जनता पर मार और नेता का रोजगार

आलोक पुराणिक –
कई राज्यों में चुनावी मंडियां सज चुकी हैं, दुकानदार हुंकारे लगा रहे हैं। दुकानदारी की एक तरकीब यह भी है कि पड़ोसी दुकानदार का माल घटिया बताया जाये और अपना माल चकाचक बताया जाये। मेरे घर के करीब की सब्जी मंडी में एक आलूवाला पड़ोसी के आलुओं की ओर इशारा करते हुए हुंकारा लगाता है-घटिया आलू उधर हैं, बढिय़ा आलू इधर हैं। और कमाल यह है कि कभी घटिया आलू वाले से आलू उधार लेकर अपनी दुकान पर रखता है, अगर मांग बहुत ही ज्यादा हो जाये उसकी दुकान पर। उधर का घटिया आलू इधर आते ही बढिय़ा हो जाता है।
वादे उड़ रहे हैं मक्खियों की तरह, गिनती मुश्किल है। अगर वैज्ञानिक कुछ जुगाड़ ऐसा कर दें कि कोरोना के सारे वायरस चुनावी झूठ से मरने लगें, तो कम से कम पंजाब, उत्तराखंड, यूपी में तो कोरोना रातों रात गायब हो जायेगा। झूठ से अब कोई नहीं मरता, बल्कि झूठ से तो कइयों को रोजगार-धंधे मिल रहे हैं। टीवी चैनलों को इश्तिहार मिल रहे हैं, प्रिंटिंग प्रेसों को पोस्टर छापने का रोजगार मिल रहा है। झूठों की इतनी वैरायटी है इन दिनों कि झूठ की रेंज आश्चर्यचकित करती है।
22 करोड़ की कुल जनसंख्या वाले राज्य में कोई कह रहा है कि 50 करोड़ रोजगार दे दिये जायेंगे। गंजों को हेयर ड्रायर बेचे जा सकते हैं। कमाल यह है कि रोजगार के वादे करके नेता का रोजगार चलता जाता है। नेता तो आम तौर पर टॉप रोजगार अपनी फैमिली के लिए ही सुरक्षित रखता है। वादे अलबत्ता सबके लिए हैं और मुफ्त हैं। इतने रोजगार पैदा हो सकते हैं यह बात नेताओं को चुनावों में ही क्यों समझ में आती है, पहले क्यों नहीं बताते। चुनाव से पहले इस मारधाड़ में लगी रहती हैं कई पार्टियां कि जीजाजी ज्यादा कमा गये या बहू जी ज्यादा कमा गयीं। चुनाव से पहले परिवार ही कारोबार होता है, चुनाव के ठीक पहले जनता में परिवार दिखने लगता है।
चुनाव है जी चुनाव है, कोरोना का इस्तेमाल हम कैसे करें—एक नेता ने मुझसे पूछा। मैंने बताया कि सिंपल—दूसरी पार्टी से जब बंदों को तोड़कर लाओ, तो बताओ कि नये मंत्रालय बनाये जायेंगे, नये मंत्री बनाये जायेंगे। कोरोना इतने लंबे समय से है, अभी लंबा चलेगा, तो हम कोरोना मंत्रालय बनायेंगे, कोरोना मंत्रालय में एक कैबिनेट रैंक का मंत्री होगा और कम से कम तीन उपमंत्री होंगे। कोरोना कैबिनेट मंत्री-कोरोना उपमंत्री-अल्फा वेरिएंट, कोरोना उपमंत्री डेल्टा वेरिएंट, कोरोना उपमंत्री ओमीक्रोन वेरिएंट। कोरोना आम आदमी को भले ही बेरोजगार कर रहा हो, पर नेता इसमें भी रोजगार तलाश सकता है। कामयाब नेता दरअसल कामयाब दुकानदार होता है, माल बेचना आता है उसे।

गाँव की माटी की सुगंध,मिट्टी कैसी होती है? फसल कैसे होते है?

