हेमा यादव – 26.03.2022 – सहकारिता वर्ष 1904 में भारत में पहला कानून लागू होने के बाद से भारतीय सहकारी संगठन अब तेज गति के बदलाव के लिए तैयार हैं। सहकारिता के क्षेत्र में नए प्रतिमानों और सहकारी संगठनों के लिए बजटीय आवंटन के साथ अलग से एक सहकारिता मंत्रालय की मौजूदगी के रूप में इसके बदलते स्वरूप के साथ विकास के लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्र के रूप में भारत के सहकारिता आंदोलन में एक नए सिरे से रुचि बढ़ी है।
अलग-अलग समय पर, विशेष रूप से नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) तक, बदलाव के साधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले सहकारी मॉडल ने भारत की विकास योजना की सफलता में अहम योगदान दिया है। गरीबी उन्मूलन, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा, सामाजिक एकीकरण और रोजगार सृजन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के क्रम में इसके अंतर्निहित लाभ हुए हैं।
सहकारी क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में से एक है, जिसकी ऋण और गैर- ऋण समितियों के विशाल नेटवर्क के माध्यम से ग्रामीण भारत में व्यापक पहुंच है। भारत की कुल 8.5 लाख सहकारी इकाइयों में से, लगभग 20 प्रतिशत (1.77 लाख इकाइयां) ऋण संबंधी सहकारी समितियां हैं
शेष 80 प्रतिशत गैर-ऋण सहकारी समितियां हैं, जोकि लगभग नब्बे प्रतिशत गांवों को कवर करती हुई मत्स्य, डेयरी, उत्पादक, प्रसंस्करण, उपभोक्ता, औद्योगिक, विपणन, पर्यटन, अस्पताल, आवास, परिवहन, श्रम, खेती, सेवा, पशुधन, बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियां आदि जैसी विविध गतिविधियों में शामिल हैं। सदस्यता के संदर्भ में अगर बात करें, तो लगभग दो सौ नब्बे मिलियन किसान सहकारी समितियों में नामांकित हैं।
इनमें से 72 प्रतिशत किसान ऋण संबंधी सहकारी समितियों और 28 प्रतिशत किसान गैर- ऋण संबंधी सहकारी समितियों से जुड़े हैं (एनसीयूआई, 2018)।प्राथमिक कृषि सहकारी ऋण समितियां (पैक्स) देश की अल्पकालिक सहकारी ऋण संरचना (एसटीसीसीएस) से संबंधित निर्माण खंड हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, 31 मार्च 2018 तक कुल 6,39,342 गांवों को कवर करते हुए 13.2 करोड़ सदस्यों के साथ देश में कुल 95,238 पैक्स उपलब्ध थे।
ये समितियां गांवों में किसानों और निम्न-आय वर्ग के लोगों की वित्तीय सहायता करके उनके वित्तीय सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।एक अच्छे नेटवर्क और पैक्स जैसे संस्थानों की जरूरत होने के बावजूद, पैक्स के माध्यम से धीमी गति से सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (आईसीए) का कहना है कि सहकारी समितियां स्वयं सहायता, आत्म-जिम्मेदारी, लोकतंत्र, समानता, हिस्सेदारी और एकजुटता के मूल्यों पर आधारित होती हैं।
अपने संस्थापकों की परंपरा में, सहकारी समितियों के सदस्य ईमानदारी, खुलेपन, सामाजिक जिम्मेदारी और दूसरों की देखभाल जैसे नैतिक मूल्यों में विश्वास करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सहकारिता के मूल सिद्धांत से समझौता किए जाने की वजह से वित्तीय और गैर-वित्तीय सेवाओं के वितरण में गिरावट आई है।
ऋण चुकता करने के क्रम में अपर्याप्त धन संबंधी चूक, पेशेवर मानव संसाधनों की कमी और तकनीक के धीमे समावेश के परिणामस्वरूप प्रबंधन संबंधी सूचना की खराब प्रणाली, पारदर्शिता, आंतरिक नियंत्रण प्रणाली में शिथिलता, कदाचार की समस्याएं पैदा हुई है जिसके कारण विकास की प्रक्रिया में रुकावट आई है।
एक बहुउद्देशीय समिति के रूप में पैक्समेहता समिति (1937) ने बढ़ते संकट और असंतोष को दूर करने के लिए सहकारी ऋण समितियों को बहुउद्देश्यीयÓ सहकारी समितियों के रूप में पुनर्गठित करने की सिफारिश की थी। इसके अलावा, आजादी से पहले के काल में, सर मणिलाल नानावटी की अध्यक्षता वाली कृषि ऋण संगठन समिति ने सहकारी समितियों को एक व्यावहारिक व्यावसायिक इकाई बनाने के लिए कृषि वित्त में राजकीय सहायता और सभी सहकारी ऋण समितियों को बहुउद्देश्यीय सहकारी समितियों में बदलने पर जोर दिया था
