Special on 31st July Katha Samrat Premchand Jayanti

रचनाकारों के लिए साहित्यिक तीर्थ है कलम के सिपाही की जन्मस्थली

विमल शंकर झा – प्रेमचंद : समाज का दर्पण का कहे जाने वाले साहित्य के सृजेताओं की मूल भावना होती है कि है कि एक खूबसूरत दुनिया के सृजन के लिए समाज के श्वेत पक्ष को उजागर कर इसके श्यामल पहलू के विरुद्ध जागरुक किया जाए । इस दृष्टि से कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद भारतीय हिंदी साहित्य जगत के प्रेरणापुंज ही नहीं बल्कि एक अमूल्य धरोहर हैं ।

कर्मभूमि से रंगभूमि तक अपनी जादुई लेखनी से मानवीय संवेदना, समानता और गंगाजमुनी संदेश देने वाले कलम के सिपाही की जन्मभूमि लमही बनारस देश के रचनाधर्मियों के लिए एक तीर्थ की तरह है । लेकिन औद्योगिक तीर्थ के संस्कृतिकर्मियों को इस बात का अफसोस है कि इतने बड़े साहित्यकार की तपोभूमि को देश दुनिया में प्रसिद्धि के बाद भी उस तरह विकसित नहीं किया गया है, जैसा सम्मान विश्वप्रसिद्ध लेखक टालस्टाय, मेक्सिम गोर्की और लूसून के जन्म स्मारकों को उनके देश में मिला है ।

विदेशी दासता के बंधन से देश को मुक्त कराने के साथ समाज को जातपांत और महाजनी सभ्यता के मकडज़ाल से मुक्ति चेतना जगाने में प्रेमचंद के दीर्घ रचनात्मक योगदान का अंदाज उनकी जन्म स्थली से लगाया जा सकता है । गोदान से ईदगाह तक 3 सौ कालजयी कहानियों और 14 उपन्यासों के विपुल कृतित्व व आदर्श व्यक्तित्व की अनूठी हस्ती को अपनी कोख से जन्म देने वाली मिट्टी से सुवासित होना भिलाई के संस्कृतिकर्मियों के लिए खुली आंखों से देखे जाने वाले सपने के सच होने जैसा था ।

रंगकर्मियों और साहित्यकारों के मुताबिक अपनी वैचारिक दृष्टि से साहित्य सृष्टि में विश्व कथा सम्राट की पहचान बनाने वाले कलम के सिपाही की उत्तरप्रदेश के लमही ( बनारस ) में स्थित विश्व प्रसिद्ध जन्मभूमि मुंशी प्रेमचंद जन्म स्मारक अंधेरे में एक प्रकाश स्ंतभ की तरह है । यही वह तपोभूमि है जहां उन्होंने बचपन की शरारतों के बीच साहित्य के बीज उपजे और बरगद की छांव तले गुल्ली डंडा खेलते हुए गुल्ली डंडा कहानी और अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र जैसी कई अमर रचनाएं लिखीं ।

और जहां से आज सदी भर बाद भी प्रासंगिक बनी 4 दशक की अपनी प्रेरक लेखन यात्रा का आगाज किया था । तथा यहीं जीवनसंगिनी शिवरानी का मंगलसूत्र भी टूटा और अमर कथाकार की चंद लोगों के साथ निकली अंंतिम यात्रा देख राहगीर ने पूछा था कि कै रहल..? भिलाई के वरिष्ठ रंगकर्मी और छग इप्टा के अध्यक्ष मणिमय मुखर्जी बताते हैं कि मौजूदा नफरत और हिंसा के माहौल में देश को कबीर के ढाई आखर प्रेम का संदेश देने संस्कारधानी राजनांदगांव से निकली इप्टा के संस्कृतिकर्मियों की देशव्यापी सांस्कृतिक यात्रा के दौरान लमही और बनारस में प्रेमचंद सहित अपने सांस्कृतिक पुरखों के जन्म-कर्म स्थलियों की सांझी विरासत का दिगदर्शन एक आह्लादकारी अनुभव था ।

