* In court on the question of marital rape or marital rape..* In court on the question of marital rape or marital rape..

*महिलाएं घर में शारीरिक संबंधों के नाम पर हिंसा झेलने को मजबूर हैं

*पति-पत्नी के जिन संबंधों को बिल्कुल निजी माना जाता है

*वहां कानून, वकील, सरकार और स्वयंसेवी समूह घुसे चले आ रहे हैं

*न्याय की कसौटी पर खरा भी उतरे कानून

– क्षमा शर्मा –
मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म के सवाल पर इन दिनों अदालत में बहस चल रही है। बताया जा रहा है कि महिलाएं घर में शारीरिक संबंधों के नाम पर हिंसा झेलने को मजबूर हैं। इसलिए मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बनना चाहिए। पत्नी अगर सहमत न हो तो पति को संसर्ग नहीं करना चाहिए। बहस के दौरान माननीय न्यायाधीश ने कहा भी कि पत्नी की कंसेंट या सहमति पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जा रहा है।
अफसोस कि पति-पत्नी के जिन संबंधों को बिल्कुल निजी माना जाता है, वहां कानून, वकील, सरकार और स्वयंसेवी समूह घुसे चले आ रहे हैं। विवाह यदि दो लोगों के बीच हुआ है, तो तीसरी पार्टी आखिर उनके बीच क्यों घुसना चाहती है। वैसे भी यह कैसे पता चलेगा कि पति ने पत्नी के साथ जबर्दस्ती की। मैरिटल रेप के पक्ष में कानून बनाने वाले कहेंगे कि इसे पत्नी के कहे से माना जाएगा। यानी कि पत्नी ही पहली और आखिरी गवाह और प्रमाण होगी। पति के कहे या न कहे के कोई मायने नहीं होंगे। पत्नी के कहते ही पति को अपराधी मान लिया जाएगा। कुछ लोग पत्नी को अनपेड सेक्स वर्कर कह रहे हैं। एक शादी और इतनी तरह की मुसीबतें तो क्या ऐसा दिन दूर नहीं, जब लड़के शादी ही नहीं करेंगे। मेरे एक परिजन बहुत पहले इंग्लैंड में थे। उन्होंने बताया था कि वहां बड़ी संख्या में लोग शादी ही नहीं करते हैं।
हम परिवार नाम की संस्था को शायद सिरे से खत्म करना चाहते हैं। इसके बरक्स यह देखना दिलचस्प है कि एक ओर यूरोप और अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग परिवार की वापसी के बारे में बातें कर रहे हैं। कोरोना महामारी के बाद यहां के लोग मनुष्य या ह्यूमन रिसोर्स की जरूरत और महत्व को अधिक महसूस कर रहे हैं। यह ह्यूमन रिसोर्स परिवार के सदस्यों के रूप में ही अधिक से अधिक मिल सकता है। और एक हम हैं कि परिवार किस तरह टूटे, किस तरह उसे एक यूनिट के रूप में रहने ही नहीं दिया जाए, इसकी जुगत भिड़ा रहे हैं। पश्चिमी विचार जिन अतियों से कराह रहा है, हम उनकी तरफ सिर के बल दौड़ रहे हैं। कानून की आड़ लेकर असली निशाना परिवार ही है। परिवार अगर हो तो किसी तीसरे को घर में घुसने में दिक्कत होती है। तीसरी पार्टी अक्सर आपके घर में जब घुसती है तब किसी अच्छे विचार या शुभकामनाओं के साथ नहीं, बल्कि तोड़-फोड़ के लिए ही। दो बिल्लियों की लड़ाई में तीसरी पार्टी बंदर की क्या भूमिका होती है, वह कहानी तो आपने सुनी ही होगी। परिवार में पत्नी को देवी और पति को राक्षस मानने की सोच अगर है, तो परिवार बसाने की क्या जरूरत। परिवार एक-दूसरे की सहायता और बढ़ोतरी के लिए होने चाहिए, न कि सतत् युद्ध में रहने के लिए। स्त्रीवादी सोच के तहत महिलाओं को अधिकार मिलें, उनकी प्रगति हो, यह तो अच्छी बात है, लेकिन इसी सोच के तहत परिवार में लगातार युद्ध की स्थिति हो, तो यह ठीक नहीं है। तब उस स्थिति को चुनना ही क्यों चाहिए। वह विचार सीधे हमारे बेडरूम में घुसा चला आ रहा है, जिसकी जड़ें कहीं ओर हैं।
