भारतीय नौसेना को एक और ‘समंदर का धुरंधर’ मिल गया है

Indian Navy has got another 'Samunder Ka Dhurandhar'

समंदर का धुरंधर

भारतीय नौसेना को एक और ‘समंदर का धुरंधर’ मिल गया है। नौसेना के बेड़े में ‘आईएनएस विशाखापट्टनम’ के शामिल होने से हमारी समुद्री सैन्य ताकत में शानदार इजाफा हुआ है। यह प्रोजेक्ट 15बी का पहला स्टील्थ गाइडेड मिसाइल विध्वंसक जहाज है। इसे नौसेना के शीर्ष कमांडरों की मौजूदगी में रविवार को सेवा में शामिल किया गया। नौसेना अध्यक्ष एडमिरल करमबीर सिंह ने इस अवसर को ‘युद्धपोत आत्मनिर्भरता का शानदार उदाहरण’ करार दिया। दो दिन बाद पनडुब्बी ‘वेलाÓ को भी नौसेना में शामिल किया जाएगा। इसके अलावा अगले महीने सर्वे वैसल ‘संध्या’ को नौसेना की सेवा में ले लिया जाएगा। मिसाइल भेदी जहाज ‘आईएनएस विशाखापट्टनम’ कई खूबियों वाला है। सभी अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस यह जहाज ब्रह्मोस-बराक जैसी विध्वंसक मिसाइलों से लैस है। इसमें सुपरसोनिक सतह से सतह और सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलें, मध्यम और शॉट रेंज गन, एंटी सबमरीन रॉकेट, एडवांस इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर और कम्युनिकेशन सूट जैसी खूबियां भी हैं। आईएनएस विशाखापट्टनम की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह दुश्मन के जहाज को देखते ही एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल लॉन्च कर उसका खात्मा कर सकता है। साथ ही यह भी गर्व की बात है कि यह युद्धक जहाज पूरी तरह से स्वदेशी है। कुल 74 हजार टन वजनी इस जहाज की लंबाई 535 फुट है। बताया जा रहा है कि लगभग 56 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाला यह युद्धक जहाज जब धीमी गति से भी चलता है तो इसकी रेंज में 7400 किलोमीटर क्षेत्र रहता है। यानी विशाल समुद्री क्षेत्र में भारतीय नौसैनिकों की सजग निगाहें बनी रहेंगी। बेशक भारतीय नौसेना के पास और भी कई युद्धक जहाज हैं, लेकिन आईएनएस विशाखापट्टनम अत्याधुनिक खूबियों वाला और समयानुकूल है। कई खूबियों वाले इस जहाज का नौसेना के बेड़े में शामिल होना गौरव की बात तो है ही, साथ ही दुनिया भी भारत की समुद्री ताकत से रू-ब-रू हो गई। आईएनएस विशाखापट्टनम के साथ ही पनडुब्बी वेला जब नौसेना का हिस्सा बन जाएगी तो इसकी ताकत में इजाफा ही होगा। भारत के पास अभी कुल 13 पनडुब्बियां हैं। ये पनडुब्बियां रूस और जर्मनी में निर्मित हुई हैं। देश की पहली परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी अरिहंत पहले से नौसेना के बेड़े का हिस्सा है। नौसेना प्रमुख के मुताबिक फिलवक्त 41 में से 39 पोत और पनडुब्बी के ऑर्डर भारतीय शिपयार्ड को दिए गए हैं। यानी भारतीय नौसेना को मजबूत बनाने की दिशा में पूरी पहल हो रही है।
यूं तो भारतीय सेनाओं के तीनों अंगों को लगातार मजबूत किया जा रहा है, लेकिन समुद्री ताकत को ज्यादा मजबूत करना वक्त की जरूरत है। जैसा कि इस जहाज को नौसेना के बेड़े में शामिल करते वक्त रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि स्थिरता, आर्थिक प्रगति और दुनिया के विकास के लिए नेविगेशन की नियम आधारित स्वतंत्रता, समुद्री गलियारों की सुरक्षा पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। ऐसे में इस बात का ध्यान रखना लाजिमी है कि सभी भागीदार देशों के हित सुरक्षित रह सकें। इस क्षेत्र की सुरक्षा में हमारी नौसेना की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। साथ ही यह भी ध्यान रखने की बात है कि पड़ोसी देश चीन ने अपनी विस्तारवादी सोच को समुद्र में भी नहीं छोड़ा है। दक्षिण चीन सागर में चीन द्वीपों का सैन्यीकरण कर रहा है, जिसकी वैश्विक रूप से आलोचना होती रही है। इस क्षेत्र को लेकर पूर्वी और दक्षिण पूर्वी कई एशियाई देशों के व्यापक दावे हैं। ऐसे में शक्ति संतुलन के लिए आईएनएस विशाखापट्टनम जैसे युद्धक जहाजों की जरूरत भारत को थी। सामरिक महत्ता के अलावा विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी भारत का समुद्री क्षेत्र बेहद महत्वपूर्ण है। आज वैश्विक सुरक्षा कारणों, सीमा विवादों और समुद्री प्रभुत्व को बनाए रखने के महत्व के कारण दुनियाभर के देश अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत और आधुनिक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। ऐसे में भारत ने खुद को समुद्री शक्ति संपन्न देशों की कतार में ला खड़ा किया है जो गौरवान्वित करने वाली बात है। (एजेंसी)

गंभीर आपराधिक मामलों की जांच में देरी

अनूप भटनागर –
पंजाब, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सहित आठ गैर भाजपा सरकारों द्वारा अपने राज्यों में सीबीआई को जांच की अनुमति वापस लिये जाने से एक नया विवाद शुरू हो रहा है। सीबीआई को दी गयी सहमति वापस लिये जाने का मामला अब उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में लाया गया है। सवाल उठ रहा है कि क्या भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और धनशोधन के मामलों में जानबूझकर बाधा डालकर संदिग्ध आरोपियों को बचाने के प्रयास हो रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वैचारिक मतभेद और असहमति होना स्वाभाविक है। शीर्ष अदालत भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति को प्रेशर वाल्व मानती है। लेकिन इसकी आड़ में भ्रष्टाचार, सुनियोजित अपराध और दूसरे अंतर्राज्यीय अपराधों की जांच करने वाली केंद्रीय एजेंसियों को राज्यों द्वारा सामान्य प्रक्रिया में दी गयी संस्तुति वापस लेना गंभीर सवाल पैदा करता है।
आठ राज्यों की सरकारों का ऐसा रवैया अनायास इस आशंका को जन्म देता है कि शायद ये ऐसे अपराधों में संलिप्त आरोपियों को संरक्षण देने का प्रयास कर रही हैं। इन आठ राज्यों ने डीएसपीई कानून की धारा छह के तहत दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (सीबीआई) को पहले दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है। इनमें पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल और मिजोरम शामिल हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद दो मई से राज्य में हुई हिंसा की घटनाओं की जांच का काम केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपने के उच्च न्यायालय के निर्णय को शीर्ष अदालत में चुनौती देने का राज्य सरकार का फैसला और सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत की जांच के लिए मुंबई गए सीबीआई के जांच दल के साथ कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर हुआ व्यवहार इस तरह की आशंका को पुख्ता करता है।
इन राज्यों द्वारा केन्द्र के साथ वैचारिक मतभेदों की वजह से डीएसपीई कानून की धारा छह के तहत केन्द्रीय जांच ब्यूरो को अपने यहां जांच के लिए पहले दी गई सामान्य सहमति वापस लेने का नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार के 150 से अधिक मामलों की जांच अधर में लटकी हुई है। उच्चतम न्यायालय को उपलब्ध कराई जानकारी के अनुसार इन आठ राज्यों को 2018 से जून, 2021 के दौरान 150 से भी ज्यादा अनुरोध उनकी विशिष्ट सहमति के लिए भेजे गए लेकिन उसे अभी तक सहमति नहीं मिली है।
राज्यों के इस रवैये से उच्चतम न्यायालय भी चिंतित है। न्यायालय ने हाल ही में इस तथ्य का जिक्र करते हुए कहा कि ये अनुरोध आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति अर्जित करने, विदेशी मुद्रा को नुकसान, बैंकों के साथ धोखाधड़ी और हेराफेरी करने जैसे आरोपों की जांच से संबंधित हैं।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश की पीठ ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि यह स्थिति वांछनीय नहीं है। भ्रष्टाचार और धनशोधन के मामलों में हमेशा ही सख्त रुख अपनाने वाली शीर्ष अदालत ने कहा कि इनमें 78 प्रतिशत मामले मुख्य रूप से देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले बैंक धोखाधड़ी के बड़े मामलों से संबंधित हैं।
पीठ की इस तरह की सख्त टिप्पणी के मद्देनजर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार के इस तरह के गंभीर मामलों में सीबीआई को अपने राज्य में जांच की अनुमति नहीं देकर राज्य सरकारें किसका हित साध रही हैं। यह भी संयोग ही है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों को सहमति नहीं देने वाली राज्य सरकारें गैर भाजपाई हैं। मतलब देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले अपराधों की जांच और दोषियों को कानून के शिकंजे में लाने के प्रयासों को भी राजनीतिक नफे-नुकसान की तराजू पर तोला जा रहा है।
राजनीतिक लाभ-हानि को ध्यान में रखते हुए आपराधिक मामलों की जांच करने के लिए सहमति प्रदान नहीं करने का नतीजा यह होता है कि इनकी जांच लंबे समय तक अधर में ही लटकी रहती है। जांच पूरी होने में विलंब की वजह से ऐसे मामले अदालत में नहीं पहुंच पाते और अगर अदालत में पहुंच जाएं तो किसी न किसी आधार पर कई मामलों में न्यायिक रोक लग जाती है।
यह सारे तथ्य केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यशैली और उसके मुकदमों में दोष सिद्धि की दर के बारे में केन्द्रीय जांच ब्यूरो को हलफनामा दाखिल करने के शीर्ष अदालत के आदेश के जवाब में सामने आयी। जांच ब्यूरो ने अपने हलफनामे में दावा किया कि उससे संबंधित 13,200 से ज्यादा मामले देश की विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। इनमें शीर्ष अदालत में लंबित 706 मामले भी शामिल हैं। राज्य सरकारों के रवैये की वजह से सीबीआई की जांच अधर में लटके होने और विभिन्न स्तरों पर अदालतों में लंबित मामलों के बारे में अब शीर्ष अदालत को ही कोई न कोई तर्कसंगत समाधान निकालना होगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि केन्द्र और राज्यों के बीच सीबीआई मामलों की जांच विभिन्न कारणों से लंबे समय से अधर में लटकी होने का विवाद जल्द सुलझा लिया जायेगा। यही नहीं, अदालतों में लंबित मामलों के शीघ्र निस्तारण के बारे में शीर्ष अदालत केंद्रीय जांच एजेंसियों के साथ ही राज्य सरकारों को भी उचित आदेश देगी।

शौचालयों से ही समृद्धि संभव

गजेंद्र सिंह शेखावत –
हाल ही में सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हुई। बिना चप्पल यानि नंगे पांव आदिवासी पोशाक पहने 72 वर्षीय पद्म से सम्मानित तुलसी गौड़ा की सोशल मीडिया में छाई हुई तस्वीर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उस तस्वीर ने अकेले ही उन चैंपियनों को पुरस्कृत करने की सरकार की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया, जो समाज में जमीनी स्तर पर अपना योगदान दे रहे हैं और सहज रूप से सुर्खियों से दूर रहकर साधु जैसी एकाग्रता के साथ चुपचाप अपना काम करते हैं। इसी तरह की एक तस्वीर 2016 में भी वायरल हुई थी। वह माननीय प्रधानमंत्री की 105 वर्षीय कुंवर बाई को नमन करते हुए तस्वीर थी। कुंवर बाई ने अपने गांव में शौचालय बनाने के लिए 10 बकरियां और अपनी अधिकांश संपत्ति बेच दी थी। इस किस्म के दृश्य संख्या और आंकड़ों के मामले में हमारी उपलब्धियों के समान ही मर्मस्पर्शी और जश्न मनाने लायक हैं। जब भारत ने 108 मिलियन शौचालयों का निर्माण कर खुले में शौच से मुक्त का दर्जा हासिल किया तो यह कुंवर बाई की उतनी ही जीत थी, जितनी माननीय प्रधानमंत्री की। चैंपियन हमेशा सरकार की नीतियों के सह-उत्पाद नहीं होते, बल्कि कभी-कभी नीतियां भी चैंपियनों से प्रेरणा लेती हैं। जैसाकि प्रधानमंत्री अक्सर कहते हैं, जब प्रत्येक भारतीय सिर्फ एक कदम उठाता है तो भारत 135 करोड़ कदम आगे बढ़ता है। स्वच्छ भारत अभियान, जल शक्ति अभियान, जल जीवन मिशन और हाल ही में टीकाकरण अभियान जैसे जन-आंदोलन इस उक्ति के जीवंत उदाहरण हैं।
मार्मिकता और प्रेरणा की बात तो एक तरफ, लेकिन किसी आंदोलन की शुरुआत करना और उसे गति देना नीतिगत मूल्य श्रृंखला का केवल एक पहलू है। उस आंदोलन की गति को बनाए रखना और पुरानी आदतों की ओर लौटने को हतोत्साहित करना कहीं अधिक बड़ी चुनौती है और इसके लिए व्यापक तकनीकी विशेषज्ञता एवं आधारभूत संरचना की जरूरत होती है। इस उद्देश्य के लिए, स्वच्छता से संबंधित मूल्य श्रृंखला के सभी स्थिर और गतिमान रहने वाले हिस्सों की पड़ताल यानी मल अपशिष्ट की रोकथाम, उसे खाली करना, उसका परिवहन, उसका शोधन और उसके दोबारा उपयोग या निपटान का अहम महत्व है। इन तथ्यों के आलोक में, भारत सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) चरण- 2 को 1,40,881 करोड़ रुपये के कुल परिव्यय के साथ मंजूरी दी थी। इसके तहत खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) की स्थिति और ठोस एवं तरल अपशिष्ट प्रबंधन की निरंतरता पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
इस विकराल समस्या का केंद्र बिंदु और इसकी सबसे बड़ी पहेलियों में से एक है मल से संबंधित गाद का प्रबंधन (एफएसएम), जोकि खुले में शौच से मुक्त प्लस भारत का एक महत्वपूर्ण लेकिन चुनौतीपूर्ण हिस्सा है। सामुदायिक शौचालयों के निर्माण, ठोस एवं तरल कचरे के प्रभावी प्रबंधन और गांवों की दिखने लायक सफाई के साथ–साथ ओडीएफ प्लस की स्थिति को स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) चरण-ढ्ढढ्ढ के प्रमुख फोकस क्षेत्र के रूप में गिना जाता है। सेप्टिक टैंक और सिंगल पिट जैसे स्थल पर सफाई से जुड़े शौचालयों की काफी संख्या होने की वजह से मल से संबंधित गाद का प्रबंधन (एफएसएम) ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित तरीके से स्वच्छता प्रदान करने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है।
आगे आने वाली चुनौतियों की विकरालता हमें सर्वोत्तम प्रथाओं और केस स्टडी की पहचान करने के लिए मजबूर करती है। ऐसा ही एक उदाहरण मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के कालीबिल्लौद गांव का है। ग्राम पंचायत द्वारा संचालित एवं व्यवस्थित कालीबिल्लौद मल गाद शोधन संयंत्र, तीन ग्राम पंचायतों के समूह के 45,870 लोगों की जरूरतों को पूरा करता है और इसकी क्षमता तीन किलोलीटर मल से संबंधित गाद के शोधन की है। विभिन्न सेवा प्रदाता हर दिन 3000 लीटर गाद एकत्रित करते हैं। यह गाद शोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरता है और इसका अंतिम उत्पाद एक किस्म का शोधित अपशिष्ट होता है, जोकि आसपास के परिदृश्य को सुन्दर बनाने के काम आता है।
इस किस्म के अन्य चैंपियनों के साथ कालीबिल्लौद एक मिसाल है। इनमें से प्रत्येक चैंपियन को स्थानीय परिस्थितियों और चुनौतियों के अनुरूप ढाला गया है। ग्रामीण भारत स्वच्छता के क्षेत्र में की जाने वाली किसी भी पहल के सामने एक बहुत बड़ी बाधा खड़ी करता है। ग्रामीण भारत में जल–निकासी की व्यवस्था (सीवरेज सिस्टम) का न होना सबसे बड़ी बाधा है। इस प्रकार, यह मल अपशिष्ट के सुरक्षित प्रबंधन पर अधिकतम बोझ डालता है। ट्विन लीच पिट को छोड़कर, सिंगल पिट और सेप्टिक टैंक जैसी मल अपशिष्ट की रोकथाम से जुड़ी अन्य प्रणालियों में मल से संबंधित गाद को हटाकर खाली करने की जरूरत होती है।
स्वच्छ भारत अभियान द्वारा स्वास्थ्य और मानव दिवस की दृष्टि से प्रति परिवार प्रति वर्ष 50,000 रुपये की बचत का एकमात्र कारण ट्विन पिट जैसे दूरदर्शी उपाय की शुरुआत थी, जिसके बिना स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) एक बहुत ही बड़ी और अपेक्षाकृत अधिक अनसुलझी समस्या का कारक साबित होता। ट्विन पिट इस सरकार की दूरदर्शिता का एक आदर्श उदाहरण है। यह बेहद ही कम लागत पर स्थल पर शोधन की सुविधा प्रदान करता है। अन्यथा बिना ट्विन पिट के बने 108 मिलियन शौचालयों ने पूरे इकोसिस्टम को नष्ट कर दिया होता, हमारे भूजल को जहरीला बना दिया होता और आम तौर पर हर किसी के लिए जीवन को एक बदबूदार नरक बना दिया होता।
अधिकांश चुनौतियों की जड़ें स्वच्छ भारत के पूर्व के दिनों में हैं, जहां शौचालयों का निर्माण इसके रख-रखाव के बारे में सोचे-समझे बिना किया जाता था। स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) मल से संबंधित गाद के प्रबंधन के जरिए वर्तमान में जो कर रहा है, वह और कुछ नहीं बल्कि अतीत की गलतियों को दूर करना और स्वच्छता की खराब प्रणालियों के कारण भूजल एवं जल निकायों में मल की वजह से पैदा होने वाले रोगजनकों के रिसाव को रोकना है। मल प्रबंधन के क्षेत्र में छोटे स्तर के अकुशल एवं अक्सर बिना मशीनी सुविधा वाले अनौपचारिक सेवा प्रदाताओं की भीड़ है। अराजकता के इस वातावरण में समझ पैदा करना और व्यवस्था में अनुशासन लाना एक ऐसी कठिन चुनौती है जिससे हमें स्वच्छता की राह में जूझना होगा। सर्वोत्तम प्रथाओं, जिनके बारे में हमने इस लेख में गंभीरता से चर्चा की है, को संस्थागत बनाना आगे के रास्तों में से एक है। ट्विन पिट की शानदार प्रणाली एक बार फिर से चर्चा में है क्योंकि हम सिंगल पिट को भी तेजी से ट्विन पिट में परिवर्तित कर रहे हैं। जहां तक सेप्टिक टैंक का सवाल है, आंशिक रूप से शोधित अपशिष्ट जल के निपटान के उद्देश्य से सेप्टिक टैंक के लिए लीच पिट बनाए जा रहे हैं।
विश्व शौचालय दिवस 2021 का विषय ‘शौचालयों का महत्वÓ है। अगर दुनिया में किसी देश ने सही मायने में शौचालय को महत्व दिया है, तो वह इस सरकार के अधीन यह देश है। जहां दूसरों ने शौचालयों को कचरे के रूप में देखा, वहीं हमने इसे महिलाओं के आत्मसम्मान को बनाए रखने के एक साधन के रूप में देखा। जहां कई लोगों ने शौचालयों को एक विषय के रूप में चर्चा के लिए प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के प्रतिकूल माना, वहीं माननीय प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से इसके बारे में बात की। उन्होंने इसे अपने जीवन का मिशन बना लिया और कुंवर बाई जैसे लाखों लोग उनके इस अभियान में शामिल हुए। अब स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) चरण-2 की जिम्मेदारी को आगे सौंपा गया है और मुझे विश्वास है कि 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों में शामिल छठा लक्ष्य यानी सभी के लिए पानी और स्वच्छता के लक्ष्य को हासिल कर लिया जाएगा। उस पायदान पर खड़े होना वाकई एक शानदार उपलब्धि होगी और एक राष्ट्र के रूप में, हम इसके लिए तैयार हैं। स्वच्छता के चैंपियन के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए हम तैयार हैं। हम एक बार फिर से खुद को गौरवान्वित करने के लिए तैयार हैं।
(लेखक केंद्रीय जल शक्ति मंत्री हैं)

