राजकुमार सिंह –
पश्चिम बंगाल में भाजपा के चुनावी चक्रव्यूह को भेद कर लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर मोदी विरोधी ध्रुवीकरण का केंद्र बनने की कवायद में जुटी हैं। यह अप्रत्याशित नहीं है। भाजपा की हरसंभव कोशिशों के बावजूद पश्चिम बंगाल फतह कर लेने पर ममता के हौसले बुलंद होना स्वाभाविक है। कई राजनीतिक प्रेक्षक भी मानने लगे थे कि बंगाल की शेरनी इस बार वाकई मुश्किल में है, लेकिन भाजपा की सीटें कई गुणा बढऩे के बावजूद तृणमूल की सीटें कम नहीं हुईं। बेशक ममता स्वयं अपने ही पुराने सिपहसालार शुभेंदु से हार गयीं, पर उसका नैतिक से ज्यादा कोई राजनीतिक महत्व नहीं था। बाद में उपचुनाव जीत कर ममता ने मीडिया जनित असमंजस पर भी पूर्ण विराम लगा दिया। पश्चिम बंगाल में अपनी सत्ता सुदृढ़ कर लेने के बाद यह स्वाभाविक ही है कि ममता राज्य से बाहर ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की ओर भी देखें। फिर राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की विकल्पहीनता ममता के कद वाले किसी भी राजनेता को ललचा सकती है।
ऐसा नहीं है कि मोदी का विकल्प बनने की महत्वाकांक्षा सिर्फ ममता के मन में है। वर्ष 2014 में राजग से अलगाव के पीछे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मन में यह महत्वाकांक्षा भी एक बड़ा कारण रही, लेकिन मोदी की राष्ट्रव्यापी लहर और दुश्मन से फिर दोस्त बने लालू यादव की दबाव की राजनीतिक शैली ने उन्हें फिर वापस लौटने को बाध्य कर दिया। पिछले मुख्यमंत्रित्वकाल में अरविंद केजरीवाल जिस तरह मोदी से भिडऩे के बहाने ढूंढ़ते थे, उसके मूल में भी स्वयं को विकल्प के रूप में पेश करने की महत्वाकांक्षा ही थी, लेकिन पंजाब विधानसभा चुनावों में ध्वस्त मंसूबों और अपूर्ण राज्य दिल्ली के सीमित अधिकारों ने उन्हें उनकी सीमाओं का भी अहसास करवा दिया। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रहते अखिलेश यादव को भी लगा होगा कि वह मोदी का स्वाभाविक विकल्प बन सकते हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव और फिर लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव ने उनकी भी गलतफहमी दूर कर दी। लोकतंत्र में पिता विरासत में सिंहासन तो दे सकते हैं, पर राजनीतिक कद तो जनता ही तय करती है।
इस महत्वाकांक्षी तिकड़ी के अलावा मोदी का विकल्प बनने की स्वाभाविक महत्वाकांक्षा उन राहुल गांधी का स्थायी भाव माना जा सकता है, जिनकी कांग्रेस का ऐतिहासिक मान-मर्दन कर भाजपा ने लगातार दूसरी बार अकेलेदम स्पष्ट बहुमत हासिल कर केंद्र में सरकार बनायी है। बेशक दूसरे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें गिनती के लिहाज से कुछ बढ़ीं भी, पर यह मान-मर्दन कितना आहत करने वाला रहा, इसका अंदाजा नेहरू परिवार की परंपरागत सीट अमेठी से हार और फिर अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे से लगाया जा सकता है। तब से दो साल से भी ज्यादा समय बीत गया, लेकिन कांग्रेस अपना नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुन पायी। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस की बागडोर संभाल रही हैं। कहा कुछ भी जाये, पर कांग्रेस की राजनीति को समझने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि नया पूर्णकालिक अध्यक्ष नेहरू परिवार से ही होगा, और राहुल गांधी ही होंगे, पर चुनावी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर छोड़े गये पद पर वापसी के लिए माहौल भी तो बनना चाहिए। जाहिर है, यह माहौल कांग्रेसियों को ही बनाना था, लेकिन वे तो राग दरबारी के बजाय मौका मिलते ही स्वयंभू सुधारक बन गये।
