बिहार : आतंकवाद का खतरा

*अवधेश कुमार –

हिंडनबर्ग हंगामे के बीच बिहार से पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के संदिग्धों की गिरफ्तारी सुर्खियां नहीं बन पाई।
हालांकि भारत की आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण घटना है। जैसी कि जानकारी है, बिहार के पूर्वी चंपारण यानी मोतिहारी जिले के कई स्थानों से छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया। मामला कितना गंभीर होगा इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बिहार पुलिस की कार्रवाई के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) तो लगी थी ही, उत्तर प्रदेश पुलिस का आतंकवादी निरोधी दस्ता या एटीएस तथा इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारी भी वहां पहुंचे।

पकड़ा गया एक संदिग्ध रियाज मारूफ पहले से ही सुरक्षा एजेंसियों के रडार पर था क्योंकि पिछले वर्ष पीएफआई के बिहार में सबसे खतरनाक मॉड्यूल, जिसे फुलवारी शरीफ-पटना मॉड्यूल कहा जाता है, में भी इसका नाम आया था। बिहार और देश की राजनीति में इस समय एक पक्ष सुरक्षा एजेंसियों की हर कार्रवाई पर संदेह की उंगली उठाता है, और इस मामले में भी ऐसा ही है। किंतु इस आधार पर हम पीएफआई जैसे कट्टरपंथी संगठनों के खतरे का मूल्यांकन नहीं कर सकते। यूपीए सरकार के समय एनआईए के आतंकवाद संबंधी दस्तावेज देखें तो आपको बिहार मॉड्यूल नामक शब्द मिलेगा। चाहे 2006 का मुंबई के उपनगरीय रेलवे का विस्फोट हो या वाराणसी के संकट मोचन मंदिर पर आतंकी हमला या उसके बाद दिल्ली में विस्फोट। ऐसी अनेक घटनाएं थीं जिनमें बिहार से जुड़े आतंकी सीधे तौर पर शामिल थे। दरभंगा से लेकर किशनगंज एवं पटना से जुड़े फुलवारी शरीफ के निवासियों की दूसरे राज्यों से गिरफ्तारियां हुई। यहां तक कि खूंखार आतंकी यासीन भटकल की शरणस्थली भी बिहार और उससे लगा नेपाल ही साबित हुआ। दुर्भाग्य से देश की स्मृति बहुत कमजोर है।

कोई घटना होती है तो हम छाती पीटते हैं, मीडिया, सोशल मीडिया पर कुछ समय अभियान चलता है, राजनीतिक नेताओं के वक्तव्य आते हैं, और फिर धीरे-धीरे सब शांत। जिन लोगों को पिछले वर्ष पीएफआई के पटना- फुलवारी शरीफ मॉड्यूल के सामने आने से हैरत हुई, उनको आतंकवाद के संदर्भ में बिहार की पृष्ठभूमि का ध्यान नहीं था। ऐसा होता तो कतई हैरत व्यक्त नहीं करते। हालांकि इससे बड़ी त्रासदी कुछ नहीं हो सकती कि पीएफआई मॉड्यूल के सामने आने के बावजूद देश ने बिहार को आतंकवाद के प्रमुख रडार पर मानने का व्यवहार नहीं दिखाया। आज भी बिहार की राजनीति में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो मानते हैं कि पुलिस और एनआईए ने तिल का ताड़ बनाया। साफ हो गया है कि पीएफआई मॉड्यूल में अपना एक लक्ष्य बनाया था। उसमें आजादी के 100 वर्ष पूरा होने पर भारत को इस्लामिक राज में परिणत करना सर्वप्रमुख था। गजवा ए हिंद शब्द के उसके दस्तावेज में इसका सीधा उल्लेख था। इसके लिए वे जगह-जगह ट्रेनिंग भी दे रहे थे। उनकी योजना में दलितों और पिछड़ों को अंबेडकर के नाम पर भ्रमित करना भी शामिल था।