व्यंग –
दिलीप सिंह –
मैं गाँव जाने के लिए अपने समान बाँध रहा था।शहर में पिताजी सरकारी मुलाजिम है। माँ मै और भाई पिताजी के साथ शहर में रहते हैं पिताजी कभी-कभार गाँव जाया करते है। मुझे  जाने का मौका मिला नही। लेकिन मैने भी जिद ठान ली थी कि इस बार मैं  जाऊँगा। वह दिन अब नजदीग आ रहा था गाँव कैसा होता है?  मिट्टी कैसी होती है? फसल कैसे होते है? लहलहाती फसलों को देखने की इच्छा मन में बार-बार बलवती हो रही थी। कब जाऊँ,कब पहुँचू? हालांकि माँ और पिताजी की इच्छा नहीं थी कि मैं  जाऊँ।
इसका कारण यह था कि पिताजी बता रहे थे कि नक्सलियों (दस्तों) ने  पाँव पसार दिए है। इसलिए गाँव जाना ठीक नहीं होगा। किसी अनहोनी आशंका से माँ भी डरी हुई थी। लेकिन मेरी गाँव देखने की इच्छा प्रबल थी। मेरी जिद के आगे दोनो को झूकना पड़ा और मुझे गाँव जाने की इजाजत देनी पड़ी। मैं गाँव जाने के लिए अपने समान बाँध रहा था। मेरा दोस्त रामखेलावन आ पहुँचा। आकर पूछा भैया कहाँ जा रहे है? मै उससे बोला-गाँव जा रहा हूँ। तो वह बोला कुछ ला दिजिएगा। हाँ-हाँ ला देगें मैं बोला। वह मुझे बस स्टैण्ड छोडने आया। बस  जब खुल पड़ी तब वो वापस लौटा।
देखते-देखते बस ने शहर के सरहद  को पार कर दिया। कुछ ही देर बाद चारो ओर हरे-भरे जंगल दिखाई देने लगे। लगभग सात-आठ घंटे के सफर के बाद बस गाँव पहुँची। जहाँ बस रूकी थी वहाँ से गाँव चार-पाँच किलोमीटर दूर था। मैं पूछ-पूछकर अपने गाँव पहुँचा। दादा-दादी मुझे देखकर बहुत खुश हुए। उन्हे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि मैं वही दो वर्ष का रामखेलावन पाण्डे हूँ जो अब गबरू जवान बन गया है।
मै भी अपने दादा-दादी से मिलकर बड़ा खुश था। रात में खाने पर बातचीत हुई,सभी के बारे में पूछताछ हुई सोने के समय दादा ने कहा बेटा गाँव आए हो घर के बाहर इधर-उधर बिना किसी को बोले हुए मत जाना। जमाना थोड़ा खराब है। बिस्तर पर लेटते ही मुझे नींद आ गई सबेरा कब हुआ पता ही नहीं चला। सबेरे नित्य क्रिया से निवृत होकर मैं गाँव घुमने के उद्धेश्य से निकला, जो देखता मुझे वो
संदिग्ध नजरों से देखता मुझसे मेरा नाम व पता पूछता। चूँकि मेरे दादाजी गाँव के सेवानिवृत शिक्षक थे। इसलिए हर कोई उन्हें जानता था। मै अपने चाल में गाँव के वातावरण से गैरवाकिफ इधर से उधर घुमता रहा। जब वापस घर पहुँचा तो दादा-दादी परेशान, आते ही सवाल दागा बिना बोले कहाँ चल गए थे। जानते नहीे गाँव का वातावरण बदल गया है। यह गाँव पहले वाला गाँव नहीं है यहाँ सब-कुछ बदल गया हैं। इस गाँव में नक्सलियों ने पाँव फैला दिया है। वक्त बेवक्त वो चले आते हैं। और इसलिए बिना बोले गाँव में घुमना-फिरना नही। आप ये क्या बोल रहे हैं दादाजी मैं तो गाँव को नजदीक से समझने आया था मैं बोला।
