गर्भपात और महिला अधिकार

वेद प्रताप वैदिक  –  सर्वोच्च न्यायालय ने भारत की महिलाओं के अधिकारों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। उसने अपने ताजातरीन फैसले में सभी महिलाओं को गर्भपात का अधिकार दे दिया है, वे चाहे विवाहित हों या अविवाहित हों। भारत में चले आ रहे पारंपरिक कानून में केवल विवाहित महिलाओं को ही गर्भपात का अधिकार था। वे गर्भ-धारण के 20 से 24 हफ्ते में अपना गर्भपात करवा सकती थीं लेकिन ऐसी महिलाएं, जो अविवाहित हों और जिनके साथ बलात्कार हुआ हो या जो जान-बूझकर या अनजाने ही गर्भवती हो गई हों, उन्हें गर्भपात का अधिकार अब तक नहीं था।

उसका नतीजा क्या होता रहा? ऐसी औरतें या तो आत्महत्या कर लेती हैं, या छिपा-छिपाकर घर में ही किसी तरह गर्भपात की कोशिश करती हैं या नीम-हकीमों और डॉक्टरों को पैसे खिलाकर गुपचुप गर्भमुक्त होने की कोशिश करती हैं। इन्हीं हरकतों के कारण भारत में 8 प्रतिशत गर्भवती औरतें रोज़ मर जाती हैं। लगभग 70 प्रतिशत गर्भपात इसी तरह के होते हैं। जो औरतें बच जाती हैं, वे इस तरह के गर्भपातों के कारण शर्म और बिमारियों की शिकार हो जाती हैं।

भारत में गर्भपात संबंधी जो कानून 1971 और संशोधित कानून 2021 में बना, उसमें अविवाहित महिलाअेां का गर्भपात गैर-कानूनी या आपराधिक माना गया था। अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसी ही महिला के मामले पर विचार करते हुए सभी महिलाओं को गर्भपात की छूट दे दी है। जाहिर है कि संसद अब इस आदेश को लागू करने के लिए कानून बनाएगी। इसके साथ-साथ अदालत ने यह भी माना है कि यदि कोई विवाहित स्त्री अपने पति के बलात्कार के कारण गर्भवती हुई है तो उससे भी गर्भपात की छूट देनी चाहिए।

यह जरुरी नहीं है कि जो भी अविवाहित महिला गर्भवती होती हैं, वह व्यभिचार के कारण ही होती है। इसके अलावा गर्भपात के लिए अन्य कई अनिवार्य कारण भी बन जाते हैं। उन सब पर विचार करते हुए अदालत का उक्त फैसला काफी सही लगता है लेकिन डर यही है कि इसके कारण देश में व्यभिचार और बलात्कार की घटनाएं बढ़ सकती हैं, जैसा कि यूरोप और अमेरिका में होता है।

दुनिया के 67 देशों में गर्भपात की अनुमति सभी महिलाओं को है। कुछ देशों में गर्भपात करवाने के पहले उसका कारण बताना जरुरी होता है। केथोलिक ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों में प्राय: गर्भपात के प्रति उनका रवैया कठोर होता है लेकिन सउदी अरब और ईरान जैसे देशों में इसकी सीमित अनुमति है। दुनिया के 24 देशों में अभी भी गर्भपात को अपराध ही माना जाता है।

भारत में गर्भपात की अनुमति को व्यापक करके सर्वोच्च न्यायालय ने स्त्री-स्वातंत्र्य को आगे बढ़ाया है लेकिन तलाक के पेचीदा कानून में भी तुरंत सुधार की जरूरत है। तलाक की लंबी मुकदमेबाजी और खर्च से भी लोगों का छुटकारा होना चाहिए। इस संबंध में संसद कुछ पहल करे तो वह बेहतर होगा।

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यह है खतरनाक जनमत-संग्रह

वेद प्रताप वैदिक – यूक्रेन के चार क्षेत्रों में रूस ने जनमत संग्रह करवा लिया और अब अगले सप्ताह उन चारों क्षेत्रों को वह रूस में मिला लेगा। उन्हें वह रूस का हिस्सा बना लेगा। ये चार क्षेत्र हैं- दोनेत्स्क, लुहांस्क, खेरसान और झपोरीझाझिया! इन चारों क्षेत्रों से लाखों यूक्रेनी भागकर अन्य यूरोपीय देशों में चले गए हैं। ये चारों क्षेत्र मिलकर यूक्रेन की 15 प्रतिशत भूमि में हैं।

इन क्षेत्रों में ज्यादातर रूसी मूल के लोग रहते हैं।यूक्रेन कई दशकों तक सोवियत रूस का एक प्रांत बनकर रहा है। इसके पहले भी दोनों देशों में सदियों से घनिष्टता रही है। यूक्रेनी लोग रूस में बसते रहे और रूसी लोग यूक्रेन में लेकिन सोवियत संघ के टूटने के बाद याने यूक्रेन के अलग होने के बाद रूसी और यूक्रेनी लोगों के मतभेद बढ़ते गए।

उक्त चारों इलाकों के रूसी मूल के लोग रूस में मिलने के छोटे-मोटे आंदोलन भी चलाते रहे हैं लेकिन रूस ने उस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया।अब क्योंकि नाटो देशों ने यूक्रेन पर भी डोरे डालने शुरु कर दिए थे, इसीलिए रूसी नेता व्लादीमीर पूतिन ने यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। उन्होंने इन चारों क्षेत्रों में पांच दिनों तक जनमत संग्रह की नौटंकी रचकर इन्हें रूस में मिलाने की घोषणा कर दी है।

इस जनमत संग्रह में 87 से 99 प्रतिशत लोगों ने रूस में विलय के पक्ष में वोट दिए हैं। यूक्रेनी नेताओं ने कहा है कि यह जनमत संग्रह शुद्ध पाखंड है।रूसी फौजियों ने घर-घर जाकर पेटियों में लोगों से जबर्दस्ती वोट डलवाए हैं। यह पता नहीं कि वोटों की गिनती भी ठीक से हुई है या नहीं? या गिनती के पहले ही परिणामों की घोषणा हो गई है?

यूक्रेन की इस आपत्ति को रूसी नेताओं ने निराधार कहकर निरस्त कर दिया है लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इस तरह का जनमत-संग्रह उचित और व्यावहारिक है?रूस ने सीधे कब्जा नहीं किया और उसकी जगह जनमत-संग्रह करवाया यह बेहतर बात है लेकिन यदि इसे सही मान लिया जाए तो आज की दुनिया के कई देशों के टुकड़े हो जाएंगे।

पड़ौसी देशों के विधर्मी और विजातीय लोग लाखों-करोड़ों की संख्या में आकर किसी भी देश में बस जाएं तो क्या वे अपना अलग देश बनाने या अपने मूल देश में मिलने के अधिकारी हो सकते हैं?

यदि ऐसा होने लगे तो पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे कई देशों के टुकड़े होने लगेंगे, क्योंकि इन देशों के कई जिलों और प्रांतों में पड़ौसी देशों के लोगों की बहुतायत है।

दक्षिण एशिया ही नहीं, दुनिया के लगभग सभी देशों में यह उपक्रम संकट उपस्थित कर सकता है। वह जन-संग्राम और अंतरराष्ट्रीय युद्धों का कारण भी बन सकता है।

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नौकरियों में आरक्षण खत्म हो

वेद प्रताप वैदिक – सर्वोच्च न्यायालय में आजकल आरक्षण पर बहस चल रही है। उसमें मुख्य मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर लोगों को नौकरियों और शिक्षा-संस्थानों में आरक्षण दिया जाए या नहीं? 2019 में संसद ने संविधान में 103 वाँ संशोधन करके यह कानून बनाया था कि गरीबी की रेखा के नीचे जो लोग हैं, उन्हें 10 प्रतिशत तक आरक्षण दिया जाए। यह आरक्षण उन्हीं लोगों को मिलता है, जो अनुसूचित और पिछड़ों को मिलनेवाले आरक्षण भी शामिल नहीं हैं। याने सामान्य श्रेणी या अनारक्षित जातियों को भी यह आरक्षण मिल सकता है। उसका मापदंड यह है कि उस गरीब परिवार की आमदनी 8 लाख रु. साल से ज्यादा न हो। याने लगभग 65 हजार रु. प्रति माह से ज्यादा न हो।एक परिवार में यदि चार लोग कमाते हों तो उनकी आमदनी 16-17 हजार से कम ही हो। ऐसा माना जाता है कि गरीबी रेखा के नीचे जो लोग हैं, उनकी संख्या 25 प्रतिशत के आस-पास है याने लगभग 30 करोड़ है। इन लोगों को आरक्षण देने का विरोध इस तर्क के आधार पर किया जाता है कि देश के ज्यादातर गरीब तो अनुसूचित लोग ही हैं। यदि ऊँची जातियों के लोगों को गरीबी के नाम पर आरक्षण दिया जाएगा तो जो असली गरीब हैं, उनका हक मारा जाएगा। इसके जवाब में जजों ने पूछा है कि यदि इस आरक्षण में आरक्षितों और पिछड़ों को भी जोड़ लिया जाए तो आरक्षण की सारी मलाई ये वर्ग ही साफ कर लेंगे। अभी तक कानून यह है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जाए।ऐसे में एक तर्क यह भी है कि गरीबों को दिया गया आरक्षण अनुसूचितों के लिए नुकसानदेह होगा। वास्तव में सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों की नौकरियों में किसी भी आधार पर आरक्षण देना उचित नहीं है। ऐसे आरक्षणों में योग्यता दरकिनार कर दी जाती है और अयोग्य लोगों को कुर्सियां थमा दी जाती हैं। इसके फलस्वरुप सारा प्रशासन अक्षम हो जाता है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। नौकरियों में भर्ती का पैमाना सिर्फ एक ही होना चाहिए। वह है, योग्यता! देश के प्रशासन को सक्षम और सफल बनाना हो तो जाति और गरीबी, दोनों के नाम पर नौकरियों में दिए जानेवाले आरक्षणों को तुरंत खत्म किया जाना चाहिए। उसकी जगह सिर्फ शिक्षा में आरक्षण दिया जाए और वह भी 60-70 प्रतिशत हो तो भी उसमें भी कोई बुराई नहीं है। इस आरक्षण का सिर्फ एक ही मानदंड हो और वह हो गरीबी की रेखा! इसमें सभी जातियों के लोगों को समान सुविधा मिलेगी। समस्त आरक्षित छात्र-छात्राओं को निशुल्क शिक्षा और संभव हो तो भोजन और निवास की सुविधा भी मिलनी चाहिए। जो बच्चे परिश्रमी और योग्य होंगे, वे नौकरियों में आरक्षण की भीख क्यों मांगेंगे? वे स्वाभिमानपूर्वक काम करेंगे। वे हीनताग्रंथि से मुक्त होंगे।

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भारत की नौसेना ने समुद्र में भारत का डंका बजा दिया

वेद प्रताप वैदिक – भारत की नौसेना ने आइएनएस विक्रांत नामक विमानवाहक पोत को समुद्र में उतारकर सारी दुनिया में भारत की शक्ति का डंका बजा दिया है। भारत के पास पहले भी एक विमानवाहक पोत था लेकिन वह ब्रिटेन से लिया हुआ था लेकिन यह विमानवाहक पोत खुद भारत का अपना बनाया हुआ है। इस समय ऐसे पोतों का निर्माण गिनती के आधा दर्जन देश ही कर पाते हैं। उन्हें सारी दुनिया महाशक्ति राष्ट्र ही कहती है।

भारत के इस विक्रांत ने उसे अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की तरह महाशक्ति राष्ट्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। यह उपलब्धि उतनी ही बड़ी है, जितनी अटलबिहारी वाजपेयी के जमाने में हुई परमाणु विस्फोट की थी लेकिन इसमें और उसमें इतना फर्क है कि पोखरन के उस विस्फोट के समय लगभग सभी परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बुरी तरह से बौखला गए थे और पाकिस्तान भी भारत की नकल पर उतारु हो गया था लेकिन अब न तो कोई महाशक्ति बौखलाई है और न ही पाकिस्तान इस स्थिति में है कि वह विक्रांत की तरह अपना कोई विमानवाहक पोत अगले कई दशकों में खड़ा कर सके।

भारत को मिले इस गौरव के लिए हमारे इंजीनियरों, विशेषज्ञों, फौजियों, सरकारी और सैकड़ों निजी कंपनियों को इसका श्रेय है लेकिन आश्चर्य है कि इसका श्रेय लेने के लिए भाजपा ओर कांग्रेस के नेता आपस में खींचातानी कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे भारत की अपूर्व उपलब्धि बताया, यह ठीक ही है। उनके कार्यकाल में वह बनकर तैयार हुआ तो वे उसका विमोचन नहीं करते तो कौन करता? यह किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं, भारत की उपलब्धि है।

इस पोत के निर्माण में हमारे सैकड़ों अफसरों ने ब्रिटेन जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किया है। यह कई दशकों के प्रयत्न से बनकर तैयार हुआ है। इसके निर्माण के दौरान 40,000 से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला है। इसमें 1500 टन स्टील लगा है। इस पोत पर 30 विमान तैनात किए जा सकते हैं। इसमें 1600 कर्मचारी होंगे। इसके निर्माण में 20 हजार करोड़ रु. खर्च हुए हैं लेकिन इसका 85 प्रतिशत पैसा भारत में लौट आया है। यह ठीक है कि अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देशों के पास इससे भी काफी बड़े विमानवाहक पोत हैं लेकिन भारत में तो अभी इसका शुभारंभ हुआ है।

इससे अन्य फौजी उपकरण भारत में बनाने का जो उत्साह पैदा होगा, उसकी कल्पना हम कर सकते हैं। विक्रांत पोत हमारे राष्ट्रीय आत्मविश्वास को सुदृढ़ बनाने में विशेष योगदान करेगा। भारत की जल-सीमाओं को तो यह पोत अब सुरक्षित करेगा ही अब हिंद महासागर में बाहरी राष्ट्रों की दादागीरी को भी नियंत्रित करने में इसका सशक्त योगदान होगा। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छत्रपति शिवाजी के सामुद्रिक शौर्य को याद करके भारतीय युद्ध-प्रतिभा का सिक्का दुनिया के सामने जमाया।

उन्होंने एक और महत्वपूर्ण काम किया। वह यह कि हमारे नौसेना के ध्वज से ब्रिटिश प्रतीक चिन्ह ‘क्रास ऑफ सेंट जा\र्ज’ को हटवाकर उसकी जगह शिवाजी के अष्टकोणीय प्रतीक के साथ ‘शं नो वरूण’ वेदमंत्र भी जड़वा दिया। जैसे कभी हमारे राष्ट्रपति भवन से ‘यूनियन जैक’ की जगह तिरंगा लहराया था, वैसी ही एतिहासिक भूल सुधार यह किया गया है।

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गुलाम नबी: सोनिया बचाए कांग्रेस को

वेद प्रताप वैदिक – कश्मीरी नेता गुलाम नबी आजाद का कांग्रेस को छोड़ देना कोई नई बात नहीं है। उनके पहले शरद पवार और ममता बेनर्जी जैसे कई नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं लेकिन गुलाम नबी का बाहर निकलना ऐसा लग रहा है, जैसे कांग्रेस का दम ही निकल जाएगा। कांग्रेस के कुछ छोटे-मोटे नेताओं ने गुलाम नबी आजाद के मोदीकरण की बात कही है, जो कुछ हद तक सही है, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने बेहद भावुक होकर गुलाम नबी को राज्यसभा से विदाई दी थी।

लेकिन कई अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह गुलाम नबी आजाद भाजपा में शामिल नहीं हो रहे हैं। वे अपनी पार्टी बनाएंगे, जो जम्मू-कश्मीर में ही सक्रिय रहेगी। वे कोई अखिल भारतीय पार्टी नहीं बना सकते। जब शरद पवार और ममता बेनर्जी नहीं बना सके तो गुलाम नबी के लिए तो यह असंभव ही है। यह हो सकता है कि वे अपने प्रांत में भाजपा के साथ हाथ मिलाकर चुनाव लड़ लें। सच्चाई तो यह है कि पिछले लगभग 50 साल से कांग्रेस एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम कर रही है।कांग्रेस की देखादेखी सभी पार्टियां उसी ढर्रे पर चल पड़ी है।

भाजपा भी उसका अपवाद नहीं है। गुलाम नबी आजाद वास्तव में अब आजाद हुए हैं। उन्होंने नबी की गुलामी कितनी की है, यह तो वे ही जानें लेकिन इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी की गुलामी में उनका पूरा राजनीतिक जीवन कटा है। मुझे खूब याद है, कांग्रेस में गुलाम-संस्कृति की!गुलाम नबी, जो आज आजादी का नारा लगा रहे हैं, संजय गांधी के साथ उनके रिश्तों पर अन्य कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणियां पढऩे लायक हैं।

जो नेता गुलाम नबी की निंदा कर रहे हैं, उनके दिल में भी एक गुलाम नबी धड़क रहा है लेकिन बेचारे लाचार हैं। राहुल गांधी के बारे में गुलाम नबी की टिप्पणियां नई नहीं हैं। देश की जनता और सारे कांग्रेसी पहले से वह सब जानते हैं। गांधी, नेहरु, पटेल और सुभाष बाबू की कांग्रेस अब नौकर-चाकर कांग्रेस (एन.सी. कांग्रेस) बन गई हैं।अब यदि अशोक गहलोत या कमलनाथ या चिदंबरम या किसी अन्य को भी कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए तो वह क्या कर लेगा? यह एक शेर उस पर भी लागू होगा- इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन, अब आखिरी वक़्त क्या खाक़ मुसलमां होंगे?”

