डॉ. दर्शनी प्रिय
आजादी के पहले स्त्री अपने पारंपरिक अवगुण्ठन में सिमटी हुई दिखाई देती है, जबकि आजादी के बाद नवीन चेतना के संपर्क में आने के बाद बदले हुए परिदृश्य में स्त्री ने घर की दहलीज को लांघने का दुस्साहस किया। इस क्रांतिकारी बदलाव ने ही स्री को उसकी अस्मिता के प्रति जागरूक बनाने में भरपूर मदद की और आज वह पुरुष के वर्चस्व को चुनौती देती हुई अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत, पुरुष के सामने तन कर खड़ा होने की स्थिति में आ चुकी है।
चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो, लेकिन क्या वास्तविक रूप में स्रियां अपनी देह सुरक्षा के संकट बोध से उबर पाई हैं? हालिया आंकड़े तो इसकी बिल्कुल तस्दीक नहीं करते। वो भी तब जब बेंगलुरू जैसे उन्नत प्रौद्योगिकी शहर में 60 फीसद महिलाएं कार्यस्थल पर किसी-न-किसी प्रकार की दैहिक हिंसा और छेड़छाड़ की तो 15 फीसद महिलाएं यौन शोषण की शिकार हैं। देश के सभी बड़े महानगरों में कमोबेश यही स्थिति है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में बीते सालों के बरक्स यह आंकड़ा तेजी से बढ़ा है।
सैद्धांतिकी तो यही कहती है कि अस्मिता उपलब्ध करने का मतलब सिर्फ उसका मानसिक अनुभव करते रहना नहीं होता, बल्कि उसे विभिन्न समाज के बीच पुरजोर रूप से प्रतिष्ठित करना भी होता है, लेकिन क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है कि खुद को अत्याधुनिक समाज कहलाने वाला विदेशी समाज भी महिलाओं को लेकर अपने इस भेदभाव, हिंसा और बेकद्री से उबर नहीं पाया है। इसकी बानगी 50 फीसद ब्रितानी और 38 फीसद अमेरिकी वे कामकाजी महिलाएं देती हैं, जो कार्यस्थल पर यौन शोषण का शिकार होती हैं।
निश्चित ही एक भद्र समाज के लिए यह चिंतनीय है। भारत के कॉरपोरेट वर्ल्ड की स्थिति तो और भी बदतर है, जहां तकरीबन 50 फीसद महिलाओं से अपमानजनक भाषा, फिजिकल कॉन्टैक्ट या सेक्सुअल फेवर मांगा जाता है। ऐसे में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। वुमेन इंडियन चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के सर्वे की मानें तो भारत में 68.7 फीसद महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट की लिखित या मौखिक शिकायत दर्ज ही नहीं कराई है। हालांकि 1997 में विशाखा गाइडलाइंस के अस्तित्व में आने के बाद वर्क प्लेस पर महिलाओं के यौन उत्पीडऩ रोकने को लेकर कई कानून बने।
2013 में इसी केस की वजह से ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट एट वर्क प्लेस’ नामक मजबूत कानून बनाया गया ताकि महिलाओं के अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके, लेकिन समाजिक-आर्थिक कारणों के चलते कई बार महिलाएं खुद भी ऐसी किसी घटना को बातचीत का विषय नहीं बनाना चाहतीं, लेकिन 2018 में ‘मी टू’ आंदोलन के बाद हालत थोड़े बदले हैं। कामकाजी महिलाओं ने अपने ऊपर हो रहे यौन शोषण को लेकर खुलकर आवाज उठानी शुरू की है।
पर कोविड के बाद के न्यू नॉर्मल ने दैहिक शोषण के तरीकों में बदलाव किया है। अब महिलाओं से सेक्सुअल फेवर लेने की चाह ऑनलाइन बैठकों, वेबिनारों और पर्सनल वन टू वन टॉक के माध्यम से उनके कपड़ों, उठने-बैठने के तरीकों पर सेक्सुअल फब्तियों के जरिये निकल रही है। सवाल कई हैं किंतु एक बड़ा सवाल सांस्थानिक चुप्पी का भी है। पर्याप्त कानून होने के बावजूद महिलाएं घुटन, बेबस और दुराचारयुक्त विषाक्त माहौल में काम करने को विवश हैं। सवाल तो उठेंगे। चाहे वो समाज हो, कोई संस्था हो या फिर सरकार ही क्यों न हो?