How many multi-cornered elections will be held in the upcomingHow many multi-cornered elections will be held in the upcoming

*अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में

विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है

*बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है

* उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे

*अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है

*मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ. 85 फीसदी वोट

दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है

– नरेंद्र नाथ –
कितने बहुकोणीय होंगे आगामी चुनाव।  अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों में विपक्षी एकता की कोशिश फिलहाल धूमिल हो चुकी है। सभी सियासी दल बहुकोणीय चुनाव के नफा-नुकसान की चर्चा करने लगे हैं। अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। अब तक के जो राजनीतिक संकेत हैं उसके अनुसार इन सभी राज्यों में बहुकोणीय चुनाव ही होंगे। हाल के सालों में आम धारणा यही बनी है कि बहुकोणीय चुनाव से बीजेपी को लाभ होता है क्योंकि इससे उनके विरोधी मतों का ही बंटवारा होता है। हालांकि जानकारों के अनुसार हर चुनाव के समीकरण अलग होते हैं, और इसे कोई एक स्थापित ट्रेंड मान लेना मुनासिब नहीं। लेकिन पांच राज्यों के चुनाव में आए नतीजे एक ठोस ट्रेंड बता सकते हैं।
क्यों उठ रहे सवाल
अभी बहुकोणीय चुनाव और इसके असर की बात पर बहस इसलिए शुरू हुई कि एक के बाद एक कई घटनाक्रम हुए हैं। पिछले हफ्ते गुजरात में हुए निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी भले सीट जीतने में सफल नहीं रही, लेकिन कांग्रेस के वोट बैंक में उसने बड़ी सेंध लगाई। इसका असर यह हुआ कि बीजेपी पिछली बार से भी बड़ी जीत पाने में सफल रही। गुजरात में भी अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। अभी कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी लखीमपुर कांड के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश में आक्रामक हुईं और वाराणसी में बड़ी रैली कर उन्होंने कांग्रेस के चुनावी प्रचार का शंखनाद किया, उसके बाद वहां भी यह बात उठी कि अगर कांग्रेस अपना वोट बढ़ाती है तो वह किसकी कीमत पर बढ़ाएगी। तर्क दिया गया कि जितना कांग्रेस बेहतर करेगी, बीजेपी के लिए राहत की बात होगी क्योंकि इससे बीजेपी विरोधी वोट ही बंटेगा।
इसी तरह साल की शुरुआत में गोवा और उत्तराखंड में भी यही सवाल उठेगा। गोवा में आम आदमी पार्टी और टीएमसी पूरी ताकत के साथ उतर रही है। वहां दोनों दल बीजेपी सरकार के सामने कांग्रेस के साथ खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। वहीं उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी मैदान में उतर चुकी है। पंजाब में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने आम आदमी पार्टी, अकाली दल और बीजेपी मैदान में हैं। मणिपुर में भी एक साथ कई दल चुनावी मैदान में हैं। हाल के सालों में अधिकतर चुनावों में दो पक्षों के बीच सीधी टक्कर ही देखने को मिली है। लेकिन इस बार जिस तरह इन सभी राज्यों में कई कोण अभी से दिख रहे हैं, यह देश की राजनीति में उस पुराने दौर की वापसी की आहट दे रहा है जब सियासी मैदान में कई खिलाड़ी होते थे। लेकिन क्या कई दलों के मैदान में उतरने से बहुकोणीय चुनाव हो जाएगा या मौजूदा ट्रेंड की तरह अंत में वोटर पक्ष और विपक्ष के लिए सिर्फ एक-एक विकल्प को चुनेगा? इसका जवाब तो चुनाव में ही मिलेगा। इसी से सभी दलों के राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की ख्वाहिश का विस्तार होगा या नहीं, इसका भी पता चलेगा।
वोट बंटने का फायदा
बहुकोणीय चुनाव से वोट बंटने का असर क्या होता है, उस बारे में तो अगले साल चुनाव के नतीजे ही कुछ बता पाएंगे। लेकिन अब तक का ट्रेंड यही है कि इसका लाभ हाल के सालों में बीजेपी को मिला है। इसके पीछे कारण रहा है कि अधिकतर क्षेत्रीय दल चाहे तेलंगाना में हो या आंध्र प्रदेश में, पश्चिम बंगाल में हो या महाराष्ट्र में, वे सारे कांग्रेस के पतन की कीमत पर ही उभरे हैं। जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती गई वहां-वहां क्षेत्रीय दल उभरते गए। यह ट्रेंड पिछले तीन दशकों से है। सबसे नया उदाहरण दिल्ली में आम आदमी पार्टी है। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली हो या झारखंड जैसे राज्य, वहां कांग्रेस से जो वोट बैंक निकला, उस पर ही अपनी पकड़ बनाकर क्षेत्रीय दल स्थापित हुए। अधिकतर क्षेत्रीय दलों को वोट बेस कांग्रेस से ही मिलता रहा है। ऐसे में चूंकि क्षेत्रीय दल और कांग्रेस एक ही पिच पर खेलते रहे हैं तो ये एक ही वोट वर्ग में साझा करते हैं और बीजेपी का वोट बैंक इससे प्रभावित नहीं होता है। यह चुनाव दर चुनाव दिखा भी है। लेकिन जानकारों के अनुसार पिछले कुछ दिनों में हालात बदले भी हैं। अब इन सभी के लिए बीजेपी से लडऩा प्राथमिक सियासी चुनौती बन गई। लगभग एक दशक से देश की राजनीति के केंद्र में आ चुकी बीजेपी इन क्षेत्रीय दलों के लिए बड़ा खतरा बन गई। इसके अलावा बीजेपी की तरह कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल, इनका भी अपना वोट बैंक बन गया।
ऐसे में अब बहुकोणीय चुनाव का असर किसके वोट बैंक पर पड़ेगा, उसका आकलन गलत भी साबित हो सकता है। उत्तर प्रदेश की ही मिसाल लें, तो यहां अगर कांग्रेस उभर कर अपना वोट बैंक बढ़ाती है तो वह बीजेपी में सेंध लगाएगी या विपक्ष में, यह अभी कहना जल्दबाजी होगा। एसपी के नेता ने कहा कि पारंपरिक रूप से बीजेपी का वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है, जो एसपी की ओर कभी नहीं आएगा। यही बात दूसरे राज्यों में भी लागू होती है। जाहिर है, सभी दल बहुकोणीय चुनाव में अपने लिए लाभ का आकलन अधिक करेंगे, लेकिन इसके लिए ठोस आधार नहीं है। इसी तरह ओवैसी की पार्टी के बारे में कहा गया है कि उनकी पार्टी मुस्लिम वोट बांटती है। लेकिन अब तक इसके कोई स्पष्ट सियासी प्रमाण नहीं मिले हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के सामने कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन था, जो वहां की स्थापित पार्टियां है। उनके साथ इंडियन सेक्युलर फ्रंट की पार्टी भी थी। लेकिन जब चुनाव परिणाम सामने आए तो यही बात देखी गई कि मुस्लिम मतों का बंटवारा नहीं हुआ। वहीं पिछले 15 विधानसभा चुनाव के नतीजे यही बता रहे हैं कि 85 फीसदी वोट दो पक्षों के बीच ही बंटता रहा है। ऐसे में क्या बहुकोणीय चुनाव सही में बहुकोणीय बन पाएगा या नहीं, इसे तमाम दलों की भागीदारी भर से तो नहीं मान सकते हैं।

 

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