इंसानियत की कसौटी पर खरे उतरे जितेंद्र शंटी

अरुण नैथानी –
सचमुच वह भयावह काल था जब अपने अपनों से बचने लगे थे। पड़ोसी और रिश्तेदार तो दूर, खून के रिश्ते भी अपनों से मुंह फेरने लगे थे। एक अनजानी महामारी से भय का वातावरण। महामारी के दायरे से सामान्य दिनों में चरमराने वाली चिकित्सा व्यवस्था कहां इन लाखों मरीजों का बोझ उठाती। ऐसे में मरीजों को अस्पताल ले जाना और लाना भी मुश्किल काम था। फिर जब महामारी पूरी लय में आई तो लाशों तक की बेकद्री शुरू हुई। गाल बजाने वाले नेता कहीं नहीं दिखाई दिये। जनप्रतिनिधि अपनी सुरक्षित मांदों में थे। उस वक्त कुछ संस्थाएं और इंसानियत के जुनूनी लोग मदद को निकले भी। ऐसा नहीं अस्पताल से लेकर सार्वजनिक जीवन में तमाम ऐसे लोग कोरोना योद्धा देश में काम कर रहे थे। इन्हीं में उल्लेखनीय हैं जितेंद्र शंटी। शहीद भगत सिंह के समाज उत्थान के लिये जुनून से प्रेरित होकर करीब पच्चीस साल से सेवा का लंगर चला रहे हैं शंटी। उनके और उनकी टीम के योगदान को पिछले दिनों नागरिक सम्मान दिया गया। यूं तो घोषणा पिछली जनवरी में हो गई थी, लेकिन फिर कोरोना की दूसरी लहर आ गई। पद्मश्री की घोषणा हुई तो उन्हें लगा उनकी जिम्मेदारी फिर कसौटी पर आई है। कुछ सतही सोच के लोगों ने कहा भी कि अब तो पद्मश्री मिल गया है क्यों श्मशान घाट के चक्कर लगा रहे हो। तब शंटी का कहना था कि भगत सिंह ने 23 साल की उम्र में शहादत दे दी, तो हम इस उम्र में क्यों नहीं कुछ कर गुजरते।
वैसे तो पहली कोरोना की लहर में भी शहीद भगत सिंह सेवा दल ने सेवा का जुनून दिखाया। लेकिन दूसरी लहर ज्यादा मारक थी। महामारी का दायरा बड़ा था। शुरुआत में शंटी की संस्था रक्तदान शिविर लगाती थी। वे खुद भी 102 बार रक्तदान कर चुके हैं। फिर मरीजों को ले जाने और अस्पताल से लाने के लिये एंबुलेंस सेवा की शुरुआत हुई। कारवां बढ़ता गया। कोरोना की दूसरी लहर में तो उनकी 18 एंबुलेंस दौड़ रही थी। महामारी ने शंटी को भी नहीं बख्शा वे खुद, उनका बच्चा और पत्नी भी कोरोना की चपेट में आये। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और ठीक होकर भी सेवा में जुट गये। उनके एक जांबाज एंबुलेंस चालक पचपन वर्षीय आरिफ खान की मौत कोरोना से हो गई। लेकिन उनका व टीम का उत्साह कम नहीं हुआ। करीब उन्नीस हजार लोगों को उनकी एंबुलेंस ने अस्पताल व घर पहुंचाया।
ऐसे वक्त में जब अपने रक्त संबंध के लोग भी अपनों के शवों को अंतिम विदाई देने से कतरा रहे थे या पूरा परिवार ही कोरोना संक्रमण की चपेट में था, तो शहीद भगत सिंह सेवा दल के जांबाज मैदान में डटे थे। उन्हें रोज चालीस-पचास फोन मदद के लिये आते। कभी-कभी तो कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया से लोगों के फोन आते कि हमारे परिजनों को अस्पताल पहुंचा दो, अंतिम संस्कार कर दो, हम पैसे देने को तैयार हैं। शंटी बताते हैं कि उनकी संस्था ने करीब चार हजार लोगों का अंतिम संस्कार किया। इस कार्य में संगठन के स्वयं सेवकों के साथ उनका बेटा व पत्नी भी शामिल होते। पीपीए किट व कई मास्क लगाकर वे अनजान लोगों को अंतिम विदाई देते। सैकड़ों ऐसे लोग भी थे, जिनका कोई आगे-पीछे न था। वे दुख जताते हैं कि करीब 967 शव ऐसे थे जिन्हें लोग श्मशान घाट के गेट पर छोड़ गये। यह बड़ा मुश्किल वक्त था, बेटे-बेटियां संक्रमित न हो जायें, इस भय से अपने मृत परिजनों को दूर से नमस्कार करके खिसक जाते थे। कई संतानें तो ऐसी थीं कि वे शव से कीमती सामान, नकदी, मोबाइल और जेवर निकालने को प्राथमिकता देते थे। क्या इन सामानों के जरिये संक्रमण नहीं फैल सकता था?
इस दौरान कई ऐसे घटनाक्रमों से शंटी रूबरू हुए कि उन्होंने बार-बार मानवता को मरते देखा। कई घरों में लाशें पड़ी होती थीं और डर के मारे कोई रिश्तेदार व पड़ोसी उन्हें अंतिम संस्कार के लिये नहीं ले जाते थे। हमें उठाने के लिये फोन आते। कभी विदेशों से कि हमारे परिजनों को अंतिम विदाई दे दो। हमारा मानना था कि व्यक्ति की अंतिम विदाई गरिमामय होनी चाहिए। इतना ही नहीं शंटी की टीम का दावा है कि उनकी संस्था ने चौदह हजार लोगों की अस्थियां सम्मान के साथ विसर्जित की। एक घटना का जिक्र करते हुए शंटी बताते हैं कि जब वे एक शव को लेकर उसके घर गये तो बच्चों ने उनकी जेब से सारे पैसे निकाल लिये। उन्होंने मुझे ड्राइवर समझकर पैसे देने चाहे, तो मैंने उनसे कहा कि हम तो ये काम सेवा के लिये करते हैं, पैसे नहीं लेते। तब एक भाई दूसरे से बोला ये तो पागल है, ये पैसे हम बांट लेते हैं। एक किस्सा वे और बयां करते हैं कि दिल्ली में 800 गज की कोठी में रहने वाले एक धनी व्यक्ति की मौत हुई तो उनका शव लेने कोई परिवार का सदस्य नहीं आया। जब उनसे संपर्क किया गया तो कहा कि इसने कोठी तो सामाजिक संस्थाओं के नाम कर दी है, हम क्यों आयें उठाने, उन्हीं लोगों को कहो, जिन्हें प्रापर्टी मिली है। इंसानियत की मौत के ऐसे कई किस्से शंटी बयां करते हैं। लेकिन इसके बावजूद शहीद भगत सिंह सेवा दल के जांबाज इंसानियत के भरोसे को कायम रखे हुए हैं। पिछले दिनों राष्ट्रपति ने जितेंद्र शंटी को चौथा बड़ा नागरिक सम्मान पद्मश्री कोरोना में मानवता की सेवा के लिए प्रदान किया। ऐसे लोगों को जब पद्म पुरस्कार मिलता है तो लगता है पुरस्कार की प्रतिष्ठा बढ़ी है।

तबादला नीति को पारदर्शी बनाने की जरूरत

अनूप भटनागर
अधिक न्यायाधीशों वाले बड़े उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का तबादला न्यूनतम न्यायाधीशों की क्षमता वाले सिक्किम और मेघालय जैसे उच्च न्यायालयों में करने के कॉलेजियम के फैसले पर सवाल उठ रहे हैं। इस तरह के फैसले निश्चित ही न्यायपालिका में पारदर्शिता के अभाव की ओर संकेत कर रहे हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि अमुक मुख्य न्यायाधीश को सजा के रूप में न्यूनतम न्यायाधीशों वाले उच्च न्यायालय में भेजा जाता है। मद्रास उच्च न्यायालय, जिसके न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 75 है, के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी का मेघालय उच्च न्यायालय, जिसमे दो न्यायाधीश ही हैं, तबादला भी ऐसे ही सवाल उठा रहा है।
न्यायमूर्ति ताहिलरमानी के बाद न्यायमूर्ति बनर्जी और न्यायमूर्ति माहेश्वरी के तबादलों की घटनाओं ने सहसा राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कानून, को असंवैधानिक घोषित करने की संविधान पीठ की अक्तूबर, 2015 की व्यवस्था में अल्पमत के न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर के फैसले में कॉलेजियम की कार्यशैली के बारे में टिप्पणियों की याद ताजा कर दी। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कॉलेजियम की बैठक और नामों के चयन की प्रक्रिया पर असहमति जाहिर की थी। मद्रास उच्च न्यायालय के वकील इस तबादले को लेकर आंदोलित हैं और उन्होंने प्रधान न्यायाधीश को इस संबंध में पत्र भी लिखा है।
पहले भी अधिक न्यायाधीशों वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का सिक्किम उच्च न्यायालय तबादला होने की खबरें आती थीं। लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में उच्च न्यायालयों के सृजन के बाद बड़े उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादला मेघालय किये जाने की खबरें सामने आ रही हैं। आमतौर पर ऐसे तबादले को सजा के रूप में भी देखा जाता है। यह सही है कि प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के तबादले की अनुशंसा करती है और इस पर केन्द्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति निर्णय लेते हैं। मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी के तबादले को उनकी अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 26 अप्रैल को निर्वाचन आयोग के बारे में की गयी सख्त टिप्पणी से भी जोड़ा जा रहा है। इस पीठ ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के लिए निर्वाचन आयोग को जिम्मेदार ठहराने संबंधी मौखिक टिप्पणी की थी और कहा था कि आयोग पर हत्या का मुकदमा दर्ज होना चाहिए।
मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादला मेघालय उच्च न्यायालय करने की यह लगातार दूसरी घटना है। इससे पहले, शीर्ष अदालत की कॉलेजियम की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने सितंबर, 2019 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विजया ताहिलरमाणी का भी मेघालय उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर तबादला किया गया था। हालांकि, न्यायमूर्ति ताहिलरमानी ने मेघालय जाने की बजाय अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
आंध्र प्रदेश में 37 सदस्यीय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जितेन्द्र कुमार माहेश्वरी का दिसंबर, 2020 में तीन सदस्यीय सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर किया गया था। इस तबादले को राज्य के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी सरकार के साथ टकराव की स्थिति से जोड़ा जा रहा था। लेकिन चंद महीनों बाद ही न्यायमूर्ति माहेश्वरी की पदोन्नति हो गयी और उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया।
इसी तरह की घटना 85 सदस्यीय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बीके राय के साथ हुई थी। न्यायमूर्ति राय का पहले 24 सदस्यीय गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तबादला किया गया और इसके बाद 2005 में उन्हें तीन न्यायाधीशों वाले सिक्किम उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था। न्यायमूर्ति राय ने न्यायाधीश पद से इस्तीफा देने की बजाय सिक्किम उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश का पद ग्रहण किया जहां से वह दिसंबर, 2006 में सेवानिवृत्त हुए।
इसी तरह, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन को भी 62 सदस्यीय कर्नाटक उच्च न्यायालय से तीन सदस्यीय सिक्किम उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। इसके बाद उन्हें उच्चतम न्यायालय भेजने की कवायद चल रही थी लेकिन इसी बीच न्यायमूर्ति दिनाकरण को न्यायाधीश के पद से हटाने की महाभियोग प्रक्रिया शुरू हो गयी थी जिस वजह से उन्होंने जुलाई, 2011 में इस्तीफा दे दिया था।
न्यायमूर्ति गीता मित्तल पदोन्नति के साथ 17 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की पहली मुख्य न्यायाधीश बनीं जबकि इससे पहले न्यायमूर्ति गीता मित्तल 60 सदस्यीय दिल्ली उच्च न्यायालय की कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थीं।
जरूरी है कि उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके तबादले की नीति अधिक पारदर्शी बनायी जाये और तबादले के मामले में किसी भी प्रकार का विवाद उठने पर ऐसा करने की वजह सार्वजनिक की जाए ताकि मुख्य न्यायाधीशों के तबादलों को लेकर वकीलों को आंदोलन का सहारा नहीं लेना पड़े।

व्यक्ति को अमृत करती आचरण की महानता

योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ –
इस संसार में असंख्य लोगों ने जन्म लिया, जीवन जिया और उन असंख्य लोगों में से कुछ लोग ऐसे हुए, जिन्हें इतिहास ने अपना अंग बनाकर अमृत कर दिया है। पर अकसर एक प्रश्न बार-बार मनुष्य के मस्तिष्क में कौंधता रहता है कि इस संसार में जन्मे असंख्य लोगों में, जिन्हें इतिहास ने सदा- सदा के लिए अपना अंग बनाकर महानता से अलंकृत किया, क्या वे इसलिए महान बने कि वे उच्च कुल में जन्मे थे या वे बहुत धनवान थे या उन्होंने संसार पर राज किया है? हर व्यक्ति अपनी सोच और जीवन के अनुभव के अनुरूप इसकी व्याख्या कर सकता है।
कुछ अंशों में यह बात मान भी लें, तो प्रश्न उठता है कि? श्रीराम क्या अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र होने के कारण ही पूजे गए? ऐसा होता तो फिर उनके भ्राता भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को भी राम के बराबर ही पूजा जाता। तब उत्तर यही मिलता है कि व्यक्ति का आचरण ही उसकी महानता का आधार बनता है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गांधी, विनोबा भावे, रानी लक्ष्मी बाई, महाराणा प्रताप और वीर शिवाजी जैसे अनेक महापुरुष इसीलिए महानता की श्रेणी में गिने जाते हैं, चूंकि उनके आचरण पूरे संसार के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत बन गए हैं। उनके आचरण का अनुकरण आज भी जनमानस द्वारा किया जाता है।?
कबीर ने तो स्पष्ट शब्दों में साफ-साफ कह भी दिया है :-

ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊंच न होइ।
सुवरण कलश सूरा भरा, साधुन निंदत सोइ।

कबीर के कहने का अभिप्राय यह है कि उच्च कुल में जन्म लेकर यदि किसी व्यक्ति के कर्म ऊंचे न हों तो निश्चित रूप से वह निंदित ही होता है, जैसे सोने के कलश में यदि सुरा या विष भरा हो तो वह अमृत नहीं होता। सज्जन पुरुष उसको अस्वीकार ही करेंगे।
सही मायनों में आचरण ही व्यक्ति के चरित्र का परिचायक होता है, यही हमारे महान चिंतकों और ऋषि-मुनियों ने बताया भी है। आज भी हम कितनी ही भौतिक समृद्धि प्राप्त कर लें, किन्तु महानता तो संसार में आचरण से ही मिलती है। सदियों से इसी बात को ही स्वीकार किया जाता रहा है।
एक ऐसा प्रेरक प्रसंग भारत के दो महान पुरुषों का भी है। जब डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति थे, तब वे कुन्नूर की यात्रा पर गए। वहां पहुंच कर उन्हें पता चला कि भारत के वीर सपूत पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ अस्वस्थ हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। डॉ. कलाम बिना पूर्व कार्यक्रम के उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे और हालचाल पूछने के बाद बोले-आपको कोई कष्ट तो नहीं है? कोई बात हो तो मुझे बताइए। अस्वस्थता के चलते बिस्तर पर लेटे मानेकशॉ बोले-मुझे एक बात का बहुत दु:ख है, तो डॉ. कलाम ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-मुझे बताइए, क्या दु:ख है आपको? तो फील्ड मार्शल का उत्तर था-दु:ख है कि मैं अपने देश के राष्ट्रपति और सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर को सेल्यूट नहीं कर पा रहा हूं। और दोनों की आंखें छलछला उठीं।
भावुक होकर अब्दुल कलाम ने फिर पूछा-सरकार से कोई शिकायत हो तो बताइए? तो फील्ड मार्शल बोले-मुझे बीस वर्ष बाद भी सरकार से फील्ड मार्शल रैंक की पेंशन नहीं मिली है। डॉ. कलाम ने दिल्ली लौटते ही फील्ड मार्शल की बीस वर्षों से रुकी हुई पेंशन रुपए 1.25 करोड़ की स्वीकृति दी और इस राशि का चेक मानेकशॉ को पहुंचाने के लिए रक्षा सचिव को वेलिंगटन, ऊटी भेजा। लेकिन यह बात यहीं खत्म नहीं हुई। महत्वपूर्ण बात यह कि जब रुकी हुई पेंशन का चेक पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ को मिला तो तुरंत उन्होंने यह सारी राशि राष्ट्रीय रक्षा-कोष में दान कर दी।
यहां अब प्रश्न यह है कि इस घटनाक्रम के बाद हम किसे सैल्यूट करें? भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को, जो बीमार पूर्व फील्ड मार्शल को देखने बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के ही कुन्नूर के अस्पताल में पहुंचे और बीस वर्षों से रुकी हुई पेंशन का चेक उन्हें भिजवाया या उन फील्ड मार्शल को नमन करें जो राष्ट्रपति को सैल्यूट न कर पाने से दुखी हुए और मिलते ही पेंशन के रुपयों को दान करते हैं?
निस्संदेह इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती है कि इन दोनों ही महान पुरुषों को इनके आचरण ने इतनी महानता दे दी है कि हम और इतिहास उन्हें कभी भुला ही नहीं पाएगा।
हम, इन दोनों की महानता को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए यह संकल्प तो ले ही लें कि अपने लिए जीने के साथ ही समाज व किसी और के लिए भी जीएंगे, ताकि इतिहास का न सही, कुछ लोगों की यादों का अंग तो हम बन ही सकें। याद रखिए :-
धरा तो क्षमाशील है आदि से ही,

गगन भी अगर दे सुधा, तब तो जानें।
स्वयं के लिए तो जगत सांस लेता,
जगत के लिए सांस लो,तब तो जानें।

जनप्रतिनिधियों की भी हो लक्ष्मण रेखा..?

लक्ष्मीकांता चावला –
जनता को जानना चाहिए कि उनके जनप्रतिनिधियों को कई विशेष अधिकार मिलते हैं। अगर कोई सरकारी अधिकारी उनको पूरा मान-सम्मान न दे या उनका उचित-अनुचित आदेश न माने तो उसे जनप्रतिनिधि की मानहानि मानकर विधानसभा या संसद के स्पीकर के समक्ष शिकायत की जा सकती है। स्पीकर महोदय बड़े से बड़े अधिकारी को बुलाकर डांट भी सकते हैं, दंड भी दिलवा सकते हैं। शायद इसीलिए जनप्रतिनिधियों का अपने अधिकारों के प्रति विवेकहीन दुराग्रह बन गया है। हाल ही में गुरदासपुर जिले के एक विधायक ने उस व्यक्ति को बुरी तरह थप्पड़ जड़ दिए, जिसने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए अपने विधायक से यह पूछा था कि उनके क्षेत्र में आज तक क्या विकास किया गया। विधायक ने उत्तर थप्पड़ और घूंसे से दिया। ऐसे ही जब मामले की खूब चर्चा हुई, विधायक की निंदा हुई तो स्वांग रचा गया कि प्रश्न करने वाले युवक की शब्दावली अशिष्ट थी। विडंबना कि उस युवक ने माफी मांगी।
कुछ समय पहले इंदौर के एक सत्तापति राजनेता ने जो बाद में विधायक भी बना, एक इंजीनियर को क्रिकेट के बैट से पीट दिया। थोड़ी-सी नाक बचाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व में उसे एक कारण बताओ नोटिस दिया, पर वह राजनीति के बड़े खिलाड़ी का बेटा था। फिर उसके बेटे को पार्टी से निकालने या दंड देने का साहस किसी ने न किया।
ऐसी ही दुर्घटना महाराष्ट्र में भी हुई। वहां भी सत्तापतियों के हाथों एक वरिष्ठ अधिकारी पीटा गया। उसके मुंह पर कीचड़ ही पोत दिया। आखिर क्या अधिकार केवल उनके ही हैं, जिनको अधिकार आम जनता ने दिया। विधायकों और सांसदों को सत्तापति बनाने के लिए जिन्होंने मतदान किया, दुख-सुख में संरक्षण के लिए अपना प्रतिनिधि बनाया, वही इतने उद्दंड हो जाएं कि जब चाहें, जिसे चाहें अपनी सत्ता के नशे में पीट दें, अपमानित करें या मुंह पर कीचड़ या कालिख पोत दें। डराने और धमकाने में भी हमारे जनप्रतिनिधि अनेकश: सभी सीमाएं लांघ जाते हैं। अभी-अभी हरियाणा से एक सांसद ने तो नेताओं का घेराव करने वाले किसानों को यह धमकी भी दे दी कि उनकी आंखें निकाल देंगे। हाथ तोड़ देंगे।
बहुत से मतदाता पूछते हैं कि अगर नेताजी चार या उससे ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों से वोट ले सकते हैं तो हम एक से ज्यादा स्थानों पर वोट क्यों नहीं डाल सकते। इसका उत्तर मिलना भी नहीं, मिला भी नहीं। अगर निष्पक्ष ढंग से सोचा जाए तो जो नेता एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ता है और सभी जगहों से विजयी होने के बाद त्यागपत्र देता है तो वहां पुन: चुनाव करवाने का खर्च सरकार पर क्यों डाला जाए। नियम तो यह होना चाहिए कि वह सारा खर्च वही विधायक या सांसद दे, जिसने एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा और पुन: चुनाव करवाने की स्थिति के लिये मजबूर किया।
सवाल है कि जहां न नेता का वोट है और न उसे उस क्षेत्र की कोई जानकारी है, वहां से चुनाव कैसे लड़ सकता है? आज तक कोई भी सरकार या चुनाव आयोग यह नियम नहीं बना सका कि जनता का प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में ही रहे, जिससे जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रख सके, उनकी कठिनाइयां दूर कर सके। हमारे देश के सैकड़ों ऐसे विधायक व सांसद हैं जो चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र से लगभग गायब रहते हैं। वे जानते हैं कि शायद ही वे इस क्षेत्र में चुनाव की मार्केट में दोबारा उतरें अन्यथा जिस पार्टी को उनकी जरूरत होगी वे स्वयं ही कोई सुरक्षित क्षेत्र चुनाव लडऩे के लिए दे देगी। जनता ठगी-ठगी सी रह जाती है। चुनावों में टिकट देने वाले जानते हैं कि यह पैराशूटी उम्मीदवार जनता के लिए नहीं चुने, अपितु संसद या विधानसभा में हाथ खड़े करने के लिए चुने हैं।
सर्वविदित है कि बहुत से जनप्रतिनिधि पंचायत से लेकर संसद तक जनता से दूर रहते हैं। विधानसभाओं और संसद में कभी उन्होंने जनता के हित के लिए मुंह नहीं खोला। बहुत से तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि काल अटेंशन और स्थगन प्रस्ताव कैसे बनाए, दिए और पेश किए जाते हैं। सदन में उनकी उपस्थिति भी कम रहती है। एक कालेज विद्यार्थी को 75 प्रतिशत उपस्थिति देना आवश्यक है अन्यथा परीक्षा के लिए अयोग्य माना जाता है, पर इनकी उपस्थिति पांच प्रतिशत भी रहे तो ये माननीय सांसद व विधायक हैं। पूरा वेतन भत्ता लेते हैं। इनसे प्रश्न करने वाला कोई नहीं, क्योंकि ये जनता बेचारी के वोट लेकर वीआईपी हो गए। इसलिए अगर लोकतंत्र को स्वस्थ बनाना है तो जनता को भी ऐसे चुनावी उम्मीदवारों का विरोध करना चाहिए जो फसली बटेरे ज्यादा हैं, जनप्रतिनिधि नहीं। जो चार-चार सीटों पर चुनाव लड़ते हैं और कभी भी अपने चुनाव क्षेत्र से वफादारी नहीं निभाते। जनता को चाहिए कि जागरूक होकर ऐसे चुनावी खिलाडिय़ों को नकार दे जो जनप्रतिनिधि बनने के लिए नहीं, अपितु माननीय और वीआईपी बनने के लिए चुनाव लड़ते हैं।

