वेदप्रताप वैदिक –
पाकिस्तान ने 14 जनवरी को पहली बार अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की है। जब से पाकिस्तान बना है, ऐसी घोषणा पहले कभी नहीं की गई। इसका अर्थ यह नहीं है कि पाकिस्तान की कोई सुरक्षा नीति ही नहीं थी। यदि ऐसा होता तो वह अपने पड़ोसी भारत के साथ कई युद्ध कैसे लड़ता और आतंकवाद को अपनी स्थायी रणनीति क्यों बनाए रखता? परमाणु बम तो वैसी स्थिति में बन ही नहीं सकता था। अफगानिस्तान के साथ वह कई-कई बार युद्ध के कगार पर कैसे पहुंच जाता? अफगानिस्तान के सशस्त्र गिरोहों को पिछले 50 साल से वह शरण क्यों देता रहता? किसी सुरक्षा नीति के बिना अमेरिका के सैन्य-गुटों में वह शामिल क्यों हो गया था? पहले अमेरिका और अब चीन का पिछलग्गू बनने के पीछे उसका रहस्य क्या है? बस वही, सुरक्षा नीति! सुरक्षा किससे? भारत से।
डर से उपजी नीति
जब से पाकिस्तान बना है, उसके दिल में यह डर बैठा हुआ है कि भारत उसका वजूद मिटा देगा। भारत उसे खत्म करके ही दम लेगा। भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को तोड़कर बांग्लादेश बना दिया। उसे लगता है कि वह पाकिस्तान के कम से कम चार टुकड़े करना चाहता रहा है। एक पंजाब, दूसरा सिंध, तीसरा बलूचिस्तान और चौथा पख्तूनिस्तान। तो पाकिस्तान भी भारत के टुकड़े करने की कोशिश क्यों न करे? उसकी कोशिश कश्मीर, खालिस्तान, असम, नगालैंड और मिजोरम को खड़ा करने की रही है। तू डाल-डाल तो हम पात-पात! नहले पर दहला मारने की यही नीति पाकिस्तान की सुरक्षा नीति रही है। भारत ने परमाणु बम बनाया तो पाकिस्तान ने भी जवाबी बम बना लिया।
ऐसी सुरक्षा नीति की भला कोई सरकार घोषणा कैसे कर सकती थी? उसे जितना छिपाकर रखा जाए, उतना ही अच्छा। लेकिन उसके नतीजों को आप कैसे छिपा सकते हैं? पिछले 7-8 दशकों में वे नतीजे सारी दुनिया के सामने अपने आप आने लगे। अपने आप को तुर्रम खां बताने वाले पाकिस्तान के फौजी तानाशाहों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को मालदार मुल्कों के आगे भीख का कटोरा फैलाए खड़े रहना पड़ता रहा है। मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का जो गुब्बारा 1947 में फुलाया था, उसकी हवा आज तक निकली पड़ी है। जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान एक आदर्श इस्लामी राष्ट्र क्या बनता, वह दक्षिण एशिया के सबसे पिछड़े राष्ट्रों में शुमार हो गया।
अब इमरान सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की जो घोषणा की है, उसमें आर्थिक सुरक्षा का स्थान सबसे ऊंचा है। इसीलिए उसमें साफ-साफ कहा गया है कि पाकिस्तान अब सामरिक सुरक्षा के बजाय आर्थिक सुरक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा। यदि वह सचमुच ऐसा करेगा तो बताए कि उसका रक्षा-बजट कुल बजट का 16 प्रतिशत क्यों है? यदि अपने इस 9 बिलियन डॉलर के फौजी बजट को वह आधा कर दे तो क्या बचे हुए पैसों का इस्तेमाल पाकिस्तानियों की शिक्षा, चिकित्सा और भोजन की कमियों को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? इस नई सुरक्षा नीति की घोषणा के बाद देखना है कि अब उसका बजट कैसा आता है।
