पंजाब के अपवाद को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर में भाजपा की दमदार वापसी ने चुनाव पंडितों को भी हैरत में डाला है। इसमें भी उ.प्र. में कई मिथक तोड़कर योगी सरकार की वापसी कई मायनों में चौंकाने वाली है। निस्संदेह, सपा के सूत्रधार अखिलेश ने यादव, जाट व मुस्लिम गठजोड़ बनाकर जो कड़ी चुनौती भाजपा के लिये पैदा की, उसमें चुनाव विश्लेषक भाजपा की जीत की राह को संदेह से देख रहे थे। लेकिन बृहस्पतिवार को जब चुनाव परिणाम आये तो चुनाव पंडितों के चौंकने की बारी थी। दिल्ली की गद्दी की राह तय करने वाले प्रदेश के चुनाव परिणामों के समीकरणों को भाजपा व नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट माना जा रहा था। यह भी कि इसके परिणाम 2024 के आम चुनाव की दिशा-दशा तय करेंगे। इस कसौटी पर भाजपा खरी उतरी है। इसे नरेंद्र मोदी की अगले आम चुनाव में दावेदारी के रूप में देखा जाने लगा है। फिलहाल भाजपा के चुनाव प्रबंधन का तोड़ विपक्ष के पास नहीं है। यह भी कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में वर्ष 2014 से बदलाव की राजनीति का जो उपक्रम शुरू हुआ था, उसका तिलिस्म अभी बाकी है। खामियों का जिम्मा राज्य सरकार पर और उपलब्धियों का श्रेय केंद्र सरकार के खाते में डालने वाला तंत्र यह मंत्र मतदाताओं को समझाने में कामयाब रहा है। तभी कोरोना संकट की टीस, महंगाई, सत्ता के विरुद्ध उपजे आक्रोश, बेरोजगारी तथा आवारा पशुओं के संकट के बावजूद उ.प्र के मतदाताओं ने भाजपा को फिर सत्ता सौंप दी। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा ने सिर्फ ध्रुवीकरण का ही सहारा लिया हो, उसने लोक कल्याण कार्यक्रमों, विकास योजनाओं व मोदी की छवि को भी भुनाया है। यह विश्वास जनता को दिलाया है कि नेतृत्व के जरिये सुरक्षा देने का काम नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। उसके जनाधार में महिलाओं, पिछड़ी जतियों के साथ ही परंपरागत वोट भी थोड़ी-बहुत नाराजगी के साथ जुड़ा रहा है।निस्संदेह, विपक्ष भाजपा के सामने कोई वैचारिक विकल्प प्रस्तुत नहीं कर सका। जो मुद्दे थे भी, उन्हें जमीनी स्तर पर नहीं उतार पाया। ममता बनर्जी के नेतृत्व में मोदी का विकल्प बनने के जो प्रयास शुरू हुए थे उनको इससे झटका लग सकता है। भले ही उ.प्र. में सपा गठबंधन की चुनौती को भांपते हुए भाजपा ने अपनी पूरी मशीनरी जनाधार को बचाने के लिये लगा दी हो, लेकिन इस जीत से योगी आदित्यनाथ का कद पार्टी संगठन में मजबूत हुआ है। एक समय मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने की बात हो रही थी, वही चेहरा नूरानी होकर निकला है। बहरहाल, इन चुनाव परिणामों ने कई क्षेत्रीय व वंशवादी राजनीतिक दलों के अवसान की भी इबारत लिख दी। उ.प्र. में बसपा का सिमटना और कांग्रेस का हश्र यही कहता है। वहीं पंजाब में अकाली दल के इतिहास में सबसे बड़ी शिकस्त सामने आई है। बहुत संभव है कांग्रेस पार्टी में बाहरी नेतृत्व का प्रश्न एक बार फिर उठे। बहरहाल, चर्चा उ.प्र. में भाजपा की चुनाव इंजीनियरिंग की भी होगी कि गहरे आक्रोश को कम करके भाजपा कैसे सत्ता में लौटी। निस्संदेह, विपक्षी दलों के अस्तित्व के लिये उ.प्र. चुनाव एक अग्नि परीक्षा की तरह ही थे। मगर भाजपा ने उ.प्र. व उत्तराखंड में अपना मत प्रतिशत बढ़ाकर आलोचकों की बोलती बंद कर दी। लेकिन विश्लेषकों को यह सवाल मथ रहा है कि आखिर क्या वजह थी कि बेरोजगारी, महंगाई व व्यवस्था की विसंगतियों से क्षुब्ध होते हुए मतदाता ने मतदान स्थल पर अपना मन बदला। निस्संदेह, इसमें भाजपा के कोर वोटर वर्ग, ध्रुवीकरण के साथ विकास के मुद्दे भी प्रभावी रहे और एक भरोसा यह भी कि डबल इंजन की सरकार देर-सवेर बदलाव की वाहक बन सकती है। निस्संदेह, दिल्ली आप सरकार की कामयाबी, बिजली-पानी, चिकित्सा व शिक्षा के मुद्दों ने पंजाब के जनमानस को प्रभावित किया, लेकिन ऐसी ही कोशिश आप ने उत्तराखंड व गोवा में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके भी की थी, जबकि कामयाबी नहीं मिली। सही मायनों में पंजाब में आप की जीत के मूल में परंपरागत राजनीतिक दलों से मोह भंग होना व किसान आंदोलन से उपजी कसक भी शामिल थी।