डोपिंग का डंक : सवालों के घेरे में सिस्टम

*संदीप भूषण –

नब्बे के दशक में सुपर स्टार बेन जॉनसन का जलवा हुआ करता था। सियोल ओलंपिक में 100 मीटर दौड़ 9.79 सेकेंड में पूरी कर उन्होंने सबको चौंका दिया था।

हालांकि, उनके साथी धावक कार्ल लुईस को उनके इस प्रदर्शन पर शक था। उन्होंने तब सार्वजनिक तौर पर कहा भी था कि जॉनसन की इस तेजी में कुछ गड़बड़ी है। बाद में खेलों के महाकुंभ में डोपिंग का बम फूटा और लुईस की आशंका सच साबित हुई। जॉनसन के नमूने पॉजिटिव पाए गए और उनसे पदक छीन लिया गया। इस घटना ने अंतरराष्ट्रीय जगत को सकते में ला दिया। खेलों में नशीले पदार्थ का सेवन रोकने की जिम्मेदारी उठाने वाली विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी ने सख्ती बरतनी शुरू की। बावजूद इसके अब तक रूस और अमेरिका सहित कई देश के खिलाडिय़ों को डोपिंग का दोषी पाया जा चुका है।

भारत भी इस कलंक से अछूता नहीं है। 1968 में दिल्ली में आयोजित मैक्सिको ओलंपिक ट्रायल के दौरान कृपाल सिंह से लेकर पहलवान नरसिंह तक इसके जाल में फंस चुके हैं। ताजा मामला जिमनास्ट दीपा कर्माकर का है। अरबों रु पये खर्च करने के बाद भी खिलाडिय़ों का डोपिंग में फंसना हमारे समूचे खेल सिस्टम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहा है। साथ ही खेल में महाशक्ति बनने के हमारे सपने में भी बाधा बन रहा है।

दरअसल, प्रतियोगिता से इतर लिये गए दीपा के नमूने पॉजिटिव पाए गए हैं। रियो ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन से चौथे स्थान पर रही दीपा पर 21 महीने का प्रतिबंध लगा। उन्होंने सजा स्वीकार कर ली, लेकिन कहा कि उन्होंने अनजाने में इसका सेवन किया था। गौरतलब है कि भारतीय खेल जगत में अब तक जितने भी खिलाड़ी डोपिंग में फंसे हैं, उनमें से ज्यादातर ने स्वीकार किया कि कम जानकारी या अनजाने में ही उन्होंने प्रतिबंधित दवाओं का सेवन किया।

सवाल उठता है कि आखिर महासंघ, कोच, डॉक्टर और डाइटिशियन खिलाडिय़ों को डोपिंग संबंधी जानकारी मुहैया कराने में असफल क्यों हो रहे हैं कब तक खिलाडिय़ों की मेहनत पर अनजाने में की गई एक छोटी सी गलती भारी पड़ती रहेगी अगर खिलाड़ी दोषी है तो उसके कोच और डाइटिशियन को भी इसका दोषी क्यों नहीं माना जाना चाहिए विशेषज्ञों की मानें तो डोपिंग में किसी खिलाड़ी के फंसने के मुख्य कारण महासंघ, कोच और डाइटिशियन की लापरवाही के साथ खिलाडिय़ों में जागरूकता की कमी है। यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय एथलेटिक्स में ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण पृष्ठभूमि के आते हैं। जाहिर है कि खेल को डोपिंग मुक्त बनाने के लिए केंद्र के साथ राज्य सरकारों को भी मिलकर काम करने की जरूरत है।

हरियाणा, पंजाब, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्य इसमें अग्रणी की भूमिका निभा सकते हैं, जहां से सबसे ज्यादा एथलीट आते हैं। निस्संदेह इन सबके साथ राज्यों को खेल ढांचा मजबूत करने के साथ डोपिंग के मुद्दे पर भी जागरूकता अभियान भी चलाना होगा। यह पहल कई जगह शुरू भी हुई है। आगे इसको और संगठित और प्रभावी तरीके से चलाने की जरूरत है। गौरतलब है कि अब तक की स्थिति में भारतीय खेल को खासा नुकसान उठाना पड़ा है कि शुरुआती दौर में खिलाडिय़ों को अपने निजी कोच से उन्हें सिर्फ खेल निखारने की ही जानकारी मिल पाती है। उन्हें नहीं पता होता कि विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी की प्रतिबंधित लिस्ट में किन-किन दवाइयों को शामिल किया गया है। भारत में तो कई मामले ऐसे भी आए जब जूनियार और सीनियर खिलाड़ी खांसी या मामूली बुखार में दवा का सेवन करते हैं और उनके नमूने डोपिंग में पॉजिटिव पाए जाते हैं।

दूसरी तरफ, जिस महासंघ या कोच पर खिलाडिय़ों को जागरूक करने की जिम्मेदारी होती है, वे इससे पल्ला झाड़ लेते हैं। बीते कुछ दिनों में अंतरराष्ट्रीय खिलाडिय़ों के साथ-साथ जूनियर खिलाडिय़ों में भी डोपिंग के मामले देखे जा रहे हैं। इस मामले में आए कई विश्लेषण रिपोर्ट्स में बताया गया है कि इसके पीछे खिलाडिय़ों पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव है। खिलाडिय़ों को पता होता है कि चाहे सरकारी नौकरी हो, सर्वश्रेष्ठ स्कूलों और कॉलेजों में प्रवेश पाना हो या विज्ञापन व अन्य आर्थिक लाभ के लिए अलग-अलग लीग और कंपनियों से अनुबंध पाने की, एक बेहतर प्रदर्शन उनकी सफलता का मार्ग सुनिश्चित करेगा। बेहतर प्रदर्शन के लिए माता-पिता, शिक्षकों, प्रशिक्षकों और साथी प्रतिस्पर्धियों का दबाव होता है।

भारत सरकार खेल बजट को हर साल बढ़ा रही है। खिलाडिय़ों को देश में विदेशी कोच मुहैया कराना हो या विदेश कोचिंग के लिए भेजना, उन्हें हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं। हालांकि, आज भी डोपिंग रोधी नियमों को लेकर जागरूता फैलाने के मामले में सीनियर और जूनियर एथलीटों के बीच अंतर नजर आता है। साथ ही जूनियर स्तर के खिलाडिय़ों के बीच नमूनों की जांच की संख्या भी बेहद कम है। इसका बड़ा कारण डोपिंग टेस्ट पर आने वाला खर्च है। महासंघ और नाडा उन खिलाडिय़ों के नमूने लेने से बचती है, जो तुरंत किसी प्रतियोगिता में नहीं भाग ले रहे हैं। इसका भी खिलाडिय़ों पर असर पड़ता है।

बहरहाल, भारतीय खेल प्रधिकरण का दावा है कि वह एक ऐसा ऐप विकसित कर रहा है, जिससे कोई भी खिलाड़ी आसानी से प्रतिबंधित दवाओं की जानकारी ले सकेगा।

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