क्षमा शर्मा –
प्लेट में गरमा-गरम भरवां परांठा हो, डोसा हो, पूरी-कचौरी, अचार हो, कॉफी-चाय की चुस्कियां हों, चॉकलेट, हलवा, मिठाई की मिठास हो, परिवार आसपास हो, हंसी–मजाक हो और सामने टीवी के पर्दे पर लाइव दिखता युद्ध हो, तो कहने ही क्या। ऐसे दृश्य रोज तो देखने को मिलते नहीं। दफ्तर से लौटकर थकान मिटाने का यह सबसे मनोरंजक तरीका है। कोई बड़ी से बड़ी मारधाड़ वाली फिल्म इसके सामने फीकी है। युद्ध हमारे मन में कोई दु:ख, परेशानी, सहानुभूति नहीं जागता। रोते-बिलखते लोग हमें सच्चे नहीं लगते। बल्कि लाइव लड़ाई एक एडवेंचर का भाव पैदा करती है। भागते, खून से सने लोग, साइकिल पर जाता बच्चा बम से उड़ता, टूटे, तहस-नहस हुए घर, खाने-पीने की चीजों की भारी कमी, एटीएम खाली, पेट्रोल पंप खाली, पानी, नमक की कमी, स्टेशनों पर गाडिय़ां कैंसिल होने के कारण भारी भीड़, एयर लाइंस का टिकटों के दामों को दोगुना करना, भागते लोगों की बदहवासी, बचाने की पुकार, हममें युद्ध के प्रति कोई नाराजगी पैदा नहीं करती, न करुणा जगाती है। हम लगातार हथियारों की आधुनिक तकनीक और मारक क्षमता के सामने नतमस्तक होते रहते हैं। और वाह-वाह करते हैं। यही ताकत की पूजा है। जबकि आम लोग लड़ाई को आमंत्रण नहीं देते हैं, वे अपने-अपने नेताओं की नीतियों के कारण इसे झेलने को अभिशप्त होते हैं।
इन दिनों हम जबरा मारे और रोने भी न दे की कहावत को चरितार्थ होते देख रहे हैं। पुतिन की ताकत से बड़े से बड़े देश घबरा रहे हैं। दुनिया को बात-बात पर आंखें दिखाने वाले देश, इधर–उधर हो रहे हैं। कल तक जिस यूक्रेन की पीठ पर हाथ धर कर उकसा रहे थे, आज कोई ढांढ़स बंधाने वाला तक नहीं दिख रहा है।
देखने वालों की तो एक एडवेंचर और वो मारा, वाह क्या निशाना साधा है, जैसे वाक्यों से आंखें चमक उठती हैं। करुणा क्या हमारी जिंदगियों से इस तरह विदा हो गई है? किसी और के दु:ख से क्या द्रवित होना भूल गए हैं? या पुराने वक्त के वे योद्धा दिलों में जगह बनाए हैं, जो जितने सिर काटकर लाते थे, उतने ही सम्मानित होते थे। दुश्मन कभी मनुष्य क्यों नहीं लगते। उनकी लाशें और कटे सिर वीरता का भाव क्यों जगाते हैं।
याद कीजिए 1991 के इराक-अमेरिका के युद्ध को, जब बहुत से देशों की सेनाओं ने अमेरिका के नेतृत्व में इराक पर हमला बोल दिया था। कहा गया था कि सद्दाम हुसैन के पास खतरनाक जैविक हथियार हैं। वहां कुछ नहीं मिला था, मगर सद्दाम को फांसी दे दी गई थी। पश्चिमी देशों की इस दरोगाई और एक से एक मारक हथियारों के प्रदर्शन का लाइव प्रसारण किया गया था। आसमान में तेज गति से दौड़ती मिसाइलें किसी जादू की तरह लगती थीं जो ठीक निशाने पर वार करती थीं। तब कहा गया था कि अमेरिका और पश्चिमी देशों ने आने वाले सौ साल के हथियारों का परीक्षण कर लिया है। उसके बाद यही भारत में हुआ। कारगिल की लड़ाई का भी प्रसारण किया गया था। दुनिया भर के चैनल्स इसे खूब दिखा रहे थे। हमारे यहां की एक मशहूर पत्रकार ने जब युद्ध स्थल से मोबाइल पर संदेश भेजा तो पाकिस्तान ने उसे इंटरसेप्ट करके मिसाइल दाग दी थी और हमारे कई सैनिक मारे गए थे। एक तरह से लालची मीडिया द्वारा युद्ध हमारे घर-घर में घुसा दिया गया। युद्ध से नफरत करने की जगह हम उसमें आनंद प्राप्त करने लगे।
