Electoral dramatization of idea zero politicsElectoral dramatization of idea zero politics

राजकुमार सिंह –
दशकों तक नीति-सिद्धांत-कार्यक्रम के आवरण में लिपटी रही राजनीति अब पूरी तरह नाटकीय हो गयी है। खासकर चुनाव के समय तो यह नाटकीयता चरम पर होती है। देश की राजनीति को दिशा देते रहे उत्तर प्रदेश के राजनेताओं का यह आलम है कि लगभग पांच साल तक सत्ता-सुख भोग चुकने के बाद ऐन चुनाव से पहले उन्हें अहसास होता है कि वे अपने-अपने वर्गों की सेवा करने के बजाय उनका शोषण करने वाली व्यवस्था का ही हिस्सा बने हुए थे। तीन दिन में योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल से इस्तीफा देनेवाले तीनों मंत्रियों के इस्तीफे की समान भाषा से उनकी समझ के साथ ही मंसूबों पर भी सवाल उठते ही हैं। अपने-अपने जाति-वर्ग के बड़े नेता माने जानेवाले ये तीनों महानुभाव पिछले विधानसभा चुनाव से पहले ही अचानक निष्ठा बदल कर भाजपाई बने थे। जाहिर है, तब भी उन्होंने अपने समुदाय के हित में पाला बदलने का दावा किया था, जैसा कि अब भाजपा को अलविदा कहते समय किया है। वैसे इन सभी ने दावा किया है कि मंत्री पद पर रहते हुए अपने दायित्व का पूरी निष्ठा से निर्वहन किया। ऐसे में यह स्वाभाविक प्रश्न अनुत्तरित है कि अगर पिछड़े, दलित, युवाओं, बेरोजगारों आदि वर्गों की योगी सरकार में निरंतर अनदेखी हुई तो ये महानुभाव किस दायित्व का निर्वहन कर रहे थे, और क्यों? कई दलों की परिक्रमा कर चुके इन महानुभावों से पूछा जाना चाहिए कि नेताजी, आखिर आपकी राजनीति क्या है!
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भाजपा और उसके मित्र दलों को अलविदा कह कर मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले विधायक भी खुद को अपने-अपने जाति-वर्गों के हितों के प्रति चिंतित दिखा रहे हैं—बिना इस स्वाभाविक प्रश्न का उत्तर दिये कि पांच साल तक वे अपने लोगों के हितों के साथ अन्याय के मूकदर्शक क्यों बने रहे? असहज सवालों से मुंह चुराना हमारी राजनीति की पुरानी फितरत है। फिर भी, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही उत्तर प्रदेश भाजपा में जैसी भगदड़ मची है,उसे सामान्य नहीं माना जा सकता—खासकर तब जबकि केंद्र में भाजपा सरकार का कार्यकाल अभी दो वर्ष से भी ज्यादा शेष है। ऐन चुनाव से पहले दलबदल करनेवाले राजनेताओं के लिए भारतीय राजनीति में एक नया शब्द ईजाद हुआ—चुनावी मौसम विज्ञानी। दिवंगत रामविलास पासवान को इस श्रेणी के राजनेताओं में अगुवा गिना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में अब चुनाव से ठीक पहले दल बदलने वाले नेताओं के लिए भी यही शब्द इस्तेमाल करते हुए सवाल पूछा जा रहा है, क्या यह राज्य के बदलते राजनीतिक मिजाज का संकेत है? शायद शब्द कटु लगें,पर सच यही है कि अब खुद को तमाम जाति-वर्गों का हित चिंतक दर्शा रहे ये नेता दरअसल अपनी-अपनी जातियों के ही नेता हैं और उन्हीं के लिए सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर राजनीति करते हैं। आश्चर्यजनक सच यह भी है कि ये महानुभाव किसी भी सरकार या राजनीतिक दल में रहते हुए अपने वर्ग की हितचिंता में कभी मुखर नजर नहीं आये। वैसे दो दशक से भी ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के स्वयंभू ठेकेदार दलों-नेताओं की सरकारें रहने के बावजूद पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की बदहाली की बातें क्या उनके रहनुमाओं को ही कठघरे में खड़ा नहीं करतीं?
