Literature adapted in a new way in times of crisisLiterature adapted in a new way in times of crisis

अतुल सिन्हा –
निस्संदेह, कोरोना काल में मानवीय त्रासदी का चरम दिखा, जिसने रचनाकारों को उद्वेलित किया। इस काल के सृजन में मानवीय त्रासदी की गहरी छाया रही। इस दौरान साहित्य ने अपनी चाल बदली। विपुल साहित्य का सृजन हुआ। डिजिटल माध्यम की स्वीकार्यता बढ़ी।?लेकिन पुस्तक छपवाने का मोह कम नहीं हुआ। प्रकाशकों का काम बढ़ा। इस दौरान हमने अनेक नामचीन साहित्यकारों को भी?खोया।
एक महामारी ने पूरी जीवन शैली बदल दी। तकरीबन दो सालों से हम सब के बीच फासले बढ़ गए। सोचने-समझने और लिखने-पढऩे के तौर-तरीकों में बदलाव आया और साहित्य सृजन की दृष्टि भी काफी हद तक बदल गई। कोरोना काल में साहित्य रचने का यह दूसरा साल था। लॉकडाउन भले ही कुछ महीनों का रहा हो, लेकिन इसका असर दीर्घकालिक है। वर्ष 2021 के इस सबसे भयानक कालखंड में हमारे बीच से बहुत से लोग, रचनाकार, पत्रकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी चले गए। कुछ रचते हुए चले गए, कुछ रचने की बहुत-सी योजनाओं को साथ लिए चले गए। सन् 2020 के कोरोना कालखंड में जहां मजदूरों का पलायन और सड़कों पर मजबूरन धकेल दिए गए श्रमिकों का दर्द रचनाओं में झलकता रहा तो इस बार लगातार और असमय अलविदा कह देने वालों से जुड़ी मानवीय पीड़ा और एक बेबसी दिखाई देती रही। रचनाकार या तो सदमे में रहा, लिखने-पढऩे से विरक्ति का शिकार रहा, या फिर रचा तो इतना रचा कि उसकी सारी संवेदनाएं अपने विभिन्न रूपों में सामने आती रहीं। कविताएं हों, कहानियां हों, डायरी के पन्ने हों, उपन्यास हों या संस्मरण– इस दौर में जो भी लिखा गया, ज्यादातर में इसकी झलक मिली। सत्ता के प्रति गुस्सा, संवेदनहीन सरकार और बेबस प्रशासन की अव्यवस्थाएं, अस्पतालों की भयावहता, ऑक्सीजन को लेकर त्राहि-त्राहि और सरकारों के दावे, वैक्सीनेशन की सरकारी प्रतियोगिताएं और सबसे ज्यादा उन परिवारों और व्यक्तियों की त्रासदी जो या तो अचानक चले गए, या अव्यवस्थाओं के शिकार होकर अलविदा कह गए।
कोरोना काल में डिजिटल हो चुके देश में वैसे तो अब ज्यादातर साहित्य फेसबुक या सोशल मीडिया पर रचा जा रहा है, लेकिन ये प्लेटफॉर्म बस आपके डायरी के पन्नों की तरह है। आखिरकार सभी की यह चाहत रहती है कि उनका यह रचनाकर्म पुस्तक के रूप में आए, बेशक इसके लिए पैसे खर्च करके प्रकाशकों की तलाश की जाए और अपने हिस्से का साहित्य रच दिया जाए। ज्यादातर लेखक और कवि चाहते हैं कि उनकी कोई न कोई किताब पुस्तक मेलों में जरूर आए ताकि कम से कम उनके रचनाकर्म को एक पहचान मिल सके। लखनऊ समेत तमाम शहरों में पुस्तक मेले लगने शुरू हो गए हैं और एक बार फिर जनवरी के दूसरे हफ्ते में दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले की तैयारी है। वर्ष 2021 में छपी हजारों पुस्तकों को एक बड़ा आयाम यहां मिलने जा रहा है। प्रकाशकों के पास पुस्तकों के जबरदस्त ऑर्डर हैं और तमाम पुस्तकें छपने के अंतिम चरण में हैं। प्रकाशकों के लिए यह वक्त बहुत मुफीद होता है और कोरोना काल ने तो उनका प्रिंट ऑर्डर काफी बढ़ा दिया है। तमाम प्रकाशक बताते हैं कि कोरोना काल से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा है, बल्कि पहले से कहीं ज्यादा किताबें इस बार छप रही हैं। कोरोना काल में घर बैठे लोगों ने खूब लिखा है। सबसे बड़ी बात कि अब