दौलत उगाते किसान को भी समृद्ध कीजिए

देविंदर शर्मा –
हमें बखूबी पता है कि कोविड महामारी के मायूसी भरे दिनों में कृषि संकटमोचक बनी। इतना ही नहीं, लॉकडाउन के दौरान परिवारों को भोजन की लगातार आपूर्ति भी होती रही और जो लोग खरीदने लायक नहीं थे, उनको मुफ्त राशन भी मिला और इस खेती ने ही अर्थव्यवस्था के पहिए चलाए रखे। ऐसे वक्त पर, जब वित्तीय वर्ष 2020 की पहली तिमाही में आर्थिकी 23.9 प्रतिशत नीचे फिसली थी, जबकि 3.4 फीसदी का सकल मूल्य संवर्धन अर्जित कर कृषि ही एकमात्र चमकता बिंदु रही।
पूरे वर्ष के दौरान खेती ने ठोस आधार प्रदान किए रखा। कोविड-19 से पैदा हुए व्यवधानों के बावजूद, जब आर्थिकी के तमाम अन्य क्षेत्र संघर्ष में फंसे थे और आशान्वित करती संभावना की शिद्दत से जरूरत थी, ऐसे में कृषि ने 3.08 करोड़ टन खाद्यान्न पैदा कर रिकॉर्ड उत्पादन दर्ज करवाया। 2020-21 की यह बंपर उपज पिछले फसल चक्र की बनिस्बत 1.15 करोड़ टन ज्यादा थी। यही नहीं, देश में 32.9 करोड़ टन फल, सब्जियां, सुगंधित फूल, मसालों के अलावा 20.4 करोड़ टन दूध और 3.61 करोड़ टन तिलहन का उत्पादन भी हुआ।
सरल शब्दों मे कहें तो किसान ने देश के लिए दौलत उगाई। यह न सिर्फ महामारी के दौरान हुआ बल्कि साल-दर-साल हो रहा है। यह बात काबिलेतारीफ है कि कृषकों की कड़ी मेहनत से हमारी मेजों तक भोजन पहुंच पाता है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है। 1960 के दशक तक भी आलम यह था कि भारतवासियों को दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते थे। लेकिन बलिहारी जाएं किसानों पर, जिन्होंने देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भर बना डाला और इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। कृषि ने बड़ी कुलांचे भरी और खाद्यान्न उत्पादकता में वर्ष 1950-51 के मुकाबले 2020-21 तक 6 गुणा लंबी छलांग लगाई है।
एक जीवंत खेती वह होती है जो बढ़ती आर्थिक तरक्की के साथ बढ़े। लेकिन यह यकीन करना कि केवल आर्थिक प्रगति के सहारे भूख और कुपोषण की समस्या को हल किया जा सकता है तो यह एक वहम है। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने खुद माना है कि बेशक आर्थिक विकास जरूरी है लेकिन यह अपने आप में भूख और कुपोषण घटाने में गति नहीं ला सकता। ‘द लांसेटÓ विज्ञान पत्रिका में छपे एक अध्ययन के मुताबिक विकासशील देशों में आर्थिक विकास दर में 10 फीसदी का इजाफा होने पर भी कुपोषण में ज्यादा से ज्यादा 6 फीसदी की कमी हो पाई है। वहीं दूसरी ओर वे देश जिनके नागरिकों को अच्छी खुराक मुहैया है, वहां कुशल और उत्पादक श्रमशक्ति बनती है जो कि उच्च आर्थिक विकास पाने को जरूरी है।
वर्ष 1950-51 से लेकर यदि जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से देखें तो भारत की आबादी लगभग 4 गुणा बढ़ी है, जो 35.9 करोड़ से 140 करोड़ तक पहुंच गई है। लेकिन भारतीय कृषि ने न केवल जनसंख्या वृद्धि के मुकाबले अपनी रफ्तार कायम रखी बल्कि ‘माल्थुसियन कैटास्ट्रोफÓ नामक सिद्धांत (उपज से कहीं ज्यादा खाने वाले मुंह) को इस कदर गलत सिद्ध कर दिया कि कल्पनातीत अतिरिक्त अनाज पैदा कर दिखाया। यह इजाफा सिर्फ देश का पेट भरने लायक अन्न पैदा करने तक सीमित नहीं था, इसके अलावा फल, सब्जियां और दूध में प्रति व्यक्ति हुई बढ़ोतरी ने कुपोषण और अपरोक्ष भुखमरी को कम करने में काफी मदद की है। हालांकि भुखमरी आज भी देश के कुछ भागों में व्याप्त है, लेकिन इसके पीछे का कारण खाद्यान्न उत्पादन में कमी न होकर वंचितों तक पंहुच और वितरण की जुड़वां खामियां है।
यदि प्रगति और सपन्नता एडम स्मिथ के मौलिक अध्ययन का मुख्य केंद्र बिंदु था, जो कि राष्ट्रों की अमीरी के पीछे के कारणों और प्रकृति को लेकर था तो यह मानना पड़ेगा कि भारतीय कृषि में हुआ उल्लेखनीय परिवर्तन वह है जिसने न केवल देश की दौलत में योगदान दिया बल्कि इसमें इजाफा किया है। आज आवश्यक भोजन जैसे कि गेहूं, चावल, फल, दूध और दालों के उत्पादन में भारत दुनियाभर में दूसरे पायदान पर है, यह तमाम रिकॉर्ड उपलब्धियां भारतीय किसानों द्वारा भरी गई बड़ी कुलांचे दर्शाता है, तथापि यह प्राप्ति उनके लिए ऊंची आमदनी में तबदील न हो पाई। इस मामले में वृद्धि खेती की समृद्धि नहीं बन पाई।
जिस अदृश्य हाथ का उल्लेख एडम स्मिथ ने किया है, वह दरअसल किसान को गुजारे लायक आमदनी देने तक में असफल रहा है। यह त्रासदी केवल भारत की नहीं बल्कि दुनियाभर की है। किसानी से होने वाली आमदनी साल-दर-साल कैसे सिकुड़ती गई, कैसे मुक्त मंडियों ने कृषकों की कमाई हड़प ली है, यह जानने के लिए किसी परिष्कृत अर्थशास्त्र ज्ञान की जरूरत नहीं है। इसकी बजाय, जैसा कि इस साल अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता ने अपने लेख में स्वयं कबूल किया है ‘कारण और प्रभाव का निष्कर्ष नैसर्गिक प्रयोगों से निकाला जा सकता है।Ó इस कथन से सहमत होते हुए मुझे लगता है कि जब आसानी से उपलब्ध साक्षात सबूतों के जरिए निष्कर्ष निकाला जा सकता है तो इसके लिए अर्थशास्त्रियों को जटिल अर्थ-समीकरण वाले अध्ययन करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
खाद्य एवं कृषि संगठन के वर्ष 2008 के आकलन के मुताबिक (रिपोर्ट मार्च, 2021 में जारी की गई है) भारत के खाद्यान्न उपज का मूल्य लगभग 28,98,02,032 मिलियन डॉलर था, वहीं सकल कृषि उत्पादों की कीमत 40,07,22,025 मिलियन डॉलर रही है। इस मामले में चीन (418541343 मिलियन डॉलर) के बाद भारत दूसरे स्थान पर है। अब इससे पहले कि आप इन आंकड़ों की भूलभुलैया में खो जाएं, यहां पर गौर करना बहुत महत्वपूर्ण है कि किसानों ने इतना हैरतअंगेज सरमाया पैदा किया है और कृषि क्षेत्र कुल मिलाकर कितनी कीमत का उत्पादन करता है। दूसरे शब्दों में किसान दौलत उगाने वाला है।
इसलिए आर्थिक नीतिकारों को अपनी सोच में तबदीली लाने की जरूरत है, वह जिन्हें रिवायती तौर पर यही यकीन रहा है कि केवल व्यापार-धंधे (बड़े हों या छोटे) सिर्फ दौलत बनाते हैं। जिस किस्म की आर्थिक असमानता आज व्याप्त है, वह इसी पुरानी पड़ चुकी आर्थिक सोच का नतीजा है। वरना, मुझे कोई कारण समझ नहीं आता कि ऐसे समय पर, जब वर्ष 1999 के बाद से सकल कृषि उत्पादों की वार्षिक वृद्धि दर 8.25 प्रतिशत रही है, तो फिर आमदनी में किसान सबसे निचले पायदान पर कैसे हो सकता है। अमेरिका में भी वर्ष 2018 में कृषि उत्पादों से होने वाली आय में किसान के हिस्से आने वाला अंश घटकर महज 8 फीसदी रह गया है। भारत में, सिचुएशन एसेस्मेंट सर्वे की नवीनतम रिपोर्ट में खेती से कृषक परिवार की रोजाना आय सिर्फ 27 रुपये आंकी गई है।
यह दिखाने को काफी सबूत हैं कि मुक्त मंडी व्यवस्था ने दुनियाभर में कृषि-आय को किस कदर उजाड़ा है। इसको बदलना होगा। यह तभी संभव है जब हम किसान को मूलत: सिर्फ एक ‘उगाने वालेÓ की तरह न लेकर ‘दौलत पैदा करने वालाÓ मानें, ताकि समृद्धि लाने में उनके योगदान को माकूल कीमत मिल पाए। विश्वभर में खेती से आजीविका चलाने वालों को जिलाए रखने, दौलत पैदा करने में उनकी भूमिका को सम्मान देने के लिए, ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी जो किसानों को जिंस का आश्वासित और मुनाफादायक मूल्य की गारंटी सुनिश्चित करे।

चीन की तर्ज पर आर्थिकी सर्जरी के सबक लें

भरत झुनझुनवाला –

चीन इस समय तीन संकटों से जूझ रहा है। पहला संकट बेल्ट एंड रोड परियोजना या बीआरआई का है। बीते दो दशकों में चीन ने सम्पूर्ण विश्व को माल निर्यात किया है और चीन को भारी मात्रा में आय हुई है। इस रकम का निवेश करना जरूरी था। चीन ने इसका उपयोग बीआरआई में किया है। इससे चीन के निर्यातकों को आसानी होगी क्योंकि चीन का माल दूसरे देशों में आसानी से पहुंच सकेगा। साथ-साथ चीन की निर्माण कंपनियों को भी बड़े ठेके मिलेंगे। लेकिन दूसरे देशों पर बीआरआई का प्रभाव संदिग्ध है। विश्व बैंक के अनुसार चीन से यूरोप को जाने वाली बीआरआई पर कजाखस्तान और पोलैंड में निर्माण की गतिविधियां बढ़ी हैं।
लेकिन बीआरआई में भ्रष्टाचार व्याप्त है। चीन की नौकरशाही द्वारा परियोजनाओं की लागत को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है और पर्याप्त रकम का रिसाव कर लिया जाता है। इस दृष्टि से मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद ने बीआरआई को ‘नया उपनिवेशवाद’ बताया है। म्यांमार ने कुछ बंदरगाह परियोजनाओं को निरस्त किया है। अन्य तमाम देशों ने परियोजनाओं के आकार में बदलाव की मांग की है। इसलिए बीआरआई के दो परस्पर विरोधी संकेत उपलब्ध हैं। एक तरफ कजाखस्तान और पोलैंड जैसे देशों को लाभ हो रहा है जबकि दूसरी तरफ मलेशिया जैसे देश इसका विरोध कर रहे हैं। इन दोनों परस्पर विरोधी संकेतों के बीच चीन को बीआरआई की सर्जरी करनी होगी, जिसमें केवल कुशल परियोजनाओं को लागू किया जाए और परियोजनाओं में रिसाव पर नियंत्रण किया जाए। फिलहाल चीन यह सर्जरी नहीं कर रहा है। इसलिए बीआरआई पर संकट विद्यमान रहने की संभावना है।
चीन का दूसरा संकट एवरग्रैंड नाम की कंस्ट्रक्शन कंपनी और दूसरी इसी तरह की विशाल कंपनियों का है। इन कंपनियों ने भारी मात्रा में लोन लिए थे। एवरग्रैंड ने भारी मात्रा में बहुमंजिले रिहायशी मकान बनाए लेकिन कोविड संकट के कारण इनकी बिक्री नहीं हो सकी। फलस्वरूप यह कंपनी लोन से दब गई और समय के अनुसार रिपेमेंट नहीं कर पा रही थी। इस तरह की कंपनियों के डूबने से संपूर्ण अर्थव्यवस्था में संकट पैदा न हो, इसलिए शी जिनपिंग ने नियम बनाया कि किसी भी कंपनी को लोन तब ही दिए जायेंगे जब वे तीन शर्तों को पूरा करेंगी।
पहली शर्त थी कि कंपनी की कुल संपत्ति, कंपनी द्वारा लिए गए कुल लोन से अधिक होनी चाहिए। दूसरी शर्त थी कि कंपनी के पास अल्प समय में लोन के रिपेमेंट को जितनी रकम की जरूरत है, उससे अधिक नकद उपलब्ध होना चाहिए। तीसरी शर्त थी कि कंपनी के अपनी पूंजी या शेयर कैपिटल की तुलना में लिया गया लोन कम होना चाहिए। जिन कंपनियों द्वारा इन तीनों शर्तों को पूरा किया जाता था, केवल उन्हीं को बैंक लोन दे सकते थे। एवरग्रैंड इन तीनों ही शर्तों को पूरा नहीं कर सकी। फलस्वरुप एवरग्रैंड को नए लोन नहीं मिल सके। वह लिए गए लोन का रिपेमेंट नहीं कर सकी क्योंकि उसके द्वारा बनाए गए रिहायशी मकान बिक नहीं रहे थे। इस संकट से उबरने के लिए एवरग्रैंड को अपनी संपत्तियों को कम मूल्य पर बेचना पड़ा।
चीन की सरकार ने सार्वजनिक इकाइयों को आदेश दिए कि एवरग्रैंड की संपत्तियों को वे कम दाम पर खरीद सकते हैं। इस प्रकार भारी भरकम लोन से दबी हुई एवरग्रैंड कंपनी को अपनी संपत्तियां बेचकर अपने को हल्का बनाना पड़ रहा है। यदि सरकार इस प्रकार का सख्त कदम नहीं उठाती तो बैंक इस कंपनी को और लोन देते रहते और आने वाले समय में यह बड़े संकट के रूप में संपूर्ण चीन की अर्थव्यवस्था को डुबा सकती थी। इसलिए चीन द्वारा अपनी वित्तीय अर्थव्यवस्था की सर्जरी की गई है, ऐसा मानना चाहिए। यह शुभ संकेत है क्योंकि स्वयं अपने ऊपर लाये गए इस छोटे संकट से चीन अपनी अर्थव्यवस्था को भविष्य में बड़े संकट से बचा सकेगा।
वर्तमान में चीन के सामने तीसरा संकट बिजली का है। इसका कारण यह है कि शी जिनपिंग ने प्रदूषण फैलाने वाले थर्मल संयंत्रों द्वारा वायु के प्रदूषण किए जाने पर रोक लगाई है। कोयले से बिजली उत्पादन करने वाले कई संयंत्र बंद हो गए हैं और बिजली का संकट पैदा हो गया है। नशेड़ी को गुटखा न दिया जाए तो वह पस्त हो जाता है। इसी प्रकार वायु प्रदूषण के नशे में धुत चीन की अर्थव्यवस्था को प्रदूषण पर रोक लगाने से यह संकट पैदा हुआ है। यह भी चीन के लिए शुभ संकेत है। प्रदूषण कम होने से अर्थव्यवस्था मूलत: सुदृढ़ होती है। ऊर्जा का कुशल उपयोग होता है और लम्बे समय में सस्ता माल बनाया जाता है। बिजली महंगी होगी तो बिजली का सदुपयोग होगा और अंत में चीन की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी।
चीन के तीन संकटों में एवरग्रैंड का वित्तीय संकट और पावर कट का संकट इसलिए पैदा हुआ है कि चीन स्वयं अपनी सर्जरी कर रहा है। बीआरआई की सर्जरी फिलहाल चीन करता नहीं दिख रहा है लेकिन यदि इसकी भी सर्जरी करेगा तो चीन उस संकट से भी सुदृढ़ता से निकलेगा। इस परिस्थिति में भारत को चीन द्वारा उठाए गए कदमों से सीख लेनी चाहिए। पहला यह कि अपने देश में थर्मल बिजली संयंत्रों और जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा भारी मात्रा में प्रदूषण किया जा रहा है, जिस पर रोक लगाने से हमारी अर्थव्यवस्था कुशल होगी। भारत सरकार फिलहाल सस्ती बिजली के लिए प्रदूषण को छूट दे रही है जो कि अर्थव्यवस्था को डुबाएगी।
फिर भी भारत सरकार ने वित्तीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए सही कदम उठाए हैं। बड़ी संकटग्रस्त कमजोर कंपनियों को भारतीय बैंकों से लोन मिलने कम हो गए हैं और आने वाले समय में वित्तीय संकट भारत पर उत्पन्न नहीं होगा। लेकिन बिजली के क्षेत्र में भारत को चीन की तरह अपनी सर्जरी करनी होगी अन्यथा हम आने वाले समय में चीन से पिछड़ जाएंगे।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।

‘ई-हिरासत प्रमाणपत्र’ से जगी उम्मीदें

अनूप भटनागर
कैदी की रिहाई के आदेश पर अमल में विलंब संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। कैदियों के वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा के लिए न्यायपालिका आवश्यक कदम उठा रही है। लेकिन यह भी सही है कि उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय से जमानत याचिका स्वीकार होने के न्यायिक आदेश अमल के लिए सक्षम अदालत के पास जाता है जहां कई बार औपचारिकताएं पूरी करने में वक्त लगता है। उच्चतर न्यायपालिका और जमानत संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने वाली सक्षम अदालत के बीच का समय भी कम करने की आवश्यकता है।
फिल्म अभिनेता शाहरुख खान के पुत्र आर्यन के मामले में ऐसा ही कुछ हुआ था क्योंकि बंबई उच्च न्यायालय ने जमानत देने का मौखिक आदेश सुनाया और इसके एक दिन बाद आदेश के मुख्य अंश जारी किये, जिसमें जमानत के लिए लगाई गई शर्तों में निजी मुचलका देना और दूसरी औपचारिकताएं पूरी करना भी शामिल था। हालांकि, उच्च न्यायालय का विस्तृत आदेश अभी भी प्रतीक्षित है। लेकिन सक्षम अदालत में इन औपचारिकताओं को पूरा करने में वक्त लगा जिस वजह से आर्यन को दो दिन आर्थर जेल में और रहना पड़ा था।
आर्यन खान की जमानत याचिका पर तो बंबई उच्च न्यायालय ने तत्परता से सुनवाई करके उसकी रिहाई का आदेश दे दिया, लेकिन मादक पदार्थों से संबंधित आरोपों में जेल में बंद अनेक विचाराधीन कैदी इतने खुशकिस्मत नहीं हैं। आर्यन खान की जमानत याचिका को प्राथमिकता दिये जाने पर न्यायालय में कुछ वकीलों ने सवाल भी उठाए थे।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डॉ. धनन्जय वाई. चंद्रचूड़ ने हाल ही जमानत पर कैदियों की रिहाई में विलंब पर चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने इस तथ्य का भी जिक्र किया था कि जिला अदालतों में 2.95 करोड़ आपराधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से 77 प्रतिशत से ज्यादा एक साल से पुराने मामले हैं। हालांकि, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह उल्लेख नहीं किया था कि कितने मामलों में कैदियों की जमानत याचिकाएं लंबित हैं और इनके निपटारे में विलंब की वजह क्या है।
लेकिन, उन्होंने यह जरूर कहा कि उड़ीसा उच्च न्यायालय ने एक पहल की है, जिसमें प्रत्येक विचाराधीन कैदी और कारावास की सज़ा भुगत रहे हर दोषी को ‘ई-हिरासत प्रमाणपत्र’ प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। उन्होंने कहा था, ‘यह ई-हिरासत प्रमाणपत्र हमें उस विशेष विचाराधीन कैदी या दोषी के मामले में प्रारंभिक हिरासत की अवधि से लेकर बाद की प्रगति तक सारा विवरण उपलब्ध कराएगा। इससे हमें यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि जमानत के आदेश जारी होते ही उन्हें तत्काल संप्रेषित किया जा सके।
ई-हिरासत प्रमाणपत्र की व्यवस्था हरियाणा में पहले से ही लागू है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में पंजाब सरकार को भी जमानत याचिकाओं पर तेजी से निर्णय सुनिश्चित करने के लिए ई-हिरासत प्रमाणपत्र देने की प्रक्रिया तेज करने का आदेश दिया है।
उच्च न्यायपालिका लगातार कैदियों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील है और उसका प्रयास है कि कैदियों की रिहाई से संबंधित अदालती आदेश त्वरित गति से संबंधित जेल पहुंचे ताकि प्राधिकारी तत्परता से उस पर अमल कर सकें।
जमानत पर कैदियों की रिहाई तेजी से सुनिश्चित करने के इरादे से ही अब फास्टर योजना शुरू की गयी है। इसमें डिजिटल माध्यम से जमानत का आदेश यथाशीघ्र जेल अधिकारियों तक पहुंचाने का प्रावधान है। लेकिन मुंबई की आर्थर रोड जेल में तो अभी भी ‘कागो हाथ संदेशा’ वाली व्यवस्था है। जेल के द्वार पर एक डिब्बा टंगा है, जिसमें अदालत का आदेश पहुंचाया जाता है।