स्वामी प्रसाद मौर्य कांशीराम-मायावती की बसपा से राजनीति में आगे बढ़े। बसपा ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री ही नहीं, विपक्ष में आने पर नेता प्रतिपक्ष भी बनाया, पर पिछले चुनाव से पहले वह अचानक भाजपाई हो गये। अगर भाजपा ने उन्हें लिया और फिर सरकार बनने पर कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री भी बनाया तो जाहिर है, उनकी राजनीतिक उपयोगिता ही मुख्य आधार रहा होगा, पर अब जब फिर चुनाव की बारी आयी तो मौर्य अपने समर्थकों सहित समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये। तीन मंत्रियों और आधा दर्जन से भी अधिक विधायकों के भाजपा से इस्तीफे के बाद दावा किया जा रहा है कि यह सिलसिला जारी रहेगा। तब क्या इस कदर मची भगदड़ को वाकई राज्य की राजनीति में किसी बड़े बदलाव की आहट माना जाये? ध्यान रहे कि अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में भी बबुआ की छवि से नहीं उबर पाये सपा प्रमुख अखिलेश न सिर्फ इस बार गठबंधन के लिए छोटे दलों की पहली पसंद हैं, बल्कि उनकी सभाओं में भीड़ भी जुट रही है। राजनीति की सामान्य समझ भी कहती है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति को गहरे तक प्रभावित करने वाले सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं। यह भी कि यह बदलाव भाजपा के लिए नुकसानदेह और सपा के लिए फायदेमंद नजर आ रहा है, लेकिन वर्ष 2017 के विधानसभा तथा 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और सपा के मत प्रतिशत और सीटों में फासला इतना ज्यादा रहा, जिसे हालिया नेताओं के पाला बदल और सीमित जनाधार वाले छोटे दलों से गठबंधन के जरिये मिटा पाना आसान नहीं होगा। फिर इस बीच कांग्रेस न सही, बसपा ने तो अपना मत प्रतिशत बढ़ाया ही होगा, जिसे जीत की संभावना वाली सीटों पर अल्पसंख्यक मतों का साथ भी मिलेगा ही। सभी राजनीतिक दलों-नेताओं की बयानबाजी से साफ है कि विधानसभा चुनाव कमंडल-मंडल के बीच होगा। ऐसे में परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि योगी के कमंडल में से अखिलेश कितना मंडल वापस ले पाते हैं।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए जारी सेंधमारी के साथ ही सीमावर्ती राज्य पंजाब में भी चुनावी राजनीति नित नये रंग बदल रही है। पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से ही अपनी राज्य सरकार के साथ-साथ आलाकमान का भी सिरदर्द बढ़ाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने अब पार्टी चुनाव घोषणापत्र से पहले ही अपना अलग पंजाब मॉडल घोषित करते हुए यह ऐलान भी कर दिया है कि मुख्यमंत्री आलाकमान नहीं, पंजाब के लोग चुनेंगे। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि विधानसभा चुनाव में राज्य के मतदाता अपना-अपना विधायक चुनते हुए मुख्यमंत्री कैसे चुनेंगे? भारतीय राजनीति, खासकर कांग्रेस की रीति-नीति को जानने वाले समझ सकते हैं कि यह सीधे-सीधे पार्टी आलाकमान को चुनौती है कि वह दलित कार्ड के चुनावी लालच में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का चेहरा न घोषित कर दे। कांग्रेस आलाकमान के लिए यह सांप-छछूंदर वाली स्थिति है : ऐन चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष को नाराज करना भी ठीक नहीं और उनकी बेलगाम राजनीति के खतरे भी कम नहीं।
पिछली बार पंजाब के मतदाताओं ने कांग्रेस को जनादेश दिया था और आम आदमी पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। उससे पहले लगातार 10 साल तक, भाजपा के साथ गठबंधन कर, सरकार चलाने वाला शिरोमणि अकाली दल भी इस बार बसपा से गठबंधन कर ताल ठोंक रहा है और भाजपा भी कैप्टन अमरेंद्र सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस एवं सुखदेव सिंह ढींढसा के संयुक्त अकाली दल से गठबंधन कर चुनाव को चतुष्कोणीय बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन फिलहाल मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आप के बीच ही नजर आ रहा है। यही नहीं, मुख्यमंत्री चुनने के सवाल पर भी कांग्रेस-आप में अंतर्कलह कमोवेश एक जैसा ही है। जैसे चन्नी का दबाव है कि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुनाव लडऩा कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहता है, वैसे ही आप सांसद भगवंत मान भी दबाव बना रहे हैं कि इस बार तो उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाये। चन्नी के दबाव की काट में ही सिद्धू ने रंग बदलते हुए अब पंजाब के लोगों द्वारा मुख्यमंत्री चुने जाने का दांव चला है तो आप में अंतर्कलह से संभावित नुकसान को न्यूनतम रखने के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा चुनने को अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के लोगों के बीच रायशुमारी का रास्ता निकाला है। प्रयोगवादी कहें या नाटकीय, इस कवायद से दलीय हित पर नेता की निजी राजनीति हावी होती दिख रही है, जिससे चुनावी मुद्दे पार्श्व में चले जायेंगे, जिसे चुनाव प्रक्रिया और लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता। ऐसी चुनावी राजनीति में विचारधारा की तो बात ही अप्रासंगिक लगती है, पर क्या यह भारतीय राजनीति की बड़ी विडंबना नहीं है!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *