अनूप भटनागर
अधिक न्यायाधीशों वाले बड़े उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का तबादला न्यूनतम न्यायाधीशों की क्षमता वाले सिक्किम और मेघालय जैसे उच्च न्यायालयों में करने के कॉलेजियम के फैसले पर सवाल उठ रहे हैं। इस तरह के फैसले निश्चित ही न्यायपालिका में पारदर्शिता के अभाव की ओर संकेत कर रहे हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि अमुक मुख्य न्यायाधीश को सजा के रूप में न्यूनतम न्यायाधीशों वाले उच्च न्यायालय में भेजा जाता है। मद्रास उच्च न्यायालय, जिसके न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 75 है, के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी का मेघालय उच्च न्यायालय, जिसमे दो न्यायाधीश ही हैं, तबादला भी ऐसे ही सवाल उठा रहा है।
न्यायमूर्ति ताहिलरमानी के बाद न्यायमूर्ति बनर्जी और न्यायमूर्ति माहेश्वरी के तबादलों की घटनाओं ने सहसा राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कानून, को असंवैधानिक घोषित करने की संविधान पीठ की अक्तूबर, 2015 की व्यवस्था में अल्पमत के न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर के फैसले में कॉलेजियम की कार्यशैली के बारे में टिप्पणियों की याद ताजा कर दी। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कॉलेजियम की बैठक और नामों के चयन की प्रक्रिया पर असहमति जाहिर की थी। मद्रास उच्च न्यायालय के वकील इस तबादले को लेकर आंदोलित हैं और उन्होंने प्रधान न्यायाधीश को इस संबंध में पत्र भी लिखा है।
पहले भी अधिक न्यायाधीशों वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का सिक्किम उच्च न्यायालय तबादला होने की खबरें आती थीं। लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में उच्च न्यायालयों के सृजन के बाद बड़े उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादला मेघालय किये जाने की खबरें सामने आ रही हैं। आमतौर पर ऐसे तबादले को सजा के रूप में भी देखा जाता है। यह सही है कि प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के तबादले की अनुशंसा करती है और इस पर केन्द्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति निर्णय लेते हैं। मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी के तबादले को उनकी अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 26 अप्रैल को निर्वाचन आयोग के बारे में की गयी सख्त टिप्पणी से भी जोड़ा जा रहा है। इस पीठ ने कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के लिए निर्वाचन आयोग को जिम्मेदार ठहराने संबंधी मौखिक टिप्पणी की थी और कहा था कि आयोग पर हत्या का मुकदमा दर्ज होना चाहिए।
मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादला मेघालय उच्च न्यायालय करने की यह लगातार दूसरी घटना है। इससे पहले, शीर्ष अदालत की कॉलेजियम की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने सितंबर, 2019 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विजया ताहिलरमाणी का भी मेघालय उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर तबादला किया गया था। हालांकि, न्यायमूर्ति ताहिलरमानी ने मेघालय जाने की बजाय अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।
आंध्र प्रदेश में 37 सदस्यीय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जितेन्द्र कुमार माहेश्वरी का दिसंबर, 2020 में तीन सदस्यीय सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर किया गया था। इस तबादले को राज्य के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी सरकार के साथ टकराव की स्थिति से जोड़ा जा रहा था। लेकिन चंद महीनों बाद ही न्यायमूर्ति माहेश्वरी की पदोन्नति हो गयी और उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया।
इसी तरह की घटना 85 सदस्यीय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बीके राय के साथ हुई थी। न्यायमूर्ति राय का पहले 24 सदस्यीय गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर तबादला किया गया और इसके बाद 2005 में उन्हें तीन न्यायाधीशों वाले सिक्किम उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था। न्यायमूर्ति राय ने न्यायाधीश पद से इस्तीफा देने की बजाय सिक्किम उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश का पद ग्रहण किया जहां से वह दिसंबर, 2006 में सेवानिवृत्त हुए।
इसी तरह, भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन को भी 62 सदस्यीय कर्नाटक उच्च न्यायालय से तीन सदस्यीय सिक्किम उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। इसके बाद उन्हें उच्चतम न्यायालय भेजने की कवायद चल रही थी लेकिन इसी बीच न्यायमूर्ति दिनाकरण को न्यायाधीश के पद से हटाने की महाभियोग प्रक्रिया शुरू हो गयी थी जिस वजह से उन्होंने जुलाई, 2011 में इस्तीफा दे दिया था।
न्यायमूर्ति गीता मित्तल पदोन्नति के साथ 17 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की पहली मुख्य न्यायाधीश बनीं जबकि इससे पहले न्यायमूर्ति गीता मित्तल 60 सदस्यीय दिल्ली उच्च न्यायालय की कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थीं।
जरूरी है कि उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके तबादले की नीति अधिक पारदर्शी बनायी जाये और तबादले के मामले में किसी भी प्रकार का विवाद उठने पर ऐसा करने की वजह सार्वजनिक की जाए ताकि मुख्य न्यायाधीशों के तबादलों को लेकर वकीलों को आंदोलन का सहारा नहीं लेना पड़े।