जिस तरह से हिंसा से भरी फिल्में हमें चकित करती हैं, परेशान नहीं, जबकि हम जानते हैं कि फिल्म में कोई असली लड़ाई नहीं होती है। बीस-बीस को मौत के घाट उतारने वाला हीरो निजी तौर पर शायद एक आदमी से लड़ाई का खतरा मोल नहीं ले सकता। जबकि असली युद्ध में कितने मरते हैं, कितने घायल होते हैं, अर्थव्यवस्था तबाह होती है। नदियां प्रदूषित होती हैं। फसलें चौपट होती हैं। और पशु-पक्षियों की तो गिनती ही कौन करता है। उनकी जान जाए या रहे, हमें क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन ताकतवर के खौफ के कारण हम उसे आदर की दृष्टि से देखते हैं। जब से पुतिन ने हमला बोला है, भारत में भी उनके प्रशंसकों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है। लोग बाइडेन और पुतिन की तुलना कर रहे हैं। पुतिन को असली शेर और चीता बता रहे हैं। जबकि देखा जाए तो अमेरिका या रूस दुनिया भर में अपने हथियार बेचते हैं। नाम जरूर अहिंसा का लेते होंगे। हथियारों के सौदों के बारे में भी यही कहा जाता है कि वे शक्ति-संतुलन के लिए होते हैं और असली शांति शक्ति-संतुलन से ही होती है। कमजोर को तो सब मार लेते हैं। इस सच को हम अक्सर भूल जाते हैं कि बड़े से बड़े युद्ध के बाद हमें समझौतों की तरफ बढऩा पड़ता है, क्योंकि युद्ध से उस देश की अर्थव्यवस्था तो तबाह होती ही है जिस पर आक्रमण किया जाता है, हमलावर देश भी नहीं बचता है।
लेकिन लड़ाई में आनंद प्राप्त करने वाले ये सब नहीं सोचते हैं। वैसे भी जब तक खुद की उंगली न कटती हो, हर लड़ाई हमें बहुत आनंद देती है।
इसी आनंद को दुनिया भर के चैनल्स पकड़ते हैं। उन्हें पता है कि यह सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज है, कोई मरे-जिये हमारी टीआरपी और मुनाफे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए। इसीलिए आपने देखा होगा कि बहुत से एंकर अपने-अपने माइक हाथ में पकड़े बता रहे हैं कि वे सीधे युद्ध स्थल से ही रिपोर्ट कर रहे हैं, कि वे सबसे पहले वहां पहुंचे हैं, कि उन्होंने ही सबसे अधिक मारक दृश्य दिखाए हैं, कि उनके ही कैमरा एंगल सर्वश्रेष्ठ रहे हैं। कई तो इसे तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत की तरह बेच रहे हैं। कुछ दिन पहले तक जो लोग अफगानिस्तान की लड़ाई और भागती अमेरिकी सेना को अपने-अपने घरों में देखकर तालियां बजा रहे थे, अब यही उक्रेन और रूस की लड़ाई में हो रहा है।
हम भूल गए हैं कि चाहे हम युद्ध में भाग लें या न लें, उसकी तबाही से नहीं बच सकते। यह नहीं कह सकते कि वहां होने वाले युद्ध से हमें क्या। बेशक वहां की सेनाएं हमारे यहां न आएं, लेकिन अगर दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट होती है, तो भला हम भी उससे कैसे बच सकते हैं।
– लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।