न्यायपालिका के सुझावों की फिर अनदेखी

अनूप भटनागर –
लड़कियों की विवाह की आयु बढ़ाकर लड़कों के समान करने के लिए संसद में विधेयक पेश करने वाली केंद्र सरकार के रुख से ऐसा लगता है कि समान नागरिक संहिता बनाने संबंधी संविधान का अनुच्छेद 44 अभी लंबे समय तक सुप्त प्रावधान ही रहेगा। इस निष्कर्ष पर पहुंचने की वजह केन्द्र सरकार का हलफनामा है जो उसने समान नागरिक संहिता के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित जनहित याचिका में दाखिल किया है।
देश में तेजी से हो रहे सामाजिक बदलाव के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और पंथों में प्रचलित विवाह और विवाह विच्छेद के कानून एवं रीति-रिवाज, तलाक की स्थिति में महिलाओं के अधिकार, गुजारा भत्ता और संपत्ति में उनके अधिकार जैसे मुद्दों के न्याय संगत समाधान के लिए अब समान नागरिक संहिता की जरूरत पहले से ज्यादा महसूस की जा रही है।
यही वजह है कि 1985 में शाहबानो प्रकरण से लेकर कई मामलों में न्यायपालिका ने संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार करने का सरकार को सुझाव दिया है। परंतु ऐसा लगता है कि महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने के न्यायपालिका के सुझावों के प्रति केंद्र गंभीर नहीं है या फिर वह इसमें राजनीतिक नफा-नुकसान की संभावनाएं तलाश रहा है। संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार, ‘शासन भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’
बहुचर्चित शाहबानो प्रकरण में 1985 में उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता बनाने का सुझाव दिया था। इसके बाद भी हिन्दू व्यक्ति द्वारा पहली पत्नी से विवाह विच्छेद के बगैर ही धर्म परिवर्तन करके दूसरी शादी करने या फिर अंतरजातीय विवाह में उत्पन्न विवादों के समाधान में आड़े आने वाली परंपराओं और तीन तलाक की कुप्रथा से प्रभावित मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता जैसे मामले हल करने के लिए न्यायपालिका लगातार समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर देती रही है।
लेकिन अब केन्द्र सरकार ने उच्च न्यायालय में दाखिल हलफनामे में साफ कर दिया है कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र का मामला है जिस पर गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है। सरकार ने यह हलफनामा भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका में दाखिल किया है। उपाध्याय चाहते हैं कि न्यायालय समान नागरिक संहिता का मसौदा तीन महीने के भीतर तैयार करने का निर्देश केंद्र को दे।
केंद्र में दाखिल इस हलफनामे में कानून मंत्रालय ने कहा है कि संविधान के अंतर्गत सिर्फ संसद ही यह काम कर सकती है और न्यायालय कोई कानून विशेष बनाने का निर्देश विधायिका को नहीं दे सकता है। यह सर्वविदित है कि कानून बनाने का अधिकार संसद का ही है और इसीलिए शाहबानो प्रकरण से लेकर अभी तक कई मामलों में न्यायपालिका ने संसद को समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार करने का सुझाव दिया है। यह सुझाव वैसे भी महत्वपूर्ण है क्योंकि गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है।
भारतीय जनता पार्टी हमेशा ही समान नागरिक संहिता की पक्षधर रही है और उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसे शामिल भी किया था। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने इस संवेदनशील विषय को जून, 2016 में विधि आयोग के पास भेजा था। हालांकि, उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने 31 अगस्त, 2018 को सरकार को भेजे अपने परामर्श पत्र में कहा था कि फिलहाल समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है। विधि आयोग का मत था कि समान नागरिक संहिता बनाने में कुछ बाधाएं हैं। आयोग ने इनमें पहली बाधा के रूप में संविधान के अनुच्छेद 371 और इसकी छठवीं अनुसूची की व्यावहारिकता का उल्लेख किया था। अनुच्छेद 371(ए) से (आई) तक में असम, सिक्किम, अरुणाचल, नगालैंड, मिजोरम, आंध्र प्रदेश और गोवा के बारे में कुछ विशेष प्रावधान हैं, जिनके तहत इन राज्यों को कुछ छूट प्राप्त हैं।
विधि आयोग की राय है कि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी और समाज के विभिन्न धर्मों और समुदायों में प्रचलित कानूनों में महिलाओं को ही कई तरह से वंचित किया गया है। और यही भेदभाव तथा असमानता की मूल जड़ है। इस समानता को दूर करने के लिये संबंधित पर्सनल लॉ में उचित संशोधन करके इनके कतिपय पहलुओं को संहिताबद्ध किया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय में केन्द्र सरकार के हलफनामे के बाद एक बात तो साफ हो गयी है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रदत्त समान नागरिक संहिता का विषय फिलहाल जस का तस राजनीतिक मुद्दा ही बना रहेगा और निकट भविष्य में शायद ही प्रावधान अमल में आ सके।
इस बीच, अश्विनी उपाध्याय ने ‘एक देश-एक नागरिक संहिताÓ विषय पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिख कर इसे लागू करने के लाभ और इसे लागू नहीं करने से उत्पन्न हो रही समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लड़कियों की विवाह की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने संबंधी बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक के माध्यम से विभिन्न समुदायों में प्रचलित उनके निजी कानूनों में भी प्रस्तावित संशोधन करके समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकेगा। फिलहाल तो यह विधेयक संसदीय स्थायी समिति के पास विचारार्थ है।

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