कु. कृतिका खत्री –
– मकर संक्राति के दिन सूर्य मकर राशी में प्रवेश करता है । हिन्दू धर्म में संक्रांति को भगवान माना गया है। भारतीय संस्कृति में मकरसंक्रांति का त्योहार आपसी कलह को मिटाकर प्रेमभाव बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। इस दिन तिल गुड़ एक दुसरे को देकर आपसी प्रेम बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। वर्तमान में सर्वत्र कोरोना महामारी के कारण सदा की भांति त्योहार मनाने में बाधा आ सकता है। तो भी इस आपातकाल में सरकार द्वारा बताए गए सभी नियमों का कठोरता से पालन कर यह त्योहार मनाया जा सकता है। यह त्योहार मनाते समय इसका महत्त्व, त्योहार मनाने की पद्धति, तिल गुड़ का महत्त्व, पर्व काल में दान का महत्त्व, अन्य स्त्रियों को हल्दी कुमकुम लगाने का आध्यात्मिक महत्त्व तथा इस दिन की जाने वाली धार्मिक विधियों की जानकारी इस लेख में देने का प्रयास किया है। हम इसका लाभ लेंगे।
तिथि – यह त्योहार तिथि वाचक न होकर अयन-वाचक है। इस दिन सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होता है। वर्तमान में मकर संक्रांति का दिन 14 जनवरी है। सूर्य भ्रमण के कारण होने वाले अंतर को भरने ने लिए ही संक्रांति का दिन एक दिन आगे बढ़ाया जाता है। सूर्य के उत्सव को ‘संक्रांत’ कहते हैं। कर्क संक्रांति के उपरांत सूर्य दक्षिण की ओर जाता है और पृथ्वी सूर्य के निकट, अर्थात नीचे जाती है। इसे ही ‘दक्षिणायन’ कहते हैं। मकर संक्रांति के पश्चात सूर्य उत्तर की ओर जाता है और पृथ्वी सूर्य से दूर, अर्थात ऊपर जाती है। इसे ‘उत्तरायण’ कहते हैं। मकरसंक्रांति अर्थात नीचे से ऊपर चढने का उत्सव; इसलिए इसे अधिक महत्व है।
इतिहास – संक्रांति को देवता माना गया है। संक्रांति ने संकरासुर दैत्य का वध किया, ऐसी कथा है ।
तिल गुड़ का महत्व – तिल में सत्त्वतरंगें ग्रहण और प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए तिलगुड का सेवन करने से अंत:शुद्धि होती है और साधना अच्छी होने हेतु सहायक होते हैं । तिलगुड के दानों में घर्षण होने से सात्त्विकता का आदान-प्रदान होता है । ‘श्राद्ध में तिल का उपयोग करने से असुर इत्यादि श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते ।’ सर्दी के दिनों में आने वाली मकर संक्रांति पर तिल खाना लाभप्रद होता है । ‘इस दिन तिल का तेल एवं उबटन शरीर पर लगाना, तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल पीना, तिल होम करना, तिल दान करना, इन छहों पद्धतियों से तिल का उपयोग करने वालों के सर्व पाप नष्ट होते हैं ।’ संक्रांति के पर्व काल में दांत मांजना, कठोर बोलना, वृक्ष एवं घास काटना तथा कामविषयक आचरण करना, ये कृत्य पूर्णत: वर्जित हैं ।’
त्यौहार मनाने की पद्धति – ‘मकर संक्रांति पर सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक पुण्य काल रहता है । इस काल में तीर्थ स्नान का विशेष महत्त्व हैं । गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियोंके किनारे स्थित क्षेत्र में स्नान करने वाले को महापुण्य का लाभ मिलता है ।
मकर संक्रांति पर दिए गए दान का महत्व – मकर संक्रांति से रथ सप्तमी तक की अवधि पर्वकाल है। इस पर्व में किया गया दान और शुभ कार्य विशेष फलदायी होता है। धर्मशास्त्र के अनुसार इस दिन दान, जप और साथ ही धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यधिक महत्व बताया गया है।
