आबादी पर राजनीति मत कीजिए

अजीत द्विवेदी – भारत में आबादी का मामला बहुत संवेदनशील है। एक तरफ सांप्रदायिक विभाजन है तो दूसरी ओर जातीय बंटवारा भी बहुत गहरा है। इस वजह से हर बार आबादी का आंकड़ा भारत में एक खास किस्म के विमर्श को जन्म देता है। तभी जैसे ही विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या डिवीजन ने यह आंकड़ा जारी किया कि अगले साल भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा वैसे ही इस पर राजनीति शुरू हो गई।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, एक वर्ग की आबादी बढऩे की रफ्तार ज्यादा न हो जाए, ऐसा हुआ तो अराजकता फैलेगी’। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है और लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य भी है। अगर उस राज्य में आबादी को लेकर यह आशंका पैदा की जाती है कि एक वर्ग की आबादी बढ़ रही है और उससे अराजकता हो सकती है तो इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है।

ध्यान रहे उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा तैयार हो गया है और राज्य विधि आयोग के अध्यक्ष ने पिछले साल अगस्त में यह मसौदा सरकार को सौंपा था।संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करें तो कई ऐसी बातें सामने आएंगी, जो उस रिपोर्ट के बाद गढ़े जा रहे विमर्श को काटती हैं। मसलन भारत 2027 की समय सीमा से चार साल पहले ही दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन रहा है तो ऐसा इस वजह से नहीं हुआ कि भारत में आबादी तेजी से बढ़ रही है, बल्कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि चीन में एक बच्चे की नीति की वजह से जनसंख्या दर निगेटिव हो गई और वहां उस अनुपात में आबादी नहीं बढ़ी, जिसका अनुमान लगाया गया था। हकीकत यह है कि भारत ने जनसंख्या नियंत्रण में अद्भुत काम किया है।

जिस समय भारत में पहली जनसंख्या नीति बनी थी और जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास शुरू हआ था उस समय भारत में टोटल फर्टिलिटी रेट यानी टीएफआर छह फीसदी थी और आज सात दशक के बाद वह दो फीसदी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के मुताबिक अगर कोई स्त्री 2.1 बच्चे पैदा करती है यानी किसी देश की टीएफआर 2.1 फीसदी हो जाती है तो वहां जनसंख्या स्थिर हो जाती है। भारत में यह दो फीसदी है, जिसका मतलब है कि भारत में जनसंख्या बढऩे की दर थम गई है।

अफसोस की बात है कि भारत में आबादी बढऩे को लेकर कई तरह के झूठ फैलाए गए हैं। यह धारणा बनाई गई है कि मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। इस धारणा को आधार देने के लिए झूठे-सच्चे आंकड़े गढ़े गए हैं, जिनके जरिए बताया जाता है कि अमुक साल तक भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह सही है कि कुछ जिलों में जनसंख्या संरचना बदली है और अनेक जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक हो गई है। यह भी सही है कि कई मुस्लिम बहुल जिलों में शरिया के नियम-कायदे लागू कराने का प्रयास हुआ है। हाल ही में झारखंड के दो जिलों से इस तरह की खबरें आईं।

लेकिन यह अपवाद की घटनाएं हैं, जिनको ऐसे दिखाया जा रहा है, जैसे पूरे देश में ऐसा ही हो रहा है। उसके उलट पूरे देश में मुस्लिम आबादी भी तेजी से नियंत्रित हो रही है। 1992-93 में भारत में मुस्लिम आबादी की बढऩे की दर यानी टीएफआर 4.4 फीसदी थी, जो 2019-20 में 2.3 हो गई। यानी मुस्लिम आबादी भी स्थिर होने की टीएफआर तक पहुंच गई है।तभी आबादी के आंकड़ों को लेकर झूठ गढऩे या गलत धारणा बनाने या राजनीति करने की जरूरत नहीं है। उसकी बजाय इस विशाल आबादी को एक संपदा मानते हुए इसके बेहतर इस्तेमाल की योजना बनाने की जरूरत है। दुनिया में काम करने की उम्र वाला हर पांचवां व्यक्ति भारत में रहता है।

लेकिन अफसोस की बात है कि कामकाजी उम्र के ज्यादातर लोगों के पास काम नहीं है। संगठित क्षेत्र में नौकरियां नाममात्र की हैं और असंगठित क्षेत्र भी नोटबंदी, जीएसटी व कोरोना की वजह से दम तोड़ रहा है। स्वरोजगार के नाम पर किसी तरह से जीवन चलाने की व्यवस्था जरूर लोगों ने की है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। देश की आधी आबादी यानी महिलाओं का बड़ा हिस्सा वर्कफोर्स से बाहर है। ज्यादातर सेक्टर में उनके लिए काम करने की स्थितियां नहीं हैं।

भारत में काम करने की उम्र यानी 15 साल से ऊपर की उम्र की सिर्फ 30 फीसदी महिलाएं ही किसी न किसी काम में शामिल हैं। इनमें भी ज्यादातर परिवार की खेती या कारोबार से जुड़ी हैं। जैसे जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में सुधार हो रहा है और महिलाएं बच्चे पैदा करने की एकमात्र जिम्मेदारी को पीछे छोड़ रही हैं वैसे वैसे उनके लिए रोजगार की बेहतर व्यवस्था की जरूरत महसूस हो रही है। आबादी नियंत्रित करने का कानून बनाने की बजाय ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है, जिनसे देश की विशाल आबादी के लिए सम्मानजनक रोजगार सुनिश्चित हो।

अगर देश में जनसंख्या नियंत्रण का कोई कानून बनता भी है तो उसमें नियंत्रण के बाद की स्थितियों को लेकर जरूरी उपाय होने चाहिए। मसलन महिलाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर ध्यान होना चाहिए और साथ ही बुजुर्गों के सम्मान से जीने की व्यवस्था पर भी विचार होना चाहिए। इस सदी के समाप्त होने तक देश की 30 फीसदी आबादी 65 साल से ज्यादा उम्र की होगी।बहरहाल, देश की विशाल आबादी को संसाधन में तब्दील करने के लिए कानून निर्माताओं को बुनियादी सुविधाओं में सुधार पर ध्यान देना चाहिए।

सबसे बुनियादी जरूरत सस्ती और अच्छी शिक्षा व्यवस्था की है। अगर सबको अच्छी और सस्ती शिक्षा मिलती है तभी आबादी के बोझ को संसाधन में बदलने की कोई भी ठोस पहल हो सकती है। शिक्षा के अलावा पोषण और बेहतर चिकित्सा व्यवस्था भी उतनी ही जरूरी है। कुपोषित और बीमार आबादी किसी भी देश के विकास में योगदान नहीं कर सकती है।

अंत में रोजगार की व्यवस्था है। भारत की केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों को कृषि से लेकर विनिर्माण तक के उन सभी क्षेत्रों के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिससे अधिकतम रोजगार के अवसर पैदा हों। दुनिया के कई देशों ने इस मामले में रास्ता दिखाया है।

भारत का पड़ोसी बांग्लादेश गारमेंट निर्यात में दुनिया में अव्वल देश बना है तो वह अपनी बड़ी आबादी में कौशल विकास करके ही ऐसा कर पाया है। भारत कई सेक्टर में ऐसी उपलब्धि हासिल कर सकता है। लेकिन वह तभी होगा, जब आबादी पर राजनीति बंद होगी और उसके सकारात्मक इस्तेमाल की नीतियां बनेंगी।

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भारत में ‘पुलिस राज’ कब खत्म होगा?

वेद प्रताप वैदिक – भारत में ‘पुलिस राज’ कब खत्म होगा? सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से दो-टूक शब्दों में अनुरोध किया है कि वह लोगों की अंधाधुंध गिरफ्तारी पर रोक लगाए। भारत की जेलों में बंद लगभग 5 लाख कैदियों में से लगभग 4 लाख ऐसे हैं, जिनके अपराध अभी तक सिद्ध नहीं हुए हैं। अदालत ने उन्हें अपराधी घोषित नहीं किया है। उन पर मुकदमे अगले 5-10 साल तक चलते रहते हैं और उनमें से ज्यादातर लोग बरी हो जाते हैं।

हमारी अदालतों में करोड़ों मामले बरसों झूलते रहते हैं और लोगों को न्याय की जगह अन्याय मिलता रहता है। अंग्रेजों के जमाने में गुलाम भारत पर जो कानून लादे गए थे, वे अब तक चले आ रहे हैं। स्वतंत्र भारत की सरकारों ने कुछ कानून जरुर बदले हैं लेकिन अब भी पुलिसवाले चाहे जिसको गिरफ्तार कर लेते हैं। बस उसके खिलाफ एक एफआईआर लिखी होनी चाहिए जबकि कानून के अनुसार सिर्फ उन्हीं लोगों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए जिनके अपराध पर सात साल से ज्यादा की सजा हो।

याने मामूली अपराधों का संदेह होने पर किसी को पकड़कर जेल में डालने का मतलब तो यह हुआ कि देश में कानून का नहीं, पुलिस का राज है। इसी ‘पुलिस राज’ की कड़ी आलोचना जजों ने दो-टूक शब्दों में की है। इस ‘पुलिस राज’ में कई लोग निर्दोष होते हुए भी बरसों जेल में सड़ते रहते हैं। सरकार भी इन कैदियों पर करोड़ों रु. रोज खर्च करती रहती है। इन्हें जमानत तुरंत मिलनी चाहिए।

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 कहती है कि किसी भी दोषी व्यक्ति को पुलिस बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है लेकिन हमारी अदालतें कई बार कह चुकी हैं कि किसी व्यक्ति को तभी गिरफ्तार किया जाना चाहिए जबकि यह शक हो कि वह भाग खड़ा होगा या गवाहों को बिदका देगा या प्रमाणों को नष्ट करवा देगा। इस वक्त तो कई पत्रकारों, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारों के इशारे पर हमारी जेलों में ठूंस दिया जाता है। वे जब अपने मुकदमों में बरी होते हैं तो उनके यातना-काल का हर्जाना उन्हें गिरफ्तार करवानेवा लों से क्यों नहीं वसूला जाता?

अंग्रेजी राज के ये अत्याचारी कानून सत्ताधारियों के लिए ब्रह्मास्त्र का काम करते हैं, क्योंकि गिरफ्तार होनेवालों की बदनामी का माहौल एकदम तैयार हो जाता है। बाद में चाहे वे निर्दोष ही साबित क्यों न हो जाएं? जमानत के ऐसे कई मामले आज भी अधर में लटके हुए हैं, जिन्हें बरसों हो गए हैं। दुनिया के अन्य लोकतंत्रों जैसे अमेरिका और ब्रिटेन में अदालतें और जांच अधिकारी यह मानकर चलते हैं कि जब तक किसी का अपराध सिद्ध न हो जाए, उसे अपराधी मानकर उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और दुनिया की सबसे प्राचीन न्याय-प्रणाली हमारी ही है। हमारे कानूनों में अविलंब संशोधन होना चाहिए ताकि नागरिक स्वतंत्रता की सच्चे अर्थों में रक्षा हो सके। कानूनी संशोधन के साथ-साथ यह भी जरुरी है कि देश में से ‘पुलिस राज’ को अलविदा कहा जाए।

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भाजपा: लोकतंत्र की चिंता ?

वेद प्रताप वैदिक – हैदराबाद में भाजपा की कार्यसमिति की बैठक काफी धूम-धड़ाके से संपन्न हो गई लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि भाजपा की सरकारों और पार्टी ने कौन-कौन-से कार्य करने का संकल्प लिया है लेकिन उसमें शामिल हुए नेताओं के भाषणों में से कुछ उल्लेखनीय बिंदु जरुर उभरे हैं। जैसे अल्पसंख्यकों के कमजोर वर्गो (पसमांदा) की भलाई का आह्वान, राजनीति में परिवारवाद का उन्मूलन और अगले 25-30 साल तक भाजपा-शासन के चलते रहने की आशा!

जहां तक अल्पसंख्यकों याने मुसलमानों के कमजोर वर्ग का सवाल है, इसमें शक नहीं कि उनके 80-90 प्रतिशत लोग ऐसे ही वर्गों से आते हैं। ये सब लोग पहले हिंदू ही थे। ये लोग गरीब हैं, मेहनतकश हैं, पिछड़ी जातियों के हैं और ज्यादातर अशिक्षित हैं। इनके मुसलमान बनने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है। विदेशी हुक्मरानों के इन कृपाकांक्षी लोगों का उद्धार करने में वे शासक भी असमर्थ रहे। 1947 में भारत-विभाजन के कारण इनकी हालत पहले से भी ज्यादा बदतर हो गई।

कुछ मुट्ठी भर चतुर-चालाक लोगों ने अपने अल्पसंख्यक होने का फायदा जरुर उठाया लेकिन ज्यादातर मुसलमानों की आर्थिक, शैक्षणिक और जातीय हैसियत आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। राजनीति के दांव-पेचों ने इनके अलगाववाद को मजबूत ही किया है। यदि इनकी तरफ भाजपा विशेष ध्यान देगी तो देश का भला ही होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इनके तुष्टिकरण नहीं, तृप्तिकरण की बात सही कही है।
सरसंघचालक मोहन भागवत तो पहले ही कह चुके हैं कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। यह संतोष का विषय है कि उदयपुर और अमरावती की घटनाओं को भाजपा तूल नहीं दे रही है, वरना भारत में अराजकता फैल सकती थी। यह भाजपा के नेतृत्व की दूरंदेशी का परिचायक है। जहां तक परिवारवाद का सवाल है, उसके खिलाफ मैं बराबर लिखता रहा हूं लेकिन दुनिया में लोकतंत्र को खतरा सिर्फ परिवारवाद से ही नहीं है, नेताओं और कार्यकर्त्ताओं के अहंकारवाद से भी है।

नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, स्तालिन, माओ त्से तुंग आदि क्या परिवारवाद के कारण सत्तारुढ़ हुए थे? उन्होंने अपने दम पर ही लोकतंत्र की जड़ों को म_ा पिला रखा था। यदि भाजपा-सरकार की नीतियां दिखावटी नहीं, सच्ची लोकहितकारी रहीं तो वह अगले 25-30 साल क्या, और भी ज्यादा वर्षों तक राज करती रह सकती है लेकिन डर यही है कि भाजपा के नेता लगातार निरंकुश न होते चले जाएं, जैसे कि इंदिरा गांधी हो गई थीं।

इसमें शक नहीं कि भारत का विपक्ष इस वक्त डांवाडोल है। उसके पास न कोई ठोस नीति है, न नेता है लेकिन यह भी सच है कि किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष को जिंदा रखना भी बेहद जरुरी है। सरकार को ऊंघने से बचाने के लिए एक कानफोड़ू विपक्ष की जरुरत तो हमेशा रहती ही है।

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प्लास्टिक मुक्त भारत कैसे हो?एक जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध लागू कर दिया

वेद प्रताप वैदिक – प्लास्टिक मुक्त भारत कैसे हो. प्लास्टिक पर एक जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है। वह भी इसके बावजूद कि 19 तरह की प्लास्टिक की चीजों में से यदि किसी के पास एक भी पकड़ी गई तो उस पर एक लाख रु. का जुर्माना और पांच साल की सजा हो सकती है। इतनी सख्त धमकी का कोई ठोस असर दिल्ली के बाजारों में कहीं दिखाई नहीं पड़ा है।

