क्या यह समाधान है? यूक्रेन युद्ध के बाद बने हालात में तीन दशक पहले आई वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था डावांडोल हो गई है। इससे सिर्फ वे देश उबर पाएंगे, जो ताजा हालात में नया सोचने का जज्बा दिखाएंगे। बाकी उपाय महरम पट्टी हैं, जिनसे समस्या दूर नहीं होगी।
भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर में अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी की है। अगर पिछले महीने अचानक की गई बढ़ोतरी को भी ध्यान में रखें, तो आरबीआई ब्याज दर को दो महीनों के अंदर 90 आधार अंक- यानी लगभग एक फीसदी- बढ़ा चुका है। बैंक के सामने दो चुनौतियां हैं- बढ़ती महंगाई और देश से विदेशी पूंजी के हो रहे पलायन को रोकने की। तो यही दो कसौटियां हैं, जिन पर मौद्रिक नीति में लाए गए बदलाव की सफलता या नाकामी को परखा जाएगा।
ताजा बढ़ोतरी के बावजूद रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में मुद्रास्फीति दर 6.7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है। स्पष्टत: यह बैंक और भारत सरकार के तय लक्ष्य से काफी ऊंचा है। तो ब्याज दर बढऩे से तुरंत महंगाई काबू में आएगी, इसकी उम्मीद रिजर्व बैंक को भी नहीं है। दूसरी तरफ पूंजी का पलायन अमेरिका में ब्याज दर बढऩे से हो रहा है। वहां हो रही बढ़ोतरी से रिजर्व बैंक की बढ़ोतरियां मुकालबा कर पाएंगी, ये आस जोडऩा किसी नजरिए से यथार्थवादी नहीं होगा।
दूसरी तरफ ब्याज दर बढऩे का असर उन कारोबारियों/ लोगों पर पड़ेगा, जिन्होंने आसान मौद्रिक नीति के दौर में उदारता से कर्ज लिया। अब चाहे वो कर्ज उद्यम लगाने के लिए लिया गया हो, या मकान या कार खरीदने के लिए- उन पर चुकाई जाने वाली किस्तें बढ़ जाएंगी। महंगाई और अधिक किस्त चुकाने के दबाव में उनका उपभोग खर्च घटेगा, ये अनुमान सहज लगाया जा सकता है। तो पहले से ही कम मांग की समस्या से जूझ रहे बाजार पर यह एक और मार होगी।
फायदा सिर्फ उन लोगों को होगा, जिन्होंने फिक्स्ड डिपोजिट जैसी योजनाओं में निवेश कर रखा है। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि आरबीआई ने जो कदम उठाए हैं, उनके अलावा उसके पास कोई और विकल्प भी नहीं है। विकल्प अगर किसी के पास हो सकता है, तो वह सरकार है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि कोरोना महामारी और खास कर यूक्रेन युद्ध के बाद तीन दशक पहले आई वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था डावांडोल हो गई है। इससे सिर्फ वे देश उबर पाएंगे, जो ताजा हालात में नया सोचने का जज्बा दिखाएंगे। बाकी उपाय महरम पट्टी हैं, जिनसे समस्या दूर नहीं होगी।
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