अब कांग्रेस को यदि कोई बचा सकता है तो वह एकमात्र सोनिया गांधी ही हैं। वे अपने बेटे को गृहस्थी बनाएं और अपनी बेटी को अपना गृहस्थ चलाने को कहें और पार्टी में ऊपर से नीचे तक चुनाव करवाकर खुद भी संन्यास ले लें।

कांग्रेस की देखादेखी भारत की सभी पार्टियां ऊर्ध्वमूल” बन गई हैं याने उनके जड़ें छत में लगी हुई हैं। सोनियाजी यदि कांग्रेस को अधोमूल” बनवा दें याने उसकी जड़ें फिर से ज़मीन में लगवा दें तो भारत के लोकतंत्र की बड़ी सेवा हो जाएगी।

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क्या केजरीवाल मोदी जी का विकल्प हैं ?

अजय दीक्षित – पिछले दिनों जब नीतीश कुमार ने पाला बदला था, और भाजपा को छोड़कर तेजस्वी यादव की पार्टी से हाथ मिला लिया था तो नीतीश कुमार ने एक बात बड़े जोरदार शब्दों से कही थी कि जो 2014 में आये थे वे क्या 2024 में भी रहेंगे ? उनका इशारा मोदी जी की तरफ था । उसके बाद जनता दल (यू) ने कहना शुरू कर दिया कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे सही व्यक्ति हैं ।

ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करने में लगी हैं । तेलंगाना के के.सी.आर भी अपने को प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं । उड़ीसा के नवीन पटनायक ने कुछ साफ-साफ नहीं कहा है । एन.सी.पी. के शरद पवार भी लाइन में हैं । अब जब मनीष सिसोदिया के यहां छापा पड़ा है तो आम आदमी पार्टी में कहना शुरू कर दिया है कि मोदी का सामना केजरीवाल ही कर सकते हैं और सन् 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल होगा ।

असल में राजीव गांधी को छोड़कर किसी को भी प्रधानमंत्री का पद झोली में नहीं मिला । इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद तुरन्त यह आवाज उठी कि किसी को नेहरू परिवार से ही प्रधानमंत्री बनना चाहिये । तब राहुल और प्रियंका बच्चे थे । सोनिया गांधी भारतीय राजनीति से अनभिज्ञ थीं । राजीव गांधी ने इण्डियन एयरलाइंस का पायलट का पद त्याग कर तुरन्त प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली ।

इसमें तबके राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की अहम भूमिका थी, यद्यपि बाद में राजीव गांधी से भी उनका कई मामलों में टकराव हुआ । आडवाणी जी ताकते ही रह गये उनका स्थान नरेंद्र मोदी ने छीन लिया ऐसा, आडवाणी भक्त कहते हैं ।

असल में पंजाब की जीत के बाद आम आदमी पार्टी के हौंसले बुलंद हैं । मध्य प्रदेश के सिंगरौली में उसने स्थानीय निकाय के चुनाव में अध्यक्ष पद जीत लिया है । गोवा में दो 4 सीटें जीती हैं । उत्तराखण्ड ब्लैक रहे । गुजरात में एक-दो स्थानों पर स्थानीय निकाय के चुनावों में जीत हासिल की है ।

मध्यप्रदेश में भी स्थानीय निकायों में कहीं-कहीं आम आदमी पार्टी जीती है । परन्तु यह पार्टी का श्रेय नहीं है, जीतने वाले की व्यक्तिगत जीत है भाजपा के पास राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन है । दक्षिण में उड़ीसा, बंगाल तथा उत्तर पूर्व में आर.एस.एस. के कार्यकर्ता ही भाजपा को बल दे रहे हैं । आज भाजपा में अंतर्कलह भी है यद्यपि यह समाचार पत्रों की सुर्खियां नहीं बनती ।

कहते हैं अमित शाह और राजनाथ में दूसरे स्थान को लेकर खींचातानी है, यद्यपि इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि मोदी जी एक दिन के लिए भी छुट्टी पर जाने वाले नहीं हैं । जब वे विदेशों में रहते हैं तब भी भारत में कोई कार्यवाहक प्रधानमंत्री नहीं रहता जबकि प्रशासन की दृष्टि से ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये ।

सन् 2014 में भी अरविन्द केजरीवाल मोदी जी के खिलाफ लड़े थे । तब कांग्रेस, सपा, बसपा सभी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर रखे थे अत: विपक्ष के वोट बंट गये । यूं मोदी जी ने 2014 का चुनाव दो जगह से लड़ा था बनारस और गुजरात से । परन्तु वे बनारस की जीत के लिए पूरी तरह आश्वस्त थे ।

असल में मोदी जी को टक्कर देना आसान नहीं है । एक तो उनका अपना व्यक्तित्व है, करिश्माई हैं, अच्छा भाषण देते हैं, देश में लाभार्थियों को वोट बैंक बना लिया है फिर आर.एस.एस. के कार्यकर्ताओं की भीड़ है ।

विपक्ष बंटा हुआ है । जब सोनिया जी और राहुल पर ईडी का छापा पड़ता है तो वह कहते हैं कि इन एजेन्सियों का दुरुपयोग हो रहा है, परन्तु जब मनीष सिसोदिया पर छापा पड़ता है तो वह आम आदमी पार्टी के विरोध में होते हैं और कहते हैं कि सीबीआई ने छापा डाला ! जहां तक भाजपा का सवाल है उनके प्रवक्ता जिस भाषा का प्रयोग टी.वी. चैनलों पर कर रहे हैं, वह भारतीय प्रजातंत्र के लिए चिंता का विषय है ।

ये प्रवक्ता कैसे कह सकते हैं कि अरविन्द केजरीवाल या सिसोदिया ने पैसों का गबन किया है ? यह काम कोर्ट का है । भारत के चीफ जस्टिस कई बार कह चुके हैं कि मीडिया ट्रायल नहीं होना चाहिए । पर प्रधानमंत्री चुप हैं वैसे वे सबसे ज्यादा मुखर प्रधानमंत्री माने जाते हैं । राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष का बिखरापन साफ-साफ झलक गया ।

यदि मोदी जी को टक्कर देनी है तो सभी विपक्षी को एकजुट होना होगा, तब भी मोदी जी को हराना आसान नहीं है कोई ऐसा चमत्कार हो जाए तो बात दूसरी है । असल में आम आदमी पार्टी दिवास्वप्न देख रही है ।

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कांग्रेस के लिए फैसले की घड़ी

अजीत द्विवेदी – पिछले तीन साल से कांग्रेस पार्टी जिस असहज स्थिति को टाल रही थी वह स्थिति आ गई है। अब कांग्रेस को तय करना है कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा? कांग्रेस को यह भी तय करना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी क्या रणनीति होगी? उसे यह भी तय करना है कि वह लोकप्रिय विमर्श को लेकर आगे बढ़ेगी या अलोकप्रिय होने का जोखिम लेकर अपने सिद्धांतों पर चलेगी। कांग्रेस को कई और फैसले करने हैं लेकिन ये तीन चीजें सबसे मुख्य हैं।

सबसे पहले अध्यक्ष, फिर सिद्धांत और तब चुनावी रणनीति। इन तीनों पर इस समय चर्चा का करने का मकसद यह है कि कांग्रेस ये तीनों फैसले करने के मुहाने पर खड़ी है। उसे अगले कुछ दिनों में ये तीनों फैसले करने हैं। कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष का फैसला तीन साल से टाल रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने 2019 में इस्तीफा दे दिया था। तब से सोनिया गांधी खराब सेहत के बावजूद अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर काम कर रही हैं।

अब कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष चुने जाने का समय आ गया है। कांग्रेस की पिछली कार्य समिति की बैठक में तय हुआ था कि 20 अगस्त से 21 सितंबर के बीच अध्यक्ष चुना जाएगा। सो, उम्मीद करनी चाहिए कि 21 सितंबर से पहले पार्टी को नया अध्यक्ष मिल जाएगा। कांग्रेस को जो तीन फैसले करने हैं उनमें सबसे अहम यहीं है कि कौन होगा पार्टी का अध्यक्ष? राहुल गांधी की कमान में कांग्रेस ने 2018 में हुए राज्यों के चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था।

कर्नाटक में पांच साल की एंटी इन्कंबैंसी के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा था और उसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जीत हासिल की थी। लेकिन 2019 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी, जिसके बाद राहुल ने इस्तीफा दे दिया। कह सकते हैं कि चुनावी प्रदर्शन के लिहाज से राहुल की अध्यक्षता में कोई कमी नहीं है। वैसे भी डीफैक्टो अध्यक्ष के रूप में वे ही काम कर रहे हैं। सो, वे अध्यक्ष बन जाएं तो कांग्रेस में पिछले कई सालों से बनी अनिश्चितता खत्म हो जाएगी।

परंतु इसके दूसरे खतरे हैं। भाजपा को यह कहने का मौका मिलेगा कि कांग्रेस में अध्यक्ष पद एक परिवार के लिए आरक्षित है। ध्यान रहे पिछले 24 साल से दो साल के राहुल के कार्यकाल को छोड़ दें तो सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं। यानी 24 साल से दो लोग अध्यक्ष हैं, जबकि भाजपा में इन 24 सालों में नौ अध्यक्ष बने हैं।

इससे यह संदेश जाता है कि भाजपा में कोई भी अध्यक्ष बन सकता है, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। इस धारणा को तोडऩे के लिए नेहरू-गांधी परिवार की जगह किसी दूसरे नेता को अध्यक्ष बनाया जा सकता है।

इसका पहला फायदा ये है कि कम से कम सैद्धांतिक रूप से यह कहने का मौका मिलेगा कि कांग्रेस एक परिवार की पार्टी नहीं है। दूसरे, राहुल गांधी के ऊपर से फोकस हटेगा। अभी सत्तारूढ़ भाजपा के हमले का एकमात्र निशाना राहुल हैं, जबकि किसी और को अध्यक्ष बनाने पर एक दूसरा चेहरा भी मिलेगा, जिस पर हमले होंगे। फोकस हटने के बाद राहुल संगठन और प्रचार के काम पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे। एक फायदा यह भी हो सकता है कि मीडिया उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना बंद करे। अगर नहीं बंद करे तो उनको आगे बढ़ कर यह ऐलान करना चाहिए कि वे किसी हाल में पीएम पद की रेस में नहीं हैं।

अगर नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता अध्यक्ष बनता है तो क्या होगा? इंदिरा और राजीव गांधी का युग समाप्त होने के बाद परिवार से बाहर के दो लोग अध्यक्ष बने थे। पहले पीवी नरसिंह राव और फिर सीताराम केसरी। इन दोनों के साथ सोनिया गांधी का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। दोनों ने सोनिया गांधी को हाशिए में डालने और पार्टी अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया था।

यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर नरसिंह राव को एक कार्यकाल और मिल जाता तो कांग्रेस पार्टी स्थायी रूप से नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से निकल जाती। यह संयोग हुआ कि कांग्रेस चुनाव हार गई और उसके बाद सीताराम केसरी अध्यक्ष बने।

उनके नियंत्रण से भी सोनिया और उनके करीबियों ने कांग्रेस को कैसे निकाला यह लंबी कहानी है। तभी परिवार में बाहरी किसी नेता को लेकर हिचक है। हालांकि तब यह स्थिति थी कि सोनिया ने कभी राजनीति नहीं की थी और राहुल व प्रियंका दोनों बच्चे थे। अब स्थिति बदल गई है। अब सोनिया व राहुल दोनों अध्यक्ष रह चुके हैं और सोनिया अपनी क्षमता से कांग्रेस को दो बार केंद्र की सत्ता में बैठा चुकी हैं।

इसलिए कोई बाहरी नेता अध्यक्ष बना तब भी वह पार्टी पर कब्जा करने की नहीं सोच सकता है। इसलिए जिस तरह भाजपा में पार्टी का चाहे जो भी अध्यक्ष हो वह शीर्ष नेताओं के हिसाब से काम करता है वैसी ही स्थिति सोनिया और राहुल कांग्रेस में बना सकते हैं।

दूसरा फैसला सिद्धांत बनाम लोकप्रिय विमर्श का है। कांग्रेस शुरू से सर्वधर्म समभाव की राजनित करती रही है और इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जुड़वाए थे। अभी लोकप्रिय विमर्श पूंजीवाद को बढ़ावा देने और एक धर्म की सत्ता स्थापित करने का है। कुछ समय तक राहुल गांधी ने यह राजनीति की है।

उन्होंने भी चारों धामों की यात्रा की है और जनेऊ दिखा कर अपनी जाति व गोत्र भी बताया है। इतना करने के बाद भी लेफ्ट पार्टियों के बाद कांग्रेस इकलौती बड़ी पार्टी है, जिसने गुजरात में बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई का विरोध किया। सो, कांग्रेस अब भी मतदाताओं के मूड और अपने पारंपरिक सिद्धांतों व मान्यताओं के बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रही है।

लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा कि देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी चुनाव जीतने की हड़बड़ी में लोकप्रिय विमर्श को अपनाने का लोभ न पाले।

उसे राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बरक्स जन सरोकार के मुद्दे उठा कर उन्हीं को राष्ट्रवाद के मुद्दों में तब्दील करना होगा। अपनी भारत जोड़ो यात्रा से पहले राहुल गांधी ने जिस तरह सिविल सोसायटी के लोगों के साथ संवाद किया वह आश्वस्त करने वाला है कि कांग्रेस भटक नहीं रही है। यह जोखिम का काम था क्योंकि सिविल सोसायटी को सोशल मीडिया में टुकड़े टुकड़े गैंग के तौर पर स्थापित किया गया है।

तीसरा फैसला अगले चुनाव की रणनीति को लेकर करना है। कांग्रेस के लोग कह सकते हैं कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद जैसी स्थितियां बनेंगी उसके हिसाब से यह फैसला होगा।

लेकिन सवाल है कि क्या तब तक बाकी पार्टियां बैठ कर इंतजार करेंगी? अगर कांग्रेस को अपनी यात्रा के बाद ही फैसला करना है तब भी उसे देश की समान विचारधारा वाली सभी पार्टियों से संवाद करना होगा।

उनकी राय लेनी होगी। अगर उन्हें कांग्रेस की कमान में अगला चुनाव लडऩे में आपत्ति है तो उस पर ईमानदारी से ध्यान देना होगा। सबसे बड़ी पार्टी होने के नेता कांग्रेस नेतृत्व करने को अगर स्वाभाविक हक मानती है तो यह नुकसानदेह हो सकता है। उसे इस पर आम सहमति बनानी होगी।

दूसरी ओर किसी अन्य पार्टी के नेता के दावे को स्वीकार करके लडऩा भी कांग्रेस के लिए नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए उस स्थिति से भी बचना है।

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सियासी ड्रामे का ओवरडोज!