यह नई सुरक्षा नीति कोई रातोरात बनकर तैयार नहीं हुई है। पिछले सात साल से इस पर काम चल रहा है, नवाज शरीफ के जमाने से। मियां नवाज के विदेश मंत्री और सुरक्षा सलाहकार रहे बुजुर्ग नेता सरताज अजीज ने इस नई नीति पर काम शुरू किया था। उन्हीं दिनों भारत में बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार कायम हुई थी। मियां नवाज के घर मोदी अचानक जाकर उनकी नातिन की शादी में शामिल भी हुए थे। उसके पहले मोदी के शपथ-विधि समारोह में नवाज और अजीज ने शिरकत की थी। उन्हीं दिनों इस नई सुरक्षा नीति की नींव पड़ी थी, लेकिन अब जो दस्तावेज प्रकट हुआ है, उसमें मोदी और संघ की कटु आलोचना है। इस नीति की घोषणा करते समय कही गई इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि पाकिस्तान अगले सौ साल तक भारत से अपने संबंध सहज बनाए रखेगा? सचमुच आपका यही इरादा है तो अभी भी आपने आधी नीति छिपाकर क्यों रखी है?
भारत ने तो अफगानिस्तान के लिए 50 हजार टन अनाज और दवाइयां भिजवाने की घोषणा की थी, लेकिन पाकिस्तान ने अभी तक उसे काबुल पहुंचाने का रास्ता नहीं खोला है। भारत ने अफगानिस्तान पर बात करने के लिए पड़ोसी राष्ट्रों की बैठक में पाकिस्तान को भी बुलाया था। लेकिन उसने चीन के साथ मिलकर उसका बहिष्कार कर दिया। अफगान-संकट ने तो ऐसा मौका पैदा कर दिया था कि उसका मिल-जुलकर समाधान करते हुए भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती हो सकती थी। यदि पाकिस्तान को आर्थिक रूप से समृद्ध होना है तो उसे दक्षिण और मध्य एशिया के बीच एक सेतु की भूमिका तुरंत स्वीकार करनी चाहिए। यदि वह एक सुरक्षित पुल बन जाए तो मध्य एशिया के गैस, तेल, लोहा, तांबा, यूरेनियम आदि से भारत और पाकिस्तान मालामाल हो सकते हैं। अभी तो भारत-पाक व्यापार पर भी तालाबंदी लगी हुई है।
संवाद पर हो जोर
नई नीति में यह ठीक कहा गया है कि अब पाकिस्तान कश्मीर के कारण भारत से बातचीत बंद नहीं करेगा। लेकिन तब भी वह राग कश्मीर अलापता ही रहेगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अब कश्मीर में कोई रुचि नहीं है। चीन भी उस पर चुप ही रहता है। लेकिन हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर को घसीटने से पाकिस्तान बाज नहीं आता। अच्छा हो कि इमरान सरकार इस मुद्दे पर भारत सरकार से सीधे संवाद की पहल करे। पाकिस्तान के जितने भी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बुद्धिजीवियों से पिछले 50 साल में मेरा संवाद हुआ है, उनसे मैंने यही कहा है कि जुल्फिकार अली भुट्टो का यह कथन आप भूल जाइए कि कश्मीर लेने के लिए आप हजार साल तक भारत से लड़ते रहेंगे। कश्मीर का हल लात से नहीं, बात से ही होगा। कश्मीर के बहाने पाकिस्तान ने सारी दुनिया से बदनामी मोल ले ली। वह आतंक और फौजी तानाशाही का गढ़ बन गया। भारत के साथ उसकी दुश्मनी खत्म हो जाए तो उसे अमेरिका या चीन जैसे राष्ट्रों का चरणदास नहीं बनना पड़ेगा और पाकिस्तान के लोग भारतीयों की तरह लोकतंत्र और खुशहाली में जी सकेंगे।