अब भी छोटे-मोटे दुकानदार प्लास्टिक की थैलियां, गिलास, चम्मच, काडिय़ा, तश्तरियां आदि हमेशा की तरह बेच रहे हैं। ये सब चीजें खुले-आम खरीदी जा रही हैं। इसका कारण क्या है? यही है कि लोगों को अभी तक पता ही नहीं है कि प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी है। सारे नेता लोग अपने राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों रुपया रोज खर्च करते हैं। सारे अखबार और टीवी चैनल हमारे इन जन-सेवकों को महानायक बनाकर पेश करने में संकोच नहीं करते लेकिन प्लास्टिक जैसी जानलेवा चीज़ पर प्रतिबंध का प्रचार उन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं लगता।

नेताओं ने कानून बनाया, यह तो बहुत अच्छा किया लेकिन ऐसे सैकड़ों कानून ताक पर रखे रह जाते हैं। उन कानूनों की उपयोगिता का भली-भांति प्रचार करने की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है, उससे ज्यादा हमारे राजनीतिक दलों और समाजसेवी संगठनों की है। हमारे साधु-संत, मौलाना, पादरी वगैरह भी यदि मुखर हो जाएं तो करोड़ों लोग उनकी बात को कानून से भी ज्यादा मानेंगे।

प्लास्टिक का इस्तेमाल एक ऐसा अपराध है, जिसे हम ‘सामूहिक हत्या’ की संज्ञा दे सकते हैं। इसे रोकना आज कठिन जरुर है लेकिन असंभव नहीं है। सरकार को चाहिए था कि इस प्रतिबंध का प्रचार वह जमकर करती और प्रतिबंध-दिवस के दो-तीन माह पहले से ही 19 प्रकार के प्रतिबंधित प्लास्टिक बनानेवाले कारखानों को बंद करवा देती। उन्हें कुछ विकल्प भी सुझाती ताकि बेकारी नहीं फैलती। ऐसा नहीं है कि लोग प्लास्टिक के बिना नहीं रह पाएंगे। अब से 70-75 साल पहले तक प्लास्टिक की जगह कागज, पत्ते, कपड़े, लकड़ी और मिट्टी के बने सामान सभी लोग इस्तेमाल करते थे।

पत्तों और कागजी चीज़ों के अलावा सभी चीजों का इस्तेमाल बार-बार और लंबे समय तक किया जा सकता है। ये चीजें सस्ती और सुलभ होती हैं और स्वास्थ्य पर इनका उल्टा असर भी नहीं पड़ता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में चलनेवाली पश्चिम की अंधी नकल को अब रोकना बहुत जरुरी है। भारत चाहे तो अपने बृहद अभियान के जरिए सारे विश्व को रास्ता दिखा सकता है।

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महाराष्ट्र के कुछ महासबक

वेद प्रताप वैदिक – महाराष्ट्र की राजनीति भारत के लिए कुछ महासबक दे रही है। सबसे पहला सबक तो यही है कि परिवारवाद की राजनीति पर जो पार्टी टिकी हुई है, वह खुद के लिए और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। खुद के लिए वह खतरा है, यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने सिद्ध कर दिया है। अब जो शिवसेना उद्धव ठाकरे के पास बची हुई है, वह कब तक बची रहेगी या बचेगी या नहीं बचेगी, कुछ पता नहीं।

उसके दो टुकड़े पहले ही हो चुके थे जैसे लालू और मुलायमसिंह की पार्टियों के हुए हैं। ये पार्टियां परिवार के अलग-अलग खंभों पर टिकी होती हैं। कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है।

ये सब पार्टियां अब पार्टियां रहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनती जा रही हैं। न तो इनमें आतंरिक लोकतंत्र होता है, न इनमें आमदनी और खर्च का कोई हिसाब होता है और न ही इनकी कोई विचारधारा होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है— सत्ता-प्राप्ति! यदि सेवा से सत्ता मिले और सत्ता से सेवा की जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं लेकिन अब तो सारा खेल सत्ता और पत्ता में सिमट कर रह गया है। सत्ता हथियाओ ताकि नोटों के पत्ते बरसने लगें।सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता— यही हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गई है। राजनीति में भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है।

हमारी राजनीति में आदर्श और विचारधारा अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह जरुरी है कि सभी पार्टियों में परिवारवाद पर रोक लगाने की कुछ संवैधानिक तजवीज की जाए। महाराष्ट्र की राजनीति का दूसरा सबक यह है कि परिवारवाद उसके नेता को अहंकारी बना देता है।

वह अपने पद को अपने बाप की जागीर समझने लगता है। एक बार उस पर बैठ गया तो जिंदगी भर के लिए जम गया।पार्टी में नेता जो तानाशाही चलाता है, उसे वह सरकार में भी चलाना चाहता है। कभी-कभी ऐसे लोग सरकारों को बहुत प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से चलाते हुए दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब पाप का घड़ा फूटने को होता है तो उस वक्त आपात्काल थोपना पड़ता है।

यदि भारत को हमें लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखना है और उसे आपात्कालों से बचाना है तो पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक प्रावधान करने होंगे।

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संतोष का इस्तीफा बना भाजपा कांग्रेस में असंतोष का सबब

अर्जुन झा – दिल्ली राजहरा नगर पालिका परिषद के उपाध्यक्ष संतोष देवांगन का इस्तीफा भाजपा और कांग्रेस में असंतोष का सबब बन गया है। भाजपा नगर पालिका अध्यक्ष के चुनाव में बहुमत के बावजूद मात खाने वाली भाजपा कथित भीतरघात के कारण पार्टी से बेदखल किये गए संतोष देवांगन के इस्तीफे से उत्साहित होकर अपना उपाध्यक्ष बनवाने की तैयारी में है तो कांग्रेस भी चाहती है कि उपाध्यक्ष के पद पर उसका कोई पार्षद बैठ जाये। कांग्रेस और भाजपा ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है कि जैसे ही नए उपाध्यक्ष का चुनाव हो, सारी ताकत झोंक दी जाय।

दोनों पार्टियां एक दूसरे के घर में सेंधमारी से भी पीछे नहीं हटेंगी। सियासी गलियारों में चर्चा है कि दोनों मुख्य पार्टियों को भीतरघात का अंदेशा भी सता रहा है। भाजपा में इस्तीफे का हल्ला मचा हुआ है तो भाजपा संगठन इस असंतोष को शांत करने के लिए संयम से काम ले रहा है। भाजपा संगठन की रणनीति के बारे में कहा जा रहा है कि एक बार धोखा खा चुकी भाजपा फूंक फूंककर कदम रख रही है। भाजपा संगठन का प्रयास है कि सामंजस्य स्थापित करके नाराज कार्यकर्ताओं को एकजुट किया जाय।

भाजपा की इस सधी हुई रणनीति का असर कांग्रेस पर पडऩे की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि कांग्रेस में भी महत्वाकांक्षी नेताओं की कोई कमी नहीं है। इसलिए आशंका जताई जा रही है कि जो हलचल भाजपा में मची है, वही कांग्रेस में भी सामने आ सकती है। यहां दिलचस्प बात यह है कि संतोष देवांगन का तो सियासी हश्र होना था, वह हो गया लेकिन भाजपा और कांग्रेस में अफरातफरी मच गई है।

भाजपा में इस्तीफे के दौर को देखते हुए कांग्रेस भी सहम सकती है कि जो वहां हो रहा है, उसे तो भाजपा अनुशासन के नाम पर संयमित करने की कोशिश कर सकती है लेकिन अगर यहां इस्तीफों की बरसात हो गई तो क्या होगा। बहरहाल दल्लीराजहरा का सियासी घटनाक्रम चर्चाओं में छाया हुआ है और बालोद जिले की राजनीति में दोहरी उथलपुथल की आशंका व्यक्त की जा रही है।

बेहतर होगा कि कांग्रेस और भाजपा अपनी अंतर्कलह पर काबू करें और नगरपालिका के काम पर ध्यान दें क्योंकि जनता के हित प्रभावित हो रहे हैं। संतोष के चक्कर में यह असंतोष दोनों ही दलों के लिए घातक साबित हो सकता है।

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डॉलर या युआन : कौन बड़ा ठग

वेद प्रताप वैदिक – डॉलर या युआन : कौन बड़ा ठग. दुनिया के सात समृद्ध देशों के संगठन जी-7 के शिखर सम्मेलन में भारत को भी आमंत्रित किया गया था, हालांकि भारत इसका बाकायदा सदस्य नहीं है। इसका अर्थ यही है कि भारत इन्हीं समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में पहुंचने की पर्याप्त संभावना रखता है। जर्मनी में संपन्न हुए इस सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाग लेकर सभी नेताओं से गर्मजोशी से मुलाकात की, भारत की उपलब्धियों का जिक्र किया और इस संगठन के सामने कुछ नए लक्ष्य भी रखे।

मोदी ने यह तथ्य भी बेझिझक प्रकट कर दिया कि भारत की आबादी दुनिया की 17 प्रतिशत है लेकिन वह प्रदूषण सिर्फ 5 प्रतिशत ही कर रहा है। दूसरे शब्दों में उन्होंने समृद्ध राष्ट्रों को अपने प्रदूषण को नियंत्रित करने का भी संकते दे दिया। इसके अलावा उन्होंने समृद्ध राष्ट्रों से अपील की कि वे विकासमान राष्ट्रों की भरपूर मदद करें। संसार के देशों में बढ़ती जा रही विषमता को वे दूर करें। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन तथा अन्य नेताओं ने इस अवसर पर घोषणा की कि वे अगले पांच वर्षों में 600 बिलियन डॉलर का विनियोग दुनिया भर में करेंगे ताकि सभी देशों में निर्माण-कार्य हो सकें और आम आदमियों का जीवन-स्तर सुधर सके।

जाहिर है कि इतने बड़े वित्तीय निवेश की कल्पना इन समृद्ध देशों में चीन के कारण ही जन्मी है। चीन ने 2013 में ‘बेल्ट एंड रोड एनीशिएटिवÓ (बीआरडी) शुरु करके दुनिया के लगभग 40 देशों को अपने कर्ज से लाद दिया है। श्रीलंका और पाकिस्तान तो उसके शिकार हो ही चुके हैं। भारत के लगभग सभी पड़ौसी देशों की संप्रभुता को गिरवी रखने में चीन ने कोई संकोच नहीं किया है लेकिन जो बाइडन ने चीनी योजना का नाम लिये बिना कहा है कि जी-7 की यह योजना न तो कोई धर्मादा है और न ही यह राष्ट्रों की मदद के नाम पर बिछाया गया कोई जाल है।
यह शुद्ध विनियोग है। इससे संबंधित राष्ट्रों को तो प्रचुर लाभ होगा ही, अमेरिका भी फायदे में रहेगा। यह विकासमान राष्ट्रों को सड़कें, पुल, बंदरगाह आदि बनाने के लिए पैसा मुहय्या करवाएगा। इस योजना के क्रियान्वित होने पर लोगों को सीधा फायदा मिलेगा, उनकी गरीबी दूर होगी, उनका रोजगार बढ़ेगा और लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था मजबूत होगी। संबंधित देशों के बीच आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग को बढ़ाने में भी इस योजना का उल्लेखनीय योगदान होगा।

यह भी संभव है कि इस योजना में जुटनेवाले देशों के बीच मुक्त-व्यापार समझौते होने लगें। यदि ऐसा हुआ तो न सिर्फ विश्व-व्यापार बढ़ेगा बल्कि संबंधित देशों में आम लोगों को चीजें सस्ते में उपलब्ध होने लगेंगी। उनकी जीवन-स्तर भी सुधरेगा। बाइडन और अन्य जी-7 नेताओं का यह सोच सराहनीय है लेकिन लंबे समय से डॉलर के बारे में कहा जाता है कि यह जहां भी जाता है, वहां से कई गुना बढ़कर ही लौटता है। देखें चीनी युआन के मुकाबले यह कितनी कम ठगाई करता है

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शिक्षा में संस्कृत अनिवार्य करें

वेद प्रताप वैदिक – शिक्षा में संस्कृत अनिवार्य करें. गुजरात के शिक्षामंत्री से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं ने अनुरोध किया है कि वे अपने प्रदेश में संस्कृत की अनिवार्य पढ़ाई शुरु करवाएं। यह मांग सिर्फ संघ के स्वयंसेवक ही क्यों कर रहे हैं और सिर्फ गुजरात के लिए ही क्यों कर रहे हैं? भारत के हर तर्कशील नागरिक को सारे भारत के लिए यह मांग करनी चाहिए, क्योंकि दुनिया में संस्कृत जैसी वैज्ञानिक, व्याकरणसम्मत और समृद्ध भाषा कोई और नहीं है। यह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा तो है ही, शब्द भंडार इतना बड़ा है कि उसके मुकाबले दुनिया की समस्त भाषाओं का संपूर्ण शब्द-भंडार भी छोटा है।

अमेरिकी संस्था ‘नासा’ के एक अनुमान के अनुसार संस्कृत चाहे तो 102 अरब से भी ज्यादा शब्दों का शब्दकोश जारी कर सकती है, क्योंकि उसकी धातुओं, लकार, कृदंत और पर्यायवाची शब्दों से लाखों नए शब्दों का निर्माण हो सकता है। संस्कृत की बड़ी खूबी यह भी है कि उसकी लिपि अत्यंत वैज्ञानिक और गणित के सूत्रों की तरह है। जैसा बोलना, वैसा लिखना और जैसा लिखना, वैसा बोलना। अंग्रेजी और फ्रेंच की तरह संस्कृत हवा में ल_ नहीं घुमाती है।

‘नासा’ ने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों और कंप्यूटर के लिए संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ भाषा बताया है। संस्कृत सचमुच में विश्व भाषा है। इसने दर्जनों एशियाई और यूरोपीय भाषाओं को समृद्ध किया है। संस्कृत को किसी धर्म-विशेष से जोडऩा भी गलत है। संस्कृत जब प्रचलित हुई, तब पृथ्वी पर न तो हिंदू, न ईसाई और न ही इस्लाम धर्म का उदय हुआ था। संस्कृत भाषा किसी जाति-विशेष की जागीर नहीं है। क्या उपनिषदों का गाड़ीवान रैक्व ब्राह्मण था? संस्कृत को पढऩे का अधिकार हर मनुष्य को है।

औरंगजेब के भाई दाराशिकोह क्या हिंदू और ब्राह्मण थे? उन्होंने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद ‘सिर्रे अकबर’ के नाम से किया था। अब्दुल रहीम खानखाना ने ‘खटकौतुकम’ नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा था। तेहरान विश्वविद्यालय में मेरे एक साथी प्रोफेसर कुरान-शरीफ का अनुवाद संस्कृत में करने लगे थे। कुछ ईसाई विद्वानों ने संस्कृत ‘ख्रीस्त गीता’ और ‘ख्रीस्त भागवत’ भी लिखी है। कुछ अंग्रेज विद्वानों ने अब से लगभग पौने 200 साल पहले बाइबिल का संस्कृत अनुवाद ‘नूतनधर्म्मनियमस्य ग्रंथसंग्रह:’ के नाम से प्रकाशित कर दिया था।

लगभग 40 साल पहले पाकिस्तान में मुझे एक पुणे के मुसलमान विद्वान मिले। मैं उनके घर गया। वे मुझसे लगातार संस्कृत में ही बात करते रहे। भारत में पंडित गुलाम दस्तगीर और डा. हनीफ खान जैसे संस्कृत के विद्वानों से मेरी पत्नी डॉ. वेदवती का सतत संपर्क बना रहा। अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. की संस्कृत पंडिता डॉ. सलमा महफूज ने ही दाराशिकोह के ‘सिर्रे अकबर’ का हिंदी अनुवाद किया है। अभी भी मेरे कई परिचित मुसलमान मित्र विभिन्न विश्वविद्यालयों में संस्कृत के आचार्य हैं।

इसीलिए मेरा निवेदन है कि संस्कृत को किसी मजहब या जाति की बपौती न बनाएं। जरुरी यह है कि भारत के बच्चों को संस्कृत, उनकी उनकी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी 11 वीं कक्षा तक अवश्य पढ़ाई जाए और फिर अगले तीन साल बी.ए. में उन्हें छूट हो कि वे अंग्रेजी या अन्य कोई विदेशी भाषा पढ़ें। कोई भी विदेशी भाषा सीखने के लिए तीन साल बहुत होते हैं। उसके कारण हमारे बच्चों को संस्कृत के महान वरदान से वंचित क्यों किया जाए?

