अनूप भटनागर
राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में वर्ष 1985 में देश में पहली बार बनाया गया दल बदल कानून विवादों के निपटारे में अत्यधिक विलंब की वजह से अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। दसवीं अनुसूची के तहत बने इस कानून के अभी तक के अनुभव और दल बदल के खिलाफ याचिकाओं के निपटारे के मामले में अध्यक्षों की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में अब इसमें व्यापक संशोधन करने और ऐसे विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थाई न्यायाधिकरण की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
सदन का अध्यक्ष भी चूंकि राजनीतिक दल का ही सदस्य होता है, इसलिए दल बदल संबंधी विवादों के निष्पादन में निष्पक्षता की कमी महसूस होती है। इस बाबत शीर्ष अदालत ने दो साल पहले सुझाव दिया था कि संसद को दसवीं अनुसूची के तहत ऐसे विवादों के निपटारे की जिम्मेदारी अर्द्ध न्यायाधिकरण के रूप में अध्यक्षों को सौंपने के प्रावधान पर नये सिरे से विचार करना चाहिए।
इसकी एक प्रमुख वजह दल बदल करने वाले सांसदों और विधायकों को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत बने कानून के तहत अयोग्य घोषित करने की याचिकाओं के निपटारे के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होने की वजह से अध्यक्ष द्वारा ऐसे मामलों में फैसला करने में अत्यधिक विलंब भी है। इस संबंध में तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मणिपुर सहित अनेक विधान सभा अध्यक्षों के समक्ष लंबित ऐसे मामलों का उदाहरण दिया जा सकता है।
राज्यों की विधान सभाओं में दल बदल करने वाले सदस्यों को अयोग्य घोषित करने के लिए मूल राजनीतिक दल की याचिकाओं पर निपटारे में अत्यधिक विलंब की वजह से कई बार ये मामले सर्वोच्च अदालत तक पहुंचे। शीर्ष अदालत ने पिछले साल जुलाई में ही एक मामले में दल बदल कानून के तहत लंबित याचिकाओं के निपटारे के लिए समय सीमा और दिशा-निर्देश प्रतिपादित करने से इंकार कर दिया था। न्यायालय का स्पष्ट मत था कि यह काम संसद का है और उसे ही इस पर विचार करना होगा। यही नहीं, कर्नाटक विधान सभा में हुए दल बदल से संबंधित मामले में 2019 में शीर्ष अदालत ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सदन का अध्यक्ष अगर तटस्थ रहने का संवैधानिक दायित्व नहीं निभा सकता है तो वह इस पद के योग्य नहीं है।
संसद और विधानमंडल में निर्वाचित सदस्यों की आया राम-गया राम की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए 1985 में संविधान में संशोधन कर दल बदल कानून बनाया गया था। इस कानून में हालांकि, कुछ संशोधन भी किए गए लेकिन इसके बाद भी सदन में पाला बदलने वाले सांसदों और विधायकों के बारे निर्णय का अधिकार पूरी तरह से अध्यक्ष के पास ही था। ऐसे मामलों के निपटारे में हो रहे विलंब का ही नतीजा था कि 21 जनवरी, 2020 को सर्वोच्च अदालत ने सुझाव दिया कि संसद को दल बदल कानून के तहत सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित विवाद सुलझाने के लिए संविधान में संशोधन करके एक स्थाई न्यायाधिकरण की स्थापना करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
न्यायालय का विचार था कि संसद को दल बदल करने वाले सदस्य के मामले में फैसला करने का अधिकार एक अर्द्ध-न्यायाधिकरण के रूप में अध्यक्ष को सौंपने संबंधी व्यवस्था पर पुनर्विचार करना चाहिए। दरअसल, ऐसे विवाद का निपटारा करते समय भी अध्यक्ष एक राजनीतिक दल विशेष का ही सदस्य होता है।
इसकी निष्पक्षता बनाए रखने के लिए न्यायाधिकरण का अध्यक्ष शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को बनाने का प्रावधान किया जा सकता है।
दरअसल, आज जहां दल बदल करने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों के मामले में फैसला होने में अत्यधिक समय लग रहा है तो दूसरी ओर दल बदल कानून की मार से बचने के लिए निर्वाचित प्रतिनिधि सदन के कार्यकाल के अंतिम साल में चुनाव नजदीक आने पर पाला बदलने का रास्ता अपना रहे हैं। चुनावी साल में निर्वाचित प्रतिनिधियों के अपने राजनीतिक दल से इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होने की इस बीमारी से हालिया दिनों में सभी दल पीडि़त हैं। अक्सर ऐसी गतिविधियां भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं।
सरकार अगर वास्तव में दल बदल जैसी समस्या पर अंकुश पाना चाहती है तो उसे कानून में यह प्रावधान करने पर विचार करना चाहिए कि चुनावी साल में सदन और मूल राजनीतिक दल से इस्तीफा देने वाला व्यक्ति कम से कम एक साल तक किसी अन्य राजनीतिक दल का प्रत्याशी बनने के अयोग्य होगा।
यह सर्वविदित है कि न्यायिक हस्तक्षेप से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की स्वच्छता, पारदर्शिता और पवित्रता बनाये रखने और इससे संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों को बाहर रखने में काफी सफलता मिली है। उम्मीद है कि सरकार सर्वोच्च अदालत के सुझावों पर और समय गंवाए बगैर ही उचित कदम उठायेगी।