कांग्रेस के लिए फैसले की घड़ी

अजीत द्विवेदी – पिछले तीन साल से कांग्रेस पार्टी जिस असहज स्थिति को टाल रही थी वह स्थिति आ गई है। अब कांग्रेस को तय करना है कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन होगा? कांग्रेस को यह भी तय करना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी क्या रणनीति होगी? उसे यह भी तय करना है कि वह लोकप्रिय विमर्श को लेकर आगे बढ़ेगी या अलोकप्रिय होने का जोखिम लेकर अपने सिद्धांतों पर चलेगी। कांग्रेस को कई और फैसले करने हैं लेकिन ये तीन चीजें सबसे मुख्य हैं।

सबसे पहले अध्यक्ष, फिर सिद्धांत और तब चुनावी रणनीति। इन तीनों पर इस समय चर्चा का करने का मकसद यह है कि कांग्रेस ये तीनों फैसले करने के मुहाने पर खड़ी है। उसे अगले कुछ दिनों में ये तीनों फैसले करने हैं। कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष का फैसला तीन साल से टाल रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने 2019 में इस्तीफा दे दिया था। तब से सोनिया गांधी खराब सेहत के बावजूद अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर काम कर रही हैं।

अब कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष चुने जाने का समय आ गया है। कांग्रेस की पिछली कार्य समिति की बैठक में तय हुआ था कि 20 अगस्त से 21 सितंबर के बीच अध्यक्ष चुना जाएगा। सो, उम्मीद करनी चाहिए कि 21 सितंबर से पहले पार्टी को नया अध्यक्ष मिल जाएगा। कांग्रेस को जो तीन फैसले करने हैं उनमें सबसे अहम यहीं है कि कौन होगा पार्टी का अध्यक्ष? राहुल गांधी की कमान में कांग्रेस ने 2018 में हुए राज्यों के चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था।

कर्नाटक में पांच साल की एंटी इन्कंबैंसी के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा था और उसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जीत हासिल की थी। लेकिन 2019 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी, जिसके बाद राहुल ने इस्तीफा दे दिया। कह सकते हैं कि चुनावी प्रदर्शन के लिहाज से राहुल की अध्यक्षता में कोई कमी नहीं है। वैसे भी डीफैक्टो अध्यक्ष के रूप में वे ही काम कर रहे हैं। सो, वे अध्यक्ष बन जाएं तो कांग्रेस में पिछले कई सालों से बनी अनिश्चितता खत्म हो जाएगी।

परंतु इसके दूसरे खतरे हैं। भाजपा को यह कहने का मौका मिलेगा कि कांग्रेस में अध्यक्ष पद एक परिवार के लिए आरक्षित है। ध्यान रहे पिछले 24 साल से दो साल के राहुल के कार्यकाल को छोड़ दें तो सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं। यानी 24 साल से दो लोग अध्यक्ष हैं, जबकि भाजपा में इन 24 सालों में नौ अध्यक्ष बने हैं।

इससे यह संदेश जाता है कि भाजपा में कोई भी अध्यक्ष बन सकता है, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। इस धारणा को तोडऩे के लिए नेहरू-गांधी परिवार की जगह किसी दूसरे नेता को अध्यक्ष बनाया जा सकता है।

इसका पहला फायदा ये है कि कम से कम सैद्धांतिक रूप से यह कहने का मौका मिलेगा कि कांग्रेस एक परिवार की पार्टी नहीं है। दूसरे, राहुल गांधी के ऊपर से फोकस हटेगा। अभी सत्तारूढ़ भाजपा के हमले का एकमात्र निशाना राहुल हैं, जबकि किसी और को अध्यक्ष बनाने पर एक दूसरा चेहरा भी मिलेगा, जिस पर हमले होंगे। फोकस हटने के बाद राहुल संगठन और प्रचार के काम पर बेहतर ध्यान दे पाएंगे। एक फायदा यह भी हो सकता है कि मीडिया उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना बंद करे। अगर नहीं बंद करे तो उनको आगे बढ़ कर यह ऐलान करना चाहिए कि वे किसी हाल में पीएम पद की रेस में नहीं हैं।

अगर नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता अध्यक्ष बनता है तो क्या होगा? इंदिरा और राजीव गांधी का युग समाप्त होने के बाद परिवार से बाहर के दो लोग अध्यक्ष बने थे। पहले पीवी नरसिंह राव और फिर सीताराम केसरी। इन दोनों के साथ सोनिया गांधी का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। दोनों ने सोनिया गांधी को हाशिए में डालने और पार्टी अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया था।

यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर नरसिंह राव को एक कार्यकाल और मिल जाता तो कांग्रेस पार्टी स्थायी रूप से नेहरू-गांधी परिवार के हाथ से निकल जाती। यह संयोग हुआ कि कांग्रेस चुनाव हार गई और उसके बाद सीताराम केसरी अध्यक्ष बने।

उनके नियंत्रण से भी सोनिया और उनके करीबियों ने कांग्रेस को कैसे निकाला यह लंबी कहानी है। तभी परिवार में बाहरी किसी नेता को लेकर हिचक है। हालांकि तब यह स्थिति थी कि सोनिया ने कभी राजनीति नहीं की थी और राहुल व प्रियंका दोनों बच्चे थे। अब स्थिति बदल गई है। अब सोनिया व राहुल दोनों अध्यक्ष रह चुके हैं और सोनिया अपनी क्षमता से कांग्रेस को दो बार केंद्र की सत्ता में बैठा चुकी हैं।

इसलिए कोई बाहरी नेता अध्यक्ष बना तब भी वह पार्टी पर कब्जा करने की नहीं सोच सकता है। इसलिए जिस तरह भाजपा में पार्टी का चाहे जो भी अध्यक्ष हो वह शीर्ष नेताओं के हिसाब से काम करता है वैसी ही स्थिति सोनिया और राहुल कांग्रेस में बना सकते हैं।

दूसरा फैसला सिद्धांत बनाम लोकप्रिय विमर्श का है। कांग्रेस शुरू से सर्वधर्म समभाव की राजनित करती रही है और इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जुड़वाए थे। अभी लोकप्रिय विमर्श पूंजीवाद को बढ़ावा देने और एक धर्म की सत्ता स्थापित करने का है। कुछ समय तक राहुल गांधी ने यह राजनीति की है।

उन्होंने भी चारों धामों की यात्रा की है और जनेऊ दिखा कर अपनी जाति व गोत्र भी बताया है। इतना करने के बाद भी लेफ्ट पार्टियों के बाद कांग्रेस इकलौती बड़ी पार्टी है, जिसने गुजरात में बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई का विरोध किया। सो, कांग्रेस अब भी मतदाताओं के मूड और अपने पारंपरिक सिद्धांतों व मान्यताओं के बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रही है।

लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा कि देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी चुनाव जीतने की हड़बड़ी में लोकप्रिय विमर्श को अपनाने का लोभ न पाले।

उसे राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के बरक्स जन सरोकार के मुद्दे उठा कर उन्हीं को राष्ट्रवाद के मुद्दों में तब्दील करना होगा। अपनी भारत जोड़ो यात्रा से पहले राहुल गांधी ने जिस तरह सिविल सोसायटी के लोगों के साथ संवाद किया वह आश्वस्त करने वाला है कि कांग्रेस भटक नहीं रही है। यह जोखिम का काम था क्योंकि सिविल सोसायटी को सोशल मीडिया में टुकड़े टुकड़े गैंग के तौर पर स्थापित किया गया है।

तीसरा फैसला अगले चुनाव की रणनीति को लेकर करना है। कांग्रेस के लोग कह सकते हैं कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद जैसी स्थितियां बनेंगी उसके हिसाब से यह फैसला होगा।

लेकिन सवाल है कि क्या तब तक बाकी पार्टियां बैठ कर इंतजार करेंगी? अगर कांग्रेस को अपनी यात्रा के बाद ही फैसला करना है तब भी उसे देश की समान विचारधारा वाली सभी पार्टियों से संवाद करना होगा।

उनकी राय लेनी होगी। अगर उन्हें कांग्रेस की कमान में अगला चुनाव लडऩे में आपत्ति है तो उस पर ईमानदारी से ध्यान देना होगा। सबसे बड़ी पार्टी होने के नेता कांग्रेस नेतृत्व करने को अगर स्वाभाविक हक मानती है तो यह नुकसानदेह हो सकता है। उसे इस पर आम सहमति बनानी होगी।

दूसरी ओर किसी अन्य पार्टी के नेता के दावे को स्वीकार करके लडऩा भी कांग्रेस के लिए नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए उस स्थिति से भी बचना है।

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