*क्या कश्मीर में रहने वाले अल्पसंख्यकों की जान की कोई कीमत नहीं

*क्या वे वहां अल्पसंख्यक नहीं, उनके जीने का कोई अधिकार भी नहीं

*आखिर क्यों नहीं ? धर्म के आधार पर  हत्या की निंदा एक जैसी नफरत से की जानी चाहिए

*जो लोग अल्पसंख्यकों के बहुत ख़ैरख्वाह बनते हैं.

उन्हें कश्मीर के अल्पसंख्यकों के प्रति किया गया कोई भी अपराध दिखाई नहीं देता..?

– क्षमा शर्मा
कश्मीर के एक स्कूल में घुसकर वहां के दो अल्पसंख्यक अध्यापकों सुपिंदर कौर और दीपचंद को धर्म के आधार पर आई कार्ड देखकर मार दिया गया, लेकिन हमारी आंखों में इनके लिए एक आंसू नहीं। उनके लिए कोई हो-हल्ला, विरोध प्रदर्शन कश्मीर के अलावा कहीं और क्यों नहीं। क्या कश्मीर में रहने वाले अल्पसंख्यकों की जान की कोई कीमत नहीं। क्या वे वहां अल्पसंख्यक नहीं, उनके जीने का कोई अधिकार भी नहीं। यदि किसी स्कूल में घुसकर शिक्षकों को इस तरह निशाना बनाया जाएगा तो वहां पढऩे वाले बच्चों और बाकी लोगों का क्या होगा। जिन बच्चों ने अपनी आंखों से इस दहशतगर्दी को देखा होगा, क्या वे कभी इसे भूल पाएंगे।
लखीमपुर खीरी, जहां कई किसानों को दौड़ती गाडिय़ों ने कुचल दिया, उनकी दर्दनाक मौत हो गई, इसके बाद भीड़ ने पीट-पीटकर चार लोगों को मार दिया। इस मॉब लिंचिंग, उनकी जान जाने पर बहुत ज्यादा न तो मीडिया में दु:ख प्रकट किया गया, न ही नेताओं को इसकी याद आई।
पिछले साल हाथरस में एक दलित बच्ची के साथ दरिंदगी हुई। उसके बाद देश भर में बहुत-सी लड़कियां दुष्कर्म जैसे अपराध का शिकार हुईं, आज भी हो रही हैं, लेकिन उनके साथ हुए यौन अपराध भुला दिए गए। क्यों? दुनिया में कहीं भी, किसी को भी, यदि धर्म के आधार पर मारा जाए तो यह बेहद निंदनीय है। लेकिन दुनिया में इस तरह का चुना हुआ शोर और चुनी हुई चुप्पियां शायद ही कहीं देखी गई हों।
लेकिन हम अपने यहां देखते हैं कि जो लोग अल्पसंख्यकों के बहुत ख़ैरख्वाह बनते हैं, जरा-सी बात पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, उन्हें कश्मीर के अल्पसंख्यकों के प्रति किया गया कोई भी अपराध दिखाई नहीं देता। उनकी जान इतनी सस्ती क्यों है।
जब से उस महिला प्रिंसिपल की मृत देह और उस अध्यापक का शव, रोते-बिलखते परिजन देखे हैं, तब से जैसे अस्सी के दशक के पंजाब के दिनों की यादें ताजा हो गई हैं। धर्म पूछकर अल्पसंख्यकों को घरों से निकालकर, पार्कों में, दफ्तरों में, बसों से उतारकर मारा जाता था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में सिखों को मारा गया। सिखों के खिलाफ हिंसा की बात होती है, जो निंदनीय है, लेकिन पंजाब में मारे गए लोगों को भुला दिया जाता है। आखिर क्यों नहीं ? धर्म के आधार पर सबकी हत्या की निंदा एक जैसी नफरत से की जानी चाहिए।
इसी तरह कश्मीर के लोगों की आवाजों को जब भी न सुनने की शिकायत की जाती है, तब वे नब्बे हजार से अधिक कश्मीरी पंडित जो आज भी बेघरबार हैं, उनकी आफतें क्यों नजर नहीं आतीं। वे भी तो कश्मीर में अल्पसंख्यक ही थे। कई कश्मीरी पंडित महिलाएं, जो इन दिनों विदेश में रहती हैं, उनकी दर्दनाक कहानियां सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