किताबों को बेचने के लिए पुस्तक मेलों के अलावा अमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध होने से काफी सहूलियत हो गई है, इसलिए बड़ी संख्या में किताबें छप भी रही हैं और बिक भी रही हैं। किताबें छपवाने के लिए कई लेखक प्रकाशकों को मोटी धनराशि भी देने लगे हैं इसलिए आम तौर पर प्रकाशन के व्यवसाय पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। फिर भी कई प्रकाशक ऐसे भी हैं, जिनके लिए मुश्किलें बढ़ गईं और उन्हें अपने कर्मचारियों की छंटनी भी करनी पड़ी।
कोरोना काल में 2021 का विश्व पुस्तक मेला पहली बार डिजिटल माध्यम से जनवरी की जगह मार्च के पहले हफ्ते में चार दिनों के लिए 6 से 9 मार्च तक आयोजित हुआ। कोरोना की पहली लहर से धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य होती दिख रही थीं, लेकिन लोगों में डर था, ढेर सारी पाबंदियां थीं और अगले ही महीने कोरोना का सबसे खतरनाक दूसरा दौर आया जो तमाम लोगों पर कहर बनकर टूटा और एक बार फिर दहशत से भरी जि़ंदगी घरों में कैद हो गई। फेसबुक और सोशल मीडिया मौत की सूचनाओं के अलावा अस्पतालों की चरमराई व्यवस्थाओं से भरा रहा। इसी दौरान तमाम लेखकों ने फेसबुक पर रोजाना साहित्य रचना शुरू कर दिया। जाने-माने कवि मदन कश्यप कहते हैं कि 2020 के लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद रचे गए साहित्य में जहां विस्थापन का दर्द बहुत गहराई से सामने आया, वहीं 2021 में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों और आदमी की असहायता और करुणा को साहित्य के विभिन्न रूपों में पेश किया गया। अभी यह सिलसिला जारी है और लंबे समय तक यह कविता, कहानी, उपन्यास और डायरी जैसे रूपों में सामने आता रहेगा। उनका कहना है कि जिस तरह विश्वयुद्ध के बाद पोस्ट वर्ल्डवार लिटरेचर का दौर था, वैसे ही पोस्ट कोरोना पोएट्री, फिक्शन और अन्य लेखन का एक रचनात्मक आंदोलन दिखाई दे रहा है।
मदन कश्यप की लॉकडाउन डायरी भी छपकर लगभग तैयार है। 2021 में श्रीप्रकाश शुक्ल की ‘महामारी और कविताÓ के अलावा अरुण होता के संपादन में ‘तिमिर में ज्योति जैसेÓ और कौशल किशोर के संपादन में ‘दर्द के काफिलेÓ जैसे कई महत्वपूर्ण संग्रह आए हैं, जिनमें कोरोना काल के दौरान रची गई कविताएं, आलेख और संस्मरण शामिल हैं।
कवि और संस्कृतिकर्मी कौशल किशोर बताते हैं कि इस महामारी के दौर में सभी संवेदनशील रचनाकारों ने सृजनात्मक हस्तक्षेप किया और इस दौरान रची गई कविताएं, कहानियां और संस्मरण अपने समय के दस्तावेज हैं। जब भी ऐसा कोई बड़ा संकट आया है, साहित्यकारों ने अपने दायित्व का निर्वाह किया है। इस बार भी ऐसा ही देखने में आ रहा है। इस बार तो कोरोना ही नहीं, दूसरी तरह की तमाम परिस्थितियां भी झेलनी पड़ रही हैं, जिसकी अभिव्यक्ति रचनाओं में हो रही है। इसी दौरान सेतु प्रकाशन ने कई महत्वपूर्ण पुस्तकें छापीं। आनंद स्वरूप वर्मा का ‘पत्रकारिता का अंधा युगÓ से लेकर रज़ा फाउंडेशन के साथ कई किताबों की शृंखला, ज्ञानरंजन की किताब ‘जैसे अमरूद की खुशबूÓ, जयप्रकाश चौकसे का ‘सिनेमा जलसाघरÓ, प्रचंड प्रवीर का ‘कल की बात – षडज़, ऋषभ और गांधारÓ, रणवीर सिंह की पारसी थिएटर पर एक महत्वपूर्ण किताब, संजीव की ‘पुरबी बयारÓ, आधुनिक हिन्दी रंगमंच और हबीब तनवीर के रंगकर्म पर अमितेश कुमार की किताब ‘वैकल्पिक विन्यासÓ, चंडी प्रसाद भट्ट की जीवनगाथा, फणीश्वरनाथ रेणु पर भारत यायावर की पुस्तकें और ऐसी तमाम पुस्तकें जो अलग अलग विषयों और संदर्भों में रची गईं।
