Punjab will also decide Kejriwal's staturePunjab will also decide Kejriwal's stature

राजकुमार सिंह –
कल जब पंजाब के मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे तो अपने लिए नयी सरकार ही नहीं चुनेंगे, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व संकट से गुजर रहे विपक्ष की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेंगे। दशकों तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल ही पंजाब की राजनीति के प्रमुख किरदार रहे। बेशक भाजपा और बसपा ने भी अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करवायी, लेकिन अक्सर इन बड़े दलों के छोटे साझीदार के तौर पर ही। वर्ष 2014 में पहली बार एक नये राजनीतिक दल ने पंजाब की चुनावी राजनीति में धमाकेदार एंट्री की। यह दल है, अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी, जो अब आप के संबोधन से लोकप्रिय है। लगातार तीन कार्यकाल तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेस और उसकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी भाजपा को करारी शिकस्त देकर आप दिल्ली की सत्ता पर पहले ही काबिज हो चुकी थी। कुछ ही अरसा पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आंदोलन से उपजी आप ने जिस तरह देश के दोनों प्रमुख दलों को हाशिये पर धकेल कर देश की राजधानी दिल्ली (बेशक उसे पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है) की सत्ता पर कब्जा किया, उसने देश ही नहीं, दुनिया को भी चौंका दिया।
शायद इसलिए भी कि अराजनीतिक लोगों के समूह द्वारा गठित इस दल ने चुनाव और सत्ता राजनीति में माहिर दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों को अप्रत्याशित मात दी थी। बेशक पहले चुनाव में बहुमत का आंकड़ा कुछ दूर रह गया था, लेकिन जब केजरीवाल ने मध्यावधि चुनाव का दांव चला तो मतदाताओं ने सारी कसर निकालते हुए कांग्रेस-भाजपा को मानो राजनीतिक वनवास ही दे दिया। आप ने यह करिश्मा तब कर दिखाया, जब नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार भाजपा (तीन दशक लंबे अंतराल के बाद) लोकसभा में अकेले दम बहुमत हासिल कर केंद्र की सत्ता पर काबिज हो चुकी थी। बेशक उन्हीं लोकसभा चुनाव में आप दिल्ली में तो खाता खोलने में नाकाम रही, लेकिन पंजाब में अपनी शानदार राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करायी थी—चार सीटें जीत कर। पहले दिल्ली और फिर पंजाब, आप की इस अप्रत्याशित चुनावी सफलता का निष्कर्ष यही निकाला गया कि परंपरागत राजनीति से जन साधारण का मोहभंग हो रहा है। यह भी कि अब राजनीतिक दलों को आम आदमी और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी मुश्किलों को अपने चुनावी एजेंडा में प्रमुखता से शामिल करना होगा। इसे उत्तर भारत में मुफ्त की रेवडिय़ों की लोकलुभावन चुनावी राजनीति की विधिवत एंट्री भी कह सकते हैं। बेशक मुफ्त बिजली-पानी से लेकर महिलाओं और बेरोजगार युवाओं को नकदी बांटने के वादों से वोट बटोर सत्ता में आ कर उन पर अमल करने वाले राजनीतिक दल या नेता अपने खजाने से खर्च नहीं करते, बल्कि सरकारी खजाने का मुंह ही खोलते हैं, जो दरअसल ईमानदार करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा होता है, जिसे वोट की राजनीति के बजाय सर्वांगीण विकास पर खर्च होना चाहिए।
बेशक बहस और विश्लेषण का मुद्दा यह भी है कि कितने चुनावी वादों पर कब कितना अमल किया जाता है, लेकिन तेजी से फैलती मुफ्त की राजनीति को सरकारों द्वारा उद्योगों या अमीरों को दिये जाने वाले तमाम तरह के राहत पैकेज के मद्देनजर अब समाज कल्याण की अवधारणा से जोड़ कर देखा-दिखाया जाने लगा है। मुफ्त की राजनीति के सहारे ही सही, अधूरे राज्य दिल्ली में भी अपने वादों पर अमल कर अरविंद केजरीवाल ने उत्तर भारत में खुद को ऐसी राजनीति का ब्रांड बना लिया है। जो लोग कल तक उनकी इस राजनीति का मजाक उड़ाते थे या विरोध करते थे, आज उन्हीं का अनुसरण करते नजर आ रहे हैं। जिन पांच राज्यों में अब विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें से किसी के लिए भी किसी भी दल का चुनाव घोषणापत्र देख लीजिए बेहतर शासन के दृष्टिकोण के नाम पर मुफ्त की रेवडिय़ों की फेहरिस्त ही मिलेगी। अगर देश भर में किये जाने वाले ऐसे लोकलुभावन चुनावी वादों पर अमल की लागत का अनुमान लगाया जाये तो शायद आंकड़ा देश के बजट से भी आगे निकल जायेगा। दक्षिण भारत से शुरू हुई लोकलुभावन वादों से वोट बटोरने की यह राजनीतिक प्रवृत्ति अब जिस तरह सभी राजनीतिक दलों में पैर पसार रही है, उससे लगता नहीं कि तार्किक असहमति को भी खुले दिलो-दिमाग से सुना जायेगा।
