अनूप भटनागर –
न्यायिक हस्तक्षेप के बाद देश की सभी जेलों और पुलिस थानों में महत्वपूर्ण स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने और कैदियों तथा आरोपियों को यातना नहीं देने के निर्देशों के बावजूद हिरासत में मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कैदियों के प्रति सख्ती का ही नतीजा है कि पुलिस और न्यायिक हिरासत में करीब पांच व्यक्तियों की रोजाना मृत्यु होती है। यह तथ्य थानों और जेलों में कैदियों के मानवाधिकारों के प्रति पुलिस तथा जेल प्राधिकारियों की गंभीरता पर सवाल उठाने के लिए काफी है।
न्यायालय ने बार-बार कहा है कि जेलों में बंद कैदियों और थानों में बंद आरोपियों को भी संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार प्राप्त हैं और उनके इन अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
न्यायालय ने 2015 में एक फैसले में कहा था कि राज्य सरकारें मानव अधिकार संरक्षण कानून, 1993 की धारा 30 के अनुरूप अपने यहां मानवाधिकार अदालतें स्थापित करेंगी। न्यायालय ने कैदियों के मानव अधिकारों के हनन की घटनाओं को रिकॉर्ड करने के लिए सभी जेलों और थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के आदेश दिये, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हिरासत में मौत के घटनास्थल के आसपास के लगे सीसीटीवी काम नहीं कर रहे होते हैं। यही नहीं, अक्सर हिरासत में मौत के मामले में वरिष्ठ अधिकारी तत्काल सख्त कार्रवाई करने की बजाय इसे रफा-दफा करने का प्रयास करते हैं। लेकिन न्यायालय का हस्तक्षेप होने पर पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी हरकत में आते हैं और संबंधित मामले से जुड़े थाने के प्रभारी और दूसरे पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं। कई बार तो अदालत को पुलिस हिरासत में मौत के मामले की जांच सीबीआई को भी सौंपनी पड़ जाती है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार हिरासत में यातनाएं देने के आरोप में 2020-21 में 236 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2019-20 में इनकी संख्या 411 और 2018-19 में 542 थी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी बताती है कि पिछले 10 साल में 1004 व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मौत हुई।
दिल्ली की कड़ी सुरक्षा वाली तिहाड़ जेल से लेकर पुलिस के थानों तक में हिरासत में कैदियों की मौत का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। हाल ही में तिहाड़ जेल में बंद विचाराधीन कैदी अंकित गुर्जर की जेल अधिकारियों द्वारा कथित रूप से बुरी तरह पिटाई की वजह से मौत और आगरा में पुलिस हिरासत में एक दलित की मौत की घटना सुर्खियों में रही है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तिहाड़ जेल में गैंगस्टर अंकित गुर्जर की कथित हत्या का मामला सीबीआई को सौंपा है। इस घटना में अंकित की दूसरे कैदी के साथ हुई कथित मारपीट के दौरान जेल में लगे सीसीटीवी काम नहीं करने का दावा किया गया। आरोप है कि इस मामले में जेल अधिकारियों ने अंकित की बेरहमी से पिटाई की थी। यही वजह है कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट शब्दों में कहा कि जेल की दीवारें कितनी भी ऊंची हों, जेल की नींव भारत के संविधान में निहित कैदियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले कानून के शासन पर रखी जाती है।
आगरा के एक थाने में दलित अरुण वाल्मीकि की 19 अक्तूबर की रात में पुलिस हिरासत में मौत की घटना को ही लें। इस मामले में जगदीशपुर थाने के मालखाने से 25 लाख चुराने के आरोप में 18 अक्तूबर को युवक को गिरफ्तार किया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार की सख्त कार्रवाई की वजह से यह राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सका।
इससे पहले, सितंबर महीने में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जौनपुर में पुलिस हिरासत में 24 वर्षीय पुजारी कृष्ण यादव की मौत के मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी थी। इस पुजारी को 11 फरवरी, 2021 की रात में गिरफ्तार किया था और अगले ही दिन पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी थी। उच्च न्यायालय की पहली नजर में ऐसा लगता है कि आरोपी पुलिसकर्मियों ने अपराध किया है, लेकिन उच्च अधिकारियों ने इस पर पर्दा डालने का प्रयास किया।
कोविड-19 में लॉकडाउन के उल्लंघन के आरोप में 19 जून, 2020 को तमिलनाडु के तूत्तुक्कुडि के संत केलम थाने में हिरासत में लिए गए पिता-पुत्र पी. जयराज और उनके बेटे जे. बेनिक्स की मौत का मामला भी ऐसा ही था। मामले के तूल पकडऩे पर इसकी जांच सीबीआई को सौंपी गयी, जिसने 26 सितंबर को नौ पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या और अन्य आरोपों के साथ अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया है। एक गैर-सरकारी संगठन के अनुसार हमारे देश में पुलिस द्वारा गिरफ्तार आरोपियों में से करीब 63 प्रतिशत की मौत उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने से पहले ही हो जाती है। अगर इस तथ्य पर विचार किया जाये तो सवाल उठता है कि भले-चंगे आरोपी की पुलिस हिरासत में आने के 24 घंटे के भीतर ही मौत कैसे हो जाती है। गृह मंत्रालय ने 16 मार्च, 2021 को संसद को बताया था कि देश में वर्ष 2020-21 में 28 फरवरी तक न्यायिक हिरासत में 1685 और पुलिस हिरासत में 86 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी।
इसी तरह, 2019-20 के दौरान न्यायिक हिरासत में 1584 और पुलिस हिरासत में 112 व्यक्तियों की मृत्यु हुई जबकि 2018-19 में 1796 व्यक्तियों की न्यायिक हिरासत और 136 व्यक्तियों की पुलिस हिरासत में मृत्यु हुई। उच्चतम न्यायालय ने हिरासत में कैदियों के साथ मारपीट और उनकी मृत्यु की बढ़ती घटनाओं पर अंकुश पाने के लिए 18 दिसंबर, 1996 और फिर 24 जुलाई, 2015 को फैसले सुनाये। लेकिन ऐसा लगता है कि न्यायिक निर्देशों पर भी कारगर तरीके से अमल नहीं हो रहा है। हिरासत में लोगों की मृत्यु होना चिंताजनक है।