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अमेरिका में गर्भपात पर हंगामा

वेद प्रताप वैदिक – अमेरिका में गर्भपात पर हंगामा. अमेरिका में इधर दो बड़े फैसलों ने हड़कंप मचा रखा है। एक तो बंदूक रखने पर कुछ नई पाबंदियों के कारण और दूसरा गर्भपात पर प्रतिबंध के कारण। अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के इन दोनों फैसलों को लेकर वहां कई प्रांतों में प्रदर्शन हो रहे हैं और उनका डटकर विरोध या समर्थन हो रहा है। बंदूक पर प्रतिबंधों का उतना विरोध नहीं हो रहा है, जितना गर्भपात पर प्रतिबंध का हो रहा है।

1973 में गर्भपात की अनुमति का जो फैसला अमेरिका सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने उलट दिया है। 6 और 3 जजों की इस फैसले के पीछे पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा नियुक्त रूढि़वादी जजों का बहुमत में होना है। अब अमेरिका में जो भी राज्य रूढि़वादी या रिपब्लिकन या ट्रंप-समर्थक हैं, वे इस कानून को तुरंत लागू कर देंगे।

इसका नतीजा यह होगा कि महिलाओं को अपने शरीर के बारे में ही कोई मौलिक अधिकार नहीं होगा। लगभग एक दर्जन राज्यों ने गर्भपात पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है। कोई भी महिला 15 हफ्तों से ज्यादा के गर्भ को नहीं गिरवा सकती है। अदालत के इस फैसले को राष्ट्रपति जो बाइडन ने तो भयंकर बताया ही है, सारे अमेरिका में इसके विरुद्ध विक्षोभ फैल गया है। यूरोपीय राष्ट्रों के प्रमुख नेताओं ने इस फैसले की कड़ी निंदा की है। अमेरिका की नामी-गिरामी कंपनियों ने उनके यहां कार्यरत महिलाओं से कहा है कि वे गर्भपात के लिए जब भी किसी अन्य अमेरिकी राज्य में जाना चाहें, उन्हें उसकी पूर्ण सुविधाएं दी जाएंगी।

अमेरिका के 13 राज्यों में गर्भपात की अनुमति आज भी है। अमेरिका में संघीय व्यवस्था है। इसीलिए उसके राज्य केंद्रीय कानून को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन अमेरिका के केथोलिक संप्रदाय के पादरी इस गर्भपात पर प्रतिबंध का स्वागत कर रहे हैं। वैसे भी आजकल यूरोप और अमेरिका में स्त्री-पुरुषों के बीच अवैध शारीरिक संबंधों का चलन इतना बढ़ गया है कि गर्भपात की सुविधा के बिना उनका जीना दूभर हो सकता है।

इसके अलावा गर्भपात की सुविधा की मांग इसलिए भी बढ़ गई है कि चोरी-छिपे गर्भपात करवाने पर गर्भवती महिलाओं की मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के अनुसार हर साल 2.5 करोड़ असुरक्षित गर्भपात होते हैं, जिनमें 37000 महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।

अब गर्भपात पर प्रतिबंध लगने से इस संख्या में वृद्धि ही होगी। यूरोप के कई देश गर्भपात के अधिकार को कानूनी रूप देने के लिए तत्पर हो रहे हैं। भारत में 24 हफ्ते या उसके भी बाद के गर्भ को गिराने की कानूनी अनुमति है बशर्ते कि गर्भवती के स्वास्थ्य के लिए वह जरुरी हो। भारतीय कानून अधिक व्यावहारिक है।

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ब्रिक्स: भारत का मध्यम मार्ग

वेद प्रताप वैदिक – ‘ब्रिक्स’ याने ब्राजील, एशिया, इंडिया, चाइना और साउथ अफ्रीका! इन देशों के नाम के पहले अक्षरों को जोड़कर इस अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम रखा गया है। इसका 14 वाँ शिखर सम्मेलन इस बार पेइचिंग में हुआ, क्योंकि आजकल चीन इसका अध्यक्ष है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन नहीं गए लेकिन इसमें उन्होंने दिल्ली में बैठे-बैठे ही भाग लिया। उनके चीन नहीं जाने का कारण बताने की जरुरत नहीं है, हालांकि गलवान-विवाद के बावजूद चीन-भारत व्यापार में इधर काफी वृद्धि हुई है।

ब्रिक्स के इस संगठन में भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है, जो दोनों महाशक्तियों के नए गठबंधनों का सदस्य हैं। भारत उस चौगुटे का सदस्य है, जिसमें अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया भी सम्मिलत हैं और उस नए चौगुटे का भी सदस्य है, जिसमें अमेरिका, इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात (यू.ए.ई.) सदस्य हैं। चीन खुले-आम कहता है कि ये दोनों गुट शीतयुद्ध-मानसिकता के प्रतीक हैं। ये अमेरिका ने इसलिए बनाए हैं कि उसे चीन और रूस के खिलाफ जगह-जगह मोर्चे खड़े करने हैं।

यह बात चीनी नेता शी चिन फिंग ने ब्रिक्स के इस शिखर सम्मेलन में भी दोहराई है लेकिन भारत का रवैया बिल्कुल मध्यममार्गी है। वह न तो यूक्रेन के सवाल पर रूस और चीन का पक्ष लेता है और न ही अमेरिका का! इस शिखर सम्मेलन में भी उसने रूस और यूक्रेन में संवाद के द्वारा सारे विवाद को हल करने की बात कही है, जिसे संयुक्त वक्तव्य में भी उचित स्थान मिला है। इसी तरह मोदी ने ब्रिक्स राष्ट्रों के बीच बढ़ते हुए पारस्परिक सहयोग की नई पहलों का स्वागत किया है। उन्होंने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है, वह है— इन राष्ट्रों की जनता का जनता से सीधा संबंध!

इस मामले में भारत के पड़ौसी दक्षेस (सार्क) के देशों का ही कोई प्रभावशाली स्वायत्त संगठन नहीं है तो ब्रिक्स और चौगुटे देशों की जनता के सीधे संपर्कों का क्या कहना? मेरी कोशिश है कि शीघ्र ही भारत के 16 पड़ौसी राष्ट्रों का संगठन ‘जन-दक्षेस’ (पीपल्स सार्क) के नाम से खड़ा किया जा सके। ब्रिक्स के संयुक्त वक्तव्य में आतंकवाद का विरोध भी स्पष्ट शब्दों में किया गया है और अफगानिस्तान की मदद का भी आह्वान किया गया है। किसी अन्य देश द्वारा वहां आतंकवाद को पनपाना भी अनुचित बताया गया है।

चीन ने इस पाकिस्तान-विरोधी विचार को संयुक्त वक्तव्य में जाने दिया है, यह भारत की सफलता है। ब्रिक्स के सदस्यों में कई मतभेद हैं लेकिन उन्हें संयुक्त वक्तव्य में कोई स्थान नहीं मिला है। ब्रिक्स में कुछ नए राष्ट्र भी जुडऩा चाहते हैं। यदि ब्रिक्स की सदस्यता के कारण चीन और भारत के विवाद सुलझ सकें तो यह दुनिया का बड़ा ताकतवर संगठन बन सकता है, क्योंकि इसमें दुनिया के 41 प्रतिशत लोग रहते हैं, इसकी कुल जीडीपी 24 प्रतिशत है और दुनिया का 16 प्रतिशत व्यापार भी इन राष्ट्रों के द्वारा होता है।

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कश्मीर अब पूरी तरह हमारा है..

विष्णुदेव साय – कश्मीर अब पूरी तरह हमारा है. जम्मू कश्मीर को देश के संविधान के दायरे में लाने सबसे पहले आवाज उठाने वाले महान विचारक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस के संदर्भ में यह उद्घोष उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है कि शहीद हुए थे जहां मुखर्जी वह कश्मीर अब पूरी तरह हमारा है।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का यह प्रण आजादी के 7 दशक बीत जाने के बाद तब पूरा हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अगस्त 2019 में संसद में संविधान के अनुच्छेद 370 एवं 35-ए को खत्म करने का अध्यादेश पारित कराया। इसके बाद ही जम्मू कश्मीर सच्चे अर्थों में भारत का अभिन्न अंग बना। साजि़श के तहत जिन शर्तों और नियमों के साथ जम्मू कश्मीर को भारत में शामिल किया गया था, उसके विरुद्ध डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी शुरु से ही मुखर थे।

उन्होंने जम्मू कश्मीर जाकर अपना विरोध दर्ज कराया। लेकिन दुर्भाग्य से उनके जीवन काल में उनका स्वप्न साकार नहीं हो सका। रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून 1953 को उनका निधन हो गया। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी देश की अखंडता के लिए बलिदान देने वाले पहले व्यक्ति थे। डॉ मुखर्जी का सपना सच होने के बाद जम्मू कश्मीर के हालात में आया क्रांतिकारी परिवर्तन इस सत्य का प्रमाण है कि यदि तब देश को कश्मीर से अलग थलग करने वाली शर्तें लागू न की गई होतीं तो परिस्थिति वह नहीं होती, जो सत्तर साल के दौरान सामने आई।

लेकिनअब जम्मू कश्मीर का विकास संभव हो गया है। केंद्र की भाजपा सरकार ने विकास की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। चालू वित्त वर्ष के बजट में केंद्र सरकार ने धरती के स्वर्ग को संवारने पुख्ता इंतजाम किया है। केवल कश्मीर ही नहीं, आज हम जो बंगाल देख रहे हैं, वह भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ही गढ़ा है। यदि उन्होंने बंगाल के विभाजन का पक्ष न रखा होता तो पूरा बंगाल ही भारत के हाथ से निकल गया होता। भारत विभाजन की त्रासदी के शिकार हुए लाखों शरणार्थियों की सेवा के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने मिसाल कायम की, वह अद्वितीय है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों के विरोध में उद्योग मंत्री का पद त्याग देने वाले डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश को वह उद्योग नीति दी, जिससे औद्योगिक विकास हो सका। यदि कांग्रेस और नेहरू ने डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विचारों की गंभीरता को देशहित में स्वीकार किया होता तो भारत सत्तर साल तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में उपेक्षित नहीं रहता।डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भाजपा की हर सांस में बसे हैं। जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह बदलकर कमल पुष्प रखा था।

भारतीय जनता पार्टी का प्रतीक चिन्ह कमल है जो उनके विचारों और आदर्शों पर चलने की प्रेरणा देता है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस के विरुद्ध राष्ट्रवादी विकल्प का संकल्प लिया था, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण कर दिया है। नेहरू और कांग्रेस ने देश पर जो नीतियां थोपीं, उनसे गुलामी की बदबू आ रही थी। देश इन बेडिय़ों को तोडऩे कसमसा रहा था। अवसर मिला तो अटलबिहारी वाजपेयी जी ने डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रवाद और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के पथ पर संचलन करते हुए देश को नई दिशा दी।

उनके बाद कांग्रेस के दस साल में फिर देश जहां का तहां पहुंच गया तो भारत का गौरव बढ़ाने का जनादेश मां भारती के फौलादी सुपुत्र नरेंद्र मोदी को मिला। तब से अब तक आठ साल में भारत विश्व की महाशक्तियों के बीच सम्मान पा रहा है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस के विरुद्ध जिस राष्ट्रवादी विकल्प का सपना देखा था, वह कांग्रेस ही नहीं वैश्विक परिदृश्य में भी साकार हो गया है। आज भारत विश्व बिरादरी के लिए अपरिहार्य है। भारत की उद्योग नीति इतनी सुदृढ़ हो गई है कि औद्योगिक विकास नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। डॉ.

श्यामाप्रसाद मुखर्जी की संकल्प शक्ति भारत विकास की मार्गदर्शन कर रही है। भारत माता के बलिदानी सपूत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

(लेखक छत्तीसगढ़ प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हैं)

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बलिदान दिवस पर विशेष, व्यर्थ नहीं जाएगा डॉ. मुखर्जी का बलिदान

शिव प्रकाश – बलिदान दिवस पर विशेष, व्यर्थ नहीं जाएगा डॉ. मुखर्जी का बलिदान. जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे में लाने और एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान (झंडा) के विरोध में सबसे पहले आवाज उठाने वाले भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का 23 जून को बलिदान दिवस है। उनका यह स्वप्न स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद तब पूरा हुआ.जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अगस्त 2019 में संसद में संविधान के अनुच्छेद 370 एवं 35- ए को समाप्त करने का बिल पारित कराया।

इसके बाद ही जम्मू कश्मीर भारत देश का सही मायनों में अभिन्न अंग बना। विशेष राज्य का दर्जा, अलग संविधान, देश के अन्य प्रदेशों के नागरिकों के जम्मू कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट की आवश्यकता जैसी जिन शर्तों और नियमों के साथ जम्मू कश्मीर को भारत में शामिल किया गया था, डॉ. मुखर्जी प्रारंभ से ही उसके विरोध में थे।उन्होंने इसके लिए बाकायदा जम्मू कश्मीर जाकर अपना विरोध दर्ज कराया। लेकिन चाहकर भी उनका यह स्वप्न उनके जीते जी पूरा नहीं हो पाया और रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून 1953 को उनकी मृत्यु हो गई।