 मुझे रहते अभी दो दिन भी नहीं हुआ था कि नक्सलियो का एक दस्ता गाँव पहुँचा। सारे गाँव  वालो को चौपाल पर बुलाया। दस्ते के आदमियों ने गाँव के ही एक आदमी को पकड़कर चौपाल पर खड़ा किया। उसके हाथ पीछे बाँध दिए गए। वही जनअदालत लगाई गई। इस दौरान दस्ते के हथियार-बंद लोग गाँव के आस-पास पहरे देते नजर आए। चप्पे-चप्पे पर उनके आदमी फैले हुए नजर आए थे। जिस व्यक्ति को उन्होने पकड़ रखा था सजा के तौर पर उसे पच्चीस लाठी मारने का हुक्म सुनाया गया। वो बेचारा गिड़गिड़ाता रहा मैं पुलिस मुखबिर नहीं हूँ लेकिन उसकी सुनने वाला वहाँ कौन था? लाठियों की मार से वो अधमरा हो गया। उसकी चित्कार ने पूरे गाँव वालो को सहमा दिया वहाँ का दृश्य  देखकर मेरा हालत खराब हो गया वहाँ से मैं खिसकना तभी दस्ते के एक सदस्य की नजर मुझ पर पड़ी। उसने मुझे पकड़ा बोला तुम तो यहाँ के लगते नहीं कहीं तुम पुलिस मुखबिर तो नहीं और उसने मुझे पकड़कर चौपाल पर खड़ा कर दिया। अब शुरू हुआ मुझसे पूछताछ का सिलसिला। मेरे बारे में गाँव वालो से पूछा गया। मेरे बारे में तो गाँव वाले जानते नहीं थे उन्होने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। मैं अपना परिचय देता रहा मगर किसी को मेरी बातों में यकिन नहीं हुआ। यह मेरा दुर्भाग्य था कि इस दिन मेरे दादा-दादी किसी प्रायोजन में भाग लेने दूसरे गाँव गए थे। मेरी  बातों का विश्वास दिलाने वाला कोई नहीं था।
 दस्ते के लोग मुझे पकड़कर अपने साथ लेते चले गए वे मुझसे मेरे बारे में जानने की कोशिश करते। मेरे गठीले बदन को देखकर उन्हें मेरे बात में विश्वास ही नहीं होता कि मै पुलिस वाला नहीं हूँ। उन्हें शक था कि मैं पुलिस वाला हूँ। मुझे हर समय ऐसा लगता कि वे मुझे मार डालेगें। एक दिन दस्ते का कमाण्डर मुझसे पुछताछ कर रहा था। मै परेशान होकर बोल उठा हे भगवान मुझे किस चक्कर में डाल दिए मेरी बातो को सुनकर दस्ते का कमाण्डर बोला कि तुम भगवान  को कितने दिन से जानते हो वह हमारे हिट लिस्ट में है उसने हमारे कितने आदमियो को पकड़ा है। मै घबड़ा कर बोला कौन भगवान, दस्ते के कमाण्डर बोला वह यहाँ का थाना इंचार्ज है अब हमें पूरा यकिन हो गया कि तुम पुलिस वाले हो मैं बहुत मुश्किल से उन्हें समझा पाया कि मै ऊपर वाले भगवान को याद कर रहा था मै थाना इंचार्ज भगवान को नही जानता उन्हें बहुत मुश्किल से मेरी बातो पर यकिन हुआ था। उनके साथ इस तरह सात दिन बीत गए।
एक दिन दस्ते वाले मुझे लेकर मेरे गाँव गए उन्हें मेरे बारे में पता चल चुका था कि मैं कौन हूँ? शायद उन्होने अपने स्तर से मेरे बारे में खोजबीन की थी। वे मुझे गाँव के पास छोड़कर चले गए। मैं वहाँ से सीधे अपने घर पहुँचा। मुझे देखकर दादा-दादी बहुत खुश हुए। गाँव में बात फैल चुकी थी। इसलिए मेरे आने की खबर सुनकर मुझे देखने के लिए सभी मेरे घर पर इकठठ्े हो गए। यह मामला पुलिस की भी जानकारी में आ गया था। मेरे घर पहुँचने की खबर पुलिसवालों को भी लग गई थी। उस इलाके का दारोगा अपने पुलिसवालों के साथ घर आ धमका। दस्ते के बारे में पूछताछ करने के बहाने उठाकर थाने ले आया। थाने में मुझसे दस्ते के सदस्यों के बारे में पुछताछ की जाने लगी। दस्ते के अडड्ो के बारे में मुझसे जानकारी पूछी जाने लगी कि वे मुझे अपने किस-किस ठिकाने में ले गए। जब मैं उनको यह बताता की मुझे