। वहीं हाल के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि से गेहूं, दलहन और तिलहन पर असर पडऩे की आशंका है। इतना ही नहीं, हमारे मौसमी फल भी इसकी जद में आ सकते हैं ।
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