अजीत द्विवेदी – आम आदमी पार्टी का बनना और एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित होना एक बेहद नाटकीय घटनाक्रम रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन से निकली यह पार्टी एक धारणा का प्रतिनिधित्व करती है। वह धारणा मीडिया और प्रचार के जरिए लोगों के दिमाग में बैठाई गई है।

अन्ना हजारे का आंदोलन भी प्रचार के जरिए किया गया एक इवेंट था, जिससे देश भर के लोगों में यह धारणा बनाई गई की तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार भ्रष्ट है और उसे बदल देना है। राष्ट्रीय स्तर पर इसका फायदा भाजपा व नरेंद्र मोदी को मिला और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने इसका फायदा उठाया।

यह संयोग है कि उसी समय से नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों अपनी नाटकीयता से और प्रचार तंत्र के जरिए धारणा बनाने-बिगाडऩे की राजनीति में ही लगे रहे।

अब इस नाटकीयता या सियासी ड्रामे का ओवरडोज हो रहा है। हर बात को लेकर ऐसा ड्रामा रचा जा रहा है, इस तरह की बयानबाजी हो रही है और उसका इतना प्रचार हो रहा है कि वास्तविक मैसेज कहीं विलीन हो जा रहा है। सरकारी साधनों के दम पर आम आदमी पार्टी ने प्रचार का ऐसा तंत्र विकसित किया है कि उसे अपनी हैसियत से कई गुना ज्यादा मीडिया कवरेज मिलती है और ज्यादातर मामलों में सकारात्मक मीडिया कवरेज मिलती है, जिसके दम पर वह वास्तविक घटनाक्रम को दरकिनार कर अपनी पसंद का नैरेटिव स्थापित करने में कामयाब हो जाती है।

राजनीति में नाटकीयता और नेता में अभिनय क्षमता की जरूरत होती है। लेकिन उसकी सीमा होती है। कोई नेता सारे समय अभिनय करता नहीं रह सकता है। फिल्म अभिनेता हर समय अपने कैरेक्टर में रहते हैं। वे वास्तविक जीवन में भी अभिनय ही कर रहे होते हैं। ज्यादातर समय लिखित संवाद बोलते हैं। ड्रामे का कुछ वैसा ही ओवरडोज आम आदमी पार्टी की राजनीति का हो रहा है। उसके नेता सारे समय लिखित पटकथा के मुताबिक काम कर रहे होते हैं और उसी के अनुरूप संवाद बोल रहे होते हैं।

हर राजनीतिक घटना को इवेंट में तब्दील करते हैं और उसका फायदा लेने वाले नैरेटिव गढ़ कर मीडिया के जरिए उसका प्रचार कराते हैं। प्रचार का बजट बेहिसाब बढ़ा कर पार्टी की दिल्ली सरकार ने मीडिया के एक बड़े हिस्से को वश में किया है, जो उसकी नाटकीयता का प्रचार करता है। हर नेता में एक अभिनेता होता है और हर राजनीति में कुछ नाटकीयता होती है लेकिन उसकी सीमा है। आप की राजनीति उस सीमा का अतिक्रमण करके काफी आगे निकल गई है।

अभी दिल्ली की नई शराब नीति को लेकर मनीष सिसोदिया के यहां सीबीआई के छापे का मामला देखें तो आम आदमी पार्टी का हर नेता अलग अलग नाटक में लगा है। एक प्रहसन में अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को पीडि़त बता कर शहीद का दर्जा दिया जा रहा है तो एक प्रहसन में सिसोदिया को महाराणा प्रताप का वंशज बता कर नायक बनाया जा रहा है।

पूरे मामले में वस्तुनिष्ठ तरीके से कोई बात नहीं कर रहा है। आम आदमी पार्टी ने या मनीष सिसोदिया ने एक बार यह नहीं कहा है कि नई शराब नीति एक नीतिगत फैसला था, पूरी कैबिनेट ने फैसला किया था और हम उस फैसले पर कायम हैं।

यह भी नहीं कहा जा रहा है कि उस नीतिगत फैसले में क्या कमी थी, जिसकी वजह से उसे वापस लिया गया। यह भी नहीं कहा जा रहा है कि किसी सरकार के नीतिगत फैसले के ऊपर कोई मुकदमा कैसा हो सकता है, अगर उस फैसले से किसी व्यक्ति ने या पार्टी ने निजी लाभ अर्जित नहीं किया है? अपनी नीति का बचाव करने या केंद्रीय एजेंसी की कार्रवाई का तर्कपूर्ण तरीके से जवाब देने की बजाय भावनात्मक बातें की जा रही हैं, शौर्यगाथा सुनाई जा रही है और ड्रामे किए जा रहे हैं।

किसी व्यक्ति ने सोशल मीडिया में ट्विट किया कि सिसोदिया महाराणा प्रताप के वंशज हैं तो उस ट्विट के अरविंद केजरीवाल ने रिट्विट किया और इस पर मुहर लगाई। सवाल है कि अगर वे महाराणा प्रताप के वंशज नहीं होते तो क्या उनके ऊपर कार्रवाई जायज हो जाती या तब पार्टी का जवाब देने का अंदाज अलग होता? जब सत्येंद्र जैन गिरफ्तार हुए तब केजरीवाल ने क्यों नहीं कहा था कि वे भगवान महावीर के वंशज हैं? यह कैसी जातीय मानसिकता है, जिसमें बचाव में अपनी जाति के गौरव का गान हो?

जिस दिन से छापा पड़ा है उस दिन से अलग अलग नाटक चल रहे हैं। पहले दिन यह प्रहसन चला कि सिसोदिया दुनिया के नंबर वन शिक्षा मंत्री हैं। हो सकता है कि वे ब्रह्मांड के नंबर वन शिक्षा मंत्री हों लेकिन उसका शराब नीति से क्या लेना-देना है! पार्टी शराब नीति पर जवाब क्यों नहीं दे रही है? इसके अगले दिन लुकआउट सरकुलर की खबर आई तो उस पर नाटक हुआ।

सीबीआई ने सिसोदिया के खिलाफ सरकुलर नहीं जारी किया था, लेकिन सिर्फ मीडिया के सहारे राजनीति करने वाली पार्टी के नेताओं ने इस पर प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। सिसोदिया ने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हुए कहा कि ‘यह क्या नाटक है, मैं दिल्ली में घूम रहा हूं और आपको मिल नहीं रहा हूं’! सोचें, क्या दिल्ली के उप मुख्यमंत्री को लुकआउट सरकुलर का मतलब नहीं पता है?

क्या वे भगोड़ा घोषित किए जाने या वारंट जारी होने और लुकआउट नोटिस में फर्क नहीं समझते? लुकआउट नोटिस का सरल मतलब यह होता है कि व्यक्ति देश से बाहर नहीं जा सकता है। सोचें, सिसोदिया के खिलाफ नोटिस जारी भी नहीं हुआ लेकिन पार्टी ने पूरी कथा कह डाली।

इसके बाद खुद को विक्टिम बताते हुए सिसोदिया ने कहा कि ‘हम काम करना तभी बंद करेंगे, जब हमें जान से मार दिया जाएगाÓ। इसके अगले दिन यानी तीसरे दिन यह नैरेटिव बनाया गया कि भाजपा ने सिसोदिया को कहा था कि वे आप तोड़ कर भाजपा के साथ चले जाएं तो सारे केस खत्म कर देंगे। यहीं बात कहते हुए शिव सेना के नेता संजय राउत जेल गए।

उन्होंने भी कहा था कि भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि वे शिव सेना तोड़ दें तो सारे मुकदमे खत्म कर दिए जाएंगे। चाहे संजय राउत हों या सिसोदिया हों उनके इस तरह के बयानों से विपक्ष को फायदा हो सकता है। यह नैरेटिव बन सकता है कि भाजपा विपक्षी पार्टियों को तोडऩे के लिए केस करा रही है, एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है।

लेकिन अगर सिसोदिया यह बताते कि किसने उनको मैसेज दिया, कब दिया और कैसे दिया तो ज्यादा विश्वसनीयता बनती। अभी यह सिर्फ प्रचार पाने का तरीका लग रहा है। इससे आरोप की विश्वसनीयता नहीं बनती, बल्कि आरोप हास्यास्पद हो जाते हैं।

पिछले कुछ दिनों से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अद्भुत नाटकीयता दिखा रहे हैं। छत्रसाल स्टेडियम में 15 अगस्त के भाषण और उसके दो दिन बाद तालकटोरा स्टेडियम में ‘मेक इंडिया नंबर वन’ मिशन लांच करते समय दिया गया भाषण इसकी मिसाल है।

केजरीवाल ने तरह तरह की भाव भंगिमा बनाते हुए कहा कि भगवान ने भारत के लोगों को बेस्ट बनाया, भगवान ने भारत के लोगों को सबसे इंटेलीजेंट बनाया, भगवान ने भारत को बनाते समय इसे सब कुछ दिया, पहाड़ दिए, नदियां दीं, जंगल और खनिज दिए। दिल्ली में बैठ कर वे जिस तरह से देश की जनता को संबोधित कर रहे हैं उससे उनकी अति महत्वाकांक्षा जाहिर होती है। असल में ऐसा लग रहा है कि नाटक करते करते आम आदमी पार्टी के नेता उसे हकीकत समझने लगे हैं और उसी में जीने लगे हैं।

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तेजस्वी यादव की नई पहल

वेद प्रताप वैदिक – बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अपने दल के मंत्रियों के लिए एक नई आचार-संहिता जारी की है, जो मेरे हिसाब से अधूरी है लेकिन बेहद सराहनीय है। सराहनीय इसलिए कि हमारे नेता ही देश में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े स्त्रोत हैं। यदि उनमें आचरण की थोड़ी-बहुत शुद्धता शुरु होने लगे तो धीरे-धीरे भारतीय राजनीति का शुद्धिकरण काफी हद तक हो सकता है। फिलहाल तेजस्वी ने अपने मंत्रियों से कहा है कि वे बुजुर्गों से अपने पांव छुआना बंद करें। उन्हें खुद नमस्कार करें।

हमारे देश में अपने से बड़ों के पांव छूने की जो परंपरा है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। जापान में कमर तक झुकने, अफगानिस्तान में गाल पर चुम्मा जमाने और अरब देशों में एक-दूसरे के गालों को छुआने की परंपरा मैंने देखी है लेकिन अपने भारत की इस महान परंपरा को सत्ता, पैसा, हैसियत और स्वार्थ के कारण लोगों ने शीर्षासन करवा रखा है। देश के कई वर्गो के लोगों को मैंने देखा है कि वे अपने से उम्र में काफी बड़े लोगों से अपना पांव छुआने में जरा भी संकोच नहीं करते बल्कि वे इस ताक में रहते हैं कि बुजुर्ग उनके पांव छुएं तो उनके बड़प्पन का सिक्का जमे।

बिहार और उत्तरप्रदेश में तो मंत्रियों, सांसदों और साधुओं के यहां ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं। तेजस्वी यादव इस कुप्रथा को रूकवा सकें तो उन्हें यह बड़ा नेता बनवा देगी। तेजस्वी ने दूसरी सलाह अपने मंत्रियों को यह दी है कि वे आगंतुकों से उपहार लेना बंद करें। उनकी जगह कलम और किताबें लें। कितनी अच्छी बात है, यह? लेकिन नेता उन किताबों का क्या करेंगे? किताबों से अपने छात्र-काल में दुश्मनी रखने वाले ज्यादातर लोग ही नेता बनते हैं।

तेजस्वी की पहल पर अब वे कुछ पढऩे-लिखने लगें तो चमत्कार हो जाए। वरना होगा यह कि वे किताबें भी अखबारों की रद्दी के साथ बेच दी जाएंगी। डर यह भी है कि अब मिठाई के डिब्बों की बजाय किताबों के डब्बे मंत्रियों के पास आने लगेंगे और उन डिब्बों में नोट भरे रहेंगे। तेजस्वी ने तीसरी पहल यह की है कि मंत्रियों से कहा है कि वे अपने लिए नई कारें न खरीदवाएं। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन यह काफी नहीं है। तेजस्वी चाहें तो नेताओं के आचरण को आदरणीय और आदर्श भी बनवाने की प्रेरणा दे सकते हैं।

पहला काम तो वे यह करें कि सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म करवाएं। दूसरा, उन्हें सरकारी मकानों में न रहने दें। अब से 50-55 साल पहले वाशिंगटन में मैं 45 डालर महिने के जिस कमरे में रहता था, उसी के पास तीन कमरों में अमेरिका के कांग्रेसमेन और सीनेटर भी किराये पर रहते थे। तेजस्वी खुद बंगला छोड़ें तो बाकी मंत्री भी शर्म के मारे भाग खड़े होंगे।

हमारी राजनीति को यदि भ्रष्टाचार से मुक्त करना है तो हमारे नेताओं को अचार्य कौटिल्य और यूनानी विद्वान प्लेटो के ‘दार्शनिक राजाओंÓ के आचरण से सबक लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ली, तब कहा था कि वे देश के ‘प्रधान सेवकÓ हैं। तेजस्वी इस कथन को ठोस रूप देकर क्यों न दिखाएं? यदि वे ऐसा कर सकें तो पिछड़ा हुआ बिहार भारत-गुरु बन जाएगा।

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धनखड़ की जीत : जगदीप धनखड़ उप-राष्ट्रपति तो बन गए हैं

वेद प्रताप वैदिक – जगदीप धनखड़ उप-राष्ट्रपति तो बन गए हैं लेकिन उनके चुनाव ने देश की भावी राजनीति के अस्पष्ट पहलुओं को भी स्पष्ट कर दिया है। सबसे पहली बात तो यह कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला है। उन्हें कुल 528 वोट मिले और मार्गेट अल्वा को सिर्फ 182 वोट याने उन्हें लगभग ढाई-तीन गुने ज्यादा वोट! भाजपा के पास इतने सांसद तो दोनों सदनों में नहीं हैं। फिर कैसे मिले इतने वोट? जो वोट तृणमूल कांग्रेस के धनखड़ के खिलाफ पडऩे थे, वे नहीं पड़े। वे वोट तटस्थ रहे।

इसका कोई कारण आज तक बताया नहीं गया। धनखड़ ने राज्यपाल के तौर पर मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी की जैसी खाट खड़ी की, वैसी किसी मुख्यमंत्री की क्या किसी राज्यपाल ने आज तक की है? इसी कारण भाजपा के विधायकों की संख्या बंगाल में 3 से 73 हो गई। इसके बावजूद ममता के सांसदों ने धनखड़ को हराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की। इसका मुख्य कारण मुझे यह लगता है कि ममता कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थक के तौर पर बंगाल में दिखाई नहीं पडऩा चाहती थीं।

इसका गहरा और दूरगामी अर्थ यह हुआ कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को ममता नेता की भूमिका नहीं देना चाहती हैं याने विपक्ष का भाजपा-विरोधी गठबंधन अब धराशायी हो गया है। कई विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने भी धनखड़ का समर्थन किया है। हालांकि राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति का पद पार्टीमुक्त होता है लेकिन धनखड़ का व्यक्तित्व ऐसा है कि उसे भाजपा के बाहर के सांसदों ने भी पसंद किया है, क्योंकि वी. पी. सिंह की सरकार में वे मंत्री रहे हैं, कांग्रेस में रहे हैं और भाजपा में भी रहे हैं। उनके मित्रों का फैलाव कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रांतीय पार्टियों में भी रहा है।

वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा होकर अपनी गुणवत्ता के बल पर देश के उच्चतम पदों तक पहुंचे हैं। ममता बनर्जी के साथ उनकी खींच-तान काफी चर्चा का विषय बनी रही लेकिन वे स्वभाव से विनम्र और सर्वसमावेशी हैं। हमारी राज्यसभा को ऐसा ही सभापति आजकल चाहिए, क्योंकि उसमें विपक्ष का बहुमत है और उसके कारण इतना हंगामा होता रहता है कि या तो किसी भी विधेयक पर सांगोपांग बहस हो ही नहीं पाती है या फिर सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाती है।

उप-राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद इस सत्र के अंतिम दो दिन की अध्यक्षता वे ही करेंगे। वे काफी अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं लेकिन अब वे अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए पक्ष और विपक्ष में सदन के अंदर और बाहर तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि भारत की राज्यसभा, जो कि उच्च सदन कहलाती है, वह अपने कर्तव्य और मर्यादा का पालन कर सके। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला और राज्यसभा के अध्यक्ष जगदीप धनखड़ को अब शायद विपक्षी सांसदों को मुअत्तिल करने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

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संस्कृत दिवस पर विशेष : संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है

*विश्व की पहली वैज्ञानिक भाषा संस्कृत*

ललित चतुर्वेदी – संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामण्डलम् द्वारा राज्य स्तर पर सप्ताह का आयोजन रक्षाबंधन के 3 दिन पूर्व और 3 दिवस बाद तक किया जाता है। विभिन्न जयंतियों – वाल्मिकि जयंती, कालीदास जयंती, गीता जयंती, गुरू पूर्णिमा का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में प्रदेश के विद्यालयों की सक्रिय सहभागिता रहती है। संस्कृत दिवस के दिन वेद शास्त्रों की पूजा एवं महत्ता पर चर्चा एवं विद्वत्संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है।