जानकारी नहीं है तो उन्हें यकिन नहीं होता। उसके बाद मुझे प्रताड़ित किया जाने लगा। उनके व्यवहार से घबड़ा कर मै बोला हे राम जी आपने मुझे किस मुसीबत में डाल दिया मुझे बचाओ यह सुन दरोगा चौका और बोला तुम राम जी को जानते हो बताओ उसके बारे में तुम क्या-क्या जानते हो इसका मतलब है कि तुम भी दस्ते के सदस्य हो, मै घबड़ाया और बोला कौन राम जी दरोगा बोला वही रामजी जिसका तुम नाम ले रहे थे वो दस्ते का एरिया कमाण्डर है अब तुम्हे जेल जाना ही पड़ेगा नहीे तो रामजी के बारे में सच-सच बताओ कि उसका ठिकाना कहाँ-कहाँ है मै घबड़ाकर दरोगा से बोला कि मै उस रामजी को नही जानता मै तो भगवान रामजी का बात कर रहा था दारोगा को मेरी बातो पर यकिन नही हो रहा था वो मुझे जेल भेजने की धमकी देने लगा।
यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि मेरे दादाजी के पहुँच के कारण मैं थाने से छूटा। अगर मेरी जगह कोई और होता तो शायद ही छूट पाता और न जाने उस पर कितने दफा लग गए होते।
थाने से छूटने के बाद मैं सीधा गाँव से शहर की ओर भागा मैं भूल गया गाँव की मिट्टी की सुगंध, लहलहाती फसलों,चहचहाती पक्षियों की आवाज और शायद हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव को।
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पत्रकार ऐसे होते हैं…!

दिलीप सिंह –
हमारे एक दोस्त हैं झटपट लाल नामी-गिरामी पत्रकार हैं। अक्सर हमारी बैठकी जमते रहती हैं। नामी-गिरामी इतने कि जिनके बारे में लिखा,वो या तो निलंबित कर दिए गए, बर्खास्त कर दिए गए या जेल चले गए। वो चाहे अधिकारी हो या क्लर्क जिस विभाग का खाका निकाला। उस विभाग के भ्रष्टाचारी उनके निगाहों से बच नही पाए। लेकिन अपने रहे फक्कड़ के फक्कड़ ही, औरो की तरह शहर में एयर कंडीशन रूम में बैठकर ग्रामीण क्षेत्रों की खोज खबर नहीं लिखते हैं। बल्कि खुद ही ब्लाॅक के बी.डी.ओ. या सी.ओ. से विकास का आँकड़ा लेने पहुँच जाते हैं। उनके इस लगन और जोश को देखकर,उनके संपादक महोदय बहुत खुश रहते है। जब ये ग्रामीण क्षेत्रों पर लिखने के लिए निकलते है तो कई-कई दिन घर नहीे लौटते हैं। इस दौरान खाने-पीने का भी इनको परवाह नहीं होता है। कहाँ सबेरा हुआ, कहाँ दोपहर खुद इनको भी पता नही। इनके इस जूनून के कारण कई बार इनकी जान जाते-जाते भी बची हैं। लेकिन इनको परवाह नहीं। लिखना हैं यानी भ्रष्टाचारियों का पोल खोलना है।
हम इनको लगभग 20 साल से देख रहे हैं। हमेशा फक्कड़ ही रहे है। जेब खाली हो, पेट खाली हो, तो कोई आदमी भला कितने दिन तक आदर्शवादी बना रह सकता हैं। लेकिन ये बीस वर्षो से वैसे के वैसे ही हैं। एक दिन मैं पुछ बैठा-भाई झटपल लाल! आपको किसी ने आॅफर नहीे किया? देखिए आपके संगी-साथी बंगला बना लिए हैं। आॅल्टो कार में घूमते हैं। उनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलो में पढ़ते हैं। और आप वही के वही है। तो वो बोले-रामखेलावन भाई आज आपको दिल की सच्ची बात बताता हूँ मन तो कई बार डोला। औरो की तरह मैं भी बंगले बनाऊँ, आॅल्टो मे घूमूँ, बच्चों को पढ़ने विदेश भेजूँ, लेकिन क्या करूँ? इस कला में हम माहिर नही हूँ। पता नहीं कैसे बाकी लोग फरीया लेते हैं। हमसे नहीे होता हैं। एक बार की बात है, मन बहुत डोल गया था। अंदर की इच्छा जागृत हो गई थी।