मुद्दा बने कार्यस्थल पर यौन शोषण

डॉ. दर्शनी प्रिय
आजादी के पहले स्त्री अपने पारंपरिक अवगुण्ठन में सिमटी हुई दिखाई देती है, जबकि आजादी के बाद नवीन चेतना के संपर्क में आने के बाद बदले हुए परिदृश्य में स्त्री ने घर की दहलीज को लांघने का दुस्साहस किया। इस क्रांतिकारी बदलाव ने ही स्री को उसकी अस्मिता के प्रति जागरूक बनाने में भरपूर मदद की और आज वह पुरुष के वर्चस्व को चुनौती देती हुई अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत, पुरुष के सामने तन कर खड़ा होने की स्थिति में आ चुकी है।
चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो, लेकिन क्या वास्तविक रूप में स्रियां अपनी देह सुरक्षा के संकट बोध से उबर पाई हैं? हालिया आंकड़े तो इसकी बिल्कुल तस्दीक नहीं करते। वो भी तब जब बेंगलुरू जैसे उन्नत प्रौद्योगिकी शहर में 60 फीसद महिलाएं कार्यस्थल पर किसी-न-किसी प्रकार की दैहिक हिंसा और छेड़छाड़ की तो 15 फीसद महिलाएं यौन शोषण की शिकार हैं। देश के सभी बड़े महानगरों में कमोबेश यही स्थिति है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में बीते सालों के बरक्स यह आंकड़ा तेजी से बढ़ा है।
सैद्धांतिकी तो यही कहती है कि अस्मिता उपलब्ध करने का मतलब सिर्फ उसका मानसिक अनुभव करते रहना नहीं होता, बल्कि उसे विभिन्न समाज के बीच पुरजोर रूप से प्रतिष्ठित करना भी होता है, लेकिन क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है कि खुद को अत्याधुनिक समाज कहलाने वाला विदेशी समाज भी महिलाओं को लेकर अपने इस भेदभाव, हिंसा और बेकद्री से उबर नहीं पाया है। इसकी बानगी 50 फीसद ब्रितानी और 38 फीसद अमेरिकी वे कामकाजी महिलाएं देती हैं, जो कार्यस्थल पर यौन शोषण का शिकार होती हैं।
निश्चित ही एक भद्र समाज के लिए यह चिंतनीय है। भारत के कॉरपोरेट वर्ल्ड की स्थिति तो और भी बदतर है, जहां तकरीबन 50 फीसद महिलाओं से अपमानजनक भाषा, फिजिकल कॉन्टैक्ट या सेक्सुअल फेवर मांगा जाता है। ऐसे में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। वुमेन इंडियन चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के सर्वे की मानें तो भारत में 68.7 फीसद महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट की लिखित या मौखिक शिकायत दर्ज ही नहीं कराई है। हालांकि 1997 में विशाखा गाइडलाइंस के अस्तित्व में आने के बाद वर्क प्लेस पर महिलाओं के यौन उत्पीडऩ रोकने को लेकर कई कानून बने।
2013 में इसी केस की वजह से ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट एट वर्क प्लेस’ नामक मजबूत कानून बनाया गया ताकि महिलाओं के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके, लेकिन समाजिक-आर्थिक कारणों के चलते कई बार महिलाएं खुद भी ऐसी किसी घटना को बातचीत का विषय नहीं बनाना चाहतीं, लेकिन 2018 में ‘मी टू’ आंदोलन के बाद हालत थोड़े बदले हैं। कामकाजी महिलाओं ने अपने ऊपर हो रहे यौन शोषण को लेकर खुलकर आवाज उठानी शुरू की है।
पर कोविड के बाद के न्यू नॉर्मल ने दैहिक शोषण के तरीकों में बदलाव किया है। अब महिलाओं से सेक्सुअल फेवर लेने की चाह ऑनलाइन बैठकों, वेबिनारों और पर्सनल वन टू वन टॉक के माध्यम से उनके कपड़ों, उठने-बैठने के तरीकों पर सेक्सुअल फब्तियों के जरिये निकल रही है। सवाल कई हैं किंतु एक बड़ा सवाल सांस्थानिक चुप्पी का भी है। पर्याप्त कानून होने के बावजूद महिलाएं घुटन, बेबस और दुराचारयुक्त विषाक्त माहौल में काम करने को विवश हैं। सवाल तो उठेंगे। चाहे वो समाज हो, कोई संस्था हो या फिर सरकार ही क्यों न हो?

कैदियों-आरोपियों के मानवाधिकारों का प्रश्न

अनूप भटनागर –
न्यायिक हस्तक्षेप के बाद देश की सभी जेलों और पुलिस थानों में महत्वपूर्ण स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने और कैदियों तथा आरोपियों को यातना नहीं देने के निर्देशों के बावजूद हिरासत में मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कैदियों के प्रति सख्ती का ही नतीजा है कि पुलिस और न्यायिक हिरासत में करीब पांच व्यक्तियों की रोजाना मृत्यु होती है। यह तथ्य थानों और जेलों में कैदियों के मानवाधिकारों के प्रति पुलिस तथा जेल प्राधिकारियों की गंभीरता पर सवाल उठाने के लिए काफी है।
न्यायालय ने बार-बार कहा है कि जेलों में बंद कैदियों और थानों में बंद आरोपियों को भी संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार प्राप्त हैं और उनके इन अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
न्यायालय ने 2015 में एक फैसले में कहा था कि राज्य सरकारें मानव अधिकार संरक्षण कानून, 1993 की धारा 30 के अनुरूप अपने यहां मानवाधिकार अदालतें स्थापित करेंगी। न्यायालय ने कैदियों के मानव अधिकारों के हनन की घटनाओं को रिकॉर्ड करने के लिए सभी जेलों और थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश दिये, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हिरासत में मौत के घटनास्थल के आसपास के लगे सीसीटीवी काम नहीं कर रहे होते हैं। यही नहीं, अक्सर हिरासत में मौत के मामले में वरिष्ठ अधिकारी तत्काल सख्त कार्रवाई करने की बजाय इसे रफा-दफा करने का प्रयास करते हैं। लेकिन न्यायालय का हस्तक्षेप होने पर पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी हरकत में आते हैं और संबंधित मामले से जुड़े थाने के प्रभारी और दूसरे पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं। कई बार तो अदालत को पुलिस हिरासत में मौत के मामले की जांच सीबीआई को भी सौंपनी पड़ जाती है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार हिरासत में यातनाएं देने के आरोप में 2020-21 में 236 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2019-20 में इनकी संख्या 411 और 2018-19 में 542 थी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी बताती है कि पिछले 10 साल में 1004 व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मौत हुई।
दिल्ली की कड़ी सुरक्षा वाली तिहाड़ जेल से लेकर पुलिस के थानों तक में हिरासत में कैदियों की मौत का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। हाल ही में तिहाड़ जेल में बंद विचाराधीन कैदी अंकित गुर्जर की जेल अधिकारियों द्वारा कथित रूप से बुरी तरह पिटाई की वजह से मौत और आगरा में पुलिस हिरासत में एक दलित की मौत की घटना सुर्खियों में रही है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तिहाड़ जेल में गैंगस्टर अंकित गुर्जर की कथित हत्या का मामला सीबीआई को सौंपा है। इस घटना में अंकित की दूसरे कैदी के साथ हुई कथित मारपीट के दौरान जेल में लगे सीसीटीवी काम नहीं करने का दावा किया गया। आरोप है कि इस मामले में जेल अधिकारियों ने अंकित की बेरहमी से पिटाई की थी। यही वजह है कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट शब्दों में कहा कि जेल की दीवारें कितनी भी ऊंची हों, जेल की नींव भारत के संविधान में निहित कैदियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले कानून के शासन पर रखी जाती है।
आगरा के एक थाने में दलित अरुण वाल्मीकि की 19 अक्तूबर की रात में पुलिस हिरासत में मौत की घटना को ही लें। इस मामले में जगदीशपुर थाने के मालखाने से 25 लाख चुराने के आरोप में 18 अक्तूबर को युवक को गिरफ्तार किया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार की सख्त कार्रवाई की वजह से यह राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सका।
इससे पहले, सितंबर महीने में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जौनपुर में पुलिस हिरासत में 24 वर्षीय पुजारी कृष्ण यादव की मौत के मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। इस पुजारी को 11 फरवरी, 2021 की रात में गिरफ्तार किया था और अगले ही दिन पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी थी। उच्च न्यायालय की पहली नजर में ऐसा लगता है कि आरोपी पुलिसकर्मियों ने अपराध किया है, लेकिन उच्च अधिकारियों ने इस पर पर्दा डालने का प्रयास किया।
कोविड-19 में लॉकडाउन के उल्लंघन के आरोप में 19 जून, 2020 को तमिलनाडु के तूत्तुक्कुडि के संत केलम थाने में हिरासत में लिए गए पिता-पुत्र पी. जयराज और उनके बेटे जे. बेनिक्स की मौत का मामला भी ऐसा ही था। मामले के तूल पकडऩे पर इसकी जांच सीबीआई को सौंपी गयी, जिसने 26 सितंबर को नौ पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या और अन्य आरोपों के साथ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया है। एक गैर-सरकारी संगठन के अनुसार हमारे देश में पुलिस द्वारा गिरफ्तार आरोपियों में से करीब 63 प्रतिशत की मौत उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने से पहले ही हो जाती है। अगर इस तथ्य पर विचार किया जाये तो सवाल उठता है कि भले-चंगे आरोपी की पुलिस हिरासत में आने के 24 घंटे के भीतर ही मौत कैसे हो जाती है। गृह मंत्रालय ने 16 मार्च, 2021 को संसद को बताया था कि देश में वर्ष 2020-21 में 28 फरवरी तक न्यायिक हिरासत में 1685 और पुलिस हिरासत में 86 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी।
इसी तरह, 2019-20 के दौरान न्यायिक हिरासत में 1584 और पुलिस हिरासत में 112 व्यक्तियों की मृत्यु हुई जबकि 2018-19 में 1796 व्यक्तियों की न्यायिक हिरासत और 136 व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मृत्यु हुई। उच्चतम न्यायालय ने हिरासत में कैदियों के साथ मारपीट और उनकी मृत्यु की बढ़ती घटनाओं पर अंकुश पाने के लिए 18 दिसंबर, 1996 और फिर 24 जुलाई, 2015 को फैसले सुनाये। लेकिन ऐसा लगता है कि न्यायिक निर्देशों पर भी कारगर तरीके से अमल नहीं हो रहा है। हिरासत में लोगों की मृत्यु होना चिंताजनक है।

बिजली संकट से उबरने की बने नीति

भरत झुनझुनवाला
बीते समय बरसात में कोयले की खदानों में पानी भरने से अपने देश में कोयले का उत्पादन कम हुआ था। बिजली का उत्पादन भी कम हुआ और कई शहरों में पॉवर कट लागू किए गए। फिलहाल बरसात के कम होने से यह संकट टल गया है लेकिन यह केवल तात्कालिक राहत है। हमें इस समस्या के मूल कारणों का निवारण करना होगा अन्यथा इस प्रकार की समस्या बार-बार आती रहेगी।
वर्तमान बिजली संकट के तीन कथित कारणों का पहले निवारण करना जरूरी है। पहला कारण बताया जा रहा है कि कोविड संकट के समाप्तप्राय हो जाने के कारण देश में बिजली की मांग बढ़ गई है, जिसके कारण यह संकट पैदा हुआ है। यह स्वीकार नहीं है क्योंकि अप्रैल से सितंबर 2019 की तुलना में अप्रैल से सितंबर 2021 में कोयले का 11 प्रतिशत अधिक उत्पादन हुआ था। इसी अवधि में देश का जीडीपी लगभग उसी स्तर पर रहा। यानी कोयले का उत्पादन बढ़ा और आर्थिक गतिविधि पूर्व के स्तर पर रही। इसलिए बिजली का संकट घटना चाहिए था, न कि बढऩा चाहिए था जैसा कि हुआ है।
दूसरा कारण बताया जा रहा है कि कोयले के खनन में बीते कई वर्षों में निवेश कम हुआ है। बिजली उत्पादकों का रुझान सोलर एवं वायु ऊर्जा की तरह अधिक हो गया है। यह बात सही हो सकती है लेकिन इस कारण बिजली का संकट पैदा नहीं होना चाहिए था। कोयले के खदान में जितने निवेश की कमी हुई है, यदि उतना ही निवेश सोलर और वायु ऊर्जा में किया गया तो कोयले से बनी ऊर्जा में जितनी कमी आयी होगी, उतनी ही वृद्धि सोलर और वायु ऊर्जा में होनी चाहिए थी। ऊर्जा क्षेत्र में कुल निवेश कम हुआ हो, ऐसे संकेत नहीं मिलते हैं। इसलिए कोयले में निवेश की कमी को संकट का कारण नहीं बताया जा सकता।
हाल में आए बिजली संकट का मूल कारण ग्लोबल वार्मिंग दिखता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक तरफ बिजली का उत्पादन कम हुआ तो दूसरी तरफ बिजली की मांग बढ़ी है। पहले उत्पादन पर विचार करें, जैसा ऊपर बताया गया है, बीते समय में बाढ़ के कारण कोयले का खनन कम हुआ था। यह बाढ़ स्वयं ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ी है, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग से वर्षा कम समय में अधिक मात्रा में होने का अनुमान है जो कि बाढ़ का कारण बनता है। इसलिए बाढ़ को दोष देने के स्थान पर हमको ग्लोबल वार्मिंग पर ध्यान देना होगा। ग्लोबल वार्मिंग का दूसरा प्रभाव यह रहा है कि अमेरिका के लुजियाना और टेक्सास राज्यों में कई तूफान आए। इन्हीं राज्यों में तेल का भारी मात्रा में उत्पादन होता है, जिससे विश्व अर्थव्यवस्था में तेल की उपलब्धि कमी हुई और कोयले का उपयोग बढ़ा। विश्व बाजार में कोयले की मांग बढ़ी, दाम बढ़े और हमारे लिए आयातित कोयला महंगा हो गया, जिसके कारण अपने देश में भी संकट पैदा हुआ। ग्लोबल वार्मिंग का तीसरा प्रभाव चीन में रहा है। चीन के कई क्षेत्रों में सूखा पड़ा है, जिसके कारण जल विद्युत का उत्पादन कम हुआ है और कई क्षेत्रों में हवा का वेग कम रहा है, जिसके कारण वायु ऊर्जा का उत्पादन कम हुआ है। इन तीनों रास्तों से ग्लोबल वार्मिंग ने कोयले और बिजली की उपलब्धि को कम किया है। दूसरी तरफ ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही ऊर्जा की मांग बढ़ी है। बीते वर्ष यूरोप एवं अन्य ठंडे देशों में सर्दी का समय लंबा खिंचा है, जिसके कारण वहां घरों को गर्म रखने के लिए तेल की खपत बढ़ी है। इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक तरफ बाढ़, तूफान और सूखे के कारण ऊर्जा का उत्पादन गिरा है तो दूसरी तरफ मकानों को गर्म रखने के लिए तेल की खपत बढ़ी है। इस असंतुलन के कारण विश्व में तेल और कोयले का दाम बढ़ा है और इसका प्रभाव भारत में भी पड़ा है।
हम अपनी खपत का 85 प्रतिशत तेल और 10 प्रतिशत कोयला आयात करते हैं। यूं तो यह 10 प्रतिशत कम दिखता है लेकिन आयातित कोयले के महंगा हो जाने के कारण आयातित कोयले पर चलने वाले घरेलू बिजली संयंत्रों से बिजली का उत्पादन महंगा पडऩे लगा, जिसे बिजली बोर्डों ने खरीदने से मना कर दिया। कई बिजली संयंत्र बंद हो गए। इनके बंद होने से जो बिजली उत्पादन में कटौती हुई, उसकी पूर्ति अन्य माध्यम से नहीं हो सकी क्योंकि कोयले के घरेलू उत्पादन में कटौती हुई। इसलिए अपने देश में यह समस्या पैदा हो गई।
आने वाले समय में ऐसी समस्या पुन: उत्पन्न न हो, इसके लिए हमें दो कदम उठाने होंगे। पहली बात यह कि देश में ऊर्जा का खपत कम करनी होगी। हमारे पास कोयले के भंडार केवल 150 वर्षों के लिए उपलब्ध हैं और तेल के लिए हम आयातों पर निर्भर हैं। इसलिए हमें देश में ऊर्जा के मूल्य को बढ़ाना चाहिए और उस रकम को ऊर्जा के कुशल उपयोग के लिए लगाना चाहिए। जैसे यदि सरकार बिजली का दाम बढ़ा दे और कुशल बिजली की मोटरों को लगाने के लिए सब्सिडी दे तो देश में ऊर्जा की खपत कम होगी लेकिन उद्यमी को नुकसान नहीं होगा और हमारा जीडीपी प्रभावित नहीं होगा। दूसरा, सरकार को बिजली के मूल्यों में उसी प्रकार मासिक परिवर्तन करना होगा, जिस प्रकार तेल के मूल्यों में दैनिक परिवर्तन किया जा रहा है। वर्तमान व्यवस्था में बिजली बोर्डों को उत्पादकों से ईंधन के मूल्य के अनुसार खरीदनी पड़ती है। जब अंतर्राष्ट्रीय कोयले अथवा तेल के दाम बढ़ जाते है तो इन्हें महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। लेकिन उपभोक्ताओं को इन्हें उसी पूर्व के मूल्य पर बिजली बेचनी पड़ती है क्योंकि उपभोक्ताओं को किस मूल्य पर बिजली बेची जाएगी, यह लंबे समय के लिए विद्युत नियामक आयोगों द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसलिए बिजली बोर्डों के सामने संकट पैदा हो गया है। एक तरफ उन्हें महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है लेकिन उपभोक्ता से वे पूर्व के अनुसार बिजली के कम दाम ही वसूल कर सकते हैं। इसलिए हमें व्यवस्था करनी होगी कि बिजली के दामों में भी उसी प्रकार परिवर्तन किया जाए, जिस प्रकार डीजल और पेट्रोल के दाम में परिवर्तन होता है। तब बिजली बोर्ड खरीद के मूल्य के अनुसार उपभोक्ता को महंगी अथवा सस्ती बिजली उपलब्ध करा सकेंगे और इस प्रकार का संकट पुन: उत्पन्न नहीं होगा।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।
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प्रवासी मजदूरों की बढ़ती समस्याएं एवं रोजगार के हालात