भारत की प्राचीनतम भाषा संस्कृत में भारत का सर्वस्व संन्निहित है। देश के गौरवमय अतीत को हम संस्कृत के द्वारा ही जान सकते हैं। संस्कृत भाषा का शब्द भण्डार विपुल है। यह भारत ही नहीं अपितु विश्व की समृद्ध एवं सम्पन्न भाषा है। भारत का समूचा इतिहास संस्कृत वाड्मय से भरा पड़ा है। आज प्रत्येक भारतवासी के लिए विशेषकर भावी पीढ़ी के लिए संस्कृत का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है।

संस्कृत भाषा ने अपनी विशिष्ट वैज्ञानिकता के कारण भारतीय विरासत को सहेजकर रखने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। संस्कृत ऐसी विलक्षण भाषा है जो श्रुति एवं स्मृति में सदैव अविस्मरणीय है। अतिप्राचीन काल में संरक्षित-संग्रहित भारत की यह विपुल ग्रंथ सम्पदा संस्कृत के कारण ही सुरक्षित रही है। संस्कृत की महत्ता को सम्पूर्ण विश्व ने स्वीकारा है। संस्कृत को भारतीय शिक्षा में अनिवार्य करना आवश्यक है। शिक्षा में इसकी अनिवार्यता को लेकर केन्द्रीय संस्कृत आयोग ने 1959 में – माध्यमिक स्कूलों में संस्कृत को अनिवार्य शिक्षा करने के साथ मातृभाषा तथा क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जाने की अनुसंशा की। संस्कृत शाला एवं संस्कृत महाविद्यालय प्रारंभ करने के लिए शासन द्वारा 90 प्रतिशत की छूट भी प्रदान की गई है।

संस्कृत परिष्कृत, संस्कारित एवं वैज्ञानिक भाषा है। आदिकाल से वेद, रामायण, महाभारत सहित विशिष्ट विषयों को भारतीय मस्तिष्क में संस्कृत के संबल पर सहेज कर रखा है। वेद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ श्रुति एवं स्मृति परिचारों में सुरक्षित रखते हुए आज लिपिबद्ध रूप में गोचर हो रहे हैं। इससे बड़ा प्रमाण कोई नहीं हो सकता।

संस्कृत भाषा का अपना एक वैज्ञानिक महत्व है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार संस्कृत एक सम्पूर्ण वैज्ञानिक भाषा है। प्राचीन भारत में बोल-चाल की भाषा में संस्कृत का ही उपयोग किया जाता था। इससे नागरिक अधिक और मानसिक रूप से अधिक संतुलित रहा करते थे। संस्कृत के मंत्रों का उच्चारण करते समय मानव स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ता है। मंत्रोच्चार के समय वाइब्रेशन से शरीर के चक्र जागृत होते हैं और मानव का स्वास्थ्य बेहतर रहता है। बहुत सी विदेशी भाषाएं भी संस्कृत से जन्मी हैं। फ्रेंच, अंग्रेजी के मूल में संस्कृत निहित है। संस्कृत में सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘ऊँÓ अस्तित्व की आवाज और आंतरिक चेतना एवं ब्रम्हाण्ड का स्वर है। प्राचीन धरोहर की खोज करने का मुख्य मापदण्ड संस्कृत है। संस्कृत की महत्ता को देखते हुए जर्मनी में 14 से अधिक विश्व विद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन कराया जाता है।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि हमारे वेद पुराण और गीता आदि संस्कृत में लिखे गए हैं। हमें अपनी जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए राज्य शासन द्वारा हर संभव सहयोग दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार के प्रयास से संस्कृत शिक्षा की प्रगति हो रही है। संस्कृत अध्ययन प्रोत्साहन राशि संस्कृत शालाओं में पढऩे वाले उत्तर मध्यमा स्कूल प्रथम वर्ष कक्षा 11वीं के विद्यार्थियों को दी गई। इससे कक्षा पहली, छठवीं और 9वीं को दी गई थी। गैर अनुदान प्राप्त संस्कृत शालाओं को स्तरवार वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। इस वर्ष से गैर अनुदान प्राप्त विद्यालयों को उनके प्रत्येक स्तर को जोड़ते हुए वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है।

प्रवेशिका प्राथमिक स्तर को 10 हजार रूपए प्रतिवर्ष, प्रथमा मिडिल स्तर को 20 हजार रूपए प्रतिवर्ष, पूर्व मध्यमा प्रथम एवं उत्तर मध्यमा प्रथम (हाईस्कूल और हायर सेकेण्डरी) को 40 हजार रूपए प्रतिवर्ष की दर से राशि प्रदान की जाती है। केन्द्रीय जेल रायपुर में संस्कृत पाठशाला संचालित की जा रही है और विगत तीन वर्षों से अम्बिकापुर में भी संस्कृत पाठशाला संचालित हो रही है। पन्द्रह वर्ष बाद संस्कृत उत्तर मध्यमा कक्षा को छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा कक्षा 12वीं के समकक्ष मान्यता प्रदान की गई।

भारतीय विरासत के संरक्षण के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के दिग्दर्शन में आयुर्वेद, योग, प्रवचन, वेद, ज्योतिष जैसे संस्कृत के वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन-अध्यापन संस्कृत पाठशालाओं में किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ की संस्कृत पाठशालाओं में पढऩे वाले विद्यार्थियों को संस्कृत में शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ आधुनिक विषयों जैसे गणित, विज्ञान, वाणिज्य आदि का समन्वित ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। प्रदेश में संस्कृत पढऩे वाले विद्यार्थी किसी भी क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ हैं।

प्रदेश में संस्कृत का अतीत समृद्ध है। यहां बलौदाबाजार में तुरतुरिया महर्षि वाल्मीकि और सरगुजा जिले के उदयपुर में रामगढ़ की पहाडिय़ां महाकवि कालीदास का क्षेत्र माना जाता है। प्रदेश रामायणकालीन एवं महाभारतकालीन धरमकर्मों से जुड़ा हुआ है। यहां का बड़ा भू-भाग दण्डकारण्य क्षेत्र में आता है, जो ऋषियों का क्षेत्र कहा गया है।

छत्तीसगढ़ वासियों का आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार संस्कृत से पुरित हैं।

प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री एवं अध्यक्ष छत्तीसगढ़ संस्कृत विद्यामण्डलम् डॉ. प्रेमसाय सिंह टेकाम संस्कृत के विकास के लिए निरंतर प्रयासरत् है। राज्य के पांच जिलों में संचालित आठ शासकीय अनुदान प्राप्त विद्यालयों को शासन के द्वारा सहायता प्रदान की जाती है। इनमें रायपुर के गोलबाजार में संचालित श्रीराम चन्द्र संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, बिलासपुर में निवास संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, रायगढ़ जिले के लैलुंगा में रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय, रायगढ़ के गहिरा में रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय और गहिरा में ही रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, जशपुर जिले दुर्गापारा में रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सामरबार और रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत पूर्व माध्यमिक विद्यालय सामरबार, बलरामपुर जिले के जवाहर नगर में रामेश्वर गहिरा गुरू संस्कृत उच्चतर माध्यमिक विद्यालय श्रीकोट शामिल हैं। प्रदेश में एक शासकीय संस्कृत विद्यालय गरियाबंद जिले के राजिम में संचालित है।

(लेखक उप संचालक हैं)

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अपने ही कर्म भोग रही कांग्रेस

अजीत द्विवेदी – सर्वोच्च अदालत ने नाउम्मीद किया। उम्मीद की जा रही थी कि प्रवर्तन विदेशालय, ईडी के असीमित अधिकारों को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत अपने पुराने फैसलों का ध्यान रखेगी और इसके अधिकारों को तर्कसंगत बनाने का फैसला सुनाएगी। लेकिन अदालत ने इसके हर अधिकार को न्यायसंगत ठहराया। छापा मारने, गिरफ्तार करने और संपत्ति जब्त करने के उसके अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने एब्सोल्यूट यानी संपूर्ण माना। उसे चुनौती नहीं दी जा सकती है।

इसके साथ ही अदालत ने धन शोधन निरोधक कानून यानी पीएमएलए में गिरफ्तार व्यक्ति की जमानत की सख्त शर्तों का भी समर्थन किया। ध्यान रहे यह ऐसा कानून है, जिसमें अपनी बेगुनाही का सबूत जुटाने का जिम्मा आरोपी का होता है। बाकी मामलों में पुलिस या प्रवर्तन एजेंसी आरोपी को दोषी साबित करने के सबूत जुटाती है लेकिन इसमें आरोपी को बेगुनाही का सबूत जुटाना होता है। ऐसा कोई सबूत सामने आने पर ही जमानत का प्रावधान है।

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने जमानत के इस प्रावधान को गलत माना था और इस पर सवाल उठाए थे। पांच साल पहले जस्टिस रोहिंटन नॉरीमन और जस्टिस संजय किशन कौल की बेंच ने पीएमएलए के मामले में जमानत के प्रावधान को मनमाना और असंवैधानिक करार दिया था। दोनों जजों ने कहा था कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्याय की बुनियादी धारणा किसी भी आरोपी को तब तक बेगुनाह मानने की है, जब तक कि उसका अपराध प्रमाणित नहीं होता है।

यानी अपराधी साबित होने तक हर आरोपी बेगुनाह होता है। यह इकलौता मामला नहीं है, जिसमें सर्वोच्च अदालत ने ईडी से जुड़े कानूनों को लेकर इस तरह की टिप्पणी की हो। सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख को लेकर अहम फैसला सुनाया था। असल में प्रवर्तन निदेशक के एक साल के सेवा विस्तार को अदालत में चुनौती दी गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एल नागेश्वर राव की बेंच ने कहा था कि सेवा विस्तार की अवधि खत्म होने में दो महीने बचे हैं इसलिए उनको पद पर रहने दिया जाए लेकिन सरकार आगे उनको सेवा विस्तार न दे।

उन्होंने यह भी कहा था कि सेवा विस्तार देना सरकार का अधिकार है लेकिन ऐसा बहुत विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद भी केंद्र सरकार ने प्रवर्तन निदेशक को सेवा विस्तार ही नहीं दिया, बल्कि सेवा विस्तार का नया कानून बना दिया, जिसके तहत किसी भी एजेंसी के अधिकारी को उसकी नौकरी समाप्त होने के बाद पांच साल तक एक-एक साल का सेवा विस्तार दिया जा सकता है। तभी उम्मीद थी कि जस्टिस नॉरीमन और जस्टिस नागेश्वर राव के दो अलग अलग फैसलों की रोशनी में जस्टिस एएम खानविलकर की बेंच ईडी के अधिकारों पर विचार करेगी और उसमें कुछ कटौती करेगी ताकि विपक्षी पार्टियों के खिलाफ उसे हथियार की तरह इस्तेमाल होने से रोका जा सके।

लेकिन तीन जजों की बेंच ने ईडी के एब्सोल्यूट अधिकार को बरकरार रखा।एक तरफ ईडी के पास बिना कोई कागज दिखाए छापा मारने, गिरफ्तार करने, संपत्ति जब्त करने और आरोपी को लंबे समय तक हिरासत में रखने का अधिकार है तो दूसरी ओर सरकार के पास अधिकार है कि वह इस एजेंसी के प्रमुख पद पर एक-एक साल का सेवा विस्तार देकर किसी खास अधिकारी को बैठाए रखे। सोचें, इससे कितना कुछ बदल जाता है। सेवा विस्तार पर काम कर रहे अधिकारी की नौकरी तलवार की धार पर होती है।

उसे किसी भी समय हटाया जा सकता है। रिटायर होने के साथ ही उसकी गारंटीशुदा सेवा समाप्त हो जाती है फिर वह सेवा विस्तार देने वाले राजनीतिक प्रमुख की कृपा से नौकरी कर रहा होता है। इसलिए उससे वस्तुनिष्ठ तरीके से कानून के पालन की उम्मीद कम हो जाती है। तभी यह अनायास नहीं है कि आज ईडी देश की सर्वाधिक चर्चित एजेंसी हो गई है। देश का शायद ही कोई विपक्षी दल होगा, जिसके नेताओं के खिलाफ ईडी की कार्रवाई नहीं चल रही है।असल में सीबीआई या किसी दूसरी एजेंसी के मुकाबले ईडी का इस्तेमाल आसान और ज्यादा प्रभावी है। याद करें कैसे दो साल पहले 2020 में देश के करीब आठ राज्यों ने सीबीआई को दिया गया जनरल कन्सेंट वापस ले लिया था।

इसका मतलब था कि सीबीआई अपने आप उन राज्यों में जाकर जांच नहीं कर सकती थी। सो, सीबीआई का इस्तेमाल मुश्किल हो गया था। दूसरी एजेंसी आयकर विभाग है, लेकिन उसका इस्तेमाल उतना प्रभावी नहीं है क्योंकि उसके पास सख्त कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। इन दोनों के मुकाबले ईडी का इस्तेमाल आसान भी है और बहुत प्रभावी भी है। केंद्र सरकार इसका प्रभावी इस्तेमाल कर भी रही है। तभी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि ईडी ने पूरे देश में आतंक मचा रखा है।

अब सवाल है कि ईडी नाम के हथियार का निर्माण किसने किया? किसने आर्थिक अपराध की जांच करने वाली एक एजेंसी को इतने अधिकार दिए? किसने आर्थिक अपराध के लिए इतनी सख्त सजा के प्रावधान किए? और सबसे बड़े सवाल है कि किसने एक केंद्रीय एजेंसी का हथियार के तौर पर इस्तेमाल शुरू किया? इन सभी सवालों का जवाब है- कांग्रेस। ईडी का गठन 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय हुआ था।

लेकिन इसे हथियार बनाने, बेलगाम करने और असीमित अधिकार देने का काम कांग्रेस ने किया। याद करें कैसे 2009 से 2012 के बीच कांग्रेस ने झारखंड में मधु कोड़ा से लेकर आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार से लेकर महाराष्ट्र में अपने ही नेताओं के खिलाफ इस एजेंसी का इस्तेमाल किया। कांग्रेस इस बात की शिकायत कर सकती है कि भाजपा की केंद्र सरकार ज्यादती कर रही है। लेकिन सवाल कम या ज्यादा का नहीं है।

आर्थिक अपराध की जांच करने वाली एक एजेंसी को असीमित अधिकार देकर उसके इस्तेमाल की शुरुआत कांग्रेस ने की थी और भाजपा की सरकार उसी रास्ते पर चल रही है। कांग्रेस ने अपने दूसरे कार्यकाल में पी चिदंबरम के गृह मंत्री रहते एनआईए का गठन किया था और उसे भी इसी तरह के अधिकार दिए थे। आज एनआईए का भी हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है।

कांग्रेस ने संविधान से नागरिकों को मिले अधिकारों को दबाने वाले अधिकार देकर इन एजेंसियों को मजबूत किया था और उसी का खामियाजा आज पूरा विपक्ष उठा रहा है।

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मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में

वेद प्रताप वैदिक – मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में. आजादी के 75 वें साल में मैकाले की गुलामगीरी वाली शिक्षा पद्धति बदलने की शुरुआत अब मध्यप्रदेश से हो रही है। इसका श्रेय मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान और चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग को है। मैंने पिछले साठ साल में म.प्र. के हर मुख्यमंत्री से अनुरोध किया कि मेडिकल और कानून की पढ़ाई वे हिंदी में शुरु करवाएं लेकिन मप्र की वर्तमान सरकार भारत की ऐसी पहली सरकार है, भारत की शिक्षा के इतिहास में जिसका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।

भारत के प्रधानमंत्री, शिक्षा मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री म.प्र. से प्रेरणा ग्रहण करें और समस्त विषयों की उच्चतम पढ़ाई का माध्यम भारतीय भाषाओं को करवा दें तो भारत को अगले एक दशक में ही विश्व की महाशक्ति बनने से कोई ताकत रोक नहीं सकती है। विश्व की जितनी भी महाशक्तियाँ हैं, उनमें उच्चतम अध्ययन और अध्यापन स्वभाषा में होता है। डाक्टरी की पढ़ाई मप्र में हिंदी माध्यम से होने के कई फायदे हैं। पहला तो यही कि फेल होनेवालों की संख्या एकदम घटेगी। दूसरा, छात्रों की दक्षता बढ़ेगी।