डॉ. मुखर्जी को जम्मू कश्मीर एवं देश की अखंडता के लिए बलिदान देने वाले पहले व्यक्ति के तौर पर जाना गया। इसीलिए देश उनकी पुण्यतिथि को बलिदान दिवस के रूप में मनाता है।भारतीय संविधान के दायरे में आने के बाद से जम्मू कश्मीर की परिस्थितियों में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकारों ने प्रदेश में कृत्रिम सामान्यता बनाये रखी। वास्तविक अर्थों में जम्मू कश्मीर की स्थिति अनुच्छेद 370 के प्रावधानों की समाप्ति के बाद ही सामान्य हुई है।अब जम्मू कश्मीर का सही मायनों में विकास संभव होगा। केंद्र की भाजपा सरकार ने भी राज्य के विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए केंद्र की भाजपा सरकार ने राज्य के लिए 1.42 लाख करोड़ रुपये का बजट संसद से पारित कराया है जिससे जम्मू कश्मीर में विकास के कार्य पिछले वर्षों के मुक़ाबले ज्यादा तेजी से पूरे किये जा सकेंगे। राज्य में अब न केवल रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध हो रहे हैं बल्कि उद्योग जगत मे निवेश के लिए भी उत्साह दिखा रहा है।अनुच्छेद 370 के प्रावधानों की समाप्ति के बाद प्रदेश में अब केंद्र के कऱीब 890 क़ानून लागू हो गए हैं। यही नहीं अब प्रदेश के लोग संविधान के तहत मिलने वाले आरक्षण के भी हक़दार हो गए हैं जिनसे उनके लिए विकास और समृद्धि के रास्ते खुले हैं । पर्यटकों की संख्या मे वृद्धि हुई है। पंचायतों को सीधे 2200 करोड़ का बजट स्वीकृत हुआ है। स्वास्थ्य सेवाओ के विकास के लिए 2 नए एम्स, 6 नए मेडिकल कॉलेज, 2 कैंसर संस्थान एवं 15 नर्सिंग कौलेज पर कार्य चल रहा है। युवा, पुलिस एवं अन्य संस्थानों मे रोजगार प्राप्त कर रहे है।यूं तो डॉ. मुखर्जी स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही भारत विभाजन के खिलाफ थे और उन्होंने संविधान सभा की बैठकों में भी अपने विचारों को काफी प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया था। लेकिन जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर कांग्रेस नेताओं और तत्कालीन सरकार की सोच के साथ वे कभी एकमत नहीं थे।वे पहले ही दिन से जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान की सीमाओं के अंतर्गत लाने के पक्षधर थे।इसे संघर्ष की सीमा तक ले जाने की शुरुआत अप्रैल 1952 में तब हुई जब जम्मू कश्मीर की प्रजा परिषद पार्टी के नेता प0 प्रेमनाथ डोगरा नई दिल्ली में उनसे मुलाकात करने आए। डोगरा ने डॉ. मुखर्जी से राज्य में चल रहे इस आंदोलन में भाग लेने का आग्रह किया ।डॉ. मुखर्जी ने डोगरा को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलकर अपना पक्ष रखने को कहा। लेकिन इसे विडंबना कहें या कांग्रेस की तत्कालीन सरकार का अडिय़ल रवैया, डोगरा को अपनी बात रखने के लिए नेहरू से समय ही नहीं मिला।डॉ. मुखर्जी अपने सिद्धांतों को लेकर अटल थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर को लेकर अपने विचारों पर कभी समझौता नहीं किया और प्रजा परिषद पार्टी के बुलावे पर अगस्त 1952 में वह जम्मू में एक सभा में शामिल हुए और ‘एक देश में दो विधान दो प्रधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगेÓ का नारा दिया। डॉ. मुखर्जी को केवल जम्मू कश्मीर में भारतीय संविधान लागू करने की नीति के समर्थक के तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए।शिक्षा, समाज, संस्कृति और राजनीति में भी उनका योगदान बेहद उल्लेखनीय रहा है। उनकी राजनीतिक यात्रा कलकत्ता विश्वविद्यालय क्षेत्र से 1929 में विधान परिषद से प्रारंभ हुई 7 बंगाल के हितों की रक्षा के लिए वे फजलुल सरकार में वित्त मंत्री रहे। भारत सरकार के उद्योग मंत्री रहते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 1948 को उद्योग नीति लायी7 तीन भागों में उद्योगों का विभाजन कर भारत में उद्योगों का विकास उनका प्रयास था।औद्योगिक वित्त विकास निगम की स्थापना, ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट, ऑल इंडिया हैंडलूम बोर्ड, खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, चितरंजन रेलवे कारखाना, हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड, दामोदर नदी घाटी बहुउद्देशीय परियोजना सभी डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के संकल्प के साकार रूप है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जी के विभाजन के समय, पाकिस्तान एवं पूर्वी पाकिस्तान पर विफल नीति के विरोध में उद्योग मंत्री से त्यागपत्र देकर वे भारत में आए लाखों शरणार्थियों की सेवा में जुट गए.हमें कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प की आवश्यकता है , इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी 7 डॉ0 श्यामा प्रसाद जी जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष बने। प्रथम लोकसभा चुनाव मे साउथ कोलकाता से सांसद सदस्य भी चुने गए।वर्ष 1934 से 1938 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे युवा कुलपति होने का श्रेय भी उनके ही नाम है। इसी पद पर उन्होंने दो कार्यकाल रहते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय को प्रगति की ऊंचाइयों पर पहुंचाया।ब्रिटिश इंडिया के प्रतीक ब्रिटिश मोहर को बदलकर उस स्थान पर खिलते हुए कमल में श्री अंकित कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतीक चिन्ह बनाया। उनकी शिक्षा दृष्टि उनके ही शब्दों में मैं ऐसे व्यक्ति बनाना चाहता हूं जो नए बंगाल के योग्य नेता बने। इसी उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अनेक नए पाठ्यक्रम प्रारंभ किए।साल 1943 में आए भीषण अकाल में सरकार के निकम्मे एवं द्वेषपूर्ण व्यवहार को समाज के सामने लाते हुए स्वयं सेवा के मैदान में उतर गए । बंगाल रिलीफ कमेटी बनाकर, साथ ही तत्कालीन अन्य सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं को उन्होंने साथ लेकर यह सेवा कार्य किया।मुफ्त रसोई, निशुल्क अनाज वितरण, सस्ती कैंटीन, अनाज की दुकाने, आवास, वृद्धों एवं बच्चों के लिए दूध एवं दवाइयां वितरण कमेटी के द्वारा हुआ।देश के विभाजन की त्रासदी को श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपनी आंखों से देखा था।बंगाल के कलकत्ता, नोआखाली सहित अनेक स्थानों के दंगो में मानवता कराह उठी थी। ग्रेट कलकत्ता के नाम से कुख्यात नरसंहार आज भी लोगों में सिहरन पैदा करता है। समाज का मनोबल बढ़ाने, उचित मार्गदर्शन करने एवं पीडि़त मानवता की सेवा करने के लिए अस्वस्थ होते हुए भी उन्होंने सभी स्थानों का प्रवास किया। भारत के विभाजन के घोर विरोधी होने के बाद भी जब उनको लगा कि यदि हमने बंगाल के विभाजन की बात नहीं की तब संपूर्ण बंगाल ही हमारे हाथ से चला जाएगा।इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे भारतीय नेताओं के साथ-साथ अंग्रेज अधिकारियों से भी मिले। आज के भारत में, बंगाल उन्हीं के संकल्प का परिणाम है। उनको नव बंगाल का शिल्पी भी कहा जाता है। एकजुट भारत की उनकी इस सोच पर आगे कदम बढ़ाने में हमें 70 वर्ष से भी अधिक का समय लग गया। लेकिन आज प्रधानमंत्री मोदी के कुशल नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार डॉ. मुखर्जी की इस सोच को वास्तविकता में बदल रही है। एक भारत, श्रेष्ठ भारत के नारे के माध्यम से मोदी सरकार देश को एक सूत्र में पिरोने का काम कर रही है। जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के अंतर्गत लाने के दो वर्ष पूरे होने को हैं। मोदी सरकार की नीतियों में डॉ. मुखर्जी की आकांक्षाओं की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। नई शिक्षा नीति को लागू करना डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शिक्षा अभिव्यक्ति ही है । वह दिन दूर नहीं जब भारतीय जनसंघ, जिसने बाद में भारतीय जनता पार्टी का स्वरूप लिया, के संस्थापक डॉ. मुखर्जी की राष्ट्रीय एकता व अखंडता की भावना सशक्त होकर भारत को विश्व के श्रेष्ठ राष्ट्र के रूप में स्थापित करेगी।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री हैं)

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अग्निपथ आज के वक्त की जरूरत

आरकेएस भदौरिया – अग्निपथ आज के वक्त की जरूरत. अग्निवीर योजना राष्ट्रीय रक्षा की यात्रा में एक नए युग की शुरुआत है जिसका सीधा असर रक्षा बलों के साथ-साथ राष्ट्र के युवाओं पर पड़ेगा। ये दोनों ही राष्ट्र के दो अभिन्न स्तंभ हैं। रक्षा मंत्रालय द्वारा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जब इस योजना की घोषणा हुई तो माननीय रक्षा मंत्री इसकी अध्यक्षता कर रहे थे और मंच को तीनों सेना प्रमुखों द्वारा साझा किया गया था। इस योजना पर समाज के विभिन्न वर्गों ने अपने विचारों,आख्यानों, अलग-अलग संदर्भो में अपनी आशंकाओं के साथ-साथ कई पक्ष-विपक्ष के पहलुओं को भी उजागर किया है।

हमेशा विकास करती दुनिया में, परिवर्तन ही एकमात्र पहलू हैं जो निरंतर है। साथ ही, परिवर्तन का प्रतिरोध मानव स्वभाव का एक अभिन्न हिस्सा है जिसे ध्यान में रखने की आवश्यकता है। आगे बढऩे से पहले आइए योजना की व्यापक रूपरेखा पर एक नजर डालते हैं।
सरकारी घोषणाओं के अनुसार अग्निवीर योजना तीनों सेनाओं (नौसेना, थल सेना और वायु सेना) में ऑफिसर्स रैंक से नीचे सिपाही(पीबीओआर) श्रेणी में सभी भर्तियों के लिए नया भर्ती मार्ग होगा।

17.5 वर्ष से 21 वर्ष के आयु वर्ग के योग्य उम्मीदवारों की भर्ती 4 वर्ष की निश्चित अवधि के लिए की जाएगी। चार साल के बाद, सभी अग्निवीरों को अपने संबंधित बलों में नियमित रूप से शामिल होने के लिए आवेदन करने का विकल्प दिया जाएगा। हालांकि,नियमित तौर पर केवल 25 प्रतिशत अग्निवीरों को ही शामिल किया जाएगा।

सबसे पहले,आइए रक्षा सेवाओं पर योजना के संभावित प्रभाव पर विचार करें क्योंकि अग्निवीरों के उपयोग और इससे सेवाओं की परिचालन क्षमता और युद्ध क्षमता पर इसके प्रभाव पर सवाल उठाए गए हैं। भारतीय वायुसेना एक प्रौद्योगिकी-केंद्रित आधुनिक वायु सेना है जिसमें सभी लड़ाकू प्लेटफार्मों, उपकरणों के साथ-साथ एक नेटवर्क वातावरण में काम करने वाली हथियार प्रणालियां हैं। भारतीय वायुसेना को समकालीन प्रौद्योगिकी ज्ञान के साथ युवा और अनुकूलनीय लोगों की आवश्यकता है ताकि उन्हें कम से कम समय में उभरती प्रौद्योगिकियों में प्रशिक्षित किया जा सके।

इसके अलावा, जैसे-जैसे उभरती प्रौद्योगिकियां बेहद जल्दी आउटडेटेड भी हो रही हैं और हर गुजरते दिन के साथ इनका दायरा सिकुड़ जाता है, ऐसे में छोटी अवधि के लिए लगातार इंडक्शन लंबी प्रतिबद्धताओं के साथ इंडक्शन की तुलना में अधिक तार्किक हैं। एक छोटी चार साल की अवधि के बाद उम्मीदवारों के साथ-साथ सर्विसेज को भी निर्णय लेने का विकल्प देती है। पूर्ववर्ती व्यवस्था में ऐसा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं था।

नतीजन, एक ओर युवाओं का एक वर्ग 15-20 साल की न्यूनतम प्रतिबद्धता के कारण सर्विसेज में शामिल होने के विकल्प का उपयोग करने से आशंकित था, और दूसरी ओर, सर्विसेज को उभरती प्रौद्योगिकियों में वरिष्ठ /उम्रदराज लोगों को फिर से कौशल देने में कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। युवा लोगों को बार-बार शामिल करना और लड़ाकों की औसत आयु में कमी सर्विसेज के लिए अच्छी होगी।

सैनिकों की औसत आयु में कमी, जिन्हें आमतौर पर भारतीय वायुसेना में वायु योद्धा कहा जाता है, सर्विसेज के लिए एक बड़ा लाभ होगा। वास्तव में, प्रशिक्षण की अवधि, पैटर्न और साथ ही मौजूदा प्रणाली की तुलना में अग्निवीरों के पोस्टिंग प्रोफाइल में बदलाव करने की आवश्यकता होगी।
रक्षा सेवाएं राष्ट्रीय सुरक्षा के अंतिम गढ़ हैं और किसी को भी सेना प्रमुखों की दृष्टि और योजना पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए। सर्विसेज ने अब तक नई योजना के सभी आयामों पर विचार-विमर्श किया होगा जिसमें प्रशिक्षण पैटर्न और परिचालन उपयोग शामिल हैं। किसी भी स्तर पर किसी प्रकार की शिथिलता नहीं बरती जाएगी। भारत के सभी नागरिकों को निश्चिंत होना चाहिए कि रक्षा बल हर बार और हर पहलू में खुद को साबित करेंगे जब भी उन्हें ऐसा करने के लिए कहा जाएगा।

अन्य प्राथमिक हितधारक देश के युवा हैं। आइए युवाओं की आकांक्षाओं के साथ-साथ रुचियों पर भी विचार करें। सरकार द्वारा घोषित वित्तीय पैकेज 10वीं या 12वीं पास युवा वयस्कों के लिए सर्वोत्तम कॉरपोरेट्स की पेशकश की तुलना में बहुत अधिक है। नई भर्ती के लिए 30,000 रुपए प्रति माह और इसके अतिरिक्त 9000 रुपए प्रति माह सरकार द्वारा उनकी सेवा निधि के लिए योगदान दिया जाएगा।

इसके अतिरिक्त, हर साल वेतन में लगभग 10 प्रतिशत की वृद्धि होगी। यह रेखांकित करना उचित है कि बोर्डिंग, लॉजिंग, चिकित्सा सुविधाओं आदि अधिकांश दैनिक आवश्यकताओं की देखभाल सर्विसेज द्वारा की जाती है, इसलिए अग्निवीर को इन पहलुओं पर कोई पैसा खर्च करने की आवश्यकता नहीं होगी। चूंकि आय का बहुत कम हिस्सा जीवन यापन की लागत की ओर जा रहा होगा, इसलिए वेतन के अधिकांश हिस्से को बचाया जा सकता है। साथ ही चार साल पूरे होने पर प्रत्येक अग्निवीर को 11 लाख रुपये से अधिक की राशि उसके सेवा निधी खाते के मैच्योर होने पर मिलेगी।

आर्थिक लाभ के अलावा, यह योजना युवाओं की अन्य आकांक्षाओं को भी पूरा करेगी जिसमें गर्व, स्वाभिमान और कौशल विकास के साथ-साथ नई एनईपी 2020 के अनुरूप शैक्षिक योग्यताएं शामिल हैं। जैसा कि शिक्षा मंत्रालय द्वारा पहले ही एनईपी 2020 ला चुका है, यूजीसी और इग्नू इसके जरिए अग्निवीरों के लिए उनकी शैक्षिक योग्यता को उन्नत करने की व्यवस्था और विकल्प तैयार करेंगे।

इससे उन लोगों की दूसरी पारी सुगम बनेगी जो सर्विसेज द्वारा नियमित नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर हो जाएंगे। केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों में इन युवा और कुशल नागरिकों को शामिल करने के लिए गृह मंत्रालय पहले से ही एक योजना शुरू करने की प्रक्रिया में है। उनके पास सरकारी क्षेत्र, उद्योग, आईटी क्षेत्र के साथ-साथ कॉर्पोरेट जगत में एक अच्छी नौकरी की तलाश करने या अपनी सेवा निधि का उपयोग करके अपना खुद का उद्यम शुरू करने के विकल्प भी होंगे।

