डॉ राम मनोहर लोहिया : भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है
*उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए
*प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए
*जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता
*वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो
विकास कुमार
डॉ राम मनोहर लोहिया का नाम लोकतंत्र के अग्रणी चिंतकों में बेशुमार है। जो लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति की भागीदारी और सहभागिता में देखने पर विश्वास करते थे। उनका विचार था की संसाधनों का वितरण समानांतर हो जिसमें अंतिम व्यक्ति को भी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ मिल सके। भारतीय समाजवाद का उन्हें अग्रणी वाहक कहा जाता है ।क्योंकि उन्होंने समाजवाद को पाश्चात्य दृष्टिकोण की अवधारणा को ना अपना कर भारतीय और भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का सदैव सम्मान होना चाहिए। वह लोकतंत्र सफल नहीं माना जा सकता जिसमें विरोधी विचारों का सम्मान नहीं होता। जनता को इतना जागरूक होना चाहिए की उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि यदि भ्रष्ट हो तो उन्हें सत्ता से भी हटाने में नहीं सोचना चाहिए। डॉक्टर लोहिया का विश्वास था कि जातिवाद और नस्लवाद किसी भी देश के लिए शुभ संकेत नहीं होता, क्योंकि इससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है और संप्रदायिकता से लोकतंत्र विखंडित हो जाता है। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र को विविधता और समग्रता में देखने की जरूरत होती है ,क्योंकि लोकतंत्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें प्रत्येक जन समुदाय अपने हित की चेतना के बारे में सोच समझ और बोल सकने का अधिकार रखता है।लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी. उनका विश्वाश था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है. वे कहते थे कि हिन्दी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण से सम्बन्धित विचारों को बढ़ावा मिलेगा। वे जात-पात के घोर विरोधी थे।उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में सुझाव दिया कि “रोटी और बेटी” के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है. वे कहते थे कि सभी जाति के लोग एक साथ मिल-जुलकर खाना खाएं और उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की लड़कियों से अपने बच्चों की शादी करें. इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिया और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया. वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें.24 मई, 1939 को लोहिया को उत्तेजक बयान देने और देशवासियों से सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए लिए पहली बार गिरफ्तार किया गया, पर युवाओं के विद्रोह के डर से उन्हें अगले ही दिन रिहा कर दिया गया. हालांकि जून 1940 में उन्हें “सत्याग्रह नाउ” नामक लेख लिखने के आरोप में पुन: गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों के लिए कारावास भेज दिया गया. बाद में उन्हें दिसम्बर 1941 में आज़ाद कर दिया गया. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभभाई पटेल जैसे कई शीर्ष नेताओं के साथ उन्हें भी कैद कर लिया गया था। अंग्रेजी सरकार सदैव उनके ओजस्वी भाषणों और उनके विचारों से डरती थी। डॉक्टर लोहिया कई भाषाओं के जानकार थे वह कई भाषाओं में अपनी बात को श्रोताओं तक पहुंचा सकते थे और लेखन कार्य भी कर सकते थे। डॉक्टर लोहिया का विकेंद्रीकरण प्रणाली और लोकतंत्र में अटूट विश्वास था। वह सदैव यही कहते थे जिंदा कौम में 5 वर्ष इंतजार नहीं करती है। यह तो सच है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपने जनमत का प्रयोग करते समय विवेक का प्रयोग करें। परंतु यदि जनमत से गलत प्रतिनिधि का चुनाव हो गया है तो जनता को चाहिए कि उसको सत्ता से हटाकर दूसरे प्रतिनिधि को सत्तारूढ़ कर सकें। दूसरा उनका मत था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना अत्यन्त आवश्यक है , क्योंकि सत्ता को नीतियां बनाते समय यह ध्यान नहीं रहता क्या उचित है या अनुचित है ।