सेतु प्रकाशन के अमिताभ राय का कहना है कि साहित्य सृजन एक निरंतर प्रक्रिया है और कोरोना काल के दौरान लेखकों, रचनाकारों और कई पत्रकारों ने इस प्रक्रिया को और तेज़ किया है। लॉकडाउन की त्रासदी, कोरोना का आतंक, जीवन शैली से लेकर सोच में आए बदलाव के साथ-साथ सत्ता की विद्रूपता के कई रंग इन रचनाओं में सामने आए हैं। उनके पास पुस्तक मेले को लेकर कम से कम सौ से ज्यादा किताबों को छापने का दबाव तत्काल है। इसके अलावा अशोक वाजपेयी रचनावली भी अंतिम चरण में है। मधुकर उपाध्याय की दस खंडों में छपी किताब– बापू और मदीह हाशमी की लिखी फैज़ अहमद फ़ैज़ की जीवनी – प्रेम और क्रांति के अलावा मंगलेश डबराल का कविता संग्रह भी सेतु प्रकाशन ने इसी साल छापा है।
वहीं अनुभव प्रकाशन के पराग कौशिक कहते हैं कि कोरोना काल में इस साल उनके कामकाज में और तेजी आई है। अब तक इस साल करीब डेढ़ सौ किताबें छाप चुके हैं। पुस्तक मेले में भी कुछ किताबें आने वाली हैं। उनका कहना है कि इस दौरान ई-बुक के क्षेत्र में भी काफी काम हुआ है और तमाम प्लेटफॉर्म्स पर उनकी ई-बुक्स उपलब्ध हैं।
इस दौरान प्रलेक प्रकाशन से सुभाष राय की किताब भी आई ‘अंधेरे के पारÓ जो कई कवियों और लेखकों पर आलेख और संस्मरणों का संकलन है। इसके अलावा कवि और पत्रकार शैलेन्द्र का छठा कविता संग्रह ‘सुने तो कोईÓ, सुरेश कांटक का कहानी संग्रह ‘अनावरणÓ, चंद्रेश्वर का कविता संग्रह ‘डुमराव नजर आएगाÓ, उषा राय का कहानी संग्रह ‘हवेलीÓ, सुभाष चंद्र कुशवाहा का ‘भील विद्रोहÓ, मीना सिंह का कविता संग्रह ‘काली कविताएं, दक्षिणी भूखंड और मैं, आशा राम जाग्रत की अवधी काव्य गाथा ‘पाही माफीÓ, प्रलेक प्रकाशन से छपा सलिल सुधाकर का उपन्यास ‘तपते कैनवास पर चलते हुएÓ, रणेन्द्र का ‘गूंगी रुलाई का कोरसÓ, संजीव पालीवाल का न्यूजरूम थ्रिलर ‘पिशाचÓ, सुरेन्द्र मनन का उपन्यास ‘हिल्लोलÓ, राजवंत राज का ‘ट्रंपकार्डÓ, सीमा आजाद का ‘औरत का सफर – जेल से जेल तकÓ, रामकुमार कृषक की कोरोना केन्द्रित कविताओं का संकलन ‘साधो, कोरोना जनहंताÓ, उर्मिलेश की किताब ‘गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेलÓ, शोभा सिंह का कविता संग्रह ‘यह मिट्टी दस्तावेज़ हमाराÓ जैसी कई अहम किताबें 2021 में आईं। एक महत्वपूर्ण किताब इस बीच ममता कालिया की भी आई ‘जीते जी इलाहाबादÓ। इसमें उनके भीतर रचे-बसे इलाहाबाद की वो यादें हैं जो उनके स्नायुतंत्र में दौड़ती रहती हैं। इस बीच स्त्री विमर्श और उसकी आलोचना पक्ष पर केन्द्रित पुस्तकें भी आई हैं। इसी कड़ी में राजकमल प्रकाशन ने सुजाता की एक अच्छी किताब छापी है ‘आलोचना का स्त्री पक्षÓ।
प्रभात प्रकाशन की ओर से सच्चिदानंद जोशी की दो किताबें आईं ‘जिंदगी का बोनसÓ और ‘पुत्रिकामेष्टिÓ। आनंद स्वरूप वर्मा ने नेपाली साहित्य पर केन्द्रित समकालीन तीसरी दुनिया का एक संग्रहणीय अंक निकाला। फेहरिस्त बहुत लंबी है, कितनों का जि़क्र करें। प्रभात प्रकाशन ने भी इस बीच सौ से ज्यादा पुस्तकें छापीं और साल के जाते-जाते आशुतोष चतुर्वेदी के संपादन में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी पर एक खास किताब भी छापी, जिसका लोकार्पण राज्यसभा के सभापति हरिवंश ने किया। प्रभात कुमार कहते हैं कि कोरोना काल में लेखकों की संख्या बहुत बढ़ गई है और ई-बुक्स का चलन काफी बढ़ा है। किताबें छप तो रही हैं लेकिन बिक कम रही हैं।
