एक मौलिक भारतीय सभ्यता-संस्कृति

दुसरा संक्रमित भारतीय सभ्यता-संस्कृति।

दिव्या राजन 

कुछ समय पूर्व मुझे एक कार्यक्रम में शिरकत करने का सौभाग्य मिला। हिन्दी भाषा साहित्य के विद्यार्थी उसमें अपनी मौलिक रचनाओं के साथ आमंत्रित थे। कार्यक्रम का आयोजन तथा संचालन करने वाले सभी सदस्य हिन्दी भाषा से जुड़े विद्वज्ञ जन थे। कई प्रतियोगियों ने वहाँ अपनी मौलिक रचनाएँ प्रस्तुत की, परन्तु एक प्रतियोगी ने अपनी रचना हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं को मिलाकर प्रस्तुत की थी।

इस रचना पर काफी तालियाँ बजी तथा विद्वज्ञ जनों ने इस रचना की प्रशंसा करते हुए कहा ‘‘असाधारण लोग अलग तरह से कार्य करते है।’’
उनके इस वक्तव्य से मुझे बड़ी मायूसी हाथ लगी। लगा कि आजादी के इतने वर्षों के पश्चात् भी हम कहाँ पहुँचें है?

शुद्ध हिन्दी में रची गई मौलिक रचनाओं की प्रशंसा करने के बजाय हमें अंग्रेजी की बैसाखी पर घिसटती हुई अपाहिज हिन्दी की रचना अधिक मुल्यवान लगती है।

अब वक्त आ गया है कि हम स्वतंत्र हो जाए। पहले अंग्रेजों ने हमें शारीरिक रूप से गुलाम बनाया था मगर तब भी हमारी आत्मा स्वतंत्र थी। परन्तु अब अंग्रेजीयत के प्रभाव से हमारी आत्मा गुलाम हो गई है और जिस देश की आत्मा गुलाम हो जाती है उस देश की आजादी का कोई मोल नही रह जाता है।

इसलिए हमें इससे जागरूक होने की जरूरत है और अपनी सभ्यता-संस्कृति, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा को वह सम्मान देना होगा जिसके वे अधिकारी है। इण्डिया को भारत तथा हिन्गलिश को हिन्दी बनाना होगा।

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