क्यों हिंसक हो रहे हैं बच्चे

रोहित कौशिक  –  हाल ही में इंदौर में एक छात्र द्वारा पेट्रोल डालकर जलाई गई कॉलेज की प्रिंसिपल की मौत हो गई। आरोपी छात्र के खिलाफ रासुका लगा दी गई है।कुछ दिनों पहले ही मार्कशीट न मिलने से गुस्साए एक पूर्व छात्र आशुतोष श्रीवास्तव ने इंदौर के बीएम फॉर्मेसी कॉलेज की प्रिंसिपल विमुक्ता शर्मा पर पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी थी। चार-पांच दिनों तक अस्पताल में मौत से जूझने के बाद उनकी मौत हो गई।

इसी तरह अमेरिका के फ्लोरिडा से भी छात्र द्वारा की गई हिंसा की खबर प्रकाश में आई है। फलोरिडा के मतांजस हाई स्कूल में एक छात्र ने अपने शिक्षक के सहयोगी को बुरी तरह पीटा क्योंकि उसने छात्र का वीडियो गेम छीन लिया था। कुछ समय पहले लखनऊ में पबजी खेलने से मना करने पर 16 साल के एक बेटे ने अपनी मां को मौत के घाट उतार दिया था। ये घटनाएं तो उदाहरण मात्र हैं।

भारत समेत पूरे विश्व में इस तरह की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। दरअसल, बच्चों और युवाओं पर किसी न किसी रूप में बदलते समय का प्रभाव पड़ता ही है। इस दौर में पूरे विश्व में हिंसा का तत्व प्रभावी हो गया है। हिंसा का यह तत्व प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे मानस को प्रभावित कर रहा है। हिंसा की भावना मात्र हिंसक दृश्यों को देखकर ही नहीं पनपती, बल्कि अगर किसी भी कारण से हमारे व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है और हमारा दिमाग आसानी से उस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहा है, तो भी हमारे अंदर हिंसा की भावना पैदा होती है।

दरअसल, नये दौर में दुनिया तेजी से बदल रही है। इसलिए इस माहौल में बच्चों का व्यवहार भी तेजी से बदल रहा है। इस बदलाव के कारण बच्चे अनेक दबाव झेल रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्कूल-कॉलेजों के बच्चों और युवाओं द्वारा की जाने वाली हिंसा कुंठा और दबाव के कारण होती है। यह स्थिति बच्चों और युवाओं के संदर्भ में गंभीर समस्याओं को जन्म देती है।

इसी कारण बच्चे अपने अंदर सहयोग और सदभाव की भावना विकसित नहीं कर पाते। स्कूल और कॉलेजों की शिक्षा प्रणाली भी बच्चों और युवाओं में मानिसक दबाव और तनाव पैदा कर रही है।विडंबना यह है कि बदलते माहौल में बच्चों के मनोभाव और समस्याओं को समझने की कोशिश भी नहीं की जाती। यही वजह है कि बच्चे आत्मकेंद्रित होने लगते हैं।

हमें गंभीरता से इस बात पर विचार करना होगा कि कहीं बच्चों को हिंसक बनाने में हमारा ही हाथ तो नहीं है ? अक्सर देखा गया है कि माताएं तो अपने बच्चों को समय दे देती हैं, लेकिन ज्यादातर पिता अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते। दूसरी तरफ, सोशल मीडिया ने भी बच्चों और युवाओं के व्यवहार को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दरअसल, कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा की मजबूरी के चलते भी बच्चों को मोबाइल की ज्यादा लत लगी। इस लत ने धीरे-धीरे इस तरह अपनी जड़ें जमा लीं कि इसके दुष्परिणाम बच्चों को अपनी चपेट में लेने लगे।

परिवार भी बच्चों को मोबाइल और सोशल मीडिया से दूर रखने का कोई व्यावहारिक हल नहीं ढूंढ़ पाए। यही कारण है कि आज के बच्चे अनेक मनोवैज्ञानिक व्याधियों से ग्रस्त हैं। दरअसल, हम बच्चों और युवाओं के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश ही नहीं करते और सतही तौर पर उनकी समस्याओं पर बात करने लगते हैं। एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल गेम खेलने वाले लगभग 95 फीसदी बच्चे तनाव की चपेट में आसानी से आ जाते हैं।

करीब 80 फीसदी बच्चे गेम के बारे में हर समय सोचते रहते हैं। गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जून, 2018 में ऑनलाइन गेमिंग को एक मानसिक स्वास्थ्य विकार घोषित किया था। ऑनलाइन गेम उद्योग में भारत दुनिया में चौथे नंबर पर है। हमारे देश में 60 फीसदी से ज्यादा ऑनलाइन गेम खेलने वाले 24 साल से कम उम्र के हैं। सवाल है कि क्या इस दौर में गंभीरता के साथ इस बात को लेकर चिंतन हो रहा है कि बच्चों और युवाओं में प्रतिशोध की भावना क्यों पैदा हो रही है?

क्या कारण है कि आज हिंसक चरित्र बच्चों के आदर्श बन रहे हैं? क्यों बच्चों में धैर्य और संयम खत्म होता जा रहा है? इन सवालों के उत्तर ढूंढऩे की कोशिश की जाएगी तो उनके मूल में संवादहीनता की बात ही सामने आएगी। यह संवादहीनता द्विपक्षीय है यानी एक तरफ बच्चों का परिवार से संवाद नहीं है तो दूसरी तरफ परिवार का भी बच्चों से संवाद नहीं है।

अगर कहीं परिवार का बच्चों से संवाद है, तो उसमें भी नकारात्मकता का भाव ज्यादा है। यही कारण है कि बच्चों और युवाओं में चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। जब तक बच्चों और युवाओं से परिवार और शिक्षण संस्थानों का सकारात्मक संवाद स्थापित नहीं होगा तब तक बच्चों में धैर्य और संयम जैसे गुण विकसित नहीं हो पाएंगे।

इस दौर में जिस तरह से भारत समेत पूरे विश्व के बच्चों और युवाओं में हिंसा की भावना बढ़ रही है, उसे देखते हुए परिवार और शिक्षण संस्थानों को कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे। इन प्रयासों के व्यावहारिक पहलुओं पर भी ध्यान देने की कोशिश करनी होगी।

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