देश के रचनाकारों व पाठकों के लिए तीर्थ की मानिंद लमही में आंखें खोलने के बाद अभाव, बिखराव और तनाव के बीच प्रेरणास्पद साहित्य सफर लोगों को समभाव का पैगाम देने वाले प्रेमचंद के पैतृक घर को यूपी के संस्कृति विभाग द्वारा प्रेमचंद स्मारक के रुप में विकसित किया है । पत्नी के तगादे पर बनाए 2 मंजिला पक्के मकान के नीचे उनका लिखने पढऩे का कमरा आज भी है, जहां उनका जन्म हुआ था । इसमें उनकी मेज, कलम, पेन, पलंग, किताबों व हस्तलिपि के साथ प्रेमचंद की पिता व 2 पुत्रों श्रीपत व धनपत राय की पुरानी तस्वीरें टंगी हैं । बाजू में उनकी किताबों की लायब्रेरी व परिसर में मात्र 5 फीट की मूर्ति उनकी सादगी व हिमालयीन ऊंचाई का अहसास करात है ।

सामने पुराना बरगद का पेड़ है,जिसके नीचे बैठ उन्होंने ठाकुर का कुंआ जैसी मार्मिक कहानी लिख जातिय भेदभाव के खिलाफ संदेश दिया था । इसी बरगद के नीचे रंगकर्मी मणिमय, राकेश,आशीष, राजेश श्रीवास्तव व वर्षा आदि संस्कृतिकर्मियों ने इस कहानी का नाट्य मंचन कर उनका भावभीना स्मरण कर बताया कि सदी बाद भी स्थिति ठाकुर का कुआं जैसी ही है । हालात बदलने के साथ इतने महान साहित्यकार के जन्म स्मारक को भी गरिमा के अनुरुप भव्य रुप मे विकसित किए किए जाने की जरुरत है ।

यह कम सुखद संयोग नहीं है कि प्रेमचंद के उपनगर लमही से लगे बनारस यानी काशी की तंग गलियों में कई मशहूर साहित्यकारों और कलाकारों की सांस्कृतिक धरोहर है,जिसे सहेजने की जरुरत है । आधुनिक हिंदी साहित्य व नाट्यशास्त्र के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र,गंगाजमुनी तहजीब का तहजीब का पैगाम देने वाले कबीर व शहनाईवादक बिस्मिला खान, शहनाईवादक पं. रामबख्श मिश्र सहित जयशंकर प्रसाद जैसी कई महान विभूतियों की बतौर जन्म स्थली के वैचारिक जीवनदर्शन के वैभव से रुबरु होना भी सांस्कृतिक यात्रा के सहयात्रियों के बेहद भावुक व प्रेरक अनूभूति थी ।

मणिमय बताते हैं कि इतनी संकरी गलियों में अपने सृजनात्कता से देश को एकसूत्र में पिरोने वालों के संघर्ष के पुश्तैनी घरों, शिलालेख, रचनाग्रंथों के साथ परिवारवालों से मिलना यादगार था । बिस्मिला के पौत्र रमीश हसन से परदादा के शहनाई के रागों, प्रसाद व भारतेंदु के परिजनों से नाटकों के रोचक इतिहास सुनने के बाद कबीर की समाधि मूल गादीपीठ में उनकी सांप्रदायिक एकता की रचनाओं से उनकी 5 वीं पीढ़ी ने सांस्कृतिक यात्रियों को विभोर कर दिया ।

उन्होंने बताया कि कबीर आश्रम में कबीर से शास्त्रार्थ के पहले ही शरणागत हुए दक्षिण केे विद्वान सवानंद के बाद दर्शनार्थ पहुंचे टैगोर के उपरांत 1934 आए गांधी को शिष्य महंत रामविलास दास ने चांदी की तस्तरी में कबीर के ग्रंथ के साथ मानपत्र व 105 रुपए भेंट किए थे ।

रंगकर्मियों ने यहां कबीर के प्रिय भजन मेरा तेरा मनवा कैसे एक होई गाकर उनके प्रेम के संदेश से समाज को प्रेरित करने का नवसंकल्प लिया ।

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