पति को देवता मानना या खलनायक मानना दोनों ही तरह की सोच अतिवादी सोच है। इन दिनों आपने देखा होगा कि पत्नी की मत्यु चाहे जिस कारण से हुई हो, पुलिस और पत्नी के घर वाले सबसे पहला शक पति और उसके घर वालों पर करते हैं। उन्हें ही पकड़ा जाता है। स्त्रीवादी विमर्शों ने कुछ ऐसा रूप धरा है कि जिस घर में स्त्री रहती है, वहीं उसके सबसे अधिक दुश्मन बताए जाते हैं। इसीलिए सबसे पहले उन्हीं पर शक किया जाता है, उन्हें ही पकड़ा जाता है। महिला ने अगर आत्महत्या की हो, तो सौ में से सौ बार उसे दहेज हत्या कह दिया जाता है। अदालतें कह भी चुकी हैं कि हर आत्महत्या दहेज हत्या नहीं होती है। मगर कौन सुनता है।
यदि हम स्त्री के मानव अधिकार और कानूनी अधिकारों की बातें करते हैं, तो पुरुषों के मानव अधिकार और कानूनी अधिकारों को क्यों भूल जाते हैं। क्या पुरुष पैदाइशी खलनायक होते हैं। क्या उन्हें पैदा ही नहीं होना चाहिए। क्या उनका जीवन फूलों से भरा है, वहां कोई कष्ट नहीं। एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें, तो हर साल छियानवे हजार पुरुष आत्महत्या करते हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इस बारे में कोई चर्चा तक नहीं होती। इन आत्महत्याओं का कारण पारिवारिक दबाव, कलह बताया जाता है।
अपने देश में स्त्री कानून बेहद एकपक्षीय हैं। वे स्त्री के अधिकारों की बातें करते हैं और अपनी मूल प्रवृत्ति में तानाशाहीपूर्ण हैं। वे दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने तक की आजादी नहीं देते। ऐसे जेंडर बायस कानून क्यों होने चाहिए। अदालतें अपने न्याय में स्त्री और पुरुष का भेद क्यों करें। वे सभी को न्याय देने के लिए होती हैं। इसलिए कानूनों को जेंडर न्यूट्रल होना चाहिए। जांच एजेंसियों की मानें तो दहेज प्रताडऩा संबंधी कानून, यौन प्रताडऩा और दुष्कर्म इनका बहुत दुरुपयोग भी हो रहा है। बड़ी संख्या में ऐसी शिकायतें झूठी भी पाई जाती हैं। लेकिन चर्चा अक्सर उस समय होती है, जब किसी अपराध और अपराधी का जिक्र होता है। कितने लोग अपराधी थे ही नहीं, उन्हें झूठा फंसाने की कोशिश की गई- इस पर चर्चा नहीं होती।
यदि मैरिटल रेप या वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में लाया जाएगा तो इसके खतरे भी यही हैं कि इसे साबित कैसे किया जाएगा। क्या पत्नी की गवाही और उसे सत्यवादी हरिश्चंद्र मान लेना, उसी के आधार पर पति को सजा देना मानवीयता और मानवीय अधिकारों के खिलाफ नहीं होगा। सिर्फ स्त्रीवादी संगठनों की ही नहीं, इस मसले पर पुरुषों के लिए जो संगठन काम करते हैं, उनकी भी सुनी जानी चाहिए।
न्याय का तकाजा है कि कानून किसी के भी प्रति अन्याय न करे। वह सताई गई स्त्री और सताए गए पुरुष दोनों को न्याय दे। इस घिसे-पिटे विचार के दिन लद गए हैं कि पुरुषों के साथ भला कौन अन्याय करता है। कानून का आतंक किसी भी समस्या को हल नहीं करता।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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