विश्वनाथ सचदेव –
आपने भी देखी होगी शायद वह तस्वीर टी.वी. पर, जिसमें मोहाली के कुछ अध्यापक पानी की टंकी पर चढ़े हुए हैं। यह उनके विरोध-प्रदर्शन का तरीका है। विरोध इस बात का कि पिछले 18-18 साल से काम करने के बावजूद उन्हें स्थाई नौकरी क्यों नहीं मिल रही? मीरा रानी इनमें से एक हैं, पिछले ग्यारह साल से ‘कांट्रेक्ट टीचरÓ के रूप में बच्चों को पढ़ा रही हैं। देश का भविष्य बना रही हैं मीरा रानी, पर उनके वर्तमान की हालत यह है कि ग्यारह साल से उनका वेतन छह हज़ार प्रति माह ही है। यानी दिन के दो सौ रुपये!
कांट्रेक्ट टीचर अर्थात् नियोजित शिक्षक। यह पूछे जाने पर कि वे घर का नियोजन कैसे करती हैं, मीरा रानी की आंखों में आंसू बहने लगे थे। मनीष शर्मा ने भी अपनी हालत रोते हुए ही बयां की थी। मनीष शर्मा अंग्रेजी में एम.ए. हैं। कंप्यूटर का कोर्स भी कर चुके हैं। उन्हें भी प्रति माह छह हज़ार रुपये ही मिलते हैं। आय बढ़ाने के लिए वे मज़दूरी करते हैं। जब उनसे बात की गयी तो वे एक निर्माणाधीन मकान में इंटें ढोने का काम कर रहे थे। इस काम में उन्हें 450 रुपये रोज़ मिलते हैं! मोहाली में पानी की टंकी पर चढ़कर प्रदर्शन करने वाले इन ‘बेचारे अध्यापकोंÓ को समझाने के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री तो नहीं पहुंचे पर दिल्ली के मुख्यमंत्री पहुंचे हुए थे। वे अध्यापकों से खतरनाक टंकी से नीचे उतरने का आग्रह करते हुए यह आश्वासन दे रहे थे कि यदि पंजाब में उनकी सरकार बनी तो वे ‘दिल्ली की तरहÓ ही पंजाब में भी अध्यापकों की स्थिति बेहतर बना देंगे।
विडम्बना यह है कि टी.वी के जिस कार्यक्रम में मोहाली का यह दृश्य दिखाया जा रहा था, उसी में एक समाचार यह भी था कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सिद्धू दिल्ली के मुख्यमंत्री के घर के सामने प्रदर्शन करने वाले अध्यापकों की भीड़ में शामिल थे। दिल्ली का मुख्यमंत्री मोहाली में जाकर स्थिति सुधारने का आश्वासन दे रहा है और पंजाब की सरकारी पार्टी का अध्यक्ष दिल्ली में स्थिति सुधारने की मांग कर रहा है।
बरसों पहले एक फिल्म आयी थी ‘शोलेÓ। शायद इसी फिल्म में पहली बार फिल्म के हीरो को पानी की ऊंची टंकी पर चढ़कर अपनी मांग मनवाते हुए देखा गया था। शायद उसी से प्रेरणा लेकर मोहाली के नियोजित अध्यापक पानी की टंकी पर चढ़ गये थे। पता नहीं उन्हें संबंधित अधिकारियों ने कोई ठोस आश्वासन दिया या नहीं, पर यह दृश्य देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा को अच्छी तरह दिखा रहा था।
सरकारें भले ही कुछ भी दावे करती रहें पर देश की शिक्षा-व्यवस्था की एक सच्चाई यह भी है कि आज देश में मीरा रानी और मनीष शर्मा जैसे बारह लाख अध्यापक हैं जो सालों से ‘कांट्रेक्ट टीचरÓ की तरह दो सौ रुपये की दिहाड़ी पर देश का भविष्य संवारने का काम कर रहे हैं। पंजाब की शिक्षा-व्यवस्था का सच देश के अनेक राज्यों की स्थिति का प्रतिनिधित्व करने वाला है। अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम जैसे कुछ राज्यों में तो आधे से अधिक अध्यापक ठेके पर पढ़ा रहे हैं। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019-2020 में देश में कुल मिलाकर लगभग दस लाख दिहाड़ी अध्यापक हैं। कहीं इन्हें कांट्रेक्ट टीचर कहा जाता है, कहीं ‘गेस्ट टीचरÓ और कहीं शिक्षा मित्र। पंजाब, बंगाल और उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से हैं जहां कुछ अध्यापकों की एक-तिहाई संख्या इसी तरह के ‘अस्थाई अध्यापकोंÓ की है।