इस बार मौका मिला तो औरो की तरह हम भी फरीया लेंगे। जानते हैं रामखेलावन भाई मौका भी आया। मेरी एक रिपोर्टिंग पर एक अफसर सस्पेंड हो गया था। मैं अपने घर से निकलकर कचहरी जा रहा था। तभी देखा मेरा मित्र किसी से बतीया रहा है। मैं भी वहाँ पहुँचा। मेरे मित्र ने सामने वाले व्यक्ति से मेरा परिचय करवाया। और कहा-ये झटपट लाल पत्रकार हैं। और ये जन-वितरण प्रणाली के सप्लाई अफसर हैं। वो आदमी मेरा परिचय जानकर चौंका। उस आदमी का परिचय जानकर मैं भी चौंका। यह वही अफसर था जो मेरे रिपोटींग से सस्पेंड हुआ था। तब वह अफसर मुझसे बोला-झटपट लाल जी आपसे एकांत में कुछ बात करना हैं। मैं भी बोला ठीक है बोलिए कब आपसे मिलूँ। तो उस अफसर ने कहा-रविवार को मेरे घर आइए। उस दिन मै उनसे विदा ले अपने काम की ओर निकल गया।
रविवार का दिन आया। मैं अंदर ही अंदर बड़ा खुश हो रहा था कि आज मुझे फरीया लेने का मौका मिला हैै। दिल बाग-बाग उछल रहा था। मेरे अंदर भी शैतान का वास हो चुका था। मेरा विवेक मर चुका था। मैं यह भूल बैठा था-कलम बेची नहीे जाती। खैर मैं तैयार होकर उस अफसर के घर पहुँचा। मैने वहाँ जाकर देखा उस अफसर के दो छोटे-छोटे बच्चे थे। जिनसे उस अफसर ने मेरा परिचय कराया। अपनी पत्नी से परिचय कराया। चाय-पानी का दौर चला। इस बीच वह अफसर अंदर गया। मेरे अंदर में विचारों की आँधी चल रही थी। जब वो अंदर से बाहर आता तब मैं यह सोचता की वह लिफाफा मेरे लिए ला रहा हैं। इस बीच उसकी पत्नी नाश्ते में चाय के अलावे पूड़ी और भूँजिया लेकर आई। अफसर के बच्चे,पत्नी,और वो और मैं साथ में बैठकर नाश्ता करने लगे। नाश्ता खत्म होने के बाद उस अफसर की पत्नी और बच्चे अंदर चले गए। तब उस अफसर ने मुझसे कहा- जानते हैं आपको मैने घर पर क्यों बुलाया था। मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ की अब यह मुख्य मुद्दा पर आएगा और मुझे लिफाफा थमाएगा। तभी वो अफसर बोला आपको मैनें अपनी बीबी और बच्चों से मिलवाने के लिए बुलाया था कि पत्रकार कैसा होता हैं ?मुझे कुछ समझ में नहीे आया कि वो अफसर ऐसा क्यों बोला? मैने अफसर से पूछा आपके कहने का तात्पर्य क्या हैं, मैं समझा नहीं। तब उस अफसर ने जो कुछ मुझे बताया वह सुन मैं भौंच्चक रह गया। उस अफसर ने मुझे बताया शहर के जितने भी अखबार हैं। उनके जो नामी-गिरामी पत्रकार है। वो मेरे पास रात के 8 बजे, 9 बजे, पहुँच जाते हैं, मुझसे खर्चा-पानी के नाम पर रूपये ले जाते है। मेरी पत्नी और मेरे बच्चे पुछते है कि क्या सभी पत्रकार ऐसे होते है?इसलिए मैने आपको अपनी पत्नी और बच्चों से मिलाने के लिए बुलाया कि देखो पत्रकार ऐसे होते है। बिना लालच,बिना भय, के जो लिखते हैं वही पत्रकार सच्चे पत्रकार है। आपके रिपोर्टिंग से ही मैं सस्पेंड हुआ। लेकिन मुझे खुशी हैं कि जब तक आप जैसे पत्रकार हैं, कलम बिक नही सकती। मेरी पत्नी और बच्चे भी आपसे मिलकर बहुत खुश हैं। उस अफसर की बात सुनकर मेरे अंदर का शैतान मर चुका था। मेरा जमीर फिर से जागृत हो चुकी थी। मैं भगवान को धन्यवाद देने लगा, हे! भगवान तुमने मुझे पतन के रास्ते में गिरने से बचा लिया। मन ही मन उस अफसर को धन्यवाद दिया कि मुझे पतन के रास्ते गिरने से रोक लिया। मैं उस अफसर से विदा ले अपने घर की ओर चल पड़ा।