70-80 प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम से पढ़कर ही मेडिकल कॉलेजों में भर्ती होते हैं। इन्हें चिकित्सा-पद्धति को समझने में आसानी होगी। तीसरा, मरीज़ों की ठगाई कम होगी। चिकित्सा जादू-टोना नहीं बनी रहेगी। चौथा, मरीज़ों और डाक्टरों की बीच संवाद आसान हो जाएगा। पांचवा, सबसे ज्यादा फायदा उन गरीबों, पिछड़ों, अनुसूचितों के बच्चों को होगा, जो अंग्रेजी के चलते डॉक्टर नहीं बन पातें। मप्र सरकार के चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास नारंग ने मेडिकल शिक्षा की किताबें हिंदी में तैयार करवाने के लिए जो कमेटी बनाई है, उससे मेरा सतत संपर्क बना रहता है।

कुछ पुस्तकें मूल रूप से हिंदी में तैयार हो गई हैं और कुछ के अनुवाद भी हो गए हैं। सितंबर के आखिर में शुरु होने वाले नए सत्र से छात्रों को हिंदी माध्यम की छूट मिल जाएगी। हिंदी की पुस्तकों में अंग्रेजी मूल तकनीकी शब्दों से परहेज नहीं किया जाएगा। जो छात्र अंग्रेजी माध्यम से पढऩा चाहेंगे, उन्हें छूट रहेगी। मप्र के चार हजार मेडिकल छात्रों में से अब लगभग सभी स्वभाषा के माध्यम से पढऩा चाहेंगे। यदि ऐसा होगा तो हिंदी में कई नए-नए मौलिक ग्रंथ भी हर साल प्रकाशित होते रहेंगे।

यदि इस मेडिकल की पढ़ाई को और भी अधिक उपयोगी बनाना हो तो मेरा सुझाव यह भी है कि एक ऐसी नई चिकित्सा-उपाधि तैयार की जाए, जिसमें एलोपेथी, आयुर्वेद, हकीमी, होमियोपेथी और प्राकृतिक चिकित्सा के पाठ्यक्रम मिले-जुले हों ताकि मरीजों का यदि एक दवा से इलाज न हो तो दूसरी दवा से होने लगे। यदि हमारी चिकित्सा में ऐसा कोई क्रांतिकारी परिवर्तन मध्यप्रदेश की सरकार करवा सके तो अन्य प्रदेशों की सरकारें और केंद्र सरकार भी पीछे नहीं रहेगी।

यह विश्व को भारत की अनुपम देन होगी। यह चिकित्सा पद्धति इतनी सुलभ और सस्ती होगी कि भारत और पड़ौसी देशों के गरीब से गरीब लोग इसका लाभ उठा सकेंगे। एक बार फिर दुनिया भर के छात्र डाक्टरी की पढ़ाई के लिए भारत आने लगेंगे, जैसे कि वे सदियों पहले विदेशों से आया करते थे।

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प्रेमचंद जंयती : 31 जुलाई कथा सम्राट प्रेमचंद जंयती पर विशेष

रचनाकारों के लिए साहित्यिक तीर्थ है कलम के सिपाही की जन्मस्थली

विमल शंकर झा – प्रेमचंद : समाज का दर्पण का कहे जाने वाले साहित्य के सृजेताओं की मूल भावना होती है कि है कि एक खूबसूरत दुनिया के सृजन के लिए समाज के श्वेत पक्ष को उजागर कर इसके श्यामल पहलू के विरुद्ध जागरुक किया जाए । इस दृष्टि से कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद भारतीय हिंदी साहित्य जगत के प्रेरणापुंज ही नहीं बल्कि एक अमूल्य धरोहर हैं ।

कर्मभूमि से रंगभूमि तक अपनी जादुई लेखनी से मानवीय संवेदना, समानता और गंगाजमुनी संदेश देने वाले कलम के सिपाही की जन्मभूमि लमही बनारस देश के रचनाधर्मियों के लिए एक तीर्थ की तरह है । लेकिन औद्योगिक तीर्थ के संस्कृतिकर्मियों को इस बात का अफसोस है कि इतने बड़े साहित्यकार की तपोभूमि को देश दुनिया में प्रसिद्धि के बाद भी उस तरह विकसित नहीं किया गया है, जैसा सम्मान विश्वप्रसिद्ध लेखक टालस्टाय, मेक्सिम गोर्की और लूसून के जन्म स्मारकों को उनके देश में मिला है ।

विदेशी दासता के बंधन से देश को मुक्त कराने के साथ समाज को जातपांत और महाजनी सभ्यता के मकडज़ाल से मुक्ति चेतना जगाने में प्रेमचंद के दीर्घ रचनात्मक योगदान का अंदाज उनकी जन्म स्थली से लगाया जा सकता है । गोदान से ईदगाह तक 3 सौ कालजयी कहानियों और 14 उपन्यासों के विपुल कृतित्व व आदर्श व्यक्तित्व की अनूठी हस्ती को अपनी कोख से जन्म देने वाली मिट्टी से सुवासित होना भिलाई के संस्कृतिकर्मियों के लिए खुली आंखों से देखे जाने वाले सपने के सच होने जैसा था ।

रंगकर्मियों और साहित्यकारों के मुताबिक अपनी वैचारिक दृष्टि से साहित्य सृष्टि में विश्व कथा सम्राट की पहचान बनाने वाले कलम के सिपाही की उत्तरप्रदेश के लमही ( बनारस ) में स्थित विश्व प्रसिद्ध जन्मभूमि मुंशी प्रेमचंद जन्म स्मारक अंधेरे में एक प्रकाश स्ंतभ की तरह है । यही वह तपोभूमि है जहां उन्होंने बचपन की शरारतों के बीच साहित्य के बीज उपजे और बरगद की छांव तले गुल्ली डंडा खेलते हुए गुल्ली डंडा कहानी और अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र जैसी कई अमर रचनाएं लिखीं ।

और जहां से आज सदी भर बाद भी प्रासंगिक बनी 4 दशक की अपनी प्रेरक लेखन यात्रा का आगाज किया था । तथा यहीं जीवनसंगिनी शिवरानी का मंगलसूत्र भी टूटा और अमर कथाकार की चंद लोगों के साथ निकली अंंतिम यात्रा देख राहगीर ने पूछा था कि कै रहल..? भिलाई के वरिष्ठ रंगकर्मी और छग इप्टा के अध्यक्ष मणिमय मुखर्जी बताते हैं कि मौजूदा नफरत और हिंसा के माहौल में देश को कबीर के ढाई आखर प्रेम का संदेश देने संस्कारधानी राजनांदगांव से निकली इप्टा के संस्कृतिकर्मियों की देशव्यापी सांस्कृतिक यात्रा के दौरान लमही और बनारस में प्रेमचंद सहित अपने सांस्कृतिक पुरखों के जन्म-कर्म स्थलियों की सांझी विरासत का दिगदर्शन एक आह्लादकारी अनुभव था ।

देश के रचनाकारों व पाठकों के लिए तीर्थ की मानिंद लमही में आंखें खोलने के बाद अभाव, बिखराव और तनाव के बीच प्रेरणास्पद साहित्य सफर लोगों को समभाव का पैगाम देने वाले प्रेमचंद के पैतृक घर को यूपी के संस्कृति विभाग द्वारा प्रेमचंद स्मारक के रुप में विकसित किया है । पत्नी के तगादे पर बनाए 2 मंजिला पक्के मकान के नीचे उनका लिखने पढऩे का कमरा आज भी है, जहां उनका जन्म हुआ था । इसमें उनकी मेज, कलम, पेन, पलंग, किताबों व हस्तलिपि के साथ प्रेमचंद की पिता व 2 पुत्रों श्रीपत व धनपत राय की पुरानी तस्वीरें टंगी हैं । बाजू में उनकी किताबों की लायब्रेरी व परिसर में मात्र 5 फीट की मूर्ति उनकी सादगी व हिमालयीन ऊंचाई का अहसास करात है ।

सामने पुराना बरगद का पेड़ है,जिसके नीचे बैठ उन्होंने ठाकुर का कुंआ जैसी मार्मिक कहानी लिख जातिय भेदभाव के खिलाफ संदेश दिया था । इसी बरगद के नीचे रंगकर्मी मणिमय, राकेश,आशीष, राजेश श्रीवास्तव व वर्षा आदि संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी का नाट्य मंचन कर उनका भावभीना स्मरण कर बताया कि सदी बाद भी स्थिति ठाकुर का कुआं जैसी ही है । हालात बदलने के साथ इतने महान साहित्यकार के जन्म स्मारक को भी गरिमा के अनुरुप भव्य रुप मे विकसित किए किए जाने की जरुरत है ।

यह कम सुखद संयोग नहीं है कि प्रेमचंद के उपनगर लमही से लगे बनारस यानी काशी की तंग गलियों में कई मशहूर साहित्यकारों और कलाकारों की सांस्कृतिक धरोहर है,जिसे सहेजने की जरुरत है । आधुनिक हिंदी साहित्य व नाट्यशास्त्र के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र,गंगाजमुनी तहजीब का तहजीब का पैगाम देने वाले कबीर व शहनाईवादक बिस्मिला खान, शहनाईवादक पं. रामबख्श मिश्र सहित जयशंकर प्रसाद जैसी कई महान विभूतियों की बतौर जन्म स्थली के वैचारिक जीवनदर्शन के वैभव से रुबरु होना भी सांस्कृतिक यात्रा के सहयात्रियों के बेहद भावुक व प्रेरक अनूभूति थी ।

मणिमय बताते हैं कि इतनी संकरी गलियों में अपने सृजनात्कता से देश को एकसूत्र में पिरोने वालों के संघर्ष के पुश्तैनी घरों, शिलालेख, रचनाग्रंथों के साथ परिवारवालों से मिलना यादगार था । बिस्मिला के पौत्र रमीश हसन से परदादा के शहनाई के रागों, प्रसाद व भारतेंदु के परिजनों से नाटकों के रोचक इतिहास सुनने के बाद कबीर की समाधि मूल गादीपीठ में उनकी सांप्रदायिक एकता की रचनाओं से उनकी 5 वीं पीढ़ी ने सांस्कृतिक यात्रियों को विभोर कर दिया ।

उन्होंने बताया कि कबीर आश्रम में कबीर से शास्त्रार्थ के पहले ही शरणागत हुए दक्षिण केे विद्वान सवानंद के बाद दर्शनार्थ पहुंचे टैगोर के उपरांत 1934 आए गांधी को शिष्य महंत रामविलास दास ने चांदी की तस्तरी में कबीर के ग्रंथ के साथ मानपत्र व 105 रुपए भेंट किए थे ।

रंगकर्मियों ने यहां कबीर के प्रिय भजन मेरा तेरा मनवा कैसे एक होई गाकर उनके प्रेम के संदेश से समाज को प्रेरित करने का नवसंकल्प लिया ।

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“बाघ प्रदेश” बनने में राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन की मुख्य भूमिका

भोपाल (एजेंसी) सभी वन्य जीवों में बाघ को विशाल हृदय वाला संभ्रांत प्राणी माना जाता है। यह गर्व की बात है कि देश में सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में है और मध्यप्रदेश को बाघ प्रदेश का दर्जा मिला है। अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस 29 जुलाई मध्यप्रदेश के लिये विशेष महत्व का दिन है। यह दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाघों की जातियों की घटती संख्या, उनके अस्तित्व और संरक्षण संबंधी चुनौतियों के प्रति जन-जागृति के लिए मनाया जाता है।

प्रत्येक वर्ष विश्व बाघ दिवस 29 जुलाई को मनाए जाने का निर्णय वर्ष 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग बाघ सम्मेलन में किया गया था। इस सम्मेलन में बाघ की आबादी वाले 13 देशों ने वादा किया था कि वर्ष 2022 तक वे बाघों की आबादी दोगुनी कर देंगे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मध्यप्रदेश में बाघों के प्रबंधन में निरंतरता और उत्तरोत्तर हुए सुधार बहुत महत्वपूर्ण हैं।

बाघों की संख्या में 33 प्रतिशत की वृद्धि चक्रों के बीच अब तक सबसे अधिक दर्ज की गई है, जो वर्ष 2006 से 2010 तक 21 प्रतिशत और वर्ष 2010 से 2014 तक 30 प्रतिशत थी। बाघों की संख्या में वृद्धि, वर्ष 2006 के बाद से बाघों की औसत वार्षिक वृद्धि दर के अनुरूप थी। मध्यप्रदेश में देश में सबसे अधिक संख्या में 526 बाघ हैं। इसके बाद कर्नाटक में 524 बाघ और उत्तराखंड 442 बाघ के साथ तीसरे नंबर पर है। यह देश और विशेष रूप से मध्यप्रदेश के लिए गर्व का विषय है। वर्ष 2022 की समय-सीमा से काफी पहले सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से यह उपलब्धि हासिल कर ली गयी है।

मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान की संवेदनशील पहल के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि के लिये निरंतर प्रयास हो रहे हैं। बाघ रहवास वाले क्षेत्रों के सक्रिय प्रबंधन के फलस्वरूप बाघों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। विश्व वन्य-प्राणी निधि एवं ग्लोबल टाईगर फोरम द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार विश्व में आधे से ज्यादा बाघ भारत में हैं। मध्य भारत भू-दृश्य भारत में बाघों के अस्तित्व के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मध्यप्रदेश के कॉरिडोर से ही उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के बाघ रिजर्व आपस में जुड़े हुए हैं।

प्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने में राष्ट्रीय उद्यानों के बेहतर प्रबंधन की मुख्य भूमिका है। राज्य शासन की सहायता से 50 से अधिक गाँवों का विस्थापन किया जाकर बहुत बड़ा भू-भाग जैविक दबाव से मुक्त कराया गया है। संरक्षित क्षेत्रों से गाँवों के विस्थापन के फलस्वरूप वन्य-प्राणियों के रहवास क्षेत्र का विस्तार हुआ है।

कान्हा, पेंच और कूनो पालपुर के कोर क्षेत्र से सभी गाँव को विस्थापित किया जा चुका है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व का 90 प्रतिशत से अधिक कोर क्षेत्र भी जैविक दबाव से मुक्त हो चुका है। विस्थापन के बाद घास विशेषज्ञों की मदद लेकर स्थानीय प्रजातियों के घास के मैदान विकसित किये जा रहे हैं, जिससे शाकाहारी वन्य-प्राणियों के लिये वर्ष भर चारा उपलब्ध होता रहे।

सभी संरक्षित क्षेत्रों में रहवास विकास कार्यक्रम चलाया जा रहा है। सक्रिय प्रबंधन से विगत एक वर्ष में 500 से अधिक चीतलों को अधिक संख्या वाले हिस्से से कम संख्या वाले एवं चीतल विहीन क्षेत्रों में सफलता से स्थानांतरित किया गया है। इससे चीतल, जो कि बाघों का मुख्य भोजन है, उनकी संख्या में वृद्धि होगी और पूरे भू-भाग में चीतल फैल जायेंगे।

राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन में मध्यप्रदेश शीर्ष पर

मध्यप्रदेश ने टाइगर राज्य का दर्जा हासिल करने के साथ ही राष्ट्रीय उद्यानों और संरक्षित क्षेत्रों के प्रभावी प्रबंधन में भी देश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को यूनेस्को की विश्व धरोहर की संभावित सूची में शामिल किया गया है।

भारत सरकार द्वारा जारी टाइगर रिज़र्व के प्रबंधन की प्रभावशीलता मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार पेंच टाइगर रिजर्व ने देश में सर्वोच्च रैंक हासिल की है। बांधवगढ़, कान्हा, संजय और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन वाले टाइगर रिजर्व माना गया है। इन राष्ट्रीय उद्यानों में अनुपम प्रबंधन योजनाओं और नवाचारी तरीकों को अपनाया गया है।

वन्य-जीव संरक्षण मामलों पर नीतिगत निर्णय लेने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रभावी प्रबंधन के आकलन से संबंधित आँकड़ों की आवश्यकता होती है। ये आँकडे़ संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के विश्व संरक्षण निगरानी केंद्र में रखे जाते हैं।

टाइगर रिजर्व की प्रबंधन शक्तियों का आकलन कई मापदण्डों पर होता है- योजना, निगरानी, सतर्कता, निगरानी स्टाफिंग पैटर्न, उनका प्रशिक्षण, मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रबंधन, सामुदायिक भागीदारी, संरक्षण, सुरक्षा और अवैध शिकार निरोधी उपाय आदि।