विकास कुमार –
कोरोना महामारी के विकराल रूप से सभी प्रकार के वर्ग एवं समुदाय प्रभावित हुआ है। रोजगार के हालात कुछ ऐसे हैं कि काम मिल पाना भी मुश्किल हो रहा है। बहुत से लोगों की नौकरियां छूट रही है। मजदूर काम के लिए भटक रहा है क्योंकि उनको काम नहीं मिल रहा है। इस प्रकार के हालात में एक तरफ रोजगार की समस्या और दूसरी इस तरफ महंगाई की मार, इस दौर में आम आदमी की जिंदगी भटके हुए मुसाफिर की तरह हो गई। आज इस महामारी से सर्वाधिक परेशानी दिहाड़ी मजदूरों को हो रही है, क्योंकि एक ओर इस विकराल प्रकोप से लड़ रहा है, दूसरी ओर भूखमरी, रोजमर्रा की जिंदगी और दैनिक समस्याओं से भी जूझ रहा है। दिहाड़ी मजदूर असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जिनका प्रतिदिन खाना और प्रतिदिन कमाना होता है। इस श्रेणी में- दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक ,मोची ,नाई ,घरों में काम करने वाले ,दुकानों में काम करने वाले लोग , ठेला लगाने वाले लोग और पल्लेदारी करने वाले आदि इसी श्रेणी में आते हैं । यह प्राय: अपने गांव या जिले से स्थानांतरण करके दूसरे शहर या प्रदेश में रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ऐसे कामगार वर्गों की आबादी 27 फ़ीसदी यानी 45 करोड़ है। इनमें से कुछ 200 कुछ 400 एवं कुछ ?600 प्रतिदिन कमाते हैं। इस पैसे से यह अपना और अपने संपूर्ण परिवार का खर्च चलाते हैं और उनका भरण पोषण करते हैं । किसी परिवार में कमाने वाला केवल एक ही व्यक्ति होता है और वही संपूर्ण परिवार की आवश्यकता की पूर्ति करता है। इस प्रकार की दिहाड़ी मजदूरों की संख्या सबसे अधिक उत्तर प्रदेश एवं बिहार की है। जो महाराष्ट्र ,दिल्ली एवं गुजरात में रहकर अपना जीवन यापन करते हैं । महाराष्ट्र सरकार ने पहले ही लॉकडाउन की घोषणा कर दिया । जिसमें भारी संख्या में मजदूरों का पलायन गांव की ओर हुआ । पिछले वर्ष सरकार के अचानक लॉकडाउन कर देने की वजह से कुछ को पैदल , कुछ को बस में एवं कुछ को बीच में ही रुकना पड़ा। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह समस्या केवल असंगठित क्षेत्र की है। संगठित क्षेत्र के भी सभी प्रकार के उद्योग- धंधे एवं व्यापार- वाणिज्य बंद हैं। एक देश का दूसरे देश से आयात निर्यात पूर्णतया है बंद है। ऐसे में बड़े-बड़े उद्योग एवं कंपनियां भी बंद पड़ी हुई हैं। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन के अनुसार ,भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या अधिक है इसलिए इनकी समस्याएं भी अधिक हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, लॉकडाउन के चलते विश्व में गरीबी रेखा का स्तर बढ़ा है । जिसमें सबसे अधिक भारत का (27त्न) है। बीते 6 माह में 1 करोड़ 20 लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से गरीबी की चपेट में आए हैं। वही 3 करोड़ 50 लाख बी0पी0एल धारकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है । यह दिहाड़ी मजदूर दिन प्रतिदिन काम करके अपना जीवन यापन करते हैं। इनमें से अधिकतम के पास घर नहीं होता , झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहते हैं। एक ही झुग्गी में पूरा परिवार रहता है। ऐसे में ना ही फिजिकल दूरी और ना ही सामाजिक दूरी की आशा की जा सकती है। आज यह अपनी दैनिक आवश्यकताएं पूरे करने में असमर्थ हैं। मास्क , सैनिटाइजर की उम्मीद ही नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि लापरवाही के कारण कर रहे हैं। बहुत से मजदूरों और लोगों में देखा गया है कि वह अपना गमछा ( साफी) , महिलाएं साड़ी ( फाड़ कर बनाया गया छोटा कपड़ा) और बच्चों को घर में पड़े कपड़े का मास्क इत्यादि बनाकर उपयोग कर रहे हैं। इनके पास मास्क और सैनिटाइजर का पैसा आएगा कहां से? संपूर्ण रोजगार के अवसर तो बंद पड़े हैं। काम की तलाश में इधर-उधर भटक भी रहे हैं। जिससे कि अपनी रोजी-रोटी चला सके परंतु काम कैसे मिले ? शहर में स्वयं का घर ना होने के कारण झुग्गी और झोपड़ी बनाकर रहते हैं । कई शहरों से इनकी झुग्गी झोपडिय़ां खाली करा दी गई । इनका गांव की ओर पलायन हुआ , कुछ गांव ने इनका प्रवेश ही वर्जित कर दिया जिसने प्रवेश दिया भी वहां किसी भी प्रकार की सहायता नहीं दी गई। एक और महामारी का प्रकोप, दूसरी ओर सामाजिक विभेद और रोटी की समस्या, ऐसी स्थिति में क्या करें? इस स्थिति में परिवार का सदस्य बीमार हो जाए तो वह क्या करेगा इसका उल्लेख ही नहीं किया जा सकता ?
अधिकतम मजदूर यह बताते हैं कि उनके पास साहूकारों का कर्ज है। यदि वह गांव जाएंगे तो उनसे कर्ज मांगा जाएगा। पिछला कर्ज ना चुका पाने के कारण इस बार पैसा भी नहीं मिल सकेगा। ऐसी स्थिति में विकल्प विहीन मजदूर अपने भाग्य को कोसने और रोने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकता है। सरकारों के पास इनके समस्याओं का किसी भी प्रकार का ठोस हल नहीं है। यद्यपि , सरकारों ने राहत पैकेज की घोषणा जरूर की । क्या उसका फायदा सभी वर्गों को मिल पाया है? वर्ल्ड इकोनामिक फोरम के अनुसार पिछले वर्ष के राहत पैकेज से लगभग 13 करोड लोग वंचित रह गए थे। भारत में सभी मजदूरों के पास ना ही लेबर कार्ड, ना ही राशन कार्ड और ना ही बैंक अकाउंट है। ऐसे में सरकार के राहत पैकेज का फायदा कितने लोग उठा पाएंगे। यह बड़ा प्रश्न है! असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों को ना ही छुट्टी का पैसा मिलता है , ना ही किसी भी प्रकार की सुविधाएं। इनको प्रतिदिन काम के अनुसार पैसा दिया जाता है। सरकार के पास भी करोना कि दूसरी लहर के चेन को तोडऩे के लिए संपूर्ण लॉकडाउन के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं है। एक्सपर्ट्स के बयान भी सामने आ रहे हैं जिसमें वह संपूर्ण लॉकडाउन की सलाह दे रहे हैं। इसमें यह भी देखने की जरूरत है की संपूर्ण लॉकडाउन के लिए क्या देश तैयार है? क्या सरकार तैयार है? सभी प्रकार की बुनियादी आवश्यकताएं एवं जरूरतों की पूर्ति वह कर सकेगी? महाराष्ट्र में लॉकडाउन को लेकर ही कुछ इलाकों में धरना प्रदर्शन हुआ। यदि इस महामारी की चेन को तोडऩा है तो लॉकडाउन लगाना चाहिए। उसके लिए ठोस तैयारियां और सभी प्रकार के आवश्यक संसाधनों को भी जुटा लेना चाहिए। जिससे कि आवश्यकता पडऩे पर उसका उपयोग किया जा सके। इस साल लॉकडाउन में दिहाड़ी मजदूरों एवं प्रतिदिन काम करने वाले व्यक्तियों की समस्याओं का अत्यंत ध्यान रखना चाहिए। केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को चाहिए कि उनके समस्याओं के लिए ठोस कदम उठाएं। विभिन्न प्रकार की योजनाएं और परियोजनाओं को संचालित करना चाहिए जिसका प्रत्यक्ष लाभ उठा सकें। जो भी राहत पैकेज केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा घोषित किया जाता है , शत-प्रतिशत नहीं मिल पाता। सरकार को चाहिए कि इस कार्य हेतु विशिष्ट अधिकारियों को नियुक्त करें। जो अपना काम निष्ठा के साथ करें। बहुत से लोगों के पास पैकेज का लाभ उठाने के लिए प्रमाण पत्रों का अभाव है। जिसमें यह देखना चाहिए की आवश्यक दस्तावेज ना होने के बावजूद भी उनको इसका लाभ दिया जाए। राशन सामग्री और अधिक दी जाए, क्योंकि यह मूलभूत आवश्यकता है। यदि इन बुनियादी आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो महामारी से ज्यादा भुखमरी से लोग मरेंगे। इस क्रोना प्रकोप के चलते सरकार को कई प्रकार के भोजनालयों की भी व्यवस्था करनी चाहिए। जिसमें वंचित वर्ग भोजन कर सके। समाज और शेंठ भी आश्रितों की यथासंभव सहायता दे । मजदूरों की बस्तियों में पानी का संकट भी देखा जा रहा है ,क्योंकि लॉकडाउन लगने से सार्वजनिक नलों से पानी भर नहीं पा रहे हैं ।अन्य लोग अपने घरों से पानी दे नहीं रहे हैं। उनको भी कोविड-19 का खतरा लग रहा है। जहां पानी इत्यादि समस्या है वहां टैंकरों की व्यवस्था करनी चाहिए। क्योंकि पानी एक मूलभूत आवश्यकता है। अधिक संख्या में मजदूरों का गांव में पलायन करने के कारण , वहां के हालात भी बिगड़ चुके हैं। गांव में ना ही स्वास्थ्य की उचित सुविधा है और ना ही ज्यादा टेस्टिंग हो रही है। इस बार करो ना कि यह लहर गांव को भी परेशान कर रही है। पिछले वर्ष भारत से अधिक अन्य विकसित देशों की स्थिति गंभीर थी परंतु एक और उन्होंने कोरोनावायरस से लड़ा , दूसरे ओर अपने स्वास्थ्य के ढांचे को विकसित किया । यही कारण रहा कि आज वहां यह महामारी नियंत्रण में है। मजदूरों की समस्याओं के निदान हेतु सरकार और समाज दोनों को प्रयास करना चाहिए । लॉकडाउन से सबसे अधिक परेशानी का सामना उन्हीं को करना पड़ेगा।
( लेखक – इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक के राजनीति विज्ञान विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं)

इस बार अधिक सुरक्षा और सावधानी से मनाएं त्योहार

डॉ. नितिन म. नागरकर
सरकार के अथक प्रयास और जनभागीदारी की बदौलत कुछ ही दिनों में देश में कोरोना टीकाकरण में सौ करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया जाएगा। भारत जैसे विशाल जनसंख्या घनत्व वाले देश के लिए यह एक अहम उपलब्धि है। देश के कोने कोने में हमारे कोरोना वॉरियर ने टीका पहुंचाया। लेकिन सरकार की रणनीति और इन योद्धाओं की मेहनत तब ही कारगर होगी जब हम आने वाले कुछ महीने में और अधिक समझदारी का परिचय देगें। कोरोना अभी खत्म नहीं हुआ है, कुछ राज्यों में अभी भी एक्टिव केस का प्रतिशत ज्यादा है। वैक्सीन को लोगों ने कोरोना से सुरक्षा के हथियार को अपना लिया है उन्हें भी त्योहार में विशेष एहतियात बरतनी होगी।
अधिक दिन नहीं हुए जब देश ने कोरोना की दूसरी लहर का एक भयानक मंजर देखा। मुझे याद है हमारे रायपुर एम्स में मरीजों की लाइन लगी हुई थी और हम उपलब्ध संसाधनों में सभी को इलाज और ऑक्सीजन उपलब्ध कराने की भरकस कोशिश कर रहे थे। एक एक जान बचाने के लिए दिन रात ड्यूटी पर तैनात नर्स और डॉक्टर्स, वहीं मेडिकल संसाधनों की जरूरत के अनुसार आपूर्ति करने में सरकार की कोशिशें, वह सब कुछ ऐसे नहीं भुलाया जा सकता। कोरोना की दूसरी लहर में जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया वह अभी तक उस गम से उबर नहीं पाए है। आने वाले कुछ महीने इस संदर्भ में अति महत्वपूर्ण होने वाले हैं, कोरोना संक्रमण अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। हमारे देश में त्योहारों को हर्षोल्लाष के साथ मनाने की परंपरा रही है, हम एक दूसरे के घर जाते हैं, समूह में अपनी खुशियों को सबके साथ साझा करते हैं, लेकिन हमें इस बात को अच्छी तरह याद रखना है कि कोरोना महामारी अभी खत्म नहीं हुई है। जिन लोगों ने कोविड की पहली या दूसरी डोज ले ली है, उन्हें भी त्योहारों में कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करना है। निर्धारित दूरी, मास्क का प्रयोग और नियमित रूप से हाथ धोते रहने की आदत को व्यवहार में शामिल करें, ऐसा करने से हम अपने आसपास के वातावरण को कोरोना संक्रमण से सुरक्षित रख सकते हैं। इस संदर्भ में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य सचिव द्वारा सितंबर महीने में ही राज्यों को दिशा निर्देश जारी कर त्योहार के समय कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करने के लिए अनुचित बंदोबस्त करने के निर्देश दिए गए। सामूहिक रूप से मनाए जाने वाले त्योहार व्यक्तिगत तरीके से घर पर मनाएं जा सकते हैं, हम फोन या वीडियो कॉल के माध्यम से अपने प्रियजनों को त्योहारों की बधाइयां दे सकते हैं। रायपुर में इस बारे में लंबे समय से लोगों को जागरूक किया जा रहा है, छत्तीसगढ़ में आयोजित होने वाले पारंपरिक त्योहार पर स्वास्थ्य विभाग और सरकार की पूरी नजर है। कोरोना के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए स्वास्थ्य विभाग की मोबाइल वैन जिला स्तर पर भेजी गई जिससे गांव व हाट बाजार में भी लोग संक्रमण के प्रति जागरूक हो सकें। त्योहार पर लोगों की खुशियां बाधित न हो, इसके लिए पहले से ही सभी को कोविड अनुरूप व्यवहार का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
(लेखक निदेशक, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, रायपुर, छत्तीसगढ़ हैं)

वैचारिक विश्वसनीयता से ही बढ़ेगी साख

राजकुमार सिंह –
उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने के प्रियंका गांधी वाड्रा के ऐलान को गेम चेंजर मानने वाले कांग्रेसियों की कमी नहीं। जब देश में जुमलों-शिगूफों के जरिये चुनाव जीते भी जाते रहे हों, तब ऐसा उत्साह अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोगों को प्रियंका के ऐलान को शिगूफा या जुमला कहने पर एतराज हो सकता है, लेकिन यह उसके अलावा कुछ और नहीं, यह उनकी अपनी ही इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में ऐसा करने का कांग्रेस का कोई इरादा नहीं है। अगर कांग्रेस वाकई चुनावी टिकटों के जरिये महिला सशक्तीकरण के प्रति प्रतिबद्ध है तो फिर अन्य राज्यों में ऐसा करने पर मौन क्यों? प्रियंका का तर्क है कि वह तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही प्रभारी हैं, इसलिए वहीं के बारे में कह सकती हैं, पर यह तर्क कम, जिम्मेदारी-जवाबदेही से पलायन ज्यादा है। आखिर उत्तर प्रदेश की प्रभारी होते हुए ही प्रियंका राजस्थान से लेकर पंजाब तक कांग्रेस का आंतरिक संकट सुलझाने में पूरी तरह सक्रिय नजर आती रही हैं। क्रिकेटर से राजनेता बने नवजोत सिंह सिद्धू की पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी, जिसकी परिणति मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरेंद्र सिंह की बेआबरू विदाई में भी हुई, में तो प्रियंका की ही भूमिका सबसे अहम मानी जाती है। वैसे राहुल गांधी तो किसी प्रदेश के प्रभारी भी नहीं, लोकसभा सदस्य मात्र हैं, फिर भी देश भर में कांग्रेस से जुड़े तमाम फैसलों में उन्हीं की भूमिका निर्णायक नजर आती है।
इसके अलावा भी प्रियंका का ट्रंप कार्ड बताये जा रहे इस ऐलान के संदर्भ में दो बेहद स्वाभाविक प्रश्न अनुत्तरित हैं: एक, क्या इस जुमले को जन-जन तक पहुंचा कर माहौल बना सकने की विश्वसनीयता वाला चेहरा और सामर्थ्य वाला संगठन कांग्रेस के पास है? दूसरा, क्या सिर्फ टिकटों में हिस्सेदारी से वास्तव में महिला सशक्तीकरण हो जायेगा? पहले प्रश्न की चर्चा पहले करते हैं। ज्यादा अतीत में न भी जायें तो 1989 में बोफोर्स तोप दलाली के आरोपों के शोर में हुए लोकसभा चुनावों में विश्वनाथ प्रताप सिंह की ‘राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर हैÓ जैसे नारों के साथ गढ़ी गयी छवि और कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर, सरकार बनते ही दलालों के नाम सार्वजनिक करने के वायदे ने कांग्रेस के विरोध और जनता दल की अगुवाई वाले राष्ट्रीय मोर्चा के समर्थन में माहौल बनाने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। उसके बाद दूसरा अहम उदाहरण वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव का है, जिसमें गुजरात मॉडल के इर्दगिर्द गढ़ी गयी नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष की छवि और अच्छे दिन आने के वायदे से उठे बवंडर में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस जमीन से ऐसी उखड़ी कि बमुश्किल 44 सांसद जीत पाये। क्या अभी तक भाई राहुल के सहयोगी की भूमिका में सक्रिय प्रियंका की छवि ऐसी है कि उनके किसी वायदे को बदहाल कांग्रेस संगठन चुनावी हवा में बदल पाये?
इस सवाल का जवाब प्रियंका जानती हैं और उनके समर्थक भी। कुछेक राज्यों को अपवाद मान लें तो कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा लगभग चरमरा चुका है। बेशक इसमें राज्य और स्थानीय स्तर पर व्याप्त गुटबाजी की भूमिका रही है, लेकिन जिम्मेदार आलाकमान भी कम नहीं है, जिसने पार्टी को पिछले ढाई साल से असमंजस में डाल रखा है। जहां थोड़ा-बहुत संगठन सक्रिय है, वहां कांग्रेसियों को आपस में लडऩे से फुर्सत नहीं, और उत्तर प्रदेश-बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति प्रतीकात्मक ज्यादा रह गयी है। ऐसे में गेम चेंजर बताये जाने वाले जुमलों-शिगूफों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता। हां, अगर कांग्रेस ऐसी ही घोषणा पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों के लिए करती, जहां वह सत्ता की दावेदार तो है, तब उसे कम से कम वैचारिक ईमानदारी अवश्य माना जाता। उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चौथे नंबर पर चल रही कांग्रेस की दावेदारी दर्जन-दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर नजर नहीं आती। ऐसे में 403 सदस्यीय विधानसभा में हार की संभावना वाली सीटों पर 40 क्या, 50 प्रतिशत टिकट भी कांग्रेस महिलाओं को दे दे तो उससे राजनीति का चरित्र नहीं बदलने वाला। बेशक लोकसभा-विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा पुराना है। राज्यसभा में इस बाबत विधेयक भी पारित हो चुका है। सामाजिक न्याय के स्वयंभू पैरोकार दल-नेता तो अपने-अपने तर्कों के सहारे इसका विरोध करते रहे हैं, लेकिन दोनों बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा ऐसे आरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता जताते रहे हैं। फिर भी विधेयक को लोकसभा में आज तक पारित नहीं करवाया जा सका, तो कहीं न कहीं प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान लगेंगे ही।
वैसे अगर नीयत साफ हो तो लोकसभा-विधानसभा चुनाव में महिलाओं को टिकट देने के लिए किसी कानून की बाध्यता की जरूरत नहीं है। जिन दलों-नेताओं की ऐसी ईमानदार प्रतिबद्धता है, वे ऐसा कर भी रहे हैं। हां, यह अवश्य है कि इस मामले में क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दलों के मुकाबले ज्यादा ईमानदार और प्रतिबद्धता की कसौटी पर खरा उतरने वाले साबित हुए हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बिना जुमलों-शिगूफों के ही महिलाओं को एक-तिहाई से भी ज्यादा टिकट चुनाव में दिये, और वे जीती भीं। ज्यादा अच्छी बात यह है कि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में महिलाओं को टिकट छलावा भर नहीं है और राजनेताओं के परिवारों से बाहर आम महिलाओं को भी अवसर मिला है। यह तथ्य इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि आरक्षण की आड़ में अक्सर राजनेता अपने परिवार की महिलाओं को ही आगे बढ़ाते हैं और उनकी आड़ में सत्ता के सूत्र अपने ही हाथों में केंद्रित रखते हैं। जाहिर है, ऐसे छद्म प्रतिनिधित्व से महिला सशक्तीकरण तो नहीं होता, उलटे लोकतंत्र कमजोर अवश्य होता है। तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को अपवाद मान लें तो अन्य राजनीतिक दलों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व परिवारवाद को प्रश्रय ही ज्यादा साबित हुआ है। बिहार में राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना ही इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपने ही लाल-लालियों को राजनीति में आगे बढ़ाने के शर्मसार करने वाले ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है।
वैसे अहम स्वाभाविक सवाल यह भी है कि क्या प्रतीकात्मक राजनीतिक प्रतिनिधित्व से जमीनी हकीकत बदलती है? इंदिरा गांधी लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं। तब तो भारत में महिलाओं का सशक्तीकरण दशकों पहले ही हो जाना चाहिए था। मायावती देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की एक से अधिक बार मुख्यमंत्री रहीं, तब तो उन्हें महिला सशक्तीकरण की मिसाल बन जाना चाहिए था। अगर राजनीति या कहें कि सत्ता राजनीति में प्रतिनिधित्व ही हर मर्ज का इलाज है, तब तो कमोबेश हर वर्ग के प्रतिनिधि को उसकी उसी पहचान के आधार पर सभी प्रमुख पद अक्सर मिल जाने से आजादी के सात दशकों में देश के सभी वर्गों का सशक्तीकरण हो जाना चाहिए था, पर ऐसा हुआ है? अगर, हां, तब फिर आरक्षण और प्रतिनिधित्व की चुनावी लॉलीपॉप हर चुनाव में नयी पैकिंग में क्यों दिखायी जाती है? दरअसल यह सब चुनावी तिकड़में हैं मतदाताओं को भरमाने की। किसी भी वर्ग का सशक्तीकरण होता है, उसे बिना भेदभाव शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सम्मान, सुरक्षा और जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढऩे के अवसर सुनिश्चित करने से, जो किसी भी निर्वाचित सरकार का संवैधानिक दायित्व भी होता है, पर वे अक्सर प्रतीकात्मक पहल और घोषणाएं कर अपनी वास्तविक जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुंह चुराती रही हैं।
ऐतिहासिक चुनावी पराभव के बाद अब आंतरिक असंतोष का दबाव झेल रही कांग्रेस के शिगूफे महिलाओं को टिकट के लॉलीपॉप पर ही समाप्त नहीं होते। एक नवंबर से शुरू हो रहे सदस्यता अभियान में कांग्रेस का सदस्य बनने के लिए जो शर्तें रखी गयी हैं, वे भी व्यावहारिकता से कोसों दूर दिखावटी आदर्शवाद हैं। मसलन, शराब समेत किसी भी नशीले पदार्थ का सेवन न करना, प्रामाणिक खादी पहनना, लैंड सीलिंग एक्ट से ज्यादा भूमि का मालिक न होना, जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव न करना आदि। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मद्य निषेध के पैरोकार थे। इसीलिए भारत के संविधान में भी मद्य निषेध को शामिल किया गया, लेकिन आजाद भारत की सरकारों ने वास्तव में तो अधिक राजस्व के लालच में शराब निर्माण-बिक्री, नतीजतन उसके सेवन को ही बढ़ावा दिया। यह भी गोपनीय तथ्य नहीं है कि कमोबेश सभी दलों के अनेक नेता-कार्यकर्ता निस्संकोच शराब का सेवन ही नहीं करते, कारोबार से भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसीलिए कांग्रेस की सदस्यता की ऐसी शर्तें व्यावहारिक आदर्श के बजाय अपना दामन दूसरों से साफ दिखाने का शिगूफा नजर आती हैं, और शिगूफों की राजनीति का अंजाम किसी से छिपा नहीं है। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अभी भी समझने को तैयार नहीं दिखती कि स्पष्ट वैचारिक प्रतिबद्धता ही उसे प्रासंगिक बनायेगी, जुमले-शिगूफे नहीं।