बावजूद सच देखते हुए बिहार के राजनेता और बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका इसे खतरा मानने को तैयार नहीं तो उस पर किस प्रकार की टिप्पणी की जा सकती है। यह आत्मघाती व्यवहार है। बिहार की मौजूदा सरकार एवं संपूर्ण राजनीतिक प्रतिष्ठान को स्वीकार करना चाहिए कि उनका प्रदेश आतंकियों का केंद्र बन चुका है। राजनीतिक नेतृत्व की सोच के अनुसार ही पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां कार्रवाइयों की दिशा निर्धारित करती हैं। उनके जिम्मे सुरक्षा है, इसलिए राजनीतिक नेतृत्व की विचारधारा से परे भी कई बार कार्रवाइयां होती हैं। पर इनमें उस प्रकार की प्रखरता और तत्परता नहीं होती जैसी होनी चाहिए। वर्तमान बिहार ऐसी परिस्थिति से गुजर रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा भाजपा का साथ छोड़ राजद से हाथ मिलाने के बाद की तस्वीर किसी तरह सामान्य नहीं मानी जा सकती। स्वयं जनता दल के अंदर ही अंतर्कलह का विस्फोट हो चुका है।

बिहार की बहुसंख्या मानती है कि नीतीश के इस कदम के पीछे किसी तरह की नैतिक, व्यावहारिक या तार्किक सोच नहीं है। नीतीश अभी तक अपने ही साथियों को समझाने में सफल नहीं हैं कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया। इस कारण जनता दल के अंदर प्रकट-अप्रकट तीव्र हलचल है। अनेक नेता, जो बोलते नहीं, मानते हैं कि नीतीश के इस कदम से उनकी पार्टी की मृत्युगाथा लिख दी गई है। इस कारण उनका ध्यान बिहार की ज्वलंत समस्याओं से ज्यादा अपने राजनीतिक हितों की सुरक्षा और भविष्य की राजनीति पर ज्यादा है। उपेंद्र कुशवाहा का वर्तमान व्यवहार इसका उदाहरण मात्र है। दूसरी ओर राजद के अंदर भी यही भाव है कि नीतीश आज जरूर आए हैं, लेकिन इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। संभव है ये भाजपा का विरोध करते-करते फिर उस ओर जाने की कोशिश करें। एक दूसरे के प्रति सत्तारूढ़ खेमे में अविश्वास और आशंकाओं के बीच सरकार और प्रशासन सुचारू रूप से नहीं चल सकता। यह स्थिति निश्चय ही चिंता का विषय है।

कायदे से अभी तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार में जिहादी आतंकवाद को लेकर बैठकर आयोजित करनी चाहिए थी। आखिर, पिछले वर्ष अग्निवीर योजना के विरुद्ध सबसे ज्यादा हिंसा बिहार में हुई थी। लग रहा था कि कुछ प्रशिक्षित, प्रोफेशनल विरोध के नाम पर उपद्रव और अग्निकांड में शामिल थे। बिहार के मुख्यमंत्री की ओर से एक बयान नहीं आया जिसमें कहा जाए कि वे सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्ध हैं, और इससे खिलवाड़ करने वालों और लोगों की जान जोखिम में डालने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। 2005-10 के बीच नीतीश को सुशासन बाबू का विशेषण प्राप्त हुआ था। उस दौर की विशेषता थी कि बिहार अपराध और कुशासन के दौर से निकल कर सुरक्षित और कानून के शासन के दौर में वापिस लौट रहा था। नीतीश कुमार के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध कर सेक्युलर खेमे का हीरो बनने की भावना पैदा हुई। उनकी भाषा बदली और सुशासन का लक्ष्य प्राथमिकता में नहीं रहा।

भारत में सेक्युलरिज्म के साथ समस्या यह है कि जानते हुए भी भयावह यथार्थ को स्वीकार नहीं किया जाता जिहादी आतंकवाद वैश्विक समस्या है, और उससे प्रभावित मुस्लिम युवा यहां भी खतरनाक दिशा में बढ़ चुके हैं। बिहार इस विचारधारा का सबसे बड़ा शिकार है। बिहार की सुरक्षा और शांति के लिए आवश्यक है कि राजनेता इस मानसिकता से बाहर आएं।

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