पेंच टाइगर रिजर्व के प्रबंधन को देश में उत्कृष्ट माना गया है। फ्रंटलाइन स्टाफ को उत्कृष्ट और ऊर्जावान पाया गया है। वन्य-जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में दर्ज सभी मामलों में पैरवी कर आरोपियों को दंडित करने में प्रभावी काम किया गया है। मानव-बाघ और बाघ-पशु संघर्ष के मामलों में पशु मालिकों को तत्काल वित्तीय राहत दी जा रही है। साथ ही उन्हें विश्व प्रकृति निधि भारत से भी सहयोग दिलवाया जा रहा है।

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व ने बाघ पर्यटन द्वारा प्राप्त राशि का उपयोग कर ईको विकास समितियों को प्रभावी ढंग से पुनर्जीवित किया है। वाटरहोल बनाने और घास के मैदानों के रखरखाव और वन्य-जीव निवास स्थानों को रहने लायक बनाने का कार्यक्रम भी चलाया गया है।

कान्हा टाइगर रिजर्व ने अनूठी प्रबंधन रणनीतियों को अपनाया है। कान्हा-पेंच वन्य-जीव विचरण कारीडोर भारत का पहला ऐसा कारीडोर है, जिसमें कारीडोर का प्रबंधन स्थानीय समुदायों, सरकारी विभागों, अनुसंधान संस्थानों और नागरिक संगठनों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है। पार्क प्रबंधन ने वन विभाग कार्यालय परिसर में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी स्थापित किया है, जो वन विभाग के कर्मचारियों और आस-पास क्षेत्र के ग्रामीणों के लिये लाभदायी सिद्ध हुआ है।

पन्ना टाइगर रिजर्व ने बाघों की आबादी बढ़ाने में पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। शून्य से शुरू होकर अब इसमें 25 से 30 बाघ हैं। यह भारत के वन्यजीव संरक्षण के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण है। सतपुड़ा बाघ रिजर्व में सतपुड़ा नेशनल पार्क, पचमढ़ी और बोरी अभ्यारण्य से 42 गाँव को सफलतापूर्वक दूसरे स्थान पर बसाया गया है। यहाँ सोलर पंप और सोलर लैंप का प्रभावी उपयोग किया जा रहा है। वन्य जीव संरक्षण में अत्याधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करने की पहल करते हुए पन्ना टाइगर रिजर्व ने “ड्रोन स्क्वाड” का संचालन करना शुरू कर दिया है। प्रत्येक महीने “ड्रोन स्क्वाड” संचालन की मासिक कार्य- योजना तैयार की जाती है। इससे वन्य जीवों की खोज, उनके बचाव, जंगल की आग का स्त्रोत पता लगाने और उसके प्रभाव की तत्काल जानकारी जुटाने, संभावित मानव-पशु संघर्ष के खतरे को टालने और वन्य जीव संरक्षण संबंधी कानूनों का पालन करने में मदद मिल रही है। पन्ना टाइगर रिजर्व में ड्रोन दस्ता काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है।

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दिल्ली: हिरण पर क्यों लादें घांस

वेद प्रताप वैदिक – इसमें जरा भी शक नहीं है कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में कई नई और अच्छी पहल की हैं। उसकी नई शिक्षा पद्धति को देखकर कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियां भी काफी प्रभावित हुई हैं। अब दिल्ली सरकार ने घोषणा की है कि वह 50 केंद्रों में एक लाख ऐसे बच्चे तैयार करेगी, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सकें। अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई तो भारत के सभी विद्यालयों में होती है लेकिन अंग्रेजी में संभाषण करने की निपुणता कम ही छात्रों में होती है।

इसी वजह से वे न तो अच्छी नौकरियां ले पाते हैं और वे जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान गरीब और पिछड़े परिवारों के छात्रों को होता है। उन्हें घटिया पदों और कम वेतन वाली नौकरियों से ही संतोष करना पड़ता है। ऐसे छात्रों को जीवन में आगे बढऩे का मौका मिले, इसीलिए दिल्ली सरकार अब 12 वीं पास छात्रों को अंग्रेजी बोलने का अभ्यास मुफ्त में करवाएगी। शुरु में वह उनसे 950 रुपए जमा करवाएगी ताकि वे पाठ्यक्रम के प्रति गंभीर रहें।

यह राशि उन्हें अंत में लौटा दी जाएगी। यह पाठ्यक्रम सिर्फ 3-4 माह का ही होगा। 18 से 35 साल के युवकों के लिए यह अंग्रेजी बढिय़ा बोलो अभियान खुला रहेगा। मोटे तौर पर दिल्ली सरकार की इस योजना के पीछे उसकी मन्शा पूरी तरह सराहनीय है लेकिन दिल्ली की ही नहीं, हमारे सभी राज्यों और केंद्र की सरकार ने क्या कभी सोचा कि हमारी शिक्षा और नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता ने भारत का कितना बड़ा नुकसान किया है? यदि सरकारी नौकरियों से अंग्रेजी की अनिवार्यता हटा दी जाए तो कौन माता-पिता अपने हिरण-जैसे बच्चों पर घांस लादने की गलती करेंगे?

चीनी भाषा के अलावा किसी भी विदेशी भाषा को सीखने के लिए साल-दो साल काफी होते हैं लेकिन भारत में बच्चों पर यह घांस दस-बारह साल तक लाद दी जाती है। अपने छात्र-काल में मैंने अंग्रेजी के अलावा जर्मन, रूसी और फारसी भाषाएं साल-साल भर में आसानी से सीख ली थीं। अंग्रेजी से कुश्ती लडऩे में छात्रों का सबसे ज्यादा समय नष्ट हो जाता है। अन्य विषयों की उपेक्षा होती है। मौलिकता नष्ट होती है। हीनता ग्रंथि पनपने लगती है। अहंकार और ढोंग पैदा हो जाता है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था चौपट हो जाती है।

आजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं लेकिन अभी भी हम भाषाई और बौद्धिक गुलामी में जी रहे हैं। महात्मा गांधी और लोहिया- जैसा एक भी नेता आज तक देश में इतना साहसी नहीं हुआ कि वह मैकाले की इस गुलामगीरी को चुनौती दे सके। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मंत्री मनीष सिसोदिया से मैं आशा करता हूं कि वे अन्य मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों की तरह पिटेपिटाए रास्ते पर तेज रफ्तार से चलने की बजाय ऐसा जबर्दस्त अभियान चलाएं कि भारत में नौकरियों और शिक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो जाए। जिन्हें उच्च शोध, विदेश व्यापार और कूटनीति के लिए विदेशी भाषाएं सीखनी हों, वे जरुर सीखें। उन्हें पूर्ण सुविधाएं दी जाएं।

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इन छापों का नैतिक औचित्य?

वेद प्रताप वैदिक – इन छापों का नैतिक औचित्य?इस समय केंद्र सरकार कई सेठों और नेताओं के यहाँ छापे डलवा रही है। इसमें सामान्यतया कोई बुराई नहीं है, क्योंकि अब से लगभग तीन सौ साल पहले फ्रांसीसी विद्वान सेंट साइमाँ ने जो कहा था, वह आज भी बहुत हद तक सच है। उन्होंने कहा था कि “समस्त संपत्ति चोरी का माल होती है।” फिलहाल उनके इस दार्शनिक कथन की गहराई में उतरे बिना हम यह मानकर चल सकते हैं कि कुछ हेरा-फेरी किए बिना बड़ा माल-ताल कमाना मुश्किल ही है।

उद्योग और व्यापार में तो पैसा बनाने के लिए कई वैध और अवैध तरीके अपनाने ही पड़ते हैं लेकिन राजनीति में भ्रष्टाचार किए बिना पैसा बनाना असंभव है और लोकतंत्र की चुनावी राजनीति तो मोटे पैसे के बिना साँस भी नहीं ले सकती। पिछले 77-75 साल में मैं ऐसे कई नेताओं को जानता रहा हूँ, जिसके पास खाने और पहनने की भी ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं थी लेकिन आज वे करोड़ों के मालिक हैं। पैसे के खेल ने दुनिया के सारे लोकतंत्रों को खोखला कर दिया है।

भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा है, इसलिए इसकी साफ-सफाई के लिए मोदी सरकार जो कार्रवाइयाँ कर रही है, वह सराहनीय है लेकिन सवाल यह है कि ये सब कार्रवाइयाँ विरोधी दलों के नेताओं और सिर्फ उन सेठों के खिलाफ क्यों हो रही हैं, जो कुछ विरोधी दलों के साथ नत्थी रहे हैं? यदि सोनिया गांधी के खिलाफ जाँच हो रही है तो क्या अन्य सभी दलों के नेता दूध के धुले हुए हैं? सभी दलों के नेताओं के यहाँ छापे क्यों नहीं पड़ रहे हैं?

यदि नरेंद्र मोदी कुछ भाजपा के नेताओं के यहाँ भी छापे डलवाने की हिम्मत कर लें तो वे भारत के विलक्षण और एतिहासिक प्रधानमंत्री माने जाएंगे। भाजपा के कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को उनके पद से हटाया जाना काफी नहीं है। उनकी जाँच करवाना और दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा दिलवा दी जाए तो भारतीय राजनीति में स्वच्छता का शुभारंभ हो सकता है। कहते हैं कि मालवा की महारानी अहिल्याबाई ने अपने पुत्र को ही दोषी पाए जाने पर हाथी के पाँव के नीचे कुचलवा दिया था।

मेरे मित्र एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने मुझसे पूछा कि चुनाव जीतने के लिए कोई मंत्र बताइए। मैंने तीन मंत्र बताए। उसमें पहला मंत्र यही था कि भ्रष्ट कांग्रेसियों के यहाँ आप छापे डलवा दीजिए। आप भारत के महानायक बन जाएँगे। लेकिन जो सरकार सिर्फ अपने विरोधियों के यहाँ ही छापे डलवाती है और उन नेताओं और सेठों को छुट्टा छोड़ देती है, जो उसके अपने माने जाते हैं, उस सरकार की छवि चुपचाप पैदे में बैठती चली जाती है।

इसका एक बुरा असर सत्तारुढ़ दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भी होता रहता है। वे बेखौफ़ पैसा बनाने में जुट जाते हैं। अपने विरोधियों के खिलाफ की गई कार्रवाइयाँ कानूनी दृष्टि से तो ठीक हैं लेकिन उनका नैतिक औचित्य तभी मान्य होगा, जब वे सबके विरुद्ध एक-जैसी हों।

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विपक्ष की हालत खस्ता

वेद प्रताप वैदिक – विपक्ष की हालत खस्ता. राष्ट्रपति के लिए द्रौपदी मुर्मू के चुनाव ने सिद्ध कर दिया है कि भारत के विरोधी दल भाजपा को टक्कर देने में आज भी असमर्थ हैं और 2024 के चुनाव में भी भाजपा के सामने वे बौने सिद्ध होंगे। अब उप—राष्ट्रपति के चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष की उम्मीदवार मार्गेरेट अल्वा के समर्थन से इंकार कर दिया है। याने विपक्ष की उम्मीदवार उप-राष्ट्रपति के चुनाव में भी बुरी तरह से हारेंगी। अल्वा कांग्रेसी हैं। तृणमूल कांग्रेस को कांग्रेस से बहुत आपत्ति है, हालांकि उसकी नेता ममता बेनर्जी खुद कांग्रेसी नेता रही हैं और अपनी पार्टी के नाम में उन्होंने कांग्रेस का नाम भी जोड़ रखा है।

ममता बेनर्जी ने राष्ट्रपति के लिए यशवंत सिंहा का भी डटकर समर्थन नहीं किया, हालांकि सिंहा उन्हीं की पार्टी के सदस्य थे। अब पता चला है कि ममता बनर्जी द्रौपदी मुर्मू की टक्कर में ओडिशा के ही एक आदिवासी नेता तुलसी मुंडा को खड़ा करना चाहती थीं। ममता ने यशवंत सिंह को अपने प्रचार के लिए पं. बंगाल आने का भी आग्रह नहीं किया। इसी का नतीजा है कि तृणमूल कांग्रेस के कुछ विधायकों और सांसदों ने भाजपा की उम्मीदवार मुर्मू को अपना वोट दे दिया। इससे यही प्रकट होता है कि विभिन्न विपक्षी दलों की एकता तो खटाई में पड़ी ही हुई है, इन दलों के अंदर भी असंतुष्ट तत्वों की भरमार है।

इसी का प्रमाण यह तथ्य है कि मुर्मू के पक्ष में कई दलों के विधायकों और सांसदों ने अपने वोट डाल दिए। कुछ गैर-भाजपा पार्टियों ने भी मुर्मू का समर्थन किया है। इसी का परिणाम है कि जिस भाजपा की उम्मीदवार मुर्मू को 49 प्रतिशत वोट पक्के थे, उन्हें लगभग 65 प्रतिशत वोट मिल गए। द्रौपदी मुर्मू के चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है कि भारत के विपक्षी दलों के पास न तो कोई ऐसा नेता है और न ही ऐसी नीति है, जो सबको एकसूत्र में बांध सके। देश में पिछले दिनों दो-तीन बड़े आंदोलन चले लेकिन सारे विरोधी दल बगलें झांकते रहे। उनकी भूमिका नगण्य रही।

वे संसद की गतिविधियां जरुर ठप्प कर सकते हैं और अपने नेताओं के खातिर जन-प्रदर्शन भी आयोजित कर सकते हैं लेकिन देश के आम नागरिकों पर उनकी गतिविधियां का असर उल्टा ही होता है। यह ठीक है कि यदि वे राष्ट्रपति के लिए किसी प्रमुख विरोधी नेता को तैयार कर लेते तो वह भी हार जाता लेकिन विपक्ष की एकता को वह मजबूत बना सकता था। लेकिन भाजपा के पूर्व नेता यशवंत सिंहा को अपना उम्मीदवार बनाकर विपक्ष ने यह संदेश दिया कि उसके पास योग्य नेताओं का अभाव है।

मार्गेरेट अल्वा भी विपक्ष की मजबूरी का प्रतीक मालूम पड़ती हैं। सोनिया गांधी की तीव्र आलोचक रहीं 80 वर्षीय अल्वा को उप-राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष ने आगे करके अपने आप को पीछे कर लिया है। ऐसा लग रहा है कि उप-राष्ट्रपति के लिए जगदीप धनकड़ के पक्ष में प्रतिशत के हिसाब से राष्ट्रपति को मिले वोटों से भी ज्यादा वोट पड़ेंगे याने विपक्ष की दुर्दशा अब और भी अधिक कर्कश होगी।

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हरेली : प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण का लोकपर्व

27.07.2022 – हरेली : प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण का लोकपर्व . छत्तीसगढ़ में जैविक खेती और आर्थिक सशक्तिकरण का नया अध्याय छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन-जीवन में रचा-बसा खेती-किसानी से जुड़ा पहला त्यौहार है, हरेली। सावन मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह त्यौहार वास्तव में प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण का लोकपर्व है। हरेली के दिन किसान अच्छी फसल की कामना के साथ धरती माता का सभी प्राणियों केे भरण-पोषण के लिए आभार व्यक्त करते हैं। सभी लोग बारिश के आगमन के साथ चारो ओर बिखरी हरियाली और नई फसल का उत्साह से स्वागत करते हैं। हरेली पर्व को छोटे से बड़े तक सभी उत्साह और उमंग से मनाते हैैं।

गांवों में हरेली के दिन नागर, गैती, कुदाली, फावड़ा समेत खेती-किसानी से जुड़े सभी औजारों, खेतों और गोधन की पूजा की जाती है। सभी घरों में चीला, गुलगुल भजिया का प्रसाद बनाया जाता है। पूजा-अर्चना के बाद गांव के चौक-चौराहों में लोगों को जुटना शुरू हो जाता है। यहां गेड़ी दौड़, नारियल फेक, मटकी फोड़, रस्साकशी जैसी प्रतियोगिताएं देर तक चलती रहती हैं। लोग पारंपरिक तरीके से गेड़ी चढ़कर खुशियां मनाते हैं। माना जाता है कि बरसात के दिनों में पानी और कीचड़ से बचने के लिए गेड़ी चढऩे का प्रचलन रहा है, जो समय के साथ परम्परा में परिवर्तित हो गया।

