लक्ष्मीकांता चावला –
जनता को जानना चाहिए कि उनके जनप्रतिनिधियों को कई विशेष अधिकार मिलते हैं। अगर कोई सरकारी अधिकारी उनको पूरा मान-सम्मान न दे या उनका उचित-अनुचित आदेश न माने तो उसे जनप्रतिनिधि की मानहानि मानकर विधानसभा या संसद के स्पीकर के समक्ष शिकायत की जा सकती है। स्पीकर महोदय बड़े से बड़े अधिकारी को बुलाकर डांट भी सकते हैं, दंड भी दिलवा सकते हैं। शायद इसीलिए जनप्रतिनिधियों का अपने अधिकारों के प्रति विवेकहीन दुराग्रह बन गया है। हाल ही में गुरदासपुर जिले के एक विधायक ने उस व्यक्ति को बुरी तरह थप्पड़ जड़ दिए, जिसने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए अपने विधायक से यह पूछा था कि उनके क्षेत्र में आज तक क्या विकास किया गया। विधायक ने उत्तर थप्पड़ और घूंसे से दिया। ऐसे ही जब मामले की खूब चर्चा हुई, विधायक की निंदा हुई तो स्वांग रचा गया कि प्रश्न करने वाले युवक की शब्दावली अशिष्ट थी। विडंबना कि उस युवक ने माफी मांगी।
कुछ समय पहले इंदौर के एक सत्तापति राजनेता ने जो बाद में विधायक भी बना, एक इंजीनियर को क्रिकेट के बैट से पीट दिया। थोड़ी-सी नाक बचाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व में उसे एक कारण बताओ नोटिस दिया, पर वह राजनीति के बड़े खिलाड़ी का बेटा था। फिर उसके बेटे को पार्टी से निकालने या दंड देने का साहस किसी ने न किया।
ऐसी ही दुर्घटना महाराष्ट्र में भी हुई। वहां भी सत्तापतियों के हाथों एक वरिष्ठ अधिकारी पीटा गया। उसके मुंह पर कीचड़ ही पोत दिया। आखिर क्या अधिकार केवल उनके ही हैं, जिनको अधिकार आम जनता ने दिया। विधायकों और सांसदों को सत्तापति बनाने के लिए जिन्होंने मतदान किया, दुख-सुख में संरक्षण के लिए अपना प्रतिनिधि बनाया, वही इतने उद्दंड हो जाएं कि जब चाहें, जिसे चाहें अपनी सत्ता के नशे में पीट दें, अपमानित करें या मुंह पर कीचड़ या कालिख पोत दें। डराने और धमकाने में भी हमारे जनप्रतिनिधि अनेकश: सभी सीमाएं लांघ जाते हैं। अभी-अभी हरियाणा से एक सांसद ने तो नेताओं का घेराव करने वाले किसानों को यह धमकी भी दे दी कि उनकी आंखें निकाल देंगे। हाथ तोड़ देंगे।
बहुत से मतदाता पूछते हैं कि अगर नेताजी चार या उससे ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों से वोट ले सकते हैं तो हम एक से ज्यादा स्थानों पर वोट क्यों नहीं डाल सकते। इसका उत्तर मिलना भी नहीं, मिला भी नहीं। अगर निष्पक्ष ढंग से सोचा जाए तो जो नेता एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ता है और सभी जगहों से विजयी होने के बाद त्यागपत्र देता है तो वहां पुन: चुनाव करवाने का खर्च सरकार पर क्यों डाला जाए। नियम तो यह होना चाहिए कि वह सारा खर्च वही विधायक या सांसद दे, जिसने एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा और पुन: चुनाव करवाने की स्थिति के लिये मजबूर किया।
सवाल है कि जहां न नेता का वोट है और न उसे उस क्षेत्र की कोई जानकारी है, वहां से चुनाव कैसे लड़ सकता है? आज तक कोई भी सरकार या चुनाव आयोग यह नियम नहीं बना सका कि जनता का प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में ही रहे, जिससे जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रख सके, उनकी कठिनाइयां दूर कर सके। हमारे देश के सैकड़ों ऐसे विधायक व सांसद हैं जो चुनाव जीतने के बाद अपने क्षेत्र से लगभग गायब रहते हैं। वे जानते हैं कि शायद ही वे इस क्षेत्र में चुनाव की मार्केट में दोबारा उतरें अन्यथा जिस पार्टी को उनकी जरूरत होगी वे स्वयं ही कोई सुरक्षित क्षेत्र चुनाव लडऩे के लिए दे देगी। जनता ठगी-ठगी सी रह जाती है। चुनावों में टिकट देने वाले जानते हैं कि यह पैराशूटी उम्मीदवार जनता के लिए नहीं चुने, अपितु संसद या विधानसभा में हाथ खड़े करने के लिए चुने हैं।
सर्वविदित है कि बहुत से जनप्रतिनिधि पंचायत से लेकर संसद तक जनता से दूर रहते हैं। विधानसभाओं और संसद में कभी उन्होंने जनता के हित के लिए मुंह नहीं खोला। बहुत से तो शायद यह भी नहीं जानते होंगे कि काल अटेंशन और स्थगन प्रस्ताव कैसे बनाए, दिए और पेश किए जाते हैं। सदन में उनकी उपस्थिति भी कम रहती है। एक कालेज विद्यार्थी को 75 प्रतिशत उपस्थिति देना आवश्यक है अन्यथा परीक्षा के लिए अयोग्य माना जाता है, पर इनकी उपस्थिति पांच प्रतिशत भी रहे तो ये माननीय सांसद व विधायक हैं। पूरा वेतन भत्ता लेते हैं। इनसे प्रश्न करने वाला कोई नहीं, क्योंकि ये जनता बेचारी के वोट लेकर वीआईपी हो गए। इसलिए अगर लोकतंत्र को स्वस्थ बनाना है तो जनता को भी ऐसे चुनावी उम्मीदवारों का विरोध करना चाहिए जो फसली बटेरे ज्यादा हैं, जनप्रतिनिधि नहीं। जो चार-चार सीटों पर चुनाव लड़ते हैं और कभी भी अपने चुनाव क्षेत्र से वफादारी नहीं निभाते। जनता को चाहिए कि जागरूक होकर ऐसे चुनावी खिलाडिय़ों को नकार दे जो जनप्रतिनिधि बनने के लिए नहीं, अपितु माननीय और वीआईपी बनने के लिए चुनाव लड़ते हैं।