टीकाकरण की उपलब्धि के बावजूद सतर्कता जरूरी

जगत राम, राकेश कोछड़ –
गत 21 अक्तूबर के दिन भारत ने कोविड-19 के खिलाफ युद्ध में वैक्सीन का 100 करोड़वां टीका लगाकर मील का पत्थर प्राप्त कर लिया। यह असाधारण प्राप्ति है जिसे महज 9 महीनों में कर दिखाया है, वह भी भारत निर्मित वैक्सीन से। हमारी कम-से-कम 75 फीसदी बालिग आबादी को पहला टीका लग चुका है, वहीं दोनों खुराक पाने वालों की गिनती लगभग 31 प्रतिशत है। महत्वपूर्ण यह है कि अकेले सितम्बर माह में अभूतपूर्व 23.6 करोड़ टीके लगाए गए। इस तरह दोनों टीके लगों की संख्या अमेरिका की कुल जनसंख्या के करीब है। आशंकाओं के विपरीत कुल वैक्सीन का 65 फीसदी इस्तेमाल ग्रामीण भारत में हुआ है।
मील के इस पत्थर से आगे की राह क्या है? हमारी वयस्क आबादी को दोनों खुराकों से सुरक्षित करने के बाद अगली चिंता वायरस के नए रूपांतरों की आशंका के मद्देनजर बूस्टर शॉट लगाने के अलावा अवयस्क वर्ग को वैक्सीनयुक्त करना है। वैसे समूची आबादी को पूरी तरह वैक्सीन लगाने का काम मार्च, 2022 तक ही हो पाएगा।
वहीं दूसरी ओर जहां हिमाचल प्रदेश, गुजरात और केरल में, जहां कुल आबादी में लगभग आधी को दोनों टीके लगाने का काम पूरा हो चुका है, तो यूपी में यह शोचनीय आंकड़ा मात्र 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 32 फीसदी है। लगातार रोजाना घटते कोविड मामलों के मद्देनजर चिंताजनक यह है कि कहीं आने वाले महीनों में जोश में बहक कर इसकी अनिवार्यता और वैक्सीन लगवाने की ललक मद्धम न पड़े जाए। यही वह कारक हैं, जिसकी वजह से अमेरिका में पिछली लहर बनी थी, क्योंकि हजारों लोग दूसरा टीका लगवाने नहीं आए थे। भारत में 10 करोड़ नागरिकों को दूसरी खुराक नहीं लगी है। इसलिए जनसंख्या के बड़ा भाग पर संक्रमित होने और इसको अन्यों तक फैलाने का जोखिम मंडरा रहा है।
हालांकि, विश्व में टीकाकरण बढऩे के बावजूद कोविड प्रतिरोधकता शक्ति की घटती क्षमता से चिंता भी बनी है। साइंसदानों को अब तक पूरी तरह पक्का नहीं है कि कोविड 19 के खिलाफ बनी प्रतिरोधक क्षमता का कितना स्तर में वास्तव में शरीर में बने रहना जरूरी है। कुछ कोविड वैक्सीनों में बूस्टर टीका लगवाने की जरूरत है। हालांकि हेपेटाइटिस-बी में भी 6 महीनों बाद बूस्टर डोज़ लगवाने की जरूरत होती है। इसी तरह टिटनेस टीका हर 10 साल बाद लगवाना होता है। हेपेटाइटिस-ए और टाइफाइड वैक्सीन को भी समय-समय पर पुन: लगाना जरूरी है और यही बात फ्लू के टीके पर लागू है।
इस्राइल में 60 साल से ऊपर लोगों में, जिनको दोनों डोज़ लगवाए 5 माह बीत चुके हैं, उनमें पाया गया है कि हाल में टीका लगवाने वालों की बनिस्बत कोविड से संक्रमित होने का खतरा तीन गुणा ज्यादा है। यूके के एक अध्ययन में सामने आया है कि कोविड के लिए एस्ट्रा-जेनेका वैक्सीन की दूसरी खुराक लेने के 20 हफ्तों बाद इसकी प्रभावशीलता 67 प्रतिशत से घटकर 47 फीसदी रह जाती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि फाइजऱ-बायोटेक के बूस्टर टीके का प्रभाव लक्षणयुक्त कोविड संक्रमण मामलों में 95.6 पाई गई है। यह डाटा उस वक्त का है, जब डेल्टा वेरियंट ने कोहराम मचा रखा था।
अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने हाल ही में दो वैक्सीनों को बतौर बूस्टर शॉट इस्तेमाल करने की आपातकालीन मंजूरी दी है। मोडर्ना अथवा जॉनसन एंड जॉनसन का बूस्टर टीका उनके लिए है, जिन्हें कोविड वैक्सीन का पूरा कोर्स लिए कम-से-कम 6 महीने हो चुके हों, जो 18-64 आयु वर्ग वाले हैं क्योंकि तीव्र संक्रमण होने का खतरा सबसे ज्यादा इस वर्ग को है या उन्हें जो किसी अन्य बीमारी की वजह से बार-बार अस्पतालों में भरती हों या व्यवसाय संबंधित संक्रमण से पीडि़त होते रहते हैं। एफडीए ने मिक्स एंड मैच वैक्सीन लगाने को भी अनुमति दे दी है, क्योंकि देखने में आया है कि दो अलग किस्म की वैक्सीन लगवाने से शरीर की कोविड प्रतिरोधकता क्षमता बढ़ती है।
यूके के राष्ट्रीय स्वास्थ्य तंत्र ने भी 6 महीने पहले दूसरा टीका लगवा चुके चुनींदा लोगों को – जो 50 साल से ऊपर हैं या अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मी और कुछ अन्य वर्ग को बूस्टर वैक्सीन लगवाने का विकल्प दिया है। भारत को भी दोनों टीके लगवा चुके लोगों को बूस्टर शॉट लगाने की जरूरत पर विचार करना चाहिए। देश के विभिन्न हिस्सों से एकत्र किया गया डाटा बताता है कि दोनों खुराकें ले चुके लोगों में 8-10 प्रतिशत को फिर से संक्रमण हुआ है। राज्यों के पास 10 करोड़ टीकों की उपलब्धतता होने के मद्देनजर ज्यादा नाजुक वर्ग, जैसे बुजुर्ग और स्वास्थ्यकर्मियों को बूस्टर डोज़ लगाने पर विमर्श किया जाना चाहिए।
टीकाकरण का अगला प्राप्तकर्ता वर्ग 18 साल से कम अवयस्क हैं। सरकार ने पहले ही दो वैक्सीन – ज़ायडस कैडिला की ज़ाइकोव-डी और भारत बायोटैक की कोवैक्सीन को 2-17 आयु वर्ग के बच्चों को बतौर आपातकालीन इस्तेमाल की इज़ाजत दे रखी है। लेकिन डॉ. वीके पॉल जो कोविड टास्क फोर्स के मुखिया हैं, उन्होंने हाल ही में कहा है कि सरकार को बच्चों और शिशुओं को टीके लगाने की अंतिम मंजूरी पर जल्द फैसला लेना चाहिए। जैसा कि स्कूल-कॉलेज पुन: खुलने शुरू हो चुके हैं, ऐसे में बिना वैक्सीन वाले बच्चे खतरा बन सकते हैं, हालांकि उनमें अधिकांश में कोविड का असर कम रहता है।
चिंता की बात है कि जहां अमेरिका, चीन और यूरोप ने अपनी आबादी के लगभग आधे हिस्से को दोनों टीके लगा दिए हैं वहीं अफ्रीका में यह आंकड़ा फिलहाल शोचनीय है। विशेषज्ञ बार-बार चेता रहे हैं कि मुल्कों के बीच आवाजाही और व्यापार पुन: शुरू होने के बाद कोविड-19 से पूरी तरह मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि विश्व के सभी भागों में काबू में नहीं आ जाता। हालांकि डब्ल्यूएचओ ने पिछले साल सबको समान रूप से वैक्सीन मुहैया करवाने हेतु – कोवैक्स – नामक समूह बनाया था, लेकिन समृद्ध राष्ट्रों ने अपनी आबादी की एवज में गरीब देशों के लिए पर्याप्त वैक्सीन नहीं छोड़ी। इससे एक तरह की जमाखोरी हुई, जिससे एक्सपायरी की अंतिम तारीख निकलने की वजह से वैक्सीन के करोड़ों टीके बर्बाद हो गए।
फिर लोगों में आक्रामता की हद तक वैक्सीन लगवाने वाली हिचकिचाहट भी कम टीकाकरण दर का कारण है, पूरबी यूरोप के लातविया, रोमानिया और बुलगारिया इसका उदाहरण है। यहां तक कि रूस में भी, स्वदेशी वैक्सीन के बावजूद, इसी तरह का संकट है, बल्कि तथ्य तो यह कि कोविड महामारी से सबसे ज्यादा मृत्यु दर वहीं है।
मौजूदा साल के शुरू में भारत में डेल्टा के अति-संक्रामक और मारक रूपांतर ने ही कोहराम मचाया था। विश्वभर में सबसे ज्यादा संक्रमण और मौतों के पीछे भी यही डेल्टा है। अब इसकी एक नई किस्म, एवाई.4.2 वेरियंट की शिनाख्त सितम्बर माह में इंग्लैंड में हुई है। यह रूपांतर सिलसिलेवाराना संक्रमण के कुल मामलों में 6 फीसदी के लिए उत्तरदायी है। चिंता है कि कुछ नये रूपांतर बहुत ज्यादा मारक हो सकते हैं।
हमें आने वाले महीनों में सावधान रहना होगा, पर्यटन और सामाजिक आयोजन शुरू होने के साथ, लोगों ने अपने सुरक्षा स्तर में कमी कर दी है, मास्क लगाना और शारीरिक दूरी कायम का ध्यान रखना छोड़ दिया है। त्योहारों का मौसम और चुनाव भी नए मामलों के जनक होते हैं, खासतौर पर ऐसे वक्त पर जब वैक्सीन से प्राप्त प्रतिरोधक क्षमता समय के साथ घटनी शुरू हो चुकी है। इंग्लैंड में रोजाना कोविड मामले फिर से उछाल लेकर 5०० तक पहुंच गए हैं – जो मध्य-जुलाई से बाद सबसे ज्यादा हैं – इसके पीछे प्रतिबंध उठाना और मास्क एवं शारीरिक दूरी का पालन न करना है। 100 करोड़ टीकाकरण के बनी प्राप्ति को सुदृढ़ रखने को हमें कोविड संबंधी संहिता का पालन, मास्क लगाकर रखना और भीड़-भाड़ वाली जगहों से दूर रहने और गैर-जरूरी एकत्रता बनाने से गुरेज करना चाहिए।

अन्याय के प्रतिकार में पारंगत हों भारतीय

लक्ष्मीकांता चावला –
दुर्गा पूजा के दिनों में बांग्लादेश में मंदिरों और दुर्गा पूजा के पंडालों पर मुस्लिम कट्टरवादियों ने हमले किए। इस्कॉन मंदिर नौआखली में भी भयानक तांडव किया। साथ ही अल्पसंख्यकों की दुकानों और घरों पर हमले किए गए। भारत ने बांग्लादेश की पाकिस्तान से मुक्ति के बाद उसे आजाद कर दिया। अगर चाहते तो बांग्लादेश को अपनी ही एक कॉलोनी बना सकते थे। हिंदुस्तान की यही संस्कृति है कि हम कभी किसी के देश में न आक्रमण करते हैं और न ही किसी की भूमि पर कब्जा करते हैं। ऐसा लगता है बांग्लादेशी कट्टरपंथी भूल गए कि भारत और भारतीयों के कारण ही वे पाकिस्तानी यातना से मुक्त हुए। इसी प्रकार पाकिस्तान में भी हिंदू मंदिरों, हमारे गुरुद्वारों, हमारे परिवारों पर शर्मनाक हमले किए गए। हमारी बेटियों को बेइज्जत किया, अपहरण किया, उनसे जबरी निकाह किया। वहां की सरकार सोई रही।
दरअसल, शिकायत अपने देशवासियों से भी है कि जैसा क्रोध-विरोध का ज्वारभाटा इस निंदनीय दुर्घटना के बाद देश में उठना चाहिए था, वह कहीं दिखाई नहीं दिया। रावण भी जलाकर यूं कहिए लकीर की फकीरी पूरी कर ली, पर रावण से भी ज्यादा बुरे काम जिस बांग्लादेश और पाकिस्तान में हो रहे हैं, अफगानिस्तान में हो चुके हैं, हो रहे हैं, उसके विरुद्ध कोई गुस्सा न सरकारी स्तर पर प्रकट हुआ और न जनता के।
जब मुहम्मद गौरी ने हमारे सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था तब भी वह तो कुछ हजार सैनिकों के साथ ही आया था, जबकि पूरे भारत में हमारे मंदिरों में असंख्य पुजारी थे। जिन शहरों से मुहम्मद गौरी हमारे मंदिरों से लूटा हुआ सोना-चांदी, संपदा, हाथी-घोड़ों पर लादकर ले गया, अगर रास्ते में भी उसके दस-बीस सैनिक हर गांव-शहर में मार दिए जाते तो देश की संपदा देश में बच जाती। इतिहास साक्षी है कि एक आवाज में एक होकर देश ने तब भी गौरी के अत्याचारों का मुकाबला नहीं किया। अंग्रेजों के समय भी हमारी अलग-अलग रियासतों के राजा आपस में लड़ते रहे, पर अंग्रेजों की गुलामी अधिकांश राजाओं ने स्वीकार कर ली। अब यहां प्रश्न बांग्लादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान में हिंदू समाज और उनके सम्मान का है। हमारे मंदिरों, गुरुद्वारों का है। हमारी बेटियों का है। क्या आज की आवश्यकता यही है कि हम केवल अपना परलोक सुधारने के लिए माला हाथ में लेकर निष्क्रिय बैठे-बैठे नाम सिमरन करते रहें और यह प्रतीक्षा करते रहें कि भगवान श्रीकृष्ण जी के अपने वचन के अनुसार जब-जब धर्म की हानि होगी वे धर्म की रक्षा के लिए यहां आएंगे। आवश्यकता तो यह है कि एक हाथ में माला और दूसरे में भाला होना चाहिए। हमारे ग्रंथों में भी शस्त्र और शास्त्र, शर और शाप दोनों में योग्यता की बात कही है।
हमारा दुर्भाग्य यह भी है कि हमारे पूजा स्थानों विशेषकर मंदिरों में जिनको ठाकुर पूजा का काम सौंपा जाता है, वे बहुत बेचारे हैं। उन्हें पूरा वेतन भी नहीं मिलता। जिनसे हम आशीर्वाद लेते हैं उन्हें मंदिर समितियों के सदस्य या अधिकारी कभी भी डांट पिला सकते हैं, नौकरी से निकाल सकते हैं या अन्य किसी भी प्रकार से नीचा दिखा सकते हैं। देश के बड़े-बड़े मंदिरों में यह बुराई शायद कम होगी, पर अधिकतर मंदिरों में और पूजा स्थानों में ऐसा ही है। हो सकता है समाज के वरिष्ठ सदस्यों को यह याद होगा कि पहले हर मंदिर में कुछ युवा विद्यार्थी रहते थे। वे शिक्षा भी ग्रहण करते और मंदिरों तथा आसपास के क्षेत्रों की सामाजिक सुरक्षा का दायित्व भी निभाते थे। देश और समाज की आज यह आवश्यकता है कि हमारे मंदिरों के पुजारी शास्त्रों के साथ शस्त्रों में भी पारंगत हों और उन्हें पूरा वेतन दिया जाए।
हमारे कोई भी देवी-देवता बिना शस्त्र के नहीं। दुर्गा पूजा के दिनों में हम सिंहवाहिनी, दशभुजाधारिणी और महिषासुर संहारिनी देवी की पूजा करते हैं और फिर हमारी हिंदुस्तान की बेटियां बिना शस्त्र शिक्षा और बिना शस्त्र के क्यों? रक्तबीज का अंत करने वाली देवी की पूजा सर्वत्र होती है। चण्ड, मुण्ड संहारिनी देवी की पूजा होती है और राक्षसों का नाश करने के लिए स्वयं भगवान बार-बार अवतार लेकर हमें रास्ता दिखाते रहे हैं।
यह एकदम सत्य है कि अगर हम श्रीराम और श्रीकृष्ण जी के रास्ते पर नहीं चलेंगे, श्री गुुरु हरगोबिंद और गुरु गोबिंद सिंह जी का मार्ग नहीं अपनाएंगे, बंदा बहादुर की तरह अत्याचारियों के अत्याचार का समूल नाश करने की योग्यता देश के बच्चों, युवाओं में पैदा नहीं करेंगे तो कभी बांग्लादेश के कट्टरपंथी और कभी पाकिस्तानी हिंदू-सिख समाज पर अत्याचार करते रहेंगे। हम सरकार से यह सशक्त मांग कर सकते हैं कि आज भारत दुनिया का शक्तिशाली देश है, अपनी शक्ति का प्रयोग करके अपने प्रभाव से दुनिया का समर्थन लेकर उन कट्टरपंथियों के हाथों पर नियंत्रण करने के लिए बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान सरकार को मजबूर कर दे।
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गांधी दर्शन को मूर्त रूप देने वाले सुधारक गांधीवादी कार्यकर्ता एसएन सुब्बाराव

विवेक शुक्ला
राजधानी के गांधी शांति प्रतिष्ठान (जीपीएफ) की पहली मंजिल का कमरा नंबर ग्यारह। इसी कमरे में देश के चोटी के गांधीवादी कार्यकर्ता एसएन सुब्बाराव पिछले 51 सालों से रहते थे। वे यहां पर 1970 के मध्य में रहने लगे थे। इस आधी सदी के दौरान उन्होंने अपना कभी कमरा नहीं बदला। वे यायावर थे। देश भर में घूमते थे। पर उनका घर गांधी शांति प्रतिष्ठान का कमरा नंबर 11 ही थी। इधर ही उनसे दुनियाभर के गांधीवादी विचारक, लेखक, कार्यकर्ता मिलने के लिए आते थे। उनका 92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इस उम्र में भी वे सीधे खड़े होकर बोलते थे और चलते थे।
हाफ पैंट और और खादी की शर्ट उनकी विशिष्ट पहचान थी। नेशनल यूथ प्रोजेक्ट के माध्यम से सुब्बाराव जी ने देश के हर प्रांत में एकता- शिविर लगाये और युवाओं को एक-दूसरे के निकट लाये। गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली का कमरा नंबर 11 सुब्बाराव जी से मिलने की जगह रही। जीवन भर में उन्हें सम्मान स्वरूप जो स्मृति-चिह्न मिले उनसे वह कमरा अटा रहता था। अब वे सब मुरैना जिले के जौरा स्थित महात्मा गांधी सेवा आश्रम से आ गये हैं और एक सुन्दर संग्रहालय के स्वरूप में मौजूद हैं। वे पिछले दो साल से यहां पर नहीं आए थे। इसकी एक वजह कोविड भी थी।
सुब्बाराव जी कम बोलते और ज्यादा सुनने वाले मनुष्यों में से थे। उनकी विनम्रता अनुकरणीय थी। वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में अपने कमरे से कैंटीन में भोजन करने खुद आते थे। उन्हें खिचड़ी ही पसंद थी। वे कभी यह स्वीकार नहीं करते थे कि कोई उनके कमरे में उन्हें भोजन देने के लिए आए। उन्हें देश ने तब पहली बार जाना था जब चंबल के बहुत से दस्युओं ने आत्मसमर्पण किया था। जो लोग पचास साल पहले किशोर हुआ करते थे उनके मन पर सुब्बाराव जी ने गहरा असर डाला और बागी समस्या से पीडि़त इस इलाके के लोगों के व्यवहार-परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई। सबको पता है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चंबल में बागियों का सामूहिक समर्पण हुआ तब धरातल पर संयोजन का काम सुब्बाराव जी ने ही किया। सुब्बाराव जी बागी- समर्पण के दिनों में पुनर्वास का महत्वपूर्ण काम देख रहे थे। पर वे दस्यु समर्पण से जुड़ी बातों को करने से बचते थे।
गांधीवादी विचारधारा के प्रणेता रहे सुब्बाराव को कई दिग्गज अपना आदर्श मानते थे। सुब्बाराव जी का जाना शांति की दिशा में अपने ढंग से प्रयासरत व्यक्तित्व का हमारे बीच से विदा होना है। सुब्बाराव जी से जुड़ी अनेक स्मृतियां देशवासियों के मन को आलोकित करती रहेंगी। उनकी सद्भावना रेल यात्रा और असंख्य एकता शिविर सबको याद आते रहेंगे। आज देश के विश्वविद्यालयों में नेशनल केडिट कोर की तरह जो राष्ट्रीय सेवा योजना है वह भी सुब्बाराव जी की पहल का परिणाम है। ‘करें राष्ट्र निर्माण बनायें मिट्टी से अब सोनाÓ युवाओं के कंठ में और मन में उन्हीं के कारण बैठा।
देशभर के गांवों में सरकार से बहुत पहले श्रमदान से अनेक सड़कें और पुल सुब्बाराव जी की पहल से बने। वह एक अलग ही दौर था। वातावरण बदलने में सुब्बाराव जी और उनके सहयोगियों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है वह अब पता नहीं कितने लोग महसूस कर पाते हैं।
सुब्बाराव की मृत्यु का समाचार गांधी शांति प्रतिष्ठान में पहुंचा तो यहां पर काम करने वालों को लगा मानो उन्होंने अपने किसी आत्मीय परिजन को ही खो दिया। यहां से बहुत सारे लोग जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम में पहुंच रहे हैं। वहीं गुरुवार को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
देश भर में डॉ. सुब्बाराव को उनके साथी भाईजी ही कहते थे। डॉ. सुब्बाराव ने जौरा में गांधी सेवा आश्रम की नींव रखी थी, जो अब गरीब व जरूरतमंदों से लेकर कुपोषित बच्चों के लिए काम कर रहा है। आदिवासियों को मूल विकास की धारा में लाने के लिए वह अपनी टीम के साथ लगातार काम करते रहे हैं। सुब्बाराव दिल्ली प्रवास के दौरान राजघाट जरूर जाते थे। उन्हें पर जाकर टहलना और बैठना पसंद था। वे राजघाट में आए बच्चों और युवाओं से भी बात करने लगते थे। उनके गांधी जी से जुड़े सवालों के जवाब देते।