इस अवसर पर किया जाने वाला गेड़ी लोक नृत्य भी छत्तीसगढ़ की पुरातन संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। हरेली में लोहारों द्वारा घर के मुख्य दरवाजे पर कील ठोककर और नीम की पत्तियां लगाने का रिवाज है। मान्यता है कि इससे घर-परिवार अनिष्ट से बचे रहते हैं। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की पहल पर माटी से जुड़ी अपनी गौरवशाली संस्कृति और परम्परा को सहेजने और आने वाली पीढिय़ों तक पहुंचाने की पहल की गई है। छत्तीसगढ़ सरकार ने मुख्यमंत्री निवास सहित पूरे राज्य में लोकपर्वों के धूम-धाम से सार्वजनिक आयोजन कर इसकी शुरूआत की है।

इससे नई पीढ़ी के युवा भी अपनी पुरातन परम्पराओं से जुडऩे लगे हैं। सरकार ने हरेली त्यौहार के दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया है। इस साल से प्रदेश के स्कूलों में हरेली तिहार को विशेष रूप से मनाने की शुरूआत की जा रही है। इससे बच्चे न सिर्फ अपनी कृषि संस्कृति को समझेंगे, उसका सक्रिय हिस्सा बनेंगे बल्कि अपनी संस्कृति के मूल भाव को आत्मसात भी कर सकेंगे। साथ ही स्कूलों में गेड़ी दौड़, वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी जैसे आयोजनों से बच्चों में अपनी संस्कृति और प्रकृति के प्रति प्रेम विकसित होगा। छत्तीसगढ़ में पारंपरिक लोक मूल्यों को सहेजते हुए गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की परिकल्पना को साकार रूप दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में पारंपरिक संसाधनों के उपयोग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का काम किया जा रहा है।

इसके चलते राज्य सरकार ने दो साल पहले सन् 2020 में हरेली के दिन गो-धन न्याय योजना शुरू की थी। शुरूआत में किसी ने कल्पना नहीं की थी, कि गोबर खरीदी की यह योजना गांवों की अर्थव्यवस्था के लिए एक मजबूत आधार तैयार करेगी। आज यह ग्रामीण अंचल की बेहद लोकप्रिय योजना साबित हुई है। इस अनूठी योजना के तहत सरकार ने गोबर को ग्रामीणों की आय का नया जरिया बनाया और किसानों और पशुपालकों से दो रूपए की दर से गोबर खरीदी शुरू की। पशुपालक ग्रामीणों ने गोबर बेचकर पिछले दो सालों में 150 करोड़ रूपये से अधिक की कमाई की है। खरीदे गए गोबर से गौठानों में स्व-सहायता समूहों ने 20 लाख क्विंटल से अधिक वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया है, जिससे प्रदेश में जैविक खेती को बढ़ावा मिल रहा है।

अब तक महिला समूह और गौठान समितियां 143 करोड़ से अधिक की राशि वर्मी खाद के निर्माण और विक्रय से प्राप्त कर चुकी हैं। इसके साथ ही गौठानों में गोबर से दिए, गमले सहित विभिन्न सजावटी समान बनाने से स्थानीय महिलाओं को रोजगार का नया साधन मिला है। गोधन न्याय योजना को विस्तार देते हुए राज्य सरकार इस साल हरेली तिहार से गौठानों में 4 रूपए प्रति लीटर की दर से गो-मूत्र की खरीदी की शुरूआत करने जा रही है। इस गो-मूत्र से महिला स्व-सहायता समूह द्वारा जीवामृत और कीट नियंत्रक उत्पाद तैयार किये जाएंगे। इससे रोजगार और आय का नया जरिया मिलने के साथ जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा और कृषि लागत कम होगी।

गौ-मूत्र से बने कीट नियंत्रक उत्पाद का उपयोग किसान भाई रासायनिक कीटनाशक के बदले कर सकेंगे, जिससे खाद्यान्न की विषाक्तता में कमी आएगी और महंगे रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता कम होगी। इन नवाचारों ने हरेली को प्रदेश में जैविक खेती और आर्थिक सशक्तिकरण के नए अध्यायों का प्रतीक बना दिया है। इससे लगता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ग्राम-स्वराज का सपना अब आत्मनिर्भर गांवों के रूप में छत्तीसगढ़ में साकार हो रहा है। छत्तीसगढ़ में परंपराओं को सहेजते हुए उसे आधुनिक जरूरतों के अनुसार ढालने की जो शुरूआत की गई है, उसे जरूरत है सबके सहयोग से आगे बढ़ाने की।

प्रकृति से जुड़कर पर्यावरण अनुकूल विकास की दिशा में आगे बढऩे का हमारा यह कदम बेहतर कल के लिए सर्वोत्तम योगदान होगा।

(लेखिका सहायक जनसम्पर्क अधिकारी हैं)

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छत्तीसगढ़ के पहिली लोक तिहार : हरेली तिहार

डॉ. दानेश्वरी संभाकर – हरेली तिहार छत्तीसगढ़ का सबसे पहला त्यौहार है, जो लोगों को छत्तीसगढ़ की संस्कृति और आस्था से परिचित कराता है। हरेली का मतलब हरियाली होता है, जो हर वर्ष सावन महीने के अमावस्या में मनाया जाता है। हरेली मुख्यत: खेती-किसानी से जुड़ा पर्व है। इस त्यौहार के पहले तक किसान अपनी फसलों की बोआई या रोपाई कर लेते हैं और इस दिन कृषि संबंधी सभी यंत्रों नागर, गैंती, कुदाली, फावड़ा समेत कृषि के काम आने वाले सभी तरह के औजारों की साफ-सफाई कर उन्हें एक स्थान पर रखकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं।

घर में महिलाएं तरह-तरह के छत्तीसगढ़ी व्यंजन खासकर गुड़ का चीला बनाती हैं। हरेली में जहाँ किसान कृषि उपकरणों की पूजा कर पकवानों का आनंद लेते हैं, आपस में नारियल फेंक प्रतियोगिता करते हैं, वहीं युवा और बच्चे गेड़ी चढऩे का मजा लेते हैं।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए शासन द्वारा बीते साढ़े तीन वर्षों के दौरान उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों के क्रम में स्थानीय तीज-त्यौहारों पर भी अब सार्वजनिक अवकाश दिए जाते हैं। इनमें हरेली तिहार भी शामिल है।

जिन अन्य लोक पर्वों पर सार्वजनिक अवकाश दिए जाते है – तीजा, मां कर्मा जयंती, मां शाकंभरी जयंती (छेरछेरा), विश्व आदिवासी दिवस और छठ। अब राज्य में इन तीज-त्यौहारों को व्यापक स्तर पर मनाया जाता है, जिसमें शासन भी भागीदारी बनता है। इन पर्वों के दौरान महत्वपूर्ण शासकीय आयोजन होते है तथा महत्वपूर्ण शासकीय घोषणाएं भी की जाती है।

वर्ष 2020 में हरेली पर्व के ही दिन मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने गोधन न्याय योजना की शुरूआत की थी जो केवल 02 वर्षों में अपनी सफलता को लेकर अन्य राज्यों के लिए नजीर बन गई है। इस योजना का देश के अनेक राज्यों द्वारा अनुसरण किया जा रहा है। आगामी हरेली तिहार 28 जुलाई से इस योजना में और विस्तार करते हुए अब गोबर के साथ-साथ गोमूत्र खरीदी करने की भी निर्णय लिया गया है।

हरेली के दिन गांव में पशुपालन कार्य से जुड़े यादव समाज के लोग सुबह से ही सभी घरों में जाकर गाय, बैल और भैंसों को नमक और बगरंडा का पत्ता खिलाते हैं। हरेली के दिन गांव-गांव में लोहारों की पूछपरख बढ़ जाती है। इस दिन गांव के लोहार हर घर के मुख्य द्वार पर नीम की पत्ती लगाकर और चौखट में कील ठोंककर आशीष देते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उस घर में रहने वालों की अनिष्ट से रक्षा होती है। इसके बदले में किसान उन्हे दान स्वरूप स्वेच्छा से दाल, चावल, सब्जी और नगद राशि देते हैं। ग्रामीणों द्वारा घर के बाहर गोबर से बने चित्र बनाते हैं, जिससे वह उनकी रक्षा करे।

हरेली से तीजा तक होता है गेड़ी दौड़ का आयोजन

हरेली त्यौहार के दिन गांव के प्रत्येक घरों में गेड़ी का निर्माण किया जाता है, मुख्य रूप से यह पुरुषों का खेल है घर में जितने युवा एवं बच्चे होते हैं उतनी ही गेड़ी बनाई जाती है। गेड़ी दौड़ का प्रारंभ हरेली से होकर भादो में तीजा पोला के समय जिस दिन बासी खाने का कार्यक्रम होता है उस दिन तक होता है। बच्चे तालाब जाते हैं स्नान करते समय गेड़ी को तालाब में छोड़ आते हैं, फिर वर्षभर गेड़ी पर नहीं चढ़ते हरेली की प्रतीक्षा करते हैं। गेड़ी के पीछे एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसका प्रचलन वर्षा ऋतु में होता है। वर्षा के कारण गांव के अनेक जगह कीचड़ भर जाती है, इस समय गाड़ी पर बच्चे चढ़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर आते जाते हैं उसमें कीचड़ लग जाने का भय नहीं होता। बच्चे गेड़ी के सहारे कहीं से भी आ जा सकते हैं।

गेड़ी का संबंध कीचड़ से भी है। कीचड़ में चलने पर किशोरों और युवाओं को गेड़ी का विशेष आनंद आता है। रास्ते में जितना अधिक कीचड़ होगा गेड़ी का उतना ही अधिक आनंद आता है। वर्तमान में गांव में काफी सुधार हुआ है गली और रास्तों पर काम हुआ है। अब ना कीचड़ होती है ना गलियों में दलदल। फिर भी गेड़ी छत्तीसगढ़ में अपना महत्व आज भी रखती है। गेड़ी में बच्चे जब एक साथ चलते हैं तो उनमें आगे को जाने की इच्छा जागृत होती है और यही स्पर्धा बन जाती है। बच्चों की ऊंचाई के अनुसार दो बांस में बराबर दूरी पर कील लगाते हैं और बांस के टुकड़े को बीच में फाड़कर दो भाग कर लेते हैं, फिर एक सिरे को रस्सी से बांधकर पुन: जोड़ देते हैं इसे पउवा कहा जाता है। पउवा के खुले हुए भाग को बांस में कील के ऊपर फंसाते हैं पउवा के ठीक नीचे बांस से सटाकर 4-5 इंच लंबी लकड़ी को रस्सी से इस प्रकार बांधते है जिससे वह नीचे ना जा सके लकड़ी को घोड़ी के नाम से भी जाना जाता है। गेड़ी में चलते समय जोरदार ध्वनि निकालने के लिए पैर पर दबाव डालते हैं जिसे मच कर चलना कहा जाता है।

नारियल फेंक प्रतियोगिता

नारियल फेंक बड़ों का खेल है इसमें बच्चे भाग नहीं लेते। प्रतियोगिता संयोजक नारियल की व्यवस्था करते हैं, एक नारियल खराब हो जाता है तो तत्काल ही दूसरे नारियल को खेल में सम्मिलित किया जाता है। खेल प्रारंभ होने से पूर्व दूरी निश्चित की जाती है, फिर शर्त रखी जाती है कि नारियल को कितने बार फेंक कर उक्त दूरी को पार किया जाएगा। प्रतिभागी शर्त स्वीकारते हैं, जितनी बात निश्चित किया गया है उतने बार में नारियल दूरी पार कर लेता है तो वह नारियल उसी का हो जाता है। यदि नारियल फेंकने में असफल हो जाता है तो उसे एक नारियल खरीद कर देना पड़ता है। नारियल फेंकना कठिन काम है इसके लिए अभ्यास जरूरी है। पर्व से संबंधित खेल होने के कारण बिना किसी तैयारी के लोग भाग लेते है।

बस्तर क्षेत्र में हरियाली अमावस्या पर मनाया जाता है अमूस त्यौहार

छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में ग्रामीणों द्वारा हरियाली अमावस्या पर अपने खेतों में औषधीय जड़ी-बूटियों के साथ तेंदू पेड़ की पतली छड़ी गाड़ कर अमुस त्यौहार मनाया जाता है। इस छड़ी के ऊपरी सिरे पर शतावर, रसना जड़ी, केऊ कंद को भेलवां के पत्तों में बांध दिया जाता है। खेतों में इस छड़ी को गाडऩे के पीछे ग्रामीणों की मान्यता यह है कि इससे कीट और अन्य व्याधियों के प्रकोप से फसल की रक्षा होती है। इस मौके पर मवेशियों को जड़ी बूटियां भी खिलाई जाती है। इसके लिए किसानों द्वारा एक दिन पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। जंगल से खोदकर लाई गई जड़ी बूटियों में रसना, केऊ कंद, शतावर की पत्तियां और अन्य वनस्पतियां शामिल रहती है, पत्तों में लपेटकर मवेशियों को खिलाया जाता है। ग्रामीणों का मानना है कि इससे कृषि कार्य के दौरान लगे चोट-मोच से निजात मिल जाती है।

इसी दिन रोग बोहरानी की रस्म भी होती है, जिसमें ग्रामीण इस्तेमाल के बाद टूटे-फूटे बांस के सूप-टोकरी-झाड़ू व अन्य चीजों को ग्राम की सरहद के बाहर पेड़ पर लटका देते हैं। दक्षिण बस्तर में यह त्यौहार सभी गांवों में सिर्फ हरियाली अमावस्या को ही नहीं, बल्कि इसके बाद गांवों में अगले एक पखवाड़े के भीतर कोई दिन नियत कर मनाया जाता है।

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जगदीप धनखड़: सही पसंद

वेद प्रताप वैदिक – जगदीप धनखड़: सही पसंद. भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मु को उम्मीदवार बनाया और अब उप-राष्ट्रपति पद के लिए जगदीप धनकड़ का नाम घोषित हुआ है। दोनों उम्मीदवारों को मंत्री और राज्यपाल रहने का अनुभव है लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन दोनों को इन सर्वोच्च पदों के लिए चुनते हुए भाजपा नेताओं ने किस बात का ध्यान रखा है? वह बात है वंचितों के सम्मान और वोट बैंक की!

एक उम्मीदवार देश के समस्त आदिवासियों को भाजपा से जोड़ेगा और दूसरा समस्त पिछड़ों को! यह देश के आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में यह भाव भी भरेगा कि वे लोग चाहे सदियों से दबे-पिसे रहे लेकिन यदि उनके दो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च पदों पर पहुंच सकते हैं तो वे भी जीवन में आगे क्यों नहीं बढ़ सकते? किसान-पुत्र धनकड़ के उप-राष्ट्रपति बनने की घटना देश के किसानों में नई उमंग जगाए बिना नहीं रहेगी। इसके अलावा पं. बंगाल, झारखंड और उड़ीसा के आदिवासियों को भाजपा की तरफ खींचने में और ममता बनर्जी के वोट बैंक में सेंध लगाने में ये दोनों पद कोई न कोई भूमिका जरुर निभाएंगे।

जगदीप धनकड़ की उपस्थिति का लाभ भाजपा को राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हरियाणा में भी मिलेगा। धनकड़ उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा के अध्यक्ष होंगे। यह शायद पहला संयोग होगा कि लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिड़ला और राज्यसभा के अध्यक्ष धनकड़ एक ही राज्य राजस्थान के होंगे। यह तथ्य राजस्थान की कांग्रेस सरकार के लिए चुनौती भी बन सकता है। धनकड़ को विधायक, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहने का अनुभव भी है।

वे जनता पार्टी और कांग्रेस में भी रह चुके है। उन्हें उप-राष्ट्रपति पद पर भाजपा बिठा रही है, इससे यह सिद्ध होता है कि भाजपा अपने दरवाजे बड़े कर रही है। वे यदि अपनी विनम्रता के लिए जाने जाते हैं तो उनकी स्पष्टवादिता भी सर्वज्ञात है। उनके जितने दो-टूक राज्यपाल देश में कितने हुए हैं? पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जितनी खुली खिंचाई धनकड़ ने की है, क्या कोई अन्य राज्यपाल किसी मुख्यमंत्री की कर पाया है? इसीलिए उन्हें ‘जनता का राज्यपाल’ कहा जाता है।

पिछले साल जब जगदीपजी ने मेरे खातिर अपने राजभवन में प्रीति-भोज आयोजित किया तो मैंने अपने कोलकाता के सभी खास मित्रों को आमंत्रित किया। उसमें भाजपाइयों और संघियों के अलावा कांग्रेसी, ममता के तृणमूली और कुछ पत्रकार भी थे। उन्हें देखकर राज्यपाल ने कुछ लोगों को कहा कि आप लोगों से मैं बहुत नाराज हूं लेकिन आप वैदिकजी के मित्र हैं, इसलिए आपका विशेष स्वागत है। कौन कहेगा, ऐसी दो-टूक बात?