मामला साईकिल चोरी का

 – दिलीप सिंह –
मामला साईकिल चोरी का.जाड़ा का दिन था। हम अपने छत पर बैठ कर दोपहर के धूप का आनन्द ले रहे थे। काॅलेज के विद्यार्थी होेने के नाते सबेरे-सबेरे बिस्तर छोड़ देना,किताब लेकर छत पर चला जाना,माँ-बाप के आँखो में धूल झोंकने के समान ही था। बेचारे माँ-बाप ये सोचते थे बेटा बड़ा होनहार है,जब देखो किताब से चिपके रहता है। अब उनको क्या मालूम की उनका होनहार बेटा छत पर जाकर क्या करता हैं।
           वैसे आम विद्यार्थियों की तरह उस समय देश-प्रेम और आदर्शवादिता हमारे सर पर हर समय छायी रहती थी। किसी के सुख-दुःख में शामिल होना हम साथियों का कर्तव्य था। लगभग दोपहर का समय था,मैं किताबें लिए छत पर आँख बंद कर के धूप का आनन्द ले रहा था। तभी हमारा मित्र गिरधारी हाँफते-हाँफते छत पर पहुँचा। ऐ रामखेलावन भैया,ए रामखेलावन भैया। उसके जोर से बोलने के कारण मैं चौक कर उठ गया और उसे देखकर पूछा का है रे?इस पर उसने कहा-भैया हमरा साइकिल चोरी हो गया है बहीन का काॅलेज के पास से। मैने पूछा-तुम वहाँ का करने गए थे। उसका जवाब था-भैया साइकिल बाहरे रखकर मैं बहीन का काॅलेज में फ़ीस भरने गया था।मैने पूछा अब का किया जाए। चूँकि उस समय साइकिल का ही जमाना था अभी की तरह मोटरसाइकिल बहुत कम हुआ करते थे। थाना में साइकिल चोरी होने का कम्पलेन दर्ज कराया, मैने उससे पूछा। नही भैया मैं अकेले नही गया आप भी चलिए उसने कहा।
            मामला साइकिल चोरी का था। शिकायत करना जरूरी था। हमलोग  थाना पहुँच गए। वहाँ जा कर सामने बैठे आदमी से बोले हवलदार साहब। सामने बैठा व्यक्ति और अकड़ कर बैठ गया और जोर से चिल्लाया का  बोला रे हम तुमको हवलदार दिखते है हम इस थाना के मुँशी हैं। हमने कहा गलती हो गया मुँशी साहब। उसने पूछा का काम है। हमारा साइकिल चोरी  हो गया हमने उससे कहा।साइकिल चोरी हो गया।ठीक है ठीक है.उधर जा के बैठो साहब नहीं है। साहब आएंगे तो कम्पलेन दर्ज होगा। हमने मुँशी से पूछा साहब कब आएंगे। थाने का मुँशी जोर से चिल्लाया साहब-साहब है, तुमसे पूछकर आना-जाना करेगें का।जाओ उधर बैठो वो चिल्लाकर बोला।उसकी आवाज से हमलोग की आधी जान निकल गई।डरकर हमलोग किनारे खड़े हो गए। हमे वहाँ खड़े-खड़े लगभग एक घंटा हो चूका था। थाने के साहब का पता नही। दुबारा हमारी हिम्मत नही हुई कि हम मुँशी से जाकर पूछे कि दारोगा साहब कब आयेगे। हमारी स्थिति ऐसी हो गई थी कि न हम वहाँ से जा सकते थे और न ही हिल सकते थे।