यह व्यवस्था किस तरह और क्यों काम कर रही है, यह सवाल विस्तृत सर्वेक्षण की अपेक्षा करता है। महत्वपूर्ण यह है कि हमारे हुक्मरानों की दृष्टि में शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दा वरीयता के क्रम में इतना नीचे क्यों है? क्यों उन्हें नहीं लगता कि शिक्षा की इस तरह उपेक्षा करके वे देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं? हमारी नयी शिक्षा-नीति में शिक्षकों को स्थाई बनाने का उल्लेख तो है, पर फिलहाल इस स्थिति से शिक्षकों और शिक्षा का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी, उसकी बात कोई नहीं कर रहा। क्यों ऐसी स्थिति आये कि किसी मीरा रानी को पानी की ऊंची टंकी पर चढ़कर यह कहना पड़े कि वह दो सौ रुपये से अपने परिवार को दिनभर का खाना नहीं खिला सकती। मोहाली के प्रदर्शनकारी अध्यापकों ने यह भी बताया कि 2016 के चुनाव से पहले अमरेंद्र सिंह ने ऐसे ही टीचरों के किसी प्रदर्शन-स्थल पर जाकर वादा किया था कि ‘सत्ता में आते ही मैं इन अध्यापकों की नौकरी को नियमित करूंगा।Ó वे सत्ता में आये भी, और सत्ता से चले भी गये, पर ‘बेचारे अध्यापकोंÓ का जीवन ‘अनियमितÓ ही बना रहा।
सच तो यह है कि हमारे राजनेताओं के लिए ऐसी स्थितियां वोट कमाने का साधन बन कर आती हैं। हर चुनाव से पहले राजनीतिक दल और राजनेता वादों की झड़ी लगा देते हैं और फिर चुनाव के बाद ऐसे अधिकांश वादे ठंडे बस्ते में डाल दिये जाते हैं— अगले चुनावों में भुनाने के लिए। पंजाब समेत देश के पांच राज्यों में फिर चुनाव होने वाले हैं। दावों और वादों की बरसात शुरू हो गयी है। शिलान्यासों और योजनाओं के उद्घाटन की झड़ी लगी हुई है। राज्यों के नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री तक, आये दिन अरबों-खरबों की योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं। सवाल उठता है कि यह सब कुछ चुनावों से पहले ही क्यों शुरू होता है, और चुनावों के बाद अक्सर भुला क्यों दिया जाता है? सवाल यह भी उठता है कि क्या यह मात्र संयोग ही है कि शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दा चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता? क्यों किसी नेता को यह अहसास नहीं होता कि कोई मीरा रानी छह हज़ार रुपये महीना में कैसे जीवन-यापन कर सकती है? क्यों एम.ए. पास मनीष शर्मा को बाध्य होना पड़ता है मुंह छिपा कर ईंटें ढोने के लिए? जी हां, दो सौ रुपये रोज़ की दर से बच्चों को पढ़ाने वाले मनीष शर्मा को शर्म आती है, कहीं कोई छात्र उसे ईंटें ढोते हुए देख न ले।
सच यह भी है कि ‘शर्म उनको नहीं आतीÓ जिन्हें आनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में यह स्थिति उन सबके लिए शर्म की बात है, जिनके हाथों में देश का वर्तमान संवारने और भविष्य बनाने का काम सौंपा गया है। शानदार सड़कें, भव्य इमारतें, विशालकाय मूर्तियां, इन सबकी भी जगह होती है जीवन में, पर उस शिक्षा की अवहेलना किसी अपराध से कम नहीं है जो देश का भविष्य बनाती है। एक आदत-सी बन गयी है हमारे नेताओं को यह कहने की कि पिछली सरकारों ने वह काम नहीं किया जो उन्हें करना चाहिए था। सही हो सकती है यह बात, पर सही यह भी है कि आज की सरकारें भी शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजग़ारी जैसे मुद्दों को वह वरीयता नहीं दे रहीं जो देनी चाहिए। बुनियादी मुद्दे हैं यह, उनकी उपेक्षा किसी अपराध से कम नहीं है। इस अपराध की सज़ा भी तो किसी को मिलनी चाहिए।
किसी मोहाली में पानी की टंकी पर चढ़कर प्रदर्शन करने वाला दिहाड़ी अध्यापक उन सब प्रदर्शनकारियों से अधिक महत्वपूर्ण है नमाज़ और आरती के नाम पर नारे लगा रहे हैं। शिक्षा के मंदिरों को प्राथमिकता कब मिलेगी? कब हमारे हुक्मरानों का ध्यान इस ओर जायेगा कि अकेले मध्य प्रदेश में 21 हज़ार स्कूलों में एक शिक्षक चार-चार कक्षाओं को पढ़ा रहा है। और इस बात की पूरी संभावना है कि वह ‘दिहाड़ी शिक्षकÓ हो और उसे हमने शिक्षा-मित्र का नाम दे रखा हो!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)