पंजाब विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार आप सत्ता की प्रमुख दावेदार नजर आ रही है तो उसका मुख्य कारण, दोनों प्रमुख दलों : कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल से मोहभंग के अलावा, मुफ्त की राजनीति और दिल्ली में वैसे वादों पर अमल का केजरीवाल का ट्रैक रिकॉर्ड ही है, वरना तो ऐसे वादे करने में अब पीछे कोई भी दल नहीं रहा। 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव प्रचार में भी प्रतिद्वंद्वियों से आगे नजर आ रही आप अगर निर्णायक क्षणों में लंबे फासले से दूसरे स्थान पर रह गयी थी, तो उसके कई कारण बताये गये। जाहिर है, खुद आप के रणनीतिकारों को जो कारण नजर आये, वे विरोधियों को नजर आये कारणों से अलग थे। सच यह भी है कि 2014 में जीते चार लोकसभा सदस्यों का मामला हो या फिर 2017 में जीते 20 विधायकों का—आप उन्हें अगले चुनाव तक भी एकजुट नहीं रख पायी। निश्चय ही इसके लिए केजरीवाल किसी अन्य को दोषी नहीं ठहरा सकते और असल कारण उन्हें आप की राजनीति में ही खोजने होंगे। उस बिखराव के बावजूद अगर इस बार भी विधानसभा चुनाव में आप पंजाब में सत्ता की प्रमुख दावेदार नजर आ रही है तो मान लेना चाहिए कि मतदाताओं का परंपरागत राजनीतिक दलों से मोहभंग इतना ज्यादा है कि वे नया प्रयोग करना चाहते हैं। कांग्रेस ने नेतृत्व परिवर्तन कर और फिर आप के चुनावी वादों की तर्ज पर तत्काल राहत की घोषणाएं कर संभावित चुनावी नुकसान से बचने की कोशिश की है तो भाजपा से तकरार के बाद शिरोमणि अकाली दल ने बसपा से गठबंधन कर विजयी समीकरण बनाने की कवायद की है। सीमावर्ती राज्य होने के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पंजाब की संवेदनशीलता के मद्देनजर केजरीवाल की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। केजरीवाल की सत्ता महत्वाकांक्षाओं की बाबत उनके पुराने मित्र और आप के संस्थापक सदस्य रहे कवि कुमार विश्वास का ऐन चुनाव से पहले खुलासा आप की चुनावी संभावनाओं को ग्रहण भी लगा सकता है।
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही आप को एक-दूसरे की फोटोकॉपी बताते हैं, पर सच यह है कि केजरीवाल की राजनीति इन दोनों की राजनीतिक शैली का मिश्रण है। वह धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद, दोनों की बात एक साथ कर लेते हैं। शायद इसीलिए सत्ता से त्वरित लाभ की आस में न कांग्रेस के परंपरागत मतदाता को झाड़ू का बटन दबाने में संकोच होता है, न ही भाजपा के परंपरागत मतदाताओं को। आखिर दिल्ली में आप ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों के ही परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगायी। पंजाब में तो वह शिरोमणि अकाली दल के धार्मिक रुझान वाले परंपरागत वोट बैंक तक में सेंध लगाती नजर आ रही है। पंजाब के मतदाताओं ने अगली सरकार के लिए किसके पक्ष में जनादेश दिया—यह 10 मार्च को पता चल जायेगा, लेकिन अगर यह आप के पक्ष में हुआ तो उसका असर विपक्ष की राष्ट्रीय राजनीति पर पड़े बिना भी नहीं रहेगा। लगातार चुनावी पराभव झेल रही कांग्रेस में जैसी भगदड़ मची है, उसकी स्वाभाविक प्राथमिकता विपक्ष का नेतृत्व करने से पहले अपना अस्तित्व बचाना होगी। उस स्थिति में विपक्ष के नेतृत्व की दौड़ मुख्यत: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच रह जायेगी। माना कि पश्चिम बंगाल की गिनती देश के बड़े राज्यों में होती है,पर दिल्ली के बाद पंजाब में भी आप की सरकार बन जाने पर केजरीवाल उस अंतर को मिटा पाने की स्थिति में आ जायेंगे। बेशक कुशल हिंदी वक्ता होना भी अंतत: राष्ट्रीय राजनीति में केजरीवाल का कद बढ़ायेगा ही, लेकिन तभी जब दिल्ली के अलावा भी किसी राज्य में आप की सरकार बन पाये– जिसकी संभावना पंजाब से बेहतर कहीं और नजर नहीं आती।

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