हल्दी और कुमकुम का आध्यात्मिक महत्व – हल्दी और कुमकुम लगाने से सुहागिन स्त्रियों में श्री दुर्गा देवी का अप्रकट तत्त्व जागृत होता है तथा श्रद्धा पूर्वक हल्दी और कुमकुम लगाने से यह जीव में कार्यरत होता है। हल्दी कुमकुम धारण करना अर्थात एक प्रकार से ब्रह्मांड में अव्यक्त आदिशक्ति तरंगों को जागृत होने हेतु आवाहन करना है । हल्दी कुमकुम के माध्यम से पंचोपचार करना अर्थात एक जीव का दूसरे जीव में उपस्थित देवता तत्त्व की पूजा करना है । हल्दी, कुमकुम और उपायन देने आदि विधि से व्यक्ति पर सगुण भक्ति का संस्कार होता है साथ ही ईश्वर के प्रति जीव में भक्ति भाव बढऩे में सहायता होती है ।
उपायन देने का महत्व तथा उपायन में क्या दें – ‘उपायन देना’ अर्थात तन, मन एवं धन से दूसरे जीव में विद्यमान देवत्व की शरण में जाना । संक्रांति-काल साधना के लिए पोषक होता है । अतएव इस काल में दिए जाने वाले उपायन से देवता की कृपा होती है और जीव को इच्छित फल प्राप्ति होती है । आजकल प्लास्टिक की वस्तुएं , स्टील के बर्तन इत्यादि व्यावहारिक वस्तुएं उपायन के रूप में देने के कारण उपायन देनेवाला तथा ग्रहण करने वाला दोनों के बीच लेन देन का सम्बन्ध निर्माण होता है । वर्तमान में अधार्मिक वस्तुओं के उपायन देने की गलत प्रथा आरम्भ हुई है इन वस्तुओं की अपेक्षा सौभाग्य की वस्तु जैसे उदबत्ती (अगरबत्ती), उबटन, धार्मिक ग्रंथ, पोथी, देवताओं के चित्र, अध्यात्म संबंधी दृश्य श्रव्य-चक्रिकाएं (ष्टष्ठह्य) जैसी अध्यात्म के लिए पूरक वस्तुएं उपायन स्वरूप देनी चाहिए । सात्विक उपायन देने के कारण ईश्वर से अनुसन्धान होकर दोनों व्यक्ति को चैतन्य मिलता है जिसके कारण ईश्वर की कृपा होती है।
मिटटी के बर्तनों (घडिया) के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का त्यौहार – सूर्य देव ने अधिक मात्रा में उष्णता देकर पृथ्वी के बर्फ को पिघलाने के लिए साधना (तपस्या) आरम्भ की । उस समय रथ के घोड़े सूर्य की गर्मी को सहन नहीं कर पा रहे थे और उन्हें प्यास लगी । तब सूर्यदेव ने मिट्टी के घड़े के माध्यम से पृथ्वी से जल खींचकर घोड़ों को पीने के लिए दिया; इसलिए संक्रांति पर घोड़ों को पानी पिलाने के कारण मटकों की प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मिट्टी के बर्तनों की पूजा करने की प्रथा आरम्भ हुई। रथ सप्तमी के दिन तक सुहागिन महिलाऐं हल्दी कुमकुम के अवसर पर इन पूजित बर्तनों को एक-दूसरे को उपायन स्वरूप भेंट में देती हैं । मिट्टी के बर्तन (घडिय़ा) को अपनी अंगुलिओं के माध्यम से हल्दी-कुमकुम लगा कर घडि़ए पर धागा लपेटा जाता तथा उसमे गाजर, बेर, गन्ने के टुकड़े, मूंगफली, कपास, काले चने, तिल के लड्डू, हल्दी आदि वस्तु भरकर भेंट स्वरुप दिया जाता है ।
पतंग न उड़ाएं – इस काल में अनेक स्थानों पर पतंग उड़ाने की प्रथा है परन्तु वर्तमान में राष्ट्र एवं धर्म संकट में होते हुए मनोरंजन हेतु पतंग उडाना, ‘जब रोम जल रहा था, तब निरो बेला (फिडल) बजा रहा थाÓ, इस स्थिति समान है । पतंग उडाने के समय का उपयोग राष्ट्र के विकास हेतु करें, तो राष्ट्र शीघ्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा और साधना एवं धर्मकार्य हेतु समय का सदुपयोग करने से अपने साथ समाज का भी कल्याण होगा ।