धनकड़ राजस्थान के किसान परिवार के बेटे हैं लेकिन उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर अपनी वकालत की धाक सर्वोच्च न्यायालय तक में जमा रखी थी। पं. बंगाल में इस बार भाजपा विधायकों की संख्या 3 से बढ़कर 71 हो गई। इसक बड़ा श्रेय राज्यपाल जगदीप धनकड़ को भी है। मुझे विश्वास है कि अब राज्यसभा का सदन जऱा बेहतर और अनुशासित ढंग से काम करेगा। धनकड़ की जीत तो सुनिश्चित है ही, उनके सदव्यवहार का असर हमारे विपक्ष पर भी देखने को मिलेगा।

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द्रोपदी मुर्मू जनजातीय समुदाय की गौरव बनी

विकास कुमार – द्रोपदी मुर्मू जनजातीय समुदाय की गौरव बनी भारत का जनजातीय समुदायों का इतिहास अत्यंत गौरवशाली और प्रकृति प्रेमी रहा है। देश की सेवा में अनेकों जनजातीय समुदायों के लोगों ने प्राण गवाएं हैं और अनवरत देश की सेवा में समर्पित रहे हैं। यही कारण रहा है कि इनके इतिहास में ऐसे कई लोकप्रिय व्यक्तितत्वों का नाम बड़े ही आदर और सम्मान से लिया जाता है। ऐसे ही आदर और सम्मान के सर्वोच्च पद को धारण करने वाली प्रथम जनजातीय महिला महामहिम राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुई है।

वह अपने इस पद की शपथ 25 जुलाई को संवैधानिक रूप से लेंगी और इस प्रकार वह जनजातीय समुदाय से इस पद पर पहुंचने वाली प्रथम होंगी और महिला समुदायों से वह इस पद पर पहुंचने वाली दूसरी होंगी ,क्योंकि इसके पहले श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल देश की प्रथम महिला राष्ट्रपति रह चुकी हैं। आज प्रत्येक जनजातीय समुदायों के लिए गौरव की बात है की एक झोपड़ी में निवास करने वाली महिला राष्ट्रपति भवन तक का सफर तय कर लिया है।

यदि उनके व्यक्तिगत जीवन की बात करें तो उनका जन्म 20 जून, 1958 को उड़ीसा के मयूरगंज नामक जिले के वैदपोसी नामक गांव में हुआ था। उनका बचपन बड़े ही संघर्ष और अभावों से बीता है। उनके पिता का नाम वीरांची नारायण टूडू जोकि एक किसान परिवार से थे । परंतु मुर्मू जी के पिताजी और दादाजी दोनों गांव के सरपंच रह चके थे। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ग्रामीण स्तर की राजनीति देखी थी ,परंतु वह इसमें सक्रिय नहीं रहीं । उनके दो भाई थे इसमें पहले का नाम भगत टूटू और दूसरे का नाम सरैनी टूडू था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव से ही संपन्न हुई परंतु 12वीं पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए महाविद्यालय ना होने के कारण उन्होंने भुवनेश्वर के रामादेवी वूमेंस डिग्री कॉलेज में प्रवेश लिया।

इस प्रकार से वह उस गांव की पहली लड़की थी जो ग्रेजुएशन के लिए शहर पढ़ाई करने के लिए निकली थी। वही कॉलेज में ही उनकी मुलाकात श्यामाचरण मुर्मू से हुई और दोनों का आपस में प्रेम हो गया और श्यामाचरण मुर्मू इस प्रस्ताव को लेकर उनके गाँव वैदपोसी गए और दोनों की शादी हो गई। अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत इन्होंने 1979 में बिजली विभाग के जूनियर असिस्टेंट के रूप में किया जहां पर इन्होंने 1983 तक अपनी सेवाएं दी परंतु बच्चों के पढ़ाई के कारण उन्होंने उस जॉब को छोड़ा दिया और 1994 में असिस्टेंट टीचर के रूप में अपनी सेवाएं देना प्रारंभ कर दिया ।

शिक्षक के रूप में उन्होंने 3 साल अपनी सेवाएं दी और सर्वाधिक लोकप्रिय पेशा इनको शिक्षक का ही लगा परंतु इसी समय इनका रुझान राजनीति की ओर बढ़ा और 1997 में पहली बार पार्षद का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की । तत्पश्चात 2000 में इन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और उनकी कार्यशैली से प्रभावित होकर पार्टी ने राज्य मंत्री का दायित्व सौंपा। 2006 में यह भाजपा के अजजा मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष भी रहीं । इसके पश्चात भी वह प्रदेश और देश स्तर पर कई समितियों के सदस्य रहीं और पार्टी के लिए कार्य करते रहीं ।

यही कारण रहा कि इनके कार्यशैली से प्रभावित होकर के केंद्र सरकार ने 2015 में इनको झारखंड का राज्यपाल नियुक्त किया और 2022 में एनडीए के गठबंधन ने उन्हें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में घोषणा की और आज तीसरे राउंड की मतगणना के बाद उनको विजय मिली है। इस चुनाव में अपने विपक्षी यशवंत सिन्हा को पराजित किया है जो कि यूपीए के गठबंधन के उम्मीदवार थे। इस प्रकार से आदिवासी समुदाय से वह इस पद को धारण करने वाली प्रथम बन गई है।

द्रोपदी मुर्मू जी संथाल आदिवासी समुदाय से आती है परंतु यह केवल संथाल आदिवासियों के लिए भी नहीं अपितु भारत के संपूर्ण महिलाओं के लिए गौरव की बात है कि देश के सर्वोच्च पद को प्रतिष्ठित करने वाले भारत की एक महिला हैं, जिन्होंने अपने कर्म शैली और निरंतर संघर्ष के परिणामस्वरूप यहां तक पहुंची। उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयास जारी रखें और सदैव देश सेवा के प्रति अपने को समर्पित रखें । यही कारण रहा कि जब उनके दोनों पुत्रों की अचानक से मृत्यु हो गई और उसके पश्चात उनके पति की मृत्यु हो गई तब वह संघर्ष करने से नहीं हारी और निरंतर देश की सेवा में लगी रही ।

उन्होंने अपने पूरे निवास स्थान को एक स्कूल के रूप में परिवर्तित कर दिया और संपत्ति का कई प्रतिशत हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए दान कर दिया। यहां तक की उन्होंने अपनी आंखें भी मानव सेवा में समर्पित कर दी हैं और उन्हें भी दान कर दिया है। आज आदिवासी समुदायों के लिए गौरव का पल है कि उनके समुदाय का प्रतिनिधित्व देश के प्रतिष्ठित पद पर है।

आदिवासी समुदाय जंगल जमीन और स्वाभिमान की लड़ाई इस समय पूरे देश में लड़ रहे हैं और प्रगतिशील एकता के मार्ग में निरंतर संघर्ष कर रहे हैं ऐसे में द्रोपदी मुर्मू जी की कहानी संपूर्ण समुदायों के लिए प्रेरणा का काम करेगी और इतना ही नहीं भारतीय महिलाओं के लिए भी यह नवीन ऊर्जा और प्रेरणा उनकी कहानी प्रदान करेगी कि व्यक्ति जन्म से नहीं बल्कि कर्म से लोकप्रिय और आदरणीय बनता है।

( लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में शोधार्थी हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)

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भारत को जबर्दस्त अमेरिकी छूट

वेद प्रताप वैदिक – भारत को जबर्दस्त अमेरिकी छूट. जब भारतीय मूल के नागरिक विदेशों में राज-काज के हिस्सेदार होते हैं तो वे कैसा चमत्कार कर देते हैं। आजकल ऋषि सुनाक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की बात तो चल ही रही है लेकिन अमेरिका के प्रतिनिधि सदन (लोकसभा) के एक भारतीय सदस्य ने वह काम कर दिखाया है, जो असंभव-सा लगता था। रो खन्ना नामक सदस्य ने अमेरिका के राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम को भारत पर लागू होने से रूकवा दिया। यह अधिनियम चीन, उत्तरी कोरिया, ईरान आदि देशों पर बड़ी कड़ाई के साथ लागू किया जा रहा है।

इस प्रतिबंध को ‘काट्सा’ कहा जाता है। इसके मुताबिक जो भी राष्ट्र रूस से हथियार आदि खरीदता है, उससे अमेरिका किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं करेगा। तुर्की पर भी काफी दबाव पड़ रहा है, क्योंकि वह रूसी प्रक्षेपास्त्र खरीदना चाहता है। जहां तक भारत का सवाल है, रूस तो भारत को सबसे बड़ा हथियार और सामरिक सामान का विक्रेता है। वह आज से नहीं, शीतयुद्ध के जमाने से है।

अमेरिका के कई विद्वान और नीति-निर्माता भारत को रूस का पिट्ठू कहते रहे हैं। आजकल भारत ने रूस के साथ एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सौदा किया हुआ है और यूक्रेन संकट के बाद से रूस भारत को तेल भी बड़े पैमाने पर सस्ते दामों पर मुहय्या करवा रहा है। इसके बावजूद रो खन्ना द्वारा लाया गया प्रस्ताव अमेरिकी निम्न सदन ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने दबी जुबान से इसका इशारा किया था, वरना अमेरिकी राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह स्वविवेक के आधार पर किसी देश को इस प्रतिबंध से मुक्त कर सकता है।

अमेरिका ने भारत के पक्ष में यह एतिहासिक कदम तो उठाया ही, इसके पहले यूक्रेन के सवाल पर उसकी तटस्थता का सम्मान भी किया। इसका मूल कारण यह है कि पश्चिम एशिया और सुदूर-पूर्व एशिया के दो चौगुटों में भारत और अमेरिका कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ काम कर रहे हैं। दोनों देशों में सामरिक सहकार तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। 2008 में भारत-अमेरिकी सामरिक सौदा सिर्फ 50 करोड़ डालर का था। वह अब बढ़कर 2000 करोड़ डॉलर का हो गया है।

इस समय रूस और चीन मिलकर ऐसी नीति चला रहे हैं, जैसे वे किसी गठबंधन के सदस्य हों। ऐसे में अमेरिका के लिए भारत को साथ रखना बेहद जरुरी है। भारत और चीन के रिश्तों में इधर जो खटास पैदा हुई है, वह अमेरिका के लिए स्वादिष्ट चटनी की तरह है। दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों में मैत्री-भाव बढ़े, इससे अच्छा क्या हो सकता है।

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मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना से आदिवासियों को मिल रहा है नया जीवन

*सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणों के घरों तक खुद पहुंच रहा है चलित अस्पताल

*ग्रामीणों की मांग पर बढ़ाए जा रहे हैं हाट बाजार क्लिनिक एवं एमएमयू की संख्यामनोज सिंहछत्तीसगढ़ का आदिवासी ग्रामीण जीवन, पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर रहा है।

मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना से आदिवासियों को मिल रहा है नया जीवन. देवी देवताओं पर विश्वास इतना ज्यादा कि कितनी भी बड़ी विपदा आ जाए बैगा पहले और डाक्टर बाद में या फिर डाक्टर के पास तो जाना ही नहीं। सरगुजा संभाग पूरी तरह से प्राकृतिक वन संसाधनों से आच्छादित है। साल और सागौन के साथ बांस के घने जंगल यहां के आदिवासियों के लिए स्वर्ग के समान हैं तभी तो वो जंगल और पहाड़ छोड़कर गांवों में बसने के लिए आना ही नहीं चाहते थे। सरगुजा संभाग में उरांव, कंवर, कोरवा, बिंझवार, नगेशिया जनजाति बहुतायत मात्रा में रहती है और इनमें से ज्यादातर कृषि एवं अपने पुरखो के पारंपरिक कार्यों में ही लिप्त है। छत्तीसगढ़ एक आदिवासी प्रधान राज्य है जहां के 146 में 85 विकासखंड आदिवासी घोषित हैं।

ऐसे में आदिवासियों के उत्थान के लिए राज्य सरकार का कार्य करना लाजमी है। हालांकि पिछले साढ़े तीन वर्षों में जो परिवर्तन आया है वो पहले कभी देखने को नहीं मिला। खास तौर पर आदिवासियों के स्वास्थ्य को लेकर जो परिवर्तन आया है उसकी पुष्टि केंद्र सरकार के आंकड़ों से भी हुयी है और ये सब कुछ मुमकिन हुआ है मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के निर्देशों पर चलाए जा रहे आदिवासी कल्याण की योजनाओं से। इन्हीं योजनाओं में से एक है मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना। सुदूर अंचल तक तक पहुंच रही है

हाट बाजार क्लिनिक योजनाआदिम समुदाय भले ही जंगलों एवं पहाड़ों को आम तौर पर न छोड़े , लेकिन बाजार करने के लिए वो नियमित रूप से गांवों में आते ही हैं। यही वजह रही की मुख्यमंत्री की दूरदर्शी सोच ने हाट बाजार क्लिनिक योजना का रूप लिया। अब आदिवासी जनता को अस्पतालों तक पहुंचने की जरूरत नहीं है, बल्कि अस्पताल खुद उनके घरों के पास पहुंचता है। सरगुजा संभाग के कोरिया जिले में मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की महत्वाकांक्षी हाट बाजार क्लिनिक योजना से सुदूर एवं पहुंच विहीन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच अब काफी आसान हो गई है।

शहरों से लेकर दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों के हाट बाज़ारों तक हाट बाजार क्लिनिक के माध्यम से नि:शुल्क परामर्श ,जांच तथा दवाइयां उपलब्ध हो रही हैं और इससे योजना की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है।एक समय ऐसा था कि कोरिया के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणो को मौसमी बीमारियों की चपेट में आकर अपनी जान गंवानी पड़ती थी, लेकिन बीते साढ़े तीन साल में परिवर्तन ये आया है कि अब इनहें अस्पताल तक नहीं जाना पड़ता, अस्पताल की सारी सुविधाएं हाट बाजार के जरिए इन तक पहुंच रही हैं।ग्रामीणों की मांग पर बढ़ रही है हाट बाजार क्लिनिक एवं एमएमयू की संख्याकोरिया जिले में 35 हाट बाज़ार क्लीनिक का संचालन किया जा रहा था, इसके लिए 5 एमएमयू की सेवाएं ली जा रही हैं।

लेकिन ग्रामीणों की लगातार मांग पर योजना की लोकप्रियता को देखते हुए कोरिया जिला प्रशासन द्वारा 3 अन्य हाट बाजारों का चिन्हांकन किया गया है जिससे अब जिले के लोगों को 35 की बजाए 38 हाट बाज़ारों में स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ मिलेगा। डेडिकेडेट वाहनों पर मरीजों का बोझ ना पड़े इसके लिए मोबाइल मेडिकल यूनिट यानि की एमएमयू की संख्या भी बढ़ाई जाने का प्रावधान किया गया है। 3 महीने में 35 हजार से अधिक को मिला नि:शुल्क जांच एवं दवाईयों का लाभवनाच्छादित कोरिया जिले में मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना के तहत वर्तमान में 35 साप्ताहिक हाट बाजारों में 5 एमएमयू के द्वारा स्वास्थ्य विभाग की टीम प्रत्येक विकासखण्ड के हाट बाजार में स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा रही है।

मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1 अप्रैल 2022 से अभी तक कुल 35 हजार 675 मरीजों ने स्वास्थ्य परीक्षण करवाया तथा नि:शुल्क दवा वितरण का लाभ लिया। इस समयावधि में योजना के अंतर्गत एमएमयू वाहन 538 साप्ताहिक हाट बाजारों में पहुंचे। इस दौरान 53 जरूरतमंदों लोगों को बेहतर स्वास्थ्य हेतु जिला अस्पताल रेफर किया गया ।

आदिवासी अंचल में सुदूर गांवों में रहने वालों को मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक योजना के तहत ज्यादा सुविधाएं मिली इसके लिए प्रत्येक सप्ताह नेत्र सहायक के द्वारा नेत्र परीक्षण उपचार एवं दंत चिकित्सक द्वारा दांतों से संबंधित बीमारियों की भी जांच की जा रही है।

इस तरह से मुख्यमंत्री हाटल बाजार योजना से मरीजों को बेहतर चिकित्सा परामर्श, नि:शुल्क दवा वितरण के साथ ही गंभीर मरीजों को उचित इलाज के लिए उच्च चिकित्सकीय संस्थाओं में रेफर भी किया जा रहा है।

(लेखक सहायक संचालक हैं)

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