बिहार जाति जनगणना पर सबकी निगाहें, क्या यह हो सकता है राष्ट्रीय खाका?

पटना 23 अपै्रल,(एजेंसी)। बिहार में जाति आधारित जनगणना का दूसरा चरण शुरू होने के साथ ही राज्य के लोग इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का विश्लेषण करने लगे हैं। ‘बुद्धिजीवी समुदाय’ का मानना है कि इसमें कुछ खामियां हैं जैसे अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में उप-जातियां, दलित और मुस्लिम समुदायों को गिना जाएगा, लेकिन इसमें उच्च जातियों की उप-जातियों की गणना करने का कोई प्रावधान नहीं है।

ऐसे में राज्य सरकार की इस कवायद ने उच्च जातियों के मन में राज्य सरकार की मंशा पर संदेह पैदा किया है।

पटना के निजी शिक्षक अशोक कुमार ने कहा, राज्य सरकार इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि ऊंची जाति के विधायक, एमएलसी और सांसद बिहार में अपनी जाति की वकालत नहीं कर सकते। उनका मानना है कि अगर वे ऊंची जाति के लोगों के हित में बात करते हैं, निचली जातियों का उनका वोट बैंक उनसे फिसल सकता है और वे चुनाव हार सकते हैं।

कुमार ने कहा, दो से तीन उच्च जाति के विधायक और सांसद राजद, भाजपा, जद-यू, कांग्रेस, हम और अन्य में हैं, लेकिन वे अपनी जातियों के हितों के लिए मुखर नहीं हैं। दूसरी ओर, दलित और अल्पसंख्यक नेता हित में बात करते हैं। यही कारण है कि राज्य सरकार ईबीसी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों की जातियों और उप-जातियों की गिनती कर रही है, लेकिन उच्च जातियों में नहीं। पंचायत या ब्लॉक स्तर पर नेता अपनी जातियों के हित के लिए बात कर सकते हैं, लेकिन एमएलए, एमएलसी और एमपी के पद पर वे ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकते। वे अपने व्यक्तिगत और पार्टी हितों को देख रहे हैं।

कुमार ने कहा, मैं भूमिहार एकता मंच व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ा हूं, जहां कई बीजेपी नेता भी मौजूद हैं। बीजेपी ने 23 अप्रैल को बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती मनाने का फैसला किया है, जो ठीक है, लेकिन 22 तारीख को मैंने परशुराम जयंती भी मनाई है। लेकिन किसी ने इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी।

जातियों की वास्तविक संख्या कोई नहीं जानता, लेकिन बिहार में एक आम धारणा है कि भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ जैसी ऊंची जातियों की तुलना में ईबीसी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों की संख्या बहुत अधिक है। भाजपा के पास उच्च जातियों के पारंपरिक मतदाता हैं, जबकि नीतीश कुमार लव-कुश समुदाय के निर्विवाद नेता हैं और लालू प्रसाद यादव मुस्लिम-यादव और अन्य निचली जातियों के नेता हैं। जीतन राम मांझी महादलितों के नेता हैं और चिराग पासवान दलित समुदाय के नेता हैं।

हालांकि, जाति आधारित जनगणना के बहुत सारे सकारात्मक पहलू भी हैं। पटना के अर्थशास्त्री डॉ. विजय किशोर कहते हैं, जाति आधारित जनगणना पूरी होने के बाद हम किसी खास जाति और समुदाय के पिछड़ेपन को चिन्हित करेंगे। उसके बाद राज्य और केंद्र सरकारें ईबीसी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के हित में कई कल्याणकारी कार्यक्रम चला रही हैं। इसमें कोई राजनीतिक हित शामिल नहीं है, जो मुझे विश्वास है कि सामाजिक, वित्तीय और राजनीतिक मोचरें पर आम लोगों को लाभ होगा।

जाति आधारित जनगणना का पहला चरण इस साल मार्च में पूरा हुआ था, जहां हर घर का एक अलग हाउस कोड था। दूसरा चरण 15 अप्रैल से शुरू हुआ और एक महीने में समाप्त होगा।

दूसरे चरण में बिहार सरकार के कर्मचारी घर-घर जाकर एक शीट पर छपे 17 प्रश्न पूछेंगे. इसे डिजिटल रूप में भी अपलोड किया जाएगा ताकि कोई भी इसे इंटरनेट से हासिल कर सके।

कर्मचारी परिवार के मुखिया का नाम, उसके पिता का नाम, आयु, लिंग, वैवाहिक स्थिति, धर्म, जाति, उप-जाति (ईबीसी, ओबीसी, अल्पसंख्यक के मामले में) कोड, शैक्षणिक योग्यता, पेशा, आवासीय स्थिति (स्वयं के घर या किराए पर रहना), अस्थायी प्रवासन की स्थिति, कंप्यूटर, लैपटॉप, मोटर वाहन, कृषि भूमि, आवासीय भूमि और सभी स्रोतों से आय की जानकारी ले रहे हैं।

पटना के जिलाधिकारी और जिले में जाति आधारित जनगणना के नोडल अधिकारी डॉ. चंद्रशेखर सिंह ने कहा, एक परिवार के बारे में भौतिक और डिजिटल तरीके से जानकारी जुटाने में आधा घंटा लग रहा है। हम विदेश में रह रहे लोगों से भी संपर्क कर रहे हैं। हम वीडियो कॉलिंग के जरिए देश कोड के साथ अपना पेशा, कार्यकाल, जाति, वित्तीय स्थिति पूछ रहे हैं। सब कुछ सुचारू रूप से चल रहा है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा, रिपोर्ट बिहार विधानसभा और विधानसभा में पेश की जाएगी और इसके बाद इसे केंद्र को भेजी जाएगी। जाति आधारित जनगणना की विस्तृत रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में भी रखी जाएगी। यह न केवल किसी विशेष व्यक्ति की जाति का दर्जा बल्कि उसकी वित्तीय स्थिति भी देता है। यह लोगों और अंतत: राज्य के विकास के बाद नीतियों को बनाने में मदद करेगा।

उन्होंने कहा, देश में जनगणना कराना केंद्र की जिम्मेदारी है। मैं हैरान हूं कि पिछले 12 से 13 साल में ऐसा नहीं हुआ। पिछली सरकारें हर 10 साल में इसका आयोजन करती थीं।

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