आखिर में अग्निपथ योजना का राष्ट्र निर्माण में अभूतपूर्व योगदान रहेगा। अनुशासन, ईमानदारी, जोश, एस्प्रिट डी कोर, स्वयं से पहले सेवा, युवा और प्रभावशाली दिमाग में राष्ट्र-प्रथम दृष्टिकोण के गुणों का समावेश कई मायनों में राष्ट्र निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण गेम चेंजर होगा।
मेरी राय में, यह योजना सेवाओं के साथ-साथ राष्ट्र के युवाओं के लिए एक जीत की स्थिति है और उच्च स्तर पर राष्ट्र निर्माण में इसका योगदान अभूतपूर्व होगा।

(लेखक एयर चीफ मार्शल, पीवीएसएम एवीएसएस वीएम (सेवानिवृत)हैं)

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‘अग्निपथ’ आधुनिक सेनाओं में एक आजमाया हुआ मॉडल है

राजेश इस्सर – ‘अग्निपथ’ आधुनिक सेनाओं में एक आजमाया हुआ मॉडल हैरक्षा बलों में अग्निवीरों की भर्ती की केंद्र की योजना के विरोध में हिंसा की मात्रा इस सेवा में भर्ती के प्रतिशत के अनुपात से कहीं अधिक है। अब इस बात के सबूत उभरकर सामने आ रहे हैं कि इस तरह की संगठित अशांति के कारण क्या हैं।

वैश्विक शांति सूचकांक की गणना के अनुसार इस तरह के आंदोलन और हिंसा के कारण भारत को 646 अरब अमरीकी डॉलर का नुकसान हुआ है। यह ग्रे जोन वारफेयर की कीमत है, जिससे भारत लड़ रहा है। देश को ऐसे कानून बनाने की जरूरत है जिसके द्वारा आगजनी और तोडफ़ोड़ में शामिल पाए गए लोगों के विरुद्ध आपराधिक मामलों के अलावा, किसी भी सरकारी नौकरी, सब्सिडी या विशेषाधिकार से जुड़े सभी प्रकार के लाभों से वंचित कर दिया जाए।

यह कैच-दैम-यंग और गंभीर चयन, 4 साल बाद सशस्त्र बलों के लिए मददगार तो होगा, किंतु उन लोगों के लिए नहीं जो केवल सरकारी नौकरी और भविष्य की पेंशन को ध्यान में रखते हैं। आने वाले समय के युद्ध में ऐसे सैनिकों की आवश्यकता है जो बहु-कुशल हैं, सिस्टम की एक प्रणाली में प्रौद्योगिकी के माध्यम से नेटवर्क पर काम करते हैं, और सामान्य रूप से उच्च संज्ञानात्मक क्षमता रखते हैं। यह सशस्त्र बलों की एक युवा प्रोफाइल को सक्षम करेगा।

कारगिल युद्ध और दुनिया भर में अन्य सैनिक कार्रवाइयों ने साबित कर दिया है कि 20 से 30 वर्षकी उम्र की शुरुआत में, शारीरिक क्षमता के अनुसार, जोखिम लेने की प्रवृत्ति और क्षमता सबसे अधिक होती है।

लेह में एओसी के रूप में, मैंने पीएलए (देपसांग और चुमार) के खिलाफ दो बार आमने-सामने का मुकाबला देखा और सियाचिन ग्लेशियर पर वायु सैनिकों की नियमित तैनाती देखी। एलएसी पर युवा सैनिकों ने जीत हासिल की। पुराने सैनिकों की तुलना में उनमें कहीं अधिक प्रेरणा, लचीलापन और शारीरिक क्षमता देखी जाती है।

प्रौद्योगिकी की जानकारी रखने वाले युवाओं को शामिल करना बेहतर होगा, क्योंकि इसमें लंबी अवधि के लिए कोई बंधन नहीं है जब तक कि कोई इसका विकल्प नहीं चुनता है। रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, सैटेलाइट इमेजरी, लेजर-निर्देशित हथियार आदि के साथ आधुनिक युद्ध हाई-टेक हो गए हैं, जो किसी भी युद्ध-कुशल बल के शस्त्रागार का एक अच्छा हिस्सा हैं।

सेना छोडऩे वाले 75 प्रतिशत युवा राष्ट्र के लिए एक संसाधन होंगे। युवा लोगों को आत्म-अनुशासन, परिश्रम और विशेष ध्यान वाले क्षेत्र के बारे में गहरी समझ होगी और वे अन्य क्षेत्रों में योगदान करने के लिए कुशल होंगे। सेवा छोडऩे के बाद सेवा निधि के रूप में मिलने वाला धन उन्हें स्वरोजगार, कौशल के लिए उच्च शिक्षा जैसे भविष्य के उनके प्रयासों मैं मददगार होगा। अनुशासन के इस आधार को व्यापक बनाकर, कौशल-युक्त और उपयोगी मानसिकता के बल पर आने वाले समय में अपना देश अच्छी स्थिति में होगा।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राष्ट्र को समय पर रक्षा बजट से जुड़े तनाव को दूर करने में मददगार है। बजट संबंधी तनाव के कारण आधुनिक युद्ध मशीनों और उपकरणों की खरीद के लिए बहुत ही कम धनराशि बचती है। अनुमान के अनुसार, वार्षिक रक्षा परिव्यय का लगभग 60 प्रतिशत वेतन और पेंशन के एकल शीर्ष के कारण होता है, जो महंगाई सूचकांक के साथ जुड़ाव के कारण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है।

यह कोई अजनबी मॉडल नहीं है, बल्कि दुनिया भर की सभी आधुनिक सेनाओं के साथ आजमाया और परखा गया है। लोग इस योजना पर प्रतिक्रिया के लिए सरकार की संचार रणनीति को दोषी ठहराते हैं।

लेकिन यह योजना कुछ समय के लिए खुले डोमेन में थी, आंतरिक नीति-निर्माण संरचनाओं में चर्चा की गई थी, रक्षा मंत्री और तीनों सेना प्रमुखों ने स्वयं रोलआउट के दौरान प्रश्नों का उत्तर दिया, आदि आदि। ऐसा कुछ भी नहीं होता, यदि एक नापाक राजनीतिक टूलकिट की कारगुजारी नहीं होती। इसके लिए अलग तैयारी और हैंडलिंग की आवश्यकता होती है।

(लेखक ने भारतीय वायु सेना में एयर वाइस मार्शल के रूप में सेवा की है)

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पश्चिम एशिया में नया चौगुटा

वेद प्रताप वैदिक – अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन अगले माह सउदी अरब की यात्रा पर जा रहे हैं। उस दौरान वे इजराइल और फिलीस्तीन भी जाएंगे लेकिन इन यात्राओं से भी एक बड़ी चीज जो वहां होने जा रही है, वह है— एक नए चौगुटे की धमाकेदार शुरुआत! इस नए चौगुटे में अमेरिका, भारत, इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) होंगे। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जो चौगुटा चल रहा है, उसके सदस्य हैं— अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया। इस और उस चौगुटे में फर्क यह है कि उसे चीन-विरोधी गठबंधन माना जाता है जबकि इस पश्चिम एशिया क्षेत्र में चीन के जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, जिससे अमेरिका प्रतिद्वंद्विता महसूस करता हो।

इसके अलावा इस चौगुटे के तीन सदस्यों का आपस में विशेष संबंध बन चुका है। भारत और सं.अ.अ. के बीच मुक्त व्यापार समझौता है तो ऐसा ही समझौता इजराइल और सं.अ.अ. के बीच भी हो चुका है। ये समझौते बताते हैं कि पिछले 25-30 साल में दुनिया कितनी बदल चुकी है। इजराइल- जैसे यहूदी राष्ट्र और भारत—जैसे पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्र के साथ एक मुस्लिम राष्ट्र यूएई के संबंधों का इतना घनिष्ट होना अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हो रहे बुनियादी परिवर्तनों का प्रतीक है।

अमेरिका के राष्ट्रपति का इजराइल और फिलीस्तीन एक साथ जाना भी अपने आप में अति-विशेष घटना है। यों तो पश्चिम एशिया के इस नए चौगुटे की शुरुआत पिछले साल इसके विदेश मंत्रियों की बैठक से शुरु हो गई थी लेकिन अब इसका औपचारिक शुभारंभ काफी धूम-धड़ाके से होगा। मध्य जुलाई में इन चारों राष्ट्रों के शीर्ष नेता इस सम्मेलन में भाग लेंगे। जाहिर है कि यह नाटो, सेंटो या सीटो की तरह कोई सैन्य गठबंधन नहीं है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की उपस्थिति को सैन्य-इरादों से जोड़ा जा सकता है लेकिन पश्चिम एशिया में इस तरह की कोई चुनौती नहीं है।

ईरान से परमाणु-मुद्दे पर मतभेद अभी भी हैं लेकिन उसके विरुद्ध कोई सैन्य गठबंधन खड़ा करने की जरुरत अमेरिका को नहीं है। जहां तक भारत का सवाल है, वह किसी भी सैन्य संगठन का सदस्य न कभी बना है और न बनेगा। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के चौगुटे में भी उसका रवैया चीन या रूस विरोधी नहीं है। भारत इस मामले में बहुत सावधानी बरत रहा है। वह इन चौगुटों में सक्रिय है लेकिन वह किसी महाशक्ति का पिछलग्गू बनने के लिए तैयार नहीं है।

इस वक्त भारत शाघांई सहयोग संगठन और एसियान देशों की बैठकें भी आयोजित कर रहा है। इन सबका लक्ष्य यही है कि आपसी आर्थिक और व्यावसायिक संबंधों की श्रीवृद्धि हो। क्या ही अच्छा होता कि इन सभी संगठनों में पाकिस्तान भी सम्मिलित होता लेकिन इस प्रश्न का हल तो पाकिस्तान ही कर सकता है।

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आंदोलन का मुद्दा है क्या ?

वेद प्रताप वैदिक –  आंदोलन का मुद्दा है क्या ? कांग्रेस आजकल राजनीतिक पार्टी की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनती जा रही है, इसका ताजा प्रमाण फिर सामने आ रहा है। ‘नेशनल हेराल्ड’ के मामले में सोनिया गांधी और राहुल को प्रवर्तन निदेशालय के सामने जांच के लिए पेश होना पड़ रहा है। हो सकता है कि जांच में दोनों बिल्कुल खरे उतरें। वैसे देश में मुझे तो एक भी नेता ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जो कि दूध का धुला हो। कोई न कोई धांधली, ठगी, रिश्वत या दादागीरी का दांव मारे बिना कोई भी नेता अपनी दुकान कैसे चला सकता है?

फिर भी हम मानकर चल सकते हैं कि राहुल और सोनिया बिल्कुल बेदाग निकलेंगे तो भी असली सवाल यह है कि किसी जांच एजेंसी के सामने पेश होने में उन्हें एतराज क्यों होना चाहिए? यदि कानून सबके लिए एक-जैसा है तो वह उन पर भी लागू क्यों न हो? वे अपने आप को कानून से ऊपर समझते हैं, क्या? यदि वे निर्दोष हैं तो कोई जांच एजेंसी सत्तारुढ़ नेताओं की कितनी ही गुलाम हो, उन्हें किसी से डरने की क्या जरुरत है? भारत की न्यायपालिका आज भी निर्भीक और स्वतंत्र है। वह उनके सम्मान की रक्षा अवश्य करेगी लेकिन इस जांच को लेकर पूरी कांग्रेस जिस तरह से सड़क पर उतर आई है, वह अपना मजाक बनवा रही है।

इससे कई बातें सिद्ध हो रही हैं। पहली तो यह कि कांग्रेस अपने सिर्फ दो नेताओं, माँ और बेटे को बचाने के लिए जिस तरह जन-आंदोलन पर उतर आई है, उससे लगता है कि उसके पास जनहित का कोई और मुद्दा है ही नहीं। अपने नेताओं को बचाना ही उसके लिए सबसे बड़ा जनहित है। दूसरा, उसने जन-आंदोलन की राह अपनाकर भाजपा सरकार के प्रति जनता को जो शिकायत हो सकती थी, उस पर ढक्कन लगा दिया है। जऱा याद करें कि चरणसिंह सरकार ने जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था तो उस सरकार की इज्जत कैसे पैंदे में बैठ गई थी।
यही अब भी होता लेकिन मां-बेटे ने यह प्रदर्शन करवाकर भाजपा सरकार के हाथ मजबूत कर दिए हैं। तीसरा, लोगों को आश्चर्य है कि कांग्रेस की हालत मायावती की बसपा की तरह क्यों होती जा रही है? उसके पास न तो योग्य नेता हैं और न ही प्रभावशाली नीति है। इसी का नतीजा है कि राष्ट्रपति के चुनाव में उम्मीदवार के लिए किसी कांग्रेसी नेता का नाम सामने नहीं आ रहा है। सारे विपक्षी दलों को इस मुद्दे पर एक करने में भी कांग्रेस को सफलता नहीं मिल रही है।

यद्यपि कांग्रेस के कुछ मुख्यमंत्री काफी सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें भी जब मां-बेटे की सेवा में जोत दिया जा रहा हो तो आम लोग सोच में पड़ जाते हैं कि ये अनुभवी नेता लोग भी नेता हैं या किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के कर्मचारी हैं? देश के करोड़ों कांग्रेसी कार्यकर्त्ता हतप्रभ हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि उनके नेता राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई आंदोलन क्यों नहीं करते? क्या आंदोलन के लिए उनके नेताओं को बस यही मुद्दा मिला है?

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हिंदी के लिए खुला विश्व-द्वार

वेद प्रताप वैदिक – हिंदी के लिए खुला विश्व-द्वार. संयुक्तराष्ट्र संघ में अभी भी दुनिया की सिर्फ छह भाषाएं आधिकारिक रूप से मान्य हैं। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, हिस्पानी और अरबी! इन सभी छह भाषाओं में से एक भी भाषा ऐसी नहीं है, जो बोलने वालों की संख्या, लिपि, व्याकरण, उच्चारण और शब्द-संख्या की दृष्टि से हिंदी का मुकाबला कर सकती हो। इस विषय की विस्तृत व्याख्या मेरी पुस्तक ‘हिंदी कैसे बने विश्वभाषा?’ में मैंने की है। यहां तो मैं इतना ही बताना चाहता हूं कि हिंदी के साथ भारत में ही नहीं, विश्व मंचों पर भी घनघोर अन्याय हो रहा है लेकिन हल्की-सी खुशखबर अभी-अभी आई है।

संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा ने अपने सभी ‘जरुरी कामकाज’ में अब उक्त छह आधिकारिक भाषाओं के साथ हिंदी, उर्दू और बांग्ला के प्रयोग को भी स्वीकार कर लिया है। ये तीन भाषाएं भारतीय भाषाएं हैं, हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश को विशेष प्रसन्नता होनी चाहिए, क्योंकि बांग्ला और उर्दू उनकी राष्ट्रभाषाएं हैं। यह खबर अच्छी है लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि संयुक्तराष्ट्र के किन-किन कामों को ‘जरुरी’ मानकर उनमें इन तीनों भाषाओं का प्रयोग होगा।

क्या उसके सभी मंचों पर होनेवा ले भाषणों, उसकी रपटों, सभी प्रस्तावों, सभी दस्तावेजों, सभी कार्रवाइयों आदि का अनुवाद इन तीनों भाषाओं में होगा? क्या इन तीनों भाषाओं में भाषण देने और दस्तावेज़ पेश करने की अनुमति होगी? ऐसा होना मुझे मुश्किल लग रहा है लेकिन धीरे-धीरे वह दिन आ ही जाएगा जबकि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की सातवीं आधिकारिक भाषा बन जाएगी। हिंदी के साथ मुश्किल यह है कि वह अपने घर में ही नौकरानी बनी हुई है तो उसे न्यूयार्क में महारानी कौन बनाएगा?

हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और हिंदी देश में अधमरी (अर्धमृत) पड़ी हुई है। कानून-निर्माण, उच्च शोध, विज्ञान विषयक अध्यापन और शासन-प्रशासन में अभी तक उसे उसका उचित स्थान नहीं मिला है। जब 1975 में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में हुआ था, तब भी मैंने यह मुद्दा उठाया था और 2003 में सूरिनाम के विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने हिंदी को सं.रा. की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रस्ताव पारित करवाया था।

1999 में भारतीय प्रतिनिधि के नाते संयुक्तराष्ट्र में मैंने अपने भाषण हिंदी में देने की कोशिश की लेकिन मुझे अनुमति नहीं मिली। केवल अटलजी और नरेंद्र मोदी को अनुमति मिली, क्योंकि हमारी सरकार को उसके लिए कई पापड़ बेलने पड़े थे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भरसक कोशिश की कि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिले लेकिन कोई मुझे यह बताए कि हमारे कितने भारतीय नेता और अफसर वहां जाकर हिंदी में अपना काम-काज करते हैं?

जब देश में सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज (वोट मांगने के अलावा) अंग्रेजी में होता है तो संसार में वह अपना काम-काज हिंदी में कैसे करेगी? अंग्रेजी की इस गुलामी के कारण भारत दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं का भी लाभ लेने से खुद को वंचित रखता है। देखें, शायद संयुक्त राष्ट्र की यह पहल भारत को अपनी भाषायी गुलामी से मुक्त करवाने में कुछ मददगार साबित हो जाए!

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राजनीति सेवा नहीं, मेवा है

वेद प्रताप वैदिक – राजनीति सेवा नहीं, मेवा है. राज्यसभा के चुनावों में राज्यों के विधायक ही मतदाता होते हैं। आम चुनावों में मतदाताओं को अपनी तरफ फिसलाने के लिए सभी दल तरह-तरह की फिसलपट्टियां लगाते हैं लेकिन विधायकों के साथ उल्टा होता है। उनका अपना राजनीतिक दल उनको फिसलने से रोकने के लिए एक-से-एक अजीब तरीके अपनाता है। इस समय कांग्रेस, शिवसेना, भाजपा और पंवार-कांग्रेस ने अपने-अपने विधायकों का अपहरण कर लिया है और उन्हें दुल्हनों की तरह छिपाकर रख दिया है।

सभी पार्टियां अपने विधायकों से डरी रहती हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि अगर उनके थोड़े-से विधायक भी विपक्ष के उम्मीदवार की तरफ खिसक गए तो उनका उम्मीदवार हार जाएगा। कई उम्मीदवार तो सिर्फ दो-चार वोटों के अंतर से ही हारते और जीतते हैं। विधायकों को फिसलाने के लिए नोटों के बंडल, मंत्रिपद का लालच, प्रतिद्वंदी पार्टी में ऊंचा पद आदि की चूसनियां लटका दी जाती हैं।

यदि राज्यसभा की सदस्यता का यह मतदान पूरी तरह दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत हो जाए तो ऐसे सांसदों के होश-हवास गुम कर देगा। पराए दल के उम्मीदवार को वोट देनेवाले सांसद की सदस्यता तो छिनेगी ही, उसकी बदनामी भी होगी। ऐसा कोई प्रावधान अभी तक नहीं बना है, इसीलिए सभी दल अपने विधायकों को अपने राज्यों के बाहर किसी होटल या रिसोर्ट में एकांतवास करवाते हैं। उन विधायकों के चारों तरफ कड़ी सुरक्षा रहती है।

उनका इधर-उधर आना-जाना और बाहरी लोगों से मिलना-जुलना मना होता है। उनके मोबाइल फोन भी रखवा लिये जाते हैं। उनके खाने-पीने, खेलने-कूदने और मौज-मजे का पूरा इंतजाम रहता हैं। उन पर लाखों रु. रोज़ खर्च होता है। कोई इन पार्टियों से पूछे कि जितने दिन ये विधायक आपकी कैद में रहते हैं, ये विधायक होने के कौनसे कर्तव्य का निर्वाह करते हैं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि लगभग सभी पार्टियां, आजकल यही ‘सावधानी’ क्यों बरतती हैं? इसका मूल अभिप्राय क्या है?

इसका एक ही अभिप्राय है। वह यह कि आज की राजनीति सेवा के लिए नहीं है। वह मेवा के लिए है। जिधर मेवा मिले, हमारे नेता उधर ही फिसलने को तैयार बैठे रहते हैं। वर्तमान राजनीति में न किसी सिद्धांत का महत्व है, न नीति का, न विचारधारा का! राजनीति में झूठ-सच, निंदा-स्तुति, अपार आमदनी-बेहिसाब खर्च, चापलूसी और कटु निंदा यह सब इस प्रकार चलता है, जैसे कि वह कोई वेश्या हो।

लगभग डेढ़ हजार साल पहले राजा भतृहरि ने ‘नीतिशतक’ में यह जो श्लोक लिखा था, वह आज भी सच मालूम पड़ता है। राजनीति में सक्रिय कई लोग आज भी इसके अपवाद हैं लेकिन जऱा मालूम कीजिए कि क्या वे कभी शीर्ष तक पहुंच सके हैं? जो लोग अपनी तिकड़मों में सफल हो जाते हैं, वे दावा करते हैं कि सेवा ही उनका धर्म है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम बैठकर नहाते हैं या खड़े होकर नहाते हैं? भाजपा में रहें या कांग्रेस में जाएं, एक ही बात है। हमें तो जनता की सेवा करनी है। ऐसे लोग मेवा को चबाए बिना ही निगल लेते हैं।

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प्रधानमंत्री मोदी ने बदल दी भारत की नियति

अनुराग सिंह ठाकुर – प्रधानमंत्री मोदी ने बदल दी भारत की नियति. राजनीति में सात दिन एक लंबा समय हो सकता है, लेकिन किसी देश के इतिहास में आठ साल का समय बहुत कम होता है। फिर भी, इस कम समय में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत की वैश्विक प्रोफाइल को बड़े पैमाने पर ऊपर उठाया है और विश्वगुरु के रूप में राष्ट्र के खोए हुए गौरव, प्रतिष्ठा और गरिमा को बहाल किया है। जैसा कि हम प्रधानमंत्री के रूप में उनके नेतृत्व के नौवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, भारत न केवल घरेलू मोर्चे पर बल्कि दुनिया में भी आगे बढ़ेगा। भारत की नियति का मार्ग दृढ़ता से निर्धारित किया गया है। राष्ट्रीय हित को पारंपरिक भू-राजनीति से ऊपर रखने की प्रधानमंत्री मोदी की इंडिया फर्स्ट नीति ने निस्संदेह विदेशों में भारत के उदय को प्रेरित किया है। हार्ड और सॉफ्ट पावर प्रोजेक्शन का एक निपुण संयोजन, प्रौद्योगिकी में भारत की विशेषज्ञता के एक मजबूत प्रदर्शन के साथ युग्मित है और इनका इस्तेमाल यह सुनिश्चित करेगा कि चौथी औद्योगिक क्रांति के दौरान हम कोई मौका नहीं गवाएंगे और इसने इंडिया फर्स्ट नीति में जान डाल दी है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भारत की सभ्यतागत विरासत और इसकी संस्कृति को बेरोक-टोक बढ़ावा दिए जाने से इसे ताकत मिली है। पिछली सरकारों ने भारत की सॉफ्ट पावर को प्रोजेक्ट करने की कोशिश की, लेकिन उन प्रयासों का सीमित प्रभाव पड़ा। पर्यटन से संबंधित बुनियादी ढांचे पर ध्यान केंद्रित किए बिना पर्यटन को बढ़ावा देना, या भारत की बहु-रंगी अपील को केवल एक स्मारक तक सीमित करना, या इससे भी बदतर, लोकप्रिय संस्कृति के सबसे निचले हिस्से को भारत की विरासत के रूप में प्रदर्शित करना, इन सब ने सॉफ्ट पावर के मोर्चे पर भारत के उदय को रोक दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव लाए हैं, कैनवास को बड़ा किया है और पूरक तत्वों को शामिल किया है। उदाहरण के लिए, इस प्राचीन भूमि से दुनिया को एक उपहार के रूप में योग अब दुनिया भर में एक घरेलू नाम है, संयुक्त राष्ट्र को 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने और भारत की इस अनूठी सभ्यतागत विरासत को लोकप्रिय बनाने के लिए कई पहलों के साथ इसका समर्थन करने की पहल के लिए धन्यवाद। अतीत में, वसुधैव कुटुम्बकम एक खाली नारा बन गया था, एक क्लिच जो अपने मजबूत नैतिक अर्थ को खो चुका था। विश्व एक परिवार है कहना और भारत के सभ्यतागत लोकाचार में निहित इस शाश्वत सत्य को जीना दो अलग-अलग चीजें हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने दिखा दिया है कि भारत न केवल अपने प्राचीन संतों के ज्ञान और अपने प्राचीन ग्रंथों में निहित इस कहावत में विश्वास करता है, बल्कि इसे जीता भी है। इसलिए, जब विकसित दुनिया ने कोविड-19 वैक्सीन के साथ दूसरों की मदद करने में अनिच्छा दिखाई, तो प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसियों के साथ-साथ दूर के देशों की भी मदद करने के लिए कदम बढ़ाया। हाल के दिनों में कई मायनों में, वैक्सीन मैत्री भारत का सबसे बेहतरीन क्षण था जब हमने दुनिया को दिखाया कि हम एक राष्ट्र और एक सभ्यता के रूप में अलग हैं; कि हम विकसित दुनिया के इस विचार से सहमत नहीं हैं कि हमें भी प्रतिकूल स्थितियों का लाभ लेना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी के लिए वसुधैव कुटुम्बकम, केवल महामारी सहायता को लेकर ही नहीं है। भारत पहला देश था जिसने आपदा राहत के साथ संपर्क किया जब नेपाल में एक भयानक भूकंप आया, इसके बाद ही इस क्षेत्र के अन्य देशों ने इस संबंध में कार्रवाई की। ऐसे समय में जब श्रीलंका अशांत समय से गुजर रहा है, भारत ने संकट से निपटने में मदद के लिए बेझिझक कदम बढ़ाया है। काबुल के पतन और तालिबान के उदय के बाद दुनिया ने अफगानिस्तान से मुंह फेर लिया है। इस महत्वपूर्ण घटना के सुरक्षा निहितार्थों के बावजूद, भारत ने अफगानिस्तान के लोगों को खाद्य राहत प्रदान करना चुना है। अतीत में, यह भारत ही था जिसने अफगानों को एक संसद भवन उपहार में दिया था और अफगानिस्तान के सबसे महत्वपूर्ण बांधों में से एक का निर्माण किया था। वसुधैव कुटुम्बकुम के उदात्त सिद्धांत को जीने वाले, जिस तरह से हम दुनिया को देखते हैं और उससे जुड़ते हैं, उसमें मूल्यों को बहाल करने की भारत की सूची उतनी ही लंबी है, जितना कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दृष्टिकोण व्यापक है। उदाहरण के लिए, मजबूर घरेलू कारणों से गेहूं के निर्यात पर रोक लगाते हुए भी, भारत ने यह अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि जिन देशों को गेहूं की जरूरत है, उन्हें मामला-दर-मामला आधार पर गेहूं उपलब्ध कराया जाएगा। इस निर्णय के पीछे यह गहरा नैतिक विचार है कि यदि विश्व एक परिवार है तो खाद्य सुरक्षा अकेले भारत के लिए नहीं हो सकती। जबकि अन्य विश्व नेता मूल्यों और सिद्धांतों के लिए लिप सर्विस करते हैं, प्रधानमंत्री मोदी ऐसे मूल्यों और सिद्धांतों को सुनिश्चित करते हैं जो दुनिया के साथ भारत के जुड़ाव का मार्गदर्शन करते हैं। डिजिटल इंडिया की कहानी इतनी चर्चित है कि फिर से बताने की जरूरत नहीं । अब हम तीसरी सबसे बड़ी संख्या में स्टार्टअप की मेजबानी करते हैं और 100 यूनिकॉर्न का दावा करते हैं। हमारे पास बेहतरीन यूपीआई में से एक है जिसने डिजिटल भुगतान को अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक लोकप्रिय बना दिया है। दुनिया के सबसे बड़े कोविड-19 टीकाकरण अभियान का प्रबंधन और निगरानी डिजिटल रूप से की गई। डिजिटल समावेशन प्रधानमंत्री मोदी की डिजिटल इंडिया नीति की आधारशिला रहा है। दूसरे देशों के विपरीत, हम प्रौद्योगिकी साझा करने के इच्छुक हैं। जलवायु पर, भारत ने अक्षय ऊर्जा, विशेष रूप से सौर ऊर्जा, सशक्त विकास और हरित निवेश के मार्ग का नेतृत्व किया है, जो अनिच्छुक लोगों के लिए एक प्रकाशस्तंभ के रूप में कार्य कर रहा है। हम जो यह अभूतपूर्व उत्साह देखते हैं, भारतीयों में विश्वास है कि वे ऐसा कर सकते हैं क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि यह किया जा सकता है, यह सब व्यापक है। हमारे खिलाड़ी, यंग इंडिया के बेहतरीन उदाहरणों में से और कैन डू मोदी मंत्र से प्रेरित हैं, उत्कृष्ट हैं और घरेलू ट्राफियां ला रहे हैं जिनका हम पहले केवल सपना देख सकते थे। बॉलीवुड अब केवल एक निश्चित किस्म की लोकप्रिय संस्कृति के बारे में नहीं है। हमारे बेहद प्रतिभाशाली फिल्म उद्योग ने विश्व स्तर की विषय-सामग्री का निर्माण करने के लिए रचनात्मकता, संस्कृति और प्रौद्योगिकी को संयोजित करने के लिए आगे कदम बढ़ाया है जो विश्व स्तर पर सर्वश्रेष्ठ के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकता है। मनोरंजन मीडिया और प्रौद्योगिकी ने भारत को एक विषय-सामग्री उप-महाद्वीप बनाने के लिए मूल रूप से विलय कर दिया है, जो दुनिया भर में सामग्री उत्पादकों के लिए एक आदर्श मंच है। भारत विषय-सामग्री का सबसे बड़ा उपभोक्ता और उत्पादक दोनों बनने की ओर अग्रसर है। हाल ही में, भारत को कान्स में इस साल के कंट्री ऑफ ऑनर के रूप में नामित किया गया है। भारत की विशालता – और इस महान राष्ट्र के बारे में दुनिया को अभी तक क्या पता चला है – इसका उदाहरण प्रधानमंत्री मोदी द्वारा विश्व के नेताओं के लिए दिए गए उपहारों से है। कोई भी दो उपहार एक जैसे नहीं होते, कोई भी दो उपहार एक ही जगह से नहीं आते। प्रत्येक अद्वितीय है, प्रत्येक अपने सच्चे अर्थों में भारत की सॉफ्ट पावर के महान मोज़ेक के एक छोटे से टुकड़े का प्रतीक है; प्रत्येक एक सभ्यतागत राष्ट्र के रूप में भारत की ऊंचाइयों और उपलब्धियों की महानता का जश्न मनाता है। भारत आज मंगल और चंद्रमा पर मिशन भेज सकता है ; भारत सुपरसोनिक मिसाइल और एयरक्राफ्ट कैरियर बना सकता है ; भारत बेहतरीन रचनात्मक चिंतन पैदा कर सकता है; भारत बुनियादी ढांचे की कमी को तेजी से पूरा कर सकता है; भारत अन्य देशों की तुलना में एक महामारी का बेहतर प्रबंधन कर सकता है और अपनी अर्थव्यवस्था को किसी अन्य देशों की तुलना में तेजी से पुन: आगे बढ़ा सकता है; भारत गरीबी और असमानता को प्रभावी ढंग से कम कर सकता है; और, भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में खड़ा हो सकता है। जैसा कि भारत अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, यह माना जाना चाहिए कि इन आठ वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी ने आने वाले दशकों के लिए भारत के बेरोक-टोक उत्थान की नींव रखी है। भारत अपने घरेलू मोर्चे पर खुद समृद्ध होता रहेगा और राष्ट्रों के समूह में भारत का कद बढ़ता रहेगा।

एक प्राचीन सभ्यता के रूप में आज की दुनिया में अपना सही स्थान पा रहा है, भारत को विश्व गुरु के रूप में स्वीकार किया जाएगा – एक आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर राष्ट्र जो नेतृत्व और प्रेरणा देता है। प्रधानमंत्री मोदी ने सचमुच और निसंदेह भारत की नियति को बदल दिया है।

(लेखक भारत के केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण तथा खेल एवं युवा कार्य मंत्री हैं)

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पाकिस्तान के तीन टुकड़े?