       तभी एक सिपाही को हम पर तरस आया वो आकर कान में पुफसपुफसाया का बात है?हमने अपना किस्सा उसे बताया सिपाही जी बोले कुछ चढ़ावा चढ़ाना होगा। हमने उससे कहा कि आज तो मंगलवार भी नही है कि बजरंगबली का प्रसाद आपको खिलावे ।सिपाही जी बोले अरे वो चढ़ावा नहीं कुछ रूपया उपया खर्च करना होगा। हमने सिपाही जी से कहा कि हम विद्यार्थी है पैसा कहाँ से लावेंगे। तब सिपाही ने कहा तब हम तुम्हारी कोई मदद नही कर सकते है, यह बोल सिपाही वहाँ से खिसक लिया। 2 घंटे के बाद दारोगा साहब पधरे। मुँशी जी खड़े हुए। दारोगा ने मुँशी जी से पूछा क्या बात है?हुजुर इनकी साइकिल चोरी हो गई है। दारोगा साहब ने हमारी ओर इशारा किया। हम दौेड़कर उनके पास पहुँचे। हमने अपनी पूरी बात उनके सामने रखी ।हमने अपनी बात खत्म भी नही की थी कि बीच में ही दारोगा चिल्लाए मुँशी साहब इ दोनों तो खुद ही चोर लगते हैं। हमलोग घबड़ाकर बोले हमलोग तो काॅलेज का छात्र हैं। अकड़कर दारोगा बोला लड़की काॅलेज के पास क्या करने गये थे। वहाँ लड़कियों से छेड़छाड़ की घटना बढ़ी है। कहीं तुमलोग तो इस घटना में शामिल नहीं हो। इ का कह रहें हैं सर। हमारी बात अनसुनी कर दरोगा चिल्लाया, मुँशी जी इनको पकड़कर लाॅकअप में बंद कर दो। आकर देखतें है मामला क्या है। यह कहकर दारोगा राउंड पर चला गया। मुँशी हमारे पास आया। हमने उससे कापफी विनती की, हमें मामला दर्ज नहीं कराना है। पता नहीं हमारी बातों का मुँशी पर क्या असर हुआ वह बोला भागो यहाँ से, दुबारा शक्ल मत दिखाना। हमें लगा की हमारी जान बची। हम निकल भागे।
लेकिन अभी भी हमारा आदर्श हमें ललकार रहा था। हमनें सोचा क्यों ना अपनी व्यथा,अपनी पीड़ा और उस दारोगा की हरकत को किसी को बताया जाए। तब ध्यान में आया क्यों ना यह बात अखबार के संपादक को बता दिया जाए। हम चल दिए अखबार के दफतर की ओर। वहाँ जाकर हमनें संपादक को अपना दुखड़ा सुनाया। संपादक ने हमारी बातें सुनकर कहा लिखकर दे दीजिए। साथ में एक लाईन और जोड़ दीजिएगा कि दारोगा ने हमसे पचास रूपये छिन लिए ताकि दारोगा के विरुद्ध केस मजबुत हो सके। वो पत्र हम संपादक को देकर  खुशी-खुशी घर लौटे कि अब पता चलेगा दारोगा को।
      घर पहुचे तो घरवाले परेशान थे। पिताजी पुछे कहाँ से आ रहे हो?पिताजी को थाने से लेकर अखबार के दफतर तक की बातें बता दी। मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि पिताजी चिल्लाए, अरे मुर्ख नालायक यह तुमनें क्या कर डाला कल अगर अखबार में यह बात छपती है, तो वह दारोगा तुम पर क्या-क्या आरोप लगा कर तुम्हें जेल मे डाल देगा यह तुम्हें पता है। गुस्से मे आकर पिताजी ने दो छड़ी मुझ पर जमायी। अभी तुरंत जाओ,  संपादक को दिए गए पत्र को वापस ले लो। कहना हमकों कम्पलेन नहीं करना है। हम दौड़कर भागें अखबार के दफतर पहँुचे। संपादक  महोदय से बोले कि हमें अपना मामला वापस लेना है। संपादक  महोदय ने ना जाने हमें कितनी नसीहतें दी और हमनें जो पत्र दिया था वो हमें वापस कर दिया। तब हमारी जान में जान आई। अब हम हमेशा के लिए भुल गए कि आदर्शवादिता किस चिड़िया का नाम है।
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