फिर भी तय है कि अगले साल जब नये पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव होगा तो वह चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, क्योंकि कांग्रेस में नेहरू परिवार का कोई विकल्प नहीं। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि स्वयं कांग्रेस में विकल्पहीनता के चलते पुन: अध्यक्ष पद संभालने वाले राहुल गांधी वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बन पायेंगे? कहा जाता है कि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सुविचारित रणनीति के तहत राहुल गांधी की छवि अगंभीर और हास्यास्पद बनाने का अभियान चला रखा है, पर क्या कई बार वह स्वयं अपने विरोधियों को ऐसा मौका नहीं दे देते? कोरोना काल में सोशल मीडिया से संचालित राजनीति में मोदी सरकार पर हमला करने का कोई मौका राहुल गांधी नहीं चूकते, लेकिन इस वास्तविकता से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि तमाम ज्वलंत मुद्दों-समस्याओं पर वैकल्पिक नजरिया पेश करने में वह अभी तक विफल ही रहे हैं। कहना नहीं होगा कि लोकतांत्रिक राजनीति में वास्तविक विकल्प बनने के लिए नीतिगत-व्यवस्थागत वैकल्पिक नजरिया पहली शर्त है।
कह सकते हैं कि मुद्दों-समस्याओं पर वैकल्पिक नजरिया तो ममता बनर्जी ने भी पेश नहीं किया है, लेकिन एक बड़ा फर्क है। ममता तीन दशक से भी लंबे वामपंथी शासन के विरुद्ध संघर्ष कर पश्चिम बंगाल में जुझारू नेत्री के रूप में उभरीं और फिर मतदाताओं ने उन्हें लगातार तीसरी बार सत्ता का जनादेश भी दिया है। दूसरी-तीसरी बार मिला जनादेश उनके शासन की रीति-नीति पर मतदाताओं की मुहर भी माना ही जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि संघर्ष के दौरान हासिल जन विश्वास को वह सत्ता में रहते हुए भी बरकरार रखने में सफल रही हैं। दूसरा बड़ा फर्क संगठनात्मक ढांचा और लोकप्रियता का है। दो दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले कुछ राज्यों को छोड़ दें तो कांग्रेस का लगातार चुनावी पराभव राहुल गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ भी बता ही देता है। माना कि राहुल को बेहद प्रतिकूल परिस्थितियां विरासत में मिली हैं, पर नेतृत्व कौशल की असली परीक्षा भी तो प्रतिकूल परिस्थितियों में ही होती है।
लालकृष्ण आडवाणी सरीखे दिग्गज नेता को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित करने के बाद भी 2009 के लोकसभा चुनाव में जिस भाजपा की दो सीटें घट गयी थीं, उसने मोदी को चेहरा बनाने पर 2014 में अगर अकेलेदम स्पष्ट बहुमत हासिल कर दिखाया तो उनके नेतृत्व कौशल और लोकप्रियता का डंका देश भर में बजना ही है। नोटबंदी समेत कुछ विवादास्पद फैसलों के बावजूद 2019 में भाजपा को पिछली बार से भी ज्यादा सीटें मिलना निश्चय ही मोदी की लोकप्रियता के साथ-साथ विकल्पहीनता का भी परिणाम रहा, पर इसके मूल में भाजपा के विशाल संगठन और सुनियोजित रणनीति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए अगले लोकसभा चुनाव में मोदी का विकल्प बनने के लिए लोकप्रियता के साथ-साथ ऐसा संगठनात्मक ढांचा भी जरूरी होगा, जो चुनावी रणनीति को कारगर ढंग से अंजाम दे सके। कांग्रेस अभी तक जहां नेतृत्व संकट से ही जूझ रही है, ममता ने पश्चिम बंगाल में लोकप्रियता साबित करने के बाद अपनी तृणमूल कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे का शेष देश में भी विस्तार–अभियान शुरू कर दिया है।
बेशक सामान्य राजनीतिक समझ रखने वाला भी यह समझ सकता है कि किसी एक दल में भाजपा का विकल्प बनने का माद्दा नजर नहीं आता। ऐसे में विपक्षी दलों का गठबंधन ही एकमात्र संभावना नजर आती है, लेकिन गठबंधन का नेतृत्व स्वाभाविक ही सबसे बड़ा दल करेगा। अपने गौरवशाली अतीत और मौजूदा राजनीतिक आधार के चलते भी कांग्रेस स्वयं को विपक्ष का स्वाभाविक अगुआ मानती है, लेकिन मोदी का विकल्प बनने की ममता की कवायद कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए दोहरी चुनौती पेश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस के पश्चिम बंगाल से बाहर संगठनात्मक विस्तार में सबसे ज्यादा मार कांग्रेस पर ही पड़ रही है। पूर्वोत्तर राज्य असम से आने वाली महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव ही नहीं, गोवा, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों के परंपरागत कांग्रेसियों को भी ममता बेहतर विकल्प नजर आ रही हैं। मेघालय में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद सरकार बनाने से वंचित रह गयी कांग्रेस के 17 में से 12 विधायकों का पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के नेतृत्व में तृणमूल में शामिल हो जाना कांग्रेस के लिए खतरे की ऐसी घंटी है, जिसे ज्यादा समय तक अनसुना करना भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देगा।