कश्मीर में बहुसंख्यकों के हाथों मारे गए लोगों को कोई अल्पसंख्यक तक नहीं कहता। क्यों भई? यह कैसे तय किया कि हिन्दू अगर मारे जाएं तो उनकी जान की कोई कीमत ही नहीं। हिन्दुओं की बात करने, उनके प्रति हुए अपराधों को रेखांकित करने भर से ऐसे लोगों को साम्प्रदायिक कहना, क्या यही धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा है! ऐसी बातें कश्मीर की हत्याओं के बाद भी सुनाई दीं, आखिर क्यों? क्या उनका घर, परिवार, जीने का अधिकार किसी और से कम है। क्या उनके वोट इन नेताओं को नहीं चाहिए। क्या एकपक्षीय विमर्श चलाने वाले चैनल्स के दर्शक ये लोग नहीं हैं। इतनी सलेक्टिव चुप्पियां किस काम की हैं। किस न्याय को दिलाती हैं। न्याय की यह परिभाषा भी कितनी शर्मनाक है कि जान की कीमत वोटों के गुणा-भाग से तय की जाए। जो काफिले लखीमपुर खीरी की तरफ दौड़े, क्या वे कश्मीर की तरफ इसलिए नहीं दौड़ेंगे कि अभी वहां चुनाव नहीं हैं। बिहार के दलित गोलगप्पे वाले वीरेंद्र पासवान को मार दिया गया, उसकी मौत पर औरों के साथ दलित नेताओं ने भी चुप्पी साध ली, क्यों भला? हर बात पर अगर वोटों का हिसाब लगाया जाएगा तो एक दिन ऐसा आएगा कि वोट पाने लायक भी नहीं रहेंगे। और मीडिया का जो वर्ग एकपक्षीय नैरेटिव दिखाकर संतोष पा लेता है, वह खत्म हो जाएगा। अतीत में हमने ऐसा होते देखा है। इतिहास स्वयं को दोहराता है, ऐसा सब कहते हैं, लेकिन इतिहास की गलतियों से शायद ही कोई सबक लेता है। वरना तो एक जान का जाना, एक वोट का जाना भी है। यही नहीं, अगर किसी की मौत पर आंसू बहाए जाएं और किसी की मौत पर मुंह छिपा लिया जाए तो यह न समझा जाए कि लोग इस तरह के अवसरवाद को भूल जाते हैं। हां, वे तात्कालिक प्रतिक्रिया न दे पाएं, क्योंकि साधारण आदमी वह सेलिब्रिटी नहीं होता, जिसके पीछे सैकड़ों कैमरे भागते हों। और उसकी बात दिखाने को महत्व देते हों।
नैरेटिव कुछ इस तरह से गढ़ लिया गया है- अगर मंत्रिमंडल में एक ब्राह्मण, एक दलित, एक ओबीसी, एक मुसलमान, एक सिख, एक ईसाई को रख लिया जाए तो यह समावेशी सरकार होगी और सारे वोट झोली में आ जाएंगे। ऐसे गुणा-भाग देखकर हंसी आती है। क्या अतीत में नेहरू को सारे ब्राह्मणों ने ही वोट दिया होगा या कि मोदी को सारे ओबीसीज ने। इस तरह का नैरेटिव गढऩे में चैनल्स पर आने वाले महान बुद्धिजीवियों और सैफोलोजिस्ट की बड़ी भूमिका है, जो अक्सर जाति-धर्म के आधार पर जीत-हार का गणित तय करते हैं। वे मनुष्य के अपने बुद्धि-विवेक को जाति और धर्म के तराजू पर तोलते हैं। रही-सही कसर जातिवादी और धर्मवादी राजनीति ने पूरी कर दी है। इसीलिए विमर्श अब यहां तक आ पहुंचा है कि जब बोलें तब अपनी जाति-धर्म के लिए ही बोलें। कहीं तो आपको अल्पसंख्यकों के अधिकार हनन होने पर दौड़-भाग की प्रतियोगिता, नेताओं, बुद्धिजीवियों के बयान-दर-बयान आते दिखें और कहीं मौन ओढ़कर चुपके से निकल लिया जाए।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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