The path of Congress is very difficultThe path of Congress is very difficult

*कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष

के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी

*पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है

*जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ

*सोनिया  की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी

*कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी

*एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था

राजकुमार सिंह
राष्ट्रद्रोह के आरोपों से चर्चा में आये जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार भाकपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव हारने के बाद भले ही देश बचाने के नारे के साथ कांग्रेसी हो गये, पर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को अपना घर दुरुस्त करने की कोई जल्दी नहीं लगती। पिछले साल मार्च में आयी जानलेवा वैश्विक महामारी कोरोना के खौफ से देश में बहुत कुछ बंद होकर खुल गया, पर कांग्रेस अभी अपने पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए अगले साल सितंबर तक इंतजार करेगी। ध्यान रहे कि पूर्णकालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मई, 2019 से रिक्त है, जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया था। तब से देश और कांग्रेस में बहुत कुछ घट चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार की जगह भाजपा फिर सत्ता में आ चुकी है। पंजाब में विधानसभा चुनाव से चंद महीने पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री, दोनों बदले जा चुके हैं। जिस तरह यह बदलाव किया गया, उसने कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर ही ग्रहण लगा दिया लगता है। इस बदलाव से मिली शह के चलते राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्रियों के विरुद्ध असंतोष मुखर है तो हरियाणा में गुटबाजी यथावत बरकरार है।
कांग्रेसी संस्कृति के नजरिये से देखें तो एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में जी-23 के रूप में सुधारकों का एक नया समूह भी मुखर हुआ, जिसे अचानक आंतरिक लोकतंत्र और पार्टी के भविष्य की चिंता सताने लगी। स्वयं आलाकमान के आशीर्वाद से मनोनयन के जरिये संगठन और सत्ता की सीढिय़ां चढऩे वालों को महसूस हुआ कि संगठनात्मक चुनाव प्रक्रिया के बिना कांग्रेस का कल्याण संभव नहीं। दशकों से दरबारी और चाटुकार संस्कृति से संचालित कांग्रेस के इन स्वयंभू सुधारकों की चिंताओं की असली वजह समझना मुश्किल नहीं है। इसीलिए लंबे अरसे बाद 16 अक्तूबर को हुई रूबरू कार्यसमिति की बैठक में सोनिया की सख्त टिप्पणियों के बाद सुधारकों की बोलती बंद हो गयी। वजहें निहित स्वार्थ प्रेरित हो सकती हैं, लेकिन चिंताएं तो वास्तविक हैं। लगातार दो लोकसभा चुनावों में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस अब गिने-चुने राज्यों में ही सत्ता या उसकी दावेदारी तक सिमट गयी है। इन राज्यों में भी गुटबाजी इतनी ज्यादा है कि कांग्रेसियों को आपस में ही लडऩे से फुर्सत नहीं मिलती। फिर विरोधियों से कौन लड़े? कह सकते हैं कि गुटबाजी कांग्रेसी संस्कृति का हिस्सा रही है। यह भी कि क्षत्रपों को नियंत्रण में रखने और संतुलन बनाये रखने के लिए आलाकमान भी गुटबाजी को शह देता रहा है। निश्चय ही अंतर्कलह किसी दल को मजबूत नहीं बनाता, पर सत्ता की चमक-दमक और दबदबे में बहुत सारी कमजोरियां छिपी रहती हैं, जो सत्ता से बाहर हो जाने पर प्रबल चुनौतियां बन जाती हैं।
कांग्रेस के साथ यही हो रहा है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2004 से 14 तक केंद्रीय सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस को तब भी लगभग वे ही लोग चला रहे थे, जो अब चला रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब सुधारक की भूमिका में नजर आ रहे ज्यादातर नेता तब सत्तासीन थे। इसलिए न उन्हें आंतरिक लोकतंत्र की चिंता थी और न ही कांग्रेस के भविष्य की। दरअसल तेजी से जनाधार खोकर अप्रासंगिकता की ओर अग्रसर कांग्रेस की चुनौतियों के बीज दशकों से जारी रीति-नीति में निहित हैं, जिनके चलते नीति-सिद्धांत-संगठन विमुख राजनीति सिर्फ सत्ता केंद्रित होकर रह गयी थी। मसलन केंद्रीय सत्ता बरकरार रखने के लिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार सरीखे बड़े राज्यों में उन्हीं क्षेत्रीय दलों से जूनियर पार्टनर बनकर भी गठबंधन किया, जिन्होंने उसे सत्ता से बेदखल किया था। कुछ समय तक ऐसे राज्यों के चिंतित कांग्रेसी नेता आलाकमान के दरवाजे पर दस्तक भी देते रहे, लेकिन जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने भी इन क्षेत्रीय दलों के साथ अपनी व्यावहारिक जुगाड़ बिठा ली। परिणामस्वरूप दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस देश के ज्यादातर राज्यों में तेजी से हाशिये पर चली गयी। कांग्रेस के इस पराभव में मंडल-कमंडल के बाद उभरे राजनीतिक परिदृश्य में सामाजिक समीकरण को समझने में भी आत्ममुग्ध आलाकमान की चूक ने निर्णायक भूमिका निभायी, जिसे सुधारने की सोच भी अभी कांग्रेस में किसी स्तर पर नजर नहीं आती।