इस संबंध में सिफारिश की थी।सहकारिता मंत्रालय ने पैक्स को सिर्फ एक ऋण समिति के बजाय एक ऐसी बहु-धंधी समिति के रूप में प्राथमिकता दी है जोकि ऋण एवं विभिन्न सेवाओं के लिए एकल खिड़की के रूप में कार्य कर सके। पुनरुद्धार की यह प्रक्रिया पैक्स को सेवा संगठनों के रूप में एक नई दिशा देने और कृषि विपणन, बागवानी, खाद्य तेल, उत्तर पूर्व क्षेत्र के लिए जैविक मूल्य श्रृंखला विकास, प्राकृतिक खेती आदि से संबंधित कृषि बजट 2022-23 की विभिन्न योजनाओं के साथ एकीकृत करने का भी आह्वान करती है।
खरीद, भंडारण एवं वेयरहाउसिंग, प्रसंस्करण, ग्रामीण एवं कृषि संबंधी लॉजिस्टिक्स के प्रबंधन, बाजार संबंधी परामर्श एवं खुफिया जानकारी आदि जैसी गतिविधियों पर अमल कर पैक्स को बहुउद्देशीय समितियों के रूप में मजबूत किया जाएगा। हालांकि वर्तमान की बाजार एवं प्रौद्योगिकी संचालित अर्थव्यवस्था में सहकारी समितियों के प्रमुख सिद्धांतों के रूप में सदस्यों की आर्थिक भागीदारी और सहकारी समितियों के बीच परस्पर सहयोग की केंद्रीयता बनाए रखने की जरूरत है।
पैक्स का डिजिटलीकरणपैक्स का डिजिटलीकरण प्रौद्योगिकी को अपनाने और व्यावसायिक दृष्टि से व्यवहारिक बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक कदम है। केन्द्रीय बजट 2022-23 में प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों के डिजिटलीकरण के लिए 350 करोड़ रुपये की राशि निर्धारित की गई है। सहकारिता मंत्रालय द्वारा 63000 पैक्स को कम्प्यूटरीकृत करने की योजना तैयार की गई है।
पैक्स का डिजिटलीकरण कृषि संबंधी कई पहलों के कार्यान्वयन में सहायता करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि किसानों को डिजिटल समावेशिता के माध्यम से पारदर्शी तरीके से ऋण, उर्वरक और बीज प्राप्त हों। पैक्स में प्रौद्योगिकी और नवाचार के माध्यम से गुणवत्ता नियंत्रण किया जाना भी बेहद जरूरी है।
सहकारिता के इस डिजिटल ब्रह्मांड में अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी और स्थायी रूप से प्रदर्शन करने के लिए पैक्स द्वारा अपनी कार्यप्रणाली में विविधता लाना, नवाचार करना, ज्ञान साझा करने में सहयोग करना और उभरती हुई तकनीक का उपयोग किया जाना बेहद जरूरी है। बिग डेटा, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और ब्लॉकचेन तकनीक जैसे उद्योग 4.0 के विभिन्न पहलू वितरण संबंधी आपूर्ति श्रृंखला में दक्षता और विश्वास का समावेश करते हैं।
मसालों, मत्स्यपालन, काजू और केसर, जोकि सहकारी समितियों के सदस्यों की अच्छी भागीदारी के साथ उच्च मूल्य वाले और निर्यात-उन्मुखी उत्पाद हैं, की आपूर्ति श्रृंखला में ब्लॉकचेन तकनीक का समावेश करने का यह सही समय है। पैक्स के सदस्यों के निरंतर प्रशिक्षण और कौशल विकास के माध्यम से डिजिटल साक्षरता को बढ़ाना समय की मांग है।
पैक्स के डिजिटलीकरण के क्रम में विभिन्न संस्थानों द्वारा केएपी (ज्ञान, दृष्टिकोण व्यवहार) को अपनाए जाने की जरूरत है जोकि प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ-साथ अपेक्षित परिणाम की दिशा में एक व्यवस्थित दृष्टिकोण का समावेश करेगा।सहकारी समितियों को किया गया बजट आवंटन विकास और समृद्धि के संचालक के रूप में सहकारी समितियों की ओर ध्यान केन्द्रित किए जाने को दर्शाता है।
नवाचारों, उद्यमशीलता और प्रशिक्षण का लाभ उठाते हुए, यह बजटीय आवंटन इस तथ्य को रेखांकित करता है कि कैसे पिरामिड के सबसे निचले हिस्से से विकास को ऊपर की ओर ले जाया जाए और शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, कपड़ा, छोटे एवं मध्यम उद्यमों, ऊर्जा, पर्यावरण जैसे क्षेत्रों के साथ निरंतर जुड़ाव और एकीकरण को आगे बढ़ाया जाए। लेखक निदेशक, वैमनिकोम हैं
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चुनावी मुद्दा नहीं बनता नदियों का जीना-मरना
उनके जीने के अधिकार का हो सम्मान
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