बहुत कठिन है कांग्रेस की डगर

*कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष

के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी

*पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है

*जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ

*सोनिया  की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी

*कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी

*एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था

राजकुमार सिंह
राष्ट्रद्रोह के आरोपों से चर्चा में आये जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार भाकपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हारने के बाद भले ही देश बचाने के नारे के साथ कांग्रेसी हो गये, पर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को अपना घर दुरुस्त करने की कोई जल्दी नहीं लगती। पिछले साल मार्च में आयी जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना के खौफ से देश में बहुत कुछ बंद होकर खुल गया, पर कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी। ध्यान रहे कि पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है, जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया था। तब से देश और कांग्रेस में बहुत कुछ घट चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार की जगह भाजपा फिर सत्ता में आ चुकी है। पंजाब में विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री, दोनों बदले जा चुके हैं। जिस तरह यह बदलाव किया गया, उसने कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर ही ग्रहण लगा दिया लगता है। इस बदलाव से मिली शह के चलते राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध असंतोष मुखर है तो हरियाणा में गुटबाजी यथावत बरकरार है।
कांग्रेसी संस्कृति के नजरिये से देखें तो एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ, जिसे अचानक आंतरिक लोकतंत्र और पार्टी के भविष्य की चिंता सताने लगी। स्वयं आलाकमान के आशीर्वाद से मनोनयन के जरिये संगठन और सत्ता की सीढिय़ां चढऩे वालों को महसूस हुआ कि संगठनात्मक चुनाव प्रक्रिया के बिना कांग्रेस का कल्याण संभव नहीं। दशकों से दरबारी और चाटुकार संस्कृति से संचालित कांग्रेस के इन स्वयंभू सुधारकों की चिंताओं की असली वजह समझना मुश्किल नहीं है। इसीलिए लंबे अरसे बाद 16 अक्तूबर को हुई रूबरू कार्यसमिति की बैठक में सोनिया की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी। वजहें निहित स्वार्थ प्रेरित हो सकती हैं, लेकिन चिंताएं तो वास्तविक हैं। लगातार दो लोकसभा चुनावों में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस अब गिने-चुने राज्यों में ही सत्ता या उसकी दावेदारी तक सिमट गयी है। इन राज्यों में भी गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि कांग्रेसियों को आपस में ही लडऩे से फुर्सत नहीं मिलती। फिर विरोधियों से कौन लड़े? कह सकते हैं कि गुटबाजी कांग्रेसी संस्कृति का हिस्सा रही है। यह भी कि क्षत्रपों को नियंत्रण में रखने और संतुलन बनाये रखने के लिए आलाकमान भी गुटबाजी को शह देता रहा है। निश्चय ही अंतर्कलह किसी दल को मजबूत नहीं बनाता, पर सत्ता की चमक-दमक और दबदबे में बहुत सारी कमजोरियां छिपी रहती हैं, जो सत्ता से बाहर हो जाने पर प्रबल चुनौतियां बन जाती हैं।
कांग्रेस के साथ यही हो रहा है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004 से 14 तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस को तब भी लगभग वे ही लोग चला रहे थे, जो अब चला रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब सुधारक की भूमिका में नजर आ रहे ज्यादातर नेता तब सत्तासीन थे। इसलिए न उन्हें आंतरिक लोकतंत्र की चिंता थी और न ही कांग्रेस के भविष्य की। दरअसल तेजी से जनाधार खोकर अप्रासंगिकता की ओर अग्रसर कांग्रेस की चुनौतियों के बीज दशकों से जारी रीति-नीति में निहित हैं, जिनके चलते नीति-सिद्धांत-संगठन विमुख राजनीति सिर्फ सत्ता केंद्रित होकर रह गयी थी। मसलन केंद्रीय सत्ता बरकरार रखने के लिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में उन्हीं क्षेत्रीय दलों से जूनियर पार्टनर बनकर भी गठबंधन किया, जिन्होंने उसे सत्ता से बेदखल किया था। कुछ समय तक ऐसे राज्यों के चिंतित कांग्रेसी नेता आलाकमान के दरवाजे पर दस्तक भी देते रहे, लेकिन जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने भी इन क्षेत्रीय दलों के साथ अपनी व्यावहारिक जुगाड़ बिठा ली। परिणामस्वरूप दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी। कांग्रेस के इस पराभव में मंडल-कमंडल के बाद उभरे राजनीतिक परिदृश्य में सामाजिक समीकरण को समझने में भी आत्ममुग्ध आलाकमान की चूक ने निर्णायक भूमिका निभायी, जिसे सुधारने की सोच भी अभी कांग्रेस में किसी स्तर पर नजर नहीं आती।
जब कोई राजनीतिक दल जमीनी राजनीतिक –सामाजिक वास्तविकताओं और परिणामस्वरूप जनाधार से भी पूरी तरह कट चुका हो, तब नेतृत्व संकट उसे ऐसे चौराहे पर पहुंचा देता है, जहां से आगे की राह चुनना बेहद दुष्कर होता है। राहुल गांधी ने यही गलती की। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी तो 2019 के चुनाव में 53 सीटें मिलने पर ही नेतृत्व की नैतिकता क्यों जागी? क्या कांग्रेस नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी बड़े उलटफेर की उम्मीद कर रहा था? अगर हां, तब तो नेतृत्व की राजनीतिक समझ पर ही सवालिया निशान लग जाता है? बेशक मोदी सरकार के विरुद्ध अच्छे दिन के बजाय नोटबंदी आने जैसे कुछ मुद्दे थे, लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका में या अपने सत्तारूढ़ राज्यों में ऐसा क्या कर दिया था कि पांच साल पहले उसे नकार नहीं, बल्कि दुत्कार चुके मतदाता फिर से जनादेश दे देते? राजनीतिक प्रेक्षक इसे अच्छा कहें या बुरा, कांग्रेस के पास एक ही स्पष्टता बची थी, और वह थी नेतृत्व को लेकर। पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं, देशवासी भी जानते थे कि कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू परिवार के लिए आरक्षित है। हां, इस बीच इतना बदलाव अवश्य आया कि कभी जिस परिवार का चेहरा कांग्रेस की चुनावी जीत की गारंटी हुआ करता था, हाल के दशकों में पार्टी को एकजुट बनाये रखने के लिए मजबूरी में तबदील हो गया। बेशक सोनिया गांधी के नेतृत्व के मुद्दे पर भी कांग्रेस विभाजित हुई, शरद पवार, पी. ए. संगमा और तारिक अनवर ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनायी तो ममता बनर्जी ने भी अपनी अलग तृणमूल कांग्रेस बना ली, लेकिन अलग अस्तित्व के बावजूद विपक्षी एकता के लिए ये दल-नेता सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार करते रहे। यह भी कि इन विभाजनों के अलावा कांग्रेस मौटे तौर पर न सिर्फ एकजुट रही, बल्कि क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे राजनेता की सरकार को परास्त कर केंद्रीय सत्ता पर 10 साल तक काबिज भी रही।
निश्चय ही नेतृत्व के लिए किसी परिवार विशेष पर निर्भरता स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है, पर सत्ता केंद्रित राजनीति ने कांग्रेस को संगठनात्मक ही नहीं, वैचारिक रूप से भी इतना खोखला कर दिया है कि उसकी एकता के लिए नेहरू परिवार रूपी सीमेंट अपरिहार्य हो गया है। इसलिए भले ही राहुल गांधी ने इस्तीफा देते समय परिवार से बाहर से अध्यक्ष चुनने की सलाह दी हो अथवा उससे उत्साहित कुछ नेताओं ने अगला अध्यक्ष बनने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हों, पर कटु सत्य यही है कि भविष्य तो पता नहीं, पर कांग्रेस के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है कि इस संकटकाल में तो नेहरू परिवार ही उसका नेतृत्व करता रहे, वरना कांग्रेस को खंड-खंड होने में समय नहीं लगेगा। यह अनायास नहीं था कि राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया ही अंतरिम अध्यक्ष बनीं। गत 16 अक्तूबर को हुई कार्यसमिति की बैठक में स्वयं को पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित कर सोनिया पता नहीं क्या संदेश देना चाहती हैं, लेकिन अगर राहुल को ही वापस नेतृत्व संभालना है तो फिर इस नाटकीय प्रकरण की जरूरत ही क्या थी? यह भी कि अब इसके लिए अगले साल सिंतबर तक इंतजार का औचित्य क्या है? जैसा कि बीच में कांग्रेस सूत्रों ने दावा किया था कि संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया ऑनलाइन संपन्न हो जानी चाहिए थी। जब कोरोना काल में सब कुछ ऑनलाइन चल रहा है और इसे भविष्य की व्यवस्था बताया जा रहा है, तब किसी राजनीतिक दल का संगठनात्मक चुनाव क्यों ऑनलाइन नहीं हो सकता?
दरअसल राहुल गांधी अगले साल पुन: कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालें या फिर उससे पहले, नेतृत्व के बाद कांग्रेस की असली चुनौती खुद की प्रासंगिकता साबित कर खोया हुआ जनाधार वापस पाने की होगी। एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था, लेकिन अब समय का तकाजा है कि जनाधार वाले क्षत्रपों को पार्टी से जोड़े रखा जाये। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि कांग्रेस अलग हुए नेताओं की घर वापसी का कोई रास्ता खोजे, पर वह तभी संभव होगा, जब पार्टी में मौजूद दिग्गजों को यथोचित सम्मान मिल पाये। पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह के साथ जैसा अपमानजनक व्यवहार किया गया, उससे इसके उलट ही संदेश गया है।

टीम इंडिया- सफलतापूर्वक चुनौतियों का सामना – नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री

घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय

कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?

 

घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय

*बीते समय में अपने देश में घरेलू उड्डयन की हालत गड़बड़ ही चल रही है

*घरेलू उड्डयन की समस्या का समाधान किया जाय

*जेट एयरवेज बंद हो गयी है. इंडिगो के प्राफिट में भारी गिरावट आई है

*सरकारी प्रबन्धन के दुराचार के बाद एयर इंडिया वापस टाटा समूह को बेच दी गयी है

*सरकार को अपनी उड्डयन नीति में परिवर्तन करना होगा

– भरत झुनझुनवाला
सत्तर साल तक सरकारी प्रबन्धन के दुराचार के बाद एयर इंडिया वापस टाटा समूह को बेच दी गयी है। लेकिन एयर इंडिया को वापस पटरी पर लाने के लिए टाटा को मशक्कत करनी पड़ेगी। बीते समय में अपने देश में घरेलू उड्डयन की हालत गड़बड़ ही चल रही है। जेट एयरवेज बंद हो गयी है, स्पाइस लगभग बंद हो गयी थी, इंडिगो के प्राफिट में भारी गिरावट आई है और एयर इंडिया के घाटे को पूरा करने के लिए देश के नागरिक से भारी टैक्स वसूल किया गया है। अत: घरेलू उड्डयन की मूल समस्याओं को भी सरकार को दूर करना होगा।
मुख्य समस्या यह है कि अपने देश में यात्रा के रेल और सड़क के विकल्प उपलब्ध हैं, जिसके कारण हवाई यात्रा लम्बी दूरी में ही सफल होती दिख रही है। जैसे दिल्ली से बेंगलुरू की रेल द्वारा एसी2 में यात्रा का किराया 2925 रुपये है जबकि एक माह आगे की हवाई यात्रा का किराया 3170 रुपये है। दोनों लगभग बराबर हैं। अंतर यह है कि रेल से यात्रा करने में 1 दिन और 2 रात का समय लगता है और भोजन आदि का खर्च भी पड़ता है। जिसे जोड़ लें तो रेल यात्रा हवाई यात्रा की तुलना में महंगी पड़ती है। तुलना में हवाई यात्रा में कुल 7 घंटे लगते हैं। इसलिए लम्बी दूरी की यात्रा में हवाई यात्रा सफल है।
हां, यदि आपको तत्काल यात्रा करनी हो तो परिस्थिति बदल जाती है। उस समय हवाई यात्रा महंगी हो जाती है जैसे दिल्ली से बेंगलुरू का किराया 10,000 रुपये भी हो सकता है जबकि एसी2 का किराया वही 2925 रुपये रहता है, यदि टिकट उपलब्ध हो। इसलिए तत्काल यात्रा को छोड़ दें तो लम्बी दूरी की यात्रा में हवाई यात्रा सफल है।
इसकी तुलना में मध्य दूरी की यात्रा की स्थिति भिन्न हो जाती है। दिल्ली से लखनऊ का एसी2 का किराया 1100 रुपये है जबकि एक माह आगे की हवाई यात्रा का किराया 1827 रुपये है। रेल यात्रा में एक लाभ यह भी है कि आप इस यात्रा को रात्रि में कर सकते हैं, जिससे आपका दिन का उत्पादक समय बचा रहता है; जबकि वायु यात्रा आपको दिन में करनी पड़ती है और इसमें आपका लगभग आधा दिन व्यय हो जाता है। इसलिए दिल्ली से लखनऊ की यात्रा किराए और समय दोनों की दृष्टि से रेल द्वारा सफल है।
यदि छोटी दूरी की बात करें तो दिल्ली से देहरादून रेल, सड़क और हवाई यात्रा सभी में लगभग 5 घंटे का समय लगता है। हवाई यात्रा में यात्रा के दोनों छोर पर हवाई अड्डा दूर होता है (1+1 घंटा), चेक-इन करना होता है (1/2 घंटा) और बैगेज लेने में समय लगता है (1/2 घंटा)। समय के इस व्यय के कारण यद्यपि हवाई यात्रा विशेष में केवल 1 घंटे का समय लगता है परन्तु घर से घर तक कुल समय 4 घंटे लगता जो कि सड़क से लगने वाले 5 घंटे के लगभग बराबर है। हवाई यात्रा में आपको लाइन में लगना होगा, लगेज लेने के लिए इन्तजार करना होगा और हवाई अड्डे तक पहुंचने में भी मेहनत करनी होगी। इसलिए मध्य दूरी की यात्रा जैसे दिल्ली से लखनऊ और छोटी दूरी के यात्रा जैसे दिल्ली से देहरादून रेल या सड़क सफल है और लम्बी दूरी की यात्रा जैसे दिल्ली से बेंगलुरू में हवाई यात्रा सफल है। इतना जरूर है कि यदि तत्काल यात्रा करनी हो तो हवाई यात्रा सफल हो सकती है।
यहां एक विषय यह भी है कि अक्सर क्षेत्रीय उड़ानें लम्बी उड़ानों को जोडती हैं। जैसे देहरादून से दिल्ली आप एक उड़ान से आये और फिर दिल्ली से कलकत्ता दूसरी उड़ान से गये। इस प्रकार बड़े हवाई अड्डों को हब बना दिया जाता है जहां किसी एक समय तमाम क्षेत्रीय उड़ाने पहुंचती हैं और उसके कुछ समय बाद तमाम लम्बी उड़ानें निकलती हैं। ऐसा करने से क्षेत्रीय उड़ानों का देहरादून से कलकत्ता या बेंगलुरू की उड़ान भरना आसान हो जाता है। अनुमान है कि क्षेत्रीय उड़ानों में इस लम्बी दूरी की उड़ानों के यात्रियों का हिस्सा कम ही होता है, जिसके कारण लम्बी दूरी की यात्रा से जोडऩे के बावजूद क्षेत्रीय उड़ानें सफल नहीं हो रही हैं।
सरकार की नीति इस कटु सत्य को नजरअंदाज करती दिख रही है। केन्द्र सरकार ने 2012 में एक वर्किंग ग्रुप बनाया था, जिसको घरेलू उड्डयन को बढ़ावा देने के लिए सुझाव देने को कहा गया था। ग्रुप ने कहा था कि क्षेत्रीय उड्डयन को सब्सिडी दी जानी चाहिए। इसके बाद सरकार ने राष्ट्रीय घरेलू उड्डयन नीति बनाई, जिसके अंतर्गत क्षेत्रीय उड़ानों को तीन साल तक सब्सिडी देना शुरू किया गया। हाल में 2018 अंतर्राष्ट्रीय सलाहकारी कम्पनी डीलायट ने भी छोटे शहरों को उड्डयन के विस्तार की बात कही है। लेकिन इन सब संस्तुतियों को कुछ हद तक लागू करने के बावजूद घरेलू उड्डयन की स्थिति खराब ही रही है। जैसा कि एयर इंडिया, जेट एयरवेज, स्पाइस जेट और इंडिगो की दुरूह स्थिति में दिखाई पड़ती है। इसलिए मूलत: सरकार को अपनी उड्डयन नीति में परिवर्तन करना होगा।
जरूरत इस बात की है कि लम्बी दूरी की उड़ानों को और सरल बनाया जाए। लन्दन में आप हवाई जहाज के उडऩे के मात्र 15 मिनट पहले हवाई अड्डे पहुंच कर हवाई जहाज में प्रवेश कर सकते हैं जबकि अपने यहां सिक्योरिटी इत्यादि में 1-2 घंटा लग जाना मामूली बात है। इसलिए सरकार को चाहिए कि सिक्योरिटी चेक और अपने सामान को वापस पाने की व्यवस्थाओं में सुधार करे। साथ-साथ शहरों के दूरदराज के इलाकों से हवाई अड्डे तक पहुंचने के लिए सड़क, मेट्रो इत्यादि की समुचित व्यवस्था करे, जिससे कि अपने देश में लम्बी दूरी के घरेलू उड्डयन का भरपूर विस्तार हो सके। इस दृष्टि से दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के विस्तार की योजना सही है क्योंकि इससे लम्बी दूरी की यात्राएं सरल हो जायेंगी। इस दृष्टि से एयर इंडिया की स्थिति भी अच्छी है क्योंकि एयर इंडिया के पास तमाम विदेशी हवाई अड्डों में अपने विमानों को उतारने के अधिकार हैं। इसलिए लम्बी दूरी की विदेशी उड़ानों में एयर इंडिया सफल हो सकती है।
एयर इंडिया के प्रकरण से एक विषय यह भी निकलता है कि 70 साल के सरकारी प्रबन्धन में इस कम्पनी की स्थिति खराब हो गयी है। इसी तर्ज पर सरकारी बैंकों, इंश्योरेंस कम्पनियों, कोल इंडिया आदि इकाइयों आदि का समय रहते निजीकरण कर देना चाहिए। जिस प्रकार एयर इंडिया का निजीकरण भारी घाटा खाने के बाद किया गया, वही स्थिति इन इकाइयों के साथ उत्पन्न नहीं होनी चाहिए।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

श्री हेमन्त सोरेन ने 11वीं राष्ट्रीय महिला जूनियर हॉकी प्रतियोगिता 2021 का शुभारंभ किया

समाजवादी लोकतंत्र के अग्रणी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया

महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह

 

समाजवादी लोकतंत्र के अग्रणी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया

डॉ राम मनोहर लोहिया : भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है

*उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए

*प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए

*जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता

*वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो

विकास कुमार
डॉ राम मनोहर लोहिया का नाम लोकतंत्र के अग्रणी चिंतकों में बेशुमार है। जो लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति की भागीदारी और सहभागिता में देखने पर विश्वास करते थे। उनका विचार था की संसाधनों का वितरण समानांतर हो जिसमें अंतिम व्यक्ति को भी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ मिल सके। भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है ।क्योंकि उन्होंने समाजवाद को पाश्चात्य दृष्टिकोण की अवधारणा को ना अपना कर भारतीय और भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए। वह लोकतंत्र सफल नहीं माना जा सकता जिसमें विरोधी विचारों का सम्मान नहीं होता। जनता को इतना जागरूक होना चाहिए की उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए। डॉक्टर लोहिया का विश्वास था कि जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता, क्योंकि इससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है और संप्रदायिकता से लोकतंत्र विखंडित हो जाता है। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र को विविधता और समग्रता में देखने की जरूरत होती है ,क्योंकि लोकतंत्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें प्रत्येक जन समुदाय अपने हित की चेतना के बारे में सोच समझ और बोल सकने का अधिकार रखता है।लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी. उनका विश्वाश था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है. वे कहते थे कि हिन्दी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण से सम्बन्धित विचारों को बढ़ावा मिलेगा। वे जात-पात के घोर विरोधी थे।उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में सुझाव दिया कि “रोटी और बेटी” के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है. वे कहते थे कि सभी जाति के लोग एक साथ मिल-जुलकर खाना खाएं और उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की लड़कियों से अपने बच्चों की शादी करें. इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिया और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया. वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें.24 मई, 1939 को लोहिया को उत्तेजक बयान देने और देशवासियों से सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए लिए पहली बार गिरफ्तार किया गया, पर युवाओं के विद्रोह के डर से उन्हें अगले ही दिन रिहा कर दिया गया. हालांकि जून 1940 में उन्हें “सत्याग्रह नाउ” नामक लेख लिखने के आरोप में पुन: गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों के लिए कारावास भेज दिया गया. बाद में उन्हें दिसम्बर 1941 में आज़ाद कर दिया गया. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल जैसे कई शीर्ष नेताओं के साथ उन्हें भी कैद कर लिया गया था। अंग्रेजी सरकार सदैव उनके ओजस्वी भाषणों और उनके विचारों से डरती थी। डॉक्टर लोहिया कई भाषाओं के जानकार थे वह कई भाषाओं में अपनी बात को श्रोताओं तक पहुंचा सकते थे और लेखन कार्य भी कर सकते थे। डॉक्टर लोहिया का विकेंद्रीकरण प्रणाली और लोकतंत्र में अटूट विश्वास था। वह सदैव यही कहते थे जिंदा कौम में 5 वर्ष इंतजार नहीं करती है। यह तो सच है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपने जनमत का प्रयोग करते समय विवेक का प्रयोग करें। परंतु यदि जनमत से गलत प्रतिनिधि का चुनाव हो गया है तो जनता को चाहिए कि उसको सत्ता से हटाकर दूसरे प्रतिनिधि को सत्तारूढ़ कर सकें। दूसरा उनका मत था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना अत्यन्त आवश्यक है , क्योंकि सत्ता को नीतियां बनाते समय यह ध्यान नहीं रहता क्या उचित है या अनुचित है ।इसलिए वक्त समय-समय पर उनको सुधर सुधारने का मौका देता है ताकि सही नीतियां जनता तक पहुंच सके। डॉक्टर लोहिया ने समाज की संरचना में 4 परतों की अवधारणा दी । पहला था गांव दूसरा था जनपद तीसरा प्रांत और चौथा था राष्ट्र। यदि राज्यों का संगठन इन 4 पदों के अनुरूप हो जाए तो वह समुदाय का सच्चा प्रतिनिधि बन जाएगा परंतु गांव को अधिक सशक्त बनाने की आवश्यकता है। नीतियों का क्रियान्वयन और सत्ता की सोच ग्रामीण को देखकर विकसित स्वरूप में निर्मित होनी चाहिए सभी आम जन समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। इस परिपेक्ष को डॉक्टर लोहिया चौखंभा राज्य की संज्ञा दी। उन्होंने समाजवाद को एशियाई संदर्भ में परिभाषित किया। कहां की पाश्चात्य सभ्यता में समस्याएं समानांतर रूप से दूसरी प्रकार की हैं और एशियाई परिपेक्ष में समस्याएं दूसरी हैं इसलिए समाजवाद को एशियाई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकसित करना चाहिए। उन्होंने बताया एशिया में निरंकुश तंत्र, सामंतवाद, धार्मिक रूढिय़ां जाति प्रथाओं की संकीर्ण मनोवृत्ति, अधिकारी तंत्र और तानाशाही तंत्र आदि का प्रचलन है। एशियाई परिपेक्ष्य में समाजवाद के लिए यह सब समस्याएं हैं जिनके कारण आम जन समुदाय तक संसाधनों का वितरण नहीं हो पा रहा है। सामाजिक न्याय के लोहिया बहुत बड़े समर्थक थे। जिस देश में सामाजिक न्याय नहीं हैं वह देश विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। उनके विचारों में सामाजिक न्याय का तात्पर्य केवल जाति प्रथा वाला सामाजिक न्याय नहीं था बल्कि प्रत्येक समुदाय चाहे स्त्री, हो विकलांग हो या अन्य समुदाय का प्रत्येक को न्याय सुनिश्चित कराना था। वह सदैव लघु एवं कुटीर उद्योगों के समर्थन में थे क्योंकि उनका मानना था कि यदि बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर होगा उसने मालिकाना पूंजीपतियों का होगा जिसमें जनसाधारण को भागीदारी नहीं मिल सकेगी। उनकी स्वतंत्रता भी उसमें छीन ली जाएगी। क्योंकि कई प्रकार के शर्तों पर उन से काम करवाया जाएगा। 1962 में प्रकाशित एक लेख में सात प्रकार की क्रांतियों का विवेचन किया। जिसमें एक स्त्रियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध क्रांति, जाति प्रथा के विरुद्ध क्रांति, अन्याय के विरुद्ध क्रांति, एवं अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा को राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में अपनाने के लिए लोगों के सोचने के ढंग में क्रांति। अत:डॉक्टर लोहिया स्त्री विमर्श के भी बड़े चिंतक हैं। उनका कहना था कि जब तक स्त्रियों के प्रति भेदभाव समाप्त नहीं होगा तब तक राष्ट्रपति नहीं कर सकता है क्योंकि आधी आबादी के योगदान से कोई भी राष्ट्र प्रगति कैसे कर सकता है। जाति प्रथा को वह सबसे बड़ा संक्रमण और कैंसर समाज के लिए मानते थे। उनका मानना था कि यदि जाति व्यवस्था का अंत नहीं हुआ तो यह आगे चलकर बहुत बड़ी समस्या भारतीय समाज के लिए बन सकती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए कई प्रकार के नीतियों का सुझाव उन्होंने सरकारों को दिया। अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के बहुत बड़े समर्थक थे उनका मानना था बेरोजगारी किसी भी देश के लिए अभिशाप होती है इसलिए सरकार को यह चाहिए कि उत्पादन का वितरण समानांतर होना चाहिए। आज डॉक्टर लोहिया के विचार पहले की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक प्रतीत हो रहे हैं। डॉक्टर लोहिया के विचारों को पड़ता और समझता तो सभी है परंतु उन को व्यावहारिक रूप में लागू करने की आवश्यकता है। उनके विचार आज भी प्रेरणा प्रदान करते हैं। ऐसे विचारक और राजनेता शारीरिक रूप से भले ही आम जनमानस के बीच ना रहे परंतु उनके चेतना में ऐसे विचार को का निवास सदैव रहता है।

(लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)

 

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कितने बहुकोणीय होंगे आगामी चुनाव

*अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में

विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है

*बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है

* उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे

*अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है

*मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ. 85 फीसदी वोट

दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है

– नरेंद्र नाथ –
कितने बहुकोणीय होंगे आगामी चुनाव।  अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है। सभी सियासी दल बहुकोणीय चुनाव के नफा-नुकसान की चर्चा करने लगे हैं। अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। अब तक के जो राजनीतिक संकेत हैं उसके अनुसार इन सभी राज्यों में बहुकोणीय चुनाव ही होंगे। हाल के सालों में आम धारणा यही बनी है कि बहुकोणीय चुनाव से बीजेपी को लाभ होता है क्योंकि इससे उनके विरोधी मतों का ही बंटवारा होता है। हालांकि जानकारों के अनुसार हर चुनाव के समीकरण अलग होते हैं, और इसे कोई एक स्थापित ट्रेंड मान लेना मुनासिब नहीं। लेकिन पांच राज्यों के चुनाव में आए नतीजे एक ठोस ट्रेंड बता सकते हैं।
क्यों उठ रहे सवाल
अभी बहुकोणीय चुनाव और इसके असर की बात पर बहस इसलिए शुरू हुई कि एक के बाद एक कई घटनाक्रम हुए हैं। पिछले हफ्ते गुजरात में हुए निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी भले सीट जीतने में सफल नहीं रही, लेकिन कांग्रेस के वोट बैंक में उसने बड़ी सेंध लगाई। इसका असर यह हुआ कि बीजेपी पिछली बार से भी बड़ी जीत पाने में सफल रही। गुजरात में भी अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। अभी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी लखीमपुर कांड के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश में आक्रामक हुईं और वाराणसी में बड़ी रैली कर उन्होंने कांग्रेस के चुनावी प्रचार का शंखनाद किया, उसके बाद वहां भी यह बात उठी कि अगर कांग्रेस अपना वोट बढ़ाती है तो वह किसकी कीमत पर बढ़ाएगी। तर्क दिया गया कि जितना कांग्रेस बेहतर करेगी, बीजेपी के लिए राहत की बात होगी क्योंकि इससे बीजेपी विरोधी वोट ही बंटेगा।
इसी तरह साल की शुरुआत में गोवा और उत्तराखंड में भी यही सवाल उठेगा। गोवा में आम आदमी पार्टी और टीएमसी पूरी ताकत के साथ उतर रही है। वहां दोनों दल बीजेपी सरकार के सामने कांग्रेस के साथ खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। वहीं उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी मैदान में उतर चुकी है। पंजाब में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने आम आदमी पार्टी, अकाली दल और बीजेपी मैदान में हैं। मणिपुर में भी एक साथ कई दल चुनावी मैदान में हैं। हाल के सालों में अधिकतर चुनावों में दो पक्षों के बीच सीधी टक्कर ही देखने को मिली है। लेकिन इस बार जिस तरह इन सभी राज्यों में कई कोण अभी से दिख रहे हैं, यह देश की राजनीति में उस पुराने दौर की वापसी की आहट दे रहा है जब सियासी मैदान में कई खिलाड़ी होते थे। लेकिन क्या कई दलों के मैदान में उतरने से बहुकोणीय चुनाव हो जाएगा या मौजूदा ट्रेंड की तरह अंत में वोटर पक्ष और विपक्ष के लिए सिर्फ एक-एक विकल्प को चुनेगा? इसका जवाब तो चुनाव में ही मिलेगा। इसी से सभी दलों के राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की ख्वाहिश का विस्तार होगा या नहीं, इसका भी पता चलेगा।
वोट बंटने का फायदा
बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है, उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे। लेकिन अब तक का ट्रेंड यही है कि इसका लाभ हाल के सालों में बीजेपी को मिला है। इसके पीछे कारण रहा है कि अधिकतर क्षेत्रीय दल चाहे तेलंगाना में हो या आंध्र प्रदेश में, पश्चिम बंगाल में हो या महाराष्ट्र में, वे सारे कांग्रेस के पतन की कीमत पर ही उभरे हैं। जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती गई वहां-वहां क्षेत्रीय दल उभरते गए। यह ट्रेंड पिछले तीन दशकों से है। सबसे नया उदाहरण दिल्ली में आम आदमी पार्टी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली हो या झारखंड जैसे राज्य, वहां कांग्रेस से जो वोट बैंक निकला, उस पर ही अपनी पकड़ बनाकर क्षेत्रीय दल स्थापित हुए। अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है। ऐसे में चूंकि क्षेत्रीय दल और कांग्रेस एक ही पिच पर खेलते रहे हैं तो ये एक ही वोट वर्ग में साझा करते हैं और बीजेपी का वोट बैंक इससे प्रभावित नहीं होता है। यह चुनाव दर चुनाव दिखा भी है। लेकिन जानकारों के अनुसार पिछले कुछ दिनों में हालात बदले भी हैं। अब इन सभी के लिए बीजेपी से लडऩा प्राथमिक सियासी चुनौती बन गई। लगभग एक दशक से देश की राजनीति के केंद्र में आ चुकी बीजेपी इन क्षेत्रीय दलों के लिए बड़ा खतरा बन गई। इसके अलावा बीजेपी की तरह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल, इनका भी अपना वोट बैंक बन गया।
ऐसे में अब बहुकोणीय चुनाव का असर किसके वोट बैंक पर पड़ेगा, उसका आकलन गलत भी साबित हो सकता है। उत्तर प्रदेश की ही मिसाल लें, तो यहां अगर कांग्रेस उभर कर अपना वोट बैंक बढ़ाती है तो वह बीजेपी में सेंध लगाएगी या विपक्ष में, यह अभी कहना जल्दबाजी होगा। एसपी के नेता ने कहा कि पारंपरिक रूप से बीजेपी का वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है, जो एसपी की ओर कभी नहीं आएगा। यही बात दूसरे राज्यों में भी लागू होती है। जाहिर है, सभी दल बहुकोणीय चुनाव में अपने लिए लाभ का आकलन अधिक करेंगे, लेकिन इसके लिए ठोस आधार नहीं है। इसी तरह ओवैसी की पार्टी के बारे में कहा गया है कि उनकी पार्टी मुस्लिम वोट बांटती है। लेकिन अब तक इसके कोई स्पष्ट सियासी प्रमाण नहीं मिले हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के सामने कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन था, जो वहां की स्थापित पार्टियां है। उनके साथ इंडियन सेक्युलर फ्रंट की पार्टी भी थी। लेकिन जब चुनाव परिणाम सामने आए तो यही बात देखी गई कि मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ। वहीं पिछले 15 विधानसभा चुनाव के नतीजे यही बता रहे हैं कि 85 फीसदी वोट दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है। ऐसे में क्या बहुकोणीय चुनाव सही में बहुकोणीय बन पाएगा या नहीं, इसे तमाम दलों की भागीदारी भर से तो नहीं मान सकते हैं।

 

कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?

महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह

नाले में गिरते लोग कुम्भकर्णी नीद में रांची नगर निगम अधिकारी

कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?

*अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद आतंकवाद के हौसले बुलंद हैं

*आतंकवाद पूरी दुनिया का तालिबानीकरण करना चाहता है

*कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों?

*370 की समाप्ति के बाद हिन्दुओं की हत्याएं बेहद खतरनाक

मंसूबों की तरफ इशारा करती हैं

*सवाल उठता है कि कश्मीर क्या कभी अपनी रौ में वापस लौटेगा

*दक्षिण एशिया में ‘इस्लामिक एजेंडा’ काम कर रहा है

*अगर हम पंजाब में आतंकवाद को समूल नष्ट कर सकते हैं

तो कश्मीर में क्यों नहीं?

*बांग्लादेश में भी नवरात्र के दौरान पूजा पंडालों पर हमले किए गए

जिस बांग्लादेश को पाकिस्तान के दमन से आजादी दिलाई

आज वहीं भारत के खिलाफ खड़ा दिख रहा है

*कश्मीर के अलगाववादी संगठन, राजनीतिक दल और राजनेता

धारा 370 के खात्मे से खुश नहीं है

क्योंकि उनकी अघोषित आजादी छीन गई है

*अब वक्त आ गया है जब आतंकवाद पर निर्णायक फैसले की जरूरत है

प्रभुनाथ शुक्ल
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों? दक्षिण एशिया में चरमपंथ और अतिवाद को खूब खाद-पानी मिल रहा है। अफगान में तालिबानी संस्करण आने के बाद आतंकवाद को ‘सेफ्टी ऑक्सीजन’ मिल गया है। अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद आतंकवाद के हौसले बुलंद हैं। आतंकवाद पूरी दुनिया का तालिबानीकरण करना चाहता है। कश्मीर घाटी में ‘हिन्दुओं की टारगेट किलिंग’ इसी तरफ इशारा करती है। आतंकवादी संगठन कश्मीर को छोटा तालिबान बनाना चाहते है। हालांकि तालिबानी सरकार ने साफ तौर पर कई बार यह संकेत दिया है कि वह किसी भी देश के अंदरूनी मामले में दखल नहीं करेगा, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ दिखता नहीं है। पाकिस्तान में फैली आतंक की नर्सरी कश्मीर में अल्पसंख्य हिन्दुओं और सिखों का कत्ल तालिबानी संस्कृति की एक तरह से लान्चिंग है।
कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति के बाद हिन्दुओं की हत्याएं बेहद खतरनाक मंसूबों की तरफ इशारा करती हैं। सवाल उठता है कि कश्मीर क्या कभी अपनी रौ में वापस लौटेगा। भारत के लिए यह बड़ा सवाल है। अगर हम पंजाब में आतंकवाद को समूल नष्ट कर सकते हैं तो कश्मीर में क्यों नहीं? यह हमारी सत्ता और सरकारों के लिए आत्म विश्लेषण का विषय है। हम सर्जिकल स्ट्राइक की घुड़की देकर आतंकवाद से मुकाबला नहीं कर सकते हैं। हमें सियासी नफे-नुकसान को किनारे रख कर कश्मीर पर निर्णायक फैसले और दृढ़ इच्छा शक्ति दिखाने की जरूरत है। आतंकवाद पर पाकिस्तान को कब तक करते रहेंगे यह जानते हुए भी कि वह अपनी आदत से बाज आने वाला नहीं।
कश्मीर में आतंकवाद की लड़ाई में कब तक हमारे सैनिक शहीद होते रहेंगे। आतंकवाद के मसले को लेकर अगर पाकिस्तान हमारे लिए चुनौती है तो उसके खिलाफ हमें निर्णय लेने की आवश्यकता है। घाटी में आतंकवाद का फन हमें किसी भी तरीके से कुछ चलना होगा जिस तरह हमने पंजाब में कुचला। घाटी में हिंदुओं की हत्या पर कश्मीर के राजनीतिक दल और संगठन चुप्पी साधे हैं। अतिवाद, कश्मीरियत और उसकी संस्कृति एवं सभ्यता को नंगा कर रहा है। आम कश्मीरी आवाम को इसके लिए लामबंद होना पड़ेगा। आम कश्मीरियों के बीच जो आतंकवादी पनाह बनाए हुए हैं उस अड्डे को खत्म करना होगा।
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों? पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने एक बेहद अहम सवाल उठाया है। उन्होंने साफ तौर से इशारा किया है कि दक्षिण एशिया में ‘इस्लामिक एजेंडा’ काम कर रहा है। कश्मीर से लेकर बांग्लादेश तक हिंदुओं की हत्या की जा रही है। निश्चित रूप से यह अहम सवाल है। कश्मीर में गैर इस्लामिक धर्म के लोगों को निशाना क्यों बनाया जा रहा है। आतंकवादी, हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों की हत्याएं क्यों कर रहे हैं। चरमपंथी इस नीति से पूरी दुनिया में इस्लाम और आम कश्मीरी मुसलमानों को खुश करना चाहते हैं। उन्हें संदेश देना चाहते हैं कि हमारी लड़ाई आम कश्मीरी नागरिकों के खिलाफ नहीं, लेकिन हम यहां किसी गैर अल्पसंख्यक समुदायक की दखल बर्दाश्त नहीं कर सकते।
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों? बांग्लादेश में भी नवरात्र के दौरान पूजा पंडालों पर हमले किए गए। हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया गया। इस्कॉन टेंपल में आतंकवादियों ने हमला कर दिया। जिसकी वजह से एक व्यक्ति की मौत हो गई और 200 से अधिक लोग घायल हो गए। जिस बांग्लादेश को कभी भारत ने पाकिस्तान से अलग कर उसे पाकिस्तान के दमन से आजादी दिलाई आज वहीं भारत के खिलाफ खड़ा दिख रहा है। बांग्लादेश में हिंदू धार्मिक स्थलों और हिंदुओं की हत्या साफ तौर पर जाहिर करती है कि वहां बांग्लादेश भी हिंदुत्व और हिंदुओं के खिलाफ चरमपंथ की जमीन मजबूत हो रही है।
कश्मीर में हिंदुओं की टारगेट किलिंग क्यों? कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों पर आतंकी हमले पूर्व नियोजित है। आतंकवादियों के दिमाग में है कि हिंदू अल्पसंख्यकों एवं सिखों की हत्या कर उन्हें बड़ा फायदा होने वाला है। क्योंकि ‘टारगेट किलिंग्स’ से घाटी में एक बार फिर दहशत और भय की वजह से पलायन शुरू हो सकता है। यह पलायन ठीक उसी तरह होगा जिस तरह सालों पूर्व कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडऩा पड़ा था। कश्मीर में आतंकवाद से निपटना आसान नहीं है। क्योंकि वहां तालिबान और पाकिस्तान का एजेंडा चलता है। आम कश्मीरी जो कश्मीरियत में विश्वास करते हैं उस संस्कृत में रचे बसे हैं वह कत्लेआम नहीं चाहते हैं।
कश्मीर के अलगाववादी संगठन, राजनीतिक दल और राजनेता धारा 370 के खात्मे से खुश नहीं है। क्योंकि उनकी अघोषित आजादी छीन गई है। घाटी में भारतीय फौजों की कदमताल को वे पसंद नहीं करते हैं। खुलेआम पाकिस्तान का समर्थन करते हैं और कश्मीर को भारत से अलग मानते हैं। सुरक्षाबलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती आम कश्मीरियों के बीच रहने वाले आतंकवादी हैं। जब तक कश्मीर का आम नागरिक आतंकवाद के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होगा तब तक घाटी से आतंकवाद का सफाया होना मुश्किल है। क्योंकि कश्मीर में पाकिस्तान के साथ दुनिया की अतिवादी ताकतें काम कर रहीं हैं। कश्मीर के जरिए भारत में वह अपना एजेंडा लागू करना चाहती हैं।
कश्मीर घाटी में तीन दशक से आतंकवाद फल फूल रहा है। आतंकवाद के समूल सफाए के लिए भारत की फौज और सरकारों को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। आजतक की एक रिपोर्ट के अनुसार घाटी में अब तक 14000 आम नागरिकों की हत्या हुई है। 5300 से अधिक भारतीय फौज के जवान शहीद हुए हैं। 70,000 से अधिक आतंकी हमले हुए हैं। हमारी सेना ने आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देते हुए 2500 से अधिक आतंकवादियों को मार गिराया है। साल 2021 से अब तक 30 कश्मीरी नागरिकों की हत्या हुई है। पाकिस्तान आतंकवाद के जरिए कश्मीर में इस्लामिक एजेंडा लागू करना चाहता है। वह हिंदुओं व सिखों की हत्या कर कश्मीरीयत को खत्म करना चाहता है।कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति मानती है कि कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास को लेकर अभी बहुत कुछ नहीं हो पा रहा है। कश्मीरी पंडितों को अभी तक सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई है। 90 के दशक में सरकारी नौकरियों में कश्मीरी पंडितों का बोलबाला होता था। 60 से 70 फीसदी कश्मीरी पंडित सरकारी नौकरियों में हुआ करते थे।
कश्मीर में आतंकवादी हिंदुओं की शिनाख्त आधार कार्ड से कर रहे हैं। अक्टूबर के पहले सप्ताह में आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडित और हिन्दू चिकित्सक बिंद्रु की हत्या कर दिया। जबकि बिंद्रु आम कश्मीरियों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं थे। उन्होंने कभी हिन्दू और मुसलमान में फर्क नहीं किया। वह चुनौतियों को सामाना करते हुए कश्मीर कभी नहीं छोड़ा। प्रवासी मजदूरों की भी हत्या की गई। उस महिला प्रिंसिपल की भी हत्या कर दी गई जिसने एक मुसलमान बच्चे को शिक्षा के लिए गोद लिया था। कश्मीर से अब तक लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित पलायन कर चुके हैं। आज भी वहां 800 से अधिक कश्मीरी हिंदू का परिवार रहता है। एक आंकड़े के अनुसार 1990 से लेकर अब तक 730 से अधिक कश्मीरी पंडितों की हत्या की जा चुकी है। घाटी में सेना और हिंदुओं का कत्लेआम कर सीधे हिंदुत्व को चुनौती देने की कोशिश है। अब वक्त आ गया है जब आतंकवाद पर निर्णायक फैसले की जरूरत है।

 

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