– दिलीप सिंह –
मामला साईकिल चोरी का.जाड़ा का दिन था। हम अपने छत पर बैठ कर दोपहर के धूप का आनन्द ले रहे थे। काॅलेज के विद्यार्थी होेने के नाते सबेरे-सबेरे बिस्तर छोड़ देना,किताब लेकर छत पर चला जाना,माँ-बाप के आँखो में धूल झोंकने के समान ही था। बेचारे माँ-बाप ये सोचते थे बेटा बड़ा होनहार है,जब देखो किताब से चिपके रहता है। अब उनको क्या मालूम की उनका होनहार बेटा छत पर जाकर क्या करता हैं।
वैसे आम विद्यार्थियों की तरह उस समय देश-प्रेम और आदर्शवादिता हमारे सर पर हर समय छायी रहती थी। किसी के सुख-दुःख में शामिल होना हम साथियों का कर्तव्य था। लगभग दोपहर का समय था,मैं किताबें लिए छत पर आँख बंद कर के धूप का आनन्द ले रहा था। तभी हमारा मित्र गिरधारी हाँफते-हाँफते छत पर पहुँचा। ऐ रामखेलावन भैया,ए रामखेलावन भैया। उसके जोर से बोलने के कारण मैं चौक कर उठ गया और उसे देखकर पूछा का है रे?इस पर उसने कहा-भैया हमरा साइकिल चोरी हो गया है बहीन का काॅलेज के पास से। मैने पूछा-तुम वहाँ का करने गए थे। उसका जवाब था-भैया साइकिल बाहरे रखकर मैं बहीन का काॅलेज में फ़ीस भरने गया था।मैने पूछा अब का किया जाए। चूँकि उस समय साइकिल का ही जमाना था अभी की तरह मोटरसाइकिल बहुत कम हुआ करते थे। थाना में साइकिल चोरी होने का कम्पलेन दर्ज कराया, मैने उससे पूछा। नही भैया मैं अकेले नही गया आप भी चलिए उसने कहा।
मामला साइकिल चोरी का था। शिकायत करना जरूरी था। हमलोग थाना पहुँच गए। वहाँ जा कर सामने बैठे आदमी से बोले हवलदार साहब। सामने बैठा व्यक्ति और अकड़ कर बैठ गया और जोर से चिल्लाया का बोला रे हम तुमको हवलदार दिखते है हम इस थाना के मुँशी हैं। हमने कहा गलती हो गया मुँशी साहब। उसने पूछा का काम है। हमारा साइकिल चोरी हो गया हमने उससे कहा।साइकिल चोरी हो गया।ठीक है ठीक है.उधर जा के बैठो साहब नहीं है। साहब आएंगे तो कम्पलेन दर्ज होगा। हमने मुँशी से पूछा साहब कब आएंगे। थाने का मुँशी जोर से चिल्लाया साहब-साहब है, तुमसे पूछकर आना-जाना करेगें का।जाओ उधर बैठो वो चिल्लाकर बोला।उसकी आवाज से हमलोग की आधी जान निकल गई।डरकर हमलोग किनारे खड़े हो गए। हमे वहाँ खड़े-खड़े लगभग एक घंटा हो चूका था। थाने के साहब का पता नही। दुबारा हमारी हिम्मत नही हुई कि हम मुँशी से जाकर पूछे कि दारोगा साहब कब आयेगे। हमारी स्थिति ऐसी हो गई थी कि न हम वहाँ से जा सकते थे और न ही हिल सकते थे।
तभी एक सिपाही को हम पर तरस आया वो आकर कान में पुफसपुफसाया का बात है?हमने अपना किस्सा उसे बताया सिपाही जी बोले कुछ चढ़ावा चढ़ाना होगा। हमने उससे कहा कि आज तो मंगलवार भी नही है कि बजरंगबली का प्रसाद आपको खिलावे ।सिपाही जी बोले अरे वो चढ़ावा नहीं कुछ रूपया उपया खर्च करना होगा। हमने सिपाही जी से कहा कि हम विद्यार्थी है पैसा कहाँ से लावेंगे। तब सिपाही ने कहा तब हम तुम्हारी कोई मदद नही कर सकते है, यह बोल सिपाही वहाँ से खिसक लिया। 2 घंटे के बाद दारोगा साहब पधरे। मुँशी जी खड़े हुए। दारोगा ने मुँशी जी से पूछा क्या बात है?हुजुर इनकी साइकिल चोरी हो गई है। दारोगा साहब ने हमारी ओर इशारा किया। हम दौेड़कर उनके पास पहुँचे। हमने अपनी पूरी बात उनके सामने रखी ।हमने अपनी बात खत्म भी नही की थी कि बीच में ही दारोगा चिल्लाए मुँशी साहब इ दोनों तो खुद ही चोर लगते हैं। हमलोग घबड़ाकर बोले हमलोग तो काॅलेज का छात्र हैं। अकड़कर दारोगा बोला लड़की काॅलेज के पास क्या करने गये थे। वहाँ लड़कियों से छेड़छाड़ की घटना बढ़ी है। कहीं तुमलोग तो इस घटना में शामिल नहीं हो। इ का कह रहें हैं सर। हमारी बात अनसुनी कर दरोगा चिल्लाया, मुँशी जी इनको पकड़कर लाॅकअप में बंद कर दो। आकर देखतें है मामला क्या है। यह कहकर दारोगा राउंड पर चला गया। मुँशी हमारे पास आया। हमने उससे कापफी विनती की, हमें मामला दर्ज नहीं कराना है। पता नहीं हमारी बातों का मुँशी पर क्या असर हुआ वह बोला भागो यहाँ से, दुबारा शक्ल मत दिखाना। हमें लगा की हमारी जान बची। हम निकल भागे।
लेकिन अभी भी हमारा आदर्श हमें ललकार रहा था। हमनें सोचा क्यों ना अपनी व्यथा,अपनी पीड़ा और उस दारोगा की हरकत को किसी को बताया जाए। तब ध्यान में आया क्यों ना यह बात अखबार के संपादक को बता दिया जाए। हम चल दिए अखबार के दफतर की ओर। वहाँ जाकर हमनें संपादक को अपना दुखड़ा सुनाया। संपादक ने हमारी बातें सुनकर कहा लिखकर दे दीजिए। साथ में एक लाईन और जोड़ दीजिएगा कि दारोगा ने हमसे पचास रूपये छिन लिए ताकि दारोगा के विरुद्ध केस मजबुत हो सके। वो पत्र हम संपादक को देकर खुशी-खुशी घर लौटे कि अब पता चलेगा दारोगा को।
घर पहुचे तो घरवाले परेशान थे। पिताजी पुछे कहाँ से आ रहे हो?पिताजी को थाने से लेकर अखबार के दफतर तक की बातें बता दी। मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि पिताजी चिल्लाए, अरे मुर्ख नालायक यह तुमनें क्या कर डाला कल अगर अखबार में यह बात छपती है, तो वह दारोगा तुम पर क्या-क्या आरोप लगा कर तुम्हें जेल मे डाल देगा यह तुम्हें पता है। गुस्से मे आकर पिताजी ने दो छड़ी मुझ पर जमायी। अभी तुरंत जाओ, संपादक को दिए गए पत्र को वापस ले लो। कहना हमकों कम्पलेन नहीं करना है। हम दौड़कर भागें अखबार के दफतर पहँुचे। संपादक महोदय से बोले कि हमें अपना मामला वापस लेना है। संपादक महोदय ने ना जाने हमें कितनी नसीहतें दी और हमनें जो पत्र दिया था वो हमें वापस कर दिया। तब हमारी जान में जान आई। अब हम हमेशा के लिए भुल गए कि आदर्शवादिता किस चिड़िया का नाम है।