वहीं अनुभव प्रकाशन के पराग कौशिक कहते हैं कि अब तक इस साल करीब डेढ़ सौ किताबें वो छाप चुके हैं। उनका कहना है कि इस दौरान ई-बुक के क्षेत्र में भी काफी काम हुआ है और तमाम प्लेटफॉर्म्स पर उनके ई-बुक्स उपलब्ध हैं। इस दौरान अनुभव प्रकाशन ने सूरजपाल चौहान, डॉ. प्रदीप जैन, कैलाश दहिया, नरेन्द्र निगम, मृदुला भटनागर, ईशकुमार गंगानी, डॉ. धनंजय सिंह जैसे 30 से ज्यादा लेखकों की किताबें छापीं। दरअसल, इस बीच रचनात्मकता के कई आयाम दिखे। कोरोना काल में लिखी गई रचनाओं के ज्यादातर संग्रह आए, कई पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक निकाले। खास बात यह भी रही कि सबने सिर्फ महामारी की विभीषिका की ही बात नहीं की, कई ऐसे उपन्यास, कहानी संग्रह, संस्मरण और कविताएं रची गईं, जिनका सरोकार समाज के तमाम आयामों, जीवन की सच्चाइयों, राजनीतिक व्यवस्था और जातिगत, धार्मिक उन्माद जैसे विषयों से भी जुड़ा रहा। जाहिर है देश में मौजूदा सत्ता और सोच पर केन्द्रित किताबों की भी लंबी फेहरिस्त रही और तमाम लेखकों ने अपनी आस्था का रचनात्मक इजहार भी किया। धार्मिक और पौराणिक पुस्तकों के अलावा, देशप्रेम और शौर्य गाथाओं के भी किस्से खूब छापे गए और यह सिलसिला जारी है।
साल के अंत में चंडीगढ़ में भारत-पाक युद्ध की स्वर्ण जयंती पर आधारित पांचवां मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल-2021 देश की सुरक्षा चुनौतियों व गौरवशाली सैन्य उपलब्धियों पर गंभीर विमर्श नई पीढ़ी तक पहुंचाने में सफल रहा।
डिजिटल मंचों पर साहित्यिक आयोजन
कोरोना काल के पहले कालखंड ने साहित्यकारों और रचनाकारों को फेसबुक लाइव से लेकर ऑनलाइन तमाम ऐसे मंच दिए, जिसमें साहित्य की तमाम धाराओं पर समय-समय पर चर्चाएं होती रहीं। 2021 में अब यह परंपरा थोड़े और वृहद और स्वीकार्य रूप में सामने आई। ज्यादातर प्रकाशन संस्थानों ने अपनी नई किताबों का ऑनलाइन विमोचन करवाए, उसपर चर्चाएं करवाईं और तमाम साहित्यिक मंचों पर कविताओं, कहानियों के पाठ हुए, साहित्यिक चर्चाएं हुईं। विश्व पुस्तक मेला और दिल्ली पुस्तक मेला तो ऑनलाइन हुआ ही, यहां के साहित्यिक सेशन भी डिजिटल मंचों पर हुए।
प्रतिरोध का साहित्य
सत्ता के जनविरोधी चरित्र को केन्द्र में रखकर अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में कई लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध के साहित्य सृजन का अभियान शुरू किया। इस दौरान अशोक वाजपेयी ने प्रतिरोध पूर्वज के नाम से तमाम कालजयी रचनाकारों की कविताओं का संग्रह छापा। स्वप्निल श्रीवास्तव के संपादन में ताकि स्पर्श बचा रहे और विमल कुमार की मृत्यु की परिभाषा बदल दो, किताबों में स्त्री जैसी कई किताबें भी इसी कड़ी में सामने आईं और सौ से ज्यादा रचनाकारों ने एक प्रस्ताव पास करके पूरे देश के रचनाकारों से अपील की कि वो अपनी सीमा में प्रतिरोध का साहित्य रचते रहें और जनपक्षधर साहित्य का सृजन करते रहें।
जिनको हमने खो दिया
कोरोना काल के दूसरे सबसे भयानक काल ने बहुत से साहित्यकारों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को हमसे छीन लिया। वर्ष 2021 में मन्नू भंडारी, कुंअर बेचैन, नरेन्द्र कोहली, विनोद दुआ, रमेश उपाध्याय, ईश मधु तलवार, ओम भारती, राजकुमार केसवानी को हमने खो दिया।?

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