वेद प्रताप वैदिक – पाकिस्तान के सत्तारुढ़ और विपक्षी नेताओं में इस बात को लेकर वाग्युद्ध चल पड़ा है कि क्या पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो जाएंगे? इमरान खान ने एक साक्षात्कार में कह दिया कि अगर फौज ने सावधानी नहीं बरती तो पाकिस्तान के तीन टुकड़े हो सकते हैं। उनका अभिप्राय यह था कि शाहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री के तौर पर कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। देश में महंगाई, भुखमरी और गरीबी तेजी से बढ़ रही है। पाकिस्तान की फौज इतने बुरे हालात पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं?

जिस फौज ने इमरान खान को सत्ता से धकियाया, उसी फौज से वे पाकिस्तान को बचाने का अनुरोध कर रहे हैं। इमरान के बयान पर पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने कहा कि वे नरेंद्र मोदी की भाषा बोल रहे हैं। शाहबाज शरीफ आजकल तुर्की में हैं। वे कह रहे हैं कि मैं देश के बिगड़े हुए हालात को काबू करने के लिए बाहर दौड़ रहा हूं और इमरान गलतबयानी करके कह रहे हैं कि पाकिस्तान का हाल सीरिया और अफगानिस्तान की तरह हो रहा है।

इमरान ने यह भी कहा है कि पाकिस्तान का खजाना खाली हो गया है। फौज अगर कमजोर पड़ गई तो परमाणु अस्त्र का ब्रह्मास्त्र निरर्थक हो जाएगा। ऐसी हालत में अमेरिका और भारत मिलकर कब पाकिस्तान के टुकड़े कर देंगे, कुछ पता नहीं। इमरान को अगला चुनाव जीतना है। इस लक्ष्य को पाने के लिए यह जरुरी है कि वह अमेरिका और भारत को कोसें। लेकिन जहां तक पाकिस्तान के तीन टुकड़े होने का सवाल है, सच्चाई तो यह है कि उसके तीन नहीं, चार टुकड़े करने की मांग बरसों से हो रही है।

जब केंद्र की सरकार थोड़ी कमजोर दिखाई पड़ती हैं तो पाकिस्तान के टुकड़ों की मांग जोर पकडऩे लगती है। ये चार टुकड़े हैं— पख्तूनिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध और पंजाब! पंजाब सबसे अधिक शक्तिशाली, संपन्न, बहुसंख्यक और शासन में आगे है। इन प्रांतों के अलगाववादी नेताओं से पाकिस्तान में मेरी कई बार मुलाकातें हुई हैं। उनमें अफगानिस्तान, ईरान, अमेरिका और ब्रिटेन में भी खुलकर बातें हुई है।

कई पठान, बलूच और सिंधी नेता इस तरह की बाते करते रहते है। पर पाकिस्तान के तीन या चार टुकड़े होना न उनके लिए फायदेमंद है, न भारत के लिए। अभी तो भारत को सिर्फ एक पाकिस्तान से व्यवहार करना पड़ता है। फिर चार-चार पाकिस्तानों से करना पड़ेगा और यह भी देखना पड़ेगा कि आपसी दंगलों की आग कहीं भारत को न झेलनी पड़ जाए।

भारत को मध्य एशिया और यूरोप के रास्तों की भी किल्लत बढ़ जाएगी। इसके अलावा इन सब छोटे-मोटे देशों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली जाएगी, जिसका बोझ भी आखिरकार भारत को ही सम्हालना पड़ेगा। इसके अलावा स्वयं पाकिस्तान एक कमजोर और भूवेष्टित देश बन जाएगा। भारत तो चाहता है कि उसके सारे पड़ौसी देश संपन्न और सुरक्षित रहें। वे टूटे नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ जुड़ते चले जाएं।

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राजनीतिक नैतिकता के नए पैमाने

अजीत द्विवेदी – राजनीतिक नैतिकता के नए पैमाने. भारत में राजनीतिक नैतिकता का एक पैमाना लाल बहादुर शास्त्री ने गढ़ा था। उनके रेल मंत्री रहते एक दुर्घटना हुई थी और उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उसके बाद इस तरह इस्तीफा देना मुख्यधारा की राजनीतिक प्रवृत्ति नहीं बनी फिर भी नैतिकता का एक उच्च पैमाना बना रहा। नेता सही-गलत की जिम्मेदारी लेते थे। दुर्घटनाओं पर भले किसी ने इस्तीफा नहीं दिया हो पर आरोप लगने पर इस्तीफा देने का चलन तो हाल के दिन तक था।
लेकिन पिछले आठ साल में नैतिकता के पैमाने बदल गए हैं। आरोप लगने पर इस्तीफा देने का चलन थोड़ा पहले बंद हुआ था और अब गिरफ्तार होने पर भी इस्तीफा नहीं देने का चलन शुरू हो गया है। याद करें केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद उनके एक मंत्री के ऊपर बलात्कार का आरोप लगा था। लेकिन उनका इस्तीफा नहीं कराया गया था। बाद में उनको हटाया गया लेकिन आरोपों पर इस्तीफा नहीं हुआ। उसके बाद ऐसे अनेक मौके आए और भाजपा ने यह मैसेज बनवा दिया कि भाजपा की सरकारों में आरोपों पर इस्तीफे नहीं होते।

यह राजनीतिक नैतिकता के स्थापित और मान्य पैमाने से दूर हटने की शुरुआत थी। उससे कुछ दिन पहले तक आरोपों की वजह से इस्तीफे होते थे। आखिर मनमोहन सिंह की सरकार ने संचार घोटाले में केंद्रीय मंत्री ए राजा का इस्तीफा कराया था, यह अलग बात है कि मौजूदा सरकार के समय ए राजा सभी आरोपों से बरी हो गए। कांग्रेस ने आदर्श घोटाले में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा कराया था। खुद भाजपा ने भी एक समय भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का इस्तीफा कराया था।

मायावती की सरकार के अनेक मंत्रियों ने लोकायुक्त की रिपोर्ट में नाम आने के बाद इस्तीफा दिया था। लेकिन पिछले आठ साल में एक बड़ा बदलाव यह हुआ कि आरोप लगने पर इस्तीफा देने का चलन बंद हो गया है। सभी पार्टियों ने यह सार्वजनिक स्टैंड ले लिया है कि हमारा नेता भ्रष्ट नहीं है, जो भ्रष्ट है वह दूसरी पार्टी में है। इस तरह सबको यह सुविधा हो गई कि वह दूसरी पार्टी के आरोपी नेताओं को भ्रष्ट बताए और अपनी पार्टी के आरोपियों का खुल कर बचाव करे।

इस मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ट्रेंड सेटर हैं। उन्होंने आगे बढ़ कर रास्ता दिखाया और देश की दूसरी पार्टियां उस रास्ते पर चल पड़ी हैं। केंद्रीय एजेंसियों के निशाने पर आए अपने नेताओं के प्रति बिना शर्त समर्थन दिखाने का चलन ममता ने ही शुरू किया। उन्होंने सिर्फ समर्थन नहीं दिखाया, बल्कि सीबीआई से लडऩे के लिए उसके राज्य कार्यालय तक चली गई थीं। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं और राज्य के अधिकारियों से सीबीआई का विरोध कराया। घटना पिछले साल की है, जब सीबीआई ने उनकी सरकार के मंत्री फिरहाद हाकिम, मदन मित्रा आदि को गिरफ्तार किया था। तब ममता छह घंटे तक सीबीआई कार्यालय में बैठी रही थीं और गिरफ्तार होकर जेल जाने के बावजूद उन्होंने मंत्रियों को पद से नहीं हटाया। इससे पहले ऐसा नहीं होता था।

ममता बनर्जी ने पिछले साल अपने गिरफ्तार मंत्रियों को पद पर बनाए रख कर देश की बाकी पार्टियों को रास्ता दिखाया और अब कई पार्टियां उस रास्ते पर चल रही हैं। दिल्ली की ‘कट्टर ईमानदार’ सरकार के मंत्री सत्येंद्र जैन को प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ्तार किया है। उनके ऊपर हवाला के जरिए पैसे का लेन-देन करने का आरोप है और उनको धन शोधन के बेहद सख्त कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है

। लेकिन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उनको मंत्री पद से हटाने से इनकार कर दिया है। ममता के बताए रास्ते पर चलते हुए केजरीवाल ने उनको मंत्री बनाए रखा है और खुल कर उनका समर्थन भी किया है। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके जैन को क्लीन चिट दी और कहा है कि वे इतने योग्य और ईमानदारी नेता हैं कि उनको पद्म विभूषण से सम्मानित किया जाना चाहिए। पता नहीं केजरीवाल ने जैन के लिए देश का दूसरा सर्वोच्च सम्मान क्यों मांगा, वे सर्वोच्च सम्मान यानी भारत रत्न भी मांग सकते थे। आखिर उनकी नजर में सत्येंद्र जैन महान ‘देशभक्त’ हैं।

बहरहाल, केजरीवाल से पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने भी ममता के बताए रास्ते पर चल कर मिसाल बनाई है। उनकी सरकार के मंत्री नवाब मलिक गिरफ्तार हैं और महीनों से जेल में बंद हैं, लेकिन उद्धव ने उनको मंत्री पद से नहीं हटाया है। हालांकि उनके विभागों का प्रभार दूसरे मंत्री को दे दिया गया है लेकिन मलिक बिना विभाग के मंत्री के तौर पर जेल में बंद हैं। इससे पहले उद्धव ठाकरे ने ऐसा रवैया अनिल देशमुख के लिए नहीं दिखाया था। देशमुख उनकी सरकार के गृह मंत्री थे। उनके ऊपर भी कई किस्म के आरोप लगे और वे भी गिरफ्तार होकर जेल में हैं पर उद्धव ने उनको मंत्री पद से हटा दिया था। संभवत: उसके बाद उनको ममता बनर्जी के फॉर्मूले का ध्यान आया।
सोचें, इससे पहले कितने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने भ्रष्टाचार के आरोप में फंसने या गिरफ्तार होने के बाद पद से इस्तीफ दिया था!

लालू प्रसाद से लेकर अशोक चव्हाण और बीएस येदियुरप्पा से लेकर मदनलाल खुराना तक अनेक मुख्यमंत्रियों की मिसालें हैं, जिनको आरोप लगने के बाद हटना पड़ा था। लालकृष्ण आडवाणी और मदन लाल खुराना का नाम तो जैन हवाला डायरी में लिखा मिला था और इसी आधार पर आडवाणी ने लोकसभा से और खुराना ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। लेकिन राजनीतिक नैतिकता के जो नए पैमाने गढ़े जा रहे हैं उनके मुताबिक गिरफ्तार होने के बाद भी पद से इस्तीफा नहीं देना स्वीकार्य हो गया है।

यह सिर्फ पक्ष और विपक्ष की पार्टियों के बीच टकराव का मुद्दा भर नहीं है। यह देश की राजनीतिक व्यवस्था और अपराध-न्याय प्रक्रिया से जुड़ी सभी एजेंसियों और संवैधानिक संस्थाओं की साख का मामला भी है। यह राज्यों की पुलिस, केंद्रीय जांच एजेंसियों और न्यायपालिका तीनों के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।

विपक्षी पार्टियां अगर केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बावजूद अपने नेताओं का इस्तीफा नहीं करा रही हैं तो उसका आधार यही है कि एजेंसियां सत्तारूढ़ दल के इशारे पर विपक्षी नेताओं को परेशान कर रही हैं। इससे एजेंसियों की धाक और साख दोनों को धक्का लग रहा है। इससे एक तरफ यह धारणा बन रही है कि विपक्षी पार्टियों के नेता भ्रष्ट हैं इसलिए केंद्रीय एजेंसियां उनके खिलाफ कार्रवाई कर रही हैं तो दूसरी ओर यह धारणा भी बन रही है कि केंद्रीय एजेंसियां सत्तारूढ़ दल के हाथ का खिलौना बन गई हैं और उनका इस्तेमाल राजनीतिक बदला निकालने के लिए किया जा रहा है।

अगर इस धारणा को नहीं बदला गया तो जल्दी ही राजनीति के विशाल दलदल में पार्टियों के साथ साथ एजेंसियां और संवैधानिक संस्थाएं भी लथपथ दिखाई देंगी।

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कांग्रेस बदलने को तैयार नहीं

अजीत द्विवेदी – कांग्रेस बदलने को तैयार नहीं. चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के बारे में अपनी जो ताजा राय व्यक्त की है उसमें उन्होंने कहा है, ‘कांग्रेस पार्टी सुधरती नहीं है, अपने तो डूब रही है हमको भी डुबा देगी। हम 10 साल में सिर्फ एक चुनाव हारे 2017 में। कांग्रेस ने हमारा ट्रैक रिकॉर्ड खराब कर दिया, इसलिए उसके बाद हमने उनसे हाथ जोड़ लिया कि इन लोगों के साथ कभी काम नहीं करेंगे’।

सचमुच प्रशांत किशोर ने 2017 के बाद कांग्रेस के लिए काम नहीं किया। हालांकि वे कांग्रेस के साथ जुडऩे जरूर गए थे लेकिन वह एक अलग मामला है। वे चुनाव रणनीतिकार के तौर पर नहीं, बल्कि एक नेता के तौर पर कांग्रेस के साथ जुड़ कर उसमें संरचनात्मक बदलाव करके उसे भाजपा से मुकाबले के लिए तैयार करने के मकसद से गए थे। उनके कई बार प्रेजेंटेशन देने के बावजूद जब कांग्रेस उनकी शर्तों पर राजी नहीं हुई तो लगा कि कांग्रेस एक चुनाव रणनीतिकार के तौर पर तो उनकी सेवा लेना चाहती है लेकिन एक नेता के रूप में पार्टी में शामिल कर उन्हें अपने मन से हर काम करने की छूट नहीं देना चाहती।