इसलिए वक्त समय-समय पर उनको सुधर सुधारने का मौका देता है ताकि सही नीतियां जनता तक पहुंच सके। डॉक्टर लोहिया ने समाज की संरचना में 4 परतों की अवधारणा दी । पहला था गांव दूसरा था जनपद तीसरा प्रांत और चौथा था राष्ट्र। यदि राज्यों का संगठन इन 4 पदों के अनुरूप हो जाए तो वह समुदाय का सच्चा प्रतिनिधि बन जाएगा परंतु गांव को अधिक सशक्त बनाने की आवश्यकता है। नीतियों का क्रियान्वयन और सत्ता की सोच ग्रामीण को देखकर विकसित स्वरूप में निर्मित होनी चाहिए सभी आम जन समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी। इस परिपेक्ष को डॉक्टर लोहिया चौखंभा राज्य की संज्ञा दी। उन्होंने समाजवाद को एशियाई संदर्भ में परिभाषित किया। कहां की पाश्चात्य सभ्यता में समस्याएं समानांतर रूप से दूसरी प्रकार की हैं और एशियाई परिपेक्ष में समस्याएं दूसरी हैं इसलिए समाजवाद को एशियाई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकसित करना चाहिए। उन्होंने बताया एशिया में निरंकुश तंत्र, सामंतवाद, धार्मिक रूढिय़ां जाति प्रथाओं की संकीर्ण मनोवृत्ति, अधिकारी तंत्र और तानाशाही तंत्र आदि का प्रचलन है। एशियाई परिपेक्ष्य में समाजवाद के लिए यह सब समस्याएं हैं जिनके कारण आम जन समुदाय तक संसाधनों का वितरण नहीं हो पा रहा है। सामाजिक न्याय के लोहिया बहुत बड़े समर्थक थे। जिस देश में सामाजिक न्याय नहीं हैं वह देश विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। उनके विचारों में सामाजिक न्याय का तात्पर्य केवल जाति प्रथा वाला सामाजिक न्याय नहीं था बल्कि प्रत्येक समुदाय चाहे स्त्री, हो विकलांग हो या अन्य समुदाय का प्रत्येक को न्याय सुनिश्चित कराना था। वह सदैव लघु एवं कुटीर उद्योगों के समर्थन में थे क्योंकि उनका मानना था कि यदि बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर होगा उसने मालिकाना पूंजीपतियों का होगा जिसमें जनसाधारण को भागीदारी नहीं मिल सकेगी। उनकी स्वतंत्रता भी उसमें छीन ली जाएगी। क्योंकि कई प्रकार के शर्तों पर उन से काम करवाया जाएगा। 1962 में प्रकाशित एक लेख में सात प्रकार की क्रांतियों का विवेचन किया। जिसमें एक स्त्रियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध क्रांति, जाति प्रथा के विरुद्ध क्रांति, अन्याय के विरुद्ध क्रांति, एवं अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा को राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में अपनाने के लिए लोगों के सोचने के ढंग में क्रांति। अत:डॉक्टर लोहिया स्त्री विमर्श के भी बड़े चिंतक हैं। उनका कहना था कि जब तक स्त्रियों के प्रति भेदभाव समाप्त नहीं होगा तब तक राष्ट्रपति नहीं कर सकता है क्योंकि आधी आबादी के योगदान से कोई भी राष्ट्र प्रगति कैसे कर सकता है। जाति प्रथा को वह सबसे बड़ा संक्रमण और कैंसर समाज के लिए मानते थे। उनका मानना था कि यदि जाति व्यवस्था का अंत नहीं हुआ तो यह आगे चलकर बहुत बड़ी समस्या भारतीय समाज के लिए बन सकती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए कई प्रकार के नीतियों का सुझाव उन्होंने सरकारों को दिया। अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के बहुत बड़े समर्थक थे उनका मानना था बेरोजगारी किसी भी देश के लिए अभिशाप होती है इसलिए सरकार को यह चाहिए कि उत्पादन का वितरण समानांतर होना चाहिए। आज डॉक्टर लोहिया के विचार पहले की अपेक्षा अधिक प्रासंगिक प्रतीत हो रहे हैं। डॉक्टर लोहिया के विचारों को पड़ता और समझता तो सभी है परंतु उन को व्यावहारिक रूप में लागू करने की आवश्यकता है। उनके विचार आज भी प्रेरणा प्रदान करते हैं। ऐसे विचारक और राजनेता शारीरिक रूप से भले ही आम जनमानस के बीच ना रहे परंतु उनके चेतना में ऐसे विचार को का निवास सदैव रहता है।
(लेखक- केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट हैं)
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