जब कोई राजनीतिक दल जमीनी राजनीतिक –सामाजिक वास्तविकताओं और परिणामस्वरूप जनाधार से भी पूरी तरह कट चुका हो, तब नेतृत्व संकट उसे ऐसे चौराहे पर पहुंचा देता है, जहां से आगे की राह चुनना बेहद दुष्कर होता है। राहुल गांधी ने यही गलती की। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी तो 2019 के चुनाव में 53 सीटें मिलने पर ही नेतृत्व की नैतिकता क्यों जागी? क्या कांग्रेस नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी बड़े उलटफेर की उम्मीद कर रहा था? अगर हां, तब तो नेतृत्व की राजनीतिक समझ पर ही सवालिया निशान लग जाता है? बेशक मोदी सरकार के विरुद्ध अच्छे दिन के बजाय नोटबंदी आने जैसे कुछ मुद्दे थे, लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका में या अपने सत्तारूढ़ राज्यों में ऐसा क्या कर दिया था कि पांच साल पहले उसे नकार नहीं, बल्कि दुत्कार चुके मतदाता फिर से जनादेश दे देते? राजनीतिक प्रेक्षक इसे अच्छा कहें या बुरा, कांग्रेस के पास एक ही स्पष्टता बची थी, और वह थी नेतृत्व को लेकर। पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं, देशवासी भी जानते थे कि कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू परिवार के लिए आरक्षित है। हां, इस बीच इतना बदलाव अवश्य आया कि कभी जिस परिवार का चेहरा कांग्रेस की चुनावी जीत की गारंटी हुआ करता था, हाल के दशकों में पार्टी को एकजुट बनाये रखने के लिए मजबूरी में तबदील हो गया। बेशक सोनिया गांधी के नेतृत्व के मुद्दे पर भी कांग्रेस विभाजित हुई, शरद पवार, पी. ए. संगमा और तारिक अनवर ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनायी तो ममता बनर्जी ने भी अपनी अलग तृणमूल कांग्रेस बना ली, लेकिन अलग अस्तित्व के बावजूद विपक्षी एकता के लिए ये दल-नेता सोनिया गांधी का नेतृत्व स्वीकार करते रहे। यह भी कि इन विभाजनों के अलावा कांग्रेस मौटे तौर पर न सिर्फ एकजुट रही, बल्कि क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे राजनेता की सरकार को परास्त कर केंद्रीय सत्ता पर 10 साल तक काबिज भी रही।
निश्चय ही नेतृत्व के लिए किसी परिवार विशेष पर निर्भरता स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है, पर सत्ता केंद्रित राजनीति ने कांग्रेस को संगठनात्मक ही नहीं, वैचारिक रूप से भी इतना खोखला कर दिया है कि उसकी एकता के लिए नेहरू परिवार रूपी सीमेंट अपरिहार्य हो गया है। इसलिए भले ही राहुल गांधी ने इस्तीफा देते समय परिवार से बाहर से अध्यक्ष चुनने की सलाह दी हो अथवा उससे उत्साहित कुछ नेताओं ने अगला अध्यक्ष बनने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हों, पर कटु सत्य यही है कि भविष्य तो पता नहीं, पर कांग्रेस के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है कि इस संकटकाल में तो नेहरू परिवार ही उसका नेतृत्व करता रहे, वरना कांग्रेस को खंड-खंड होने में समय नहीं लगेगा। यह अनायास नहीं था कि राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया ही अंतरिम अध्यक्ष बनीं। गत 16 अक्तूबर को हुई कार्यसमिति की बैठक में स्वयं को पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित कर सोनिया पता नहीं क्या संदेश देना चाहती हैं, लेकिन अगर राहुल को ही वापस नेतृत्व संभालना है तो फिर इस नाटकीय प्रकरण की जरूरत ही क्या थी? यह भी कि अब इसके लिए अगले साल सिंतबर तक इंतजार का औचित्य क्या है? जैसा कि बीच में कांग्रेस सूत्रों ने दावा किया था कि संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया ऑनलाइन संपन्न हो जानी चाहिए थी। जब कोरोना काल में सब कुछ ऑनलाइन चल रहा है और इसे भविष्य की व्यवस्था बताया जा रहा है, तब किसी राजनीतिक दल का संगठनात्मक चुनाव क्यों ऑनलाइन नहीं हो सकता?
दरअसल राहुल गांधी अगले साल पुन: कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालें या फिर उससे पहले, नेतृत्व के बाद कांग्रेस की असली चुनौती खुद की प्रासंगिकता साबित कर खोया हुआ जनाधार वापस पाने की होगी। एक समय था, जब कांग्रेस का नेतृत्व चुनाव जिताने में सक्षम हुआ करता था, लेकिन अब समय का तकाजा है कि जनाधार वाले क्षत्रपों को पार्टी से जोड़े रखा जाये। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि कांग्रेस अलग हुए नेताओं की घर वापसी का कोई रास्ता खोजे, पर वह तभी संभव होगा, जब पार्टी में मौजूद दिग्गजों को यथोचित सम्मान मिल पाये। पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह के साथ जैसा अपमानजनक व्यवहार किया गया, उससे इसके उलट ही संदेश गया है।

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