कांग्रेस ने हालांकि प्रशांत किशोर के कुछ सुझावों पर उदयपुर के नव संकल्प शिविर में विचार किया और उनमें से कुछ पर अमल का फैसला भी किया। लेकिन नव संकल्प शिविर के बाद पिछले तीन हफ्ते में जो राजनीतिक घटनाक्रम हुए हैं उनसे ऐसा लग नहीं रहा है कि कांग्रेस इस बात को समझ पाई है कि उसके अंदर क्या कमी है और उसे क्या सुधार करना है। असल में कांग्रेस ने उदयपुर में अपनी कमियों पर चर्चा ही नहीं की। यह सोचा ही नहीं कि उसकी क्या कमजोरी है, जिसकी वजह से वह लगातार चुनाव हार रही है और जिसकी वजह से लगातार उसके नेता पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं। तीन दिन तक पार्टी के शीर्ष नेता विचार करते रहे लेकिन हार पर चिंतन नहीं किया और न संगठन पर विचार हुआ। कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव अगस्त में होना है। उसकी तैयारियों से भी पार्टी कोई राजनीतिक माहौल नहीं बना पाई है, जबकि भाजपा अध्यक्ष का चुनाव अगले साल होना है और उसने हर प्रदेश में लगातार कार्यसमिति का आयोजन करके राजनीतिक माहौल बनाया हुआ है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक हुई है।

नव संकल्प शिविर के बाद जो सबसे बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम है वह राज्यसभा के दोवार्षिक चुनाव हैं। इन चुनावों के लिए कांग्रेस के उम्मीदवारों को देख कर भी साफ हो गया है कि कांग्रेस किसी हाल में नहीं बदल सकती है। कांग्रेस ने कुल 10 उम्मीदवार उतारे हैं लेकिन उनमें महाराष्ट्र के एक, राजस्थान के तीन, छत्तीसगढ़ के दो और हरियाणा के एक यानी सात उम्मीदवारों को लेकर राज्यों में जबरदस्त विरोध है। सोचें, 10 में से सात उम्मीदवारों का भारी विरोध है और उन्हीं में से दो उम्मीदवार ऐसी लड़ाई में फंस गए हैं, जहां उनके जीतने की संभावना कम हो गई है। कांग्रेस ने कर्नाटक से जयराम रमेश, तमिलनाडु से पी चिदंबरम और मध्य प्रदेश से विवेक तन्खा को छोड़ कर बाकी सारे उम्मीदवार बाहरी दिए हैं। यानी जिस राज्य में सीटें खाली हुई हैं वहां की बजाय दूसरे राज्य का उम्मीदवार उतारा है। कांग्रेस ने ऐसा सिर्फ इसलिए किया है कि परिवार के प्रति निष्ठा रखने वालों को उच्च सदन में भेजा जा सके।

कांग्रेस ने उम्मीदवार तय करने में न तो सामाजिक समीकरण का ध्यान रखा है और न क्षेत्रीय संतुलन का प्रयास किया है। बादशाह के हुक्मनामे की तरह उम्मीदवारों के नाम जारी कर दिए गए। उत्तर प्रदेश के रहने वाले राजीव शुक्ल छत्तीसगढ़ से, प्रमोद तिवारी राजस्थान से और इमरान प्रतापगढ़ी महाराष्ट्र से चुनाव लड़ रहे हैं। हरियाणा के रणदीप सुरजेवाला और महाराष्ट्र के मुकुल वासनिक राजस्थान से तो दिल्ली के अजय माकन हरियाणा से उम्मीदवार हैं। बिहार की रंजीत रंजन को छत्तीसगढ़ से उम्मीदवार बनाया गया है। इसके उलट भाजपा ने अपने 22 में सिर्फ दो उम्मीदवारों को उनके राज्य के बाहर टिकट दिया है। उसने निर्मला सीतारमण को कर्नाटक और के लक्ष्मण को उत्तर प्रदेश से उम्मीदवार बनाया है।

अगर सामाजिक समीकरण की बात करें तो भाजपा ने 22 उम्मीदवारों में से सिर्फ चार ब्राह्मण उम्मीदवार दिए हैं। इनके अलावा उसके ज्यादातर उम्मीदवार पिछड़ी और दलित जातियों के हैं। उसने इस बात का खास ख्याल रखा है कि कम से कम उम्मीदवार हाई प्रोफाइल हो। उसने ज्यादातर संगठन के नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं को मौका दिया है। इसके उलट कांग्रेस ने 10 में से पांच ब्राह्मण सहित सात सवर्ण उम्मीदवार दिए हैं। कांग्रेस की सूची में एक दलित, एक ओबीसी और एक मुस्लिम है। इसके अलावा लड़की हूं लड़ सकती हूं का नारा देने वाली पार्टी ने 10 में से सिर्फ एक महिला उम्मीदवार दिया है, जबकि भाजपा के 22 उम्मीदवारों में से चार महिलाएं हैं। भाजपा ने तीन राज्यों में अतिरिक्त उम्मीदवार देकर कांग्रेस को फंसाया है लेकिन मौका होने के बावजूद कांग्रेस किसी राज्य में भाजपा को नहीं उलझा सकी। उलटे कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी नासमझी या अपरिपक्वता में झारखंड की सहयोगी पार्टी जेएमएम से संबंध खराब किया सो अलग।

कांग्रेस ने जिस तरह से अपने शासन वाले राज्यों- राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उम्मीदवार दिए हैं उससे ऐसा लग रहा है कि पार्टी ने इन दोनों राज्यों में अगले साल होने वाले चुनाव में जीतने का इरादा त्याग दिया है। अगर कांग्रेस इन राज्यों में लडऩे और जीतने का इरादा दिखाती तो सारे उम्मीदवार स्थानीय होते और राज्य के जातीय समीकरण के अनुरूप होते। जमीनी कार्यकर्ता होते और दोनों मुख्यमंत्रियों के हाथ मजबूत करने वाले होते। लेकिन उसकी बजाय पांच बाहरी व थके-हारे नेताओं को उम्मीदवार बना कर कांग्रेस आलाकमान ने अपने मुख्यमंत्रियों को भी मुश्किल में डाला है और आगे की संभावना भी खराब की है। दूसरी और बड़ी कमी यह है कि कांग्रेस अब भी उस बादशाही वाले अंदाज में काम कर रही है कि जो निष्ठावान नहीं है या कभी भी जिसने परिवार पर सवाल उठाया है उसको कुछ नहीं देना है। तभी पार्टी के अनेक उपयुक्त उम्मीदवारों की अनदेखी कर दी गई।

सोचें, इतनी खराब दशा में भी कांग्रेस परिवार के प्रति निष्ठावान लोगों को उपकृत करने और असंतुष्ट नेताओं को निपटाने के खेल में लगी है। इतने मुश्किल समय में पार्टी अपनी कमियों पर विचार नहीं कर रही है। पार्टी को एकजुट रखने और नेताओं से बात कर उनकी शिकायतों को दूर करने की बजाय ऐसे हालात बना रही है कि और नेता पार्टी छोड़ कर जाएं। नव संकल्प शिविर के बाद सुनील जाखड़ और कपिल सिब्बल जैसे पुराने नेता पार्टी छोड़ गए। कांग्रेस ऐसे दिखा रही है, जैसे उसे इसकी परवाह ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ नेताओं के मामले में पार्टी की यह एप्रोच है। पार्टी के पास कोई संगठन भी नहीं है और कोई कार्यक्रम भी नहीं है। इतनी घनघोर महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी के बावजूद सरकार को घेरने वाला कोई कार्यक्रम कांग्रेस नहीं चला रही है। भाजपा और क्षेत्रीय पार्टियां आगे होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी में लगी हैं लेकिन कांग्रेस नेता पार्टी के अंदर एक-दूसरे को निपटाने के खेल में लगे हैं।

असल में लगातार चुनाव हारने के बाद भी कांग्रेस के नेता इस मुगालते में हैं कि एक दिन लोग भाजपा से उब जाएंगे और फिर घर बैठे कांग्रेस को सत्ता सौंप देंगे। एक बार 2004 में ऐसा हो गया था लेकिन अब ऐसा नहीं होने वाला है।

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सिर्फ सोनिया व राहुल ही क्यों?

वेद प्रताप वैदिक – सिर्फ सोनिया व राहुल ही क्यों? केंद्र सरकार के प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पेशी का नोटिस भेजा है। ये दोनों कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व अध्यक्ष हैं। इनके अलावा आप पार्टी के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को ईडी ने हिरासत में डाल रखा है। लालू प्रसाद यादव और ओमप्रकाश चौटाला पहले से जेल भुगत रहे हैं। झारखंड के कुछ अफसर भी जेल भुगत रहे हैं। ये लोग सब कौन हैं? ये सब गैर-भाजपाई नेता हैं।

ये सब विरोधी दलों के अध्यक्ष या मुख्यमंत्री या अफसर रहे हैं? इनमें से किसका कितना दोष या अपराध है, यह तो अदालतें तय करती हैं लेकिन कितने गर्व और गौरव की बात है कि इनमें से एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जो भाजपा का हो या सत्तारुढ़ दल का हो। यदि भाजपा के सभी नेता और कार्यकर्त्ता सचमुच ऐसे हों तो इससे बढ़कर आनंद की बात राष्ट्र के लिए क्या हो सकती है? लेकिन क्या ऐसा है? यह कैसे पता चले?

या तो वे शपथ लेकर कहें कि वे दूध के धुले हुए हैं या वे यह दावा करें कि उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली है, या उन्होंने कभी टैक्स-चोरी नहीं की है या पैसे की अफरा-तफरी नहीं की है। ऐसा दावा करते हुए तो हमने किसी भी पार्टी के एक भी नेता को नहीं सुना है। हाँ, सिर्फ विरोधी नेताओं को सरकारें अपने दांव में फंसा लेती हैं। आज भाजपा अपने विरोधियों- कांग्रेसियों, आपियों, बसपाइयों और समाजवादियों- को अपने जाल में फंसा रही है तो कल जब सत्ता बदलेगी तो ये सब मिलकर क्या भाजपाइयों के लिए लंबा-चैड़ा जाल नहीं बिछा देंगे?

क्या इससे भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी? नहीं, बिल्कुल नहीं। अपने विरोधियों पर छापे मारने के पहले यदि कोई प्रधानमंत्री अपने समर्थकों पर छापे डलवा दे तो वह असली सफाई कहलाएगी। दूसरों का घर साफ़ करने के पहले यदि अपना घर साफ़ न करें तो लोग आपकी मजाक उड़ाए बिना नहीं रहेंगे। आपकी उस सफाई को लोग राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई समझेंगे। जनता में उसकी एकदम उल्टी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। जनता उनके अपराध को अनदेखा कर देगी और उनके लिए सहानुभूति के बादल बरस पड़ेगे जैसे कि चरणसिंह द्वारा इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी पर बरसे थे।

क्या भारत में किसी पार्टी की कोई ऐसी सरकार कभी बनेगी, जो अपने नेताओं पर सबसे पहले छापे मारे और उन्हें गिरफ्तार करे। पंजाब में आप पार्टी ने यह कर दिखाया है लेकिन अपने दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री को वह पद्मविभूषण के लायक बता रही है और कांग्रेस भी अपने दोनों मालिकों के प्रति पूर्ण भक्तिभाव दिखा रही है। यह हो सकता है कि गहन जांच के बाद ये लोग दोषी साबित हो जाएं लेकिन फिर भी यह सवाल बना ही रहेगा कि सिर्फ ये ही क्यों?

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कश्मीर में फिर आतंकवाद

वेद प्रताप वैदिक – कश्मीर में फिर आतंकवाद. जम्मू-कश्मीर में जबसे धारा 370 हटी है, वहां राजनीतिक उठा-पटक और आतंकवादी घटनाओं में काफी कमी हुई है लेकिन इधर पिछले कुछ हफ्तों में आतंकवाद ने फिर से जोर पकड़ लिया है। कश्मीर घाटी के एक स्कूल में पढ़ा रही जम्मू की अध्यापिका रजनीबाला की हत्या ने कश्मीर में तूफान-सा खड़ा कर दिया है।

कश्मीर के हजारों अल्पसंख्यक हिंदू कर्मचारी सड़कों पर उतर आए हैं और वे उप-राज्यपाल से मांग कर रहे हैं कि उन्हें घाटी के बाहर स्थानांतरित किया जाए, वरना वे सामूहिक बहिर्गमन का रास्ता अपनाएंगे।

उनका यह आक्रोश तो स्वाभाविक है लेकिन उनकी मांग को क्रियान्वित करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। यहां एक सवाल तो यही है कि क्या आतंकवादी सिर्फ हिंदू पंडितों को ही मार रहे हैं? यह तो ठीक है कि मरनेवालों में हिंदू पंडितों की संख्या ज्यादा है, क्योंकि एक तो वे प्रभावशाली हैं, मुखर हैं और उनकी संख्या भी ज्यादा है लेकिन रजनीबाला तो पंडित नहीं थी। वह तो दलित थी।

इसके अलावा हम थोड़े और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि इस वर्ष अब तक आतंकवादियों ने 13 लोगों की हत्या की है, उनमें चार पुलिस के जवान थे, तीन हिंदू थे और छह मुसलमान थे। इन मुसलमानों में पुलिस वालों के अलावा पंच, सरपंच और टीवी की एक महिला कलाकार भी थी। कहने का अर्थ यह कि आतंकवादी सबके ही दुश्मन हैं। वे घृणा और घमंड से भरे हुए होते हैं।

वे जिनसे भी घृणा करते हैं, उनकी हत्या करना वे अपना धर्म समझते हैं। क्या वे यह नहीं जानते यह कुकर्म वे इस्लाम के नाम पर करते हैं और उनकी इस करनी की वजह से इस्लाम सारी दुनिया में बदनाम होता रहता है। ऐसे ही हिंसक उग्रवादियों की मेहरबानी के कारण आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान बिल्कुल खस्ता-हाल हुए जा रहे हैं। कश्मीर में इधर कुछ हफ्तों से आतंकवादी हमलों में जो बढ़त हुई है,

उसका एक कारण यह भी लगता है कि ये आतंकवादी नहीं चाहते कि भारत-पाक रिश्तों में जो सुधार के संकेत इधर मिल रहे हैं, उन्हें सफल होने दिया जाए। इधर जब से शाहबाज शरीफ की सरकार बनी है, दोनों देशों के नेताओं का रवैया रचनात्मक दिख रहा है।

दोनों देश सीमा पर युद्ध विराम समझौते का पालन कर रहे हैं और सिंधु-जल विवाद को निपटाने के लिए हाल ही में दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक दिल्ली में हुई है। पाकिस्तान के व्यापारी भी बंद हुए आपसी व्यापार को खुलवाने का आग्रह कर रहे हैं। आतंकवादियों के लिए यह सब तथ्य काफी निराशाजनक हैं। इसीलिए वे अंधाधुंध गोलियां चला रहे हैं।

उनकी हिंसा की सभी कश्मीरी नेताओं ने कड़ी निंदा की है और उप-राज्यपाल मनोज सिंहा ने भी कठोर शब्दों में आतंकवादी हत्यारों को शीघ्र ही दंडित करने की घोषणा की है।

क्या इन आतंकवादियों को इतनी-सी बात भी समझ नहीं आती कि वे हजार साल तक भी इसी तरह लोगों का खून बहाते रहें तो भी अपना लक्ष्य साकार नहीं कर पाएंगे और वे जितने निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा आतंकवादी हर साल मारे जाते हैं। यह बात उन पाकिस्तानी लोगों को भी समझनी चाहिए, जो आतंकवाद को प्रोत्साहित करते हैं।

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